Category Archives: hasya vyangy

धर्म और कमाई-हास्य साहित्य कविता


 

धर्म बन गयी है शय
बेचा जाता है इसे बाज़ार में,
सबसे बड़े सौदागर
पीर कहलाते हैं.
भूख, गरीबी, बेकारी और बीमारी को
सर्वशक्तिमान के  तोहफे बताकर
ज़माने को  भरमाते हैं.
मांगते हैं गरीब के  खाने के लिए पैसा
जिससे खुद खीर खाते हैं.
————————
धर्म का नाम लेते हुए
बढ़ता जा रहा है ज़माना,
मकसद है बस कमाना.
बेईमानी के राज में
ईमानदारी की सताती हैं याद
अपनी रूह करती है  फ़रियाद 
नहीं कर सकते दिल को साफ़ कभी 
हमाम में नंगे हैं सभी 
ओढ़ते हैं इसलिए धर्म का बाना.
फिर भी मुश्किल है अपने ही  पाप से बचाना..
 
 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

पैसे से गाडी खरीदी है रास्ता नहीं-व्यंग्य चिंतन


अब यह फिल्मों का ही प्रभाव कहा जा सकता है कि रास्ते पर गाड़ी चलाने वाले लड़के लड़कियां अपने आपको नायक नायिका से कम नहीं समझा करते। फिल्मों में अनेक गीत नायक नायिका को रास्ते पर कार या मोटर साइकिलें चलाते हुए फिल्माये जाते हैं। वह लड़के लड़कियों के दिमाग में इस तरह अंकित रहते हैं कि जब गाड़ी पर उनका पंाव आता है तो वह ऐसे सोचते हैं जैसे कि वह किसी फिल्म का अभिनय कर रहे हैं। उनको शायद पता ही नहीं नायक नायिका के ऐसे गाने वाले दृश्य रास्ते पर पैदल या गाड़ियों चलाते हुए फिल्माये दृश्यों को स्टूडियो में तैयार किया जाता है। वहां उनके आसपास ऐसा आदमी नहीं आ सकता जिसे फिल्म का निदेशक न चाहे।
आम सड़क पर ऐसा नहीं होता। वह निजी सड़क नहीं है और न ही वहां आपके लिये ऐसी कोई सुविधा है।
एक समस्या दूसरी भी है जिसे समझ लें। खराब सड़कों पर कम ही दुर्घटना होती है क्योंकि वहां लोग वाहन पर ही क्या पैदल ही सोचकर धीमी गति से चलते हैं। कभी कभी तो इतनी धीमी गति हो जाती है कि स्कूटर बंद कर ही उस पर बैठकर उसे घसीटा जाता है। अधिकतर दुर्घटनायें साफ सुथरी और डंबरीकृत सड़कों पर ही होती है जहां गाड़ियां तीव्र गति से चलाने में मजा आता है।
जब भी दुर्घटना की खबरें आती हैं ऐसी ही सड़कों से आती हैं। कार या मोटर साइकिल निजी रूप से आकर्षक वाहन हैं पर सड़कें केवल उनके लिये नहीं है। इन पर ट्रक और बसें भी चलती हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि ट्राली के साथ जुड़े ट्रेक्टर भी चलते हैं जिनके कुछ चालक उनको बैलगाड़ी की तरह चलाते हैं। यह ट्राली ऐसे ही जैसे भैंस! पत नहीं कब सड़क पर थोड़ा झटका खाने से उसकी कमर मटक जाये। उसके समानांतर चलते हुए हमेशा चैकस रहना चाहिये।
आखिर यह ख्याल क्यों आया? उस दिन सड़क पर दो लड़के अपनी मोटर साइकिल पर ट्रेक्टर और ट्राली के एकदम समानातंर जा रहे थे। आगे बैठा लड़का अपनी धुन में कुछ ऐसा आया कि दोनो हाथ छोड़कर मोटर साइकिल चलाता रहा। पता नहीं वहां उसके आगे कोई छोटा पत्थर का टुकड़ा या कागज को कोई छोटा ठोस पुलिंदा आ गया जिससे मोटर साइकिल लड़खड़ी गयी। मोटर साइकिल ट्राली की तरफ बढ़ती इससे पहले ही लड़के ने संभाल लिया। यह दृश्य देखकर किसी की भी सांस थम सकती थी। याद रखिये जब वाहन की गति तीव्र होती है तब रास्ते पर पड़ी कोई छोटी ठोस चीज भी उसको विचलित कर सकती है। हवाई जहाज को आकाश में चिड़िया भी विचलित कर देती है-ऐसी अनेक घटनाएं अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं।
यह तो केवल एक वाक्या है? यह सड़कें गरीब और अमीर दोनों के लिये बनी है। अपनी कार पर इतना मत इतराओ कि साइकिल छू जाने पर किसी गरीब को मारने लगो। यह सड़क केवल अमीर की नहीं है क्योंकि जिंदगी भी केवल वह नहीं जीते! यह सड़के के्रवल अमीरों की इसलिये भी नहीं है क्योंकि मौत भी केवल गरीब की नहीं होती। एक दिन वह अमीरों को भी लपेटती है। कार या मोटर साइकिल से टकराकर साइकिल सवार गरीब मरेगा तो कार और मोटर साइकिल वाले भी ट्रक, बस और ट्रेक्टर ट्राली से टकराकर बच नहीं सकते। तुम अपने पैसे से वाहन खरीदते हो सड़क नहीं।
नित प्रतिदिन दुर्घटनाऐं और टकराने पर जिस तरह झगड़े होते हैं उससे तो देखकर यही लगता है कि हम लोगों को रास्ते पर चलने की तमीज नहीं है। फिल्मी और धारावाहिक दृश्यों ने हमारी अक्ल का बल्ब फ्यूज कर दिया है।
कभी कभी तो लगता है कि सड़के तो उबड़ खाबड़ ही ठीक हैं क्योंकि लोग वाहनों को चलाते नहीं बल्कि घसीटते ही ठीक रहते हैं जहां उनको गति बढ़ाने का अवसर मिला वहां अपना होश हवास खो देते हैं। इसका मतलब क्या यह समझें कि हम अच्छी सड़कों के लायक नहीं है। याद रखो दुर्घटना के लिये सैकण्ड का हजारवां हिस्सा भी काफी है। इसलिये सड़क पर चलते हुए जल्दबाजी से बचो। इसलिये नहीं कि घर पर तुम्हारा कोई इंतजार कर रहा है बल्कि इसलिये क्योंकि बेमौत किसी को दूसरे क्यों मारना चाहते हो या मरना चाहते हो। न भी मरे तो शरीर का अंग भंग हमेशा ही जीवन का दर्द बन जाता है। हो सकता है कि इसमें लेख में कुछ कटु बातें हों पर क्या करें दर्द की दवा तो कड़वी भी होती है। वैसे भी कहते हैं कि नीम कड़वा है पर स्वास्थ के लिये उसका बहुत महत्व है। इस पर कुछ काव्यात्मक अभिव्यक्ति के रूप में पंक्तियां।

सड़कों पर इतनी तेज मत चलो कि
जमीन पर आ गिरो
पांव जमीन पर ही रखो
हवा में उड़ने की कोशिश मत करो कि
अपने ही ओढ़े दर्द के जाल में घिरो।
एक पल ही बहुत है दुर्घटना के लिये
वाहनों पर बिना अक्ल साथ लिये यूं न फिरो।
————
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

कड़वा सच बोलकर क्यों संताप सहो-हिंदी कविता


कहो कुछ भी
करो कुछ और।
बन जाओगे जमाने के सिरमौर।
सभी को सुनने में अच्छा लगे
ऐसे शब्द अपने मुख से कहो
कड़वा सच बोलकर क्यों संताप सहो
भीड़ में वाह वाह जुटा लो
शौहरत जिससे मिले
ऐसी अदाकारी लुटा दो
बाद में क्या करते हो
इस पर कौन करता है गौर।

…………………………….
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हमदर्दी बेजान होकर जताते-हिन्दी व्यंग्य कविता (bezan hamdardi-hindi satire poem)


अक्सर सोचते हैं कि
कहीं कोई अपना मिल जाए
अपने से हमदर्दी दिखाए
मिलते भी हैं खूब लोग यहाँ
पर इंसान और शय में फर्क नहीं कर पाते.
हम अपने दर्द छिपाते
लोग उनको ही ढूंढ कर
ज़माने को दिखाने में जुट जाते
कोई व्यापार करता
कोई भीख की तरह दान में देता
दिल में नहीं होती पर
पर जुबान और आखों से दिखाते.
हमदर्दी होती एक जज़्बात
लोग बेजान होकर जताते.
दूसरे के जख्म देखकर मन ही मन मुस्कराते.
—————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सोचने से सच का सामना-व्यंग्य चिंतन (sachne se sach ka samna-hindi vyangya)


