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आखिर वह ब्लाग परिदृश्य से गायब हो गया-आलेख


आज वह ब्लाग गायब हो गया जो दूसरों के ब्लाग के पाठ चालाकी से अपने यहां ले जाकर अपने यहां सजा रहा था। उसका तरीका यह था कि वह किसी भी ब्लाग के साइडबार लिये बिना ही पाठ इस तरह ले जाता कि किसी भी ब्लाग लेखक को पता ही नहीं लग सकता था कि उसका ब्लाग वहां देखा गया है। ब्लाग लेखक के नाम पर उसने तारीख इस तरह लगा दी थी कि अगर कोई पाठक पढ़े तो उसे पता ही नहीं चलेगा कि उसका लेखक कौन है? कितने पाठक पढ़ गये यह तो ब्लाग लेखक को पता तो तब चले जब उसे वहां अपने ब्लाग पहुंचने की जानकारी हो।

शायद वह कोई चालाक ब्लागर था जो पांच सामाजिक श्रेणियों में लिखे जाने वाले पाठों को अपने यहां दिखाकर हिट होना चाहता था। इस लेखक के कई ब्लाग/पत्रिकाओं के पाठ वहां पहुंच गये थे, पर इसका शिकार वह अकेला ब्लागर नहीं था। उस चालाक ब्लाग लेखक ने वर्डप्रेस के ब्लाग की पांच अंग्रेजी श्रेणियों की सैटिंग इस तरह की थी वह उनमें लिखा गया कोई भी पाठ वहां पहुंच जाता था। न कापी करने की जरूरत न पेस्ट करने की। एक साफ्टवेयर बनाया और बन गये ब्लागर। अपने आप पाठ आंधी की तरह वहां चले जा रहीं थे। कई अंग्रेजी ब्लाग लेखकों के पाठ भी वहां थे पर वह फिर भी लोगों से बचा रहता अगर अपने पाठों को उसकी श्रेणियों में ही भारत के हिंदी ब्लाग लेखक नहीं लिखते। वैसे वह किसी खास ब्लाग या लेखक को लक्ष्य कर रहा था यह तो नहीं कहा जा सकता पर वर्डप्रेस के ब्लाग उसकी चालों के घेरे में थे यह सत्य है। एक वरिष्ठ हिंदी ब्लाग लेखक की नजर में वह ब्लाग चढ़ गया और और उन्होंने चिट्ठाकार समूह की चर्चा में यह मुद्दा भेजा। इस लेखक की नजर उस पड़ी और फिर शुरू हुआ एक शाब्दिक युद्ध। एक ब्लाग लेखक ने यह सुझाव दिया कि अगर ब्लाग चोरी इसी तरह की हो रही है तो उस ब्लाग की निंदा करते हुए एक पाठ लिखा जाये जिससे वह विचलित हो जाये और फिर पाठ को हटा लें या फिर अपने पाठ पर ही अपने ब्लाग का लिंक लिखकर पाठकों को सचेत किया जाये। इस लेखक ने अपने वर्डप्रेस पर पहले ही अपना नाम और ब्लाग का पता देने का सिलसिला शुरू कर दिया पर इस सुझाव के बाद तो एक आदत बना ली। अलबत्ता निंदापरक शब्दों से बचते हुए केवल अपने निज प्रचार की जानकारी पाठ पर लिखना शुरू की। इसका परिणाम सामने आया और वह ब्लाग आज परिदृश्य में नहीं आया क्योंकि वह लेखक अपने ब्लाग पर किसी दूसरे का प्रचार सहन नहीं कर सकता था। उसके लिये कोई चेतावनी जारी नहीं की गयी पर वह सहन नहीं सकता था कि उसके ब्लाग पर कोई अपना प्रचार पाये।

क्या वह इस लेखक के द्वारा अपने पाठों पर अपना नाम तथा ब्लाग का पता देने से ही विचलित हो गया जो उसने अपना ब्लाग परिदृश्य से गायब कर लिया या अन्य कहीं भी उसकी ऐसी गतिविधियों की जानकारी ऐसे शक्तिशाली केंद्रों पर पहुंच गयी थी जो उस पर कार्यवाही करने में सक्षम थे और जहां से हटाया गया या वह स्वयं ही छोड़ गया। कहना कठिन है पर एक बात सत्य है कि उसके इस कृत्य के बारे में बहुत लोग जान चुके थे। हालांकि इस लेखक के अलावा किसी ने क्या कार्रवाई की यह पता नहीं पर ऐसा लगता है कि कुछ अन्य ब्लाग लेखकों ने उस पर दबाव बनाया है। आज लेखक के एक ब्लाग पर उस ब्लाग का लिंक मिला है जिससे पता लगता है कि उसने वह ब्लाग लिंक किया था। यह भी संभव है कि इस लेखक से लिंक करने में कोई ऐसी बात हो गयी हो जो उसका लिंक लग गया हो-यह तकनीकी बातें समझना कठिन है।

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक बापू कहिन’ पर प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
1. शब्दलेख सारथी
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

उसकी यह चालाकी कोई अब छिपा विषय नहीं रह गया था। इस लेखक ने भले ही अपने ब्लाग पर उसका पता नहीं दिया पर हिंदी ब्लाग जगत में अनेक ब्लाग लेखक उस चालाक के बारे में जान गये थे। संभव है कुछ तकनीकी ब्लाग लेखकों ने उसकी गतिविधियों को रोकने का दबाव बनाया हो। उस ब्लाग का परिदृश्य से गायब होना यही दर्शाता है कि अंतर्जाल पर अगर चालाकियां चलेंगी तो उनके रोकने वाली ताकतें भी होंगी। यह समझना बेकार है कि हम किसी के साथ चालाकी कर उसका माल अपने यहां उठा लेंगे तो कोई पकड़ेगा नहीं। यह गलतफहमी जिनको हो वह दूर करे लें। किसी के साथ बदतमीजी करके भी बचने की संभावना अब नगण्य होती जा रही है। वैसे यह लेखक उन ब्लाग लेखकों को नहीं भूल सकता जिन्होंने पहले जानकारी दी और फिर उससे भिड़ने का मार्ग बताया।

आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि वह चालाक भी हिंदी प्रकाशन जगत की परंपराओं को ही निभा रहा था जिसमें लेखक को शब्दों का मजदूर समझा जाता है जहां नाम और नामा दोनों से ही उसे दूर रखने का प्रयास होता है शायद यही कारण है कि मेरा नाम अपने ब्लाग पर दिखने से अधिक अच्छा उसने अपना ब्लाग अंतर्जाल के परिदृश्य से गायब करना पसंद किया। आज सुबह और शाम को देखने पर भी नहीं दिखाई दिया। आगे वह क्या करेगा इसका अनुमान करना कठिन है। इस बारे में शेष चर्चा फिर कभी।

प्यार और नफरत, दोनों पर यकीन नहीं-हिन्दी शायरी


आज एक फोरम पर घूमते घामते अपने मित्र समीरलाल ‘उड़न तश्तरी” के ब्लाग पर पहुंच गया। उनका ब्लाग मेरे ब्लाग पर लिंक है पर मैं उनको इन्हीं फोरमों पर पढ़ता हूं। आज कुछ मायूस लगे। हां, कल मैं कुछ ब्लाग देखकर सोच रहा था कि अगर वह उनके दृष्टि में आये तो उनको बहुत कष्ट होगा। यह अच्छा ही हुआ कि मेरे एक पाठ उनकी दृष्टि पथ में नहीं आया जो इन्हीं विषयों पर था। कल फोरमों पर उस पर एक व्यूज भी नहीं था। मैने उस शीर्षक लगाते हुए ब्लाग का उल्लेख नहीं किया क्योंकि मैंने देखा है कि आम पाठक ब्लाग शब्द देखकर ही मेरी पोस्ट से मूंह फेर लेते है। वैसे भी ब्लाग लेखकों को उसमें अधिक मजा नहीं आता। समीरलाल को जितना मैं समझ पाया हूं उसके अनुसार ऐसे विवाद उनको तकलीफ देते हैं। मगर इसका कोई उपाय नहीं है। समीरलाल जी मित्र हैं और उनके शब्दों से मेरे पर प्रभाव हो यह संभव नहीं है। ऐसे में मेरा कवि मन कुछ चिंतन करने लगा। जैसा मन में आया अपनी टिप्पणी लिख दी और अपनी पोस्ट बना ली। दुःखी मैं भी होता हूं पर अपने को संभाल भी लेता हूं। मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा किसी के पास कोई रास्ता है। पहली कविता के बाद दूसरी कविता भी इसलिये लिखी ताकि लोग यह न कहें कि ‘अपनी मेहनत बचाता है टिप्पणी को ही पोस्ट बनाता है, दूसरों के दर्द को अपनी दवा बनाता है।’

