Category Archives: कला

चेहरा बदल जाता है, चाल नहीं-व्यंग्य कविता (Face turns, not tricks – satirical hindi poem)


इंसान के चेहरे बदल जाते हैं
नहीं बदलती चाल।
खून खराबा करने वाले
हाथ बदल जाते हैं
वही रहती तलवार और ढाल।

इंसान से ही उगे इंसान
संभालते उसका खानदान
जमाने को काबू करने का मिला जिनको वरदान,
पांव हमेशा पेट की तरफ ही मुड़ता है,
दौलत से ही किस्मत का साथ जुड़ता है,
बड़े आदमी करते दिखावा
जमाने का भला करने का
मगर लूटते हैं गरीब का दान,
छोटे आदमी के हिस्से आता है अपमान,
थामे अपनी अगली पीढ़ी का झंडा
लुटेरे लूट रहे जमाने को
लगे हैं कमाने को
अपनी दौलत शौहरत देकर
अपनी औलाद में जिंदा
रहने की ख्वाहिश पाले
मौत की सोच पर लगा ताले
दौड़ जा रहे हैं इज्जतदार लोग,
लिये साथ पाप और रोग
वाह री कुदरत! तेरा कमाल।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
————————————-

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ख्वाब जब हकीकत बनते हैं-हिन्दी शायरी (khavab aur haqiqut-hindi shayri)


सपने जैसे शहर में
ख्वाब लगती उस इमारत की छत के नीचे
रौशनी की चमक से आंखें चुंधिया गयी हैं
फिर याद आती है
पीछे छोड़ आये उस शहर और घर की
जहां अंधेरे भी अक्सर आ जाते हैं।
राहें ऊबड़ खाबड़ है
गिरने का डर साथ लिये हर पल चलते जाते हैं
सपना जो सच बन कर सामने खड़ा है
फिर एक ख्वाब बन जायेगा
लौटकर कदम जाने हैं अपने शहर और घर
कितना अजीब है
अपना सच हमेशा साथ रहता है
चाहे भले ही सपनों की दुनियां में
सच होकर सामने आ जाये
ख्वाब जब हकीकत बनते हैं
तब भी पुरानी याद कहां छोड़ पाते हैं।
……………………..

कवि और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हमदर्दी बेजान होकर जताते-हिन्दी व्यंग्य कविता (bezan hamdardi-hindi satire poem)


अक्सर सोचते हैं कि
कहीं कोई अपना मिल जाए
अपने से हमदर्दी दिखाए
मिलते भी हैं खूब लोग यहाँ
पर इंसान और शय में फर्क नहीं कर पाते.
हम अपने दर्द छिपाते
लोग उनको ही ढूंढ कर
ज़माने को दिखाने में जुट जाते
कोई व्यापार करता
कोई भीख की तरह दान में देता
दिल में नहीं होती पर
पर जुबान और आखों से दिखाते.
हमदर्दी होती एक जज़्बात
लोग बेजान होकर जताते.
दूसरे के जख्म देखकर मन ही मन मुस्कराते.
—————————

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तीक्ष्ण बुद्धि-हास्य कविता (sharp mind-hasya kavita)


आज के बच्चे
अपने माता पिता के बाल्यकाल से
अधिक तीक्ष्ण बुद्धि के पाये जाते
यह सच कहा जाता है।
किस नायिका का किससे
चल रहा है प्रेम प्रसंग
अपने जन्मदिन पर नायक की
किस दूसरे नायक से हुई जंग
कौन गायक
किस होटल में मंदिर गया
कौन गीतकार आया नया
कौनसा फिल्मी परिवार
किस मंदिर में करने गया पूजा
कहां जायेगा दूजा
रेडियो और टीवी पर
इतनी बार सुनाया जाता है।
देश का हर बच्चा ज्ञान पा जाता है।

……………………………

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किसी को रात डराती,किसी को दिन-हिन्दी शायरी (din aur raat-hindi shayri)


हमने देखा था उगता सूरज
उन्होने देखा डूबता हुआ
वह कर रहे थे चंद्रमा की रौशनी में
जश्न मनाने की तैयारी
पर हमने देखा था पूरा दिन
हमारा मन भी था डूबा हुआ
वह आसमान में टिमटिमाते तारों की
बात करते हुए खुश हो रहे थे
जबकि हमारा बदन था
तब भी पसीने की बदबू लिया हुआ
सबकी जमीन और आसमान
अलग-अलग होते हैं
किसी को रात डराती है तो किसी को दिन
किसी को भूख नहीं लगती किसी को सताती है
इसलिए सब होते हैं अकेले
क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ
—————————–

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क्रिकेट और फिल्म में सफलता का साया-हास्य कविता(cricket and film-hasya kavita


नायिका ने बहुत किया अभिनय
पर चलचित्रों में सफलता का
दौर नहीं चल पाया।
नंबर वन की दौड़ में न पहुंचने पर
उसने प्रेमी निदेशक से अफसोस जताया।
तब वह बोला-
‘‘लगता है कि अपना नाम
फिल्म बाजार में ऐसे नहीं चलेगा,
केवल किसी अभिनेता के साथ
तुम्हारे नकली इश्क से मामला नहीं बनेगा,
मेरे अंदर एक नया विचार चल रहा है,
चलचित्र जगत की ऊंचाई पर तुम पहुंचो
यह सपना मेरे अंदर भी पल रहा है,
जिस तरह क्रिकेट और फिल्म का
रिश्ता आपस में बन गया है
उसका लाभ उठाओ,
किसी कुंवारे क्रिकेट खिलाड़ी से
इश्क का प्रचार करवाओ,
घूमते हुए फोटो खिंचवाना और
किसी मैच में जाकर उसके लिये
बजाना जोर से तालियां,
मेरे से प्रेम की बात कोई करे तो
देना चाहे मुझे खुलेआम गालियां,
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
होगी कृपा उनकी
तुम्हारे साथ होगा सफलता का साया।
चलचित्रों से पिटने की हट जायेगी छाया।
…………………………..