कोई काम सोचने से वह सच नहीं हो जाता। आदमी की सोच पता नहीं कहां कहां घूमती है। बड़े बड़े ऋषि और मुनि भी इस सोच के जाल से नहीं बच पाते। अगर यह देह है तो उसमें बुद्धि, अहंकार और मन उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। इस सोच पर किसी बुद्धिमान और ज्ञानी का भी नियंत्रण नहीं रहता।
मान लीजिये कोई अत्यंत मनुष्य अहिंसक है। वह सपने में भी किसी के विरुद्ध हिंसा तो कर ही नहीं सकता पर अगर वह रात में सोते समय अपने कान में मच्छर के भिनभिनाने की आवाज से दुःखी हो जाता है उस समय अगर सोचता है कि इस मच्छर को मार डाले पर फिर उसे याद आता है उसे तो अहिंसा धर्म का पालन करना है। उसने मच्छर को नहीं मारा पर उसके दिमाग में मारने का विचार तो आया-भले ही वह उससे जल्दी निवृत हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि सोच हमेशा सच नहीं होता।
मान लीजिये कोई दानी है। वह हमेशा दान कर अपने मन को शांति प्रदान करता है। उसके सामने कुछ दादा लोग किसी ठेले वाले का सामान लूट रहे रहे हैं तब वह उसे क्रोध आता है वह सोचता है कि इन दादाओं से वह सामान छीनना चाहिये फिर उसे अपनी बेबसी का विचार आता है और वह वहां से चला जाता है। यह छीनने का विचार किसी भी दान धर्म का पालन करने वाले के लिये अपराध जैसा ही है। उस दानी आदमी ने दादाओं सामान छीनकर उस ठेले वाले को वापस लौटाने का प्रयास नहीं किया पर यह ख्याल उसके मन में आया। यह छीनने का विचार भी बुरा है भले ही उसका संदर्भ उसकी इजाजत देता है।
पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियों का खेल ऐसा है कि इंसान को वह सब खेलने और देखने को विवश करती हैं जो उसके मूल स्वभाव के अनुकूल नहीं होता। क्रोध, लालच, अभद्र व्यवहार और मारपीट से परे रहना अच्छा है-यह बात सभी जानते हैं पर इसका विचार ही नहीं आये यह संभव नहीं है।
मुख्य बात यह है कि आदमी बाह्य व्यवहार कैसा करता है और वही उसका सच होता है। इधर पता नहीं कोई ‘सच का सामना’ नाम का कोई धारावाहिक प्रारंभ हुआ है और देश के बुद्धिमान लोगों ने हल्ला मचा दिया है।
पति द्वारा पत्नी की हत्या की सोचना या पत्नी द्वारा पति से बेवफाई करने के विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को बुद्धिमान लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। कई लोग तो बहुत शर्मिंदगी व्यक्त कर रहे हैं। इस लेखक ने सच का सामना धारावाहिक कार्यक्रम के कुछ अंश समाचार चैनलों में देखे हैं-इस तरह जबरन दिखाये जाते हैं तो उससे बचा नहीं जा सकता। उसके आधार वह तो यही लगा कि यह केवल सोच की अभिव्यक्ति है कोई सच नहीं है। सवाल यह है कि इसकी आलोचना भी कहीं प्रायोजित तो नहंी है? हम इसलिये इस कार्यक्रम की आलोचना नहीं कर पा रहे क्योंकि इसे देखा नहीं है पर इधर उधर देखकर बुद्धिजीवियों के विचारों से यह पता लग रहा है कि वह इसे देख रहे हैं। देखने के साथ ही अपना सिर पीट रहे हैं। इधर कुछ दिनों पहले सविता भाभी नाम की वेबसाईट पर ही ऐसा बावेला मचा था। तब हमें पता लगा कि कोई यौन सामग्री से संबंधित ऐसी कोई वेबसाईट भी है और अब जानकारी में आया कि सच का सामना भी कुछ ऐसे ही खतरनाक विचारों से भरा पड़ा है।
इस लेखक का उद्देश्य न तो सच का सामना का समर्थन करना है न ही विरोध पर जैसे देश का पूरा बुद्धिजीवी समाज इसके विरोध में खड़ा हुआ है वह सोचने को विवश तो करता है। बुद्धिजीवियों ने इस पर अनेक विचार व्यक्त किये पर किसी ने यह नहीं कहा कि इस कार्यक्रम का नाम सच का सामना होने की बजाय सोच का सामना करना होना चाहिये। दरअसल सच एक छोटा अक्षर है पर उसकी ताकत और प्रभाव अधिक इसलिये ही वह आम आदमी को आकर्षित करता है। लोग झूठ के इतने अभ्यस्त हो गये है कि कहीं सच शब्द ही सुन लें तो उसे ऐसे देखने लगेंगे कि जैसे कि कोई अनूठी चीज देख रहे हों।
पहले ऐसे ही सत्य या सच नामधारी पत्रिकायें निकलती थीं-जैसे ‘सत्य कहानियां, सत्य घटनायें, सच्ची कहानियां या सच्ची घटनायें। उनमें होता क्या था? अपराधिक या यौन कहानियां! उनको देखने पर तो यही सच लगता था कि दुनियां में अपराध और यौन संपर्क को छोड़कर सभी झूठ है। यही हाल अब अनेक कार्यक्रमों का है। फिर सच तो वह है जो वास्तव में कार्य किया गया हो। अगर कथित सच का सामना धारावाहिक की बात की जाये तो लगेगा कि उसमें सोचा गया है। वैसे इस तरह के कार्यक्रम प्रायोजित है। एक कार्यक्रम में पत्नी के सच पर पति की आंखों में पानी आ जाये तो समझ लीजिये कि वह प्रायोजित आंसू है। अगर सच के आंसू है तो वह कार्यक्रम के आयोजक से कह सकते हैं कि-‘भई, अपना यह कार्यक्रम प्रसारित मत करना हमारी बेइज्जती होगी।’
मगर कोई ऐसा कहेगा नहीं क्योंकि इसके लिये उनको पैसे दिये जाते होंगे।
लोग देख रहे हैं। इनके विज्ञापन दाताओं को बस अपने उत्पाद दिखाने हैं और कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी रेटिंग बढ़ानी है। सच शब्द तो केवल आदमी के जज्बातों को भुनाने के लिये है। इसका नाम होना चाहिये सोच का सामना। तब देखिये क्या होता है? सोच का नाम सुनते ही लोग इसे देखना बंद कर देंगे। सोचने के नाम से ही लोग घबड़ाते हैं। उनको तो बिना सोच ही सच के सामने जाना है-सोचने में आदमी को दिमागी तकलीफ होती है और न सोचे तो सच और झूठ में अंतर का पता ही नहीं लगता। यहां यह बता दें कि सोचना कानून के विरुद्ध नहीं है पर करना अपराध है। एक पुरुष यह सोच सकता है कि वह किसी दूसरे की स्त्री से संपर्क करे पर कानून की नजर में यह अपराध है। अतः वहां कोई अपने अपराध की स्वीकृति देने से तो रहा। वैसे यह कहना कठिन है कि वहां सभी लोग सच बोल रहे होंगे पर किसी ने अगर अपने अपराध की कहीं स्वीकृति दी तो उस भी बावेला मच सकता है।
निष्कर्ष यह है कि यह बाजार का एक खेल है और इससे सामाजिक नियमों और संस्कारों का कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता मध्यम वर्ग के बद्धिजीवी-सौभाग्य से जिनको प्रचार माध्यमों में जगह मिल जाती है-इन कार्यक्रमों की आलोचना कर उनको प्रचार दे रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि उच्च और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों पर इसका प्रभाव होता है और उसे वही देख पाते हैं जो खामोशी से सामाजिक हलचलों पर पैनी नजर रखते हैं। बहरहाल मुद्दा वहीं रह जाता है कि यह सोच का सामाना है या सच का सामना। सोच का सामना तो कभी भी किया जा सकता है पर उसके बाद का कदम सच का होता है जिसका सामना हर कोई नहीं कर सकता
………………………….

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

बाजार में सजा स्वयंवर-हास्य व्यंग्य (bazar men swyanbar-hindi hasya vyangya)


वैसे तो भारतीय संस्कृति और संस्कारों में लोगों को ढेर सारे दोष दिखाई देते हैं पर फिर भी वह उसमें तमाम कथ्यों और तथ्यों की पुनरावृत्ति करते वही दिखाई देते हैं। भारतीय ग्रंथों में वर्णित हैं स्वयंवर की प्रथा। इसमें लड़की स्वेच्छा से वर का चुनाव करती है। भारतीय समाज में स्त्री को समान स्थान देने का दावा करने वाले इसी प्रथा का उदाहरण देते हैं।
सच बात तो यह है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मनुष्य मन को मोह लेने वाले सारे तत्व हैं। इससे आगे यह कहें कि जैसे जिसकी दृष्टि है वैसे ही वह उसे दिखाई देते हैं। हम अपने इन्हीं ग्रंथों को देखें तो उनका यह संदेश साफ है कि जिस दृष्टि से इस दुनियां को देखोगे वैसे ही दिखाई देगी। भारतीय ग्रंथों से आगे अन्य कोई सत्य ढूंढ नहीं सकता। भारत पर हमला करने वालों ने सबसे पहले उन स्थानों को जलाया और नष्ट किया जहां से पूरे देश में ज्ञान पहुंचता था। उन स्थानों पर योगी, योद्धा और युग का निर्माण होता था।
यही हमलावर अपने साथ आधे अधूरे कचड़ा बुद्धि वाल ज्ञानी भी ले आये जिन्होंने चमत्कारों और लोभ के सहारे यहां अपने ज्ञान का प्रचार किया। उन्होंने समाज में भेद स्थापित किये और यहां अपना परचम फहराया।

वह और उनके चेले माया की चमक में उस गहरे ज्ञान को क्या समझते? उन्होंने तो बस हाथ ऊपर उठाकर सर्वशक्तिमान से धन ,सुख और दिल की शांति मांगना ही सिखाया। इसे हम सकाम भक्ति का भी सबसे विकृत रूप कह सकते हैं। जीवन का अंतिम सत्य मौत है, पर उन्होंने अपने को जिंदा दिखाने के लिये मुर्दों को पूजना सिखाया।
सुना है आजकल एक अभिनेत्री का स्वयंवर का प्रत्यक्ष प्रसारण किसी टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है। स्वयंवर भारतीय समाज की एक आकर्षक और मन लुभावनी परंपरा रही है पर यह सभी लड़कियों के लिये नहीं है। स्वयंवर अधिकतर धनी मानी और राजसी युवतियों के भी इस आशा के साथ होते थे क्योंकि उसमें योद्धा, बुद्धिमान और सुयोग्य वर आने की संभावना अधिक होती थी। सामान्य लड़कियों के लिये स्वयंवर कभी आयोजित किये गये हों इसकी जानकारी नहीं है। भारतीय महापुरुषों तथा परंपराओं को सही ढंग से लोग नहीं इसलिये इन स्वयंवरों का इतिहास भी जानना जरूरी है। जिन आधुनिक लड़कियों के मन में उस अभिनेत्री को देखकर स्वयंवर की इच्छा जागे वह जरा यह भी समझ लें कि इन स्वयंवरों के बाद का इतिहास उन महान महिलाओं के लिये तकलीफदेह रहा है जो इन स्वयंवरों की नायिकायें थी।
सबसे पहले श्रीसीता जी के स्वयंवर का इतिहास देख लें। उनके पिता को अपनी असाधारण पुत्री-याद रहे वह राजा जनक को हल जोतते हुए मिली थी-के लिये असाधारण वर की आवश्यकता थी। श्रीराम के रूप में वह मिला भी। श्रीराम जी और श्रीसीता जी की यह जोड़ी पति पत्नी के रूप में आदर्श मानी जाती है पर दोनों ने कितने कष्ट उठाये सभी जानते हैं।
दूसरा स्वयंवर द्रोपदीजी का प्रसिद्ध है। उसके बाद जो महाभारत हुआ तो उससे श्रीगीता के संदेश इस विश्व में स्थापित हुआ। द्रोपदी को जीवन में कितना कष्ट हुआ सभी जानते हैं।
तीसरा स्वयंवर भी हुआ है जिसमें नारद जी ने भगवान विष्णु से श्रीहरि जैसा चेहरा मांग लिया तो उन्होंने वानर जैसा दे दिया। अपमानित होकर लौटे नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया कि कभी न कभी आपको वानर की सहायता लेनी पड़ेगी। श्रीरामावतार के रूप में यह शाप उन्होंने भोगा। जिसमें वानरों की सहायता लेनी पड़ी और उसमें भी श्रीहनुमान तो सेवक होते हुए भी श्रीहरि जैसे ही प्रसिद्ध हुए।
च ौथा स्वयंवर संयोगिता का है जिसमें से श्री प्रथ्वीराज उनका अपहरण कर ले गये। इतिहासकार मानते हैं कि वहां से जो इस देश में आंतरिक संघर्ष प्रारंभ हुआ तो वह गुलामी पर ही खत्म हुआ।
स्वयंवर एक अच्छी परंपरा हो सकती है पर सामान्य लोगों द्वारा इसे कभी अपनाया नहीं गया। वजह साफ है कि राजा या धनी आदमी के लिये तो कोई भी दामाद चुनकर उसको संरक्षण दिया जा सकता है पर सामान्य आदमी को देखदाख कर ही अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ता है। विवाह का मतलब होता है गृहस्थी बसाना। विवाह एक दिन का होता है पर गृहस्थी तो पूरे जीवन की है। इसमें आर्थिक और सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है।
वैसे एक बात समझ में नहीं आती कि आधुनिक समय में जो लोग आजादी से जीना चाहते हैं वह किसलिये विवाह के बंधन में फंसना चाहते हैं। अब तो अपने देश में बिना विवाह साथ रहने की छूट मिल गयी है। यहां याद रखने वाली है कि विवाह एक सामाजिक बंधन हैं। जो समाज आदि को नहीं मानते हुए इश्क के चक्कर में पड़ते हैं फिर इस सामाजिक बंधन के ंमें फिर उसी समाज को मान्यता क्यों देते हैं। कहीं धर्म बदलकर तो कहीं जाति बदलकर विवाह करते हैं। एक तरफ प्यार की आजादी की मांग उधर फिर यह विवाह जैसा सामाजिक बंधन! कभी कभी यह बातें हास्य ही पैदा करती हैं।
टीवी पर आता है कि प्यार पर समाज का हमला। अरे, भई जब आप अपने प्यार को एक समाज की विवाह प्रथा छोड़कर दूसरे की अपनाओगे तो हारने वाले समाज को तो गुस्सा आयेगा। यह स्वयंवर भी इसी तरह की परंपरा है। हिन्दू धर्म के आधार ग्रंथों की रचना के पीछे ऐसे ही स्वयंवर है पर फिर भी लोग इसे अब नहीं अपनाते।
आखिर में जाति और लिंग के आधार पर भेद करने वाली जिन ऋचाओं, श्लोकों और दोहों को हमारा हिन्दू समाज आज भले ही नहीं मानता पर उन्हीं की आड़ में उनकी आलोचना होती है पर जिसे पूरे समाज ने कभी नहीं अपनाया उसी स्वयंवर प्रथा का बाजारीकरण कर दिया। भई, यह बाजार है। आजकल इसमें स्वयंवर सज रहा है क्योंकि उससे बाजार पैसा कमा सकता है।
…………………………………