जिन रास्तो पर बस्ती है नफरत
वहां से कभी गुजरना नहीं
पर जरूरी हो तो नजरें
फेर कर निकल जाना
कानों से किसी की बात सुनना नहीं
चीखते लोगों के साथ जंग लड़ने के लिए
मौन से बेहतर हथियार और कोई होता नहीं
फिर भी नजर का खेल है
जहां होती है नफरत की बस्ती
वहां भी किसी शख्स में होती है शांति की हस्ती
तुम उन्हें ढूंढ सकते हो
अगर तुम्हारे दिल में है प्यार कहीं
नहीं कर सकते अपने अंदर
दर्द को झेलने का जज्बा
तो रास्ता बदल कर चले जाना
पर अगर मन में बैचेनी है तो
तो कोई भी जगह तंग लगेगी
कितनी भी रंगीन हो चादर
नींद नहीं आने पर बेरंग लगेगी
आंखें बंद कर लो
खो जाओ अपनी दुनियां में
बदलती है जो पल-पर अपना रंग
कहीं होते झगड़े, होती शांति कहीं
उस पर मत सोचो कभी
जो तुम्हारे बस में नहीं
………………………
उसने मुझसे पूछा
‘तुमने किसी से प्यार करते हो?’
मैंने कहा-‘नहीं’
उसने पूछा-‘तुम कभी किसी से नफरत करते हो ?’
मैंने कहा-‘नहीं’
उसने मुझे घूर कर देखा
तुम फरिश्ते तो दिखते नहीं
इंसान से तुम्हारा वास्ता कैसे हो सकता है
तुम कहीं शैतान तो नहीं’
मैंने कहा
‘प्यार और नफरत
दोनो में मैंने धोखा खाया है
जिनका प्यार दिया
उनसे पाई नफरत और
जिनको दी नफरत उनसे प्यार पाया
यकीन अब किसी पर इसलिए रहा नहीं
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अपनी मूल भाषा में लिखने से पाठ में आती है स्वाभाविक मौलिकता-आलेख(2)


किसी भी राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और और समाज की बौद्धिक शक्ति का केंद्र बिंदू सदैव ही मध्यम वर्ग रहा है। धनाढ्य वर्ग अपने धनार्जन और विपन्न वर्ग अपने अभावों क विरुद्ध संघर्ष से ही समय नहीं पाता और ऐसे में मध्यम वर्ग के लोग ही समय निकालकर समाज के लिये नये विचारों. सिद्धांतों और भौतिक अविष्कारों का सृजन करते हैं। अगर हम हिंदी के आधुनिक स्वरूप की बात करें तो इसी मध्यम वर्ग के लोगों के कारण ही हम उसे इस स्थिति में देख रहे हैं। कोई भी भाषा अपने लेखकों और विद्वानों की रचनाओं से ही विकास करती हैं-और वह आय की दृष्टि से मध्यम वर्ग के ही होते है हालांकि यह जरूरी भी नहीं क्योंकि निम्न आय वर्ग श्रेणी के भी लोग हैं जो मान सम्मान का मोह छोड़कर साहित्य सृजन करते है। आधुनिक हिंदी के जितने भी लेखक हैं वह इन्हीं मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग से हैं। एक समय था जब देश की आजादी और बाद में नये समाज की अभिलाषा से लेखकों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं। उनको शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया और विद्याार्थियों ने उसे पढ़कर हिंदी भाषा का आत्मसात कर लिया। शनैः हिंदी को वह स्परूप मिला जिसमें आज हम लिख रहे हैं।

अधिकतर पुराने लोग बताते हैं कि आजादी के बाद तो यह स्थिति यह हो गयी थी कि पांचवीं से आठवीं पास लोगों को नौकरी लग गयी। ऐसे में लोगों का रुझान शिक्षा की तरफ बढ़ना स्वाभाविक था-आराम और अधिकार से रोटी कमाने का मोह लोगों में बढ़ा। इसी कारण अनेक ऐसे लोग जो रूढिवादी थे उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया। फिर शुरू हुआ बेरोजगारी का अनंतकाल तक चलने वाला दौर जिसने धीरे-धीरे ऐसे भ्रामक विषयों का प्रतिपादन किया किया जिनका तर्कों से प्रतिवाद तो किया ही नहीं जा सकता। अंग्रेजों के समय चूंकि अंग्रेजी वालों को ही बड़े ओहदे मिले थे और सरकारी कामकाज में हिंदी को धीरे-धीरे ही स्थान मिला उसकी वजह से लोगों का अंग्रेजी की तरफ झुकाव भी हुआ। समय के साथ हिंदी में सरकारी कामकाज अधिक होता गया पर भ्रम का निराकरण करना फिर भी कठिन था।
फिर हिंदी केवल नारा भी रहा है। अंग्रेजी जानने वाले लोग 2 प्रतिशत भी नहीं रहे पर फिर भी उससे विकास की संभावना रखने वाले लोगों की संख्या अधिक है। मैं कभी भी रूढिवादिता से काम नहीं लेता। मैं तो लोगों से यही कहता हूं कि अगर अंग्रेजी से तुम्हें विकास का मार्ग मिलता है तो हिंदी पढ़ो ही नहीं। उस दिन मेरे एक मित्र ने कहा कि ‘वह अपनी लड़की के लिये अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय ढूंढ रहा है अगर कोई हो तो बताओ’।‘

मैंने उससे कहा कि-‘बच्चे में सीखने की क्षमता बहुत होती है। उसे केवल अंग्रेजी में ही पढ़ने के लिये प्रेरित मत करो। आने वाला समय ऐसा भी हो सकता है कि हिंदी न आने की वजह से ही उसे कहीं शर्मिंदा होना पड़े। चूंकि हिंदी हमारी मात्भाषा है इसलिये उसको पढ़ने के साथ अंग्रेजी ज्ञान तो प्राप्त किया जा सकता है पर अंग्रेजी को मुख्य भाषा मानकर फिर हिंदी में विशेषज्ञता कठिन होती है।’

उसने सिर हिलाकर एकदम मेरी बात को खारिज कर दिया। जिस हिंदी को मध्यम वर्ग ने ऊपर उठाया वही आज उससे महत्वहीन समझ रहा है शायद यही कारण है कि हिंदी राजभाषा होते हुए भी तिरस्कृत है। भाषा का विवाद मध्यम वर्ग में ही अधिक है। एक पक्ष उसका पक्षधर है तो दूसरा विरोधी भी हैं। हिंदी भाषा में अंतर्जाल पर लिख रहे लोगों में आत्मविश्वास बढ़ रहा है तो उसका कारण यह है कि उनको लग रहा है कि अब उनके दिन भी आ सकते हैं। वजह है अनुवाद टूल! जिसको लेकर अनेक ऐसे लोगों के चेहरे इस कारण उतरे हुए हैं क्योंकि वह अंग्रेजी से हिंदी में सही अनुवाद नहीं कर रहा है। अंतर्जाल के हिंदी लेखकों में आत्मविश्वास बढ़ने का कारण यह है कि हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद कुछ अच्छे ढंग से हो रहा है और उनको लगता है कि उनको अब विदेशी पाठक भी पढ़ सकेेंगे। विश्व में सबसे अधिक ब्लाग अंग्रेजी और चीनी में हैं और भाषा की दीवार के ढहने का आशय यह है कि हिंदी भी अब विश्व के मानचित्र पर वैसे ही होने वाली है जैसी अन्य भाषायें हैं।

मध्यम वर्ग में भी अंग्रेजी के प्रति वैसा ही आकर्षण है जैसा पहले था। सभी को लगता है कि अंग्रेजी से ही कहीं नौकरी आदि पायी जा सकती है या विदेश जाने का अवसर भी आ सकता है। सभी को न नौकरी मिलती है न विदेश जाने का अवसर आता है-ख्याली पुलाव में रहने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी के स्कूल में पढ़ाना शुरू कर यह मान लेते हैं कि अब सारा बोझ अंग्रेजी ही उठायेगी। लोग अंग्रेजी पढ़ लेते हैं पर नियमित अभ्यास न होने की वजह से उसे फिर भूल भी जाते हैं या याद रखते हैं तो अंग्रेजी में कुछ शब्द लिखना भी उनके बूते का नहीं रहता। अगर सारा ही बोझ अंग्रेजी उठाती तो फिर इस देश में बेरोजगारी नहीं फैलती। मैंने की हिंदी टाइपिंग की चर्चा की थी और कहा था कि लोगों को अब हिंदी टाईप अधिक सीखना चाहिए। इसे शायद ही लोग गंभीरता से लें क्योंेकि भ्रम का कोई इलाज नहीं होता। इस पर इस देश मध्यम वर्ग जितना बुद्धि से तीक्ष्ण है उतना ही भ्रमित हुआ भी लगता है। लोग भाषा के महत्व को नहीं समझते बल्कि रोटी वाली भाषा तलाशते हैं। ऐसे में वह दोनों तरफ के नहीं रहते। हम अंतर्जाल पर हिंदी में लिखने वाले लोगों की संख्या को देखकर कहते हैं कि बहुत लोग लिख रहे हैं पर अगर आप जमीन पर उतर कर देखें तो पायेंगे कि सभी अपने अपने इलाकों में उंगली पर गिनने लायक होंगे-हम यहां इस विषय पर चर्चा नहीं कर सकते कि उनके लिखने की सार्थकता कितना है।
मुख्य बात यह है कि मध्यम वर्ग इस समय अभी निरर्थक रूप से अंग्रेजी के मोह पाश में जकड़ा हुआ है जिसका परिणाम यह है कि उसके लोग न तो हिंदी में अच्छी तरह लिख पाते हैं और अंग्रेजी में लिखें तो उसे पढ़ेगा कौन?
फिर संवाद के तीव्र साधनों ने लिखकर अपनी बात कहने की परंपरा को समाप्त ही कर दिया है। मोबाइल पर घंटों बात हो जाती है पर एस.एम.एस तीन चार लाईन का ही होता है। उसमें भी कई बार कहीं से कापी किये गये अंग्रेजी में शुभकामना संदेश मिलते है। लिखने वाले का हिंदी और अंग्रेजी के अल्पज्ञान का अहसास होने के कारण उस टिप्पणी करने को भी मन नहीं करता।