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बासी खबर में उबाल-हिंदी व्यंग्य कविता (basi khabar men ubal-hindi vyangya kavita)


अखबार में छपी हर खबर
पुरानी नहीं हो जाती है।
कहीं धर्म तो कहीं भाषा और जाति के
झगड़ों में फंसे
इंसानी जज़्बातों की चाशनी में
उसके मरे हुए शब्दों को भी
डुबोकर फिर सजाया जाता
खबर फिर ताजी हो जाती है।
………………………..
कौन कहता है कि
बासी कड़ी में उबाल नहीं आता।
देख लो
ढेर सारी खबरों को
जो हो जाती हैं बासी
आदमी जिंदा हो या स्वर्गवासी
उसके नाम की खबर
बरसों तक चलती है
जाति, धर्म और भाषा के
विषाद रस पर पलती है
हर रोज रूप बदलकर आती
अखबार फिर भी ताजा नजर आता।

………………………….

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हिंदी दिवस:व्यंग्य कवितायें व आलेख (Hindi divas-vyangya kavitaen aur lekh)


लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
……………………………
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
……………………….
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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वस्त्रों के पैमाने शर्म का आधार मत बनाओ-व्यंग्य कविता (Clothes do not make the basis of shame scale – satirical poem)


वासनओं पर जितना नियंत्रण करोगे
वह बढ़ती जायेंगी।
तुम उन्हें भगाने की कोशिश मत करो
वह तुम्हें दौड़ायेंगी।

समाज को स्वच्छ रखने का
ख्याल बहुत अच्छा है
पर यहां हर कोई नहीं बच्चा है
वस्त्र पहनने की शर्त
आदमी ने खुद ओढ़ी है
आचरण की तरफ जिंदगी स्वयं मोड़ी है
वस्त्रों के पैमाने शर्म का आधार मत बनाओ
अल्प वस्त्र पहनकर नर नारियां
बटोर रहे हैं तालियां
वस्त्रहीन न घूमने का कायदा
उनको दे रहा है आधुनिक बनने फायदा
परंपराओं का वास्ता देकर
उन्हें मत चमकाओ
तोड़ने की भावनाऐं अधिक बढ़ जायेंगी।

खत्म करो सारे नियंत्रण
भेजो वस्त्र हीनता को आमंत्रण
फिर भी सारा जमाना वस्त्र पहनेगा
वरना गर्मी में जल जायेगा
सर्दी में बर्फ की तरह जम जायेगा
पर अल्प वस्त्रों को दोहरा खेल
नहीं चल पायेगा
जब देंगे वस्त्रहीन उनको ललकारेंगे
अल्प वस्त्र वाले आधुनिकता के भ्रम से
और लोगों की वाह वाह से भागेंगे
समाज के चलने की है अपनी राह
अल्पवस्त्रों को देखकर क्यों भरते आह
सौदागर मनोरंजन के नाम पर खेल रहे हैं
भले लोग हतप्रभ होकर सब झेल रहे हैं
वस्त्रहीनों को भी खुलकर सड़क पर आने दो
कमाई शौहरत जिन्होंने अल्पवस्त्रों से
उनको भी चुनौती मिल जाने दो
मनोरंजन को खेल को बन जाने दो संघर्ष
मत करो अमर्ष
जिनको अपनी इज्जत प्यारी है
वह कोई तमाशा नहीं करेंगे
वस्त्र उतारने के खेल में
जो चढ़ गये है बुलंदियों पर
पर वह भी कोई आशा नहीं करेंगे
पर्दे पर रोज आयेंगे नये वस्त्रहीन नायक नायिकायें
बदल जायेंगी सारी परिभाषायें
कितना भी कोई शौहरत वाला क्यों न हो
वस्त्रहीन दिखने से घबड़ाता है
जब होगी अपने से अधिक बलशाली
वस्त्रहीन आदमी की चुनौती
मांगने लगेंगे पानी
सब जानते हैं कि वस्त्रहीनों से
सर्वशक्तिमान भी डरता है
अभी तक समाज पर हंस कर
उसी से बटोरी है वाह वाही
उसकी फब्तियां उनको दहलायेंगी।
………………………..

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बाजार में सजा स्वयंवर-हास्य व्यंग्य (bazar men swyanbar-hindi hasya vyangya)


वैसे तो भारतीय संस्कृति और संस्कारों में लोगों को ढेर सारे दोष दिखाई देते हैं पर फिर भी वह उसमें तमाम कथ्यों और तथ्यों की पुनरावृत्ति करते वही दिखाई देते हैं। भारतीय ग्रंथों में वर्णित हैं स्वयंवर की प्रथा। इसमें लड़की स्वेच्छा से वर का चुनाव करती है। भारतीय समाज में स्त्री को समान स्थान देने का दावा करने वाले इसी प्रथा का उदाहरण देते हैं।
सच बात तो यह है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मनुष्य मन को मोह लेने वाले सारे तत्व हैं। इससे आगे यह कहें कि जैसे जिसकी दृष्टि है वैसे ही वह उसे दिखाई देते हैं। हम अपने इन्हीं ग्रंथों को देखें तो उनका यह संदेश साफ है कि जिस दृष्टि से इस दुनियां को देखोगे वैसे ही दिखाई देगी। भारतीय ग्रंथों से आगे अन्य कोई सत्य ढूंढ नहीं सकता। भारत पर हमला करने वालों ने सबसे पहले उन स्थानों को जलाया और नष्ट किया जहां से पूरे देश में ज्ञान पहुंचता था। उन स्थानों पर योगी, योद्धा और युग का निर्माण होता था।
यही हमलावर अपने साथ आधे अधूरे कचड़ा बुद्धि वाल ज्ञानी भी ले आये जिन्होंने चमत्कारों और लोभ के सहारे यहां अपने ज्ञान का प्रचार किया। उन्होंने समाज में भेद स्थापित किये और यहां अपना परचम फहराया।