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जो सभी को पसंद हो वही कहो -हास्य कविता


प्रवचन करते समय
गुरुजी ने भक्तों को समझाया।
‘‘भ्रष्टाचार करना होता बहुत बड़ा शाप
दहेज समाज के लिये है एक शाप
इसी कारण देश और समाज
कभी आगे बढ़ न पाया।’‘

फिर गौर किया सामने तो
पूरा पंडाल खाली पाया
उन्होंने पूछा अपने शिष्य से
तो वहां से भी बड़ा दर्दनाक उत्तर आया।

‘महाराज, बोलने के लिये
बस क्या दो ही विषय थे
ध्यान, योग, और भक्ति पर
चाहे कुछ बोल देते
इस तरह लोगों की नाराजी तो न मोल लेते
भ्रष्टाचार का मायने भी जानते हैं आप
अपनी जेब में पैसा जाये तो कमाई
दूसरे करे तो पाप
मिट रहा है समाज पर
दहेज विरोध की बात नहीं करता आत्मसात
कन्या भ्रुण को गर्भ में मिटाकर
करने पर उतारू है आत्मघात
रग रग मेे जो पहुंचे गये रोग
अब बने व्यसन, जिसके नशे में जी रहे लोग
आपने शायद गुरु जी से
शिक्षा सही ढंग से नहीं पायी
‘लोगों को जो पसंद है वही बोलो’
यही नीति उन्होंने हमेशा अपनाई
इसलिये इतनी लोकप्रियता पाई
आपने उत्तराधिकार में जो गद्दी
उनसे पाई
समझो वह गंवाई
इस दहेज और भ्रष्टाचार पर बोलकर
आपने हमें भी संकट में पहुंचाया।’’
………………………..

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सनसनीखेज ख़बर और रोटी-हास्य व्यंग्य कविता


बोरवेल का ढक्कन खुला देख कर
सनसनी खबर की तलाश में भटक रहे
संवाददाता ने कैमरामेन से कहा
^रुक जाओ यहाँ
लगता है अपनी सनसनीखेज खबर पक रही है
अपनी टांगें वैसे ही थक रही है.

पास से निकल रहा चाय की रेहडी वाला भी रुक गया
और बोला
^साहब अच्छा हुआ!
आज अतिक्रमण विरोधी अभियान कि वजह से
मैं दूसरी जगह ढूंढ रहा था
आपके शब्द कान में अमृत की तरह पड़े
अब रुक यही जाता हूँ
आपको छाया देने के लिए
प्लास्टिक की चादर लगाकर
बैठने के लिए बैंच बिछाता हूँ
भगवान् ने चाहा तो दोनों का
काम हो जाएगा
कोई बदकिस्मती से गिरा इस गड्ढे में
तो लोगों का हुजूम लग जाएगा
आपकी सनसनीखेज खबर के साथ
मेरी भी रोटी पक जायेगी
अगर आप बोहनी कराओ तो अच्छा
इसके लिए सुबह से मेरी आँखें तक रही हैं.
————————-
नोट-यह व्यंग्य कविता काल्पनिक है तथा किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है. कोई संयोग हो जाये तो यह महान हास्य कवि उसके लिए जिम्मेदार नहीं है.

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हादसों का प्रचार -त्रिपदम (hindi tripadam)


बड़े हादसे
प्रचार पा जाते हैं
बिना दाम के।

चमकते हैं
नकलची सितारे
बिना काम के।

कायरता में
ढूंढ रहे सुरक्षा
योद्धा काम के।

असलियत
छिपाते वार करें
छद्म नाम से।

भ्रष्टाचार
सम्मान पाता है
सीना तान के।

झूठी माया से
नकली मुद्रा भारी
खड़ी शान से ।

चाटुकारिता
सजती है गद्य में
तामझाम से।

असमंजित
पूरा ही समाज है
बिना ज्ञान के।

………………………….

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

समाज और खानदान की छबि -दो व्यंग्य क्षणिकायें


जिन कहानियों में हर पल
क्लेशी पात्र सजाये जाते
उसी पर बने नाटक
सामाजिक श्रेणी के कहलाते
सच है समाज के नाम पर
लोग भी खुशी कहां पाते।
………………..
जिनकी बेइज्जती
सरेआम नहीं की जाती
बड़े खानदान की छबि उनकी बन जाती।
फिर भी बड़े खानदान पर
यकीन नहीं करना
उनकी बेईमानी भी
ईमानदारी की श्रेणी में आती।

……………………….

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

एक दिन क्या पूरा महीना है मज़े लेने का – व्यंग्य


वैलंटाईन डे की चर्चा आजकल सुर्खियों में हैं। इसका कुछ लोग विरोध करते हैं तो कुछ नारी स्वतंत्रता के नाम पर इसे मनाये रखने के पक्षधर हैं। सही तो पता नहीं है पर कोई बता रहा था कि पश्चिम में वैलंटाइन नाम के कोई संत हो गये हैं जिनकी स्मृति में यह दिवस मनाया जाता है। हिंदी के गहन ज्ञान रखने वाले एक सज्जन ने बताया कि इसे ‘शुभेच्छु दिवस’ कहा जाता है। बाजार और प्रचार में इसे प्रेम दिवस कहा जा रहा है और निश्चित रूप से इसका लक्ष्य युवाओं को प्रेरित करना है ताकि उनकी जेब ढीली की जा सके।
आज से दस पंद्रह वर्ष पूर्व तक अपने देश में पश्चिम में मनाये जाने वाले वैलंटाइन डे (शुभेच्छु दिवस) और फ्रैंड्स डे (मित्र दिवस) का नाम नहीं सुना था पर व्यवसायिक प्रचार माध्यमों ने इसे सुनासुनाकर लोगोें के दिमाग में वह सब भर दिया जिसे उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रायोजकों को युवक और युवतियों एक उपभोक्ता के रूप में मिल सकें।

मजेदार बात यह है कि वैलंटाईन डे को मनाने का क्या तरीका पश्चिम में हैं, किसी को नहीं पता, पर इस देश में युवक युवतियां साथ मिलकर होटलों में मिलकर नृत्य कर इसे मनाने लगे हैं। प्रचार माध्यमों का मुख्य उद्देश्य देश के युवा वर्ग में उपभोग की प्रवृत्ति जाग्रत करना है जिससे उसकी जेब का पैसा बाजार में जा सके जो इस समय मंदी की चपेट में हैं। आप गौर करें तो इस समय पर्यटन के लिये प्रसिद्ध अनेक स्थानों पर लोगों के कम आगमन की खबरें भी आती रहती हैं और प्रचार और विज्ञापनों पर निर्भर माध्यमों के लिये यह चिंता का विषय है।

बहरहाल हम इसके विरोध और समर्थन से अलग विचार करें। इस समय बसंत का महीना चल रहा है। बसंत पंचमी बीते कुछ ही दिन हुए हैं। यह पूरा महीना ही प्रेम रस पीने का है। जो कभी कभार सोमरस पीने वाले हैं वह भी इस समय उसका शौकिया सेवन कर लेते हैं। पश्चिम में शायद लोगों को समय कम मिलता है इसलिये उन्होंने आनंद मनाने के लिये दिन बनाये हैं पर अपने देश में तो पूरा महीना ही आनंद का है फिर एक दिन क्यों मनाना? अरे, भई यह तो पूरा महीना है। चाहे जैसा आनंद मनाओ। बाहर जाने की क्या जरूरत है? घर में ही मनाओ।

दरअसल संकीर्ण मानसिकता ने संस्कृति और संस्कारों के नाम पर लोगों की सोच को विलुप्त कर दिया। हालत यह है कि बच्चे शराब पीते हैं पर मां बाप को पता नहीं। बाप के सामने बेटे का पीना अपराध माना जाता है। सच बात तो यह है कि परिवार में अपने से छोटों से जबरन सम्मान कराने के नाम पर कई बुराईयां पैदा हो गयी हैं। कहा जाता है कि जिस प्रवृत्ति को दबाया जाता है वह अधिक उबर कर सामने नहीं पाती।