किसी ने एक ब्लाग पर टिप्पणी की थी कि ‘हिंदी नयी भाषा है और वह एक दिन पूरे विश्व में परचम फहराएगी क्योंकि यह प्रकृति का भी नियम है।’ मैं उस टिप्पणीकर्ता का नाम भूल गया पर यह बात मेरे ध्यान में थी और उनकी बात से मैं सहमत था। जो लोग इस बात को समझेंगे वही आग लाभ दायक स्थिति में रहने वाले हैं। हिंदी केवल भारत में भारतीय बोलेंगे, पढ़ेंगे और समझेंगे अब यह कोई अनिवार्य बात नहीं रही! यह बात समझनी होगी और इस बात का ध्यान रखना होगा कि आने वाली पीढ़ी को हिंदी का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। संभव है कि आगे ज्ञान की पुस्तकें पहले हिंदी में आये और बाद में उनका अन्य भाषाओं में उसका अनुवाद हो। देश की प्रतिभाओं पर अविश्वास करने कोई कारण नहीं है। ऐसे में अंग्रेजी मोह पालने वालों को हिंदी के भविष्य पर विचार करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए-जिसके बारे में अनेक लोग लिखते आ रहे है।।

शब्द ही हमारे मित्र और गुरु-हास्य कविता


कलम और दवात लेकर
जब निकले थे घर से तो
नहीं जानते थे सम्मान क्या होता है
लिखने बैठे बचपन से
अपने गुजारे लम्हों की कहानी
अपने जजबात बयान किये अपनी जुबानी
भूल गए रोना क्या होता है
देखा है बस एक ही सच
काटता है वही आदमी जो उसने बोया होता है

कहैं दीपक बापू
मांगें तो सम्मान भी मिल जाता
पर इसके लिए कोई काबिल भी तो नजर आता
जो बेचते हैं सम्मान
उनको लिखना नहीं आता
जो पाते हैं चंद शब्द लिखकर
उनका लिखा भी हमारे समझ में नहीं आता
ऐसा लगता है कि
पहले सम्मान की सोचते हैं
बाद में लिखा होता है
हम तो अपने लिखे को कभी
सम्मान के योग्य नहीं पाते
तो सम्मान कहाँ से जुटाते
फिर मिलता तो जाकर लेना पड़ता
होता समय नष्ट
फिर हम दूसरों का लिखा कहाँ पढ़ पाते
और बिना पढे भला क्या लिख पाते
जो पढ़ते बिलकुल नहीं लिखते हैं जरूर
उनमें आ जाता है गुरुर
दूसरों के लिखे से ही लिखते हैं
इसलिए अपने को सर्वश्रेष्ठ
कहलवाने में हम वैसे भी शर्माते
अपनी कमअक्ली का पता था
इसलिए लिखना किया शुरू
शब्द ही हैं हमारे मित्र और गुरु
लिखने का मतलब उनसे मिलन भर होता है
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मनुस्मृति:राज्य दंड की शिथिलता समाज को नष्ट कर देती है


१.सारी प्रजा की रक्षा और उस पर शासन दंड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दंड ही जाग्रत रहता है. अत: बुद्धिमान लोग दंड को ही धर्म कहते हैं.
२.भली-भांति विचार कर दिए गए दंड से प्रजा प्रसन्न होती है, इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दंड से राज्य की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है.
३.यदि अपराधियों को सजा देने में राजा सदैव सावधानी से काम नहीं लेता तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर को उसी प्रकार नाश कर देते हैं, जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है.
४.यदि राज्य अपराधियों को दंड नहीं देगा तो कौवा पुरोडाश खाने लगेगा, श्वान हवि खा जायेगा और कोई किसी को स्वामी नहीं मानेगा और समाज उत्तम स्थिति से मध्यम और उसके बाद अधम होकर व्यवस्थाहीन हो जायेगा.

संत कबीर वाणी:जादू टोना सब झूठ है


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।

बोलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि
कहैं कबीर ता दास को, कबहु न आवै हारि

इसका आशय यह है कि जो आदमी वाणी के महत्त्व को जानता है,, समय देखकर उसके अनुसार सोच और विचार कर बोलता है और अपने लिए उचित स्थान देखकर बैठता है वह कभी भी कहीं भी पराजित नहीं हो सकता।

जंत्र मन्त्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय

संत शिरोमणि कबीरदास जीं का यह आशय है कि यन्त्र-मन्त्र एवं टोना-टोटका आदि सब मिथ्या हैं। इनके भ्रम में मत कभे मत आओ। परम सत्य के ठोस शब्द-ज्ञान के बिना, कौवा कभी भी हंस नहीं हो सकता अर्थात दुर्गुनी-अज्ञानी लोग सदगुनी और ज्ञानवान नही हो सकते

चाणक्य नीति:असंयमित जीवन से व्यक्ति अल्पायु


1.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

2.जो सुख चाहते है वह विद्या छोड़ दें। जो विद्या चाहते हैं वह सुख छोड़ दें। सुखार्थी को ज्ञान और ज्ञानार्थी को सुख कहाँ मिलता है। बिना सोचे-समझे खर्च करने वाला, अनाथ, झगडा करने वाला तथा असंयमित जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति अल्पायु होते हैं।धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या संग्रह में और वाद-विवाद में जो निर्लज्ज होता है, वही सुखी होता है।

3.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

काहेका भला आदमी!


वह सुबह जाने की लिए घर से निकले, तो कालोनी में रहने वाले एक सज्जन उनके पास आ गए और बोले-”मेरी बेटी कालिज में एडमिशन लेना चाहती है उसे कालेज में प्रवेश का लिए फार्म चाहिये. आपका उस रास्ते से रोज का आना-जाना है. आप तो भले आदमी हैं इसलिए आपसे अनुरोध है कि वहाँ से उसका फार्म ले आयें तो बहुत कृपा होगी.”

वह बोले-”इसमें कृपा की क्या बात है? आपकी बेटी तो मेरी भी तो बेटी है. मैं कालिज से उसका फार्म ले आऊँगा.”

समय मिलने पर वह उस कालिज गए तो वहाँ फार्म के लिए लाइन लगी थी. वह फार्म लेने के लिए उस लाइन में लगे और एक घंटे बाद उनको फार्म मिल पाया. वह बहुत प्रसन्न हुए और घर आकर अपना स्कूटर बाहर खडा ही रखा और फिर थोडा पैदल चलकर उन सज्जन के घर गए और बाहर से आवाज दी वह बैठक से बाहर आये तो उन्होने उनका फार्म देते हुए कहा-“लीजिये फार्म”
सज्जन बोले-“अन्दर तो आईये. चाय-पानी तो लीजिये.”
वह बोले-“नहीं, मैं जल्दी में हूँ. बिलकुल अभी आया हूँ. फिर कभी आऊँगा.”

सज्जन फार्म लेकर अन्दर चले गए और यह अपनी घर की तरफ. अचानक उन्हें याद आया कि’फार्म भरने की आखरी तारीख परसों है यह बताना भूल गए’.
वह तुरंत लौट गए तो अन्दर से उन्होने सुना कोई कह रहा था-‘आदमी तो भला है तभी तो फार्म ले आया .’
फिर उन्होने उन सज्जन को यह कहते हुए सुना-”कहेका भला आदमी है. फार्म ले आया तो कौनसी बड़ी बात है. नहीं ले आता तो मैं क्या खुद ही ले आता. जरा सा फार्म ले आने पर क्या कोई भला आदमी हो जाता है.”
वह हतप्रभ रह गए और सोचने लगे-‘क्या यह सज्जन अगर कह देते कि भला आदमी है तो क्या बिगड़ जाता. सुबह खुद ही तो कह रहा था कि आप भले आदमी हो.’

फिर मुस्कराते हुए उन सज्जन को आवाज दी तो वह बाहर आये उनके साथ दूसरे सज्जन भी थे. वह बोले-”मैं आपको बताना भूल गया था कि फार्म भरने की परसों अन्तिम तारीख है.”

वह सज्जन बोले-‘अच्छा किया जो आपने बता दिया है. हम कल ही यह फार्म भर देंगे.”-फिर वह अपने पास खडे सज्जन से बोले”यह भले आदमी हैं. देखो अपनी बिटिया के लिए फार्म ले आये.

वह मुस्कराये. उनके चेहरे के पर विद्रूपता के भाव थे. वह सज्जन फिर दूसरे सज्जन से मिलवाते हुए बोले-”यह मेरा छोटा भाई है. बाहर रहता है कल ही आया है.”

वह मुस्कराये और उसे नमस्ते की और बाहर निकल गए और बाहर आकर बुदबुदाये-” काहेका भला आदमी!