वह और उनके चेले माया की चमक में उस गहरे ज्ञान को क्या समझते? उन्होंने तो बस हाथ ऊपर उठाकर सर्वशक्तिमान से धन ,सुख और दिल की शांति मांगना ही सिखाया। इसे हम सकाम भक्ति का भी सबसे विकृत रूप कह सकते हैं। जीवन का अंतिम सत्य मौत है, पर उन्होंने अपने को जिंदा दिखाने के लिये मुर्दों को पूजना सिखाया।
सुना है आजकल एक अभिनेत्री का स्वयंवर का प्रत्यक्ष प्रसारण किसी टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है। स्वयंवर भारतीय समाज की एक आकर्षक और मन लुभावनी परंपरा रही है पर यह सभी लड़कियों के लिये नहीं है। स्वयंवर अधिकतर धनी मानी और राजसी युवतियों के भी इस आशा के साथ होते थे क्योंकि उसमें योद्धा, बुद्धिमान और सुयोग्य वर आने की संभावना अधिक होती थी। सामान्य लड़कियों के लिये स्वयंवर कभी आयोजित किये गये हों इसकी जानकारी नहीं है। भारतीय महापुरुषों तथा परंपराओं को सही ढंग से लोग नहीं इसलिये इन स्वयंवरों का इतिहास भी जानना जरूरी है। जिन आधुनिक लड़कियों के मन में उस अभिनेत्री को देखकर स्वयंवर की इच्छा जागे वह जरा यह भी समझ लें कि इन स्वयंवरों के बाद का इतिहास उन महान महिलाओं के लिये तकलीफदेह रहा है जो इन स्वयंवरों की नायिकायें थी।
सबसे पहले श्रीसीता जी के स्वयंवर का इतिहास देख लें। उनके पिता को अपनी असाधारण पुत्री-याद रहे वह राजा जनक को हल जोतते हुए मिली थी-के लिये असाधारण वर की आवश्यकता थी। श्रीराम के रूप में वह मिला भी। श्रीराम जी और श्रीसीता जी की यह जोड़ी पति पत्नी के रूप में आदर्श मानी जाती है पर दोनों ने कितने कष्ट उठाये सभी जानते हैं।
दूसरा स्वयंवर द्रोपदीजी का प्रसिद्ध है। उसके बाद जो महाभारत हुआ तो उससे श्रीगीता के संदेश इस विश्व में स्थापित हुआ। द्रोपदी को जीवन में कितना कष्ट हुआ सभी जानते हैं।
तीसरा स्वयंवर भी हुआ है जिसमें नारद जी ने भगवान विष्णु से श्रीहरि जैसा चेहरा मांग लिया तो उन्होंने वानर जैसा दे दिया। अपमानित होकर लौटे नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया कि कभी न कभी आपको वानर की सहायता लेनी पड़ेगी। श्रीरामावतार के रूप में यह शाप उन्होंने भोगा। जिसमें वानरों की सहायता लेनी पड़ी और उसमें भी श्रीहनुमान तो सेवक होते हुए भी श्रीहरि जैसे ही प्रसिद्ध हुए।
च ौथा स्वयंवर संयोगिता का है जिसमें से श्री प्रथ्वीराज उनका अपहरण कर ले गये। इतिहासकार मानते हैं कि वहां से जो इस देश में आंतरिक संघर्ष प्रारंभ हुआ तो वह गुलामी पर ही खत्म हुआ।
स्वयंवर एक अच्छी परंपरा हो सकती है पर सामान्य लोगों द्वारा इसे कभी अपनाया नहीं गया। वजह साफ है कि राजा या धनी आदमी के लिये तो कोई भी दामाद चुनकर उसको संरक्षण दिया जा सकता है पर सामान्य आदमी को देखदाख कर ही अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ता है। विवाह का मतलब होता है गृहस्थी बसाना। विवाह एक दिन का होता है पर गृहस्थी तो पूरे जीवन की है। इसमें आर्थिक और सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है।
वैसे एक बात समझ में नहीं आती कि आधुनिक समय में जो लोग आजादी से जीना चाहते हैं वह किसलिये विवाह के बंधन में फंसना चाहते हैं। अब तो अपने देश में बिना विवाह साथ रहने की छूट मिल गयी है। यहां याद रखने वाली है कि विवाह एक सामाजिक बंधन हैं। जो समाज आदि को नहीं मानते हुए इश्क के चक्कर में पड़ते हैं फिर इस सामाजिक बंधन के ंमें फिर उसी समाज को मान्यता क्यों देते हैं। कहीं धर्म बदलकर तो कहीं जाति बदलकर विवाह करते हैं। एक तरफ प्यार की आजादी की मांग उधर फिर यह विवाह जैसा सामाजिक बंधन! कभी कभी यह बातें हास्य ही पैदा करती हैं।
टीवी पर आता है कि प्यार पर समाज का हमला। अरे, भई जब आप अपने प्यार को एक समाज की विवाह प्रथा छोड़कर दूसरे की अपनाओगे तो हारने वाले समाज को तो गुस्सा आयेगा। यह स्वयंवर भी इसी तरह की परंपरा है। हिन्दू धर्म के आधार ग्रंथों की रचना के पीछे ऐसे ही स्वयंवर है पर फिर भी लोग इसे अब नहीं अपनाते।
आखिर में जाति और लिंग के आधार पर भेद करने वाली जिन ऋचाओं, श्लोकों और दोहों को हमारा हिन्दू समाज आज भले ही नहीं मानता पर उन्हीं की आड़ में उनकी आलोचना होती है पर जिसे पूरे समाज ने कभी नहीं अपनाया उसी स्वयंवर प्रथा का बाजारीकरण कर दिया। भई, यह बाजार है। आजकल इसमें स्वयंवर सज रहा है क्योंकि उससे बाजार पैसा कमा सकता है।
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सनसनीखेज ख़बर और रोटी-हास्य व्यंग्य कविता