एक पिता को पता लगा कि‘उसका पुत्र शराब पीता है।’
पिता समझदार था। उसने अपने पुत्र से कहा-‘बेटा, अगर तूने शराब पीना शुरु किया है तो अब मैं तुम्हें रोक नहीं सकता! हां, एक बंदिश मेरी तरफ से है। वह यह कि जितनी भी पीनी है यहां घर में बैठकर पी। मुझसे दूसरे काम के लिये पैसे लेकर शराब पर मत खर्च कर। तेरी शराब की बोतल मैं ले आऊंगा।’
लड़के की मां अपने पति से लड़ने लगी-‘आप भी कमाल करते हो? भला ऐसा कहीं होता है। बेटे को शराब पीने से रोकने की बजाय उसे अपने सामने बैठकर पीने के लिये कह रहे हो। अरे, शराब पीने में बुराई है पर उसे अपने बड़ों के सामने पीना तो अधिक बुरा है। यह संस्कारों के विरुद्ध है।
पति ने जवाब दिया-‘याद रखना! बाहर शराब के साथ दूसरी बुराईयां भी आयेंगी। शतुरमुर्ग मत बनो। बेटा बाहर पी रहा हो और तुम यहां बैठकर सबसे कहती हो ‘मेरा बेटा नहीं पीता‘। तुम यह झूठ अपने से बोलती हो यह तुम्हें भी पता है। उसे अपने सामने बैठकर पीने दो। कम से कम बाहरी खतरों से तो बचा रहेगा। ऐसा न हो कि शराब के साथ दूसरी बुरी आदतें भी हमारे लड़के में आ जायें तब हमारे लिये हालात समझना कठिन हो जायेगा।’
इधर बेटे ने एक कुछ दिन घर में शराब पी। फिर उसका मन उचट गया और वह फिर उस आदत से परे हो गया। पिता ने एक बार भी उसे शराब पीने से नहीं रोका।
अगर आदमी की बुद्धि में परिपक्वता न हो तो स्वतंत्रता इंसान को अनियंत्रित कर देती है और जिस तरह अनियंत्रित वाहन दुर्घटना का शिकार हो जात है वैसे ही मनुष्य भी तो सर्वशक्तिमान का चलता फिरता वाहन है और इस कारण उसके साथ यह भय रहता है।
भारतीय अध्यात्म ज्ञान और हिंदी साहित्य में प्रेम और आनंद का जो गहन स्वरूप दिखता है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। वेलंटाईन डे पर अंग्रेज क्या लिखेंगे जितना हिंदी साहित्यकारों ने बंसत पर लिखा है। बसंत पंचमी का मतलब एक दिन है पर बसंत तो पूरा महीना है। वैलंटाईन डे का समर्थन करने वालों से कुछ कहना बेकार है क्योंकि नारों तक उनकी दुनियां सीमित हैं पर जो इसका विरोध करते हैं उनको भी जरा बसंत पर कुछ लिखना चाहिये जैसे कवितायें और कहानियां। उन्हें बसंत का महात्म्य भी लिखना चाहिये। इस मौसम में न तो सर्दी अधिक होती है न गर्मी। हां आजकल दिन गर्म रहने लगे हैं पर रातें तो ठंडी हो जाती हैं-प्रेमरस में रत रहने और सोमरस को सेवन करने अनुकूल। किसी की खींची लकीर को छोटा करने की बजाय अपनी बड़ी लकीर खींचना ही विद्वता का प्रमाण है। वैलंटाईन डे मनाने वालों को रोकने से उसका प्रचार ही बढ़ता है इससे बेहतर है कि अपने बंसत महीने का प्रचार करना चाहिये। वैसे आजकल के भौतिक युग में बाजार अपना खेल दिखाता ही रहेगा उसमें संस्कृति और संस्कारों की रक्षा शारीरिक शक्ति के प्रदर्शन से नहीं बल्कि लोगों अपनी ज्ञान की शक्ति बताने से ही होगी।हां, यह संदेश उन लोगों को नहीं दिया जा सकता जिनको आनंद मनाने के लिये किस्मत से एक दिन के मिलता है या उनकी जेब और देह का सामथर््य ही एक दिन का होता है। सच यही है कि आनंद भी एक बोतल में रहता है जिसे हर कोई अपने सामथर््य के अनुसार ले सकता है। अगर आनंद में सात्विक भाव है तो वह परिवार वालों के सामने भी लिया जा सकता है। अंतिम सत्य यह है कि आंनद अगर समूह में मनाया जाये तो बहुत अच्छा रहता है क्योंकि उससे अपने अंदर आत्म विश्वास पैदा होता है। वैलंटाईन डे और फ्रैंड्स डे जैसे पर्व दो लोगों को सीमित दायरे में बांध देते हैं। इस अवसर पर जो क्षणिक रूप से मित्र बनते हैं वह लंबे समय के सहायक नहीं होते।
……………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जोखिम उठाना बेकार–हास्य व्यंग्य


अपने बास के आदेश पर टीवी कैमरामैन और संवाददाता कि सनसनीखेज खबर को ढूंढने लगे। वह अपनी कार में बैठे सड़कों पर इधर उधर घूम रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि एक आदमी पैदल चलते हुए सड़क पर बने एक गड़ढे में गिर गया। संवाददाता ने कार चालक को कार रोकने का इशारा किया और कैमरामैन से कहा-‘‘जल्दी उतरो। वह आदमी गड़ढे में गिर गया है।’’
कैमरामैने ने कहा-‘अरे सर! आप भूल रहे हो कि हमारा काम खबरें देना हैं न कि लोगों की मदद करना। कम से कम किसी गिरे को उठाने का काम तो हमारा बिल्कुल नहीं है।’
संवाददाता ने कहा-‘अरे, बीच सड़क पर गड्ढा बन गया है। उसमें आदमी गिर गया है। इस खबर से सनसनी फैल सकती है और नहीं फैलेगी तो गड्ढे की बदौलत हम उसे बना लेंगे। आदमी की मदद के लिये थोड़ी ही हम लोग चल रहे हैं।’
दोनों उतर पड़े। मगर तब तक वह आदमी वहां से उठ खड़ा हुआ और अपनी राह चलने लगा। संवाददाता उसके पास पहुंच गया और बोला-‘अरे, आप भी कमाल करते हैं। सड़क पर बने गड्ढे में गिर पड़े और बिना हल्ला मचाये चले जा रहे हैं। जरा रुकिये!’
उस आदमी ने कहा-‘भाई साहब, मुझे जल्दी जाना है। उधार वाले पीछे पड़े रहते हैं। अच्छा हुआ जल्दी उठ गया वरना अधिक देर लगाता तो हो सकता है कि यहां से कोई लेनदार गुजरता तो तकादा करने लग जाता।’
संवाददाता ने कहा-‘उसकी चिंता आप मत करिये। हम समाचार दिखाने वाले लोग हैं। किसी की हिम्मत नहीं है कि कोई हमारे कैमरे के सामने आपसे कर्जा मांग सके। आप वैसे ही इस गड्ढे में दोबारा गिर कर दिखाईये तो हम आपका फोटो टीवी पर दिखायेंगे। इससे गड्ढे के साथ आपका भी प्रचार होगा। आप देखना कल ही यह गड्ढा भर जायेगा।’
उस आदमी ने कहा-‘तो आप गड्ढे का ही फोटो खीच लीजिये न! कल अगर मेरा चेहरा लेनदारों को दिख गया तो उनको पता चलेगा कि मैं इसी शहर में हूं। अभी तो वह घर पर जाते हैं तो परिवार के सदस्य कह देते हैं कि बाहर गया है।’
संवाददाता ने कहा-‘कल तुम यहां की प्रसिद्ध हस्ती हो जाओगे किसी की हिम्मत नहीं है कि तुमसे कर्जा मांग सके। हो सकता है कि इतने प्रसिद्ध हो जाओ कि फिल्मों मेंं तुम्हें गड़ढे में गिरने वाले दृश्यों के लिये स्थाई अभिनेता मान लिया जाये।’
वह आदमी प्रसन्न हो गया। उसने गड्ढे में गिरने का अभिनय किया और इससे उसकी हथेली पहले से अधिक घिसट गयी और खरौंच के निशान बन गये। संवाददाता ने कैमरामैन को इशारा किया। इससे पहले वह फोटो खींचता कि संवाददाता का मोबाइल बज गया। उसने मोबाइल पर बात की और उसे तत्काल जेब में रखते हुए कैमरामैन से बोला-‘इसे छोड़ो। उधर एक सनसनीखेज खबर मिल गयी है। सर्वशक्तिमान की दरबार के बाहर एक चूहा मरा पाया गया है। अभी तक वहां कोई भी दृश्य समाचार टीम नहीं पहुंची है। इस खबर से सनसनी फैल सकती है।’

कैमरामैन ने- जो कि फोटो खींचने की तैयारी कर रहा था- संवाददाता के आदेश पर अपना कैमरा बंद कर दिया। संवाददाता और कैमरामैन दोनों वहां से चल दिये। पीछे से उस आदमी ने कहा-‘अरे, मरे चूहे से क्या सनसनी फैलेगी। तुम इस गड्ढे को देखो और फिर मेरी तरफ? मेरा हाथ छिल गया है? कितनी चोट लगी है।’
संवाददाता ने कहा-‘यह गड्ढा सड़क के एकदम किनारे है और तुम इधर उधर यह देखते हुए चल रहे थे कि कोई लेनदार देख तो नहीं रहा और गिर गये। इसलिये इस खबर से सनसनी नहीं फैलेगी। फिर पहले तो तुमको चोट नहीं आयी। टीवी पर दिखने की लालच पर तुम दूसरी बार गिरे। यह पोल भी कोई दृश्य समाचार देने वाला खोल सकता है। अब हमारे पास एक सनसनी खेज खबर आ गयी है इसलिये जोखिम उठाना बेकार है।
वह दोनों चले गये तो वह आदमी फिर उठकर खड़ा हुआ। यह दृश्य उसको रोज अखबार देने वाला हाकर देख रहा था। वह उसके पास आया और बोला-‘साहब, आप भी किसके चक्कर में पड़े गये और खालीपीली हाथ छिलवा बैठे।’
उस आदमी ने कहा-‘तुम अखबार में समाचार भी देते हो न! जाकर यह खबर दे देा कि दृश्य समाचार वालों के चक्कर में मेरी यह हालत हुई है। हो सकता है इससे प्रचार मिल जाये दूसरे दृश्य समाचार वाले मेरे से साक्षात्कार लेने आ जायें।’
हाकर ने कहा-‘साहब! मैं छोटा आदमी हूं। इन दृश्य समाचार वालों से बैर नहीं ले सकता। क्या पता कब अखबार की ऐजेंसी बंद हो जाये और हमें छोटे मोटे काम के लिये इनके यहां नौकरी के लिये जाना पड़े।’
वह आदमी अपने छिले हुए हाथ को देखता हुआ रुंआसे भाव से चला गया।
………………………………………………

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

hasya

रंगबिरंगे चेहरों के पीछे हैं काले चरित्र-व्यंग्य कविता


पढना जारी रखे

आम पाठक को चाटुकारिता या चांटाकारिता से मतलब नहीं होता-आलेख


हिंदी ब्लाग लेखकों का एक समूह इस बात के लिस बहुत हाथ पांव मार रहा है कि अंतर्जाल पर हिंदी का लेखन और पठन पाठन बढ़े। इसके लिये नये ब्लागर के प्रवेश कई ब्लागर लेखकों ने उसके स्वागत में कमेंट रखने का सिलसिला जारी रखा है। देखा जाये तो स्थिति में धीरे धीरे बदलाव आ रहा है पर जिस गति से प्रगति होना चाहिए वह नहीं हो रही । दरअसल हिंदी इस विशाल भारत देश के उपभोक्ताओं मेें सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। बाजार अपने उत्पाद बेचने के लिये हिंदी भाषा को एक हथियार की तरह उपयोग करना चाहता है। इस देश में सात करोड़ इंटरनेट कनेक्शन हैं-इसका आशय यह है कि इनमें हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या निसंदेह अधिक है पर फिर भी अंतर्जाल के हिंदी लेखकों की पहुंच उन तक नहीं हैं। बड़ी बड़ी कंपनियां वहां अपना माल पहुंचा रही है, पर अंतर्जाल पर लिखे गये हिंदी के शब्दों से प्रयोक्ता अभी बहुत दूर है। हिंदी ब्लाग जगेत के अनेक ब्लाग लेखक अगर हिंदी में अपनी पैठ बनाने का प्रयास इसलिये कर रहे हैं क्योंकि वह भविष्य में अपने लिये संभावना देखते हैं। उन्हें ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि आम प्रयोक्ता भी उनको पढ़ने के लिये लालायित हैं। मुश्किल यह है कि इन दोनों बीच संपर्क कायम करने के लिये कोई व्यवसायिक एजेंसी नहीं हैं और जो हैं वह केवल तात्कालिक लाभ के लिये लालायित हैं ओर उनके पास कोई दीर्घकालीन योजना नहीं है।