मूर्ति पूजा से भी होता है ध्यान जैसा लाभ


इस देश में आध्यात्म को लेकर दो धाराएं सदैव रहीं हैं. एक तो निर्गुण और निराकार ईश्वर की आराधना की प्रवर्तक रही हैं दूसरी सगुण और साकार की उपासक. मतलब यह कि इतिहास इस विषय सा जुडे विवाद पर पहले भी बहुत बहस हो चुकी है पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका-और कभी निकलना भी नहीं है. सगुण और साकार भक्ति के उपासक भगवान की मूर्तियों बनाकर उसकी पूजा करते हैं और निर्गुण और निराकार ध्यान, ज्ञान और नाम की चर्चा कर भक्ति भाव का प्रदर्शन करते रहे हैं. देखा जाये तो भारतीय आध्यात्म की यही विशेषता रही हैं उसने दोनों धाराओं को अपने अन्दर समेटा है. श्रीगीता पढने वाले इसे तरह की बहस में नहीं पड़ते क्योंकि उसमें सब कुछ स्पष्ट कर दिया है और निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की भक्ति को मान्यता देते हुए हृदय में शुद्ध भावना स्थापित करने का संदेश दिया गया है. विगत समय में दोनों विचारधाराओं के विद्वानों के मध्य तीव्र मतभेद रहे हैं पर समय के साथ इस देश के आध्यात्म ने दोनों को आत्मसात कर लिया. अब योग और ध्यान से निर्गुण और निराकार की उपासना करने वाले भी मंदिरों मे जाते हैं क्योंकि मूतियों के सामने जाकर प्रार्थना और ध्यान करने से भी मन को शांति मिलती है. मूर्तियों का स्वरूप हमारे अन्दर ऐसी तरंगें उत्पन्न करता है जिससे मन में सुख का अनुभव होता है.

कुछ विद्वानों का मत है कि मूर्तियों की पूजा भी एक तरह से ध्यान का ही रूप है क्योंकि उनको देखने से कुछ देर के लिए हमारा ध्यान सांसरिक वस्तुओं से हट जाता है और इससे मन को शांति मिलती है. आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अगर शुद्ध हृदय से पूजा की जाये तो प्रतिमा में भी भगवान् है. होता यह है कि कुछ लोग केवल मूर्ति की पूजा करते हैं पर ध्यान कहीं होता है और मूंह में मन्त्र और मन में दुनिया का तंत्र होता है और इसलिये वह अपने मन में शांति का अनुभव नहीं कर पाते. देखा जाये तो सभी देवी देवताओं की तस्वीरे इसलिये आकर्षक बनाईं जातीं हैं ताकि वह आदमी जिसे निरंकार का ध्यान लगाने में सहजता का अनुभव नहीं होता वह पहले साकार को अपने मन में धारण कर ध्यान लगाएं. हमारे देश में सहिष्णुता का भाव हमेशा रहा है इसलिये कभी मूर्तियों के स्वरूप को लेकर विवाद नहीं रहा है पर विश्व के जिन भागों में यह पहले हुआ करती थी वहां लोग अपने देवी-देवताओं की मूर्तियों को लेकर झगड़ते थे और इसी कारण उन जगहों पर मूर्ति पूजाओं को वर्जित करने वाली विचारधाराओं को बढावा मिला. भारत में कभी इस तरह भक्त आपस में नहीं लड़े कि हम अमुक भगवान् की मूर्ति को मानेंगे और अमुक को नहीं. सभी मूर्तियों की पूजा को साकार से निराकार की उपासना करने का एक जरिया माना गया. यही कारण है कि यहां कभी मूर्तियों को लेकर झगड़े नहीं हुए. हालांकि अब तमाम तरह के ढोंग और पाखंड हो गये हैं और कई लोगों ने मूर्ति पूजाओं की आड़ मे अपने व्यवसाय बना लिए हैं, और अपने देश के अधिकतर भक्तजन जो इन स्थानों पर जाते हैं और निष्काम भक्ति भाव से दर्शन कर लौट जाते हैं और इन पाखंडों में रूचि नहीं लेते पर जिनके स्वार्थ हैं और जिन्हें अपनी भक्ति का पाखण्ड करना है वही मूर्तियों को लेकर तमाम तरह के प्रचार करते हैं पर उनके लिए ज्यादा समर्थन नहीं होता.

जो लोग निरंकार ईश्वर की उपासना नहीं कर पाते उन्हें श्रद्धा भाव से भगवान् की मूर्तियों पर ही शुद्ध भाव से नमन करना चाहिए क्योंकि उससे भी मन को संतोष मिलता है उन्हें इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि वह मूर्ति किसी धातु या पत्थर की बनी है. उसके आकर्षण को अपने मन में धारण करना चाहिऐ, ऐसा करने से भी मन में प्रफुलता का भाव पैदा होता है. मूर्ति पूजा साकार से निराकार की तरफ जाने का मार्ग है और जो लोग निरंकार की उपासना करने में असहज अनुभव करते हैं और जीवन में तनाव अधिक महसूस करते हैं उन्हें किसी इष्ट की मूर्ति के समक्ष नमन करना चाहिए और हो सके तो आरती भी करना चाहिए. यह उपाय भी ध्यान जैसा लाभ प्रदान करता है अगर शुद्ध हृदय से किया जाये.

सच को बैसाखियों की जरूरत नहीं-हास्य कविता


पत्थरों पर लिखी इबारत भी
इतिहास का सच बयान नहीं करती
जिसे लिखना आता है
वह कुछ भी लिख सकता है
लिखने पर चलती है उसीकी मर्जी
पुराने समय से चलती कथाओं को भी
इतिहास मानना होगा गलती
क्या हम नहीं देखते
अपने सामने ही कैसे रचे जाते हैं स्वांग
कितने झूठ गढ़कर एक सच बनाया जाता है
ईमान की लाशों पर बेईमानी को
शिखर पर पहुंचाया जाता है
झूठ का दरिया बहता था पहले भी
और अब भी
सच तब भी किनारे खडा रहता था
और अब भी मुस्कराता है
झूठ तब भी इतिहास के रूप में
रचा गया हो सकता है
जैसे अब रचा जाता है
और सच को तो कभी
बैसाखियों की जरूरत नहीं हुआ करती
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देश में जनचेतना लाना जरूरी


आज एक चैनल पर विभिन्न मनोरंजक चैनलों पर संगीत कार्यक्रमों में नृत्य और संगीत की प्रतियोगिताओं में किये जा रहे निर्णयों के बारे में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए उन पर संशय व्यक्त किया गया. कुछ प्रतियोगी निर्णयों से सन्तुष्ट थे तो कुछ असंतुष्ट. कुछ हारे प्रतियोगियों ने मांग की प्रतियोगियों के जजों को पूर्ण अधिकार दिए जाने चाहिए तो कुछ ने कहा पचास प्रतिशत जजों को तथा पचास प्रतिशत एसएमएस को दिया जाना चाहिए तो कुछ ने अपने अन्य संशय भी जाहिर किये.

अभी तक इन प्रतियोगिताओं के कार्यक्रम पर लोगों को संशय था पर प्रचार माध्यम एकदम खामोश थे, इस संबध में कई अपने हिंदी के ब्लोग लेखक लिख चुके हैं. मैने भी कुछ हास्य कवितायेँ और आलेख इस बारे में लिखे. मैं यह दावा नहीं करता के इन ब्लोग लेखकों की वजह से समाचार माध्यम चेते हैं पर जब कहीं किसी सार्वजानिक विषय पर चर्चा शुरू होती है तो उस जगह तक जरूर जाती है जहाँ से उसका स्त्रोत मौजूद होता है.

लोगों में इस बार में पहले से ही संशय था और भारत के समाचार चैनलों से यह आशा की जा रही थी कि वह इस पर रोशनी डालें, आज एक चैनल ने इस पर अपना दूसरा पक्ष दिखाया है कल को दूसरा चैनल भी कर सकता है. अंतर्जाल पर हो रही चर्चाओं पर लोगों की नजर नही जाती यह कभी नहीं सोचना चाहिए. हो सकता है कि हमें कम पाठक देखते हैं पर कई लोग और संस्थाएं ऎसी हैं जो इस पर नजर रखती होंगी. हिंदी में अन्तर्जाल पर ब्लोग है यह सभी जानते हैं और जिनका काम ही जनसंपर्क का है वह लोग इस पर नजर रखेंगें ही. अत: ब्लोग लेखक यह मानकर चलें कि वह जो लिख रहे हैं और उसका प्रभाव होगा. बढ़ते बाजारी करण में लोगों को भ्रम में डालने के लिए नए नए तरीके आएंगे और उन पर अपने विचार व्यक्त कर जहां ब्लोग लेखक अपनी बात रखकर मन हल्का करेंगे और समाज में चेतना भी ला सकते हैं. इतना ही नहीं प्रचार मध्यम भी आगे चलकर इन पर नजर रखेंगें क्योंकि उन्हें यहाँ से अपने कार्यक्रमों के बारे में रूचि और अरुचि की जानकारी मिलेगी.

भारतीय प्रचार माध्यमों से जुडे लोगों को भी सतत ऎसी व्यवसायिक चालों पर नजर रखनी होगी, क्योंकि अब उन पर भी नजर रखी जा रही है. आजकल लोग बहुत जागरूक हैं और इन प्रतियोगिताओं पर उनके मन में संशय शुरू से ही है कि इनमें शायद ही विजेताओं का चयन उस तरह होता हो जैसा कि दावा किया जाता है. चैनलों द्वारा इस तरह की रिपोर्ट देने से उन लोगों को भी वास्तविक धरातल पर विचार करने का अवसर मिलेगा जो इससे अवगत नहीं थे. व्यवसायिक बाध्यताओं के चलते ऎसी प्रतियोगिताओं के विज्ञापन देने में कोई बुराई नहीं है पर जनचेतना उत्पन्न करने की जिम्मेदारी के तहत उन्हें इनकी वास्तविकताओं पर प्रकाश डालना भी उनका दायित्व है और यह उन्होने किया यह संतोष की बात है.