बोरवेल का ढक्कन खुला देख कर
सनसनी खबर की तलाश में भटक रहे
संवाददाता ने कैमरामेन से कहा
^रुक जाओ यहाँ
लगता है अपनी सनसनीखेज खबर पक रही है
अपनी टांगें वैसे ही थक रही है.

पास से निकल रहा चाय की रेहडी वाला भी रुक गया
और बोला
^साहब अच्छा हुआ!
आज अतिक्रमण विरोधी अभियान कि वजह से
मैं दूसरी जगह ढूंढ रहा था
आपके शब्द कान में अमृत की तरह पड़े
अब रुक यही जाता हूँ
आपको छाया देने के लिए
प्लास्टिक की चादर लगाकर
बैठने के लिए बैंच बिछाता हूँ
भगवान् ने चाहा तो दोनों का
काम हो जाएगा
कोई बदकिस्मती से गिरा इस गड्ढे में
तो लोगों का हुजूम लग जाएगा
आपकी सनसनीखेज खबर के साथ
मेरी भी रोटी पक जायेगी
अगर आप बोहनी कराओ तो अच्छा
इसके लिए सुबह से मेरी आँखें तक रही हैं.
————————-
नोट-यह व्यंग्य कविता काल्पनिक है तथा किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है. कोई संयोग हो जाये तो यह महान हास्य कवि उसके लिए जिम्मेदार नहीं है.

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हादसों का प्रचार -त्रिपदम (hindi tripadam)


बड़े हादसे
प्रचार पा जाते हैं
बिना दाम के।

चमकते हैं
नकलची सितारे
बिना काम के।

कायरता में
ढूंढ रहे सुरक्षा
योद्धा काम के।

असलियत
छिपाते वार करें
छद्म नाम से।

भ्रष्टाचार
सम्मान पाता है
सीना तान के।

झूठी माया से
नकली मुद्रा भारी
खड़ी शान से ।

चाटुकारिता
सजती है गद्य में
तामझाम से।

असमंजित
पूरा ही समाज है
बिना ज्ञान के।

………………………….

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कभी ख्वाब तो कभी हकीक़त-व्यंग्य शायरी


जेठ की धूप में
जलते हुए उनका इंतजार करते रहे
उनके न आने पर
जमाने भर के ताने सहे।

फिर भी उनके दीदार नहीं हुए
बरसात की पहली फुहार भी
जलती आग सी लगी
कभी ख्वाब तो कभी हकीकत
लगती हैं उनकी यादें
इंतजार इतना लंबा होगा
यह कभी सोचना न था
जज्बातों की धारा में बस बहते रहे।
……………………..

बाजार में जो बिकता
वही सच्चा है प्यार ।
तस्वीरों में हमदर्द दिखता
वही गरीबों का सच्चा है यार।
नकद नारायण
दिन रात चौगुना होता रहे
वह नंबर एक का है व्यापार ।
हकीकतों और उसूलों से
कितना भी दूर हो आदमी
कोई फर्क नहीं पड़ता
रौशनी की चकाचौंध में
आंखों से देखता हुआ
जमाना खो बैठा है सोच की धार।
…………………………

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विदुर नीति-जैसे दिल में ख्याल होते हैं वैसे ही बनता है नज़रिया


द्वेषो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डित।
प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेष्ये पापानि चैव ह।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य के हृदय में अगर किसी के प्रति द्वेष भाव का निर्माण होता है तो-भले ही वह साधु या विद्वान हो-उसमें दोष ही दोष दिखाई देते हैं। उसी तरह अगर किसी के प्रति स्नेह या प्रेम पैदा हो तो-चाहे भले ही वह दुष्ट और पापी हो- उसमें गुण ही गुण दिखाई देते हैं।
न वृद्धिबंहु मन्तव्या या वृद्धि क्षयमावहेत्।
क्षयोऽपि बहु मन्तव्यो यः क्षयो वृद्धिमावहेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो विकास या वृद्धि अपने लिये भविष्य में घातक होने होने की आशंका हो उससे अधिक महत्व नहीं देना चाहिये। साथ ही अगर ऐसा पतन या कमी हो रही हो जिससे हमारा अभ्युदय होने की संभावना है तो उसका स्वागत करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक दृष्टा की तरह अगर हम अपने भौतिक स्वरूप देह का अवलोकन करें तो पायेंगे कि सारी दुनियां के प्राणी एक समान हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जिनके प्रति हमारे मन में प्यार या स्नेह होता है उनके दोषों पर हमारा ध्यान नहीं जाता। उसी तरह जिनके प्रति द्वेष या नाराजी है उनमें कोई गुण हमें दिखाई नहीं देता-कभी कभी ऐसा होता है कि उनका कोई गुण हमारे दिमाग में आता भी है तो उसे अपने चिंतन से जबरन दूर हटाने का प्रयास करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमारा मन और मस्तिष्क हमारी पूरी देह पर नियंत्रण किये रहता है। इसका आभास तभी हो सकता है जब योग साधना और ध्यान के द्वारा हम अपने अंदर बैठे दृष्टा के दृष्टिकोण को आत्मसात करें।
नीति विशारद विदुर यह भी कहते हैं कि हमें अपने आसपास हो रहे भौतिक तत्वों में विकास या वृद्धि बहुत अच्छी लगती है पर उनमें से कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो भविष्य में हमारे लिये घातक हों उसी तरह उनमें पतन या कमी ऐसी भी हा सकती है जो अच्छा परिणाम देने वाली हो। अतः अपने अंदर समबुद्धिरूप से विचार करने की शक्ति विकसित करना चाहिये।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