कल मीडिया से जुड़े दो लोगों ने हिंदी ब्लाग जगत में प्रवेश किया तो आज एक अभिनेता ने भी अपना ब्लाग लिखा। हिंदी ब्लाग जगत के अनेक ब्लाग लेखकों ने अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए टिप्पणियां लिखकर उनका स्वागत किया। प्रसिद्ध लोग हिंदी में ब्लाग बनायें या अंग्रेजी में उनको पाठक मिल जायेंगे पर हिंदी ब्लाग जगत के लिये उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका तब तक नहीं बन सकती जब तक सर्वांगीण रूप से हिंदी अंतर्जाल पर स्थापित नहीं हो पाती।

अभी देश के लिये अंतर्जाल एकदम नया है। देश का एक बहुत बड़ा वर्ग अंतर्जाल से दूर है। फिर आम लोगों के लिये इसमें या तो शिक्षा है या सैक्स। अभी लोगों को यह जानकारी मिलना है कि उन्हें यहां पढ़ने को वैसा भी मिल सकता है जैसा कि बाहर। टीवी चैनल और अखबारों की खबरों से लेाग संतुष्ट नहीं हैं। फिर यथास्थितिवादी लोगों के हाथ में यह प्रचार माध्यम है जो थोड़े बहुत बदलाव की हवा से भी घबड़ा जाते हैं। कुछ अलग हटकर पढ़ने की चाहत हर आदमी में है पर अंतर्जाल पर वैसा लिखा जा रहा है उसको जानकारी नहीं है।

लोग माने या नहीं सच यह है कि अंतर्जाल पर लिखने वाले अनेक ब्लाग लेखक सच्चाईया लिख रहे हैं। वह ऐसे समाचार देते हैं जो बाहर नहीं मिलते। वह खुलकर ऐसे विषयों पर वाद-विवाद करते हैं जिनसे प्रचार माध्यम संस्कृति,संस्कार और धार्मिक सहिष्णुता के भय के कारण बचते हैं। समस्त प्रचार माध्यम सच से मूंह चुरा रहे हैं पर ब्लाग लेखकों उन पर अपनी राय बेबाक रख रहे हैं। आम आदमी अगर चाहता कि वह सच पढ़े और सुने तो उसे हिंदी ब्लाग पढ़ना चाहिए। उसे अपने बच्चों को भी पढ़ने के लिये भी प्रेरित करना चाहिए। आजकल की शिक्षा और प्रचार माध्यम बच्चों में चिंतन और मनन की चिंगारी पैदा करने में विफल हो गये हैं। आप थोड़ा गौर करें तो लगेगा कि पूरा समाज ही अंधी दौड़ में भागे जा रहा है और लोग रुक कर विचार करने के लिये तैयार नहीं हैं। वह किसी बदलाव का विचार भी नहीं करते क्योंकि उनके चारों तरफ शोर बचाया जा रहा है यह खरीदी, वह खरीदो, यह देखो, वह देखो।

समाचार पत्र पत्रिकायें भी समसामयिक विषयों पर सतही लेख (वह भी लेखन के अलावा अन्य कारणों से प्रसिद्ध लोगों के होते हैं)लोगों को पढ़ने के लिये प्रस्तुत कर रहे हैं। इनमें से कई लेखक तो अंग्रेजी में लिखने के कारण प्रसिद्ध हुए हैं और उनके अंग्रेजी में लिखे का अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि हिंदी में नये लेखक पैदा होना ही बंद हो गये है। यह प्रचार केवल अपने बचाव के लिये बाजार अपना रहा है। हिंदी ब्लाग पर ऐसे लोग लिख रहे हैं जिनको पढ़ने पर पाठक किसी और को पढ़ना नहीं चाहेगा। वह पैदा कर सकते हैं हिंदी के पाठकों में विचार, चिंतन और मनन की चिंगारी जो बाहर कोई भी लेखक पैदा नहीं कर सकता। अध्यात्म और साहित्य की बात तो छोडि़ये समसामयिक विषयों पर भी ऐसे लेख समाचार पत्र पत्रिकाओं में पढ़ने को नहीं मिल सकते क्योंकि तमाम तरह के विज्ञापनों का बोझ उठाने वाले ऐसे गंभीर और प्रेरित करने वाले लेखों को अपने यहां स्थान नहीं दे सकते।

मुश्किल यह है कि हिंदी ब्लोग जगत को आगे लेने के इच्छुक अनेक लोगों के मन में केवल आत्मप्रचार का भाव है। यहां के अनेक लोगों ने बाहर जाकर केवल अपने ब्लाग का प्रचार किया। इससे उनको लाभ नहीं होना है क्योंकि यहां समूहबद्ध रूप से ही सफलता संभव है। हिंदी ब्लाग जगत में गुटबंदी के कारण इसमें बाधा आयेगी। प्रचार माध्यमों में अनेक लोगों ने स्वयं को ब्लाग लेखक के रूप में प्रचारित कर रखा है और वह अन्य किसी का नाम वहां नहीं लेतें। यहां गजब का लिखने वाले लोगों का नाम बाहर कोई नहीं लेता और ऐसा कर वह उन्हीं प्रचार माध्यमों की सहायता कर रहे हैं जिनको आगे इस ब्लाग जगत से चुनौती मिलने वाली है। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि आम पाठक की पसंद है समसामयिक विषयों पर गंभीर विचारोत्तेजक लेख, हास्य व्यंग्य, गंभीर और हास्य कवितायें, कहानियां तथा चुटकुले न कि उन्हें ब्लाग लेखकों की आपसी चाटुकारिता या चांटाकारिता।
दूसरी समस्या बड़े शहर के कुछ ब्लाग लेखकों का आत्म मुग्ध होना भी है। वह लोग मानकर चले रहे हैं कि हिंदी ब्लाग जगत की शुरूआत उन लोगों ने की है और वह अब सर्वश्रेष्ठ हैं ओर यही रूप सब जगह प्रचारित होना चाहिए। छोटे शहरो के ब्लाग लेखकों को तो केवल भीड़ की भेड़ की तरह समझा जा रहा है जबकि हकीकत यह है कि छोटे शहरों के अनेक लोग बेहतर लिख रहे हैं। अभी तक प्रचार माध्यमों में ब्लाग के नाम पर जिन लोगों के नाम आये हैं उनमें से ब्लाग लेखक कितनों को प्रभावपूर्ण मानते हैं यह एक अलग विषय है पर पिछले दिनों एक ऐजेंसी के कर्ताधर्ता की पत्रकार वार्ता का समाचार अखबारों में छपा उसमें वह ब्लाग लेखकों की बात तो कह रहा था पर किसी का नाम नहीं लिया। अगर पांच दस ब्लाग लेखकों के नाम लेता तो क्या बिगडता? मगर उसे तो केवल अपना प्रचार करना था। यह दिखाना था कि वह हिंदी ब्लाग जगत के लिये सक्रियता दिखा रहा है।

इसके बावजूद हिंदी ब्लाग जगत के लेखक आशावादी हैं क्योंकि यह शब्द अपना काम करेंगे किसी की चाटुकारिता नहीं। आगे वही ब्लाग लेखक प्रसिद्धि प्राप्त करेंगे जिनके लिखे में दम होगा। जहां तक वर्तमान प्रचार माध्यमों में प्रचार का प्रश्न है तो लोग आजकल अंतर्जाल पर ही अधिक विश्वास करते हैं और वहां जब धीरे धीरे किसी ब्लाग लेखक के शब्द प्रभावी काम करेंगे तो वह प्रसिद्ध हो जायेंगे। ऐसे में जिन लोगों को वास्तव में अंंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करना है उनको चेत जाना चाहिये। अगर वह चाहते हैं कि उनके प्रयासों की वजह से उनको प्रसिद्धि मिले तो उन लोगों को प्रोत्साहित करें जिनके आगे बढ़ने की संभावना है। जिनके शब्दों में प्रभाव है वह आज नहीं तो कल नाम करेंगे पर फिर वह किसी को अपना साथी नहीं बना

अपनी कविताओं से दूसरों के ईमेल कूड़ेदान की तरह नहीं सजाते-हास्य कविता


दनदनाता आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, आज मिल गया
तुम्हारे हिट होने का मंतर
अपने फ्लाप होने का दर्द भूल जाओ
अपने ब्लाग लिखकर दूसरों के ईमेल में
जबरन भिजवाओ
हर कोई एक उड़ाने से पहले एक बार
जरूर देखेगा
इस तरह अपना हिट भेजेगा
चलो आज से जमकर लिखो कविता
और हिट की सीढि़या चढ़ जाओ’

सुनते ही उठ खड़े हुए और
चिल्लाते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘निकल यहां से जल्दी
वरना देख इन जबरन घुसे ईमेल संदेशों की तरह
तुम्हारा नाम भी दोस्तों की लिस्ट से उड़+ा देंगे
क्या समझ रखा है कि
जिस बात से स्वयं परेशान है
वह व्यवहार दूसरे से करेंगे
कमबख्त, जवां दिलों को पटाने के लिये
यह कविताएं नहीं शायरों का नुस्खा है
जैसे उनके लिये तंबाकू का गुटका है
न दिमाग की सोच से इसका वास्ता
न दिल की तरफ जाता शब्दों का रास्ता
यह शब्द भोजन की तरह हैं
आदमी स्वयं दाना खाकर पेट भरता
मछली को खिलाकर फांसता
इन शब्दों में भाव कम
किसी को बहलाने और हिट होने का
ताव है ज्यादा
अपने लेखक और कवि होने का भ्रम
उसे सच बनाने का है इरादा
कविता ऐसे लिखी है जैसे लिखना हो नाश्ता
साहित्य में बहुत जल्दी हिट होने का
साजिश से निकाल रहे है रास्ता
असली लिखने वाले कभी
पाठकों के दरवाजे नहीं बजाते
ईमेल को कूड़ेदान की तरह नहीं सजाते
लिखा जाये दिन और दिमाग से
तो लेखक और कवि लिखने का ही
सुख बहुत उठा लेते
कोई पढ़े या नहीं इस चिंता से मूंह फेर लेते
भेज रहे हैं जो जबरन कवितायें
दूसरों के गुलदस्ते को कूड़ेदान की तरह सजायें
हम फ्लाप है फिर को परवाह नहीं
हिट होने का ऐसा मोह नहीं कि
दूसरों के सामने हिट के लिये भीख मांगें
हर लिखे गये शब्द कविता या कहानी नहीं हो जाते
जब तक पढ़ने वाले उसे हृदय से नहीं अपनाते
अरे, फैंक रहे हैं जो
कूड़ें की तरह अपनी रचनायें
भला वह कहां सम्मान पायें
पल भर में ईमेल से उड़ा दी जायें
अपनी पत्रिका ही है वह किला
जहां रचना चमकते रहे शब्द सोने की तरह
पढ़े जो वह सम्मान दें
जो न पढ़ें, वह नहीं करते गिला
किसी दूसरे के आगे जाकर
उनको क्या मिलेगा
जब आदमी को प्यार नहीं मिला
तुम निकल लो यहां से
साथ में अपना मंतर भी ले जाओ
……………………………………………..

