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साढ़े चार साल में चला दो लाख पाठक/पाठ पठन संखया तक यह ब्लाग-हिन्दी संपादकीय


            कल दीपक बापू कहिन ब्लाग ने दो लाख की पाठ पठन/पाठक संख्या पार कर ली। इसमें उसे चार साल का समय लगा जबकि इससे बाद के बने ब्लाग ‘हिन्दी पत्रिका’ तथा ‘ईपत्रिका’ ने ढाई लाख की सीमा तक पदार्पण कर लिया है। अभी भी यह कहना कठिन है कि हिन्दी ब्लाग जगत अपनी कोई उपस्थिति समाज की प्रक्रिया में दर्ज करा पा रहा है।
दीपक बापू कहिन के दो लाख पाठ पठन/पाठक संख्या पार करने पर प्रसन्नता व्यक्त करने से अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह जिंदगी के अनुभव सिखाने और समझाने वह ब्लाग है जिस पर लिखा जाता है पढ़ने के लिये, पर यह पढ़कर कई चीजें दिखाने वाला साबित हुआ है। यह इस लेखक का सबसे पहला ब्लाग है। ब्लाग बन गया यह भी पता नहीं लगा। यह ब्लाग है इसका पता दूसरा ब्लाग बनाने पर लगा।
       बहरहाल अपने साढ़े चार वर्ष की ब्लाग यात्रा से इस लेखक को बहुत कुछ ऐसी बातें प्रत्यक्ष रूप से अब समझ में आयीं जिनका पहले अनुमान भर  था। यह महत्वपूर्ण बात नहीं है कि हमारे ब्लागों को कितने लोगों ने पढ़ा बल्कि इन ब्लागों ने भारतीय समाज की सच्चाईयों कों गहराई से समझने का अवसर मिला यह तथ्य अत्यंत रोचक है। इसका आभास ब्लागों पर लिखे बिना नहीं हो सकता था क्योंकि बाज़ार, प्रचार तथा समाज के शिखर पुरुषों के लक्ष्य और उनकी पूर्ति में लगे प्रबंधकों ने अभिव्यक्ति के संगठिन साधनों पर इस कदर नियंत्रण कर रखा है उनकी योजनाबद्ध विचारधारा के प्रवाह को कोई समझ ही नहीं सकता। न लेखक न पाठक, न रचनाकार न दर्शक! लेखक रचनाकार प्रायोजित होकर वही लिख और रच रहे हैं जैसे उनके प्रायोजक चाहते हैं तो पाठक और दर्शक उसे स्वतंत्र वह मौलिक कृति समझ लेते हैं। एक सच यह कि प्रायोजित लेखन और रचना में अभिव्यक्ति अपना प्रभाव नहीं दिखाती क्योंकि वह चिंत्तन रहित होती है। दूसरा सच यह कि लेखन और रचनाकारी का प्रभाव अंततः समाज पर पड़ता है चाहे कोई इसे माने या नहीं। अगर हम आज अपने समाज को उथला, अंगभीर, चेतना विहीन, कायर तथा सामयिक विषयों से उदासीन पाते हैं तो इसका कारण यही है कि हमारे अखबार, टीवी, फिल्में और अन्य कलायें समाज के ऐसे ही स्वरूप का निर्माण कर रही हैं जिसमें आम इंसान के समक्ष प्रश्न छोड़ जाते हैं पर उत्तर नहीं होता। संवेदनााओं को उभारकर निराशा के अंधेरे में धकेला जाता है। साफ बात है कि प्रायोजक नहीं चाहते कि समाज स्वतंत्र रूप से मौलिक चिंतन वाला हो क्योंकि इससे वह अपने प्रश्नों का उत्तर ढूंढेगा। निराशा से आगे आकर आशाओं के लिये युद्ध करेगा जो कि उनके व्यापार के लिये खतरनाक है। जड़ समाज शिखर पुरुषों की सत्ता को स्थिर बनाये रखने में सहायक है कालांतर में वह राष्ट्र के लिये चिंत्तन के नाम पर केवल स्वार्थ पूर्ति का भाव संड़ांध फैलाने जा रहा है।