बिना मेकअप के अभिनय-हास्य व्यंग्य कविता


फिल्म का नाम था
‘नौकरानी ने बनी रानी’
जोरदार थी कहानी।
निर्देशक ने अभिनेत्री से कहा
‘आधी फिल्म में मेकअप बिना
आपको काम करना होगा
फटी हुई साड़ियों को ओढ़ना होगा
फिल्म जोरदार हिट होगी
अभिनय जगत में आपकी ख्याति का
नहीं होगा कोई सानी।’
अभिनेत्री ने कहा-‘
नये नये निर्देशक हो
इसलिये नहीं मुझे जानते हो
बिना मेकअप के चाहे कोई भी पात्र हो
उसका अभिनय नहीं करूंगी
सारी दुनियां में मुझे सुंदरी कहा जाता है
मेकअप के बिना तो मैं
अपना चेहरा आईने में खुद ही नहीं देखती
बिना मेकअप के तो कई बार
मैंने अपनी सूरत भी नहीं पहचानी।
अपने शयनकक्ष से ही बाहर
मैं मेकअप लगाकर आती हूं
अपनी मां को शक्ल ऐसे ही दिखाती हूं
ढेर सारे मेरे चाहने वाले
जब मेरी असल शक्ल देख लेंगे
तो आत्महत्या कर लेंगे
पड़ौस के लड़के जो
पल्के बिछाये मुझे देखते हैं
वह भी मूंह फेर लेंगे
जहां तक साड़ियों की बात है
तो आजकल काम वाली बाईयां भी
बन ठन कर घूमती हैं
ढेर सारी फिल्में ऐसी बनी हैं
जिनमें वह नई साड़ी में अपने
सजेधजे बच्चों को चूमती हैं
इसलिये अगर फिल्म में
मुझसे अभिनय कराना हो तो
महंगी साड़ियां ही मंगवाना
मेकअप का सामान हर हालत में जुटाना
चाहे बनाओ नौकरानी या रानी।’

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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व्यंग्य के लिए धार्मिक पुस्तकों और देवों के नाम के उपयोग की जरूरत नहीं-आलेख