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक बापू कहिन’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप का शब्दज्ञान-पत्रिका

दिल में कोई आईना नहीं हैं-हास्य कविता


आया फंदेबाज और बोला
-सुना है तुमने महाकवि की
उपधि स्वयं ही धारण की है
क्या इतनी कुंठा आ गयी कि
कोई सम्मान नहीं देता
कोई इनाम नहीं देता
या किसी अन्य कारण से की है
अरे, कुछ नैतिकता की बातें लिखते
भले ही वैसे हमें न दिखते
अंतर्जाल पर कौन देखता है
आदर्श की बातें हर कोई फैंकता है
तुम भी शांति की बातें करते
भले ही हम से झगड़ा करते
अब मुश्किल होगा तुम्हारे लिये
यह महाकवि की पदवी
चाहे किसलिये भी धारण की है’

अपनी पहले टोपी पहनी और
फिर आंखें तरेरते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘सब संभव है हमारे लिये
सिवाय झूठ बोलने के
और शब्द लिखना बिना तोलने के
कभी नहीं कर सकते काम
स्वभाव मे अस्वाभाविकता घोलने के
नैतिकता की बात नहीं कर सकते
अपने आचरण से मूंह नहीं फेर सकते
हाल ही किसी की बात पर गुस्सा आता
भला ऐसे में शांति का संदेश कैसे लिख पाता
किसी की असहमति पर
आ जाता है मन में ताव
कैसे दिखाएं दूसरों को अहिंसा का भाव
अपनी मूर्खताओं का हमें ज्ञान है
कैसे लोगों को बतायें कि विद्वान है
यह तो मालुम है कि
शांति, अहिंसा और नैतिकता की बात लिखकर
हम भी हिट हो जाते
पर अपने से मूंह कैसे छिपाते
कैसे करें सिद्धांतवादी होने का नाटक मंचन
हर पल तो करते हैं आत्ममंथन
अपने अंदर ढेर सारे दोष नजर आते
इसलिये अपनी बात हास्य में कह जाते
चिंतन में भी नहीं छिपाते
देखा है लोगों को दोगली बातें कर हिट लेते हुए
देते हैं नैतिकता का संदेश देते मंच पर
नीचे उतरकर उपहारों की किट लेते हुए
क्षमा को वरदान बताने वाले
बन जाते मारधाड़ कर दान की रकम बचाने वाले
सच को सीधे न कहें
हास्य में तो कह ही जाते हैं
लोग हंसी में सुनने पर घबड़ा जाते हैं
भर गये हैं लोगों के धन और सम्मान से खजाने
पर फिर भी होते अपनों में बेगाने
कोई हमें क्यों उपाधि देता
पहले हमसे हमारी पगड़ी पैरों में रखवा लेता
इस राह पर अकेले हैं
इसलिये ही यह उपाधि धारण की है
दिल में कोई आईना नहीं है
जो हमारा सच हमें दिखा सके
यह गफलत इसी कारण की है
………………………………

शब्द हमेशा हवाओं में लहराते हैं-कविता


हर शब्द अपना अर्थ लेकर ही
जुबान से बाहर आता है
जो मनभावन हो तो
वक्ता बनता श्रोताओं का चहेता
नहीं तो खलनायक कहलाता है
संस्कृत हो या हिंदी
या हो अंग्रेजी
भाव से शब्द पहचाना जाता है
ताव से अभद्र हो जाता है

बोलते तो सभी है
तोल कर बोलें ऐसे लोगों की कमी है
डंडा लेकर सिर पर खड़ा हो
दाम लेकर खरीदने पर अड़ा हो
ऐसे सभी लोग साहब शब्द से पुकारे जाते हैं
पर जो मजदूरी मांगें
चाकरी कर हो जायें जिनकी लाचार टांगें
‘अबे’ कर बुलाये जाते हैं
वातानुकूलित कमरों में बैठे तो हो जायें ‘सर‘
बहाता है जो पसीना उसका नहीं किसी पर असर
साहब के कटू शब्द करते हैं शासन
जो मजदूर प्यार से बोले
बैठने को भी नहीं देते लोग उसे आसन
शब्द का मोल समझे जों
बोलने वाले की औकात देखकर
उनके समझ में सच्चा अर्थ कभी नहीं आता है

शब्द फिर भी अपनी अस्मिता नहीं खोते
चाहे जहां लिखें और बोले जायें
अपने अर्थ के साथ ही आते हैं
जुबान से बोलने के बाद वापस नहीं आते
पर सुनने और पढ़ने वाले
उस समय चाहे जैसा समझें
समय के अनुसार उनके अर्थ सबके सामने आते हैं
ओ! बिना सोचे समझे बोलने और समझने वालों
शब्द ही हैं यहां अमर
बोलने और लिखने वाले
सुनने और पढ़ने वाले मिट जाते हैं
पर शब्द अपने सच्चे अर्थों के साथ
हमेशा हवाओं में लहराते हैं
……………………….
दीपक भारतदीप

हास्य कविताएं और गंभीर चिंतन है पाठकों की पसंद-संपादकीय


कविता लिखना बहुत सहज है और कोई भी लिख सकता है पर वह पाठक के हृदय में उतर जाये वही कविता उसकी भाषा का साहित्य बन जाती है। जहां कवि में यह भावना आयी कि वह अपने लिखे से समाज में बदलाव लायेगा वहां न केवल अपनी रचनाधर्मिता को खो बैठता है वहीं कुछ समय बाद अपनी रचनाओं से ही निराश होने लगता है। मूलतः मैं भावुक हूं और मुझे कवि होना चाहिए पर मैंने अपनी पहली रचनाएं गद्य के रूप में ही लिखी। यही कारण है कि मेरी कविताओं के गद्य होने का बोध भी होता है। मैं अपने लिखने पर स्वयं खुश होता हूं पर अगर कोई उसे पढ़ता है तो और भी खुशी होती है।

मेरी अनेक संपादकों से मित्रता है और जब मैं उनको अपनी कविता प्रकाशन के लिए देता हूं तो नाकभौं सिकोड़ लेते हैं और अगर उसे ही मैं खड़े ही गद्य कर दूं तो वह उसे छाप लेते हैं। कुछ लंबी कवितायें मैंने जानबूझकर लिखकर एक संपादक को दीं तो वह बिना देखे ही उनको नकारते हुए कहने लगे-‘अरे यार, कोई गद्य रचना हो तो दो। मैंने उससे दो कागा मांगे और बातें करते हुए ही उसी कविता को गद्य में बदल दिया। वह छप गयी और उसकी तारीफ भी हुई। मेरे एक मित्र ने उसकी तारीफ की और कहा कि‘इसी तरह ही व्यंग्य लिखा करो। कविताओं में इतना मजा नहीं आता।’
कुछ लोगों को कविता से एलर्जी है और कहीं छपी कविता को देखकर उससे मूंह फेर लेते हैं। उसके पास दिख रहा चुटकुला पढ़ लेंगे पर वह कविता नहीं पढ़ेंगे। हां, इस आदत के बारे में कई लोग मेरे सामने स्वीकार कर चुके हैं।

कविता लिखने की एक विधा है और उसकी विषय सामग्री ही महत्वपूर्ण होती है उसका स्वरूप नहीं। मुख्य बात यह है कि सृजनकर्ता अपने पाठ में किस विषय को किन शब्दों और भावों को प्रवाहित कर रहा है यह अधिक महत्वपूर्ण है। अगर आज कवियों को सम्मान कम मिल रहा है (कुछ व्यवसायिक हास्य कवियों या विभिन्न विचारधाराओं से जुड़े कवियों की बाद छोड़ दें) तो इसका कारण यह है कि आजकल पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होना कोई आसान काम नहीं है और बहुत कम लोग होते हैं जिनको स्थान मिल पाता है। ऐसे में कवियों के लिऐ अपने पाठों को रचना के अलावा उनको पाठकों तक पहुंचाने का मार्ग भी प्रशस्त करना कठिन हो जाता है। जिन्होंने एक सीमित दायरे में मुझे पढ़ा है वह अक्सर मुझ कहते हैं कि‘तुम अपनी रचनाएं बड़े अखबारों में क्यों नहीं भेजते।‘
मैं आखिर वहां अपनी रचनाएं कैसे भेजू। पहले उनको परिश्रम से टाइप करूं फिर डाक के पैसे खर्च कर उनको भिजवाऊं और प्रतीक्षा करता रहूं कि कब प्रकाशित हो रहीं हैं। मेरी यह प्रतीक्षा कभी समाप्त नहीं हुई। राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर रचनाएं छपीं पर उसने कोई आय नहीं हुई। एजेंसियों के माध्यम से कई जगह मेरी रचनाएं प्रकाशित हुई और लोग उनके बारे में कोई अपनी राय स्पष्ट रूप से नहीं देते थे जबकि गद्य पर उनकी बाछें खिल जातीं थीं। राष्ट्रीय स्तर पर छपी रचनाओं की अनेक कटिंग आईं, पर फिर भी मैं भीड़ में ही खोया रहा। कविताएं अगर छपीं तो वह स्थानीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में ही छपीं।

वास्तविक लेखक को अपने विषयों पर चिंतन और मनन के अलावा अन्य कुछ नहीं आता ऐसे में बाजार का प्रबंधन करना उसके लिए कठिन है। ऐसी स्थिति में भाग्य कहें यह कौशल कुछ कवियों की रचनाएं इन पत्र-पत्रिकाओं मेेंं छप जातीं हैं और उनके विषय शायद लोगों का पसंद नहीं होते यही कारण है कवियों के प्रति लोगों के मन में निराशावादी रवैया घर कर गया है।