          ऐसे में ब्लाग लेखन एक आशा है पर फिलहाल उस पर विराम लगा मानना चाहिए। वजह यह कि बाज़ार और प्रचार के संयुक्त उपक्रमों ने टेलीफोन कंपनियों के प्रयोक्ता बनाये रखने के लिये एक समय ब्लाग का प्रचार किया। असीमित अभिव्यक्ति और पाठकों के बीच यह सेतु तेजी से बन सकता था पर बाद में ट्विटर और अब फेसबुक के प्रचार ने इसे हाशिए पर डाल दिया है। पहले अभिनेताओं, नेताओं, कलाकारों तथा अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के ब्लागों की चर्चा होती थी। अब यही ट्विटर और फेसबुक के लिये हो रहा है। पहले सुपर स्टार के ब्लाग की चर्चा हुई अब उनके ट्विटर और फेसबुक की बात होने लगी है। मतलब एक सुपर स्टार है जिसे बाज़ार अभिव्यक्ति की हर विधा के प्रचार लिये उपयोग करता है ताकि आम प्रयोक्ता आकर्षण के शिकार बने रहें। लोग भी उधर जाते हैं। अब लोगों से चर्चा में पता लगता है कि फेसबुक उनके लिये महत्वपूर्ण विषय हैं। ऐसे में ब्लाग लेखन निरुत्साहित हुआ है यानि अभी पहने तो यहां नये हिन्दी लेखकों यहां अपेक्षा नहंी करना चाहिए और अगर आयें तो उनको पाठक आसानी से मिलें यह संभव नहीं हैं। ऐसे में पाठक हमारा ब्लाग देखें तो वह कहीं उसे फेसबुक समझकर भूल जायेंगे यह सत्य भी स्वीकार करना चाहिए।
बीच में पाठक संख्या बढ़ती नज़र आती थी पर अब थम गयी है। सही मायने में अपनी औकात बतायें तो वह यह है कि हम अभी भी एक इंटरनेट प्रयोक्ता हैं और लेखक के रूप में हमारी भूमिका एक लेख के रूप में भारत में कहीं चर्चित होने की संभावना नहीं है। हर महीने सवा छह सौ रुपये अगर इंटरनेट पर न भरें तो अपने ही ब्लागों को देखने से वंचित रह जायें। फिर यह कोई कहने वाला भी नहीं है कि आकर दुबारा लिखो। फिर भी विचलित नहीं है क्योंकि बाज़ार, प्रचार और समाज के शिखर पुरुषों के संगठित गिरोह के रूप में कार्य करने का पहले तो अनुमान ही था पर अब लिखते लिखते दिखने भी लगा है। इससे आत्मविश्वास बढ़ा ही है कि चलो किसी का दबाव हम पर नहीं है।
         प्रायोजक लेखकों की औकात देख ली। किसी ने पाठ चुराये तो किसी ने विचार। हमारे एक मित्र ने एक बड़े लेखक का लेख देखकर हमसे कहा कि ‘यार, ऐसा लगता है कि जो बातें तुम हमसे कहते हो वही उसने अब लिखी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं तुम्हारा ब्लाग पढ़ा हो। वरना इतने साल से वह लिख रहे हैं पर ऐसी बात नहीं लिख पाये।’’
हमने कहा-‘‘पता नहीं, पर इतना जरूर जानते हैं कि आम पाठक भले ही ब्लाग न पढ़ता हो पर ऐसा लगता है कि बौद्धिक लोग पढ़ते होंगे और संभव है उन्होंने भी पढ़ा हो। अलबत्ता हमें आत्ममुग्धता की स्थिति में मत ढकेलो।’’
          हमारे दो पाठों के अनेक अंश लेकर एक लेख बना दिया गया। अध्यात्मिक ब्लाग को तो ऐसा मान लिया गया है जैसे कि कोई मुफ्त में लिख रहा हो। हमें हंसी आती है। पहले दुःख हुआ था पर श्रीमद्भागत गीता, पतंजलि योग शास्त्र, चाणक्य नीति, विदुर नीति, कबीर, रहीम, तुलसीदास,कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा गुरुग्रंथ साहिब पर लिखते लिखते ज्ञान चक्षु खुलते जा रहे हैं। ऐसे में दृष्टा बनकर देह को कर्ता के रूप में देखते हैं। वह दैहिक