सच्चे आंकडे भी झूठ बोलते हैं


अगर कोई शब्दों पर यकीन नहीं करे तो उसे अंकों के जाल में फंसाओ-यह उन लोगों का नियम है जो झूठ के सहारे अपना काम चलाते हैं या उनको चलाना पड़ता है. मैने सांख्यिकी की किताब में एक विद्वान का कथन पढा था कि आंकडे हमेशा झूठ को सच साबित करने के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं. उस समय मुझे उस विद्वान के कथन पर विश्वास नहीं हुआ-सोचा जब सब अपने सामने हों तो उसे झूठ कैसे कहा जा सकता है.

पर अब सामने ही आंकड़ों का मायाजाल मौजूद हो और उसके ठीक विपरीत सच हो तो क्या कहा जाये? और अगर प्रमाण देखना हो तो बीसीसीआई की क्रिकेट टीम की को ही देख लो. आंकड़ों के दृष्टि से कितने महान खिलाड़ी भरे पडे हैं पर विश्व कप के नाम पर उनके खाते में जीरो दर्ज है. उनके द्वारा विश्व कप में भाग लेने की संख्या का जिक्र तो सब करते हैं पर कितनी बार जितवाया इस पर कोई बहस नहीं.

अगर कोई उन महान खिलाडियों से पीछा छुडाने की बात करे तो सब उसके पीछे पड़ जाता है कि इतने टेस्ट, इतने वन डै, इतने रन, इतने शतक और इतने कैच उसके खाते मना है कैसे हटाया जा सकता है? कहने वाला दो दिन में पलट जाता है कि मैने एसा नहीं कहा. फिर भारतीय टीम वहीं कि वहीं. अभी बीस ओवर में विश्व कप जीत कर आयी तो कहा गया कि उसकी तकनीकी अलग है, पर कंगारू तो पचास ओवर का मैच भी बीस ओवर की तरह खेल रहे हैं अब उसका जवाब भी तो उसी शैली में देना होगा. पर नहीं! आंकड़ों को देखो खेल नहीं. यह क्रिकेट अब बैट-बाल का नहीं बस आंकड़ों का रह गया. बीसीसीआई के खिलाडियों के पुराने आंकडे सुनो और खेल तो हम कंगारों का ही देखेंगे. भई क्या लाजवाब खेलते हैं. और अपने खिलाड़ी! उनके तो आंकडे देखो सब महान हैं. आंकडे तो सच्चे हैं झूठ बोलते हैं तो क्या?
सच्चे आंकडे भी झूठ बोलते हैं

शाश्वत प्रेम के कितने रुप


‘प्रेम’ शब्द मूलरूप से संस्कृत के ‘प्रेमन’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है-‘प्रिय का भाव’। ऐक अन्य प्रकार की व्युत्पत्ति दिखाई देती है, जहाँ प्रेम को ‘प्रीञ’ धातु से मनिन’ प्रत्यय करके सिद्ध किया गया है (प्रीञ+मनिन=प्रेमन)। इस द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार प्रेम का अर्थ है-प्रेम होना, तृप्त होना, आनन्दित होना या प्रेम, तृप्त और आनंदित करना।

निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अद्वैत मतावलंबियों ‘सच्चिदानंद’ कहा है। वह सत है क्योंकि उसका विनाश नही होता, वह चित है क्योंकि स्वयं प्रकाशमान और ज्ञानमय है तथा आनंद रुप है इसलिये कि वह प्रेममय है। यदि वह आनंदात्मक न हो तो उसके अस्तित्त्व और और चैतन्य की क्या सार्थकता रह जायेगी। सत-चित का भी प्रयोजन यह आनंद या प्रेम ही है। इसी प्रेम लक्षण के वशीभूत होकर वह परिपूर्ण, अखंड ब्रह्म सृष्टि के लिए विवश हो गया। वह न अकेले प्रेम कर सका , न तृप्त हो सका और न आनंद मना सका। तब उसके मन में एक से अनेक बन जाने की इच्छा हुई और वह सृष्टि कर्म में प्रवृत्त हुआ।

आनंद स्वरूप प्रेम से ही सभी भूतों की उत्पत्ति होती है, उसमें ही लोग जीते हैं और उसमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं। यही तथ्य तैत्तिरीयोपनिषद (३.६) की पंक्तियों में प्रतिपादित किया गया है।

प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड और उससे परे जो कुछ है- सब इसकी परिधि में आ जाते हैं। प्रेम संज्ञा भी है और क्रिया वाचक भी है। संज्ञा इसलिये कि सब में अंत:स्थ भाव रुप (मन का स्थायी भाव) है और यह भाव व्यक्त भी होता है अव्यक्त भी। क्रियात्मक इसलिये कि समस्त चराचर के व्यापारों का प्रेरक भी है व्यापारात्मक भी है। किन्तु मूल है अंत:स्थ का अव्यक्त भाव, जो अनादि और अनंत है, जो सर्वत्र और सब में व्याप्त है। यही अव्यक्त भाव रुप प्रेम सात्विक, राजस और तामस इन तीन गुणों के प्रभाव से विविध विकारों के रुप में बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है और व्यवहार में व्यक्त होता है ।

यही प्रेम बडों के प्रति आदर, छोटों के लिए स्नेह, समान उम्र वालों के लिए प्यार, बच्चों के लिए वात्सल्य, भगवान् के प्रति भक्ति , आदरणीय लोगों के लिए श्रद्धा, जरूरतमंदों के प्रति दया एवं उदारता से युक्त होकर सेवा, विषय-सुखों के संबध में राग और उससे उदासीनता के कारण विराग, स्व से (अपने से) जुडे रहने से मोह और प्रदर्शन से युक्त होकर अहंकार, यथार्थ में आग्रह के कारण सत्य, जीव मात्र के अहित से विरत होने में अहिंसा, अप्रिय के प्रति अनुचित प्रतिक्रिया के कारण घृणा और न जाने किन-किन नामों से संबोधित होता है। प्रेम तो वह भाव है जो ईश्वर और सामान्य जीव के अंतर तक को मिटा देता है। जब अपने में और विश्व में ऐक-जैसा ही भाव आ जाय, और बना रहे तो वह तीनों गुणों से परे शुद्ध प्रेम है।

यह प्रेम साध्य भी है प्रेम पाने का साधन भी है। साधारण प्राणी सर्वत्र ऐक साथ प्रेम नहीं कर सकता-इस तथ्य को देखते हुए ही हमारे देश के पूज्य महर्षियों ने भक्ति का मार्ग दिखाया जिससे मनुष्य अदृश्य ईश्वर से प्रेम कर सके। इन्द्रियों के वशीभूत दुर्बल प्राणियों के लिए ईश्वर से प्रेम की साधना निरापद है जबकि लौकिक प्रेम में भटकाव का भय पग-पग पर बना रहता है। ईश्वरीय प्रेम को सर्वोच्च प्रतिपादित करने के पीछे यही रहस्य छिपा है और ईश्वरीय प्रेम का अभ्यास सिद्ध होने के पश्चात प्राणी ‘तादात्म्य भाव’ की स्थिति में आरूढ़ हो जाता है और तब शुद्ध प्रेम की स्थिति उसे स्वयंसिद्ध हो जाती है। प्रेम की इस दशा में पहुंचकर साधक को अपने ही अन्दर सारा विश्व दृष्टिगोचर होने लगता है और संपूर्ण विश्व में उसे अपने ही स्वरूप के दर्शन होने लगते है। समस्त चराचर जगत में जब अपने प्रियतम इष्ट के दर्शन होने लगें तो समझ लेना चाहिऐ कि हमें अनन्य और शाश्वत प्रेम की प्राप्ति हो गयी।

(कल्याण से साभार)

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हिंदी टूल आते रहेंगे तुम लिखते रहो


हिंदी के नए और मेरे जैसे फ्लॉप ब्लॉगरों के के पास यूनीकोड के रास्ते पर चलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. इधर फिर सादा हिंदी फॉण्ट के यूनीकोड मे परिवर्तन के टूलों की चर्चा जो चलती दिख रही है उसमें कोई दम नहीं है-मैने उसके इस्तेमाल करने का प्रयास किया पर वह सफल नहीं हुआ. अगर देखा जाये तो मैं अंतर्जाल पर आने से पहले यूनीकोड के बारे में नहीं जानता और सादा हिंदी फॉण्ट में ही लिख रहा था और सच तो यह है कि जितना अपने अनुभय से जो बात मेरी समझ में आयी है कि अब इस पर बहस नहीं होना चाहिए कि हम किसमें लिखे रहे हैं, बल्कि यह देखना चाहिए कि हम लिख क्या रहे हैं.