फिर पीड़ा से ही कविता का जन्म होता है और इस देश में पीड़ा बहुत है इसलिये कवि भी बहुत है। यह कवि उस पीड़ा को अपने शब्दों में प्रशंसा की आशा में व्यक्त करते हैं और चंद लोग उनको दिखाने के लिये दाद देते है तो उनको यह भ्रम हो जाता है। जबकि वास्वविकता यह है कि आम लोग ऐसी कविताएं पढ़ना चाहते हैं जिसमें कोई संदेश होने के साथ उसका आत्मविश्वास बढ़ता हो या उसको हंसने का अवसर मिलता हो। यही कारण है कि साहित्यक दृष्टि से नहीं लिखी गयी हास्य कवितायें भी लोगों में वाहवाही लूटती हैं। देखा जाये तो हास्य कविताएं अपने आप में कविताएं होती ही नहीं है। यह मैं कह रहा हूं जो तीन सौ से अधिक हास्य कवितायें अपने ब्लाग पर लिख चुका हूं। मेरे निजी मित्र जो कि मेरे द्वारा कवितायें लिखने पर नाकभौं सिकोड़ते हैं वह भी कहते हैं कि मजा आ गया पर यार उसको हम कविता नहीं मानेंगे।’
वह प्रतिदिन मुझसे व्यंग्य की अपेक्षा करते हैं यह संभव नहीं है। वैसे मैं अगर बेहतर व्यंग्य लिखना चाहूं तो उसके लिये मुझे पहले हाथ से लिखना पड़ेगा और फिर उसे यहां टाईप किया जा सकता है। फिलहाल यह संभव नहीं है क्योंकि यहां से किसी भी प्रकार की आय या सहयोग की कोई फिलहाल आशा नहीं है। पाठक संख्या की वृद्धि की गति धीमी है। फिर अभी कोई विज्ञापन वगैरह नहीं है। इसके बावजूद यहां हर तरह के पाठक हैं। हास्य कविताओं ने जहां लोकप्रियता दिलाई वहीं गंभीर चिंतन (अपने निजी मित्रों में केवल इसलिये ही मुझे लेखक माना जाता है) ने तो कई ऐसे लोगों के हृदय में बिठा दिया है कि आप अगर उनके सामने मेरे नाम लेंगे तो उनके चेहरे पर मुस्कान आ जायेगी-यह मेरी आत्मप्रवंचना नहीं है मेरे निजी मित्र यही राय रखते हैं। प्रसंगवश मैं सोच रहा हूं कि अपने रजिस्टर में दज दीपक बापू कहिन में राजेंद्र अवस्थी का वह चिंतन यहां लिखूं जिसने मुझे इस चिंतन की तरफ मोड़ा। हालांकि मैं चिंतन पहले भी लिखता था पर उनकी रचना पढ़ने के बाद मेरे अंंदर चिंतन लिखने का आत्मविश्वास आया उस पर स्चयं भी आश्चर्यचकित होकर देखता हूं और लिखता हूं। उस समय इतना डूब जाता हूं कि लगता है कि जो लिख रहा है वह कोई और है। यही कारण है कि हमेशा सभी ब्लाग लेखकों को ललकार कहता हूं कि अगर पढ़ोगे नहीं तो तुम क्या तुम्हारे फरिश्ते भी मौलिक लेखन नहीं कर सकते। राजेंद्र अवस्थी जी का वह चिंतन मैं कई बार पढ़ता हूं और मुझे उसे पढ़ने में इतना मजा आता है कि कुछ लिखने का मन करने लगता है।

मुद्दे की बात कविता की है। कविता में पीड़ाओं को व्यक्त करना बुरी बात नहीं है पर आपके पास उनकी कोई दवा नहीं होती ऐसे में आप अपनी कविताओं के पाठकों में आत्मविश्वास स्थापित करें जिससे कि वह उन पीड़ाओं को सहजता से अनुभव कर सकें। आप इस बात को अनुभव करें कि सुख और दुख की अनुभूति तो मन से है ऐसे में पाठक के लिये अपने कविताओं में ऐसे शब्द जरूर रखें जिससे उसमें आत्मविश्वास पैदा हो। नित-प्रतिदिन मैं अंतर्जाल पर कई ऐसे कवियों के नाम मैं पढ़ता हूं जिनके बारे में कहीं पढ़ा नहीं। संभवतः इसका कारण यह है कि हिंदी भले ही पूरे देश की भाषा है पर इसका एक प्रादेशिक स्वरूप भी है। कई कवि अपने प्रदेशों में बहुत जाने जाते हैं क्योंकि उनके नाम वहां के अखबारों में छपते रहते हैं पर दूसरे प्रदेश में उनको कोई जानता तक नहीं। यह अलग बात है कि अंतर्जाल इस सीमा को समाप्त कर देगा। ऐसे में जो कवि और लेखक अपनी मौलिकता के साथ यहां लिखेंगे उनको देश ही नहीं विदेश में भी लोकप्रियता मिलेगी। शर्त यही है कि उनकी रचनाएं बहिर्मुखी होना चाहिए। कवियों के अपने रचनाओं को लिखते समय इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए कि उस पर उनको प्रतिक्रिया त्वरित मिलेगी कि नहीं। डूब कर लिखें और पीड़ा को अभिव्यक्ति देते हुए पाठकों का आत्मविश्वास बढ़ायें।

अगर मैं पाठको की प्रतिक्रियाओं को देखूं तो उससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि या तो हंसाओ या ऐसा संदेश दो जिससे आत्म्विश्वास बढ़े या कोई ऐसा चिंतन व्यक्त करो जो सकारात्मक सोच हमारे अंदर भी उत्पन्न करे। अक्सर कुछ लोग सोचते हैं कि मैं अपने ब्लाग/पत्रिकाओं पर इतना अधिक लिखता क्यों हूं? इसका जवाब है पाठकों के लिये यह पत्रिका है और मेरे लिये डायरी। वैसे कल अगर अवसर मिला तो मैं राजेंद्र अवस्थी का वह लेख इसी ब्लाग पर लिखूंगा क्योंकि वह मुझे भुलाये नहींं भूलता। आज मैं गंभीर मूड में था और एक चिंतन मेरे दिमाग में चल रहा था पर जब मैंने अपने उस रजिस्टर को खोलकर देखा तो उसमें वह दिखाई दिया तब मैंने सोचा कि इतना इतना अच्छा चिंतन मैं नहीं लिख सकता क्यों न इसे टाईप कर अपने ब्लाग@पत्रिका पर चढ़ा दिया जाये।

अपने ब्लाग/पत्रिकाओं पर अधिक लिखने का जहां तक प्रश्न है। जब मुझे लोकप्रियता मिल जायेगी तो अपना एक ही ब्लाग पर लिखूंगा पर अभी वह दूर है। सबसे बड़ी बात यह है कि हास्य कवितायें लिखने को मन अब नहीं करता क्योंकि वह हिंदी के यूनिकोड में अपने पाठ काम चलाने के लिए लिख रहा था। अब देव और कृतिदेव का यूनिकोड आ जाने से जब भी हास्य कविता लिखने का विचार करता हूं तब गद्य की तरफ ही मन चला जाता है। यह आश्चर्य की बात है जिन हास्य कविताओं से लोकप्रियता मिली वह मेरा कृत्रिम रूप है। यह भी एक वास्तविकता है कि तब मैं यह मानकर चल रहा था कि इस तरह अधिक मेहनत होगी नहीं। जब तक हो रही है ठीक है। फिर अपनी शूरूआत में ही मैं पढ़ चुका था कि अपने ब्लाग पर नियमित रूप से लिखते रहो इसी कारण भी रचनाकर्म अनवरत चलता रहा। अब मुझे कोई जल्दी भी नहीं है कृतिदेव में मैं यहां लंबी पारी खेलूंगा। हां याद आया जब मुझे सात वर्ष उच्च रक्तचाप हुआ था तब एक संपर्क में आने वाली युवा महिला ने मुझसे सहानुभूति जताते हुए पूछा था-‘इतनी छोटी आयु में आपको उच्च रक्तचाप हो कैसे गया?’
तब मैंने उससे कहा था-‘उच्च रक्तचाप मेरे व्यसनों का परिणाम हैं। एक बार मैं थोड़ा संभल जाऊं तो लंबी पारी खेलूंगा।’
एक माह पहले फिर उससे मुलाकात हुई तब उसने उत्सुकता से पूछा-कैसी चल रही है यह दूसरी पारी? आपके चेहरे पर देखकर तो सब ठीक लग रहा है।’
मैं केवल मुस्करा दिया।
कल इस ब्लाग/पत्रिका के बीस हजार पाठक संख्या पार करने पर मैं कुछ कह नहीं पाया आज कह रहा हूं। लिखो! बेपरवाह होकर लिखो! आम पाठक के लिये लिखो! लोगों का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिये लिखोगे तो तुम में भी आत्मविश्वास आयेगा। मेरे निजी मित्र न केवल मेरे पाठों को पढ़ते हैं बल्कि मेरे ब्लाग/पत्रिकाओं पर लिंक अन्य ब्लाग के विषयों पर चर्चा करते हैं और उनकी पसंद के आधार पर ही मैं लिखने का प्रयास करता हूं। हालांकि मै हमेशा उनकी पसंद का ध्यान नहीं रखता। वह मेरे इस संपादकीय को पसंद नहीं करेंगे पर कभी कभी अपने मन की बात लिखना बुरा नहीं होता। आखिर लेखक का भी मन होता है।

इसलिए आज हमने कोई व्यंग्य नहीं लिखा


कृतिदेव को यूनिकोड के बदलने वाला टूल आने पर मैंने सोचा था कि प्रतिदिन व्यंग्य लिखा करूंगा। जब यूनिकोड में लिखता था तो मुझे कुछ नहीं सूझता था और व्यंग्य कविता लिख कर काम चलाता था उससे जो नाम कमाया आज तक मेरे साथ चल रहा है। तब मन ही मन गुंस्सा भी होता था कि यार यह कहां फंस गये। लिखने का कुछ सोचते मगर लिख कुछ और जाते। अब तो कृतिदेव सीधे लिखने की सुविधा है तो लगता है कि बकवास अधिक लिख रहे हैं, व्यंग्य वगैरह तो गया तेल लेने। पहले फ्लाप थे और कृतिदेव को यूनिकोड में बदलने वाला टूल आया तो सोचा कि अब तो हिट होकर ही दम लेंगे। मगर आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत खराब होती है और भले ही सबको सलाह खूब देते हैं पर स्वयं उसका शिकार जरूर होते है। यह तो गनीमत है कि यूनिकोड मेंं मजबूर होकर लिखने की वजह से कुछ ऐसे पाठ लिख गये जो आज तक हमारा नाम चला रहे हैं।

आज हमने सोचा चलो पाठ लिखने को विराम देते है। कुछ आत्ममंथन करें। दूसरों के ब्लाग देखें और फिर शुरू करें। फोरम पर चलते हुऐ हम आशीष कुमार अंशु के ब्लाग पर पहुंच गये। उनके ब्लाग पर किसी टीवी चैनल की ब्रेकिंग न्यूज दिखाई जा रही थी। वह तो अपनी पोस्ट डाल कर बैठ गये और हम पढ़ते हुए चिंतन में आ गये। भई याह क्या है? कमिश्नर का कुत्ता मिला! वह कुता जो लापता हो गया था! हमने उल्टा पुल्टा विचार किया और सोचते रहे आखिर यह क्या हो रहा है? आखिर पोस्ट डालकर वह कहना क्या चाहते है? कुछ लिखा ही नहीं। मगर क्या लिखते ‘अंशु जी’। जब ऐसे व्यंग्य चित्रों के रूप में हास्य व्यंग्य के जीवंत दृश्य प्रकट होते हैं तो भला कौन अपने शब्द लिखकर हिट हो सकता है। बना बनाया हुआ व्यंग्य सामने आ जाये तो लिखा हुए व्यंग्य कौन पढ़ना चाहेगा?