यह कोई आग्रह नहीं है यह कोई चेतावनी भी नहीं है। यह कोई फतवा भी नहीं है और न ही यह अपने विचार को किसी पर लादने का प्रयास है। यह एक सामान्य चर्चा है और इसे पढ़कर इतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर मस्तिष्क में अगर चिंतन के तंतु हों तो उनको सक्रिय किया जा सकता है। किसी भी लेखक को किसी धर्म से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये पर उसे इस कारण यह छूट भी नहीं लेना चाहिये कि वह अपने ही धार्मिक पुस्तकों या प्रतीकों की आड़ में व्यंग्य सामग्री (गद्य,पद्य और रेखाचित्र) की रचना कर वाह वाही लूटने का विचार करे।
यह विचित्र बात है कि जो लोग अपनी संस्कृति और संस्कार से प्रतिबद्धता जताते हैंे वही ऐसी व्यंग्य सामग्रियों के साथ संबद्ध(अंतर्जाल पर लेखक और टिप्पणीकार के रूप में) हो जाते हैं जो उनके धार्मिक प्रतीकों के केंद्र बिंदु में होती है।
यह लेखक योगसाधक होने के साथ श्रीगीता का अध्ययनकर्ता भी है-इसका आशय कोई सिद्ध होना नहीं है। श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण की आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर हमें कोई पीड़ा नहीं हुई न मन विचलित हुआ। अगर अपनी इष्ट पुस्तक और देवता के आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर परेशानी नहीं हुई तो उसका श्रेय भी उनके संदेशों की प्रेरणा को ही जाता है।
यह कोई आक्षेप नहीं है। हम यहां यह चर्चा इसलिये कर रहे हैं कि कम से कम अंतर्जाल पर सक्रिय लेखक इससे बाहर चल रही पुरानी परंपरागत शैली से हटकर नहीं लिखेंगे तो यहां उनकी कोई पूछ परख नहीं होने वाली है। अंतर्जाल से पूर्व के लेखकों ने यही किया और प्रसिद्धि भी बहुत पायी पर आज भी उन्हें इस बात के लिये फिक्रमंद देखा जा सकता है कि वह कहीं गुमनामी के अंधेरे में न खो जायें।
स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के हिंदी लेखकों का एक वर्ग सक्रिय हो गया था जो भारतीय अध्यात्म की पुस्तकों को पढ़ न पाने के कारण उसमें स्थित संदेशों को नहीं समझ पाया इसलिये उसने विदेशों से विचारधारायें उधार ली और यह साबित करने का प्रयास किया कि वह आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपने को विकासवादी कहा तो उनके सामने खड़े हुए परंपरावादियों ने अपना मोर्चा जमाया यह कहकर कि वह अपनी संस्कृति और संस्कारों के पोषक हैं। यह लोग भी कर्मकांडों से आगे का ज्ञान नहीं जानते थे। बहरहाल इन्हीं दो वर्गों में प्रतिबद्ध ढंग से लिखकर ही लोगों ने नाम कमाया बाकी तो संघर्ष करते रहे। अब अंतर्जाल पर यह अवसर मिला है कि विचाराधाराओं से हटकर लिखें और अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें।
पर यह क्या? अगर विदेशी विचाराधाराओं के प्रवर्तक लेखक भगवान श्रीकृष्ण या श्रीगीता की आड़ में व्यंग्य लिखें तो समझा जा सकता है और उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और ज्ञान-विज्ञान में अभिरुचि रखने का संदेश देने वाली श्रीगीता का नितांत श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया जाये तो वह इतना दृढ़ बना देती है कि आप उसकी मजाक उड़ाने पर भी विचलित नहीं होंगे बल्कि ऐसा करने वाले पर तरस खायेंगे।
अगर श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण में विश्वास करने वाले होते तो कोई बात नहीं पर ऐसा करने वाले कुछ लेखक विकासवादी विचाराधारा के नहीं लगे इसलिये यह लिखना पड़ रहा है कि अगर ऐसे ही व्यंग्य कोई अन्य व्यक्ति करता तो क्या वह सहन कर जाते? नहीं! तब वह यही कहते कि हमारे प्रतीकों का मजाक उड़ाकर हमारा अपमान किया जा रहा है। यकीनन श्रीगीता में उनकी श्रद्धा होगी और कुछ सुना होगा तो कुछ ज्ञान भी होगा मगर उसे धारण किया कि पता नहीं। श्रीगीता का ज्ञान धारण करने वाला कभी उत्तेजित नहीं होता और न ही कभी अपनी साहित्य रचनाओं के लिये उनकी आड़ लेता है।
सच बात तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से योगसाधना और श्रीगीता की आड़ लेकर अनेक जगह व्यंग्य सामग्री देखने,पढ़ने और सुनने को मिल रही है। एक पत्रिका में तो योगसाधना को लेकर ऐसा व्यंग्य किया गया था जिसमें केवल आशंकायें ही अधिक थी। ऐसी रचनायें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि योगसाधना और व्यंग्य पर वही लोग लिख रहे हैं जिन्होंने स्वयं न तो अध्ययन किया है और न उसे समझा है। टीवी पर अनेक दृश्यों में योगसाधना पर व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देखकर इस बात का आभास तो हो गया है कि यहां गंभीर लेखन की मांग नहीं बल्कि चाटुकारिता की चाहत है। लोगों को योग साधना करते हुए हादसे में हुई एक दो मौत की चर्चा करना तो याद रहता है पर अस्पतालों में रोज सैंकड़ों लोग इलाज के दौरान मरते हैं उसकी याद नहीं आती।
देह को स्वस्थ रखने के लिये योगसाधना करना आवश्यक है पर जीवन शांति और प्रसन्नता से गुजारने के लिये श्रीगीता का ज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस धरती पर मनुष्य के चलने के लिये दो ही रास्ते हैं। मनुष्य को चलाता है उसका मन और वह श्रीगीता के सत्य मार्ग पर चलेगा या दूसरे माया के पथ पर। दोनों ही रास्तों का अपना महत्व है। मगर आजकल एक तीसरा पथ भी दिखता है वह दोनों से अलग है। माया के रास्ते पर चले रहे हैं पर वह उस विशाल रूप में साथ नहीं होती जो वह मायावी कहला सकें। तब बीच बीच में श्रीगीता या रामायण का गुणगान कर अनेक लोग अपने मन को तसल्ली देते हैं कि हम धर्म तो कर ही रहे हैं। यह स्थिति तीसरे मार्ग पर चलने वालों की है जिसे कहा जा सकता है कि न धन साथ है न धर्म।
अगर आप व्यंग्य सामग्री लिखने की मौलिक क्षमता रखते हैं तो फिर प्राचीन धर्म ग्रंथों या देवताओं की आड़ लेना कायरता है। अगर हमें किसी पर व्यंग्य रचना करनी है तो कोई भी पात्र गढ़ा जा सकता है उसके लिये पवित्र पुस्तकों और भगवान के स्वरूपों की आड़ लेने का आशय यह है कि आपकी सोच की सीमित क्षमतायें है। जो मौलिक लेखक हैं वह अध्यात्म पर भी खूब लिखते हैं तो साहित्य व्यंग्य रचनायें भी उनके हाथ से निकल कर आती हैं पर कभी भी वह इधर उधर से बात को नहीं मिलाते। अगर किसी अध्यात्म पुरुष पर लिखते हैं फिर उसे कभी अपने व्यंग्य में नहीं लाते।
अरे इतने सारे पात्र व्यंग्य के लिये बिखरे पड़े हैं। जरूरी नहीं है कि किसी का नाम दें। अगर आप चाहें तो रोज एक व्यंग्य लिख सकते हैं इसके लिये पवित्र पुस्तकों यह देवताओं के नाम की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब अब किसी का नाम लेकर रचना करते हैं और वह सीधे उसकी तरफ इंगित होती है तो वह व्यंजना विधा नहीं है इसलिये व्यंग्य तो हो ही नहीं सकती।
यह पाठ किसी प्रकार का विवाद करने के लिये नहीं लिखा गया है। हम तो यह कहते हैं कि दूसरा अगर हमारी पुस्तकों या देवताओं की मजाक उड़ाता है तो उस पर चर्चा ही नहीं करो। यहां यह भी बता दें कुछ लोग ऐसे है जो जानबूझकर अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करने के लिये अपने ही देवताओं और पुस्तकों पर रची गयी विवादास्पद सामग्री को सामने लाते हैं ताकि अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित कर सकें। उनकी उपेक्षा कर दो। ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाकई सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर अनजाने में या उत्साह में ऐसी रचनायें कर जाते हैं। उनका यह समझाना भर है कि जब हम अपनी पवित्र पुस्तकों या देवताओं की आड़ में कोई व्यंग्य सामग्री लिखेंगे- भले ही उसमें उनके लिये कोई बुरा या मजाकिया शब्द नहीं है-तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को समझाइश कैसे दे सकते हैं जो बुराई और मजाक दोनों ही करता है। याद रहे समझाईश! विरोध नहीं क्योंकि ज्ञानी लोग या तो समझाते हैं या उपेक्षा कर देते हैं। यह भी समझाया अपने को जाता है गैर की तो उपेक्षा ही की जानी चाहिये। हालांकि जिन सामग्रियों को देखकर यह पाठ लिखा गया है उनमें श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण के लिये कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं थी पर सवाल यह है कि वह व्यंग्यात्मक सामग्रियों में उनका नाम लिखने की आवश्यकता क्या है? साथ ही यह भी कि अगर कोई इस विचार से असहमत है तो भी उस पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। सबकी अपनी मर्जी है और अपने रास्ते पर चलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, पर चर्चायें तो होती रहेंगी सो हमने भी कर ली।
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जो संस्कृति शराब में डूब जाए -व्यंग्य कविता