कभी-कभी सादा हिंदी फॉण्ट की चर्चा होती है तो मेरा मन डोळ जाता है और सोचता हूँ कि आगे ऐसा टूल मिल जाये जिससे मैं अपने कृति देव फॉण्ट को अंतर्जाल पर स्थापित कर सकूं पर जब टूलों को आजमाता हूँ तो एक तो वह सफल नहीं होते और दूसरे उनके सफल होने या न होने से हिंदी के अंतर्जाल पर स्थापित करने में कोई मदद मिलेगी ऎसी मैं आशा नहीं करता-क्योंकि जब तक लोगों में लिखने का उत्साह नहीं होगा तब तक यह काम नहीं हो सकता . हिंदी के यूनीकोड से मुझे कोई परायापन नहीं लगता क्योंकि यह बनाया तो भारत के लोगों ने ही है. कृति देव क्योंकि हिंदी का शब्द है पर केवल इसलिये तो हिंदी टूल का समर्थन नहीं किया जा सकता. टूल को लेकर भाषाप्रेम जैसी बात सोचना भी गलत है क्योंकि मुख्य सवाल तो लिपि का है और वह देवनागरी में ही हम लिख और पढ़ रहे हैं. अगर हम इस बात पर अड़ंगा लगाएंगे कि नहीं यूनीकोड के विदेशी होने की अनुभूति है तो फिर कंप्यूटर और अंतरजाल भी तो विदेशी लोगों की ईजाद किये हुए है और हम इस्तेमाल कर ही रहे हैं और फिर यूनीकोड एक टूल है कोई भाषा नहीं है. अब रहा सवाल कि जो लोग केवल कृति देव में टाइप करते हैं वह कैसे ब्लोगिन्ग करें, तो सीधा सा जवाब है कि वर्ड में लिखकर उसे पिक्चर में पेस्ट कर उसे जे पी जी फ़ाइल में स्केन कर उसे ब्लोग पर लायें. हाँ उसका शीर्षक और शुरू की चार लाइनें यूनीकोड में टाइप करें ताकि उससे अंतर्जाल पर देखा जा सके और चौपाल वालों को भी समस्या न आये. वर्डप्रैस में मैने यह प्रयोग किया है और वह सफल भी रहे हैं और इसी कारण सादा हिंदी फॉण्ट के परिवर्तित टूल में में दिलचस्पी कम ही रह गयी है-ब्लागस्पाट के ब्लोग पर साइज बड़ा रखना पड़ता है और इस कारण मेहनत बहुत हो जाती है. हो सकता है कि कंप्यूटर का ज्ञान कम होने से मुझे ढंग से स्केन न करना आता हो.

मैं लगातार चिट्ठा चर्चा देखता हूँ और एसा लगता है कि अभी भी रेमिंगटन के कीबोर्ड पर टाइप करने वाले लोग बहुत हैं जबकि मैने बहुत समय से गोदरेज के कीबोर्ड को ही प्रचलन में देखा है. इन सबके बावजूद मैं मानता हूँ कि हमें यूनीकोड का इस्तेमाल करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए क्यों कि हमारे पास जो भी साधन हैं प्रयाप्त हैं . अभी गूगल का ट्रांसलेटर टूल मुझे बहुत अच्छा लगा-इस टूल की जानकारी मेरे एक एसे ब्लोगर मित्र ने दीं जिसकी कोई सलाह मेरे काम नहीं आयी. इस टूल के लिए मैं उसका आभारी हूँ . जिस तरह गूगल के हिंदी टूलों की किस्म देखी है उससे तो यही लगता है कि सादा हिंदी फॉण्ट को अंतर्जाल पर लाने वाला कोई फॉण्ट उनके पास कभी न कभी जरूर आयेगा. फिलहाल तो मैं स्वयं ही गूगल के ब्लोग के टूल पर निर्भर था पर यह नया टूल मुझे बहुत अच्छा लगा. मैने कई टूल देखें और उन्हें लोड करने का प्रयास किया पर कोई काम नहीं आया. इस चक्कर में दो बार कंप्यूटर ख़राब हो गया. इसलिये मैने तय किया है कि अब इसी टूल से काम चलाऊंगा. अपने साथियों के साथ अपने पाठकों को भी मेरी सलाह है अभी यूनीकोड टूल या स्कैन कर काम चलाएँ. मैं खुद कृति देव और देव में लिखने का आदी हूँ पर फिर भी बेधड़क इस यूनीकोड में लिख रहा हूँ और हो सकता है कि सादा हिंदी फॉण्ट को यूनीकोड में परिवर्तित करने वाला टूल आ जाये तब भी मैं इसे अपनाए रहूँ. आखरी बात यह ब्लोग (जिसे मैं अपनी पत्रिका कहता हूँ) भी अपने मन को खुश रखने का तरीका है. बस एक ही बात मेरे समझ में नहीं आती कि जब मैं कृति देव में लिखने वाला आदमी यूनीकोड में लिख सकता हूँ तो मेरे जैसे अन्य लोग इतने व्याकुल क्यों हैं और अपने रचना कर्म में और जोश खरोश से जुट जाते?

जब हिंदी के सादे फॉण्ट को यूनीकोड में परिवर्तन के लिए कोई वैज्ञानिक और प्रमाणित टूल आ जाये तभी सादा हिंदी फॉण्ट में रचना लिखकर पोस्ट करने का मन हो सकता है. मेरे विचार से अभी एसा कोई टूल अभी दिख नहीं रहा.

रहीम के दोहे: संबंधियों से दूरी भली



टूटे सुजन मनाईये, जौ टूटे सौ बार
रहिमन फिर पोहिए, टूटे मुक्ताहार

कवि रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार सच्चे मोतियों का हर टूट जाने पर बार-बार पिरोया जाता है, उसी प्रकार यदि सज्जन सौ बार भी नाराज हो जाये तो भी उन्हें सौ बार मना लेना चाहिऐ क्योंकि वे मोतियों के समान ही मूल्यवान होते हैं।

नात नेह दूरी भली, तो रहीम जिय जानि
निकट निरादर होत है, ज्यों गडही को पानि

कवि रहीम कहते हैं कि यह बात ऐक दम तय है कि संबंधियों से दूरी भली होती है। उनके निकट रहने से गड्ढे में भरे जल की भांति निरादर होता है।

देवनागरी में लिखा और रोमन में पढा


मुझे हिंदी ब्लोगों का रोमन में दिखने में कोई आपति नहीं है, और न ही लोगों के रोमन लिखने पढने में कोई दिलचस्पी है. मेरी प्रतिबद्धता अपनी हिंदी भाषा और देवनागरी से है पर इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी मर्जी पर दूसरों को चलने के लिए कहूं. बहुत कडी लगने के बावजूद वह यह कहने में मुझे कोई हर्ज नहीं है कि मैं रोमन लिपि में पढने वालों के लिए नहीं लिखता और अगर वह पढेंगे तो ठीक न ही पढ़ें तो ठीक है.

पहले एक चुटकुला लिखना सही लगता है. एक छोटा बच्चा बोलना नहीं सीख रहा था तो उसकी मां की सहेली ने उससे कहा’मैं तुम्हारे यहां अपना तोता छोड जाती हूँ वह तुम्हारे बच्चे को खेलते हुए बोलना सिखा देगा.’

वह अपना तोता वहीं छोड गयी. एक महीने बाद वह लौटी तो उसने देखा कि सहेली का बच्चा तो कुछ नहीं सीखा था बल्कि तोता ही राम-राम भूल गया और हुंगु….हुंगु बोल रहा था.

इधर जिस तरह रोमन पर चिट्ठा दिखने का प्रचार हो रहा है उससे तो डर लगता है कि कहीं वाकई अंतर्जाल पर देवनागरी लिपि का प्रचार ही बंद न हो जाये. ऐसा लगता है कि देवनागरी लिपि में शायद पाठक न मिल पाने की वजह से धीरज खत्म हो रहा है और अब रोमन लिपि पर ज्यादा ही भरोसा होने लगा है. मुझे इसमें भी कोई आपति नहीं है पर पिछले कुछ माह से वर्ड प्रेस के पाठकों का अध्ययन का रहा हूँ उससे लगता है कि मैं उन्हें सजग करता चलूँ कि मेरा चिट्ठा भी रोमन लिपि में दिख रहा है पर मैने उसे देवनागरी में ही लिखा है. अगर आप इसे रोमन में पढ़ रहे है और उसे देवनागरी में भी पढ़ सकते हैं तो वैसे ही पढे, यह मेरे ऊपर मेहरबानी होगी.

मुझे लगता है कि रोमन लिपि में इतने पाठक नहीं हो सकते जितने देवनागरी में मिलेंगे. मुझे तो लग रहा है कि कहीं लोगों के दिमाग में रोमन लिपि में हिंदी पढ़कर यह गलतफहमी न हो जाये कि यहाँ हिंदी ऐसे ही लिखी जाती है. कैसे? इसका जवाब यह है कि वर्डप्रैस के व्यूज देखकर पता लगता है कि अधिकतर पढने वाली रोमन लिपि में कबीर, चाणक्य, रहीम और आध्यात्म, लिखकर वहां आ रहे हैं. यह पिछले चार महीने से मैं देख रहा हूँ. और तो और मेरे चौपालों पर अपन्जीकृत ब्लोग भी इनकी पकड़ में आते हैं.इन सब लोगों को देवनागरी से अनजान मानना गलत होगा क्योंकि अभी यह सब लोगों को नहीं मालुम कि कोई हिंदी टूल भी उपलब्ध है. अब मैं सोच रहा हूँ कि कहीं इन जानकार लोगों को भी अगर वही रोमन लिपि वाली जगह दिखी और पढ़कर आधा-अधूरा आनंद लाकर तसल्ली करते रहे तो देवनागरी का प्रचार उतनी तेजी से नहीं होगा जितना हम समझ रहे हैं-होगा तो यह मेरा दावा है. अब एक संदेह और होता है कि अंग्रेजी में उनके लिखने के बाद उनके सामने हमारा कौनसा ब्लोग आयेगा-रोमन वाला या देवनागरी वाला.