हमारे व्यंग्यकार मित्र श्री शिवकुमार मिश्र ढेर सारे शब्द लिखकर कर व्यंग्य लिखते हैं। उनको देखकर ही मैं सोचता हूं कि अगर व्यंग्य लिखूं तो उन जैसा नहीं तो लिखना बेकार है-ऐसे ही अपनी छवि बनी हुई। अगर हम व्यंग्य लिखें तो उनसे लोग तुलना करेंगे और हम क्या उनका मुकाबला करेंगे। मगर आज पोस्ट देखकर मैं सोच रहा ं कि व्यंग्य लिखकर तो मैं तो क्या मेरे फरिश्ते भी हिट नहीं हो सकते। एक तो श्री शिवकुमार मिश्र की चुनौती का सामना करने में मैं संक्षम नहीं फिर अगर यह टीवी चैनल वाले ऐसी खबरें देते रहे और आशीष कुमार ‘अंशु’ जैसे लोग उनको लाकर यहां ब्लाग रखते रहे तो भला हम कहां लिख पायेंगे। इससे तो अच्छा है चिंतन लिखकर अपना रुतवा झाड़ते रहें। लोग सोचें कि कोई बड़ा भारी विद्वान है जिसका ब्लाग पढ़ रहे हैं।
कुछ दिनों बाद टीवी पर चैनलों पर ऐसी ही खबरे आयेंगीं कि अमुक हीरो का कुत्ता खो गया। चारों तरफ रेड अलर्ट घोषित किया गया है। तलाशा जारी है। कभी ऐसी खबरें आयेंगी कि अमुक हीरोइन की बिल्ली बीमार है उसके लिये पूरे देश में प्रार्थना की जा रही है। एक फिल्मी हस्ती के घर के बाहर एक चूहे को दौरा करते देखा गया। एक हीरो ने अपनी बिल्ली का आज नामकरण किया और जोरदार पार्टी रखी। आईये हम आपको सीधे वहां ले चलते हैं। वगैरह… वगैरह……..
लोग हंसते हुए कभी कभी रोने भी लगेंगे। हंसेगा कौन मैं, उड़न तश्तरी और श्री शिवकुमार मिश्र और अन्य व्यंग्यकार ब्लाग लेखक। रोएगा कौन? ताकतवर हस्तियों को देखकर उनमें अपने जजबात जोड़ने वालों की संख्या का अनुमान मेरे पास नहीं।

अभी हमारे हिंदी ब्लाग जगत के सबसे लोकप्रिय ब्लाग लेखक उड़न तश्तरी के समर्थकों ने एक सुपर स्टार का ब्लाग नहीं देखा। नहीं तो उनमें से कई उनसे मूंह फेर लेते और कहते कि अब यह ब्लाग जगत के सुपर स्टार नहीं है। उस सुपर स्टार के ब्लाग पर 294 टिप्पणियां तों मैंने देखी थी। उस समय मैं सोच रहा था कि हमारे हिंदी ब्लाग जगत में शायद अभी तो कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जो अपने ब्लाग लेखक मित्रों के अलावा कहीं से इतनी टिप्पणियां जुटा सके। मेरा दावा कि कई लोगों ने उस ब्लाग को पढ़ा ही नहीं होगा क्योंकि वह अंग्रेजी में था दूसरा उसका विवरण पहले ही अखबारों में छप चुका थां। आखिर मुझे उस समय उड़न तश्तरी जी की याद क्यों आयी? मैं उस अंग्रेजी में लिखने वाले सुपर स्टार के मुकाबले अपने ही मित्र और हिंदी भाषा के सेवक समीरलाल उड़न तश्तरी को कमतर क्यों बता रहा हूं? इसलिये कि उस ब्लाग को मैं हिंदी-अंग्रेजी टूल से पढ़ रहा था तो मेरे लिए तो हिंदी में ही हुआ न!सच तो यह है कि लोग आकर्षण का जबरदस्त शिकार हैं और वह ऐसे आनंद में खोना चाहते हैं जिसमें उनकी बुद्धि का व्यय न हो। यह मान लिया गया है कि कला और साहित्य में सृजन भी केवल प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोगों से ही चमकता है। पढ़ना समझ में आये या नहीं पर पढ़ने का गौरव हर कोई चाहता है और इसलिय जरूरी है कि कोई बड़ा नाम लिखने वाले से जोड़ा जाये।

आम लोग शायद इसी तरह के खबरें पसंद करते हैं जिसमें कोई बड़ी हस्ती का नाम जुड़ा हो-मीडिया जगत में यही एक विचार है। विद्वान कहते है कि निजी क्षेत्र मांग और पूर्ति के आधार पर कार्य करता है। मुझे लगता है कि कई बार यह सिद्धांत नहीं करता बल्कि अपनी पूर्ति के लिये मांग बनाता है। अब कई ऐसे तत्व हैं जो हमारी नजर में नहीं आते। समाचार चैनलों पर समाचार तो हैं ही नहीं। मैं घर में सवा (सात, आठ और कभी कभी नौं) के टाईम पर आता हूं। दस पंद्रह मिनट शवासन और ध्यान कर जब टीवी खोलता हूं तो जबरन क्रिकेट की खबरें मेरे सामने होतीं हैं। मुझे नहीं लगता कि क्रिकेट प्रेमियों का टीवी की खबरों में रुचि होती है। हां हम भी तब ही देखते हैं जब अपना देश जीत जाता है। यहां कोई भी टीम इतनी लोकप्रिय नहीं है जिसके लिये इतना समय बर्बाद किया जाये। मगर निजी टीवी चैनल जबरन खबरें थोपे जा रहे हैं। सरकारी दूरदर्शन आज भी समाचारों की दृष्टि से सवौपरि है-हो सकता है मेरी यह बात कुछ लोगों का बुरी लगे पर जब खबरें देखनी हैं तो वही देखने में मजा आता है। मनोरंजक चैनल हों या समाचार चैनल लोगों को मूर्ख मानकर अपने कार्यक्रम पेश किये जा रहे है। 14 वर्ष की एक लड़की की हत्या और उसके आरोप में उसके पिता की गिरफ्तारी के मामले में इस मीडिया का रवैया संवेदनहीन रहा है। जिस तरह खबर को एक फिल्म की तरह प्रस्तुत किया गया उसके आगे तो कई कहानियां भी फ्लाप है और अगर ऐसे ही खबरे आईं तो फिल्म वालों की भी स्थिति खराब हो जायेंगी।

बहरहाल जब मैंने यह ब्लाग देखा तो तय किया कि आज तो कोई व्यंग्य नहीं लिखेंगे। इससे अधिक हिट तो मिल ही नहीं सकते। हां, अगर यह पाठ पढ़कर हमारे मित्र श्री शिवकुमार मिश्र वहां यह ब्लाग न पढ़ने न चले जायें हो सकता है कि वह भी कहीं ऐसा निर्णय न ले बैठें। तब हम कहां जायेंगे। ऐसी खबरों पर हंस सकते हैं पर अधिक देर तक नहीं और हमें मजबूर होकर उनका ब्लाग तो पढ़ना ही है। अब कुछ दिन तक देखकर ही व्यंग्य लिखेंगे। इतनी मेहनत से व्यंग्य लिखो और फ्लाप हो जाओं तो क्या फायदा? यकीन मानिए कुछ लोग इस खबर पर यह भी कह रहे होंगे कि ‘भगवान की कृपा हो तो आपका खोया कुत्ता भी वापस आ सकता है। इसलिए भगवान को भजना चाहिए।
नोट-यहां मैंने अपने कुछ मित्र ब्लाग लेखकों के नाम उनके प्रति सद्भावना के कारण लिखे है। उनको इंगित करते हुए जो मैंने शब्द लिखें हैं उसका अन्य कोई आशय नहीं है। उससे पाठकों को यह समझाना है कि उनकी बौद्धिक चेतना का हरण किया जाकर उन्हें मूर्ख बनाया जा रहा है।

प्यार और नफरत, दोनों पर यकीन नहीं-हिन्दी शायरी


आज एक फोरम पर घूमते घामते अपने मित्र समीरलाल ‘उड़न तश्तरी” के ब्लाग पर पहुंच गया। उनका ब्लाग मेरे ब्लाग पर लिंक है पर मैं उनको इन्हीं फोरमों पर पढ़ता हूं। आज कुछ मायूस लगे। हां, कल मैं कुछ ब्लाग देखकर सोच रहा था कि अगर वह उनके दृष्टि में आये तो उनको बहुत कष्ट होगा। यह अच्छा ही हुआ कि मेरे एक पाठ उनकी दृष्टि पथ में नहीं आया जो इन्हीं विषयों पर था। कल फोरमों पर उस पर एक व्यूज भी नहीं था। मैने उस शीर्षक लगाते हुए ब्लाग का उल्लेख नहीं किया क्योंकि मैंने देखा है कि आम पाठक ब्लाग शब्द देखकर ही मेरी पोस्ट से मूंह फेर लेते है। वैसे भी ब्लाग लेखकों को उसमें अधिक मजा नहीं आता। समीरलाल को जितना मैं समझ पाया हूं उसके अनुसार ऐसे विवाद उनको तकलीफ देते हैं। मगर इसका कोई उपाय नहीं है। समीरलाल जी मित्र हैं और उनके शब्दों से मेरे पर प्रभाव हो यह संभव नहीं है। ऐसे में मेरा कवि मन कुछ चिंतन करने लगा। जैसा मन में आया अपनी टिप्पणी लिख दी और अपनी पोस्ट बना ली। दुःखी मैं भी होता हूं पर अपने को संभाल भी लेता हूं। मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा किसी के पास कोई रास्ता है। पहली कविता के बाद दूसरी कविता भी इसलिये लिखी ताकि लोग यह न कहें कि ‘अपनी मेहनत बचाता है टिप्पणी को ही पोस्ट बनाता है, दूसरों के दर्द को अपनी दवा बनाता है।’

जिन रास्तो पर बस्ती है नफरत
वहां से कभी गुजरना नहीं
पर जरूरी हो तो नजरें
फेर कर निकल जाना
कानों से किसी की बात सुनना नहीं
चीखते लोगों के साथ जंग लड़ने के लिए
मौन से बेहतर हथियार और कोई होता नहीं
फिर भी नजर का खेल है
जहां होती है नफरत की बस्ती
वहां भी किसी शख्स में होती है शांति की हस्ती
तुम उन्हें ढूंढ सकते हो
अगर तुम्हारे दिल में है प्यार कहीं
नहीं कर सकते अपने अंदर
दर्द को झेलने का जज्बा
तो रास्ता बदल कर चले जाना
पर अगर मन में बैचेनी है तो
तो कोई भी जगह तंग लगेगी
कितनी भी रंगीन हो चादर
नींद नहीं आने पर बेरंग लगेगी
आंखें बंद कर लो
खो जाओ अपनी दुनियां में
बदलती है जो पल-पर अपना रंग
कहीं होते झगड़े, होती शांति कहीं
उस पर मत सोचो कभी
जो तुम्हारे बस में नहीं
………………………
उसने मुझसे पूछा
‘तुमने किसी से प्यार करते हो?’
मैंने कहा-‘नहीं’
उसने पूछा-‘तुम कभी किसी से नफरत करते हो ?’
मैंने कहा-‘नहीं’
उसने मुझे घूर कर देखा
तुम फरिश्ते तो दिखते नहीं
इंसान से तुम्हारा वास्ता कैसे हो सकता है
तुम कहीं शैतान तो नहीं’
मैंने कहा
‘प्यार और नफरत
दोनो में मैंने धोखा खाया है
जिनका प्यार दिया
उनसे पाई नफरत और
जिनको दी नफरत उनसे प्यार पाया
यकीन अब किसी पर इसलिए रहा नहीं
—————————-