शराब की बूंदों में जो संस्कृति ढह जाती है
ढह जाने दो, वह भला किसके काम जाती है
ऐसी आस्था
जो शराब की बोतल की तरह टूट जाती है
उसके क्या सहानुभूति जतायें
लोहे की बजाय कांच से रूप पाती है
…………………………..
नशा कोई और करे
झगड़ा कोई और
क्यों कर रहा है पूरा जमाना उस पर गौर
संस्कृति के झंडे तले शराब का विज्ञापन
अधिकारों के नाम पर
नशे के लिये सौंप रहे ज्ञापन
जिंदा रहे पब और मधुशाला
इस मंदी के संक्रमण काल में
मुफ्त के विज्ञापन का चल रहा है
शायद यह एक दौर

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कहीं कहीं झगडे भी फिक्स होंगे -हास्य व्यंग्य कविताएँ


पहले तो क्रिकेट मैचों पर
फिक्सिंग की छाया नजर आती थी
अब खबरों में भी होने लगा है उसका अहसास।
शराबखानों पर करते हैं लोग
सर्वशक्तिमान का नाम लेकर हमला
कहीं टूटे कांच तो कहीं गमला
बहस छिड़ जाती है इस बात पर कि
सर्वशक्तिमान के बंदे ऐसे क्यों होना चाहिये
लंबे चैड़े नारों का दौर शुरु
हर वाद के आते हैं भाषण देने गुरु
ढेर सारे जुमले बोले जाते हैं
टूटे कांच और गमलों के साथ
जताई जाती है सहानुभूति
पर ‘शराब पीना बुरी बात है’
इस पर नहीं होता कोई प्रस्ताव पास।
खबरफरोश भूल जाते हैं शराब को
सर्वशक्तिमान के नाम पर ही
होती है उनको सनसनी की आस।
किसे झूठा समझें, किस पर करें विश्वास।
…………………………
शराब चीज बहुत खराब है
पीने वाला भी कर सकता है
न पीने भी कर सकता है
भले झगड़ा खराब है।
शराब खानों पर हुए झगड़ो पर
अब रोना बंद कर दो
क्योंकि सदियों से
करवाती आयी है जंग यह शराब
जैसे जैसे बढ़ते जायेंगे शराब खाने
वैसे ही नये नये रूपों में झगड़े
सामने आयेंगे
कहीं पीने वाले पिटेंगे तो
कहीं किसी को पिटवायेंगे
कहीं जाति तो कहीं भाषा के
नाम पर होंगे
कहीं प्रचार के लिये
पहले से ही तय झगड़े होंगे
इन पर उठाये सवालों का
कभी कोई होता नहीं जवाब है।

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बहस करने का फैशन-हास्य व्यंग्य कविताएँ


नारी की आज़ादी विषय पर
उन्होने महफ़िल सजाई
दर्शक दीर्घा में पुरुषों के लिए भी
कुर्सी सजाई
पूछने पर बोलीं
“नारी और पुरुष को
प्राकृतिक रूप से अलग करना कठिन है
ऐसे ही जैसे समय का आधार रात और दिन है
बहस करने का फैशन हो गया है
नहीं करेंगे तो लगेगा महिलाओं का
दिमाग़ कहीं सो गया है
महिलाएँ तो बहस करेंगी
पर तालियों के लिए तरसेंगी
पुरुष इस काम को करेंगे खुशी से
इसलिए यह कुर्सियाँ सजाईं”
————————
नारियों के विषय पर हुए सम्मेलन से
लौटते हुए एक दर्शक ने दूसरे से कहा
“यार अपने को तो दर्शक दीर्घा में बैठाकर
महिलाओं ने खूब भाषण सुनाए
हमारी आलोचना में खूब बुरे विचार बताए
मेरे तो कोई बात समझ में नहीं आई
फिर भी हमेशा ताली बजाई”

दूसरे ने कहा
“मैं तो अपने सुनने की मशीन
घर पर ही छोड़ आया
जब तुमने ठोके हाथ
तब मैने भी ताली बजाई
समझने समझाने की बात भूल जाओ
हम तो मेकअप और चैहरे देखने आए थे
अपनी पॉल न खुले
इसलिए ही मैने भी ताली बजाई