हालांकि मैं ज्यादा चिंतित नहीं हूँ, क्योंकि हर भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है, तिस पर हिंदी तो और भी गजब की है उसे देवनागरी लिपि में ही लिखा और पढा जा सकता है. कमल कमल कमल और दीपक दीपक दीपक यह ऐक जैसे दिख रहे हैं, इन दोनों शब्दों को तीन अलग प्रकार से लिखा गया है. पर इन्हें रोमन में करें तो कोई भी कहेगा कि जिसने लिखा है वह अंग्रेजी में पैदल है. अपने ही ब्लोग को जब मैं पढ़ रहा था हो लग रहा था कि कई एसे शब्द हैं जिनकी स्पेलिंग रोमन में ग़लत है और गूगल वालों का हिंदी टूल हम हिंदी वालों पर तरस खाकर हिंदी में सही अनुवाद कर देता है. अभी यहाँ देंता शब्द चला जाता पर मुझे रोमन वालों का ख़्याल आया कि क्या पढेंगे? चलो इस बहाने भाषा में शुद्धिकरण की प्रवृति बढेगी.

अगर हिंदी की आत्मा देवनागरी है वैसे ही अंग्रेजी की आत्मा रोमन है. अगर मुझे कहीं अंग्रेजी का कोई शब्द देवनागरी में मिल जाता है तो थोडा दिक्कत आती है. कभी कुछ कहानियों में अंग्रेजी के वाक्य देवनागरी में पढने को मिल जाते हैं तो थोडा ध्यान से सोचकर पढते है पर अगर वही वाक्य रोमन में हो तो कोई समय नहीं लगता. हिंदी को रोमन में लिखना शायद कुछ लोगों को आसान लगता है पर पढ़ना उससे ज्यादा मुश्किल है. फिर उसकी गेयता का भी प्रश्न है. कम से कम मैं तो यही कह सकता हूँ कि अभी कोई निष्कर्ष निकालने से पहले यह देखना जरूरी है आगे इसका क्या स्वरूप सामने आता है. हिंदी चिट्ठों का रोमन में लिखने से ज्यादा गूगल का इंडिक ट्रांसलिटरेशन टूल की खुशी हुई. और यह लेख मैं उसी पर लिख रहा हूँ. साथ ही यह भी सोच रहा हूँ कि कहीं रोमन में पढने वाले स्पेलिंग की गलती निकालने लगे तो…….हिंदी वालों को ही इतना सब्र नहीं है बुध्दी और बुद्धि को चल जाने दें आखिर गूगल टूल पर कोई नया आदमी लिख रहा है. एसे में रोमन वालों ने भी यही तेवर दिखाए तो………मतलब हम जिस लिपि में लिख नहीं रहे उसका जवाब कहाँ से देंगे और किसी ने जब अपना प्रश्न पेश किया तो यह पता कैसे लगेगा कि किस लिपि वाले का सवाल है. उसने कहा कि तुमने कमल गलत लिखा है तो देवनागरी का लेखक अपने ही शब्द का उलट पलट का देखेगा पर वह तो उसका वैसा ही लिखा मिलेगा. देखो आगे-आगे क्या होता है.कही ऐसा न हो जाये देवनागरी में लिखने वाले इसे बात पर ज्यादा ध्यान देने लगें कि उनके रोमन में शब्द सही होना चाहिए और ऐसे मशगूल हो जाएँ कि देवनागरी लिपि में हिंदी को अंतर्जाल पर स्थापित करना याद ही न रहे.

आध्यात्मिक ज्ञान के बिना विकास अधूरा


देश को विकास की ओर ले जाने की बात सभी करते है और करना चाहिऐ, पर आज तक कोई भी स्पष्ट नहीं का सका कि उसका स्वरूप क्या? क्या भौतिक साधनों के उपलब्धि ही विकास है? क्या आदमी के मानसिक विकास को कोई मतलब नही है?

अगर हम विकास का अर्थ केवल भौतिक विकास से करते हैं तो वह स्वाभाविक रुप से आता ही है, और साथ में विनाश भी होता है। जो आज है उसका स्वरूप भी बदलेगा-इसी बदलाव को हम विकास कहते हैं और फिर एक दिन उसका विनाश भी होता है। इतने सारे भौतिक साधन होते हुए भी पूरे विश्व में अमन चैन नहीं है। एक तरफ सरकारें विकास का ढिंढोरा पीटती हैं दूसरी तरफ आतंकवादी उन्हीं साधनों का इस्तेमाल गलत उद्देश्यों के लिए करते है उनके पास धन और अन्य साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और जैसे जैसे संचार के क्षेत्र में नये नए साधन आ रहे आम आदमी के पास इस्तेमाल के लिए बाद में पहुंचते है आतंकवादी उसे शुरू कर चुके होते हैं। इसका सीधा आशय यही है उनके पास धन और साधनों की उपलब्धता है पर विचार शक्ति नहीं है। यह विचार शक्ति तभी आदमी में आती है जब वह अपने अध्यात्म को पहचानता है। आजकल आदमी को भौतिक शिक्षा तो दीं जाती है पर अध्यात्म का ज्ञान नहीं दिया जाता और वह दूसरों के लिए उपयोग की वस्तु बनकर रह जाता है।

हमारा देश विश्व में अध्यात्म गुरू की छबि रखता है और यहां के अध्यात्म आदमी में सर्वांगीण विकास कि प्रवृति उत्पन्न करता है। हमारे महर्षियों और संतों ने अपनी तपस्या और तेज से यहाँ ऐसे बीज बो दिए हैं जो आज तक हमारे देश की छबि उज्जवल है पर अपने धर्म ग्रंथो को असांसारिक और भक्ति से ओतप्रोत मानकर उन्हें नियमित शिक्षा से दूर कर दिया गया है, यही कारण है हमारे देश के प्रतिभाशाली लोग भौतिक शिक्षा ग्रहण कर विदेश में तो ख़ूब नाम कमा रहे हैं पर देश को उसका लाभ नहीं मिल पाया वजह हर जगह अज्ञान का बोलबाला है। वह विदेशों में नाम कमा रहे हैं और यहाँ हम खुश होते हैं पर कभी यह सोचा है कि हमारे देश में रहकर वह लोग कम क्यों नहीं कर पाये?

केवल भौतिक शिक्षा से सुख-समृद्धि तो आ सकती है पर शांति का केवल एक ही जरिया है और वह है अध्यात्म का विकास। इसका आशय यह है कि आदमी समय के अनुसार बड़ा होता है और अपने प्रयासों से भौतिक साधनों का निर्माण और संचय स्वाभाविक रुप से करेगा ही पर वह तब तक अध्यात्मिक विकास नहीं कर सकते जब तक उसे कोई गुरू नहीं मिलेगा। अगर हम विश्व में फैले आतंकवाद को देखें तो अधिकतर आतंकवादी भौतिक शिक्षा से परिपूर्ण है वह हवाई जहाज उड़ाने, कंप्युटर चलाने और बम बनने में भी माहिर है और कुछ तो चिकित्सा और विज्ञान में ऊंची उपाधिया प्राप्त हैं, इसके बावजूद आतंकवाद की तरफ अग्रसर हो जाते हैं उसमें उनका दोष यही होता है कि धन और धर्म के नाम पर भ्रम में डालकर उन्हें इस रास्ते पर आने को बाध्य कर दिया जाता है ।
इस तरह यह जाहिर होता है कि भौतिक साधनों के विकास के साथ अध्यात्म का विकास भी जरूरी है।

क्रिकेट देखने से अच्छा है ब्लोग पर लिखें


यूँ तो हारने के हजार बहाने हैं
पर घर में ही हार पर कितनी सफाई दो
यहां कौन माने हैं
बाहर जीत कर आये
तो शेर की तरह घर आये
कंगारुओं ने किया पलटवार
दो दिन में तारे नजर आये
नाम बडे हैं जिनके
दर्शन उनके छोटे तो हो जाने हैं

कहैं दीपक बापू
जीत का नशा इतनी जल्दी
उतर जायेगा किसे पता
स्कोर का कोई नाम लेवा नहीं था
फिर अब भीड़ जुटने लगी थी
लगता नही ज्यादा समय तक
चलेगा यह फिर खेल
अपने देश के क्रिकेट में पिटते देख कर
दुखी होने से ज्यादा अच्छा तो यह है कि
लोग अपने ब्लोग पर ही
शब्दों से खेलने लगें
अब तो इन्टरनेट पर ब्लोग
लिखने-पढने के दिन भी जरूर आने हैं
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कौटिल्य अर्थशास्त्र:दुष्ट के साथ संधि न करें


  • 1. दूर्भिक्ष और आपत्तिग्रस्त स्वयं ही नष्ट होता है और सेना का व्यसन को प्राप्त हुआ राज प्रमुख युद्ध की शक्ति नहीं रखता।
    2. विदेश में स्थित राज प्रमुख छोटे शत्रु से भी परास्त हो जाता है। थोड़े जल में स्थित ग्राह हाथी को खींचकर चला जाता है।
    3. बहुत शत्रुओं से भयभीत हुआ राजा गिद्धों के मध्य में कबूतर के समान जिस मार्ग में गमन करता है, उसी में वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
    4.सत्य धर्म से रहित व्यक्ति के साथ कभी संधि न करें। दुष्ट व्यक्ति संधि करने पर भी अपनी प्रवृति के कारण हमला करता ही है।
    5.डरपोक युद्ध के त्याग से स्वयं ही नष्ट होता है। वीर पुरुष भी कायर पुरुषों के साथ हौं तो संग्राम मैं वह भी उनके समान हो जाता है।अत: वीर पुरुषों को कायरों की संगत नहीं करना चाहिऐ।
    6.धर्मात्मा राजप्रमुख पर आपत्ति आने पर सभी उसके लिए युद्ध करते हैं। जिसे प्रजा प्यार करती है वह राजप्रमुख बहुत मुश्किल से परास्त होता है।
    7.संधि कर भी बुद्धिमान किसी का विश्वास न करे। ‘मैं वैर नहीं करूंगा’ यह कहकर भी इंद्र ने वृत्रासुर को मार डाला।
    8.समय आने पर पराक्रम प्रकट करने वाले तथा नम्र होने वाले बलवान पुरुष की संपत्ति कभी नहीं जाती। जैसे ढलान के ओर बहने वाली नदियां कभी नीचे जाना नहीं छोडती।
  • हिंदी भाषा की आत्मा है देवनागरी लिपि


    कुछ लोगों ने अगर यह तय कर लिया है कि वह हिंदी सहित देश की अन्य भाषाओं को रोमन में लिपि में लिखेंगे तो उसकी वजह उनका भाषा प्रेम तो हो ही नहीं सकता-भले ही वह उसका दावा करते हौं। भारत की अधिकांश भाषाओं की लिपि देवनागरी है और आम आदमी उसमें सहजता पूर्वक अध्ययन और लिखने का काम करता है। पर कुछ लोगों को अपने विद्वान होने का प्रदर्शन करने के लिए देवनागरी लिपि पर आपत्ति करना अच्छा लगता है और वह कर रहे हैं। मुझे इसकी संभावना चार वर्ष पूर्व ही लग गयी थी जब यह लगने लगा कि भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है।

    एक समय था कि लोग कहते थे कि हिंदी में पढने-लिखने का कोई मतलब नहीं है क्यों कि उससे रोजगार नहीं मिल सकता। सबने विदेशों में जाकर रोजगार पाने के ख़्वाब संजोते हुए अंग्रेजी की तरफ दौड़ लगाई। तब हिंदी के एक सिरे से खारिज करने वालों को उसकी लिपि में दोष देखने का समय ही कहॉ था क्यों कि हिंदी गरीबों की भाषा थी। मैं जानता हूँ कि भाषा का जितना संबंध भाव से है उतना ही रोजी-रोटी से भी है। उस समय भी मुझे यह नहीं लगता था कि हिंदी भाषा या देवनागरी लिपि कोई अवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है और न आज लगता है। यह दुनियां कि इकलौती ऎसी भाषा है जो जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। जब विश्व में भारत एक आर्थिक महाशक्ति बनने के तरफ अग्रसर है और उसके गरीब भी अब थोडा-बहुत पैसा रखने लगे हैं तब उसकी भाषा पर कब्जे की होड़ तो लगनी ही थी और जो लोग इसकी लिपि रोमन में देखना चाहते हैं उनके दो ही उद्देश्य हो सकते हैं ऐक तो उनको लगता है कि इससे उनको अच्छा व्यवसाय मिलने वाला है या फिर उनके मन में और हिंदी लेखकों को लिखते देखकर यह कुंठा हो रही है और वह सोचते हैं कि एक बार रोमन लिपि का मुद्दा उठा कर लोकप्रियता हासिल कर लें और फिर अपनी दूकान चाहे जिसमें चलाएँ।

    मैं उनको रोकना नहीं चाहता पर इतना जरूर का सकता हूँ कि हिंदी को रोमन लिपि में पढने वालों की संख्या है पर ज्यादा नहीं है-कुछ ब्लोग लेखकों अगर यह लगता है कि उनके ब्लोग रोमन लिपि में पढते हैं तो दूर कर लें। खासतौर से इस संबंध में विदेशी लोगों का हवाला दिया जाता है-पर वहाँ ऐसे बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें हिंदी देवनागरी लिपि में पढ़ना नहीं आता होगा और वह इसमें दिलचस्पी लेते होंगे। उनकी मानसिकता में ही हिंदी होगी इसमें भी शक है। रोमन में हिंदी पढ़ना अपने आप में बिचारगी की स्थिति है। अभी मैने अपना चिट्ठा एक जगह रोमन लिपि में देखा था और मैं यह सोचकर खुश हुआ कि चलो जो इसे रोमन में पढने की चाहत रखने वाले भी पढ़ सकेंगे-क्यों कि उस पर मेरी कोई मेहनत नहीं थी और अगर कोई ऐक दो लोग पढ़ लेते हैं तो बुराई क्या है, पर मैं वहां से ज्यादा पाठक मिलने की आशा नहीं कर सकता।

    ऐसा नहीं है कि रोमन लिपि में हिंदी पढने वाले नहीं मिल सकेंगे क्यों कि हमारे पडोसी देशों में फिल्मों की वजह से हिंदी समझने वालों की संख्या बहुत है और उनमें कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिंदी में लिखे को पढने में दिलचस्पी लें और इसमें खास तौर से पाकिस्तान और बंगलादेश के लोग हो सकते हैं, उसी तरह क्षेत्रीय भाषाओं के भी उनके सीमावर्ती देशों के लोगों को रोमन लिपि में पढ़ना अच्छ लग सकता है। पर अगर हम इसी मद्दे नजर अपने देश के पाठकों को नजर अंदाज करेंगे तो गलती करेंगे। हम यह मानकर भी गलती कर रहे हैं कि देश का पाठक तो केवल चौपालों पर ही आकर पढता है और बाहर जो पढ़ रहे हैं वह सब विदेशों के रहने वाले भारतीय है। इन चौपालों के बारे में देश के लोग बहुत कम जानते है और कंप्यूटर में इन्टरनेट पह हिंदी पढने वाले अपने रास्ते से हिंदी का लिखा पढते हैं। जिन्हें हिंदी में लिखने का मोह है और वह देव नागरी लिपि का ज्ञान नहीं रखते या असुविधा महसूस करते हैं उनके लिए रोमन लिखना स्वीकार्य हो सकता है पर वह कोई बड़ा तीर मार लेंगे यह गलत फ़हमी उन्हें नहीं पालना चाहिए, क्यों कि अंतत: हिंदी की लिपि देवनागरी है और वही आम पाठक तक आपको पहुंचा सकती है, एक बात और कि विदेशों में हिंदी का आकर्षण वहाँ की भारतीयों की वजह से कम इस देश की अर्थव्यवस्था के कारण है। इसलिये रोमन लिपि वाले अगर अपने लिखे से पैसा कमाने की ताक़त रखते हैं तो ख़ूब लिखें पर देश की भाषाओं का उद्धार करने की बात न ही करें तो अच्छा है। उसी तरह ब्लोगर भी यह भूल जाये कि उनको रोमन लिपि से कोई आर्थिक या सामाजिक लाभ होने वाला है। हिंदी को जो भी उर्जा मिलेगी वह इस देश के पाठक से ही मिलेगी-और यह नहीं भूलना चाहिए की हिंदी भाषा की आत्मा देवनागरी लिपि ही है।

    पहले इसी ब्लोग पर प्रकाशित कविता
    अभी लिखा क्या है कि लिपि पर झगडने लगे
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    स्कूल से घर लौटे बच्चे आपस में
    रोमन और देवनागरी लिपि को
    लेकर लड़ने लगे
    ‘मैं तो रोमन में हिंदी लिखूंगा
    तुझे देवनागरी में लिखना है लिख
    दूसरा कहता है
    ‘मैं तो हिंदी में ही हिंदी जैसा दिखूंगा
    तुझे अंग्रेजी जैसा दिखना है तो दिख’
    माँ हैरान है और पूछती है
    ‘बेटा अभी तो शब्द ज्ञान आया है
    लिखोगे तुम तो पढेगा कौन
    तुम चिल्ला रहे हो
    कौन सुने और कौन पढे
    शब्द तो तभी पढा और सुना जाता है
    जब आदमी होता है मौन
    तुम क्या लिखोगे और क्या पढोगे
    प्रेमचंद, निराला, प्रसाद और कबीर को
    नहीं पढा लडाई झगडा करते हुए
    अपनी ज़िन्दगी गुजारोगे
    अभी तो बोलना शुरू किया है
    अब तक लिखा क्या है जो
    लिपि को लेकर लड़ने लगे हो
    हिंदी का जो होना है सो हॊगा
    पहले पढ़ना सीखो और फिर सोचो
    लोगों चाव से पढ़ें एसा नहीं लिखा तो
    तुम्हारा नाम भी अनाम होगा
    यह अभी से ही लग रहा है दिख
    जब यूनिकोड है तो काहेका झगडा
    रोमन में लिख देवनागरी में पढ
    रोमन में भी पढ देवनागरी में लिख’

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