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बुद्धिजीवियों की होली अब वैलेंटाईन डे पर मनती है -हास्य व्यंग्य


वैलेंटाईन डे के मायने अब वह नहीं रहे जो पहले बताये गये थे। अपना अपना नजरिया है। कुछ लोगों ने संस्कृति विरोधी दिवस कहा तो किसी ने नारी स्वातंत्र्य दिवस के रूप में मनाया। टीवी चैनलों और अखबारों के साथ अंतर्जाल पर हिंदी अंग्रेजी ब्लाग पर जोरदास बहस सुनने और देखने को मिली। तय बात है कि बहस हमेशा बुद्धिजीवियों के बीच होती है। वैलेंटाईन डे पर यह बहस जमकर चली और जिनकां इनसे कुछ लेना देना नहीं था उन्होंने फोकट में अपने रंग (शब्द) खर्च किये मजे लिये। यह लोग चालाक थे और उन्होंने इससे भी कहा बढि़या और उससे भी कहा बढि़या-मजा भी लिया और सुरक्षित भी रहे। समझ में नहीं आया कि प्रशंसा कर रहे हैं कि मजाक बना रहे हैं। एक तरह से कहा जाये तो वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों ने होली की तरह मनाया। साल में एक दिन होली मनाना जरूरी है और होली पर रंग गुलाल से परहेज करने वाले बुद्धिजीवियों ने वैलेंटाईन डे पर शब्दों का रंगों की तरह इस्तेमाल कर इसे नया रूप दे दिया। अब यह कहना कठिन है कि अगले साल वह इसी तरह मनायेंगे या नहीं।

वैलंटाईन नाम एक ऋषि पश्चिम में हुए हैं। कहा जाता है कि उनके समय में एक राजा ने अपने राज्य की रक्षा के लिये सैनिक जुटाने के लिये युवकों के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया और महर्षि वैलेंटाईन ने उसके विरोध स्वरूप ही एक आंदोलन चलाया जिसमें युवक युवतियों का विवाह कराना शामिल था। उनकी स्मृति में मनाये जाने वाले इस त्यौहार पर कुछ कथित समाज सुधारक बिना विवाह के घूमने वाले युवक युवतियों का विवाह कराने की धमकी दे रहे थे। बस हो गया विवाद शुरु। नारी स्वातंत्र्य के समर्थकों ने पुरुष सत्ता को चुनौती देते हुए लड़कियों को खुले में घूमने के लिये ललकारा-यकीनन वह युवकों के साथ ही जो कि पुरुष ही होते हैं। स्त्री को प्यार करने की स्वतंत्रता होना चाहिये-यकीनन पुरुष के साथ ही। समाज को विभाजित कर उसे एक करने वाले बुद्धिजीवियों ने जमकर रंग (शब्द) बरसाये। नारी के पब में जाने से संस्कृति को खतरा बताने वाले भी अपने अपने रंग लेकर आये। एक तरह से वैलेंटाईन डे ऐसा हो जैसे कि कुछ लोग होली पर अपने बैरी से बदला लेने के लिये उस पर पक्का रंग फैंकते हैं ताकि वह उतरे नहीं। कुछ होते है तो वह कीचड़ का ही रंग की तरह उपयोग करते हैं।

अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने कुछ हिंदी अंग्रेजी ब्लाग लेखक तो ऐसे ही रहे जैसे होली पर कुछ अधिक रंग खेलने वाले लगते हैं। जैसे कोई सामान्य व्यक्ति होली पर कई मित्रों के घर जाता है और सभी जगह रंग खेलता है तो उसके रोम रोम में रंग छा जाता है। ऐसे ही कुछ हिंदी और अंग्रेजी के ब्लाग अनुकूल प्रतिकूल टिप्पणियों से रंगे हुए थे। इस तरह भी हुआ कि कुछ लोगों ने अपनी टिप्पणियां उन पर नहीं लगायीं कि वह तो पहले से ही अधिक हैं-ठीक ऐसे ही जैसे होली पर ऐसे व्यक्ति को रंग लगाने की इच्छा नहीं होती जो पहले ही रंगा हुआ होता है।
अब टीवी चैनलों, अखबारों और अंतर्जाल पर एकदम खामोशी हो गयी है। ऐसे ही जैसे होली के दो बजे के बाद सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है। कोई बहस नहीं। ऐसे में अब कुछ लोग फिर भी सक्रिय हैं जो उस दौरान खामोश थे-लगभग ऐसे ही जैसे रंगों से चिढ़ने वाले दोपहर बाद सड़क पर निकलते हैं। कहने को तो सभी लिखने पढ़ने वाले बुद्धिजीवी हैं पर यह होली-वैलेंटाईन डे-सभी ने नहीं मनायी। केवल देखते रहे कि कौन किस तरह के रंग उपयोग कर रहा है। सच कहा जाये तो यह वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों की होली की तरह लगा। जिन लोगों ने इस होली का मजा लिया उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो भारतीय होली भी नहीं खेलते भले ही उस पर व्यंग्य कवितायें लिखकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। पब में नारियों के जाने पर खतरा और जाने पर स्वतंत्रता का आभास दिलाना अपने आप में हास्यास्पद है। मजाक की बातें कहकर दूसरों का मनोरंजन करना भी एक तरह से होली का ही भाग है और वैलंटाईन डे के अवसर पर चली बहस से इसका आभास कुछ लोगों को हुंआ तो उसे गलत तो नहीं कहा जा सकता है। हालांकि इस अवसर पर कुछ लोगों ने गंभीर और मर्यादा के साथ इस बहस में भाग लिया पर बहुत लोग हैं जो होली भी ऐसे ही मनाते हैं।
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