कर्ता कुछ नहीं कह सकता पर उसकी बात हम उससे लिखवा रहे हैं कि ‘ऐ मित्रों, पाठ चुराते रहो, विचार चुराते रहो इससे कुछ नहीं होने वाला! तुम इसके अलावा कुछ कर भी नहीं सकते। हमने कर्ता को देखा है वह जिन हालातों में लिखता है, सोचता है और चिंत्तन करता है वैसे में रहने की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। सबसे बड़ी बात उस जैसा परिश्रम तुम नहीं कर सकते न तुम में वह योग्यता है। यह योग्यता केवल अध्यात्मिक चेतनाशील व्यक्ति के पास ही आ सकती है। पाखंड, शब्द चोरी, अहंकार और भ्रष्टाचार में लगे तुम जैसे लोगों के पास न भक्ति है न शक्ति! बस आसक्ति है जो कभी तुम्हें ऐसा लिखने नहीं देगी।’’
किसी से शिकायत करना बेकार है। अंग्रेजी शिक्षा के धारण कर चुका और हिन्दी फिल्मों की नाटकीयता को सत्य मानकर चलने वाला समाज चेतना दिखाये ऐसी अपेक्षा करना भी बेकार है। श्रीमद्भागत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरत रहे हैं‘ और इंद्रियों ही इंद्रिय गुणों में सक्रिय हैं, यह विज्ञान का सूत्र भी है। यह आज तक किसी ने नहीं लिखा कि श्रीमद्भागवत गीता दुनियां के अकेला ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान और विज्ञान दोनों ही हैं। ऐसे में जब समाज जिन पदार्थों को ग्रहण कर रहा है, जिन दृश्यों को देख रहा है और जिस गंध को निरंतर सूंध रहा है उसमें विरलों के ही ज्ञानी और चेतनशील होने की संभावना है। अधिक अपेक्षा रखना हम जैसे योग और ज्ञान साधक के लिये उचित भी नहीं है।
          फिर भी हम लिखते रहेंगे क्योंकि आखिरी सच यह कि हजारों में से कोई एक पढ़ेगा। उन हजारों में से भी कोई एक समझेगा। उन हजारों में से भी कोई एक मानेगा। यह हमारे लिये बहुत है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भावगत का संदेश देते समय यह मान लिया था कि सभी उनकी बात नहीं समझेंगे। फिर भी उन्होंने दिया। वह हमारे आदर्श पुरुष हैं। यह उनकी कृपा है कि नित लिखते लिखते या कहें ज्ञान बघारते बघारते हम उस राह पर चल पड़े जिसकी कल्पना भी नहीं की। इसलिये हम तो विरले ही हुए। लोग खूब ज्ञान पर लिखते हैं उसे बघारते हुए धन ंसंपदा भी बना लेते हैं पर वह ज्ञान उनकी जिंदगी में काम नहीं आता। हमारे काम खूब आ रहा है। कई बार वाणी से शब्द निकलते हैं, अपने हाथ से ऐसे काम हो जाते हैं, ऐसे स्वर सुनने में आते हैं और ऐसे दृश्य सामने प्रस्तुत होते हैं जिनके आत्मिक संपर्क से हमारा मन प्रसन्न हो जाता है। हम कह सकते हैं कि यह पहले भी होता होगा पर सुखद अनुभूतियां अब होने लगी हैं। जिन लोगों को लगता हो कि यह फालतु आदमी है लिखता रहता है उनको बता दें कि हमारे पास अपने मन को लगाने के लिये लिखने के अलावा कोई मार्ग कभी रहा ही नहीं है। जय श्रीकृष्ण, जय श्री राम, हरिओम
इस अवसर पर अपने पाठकों और साथी ब्लाग लेखकों का आभार इस विश्वास के साथ कि आगे भी अपना सहयेाग बनाये रखेंगे। यह उनके पठन और सत्संग का ही परिणाम है कि हमारे अंदर गजब का आत्मविश्वास आया है। इसके लिये आभारी हैं।जय श्रीकृष्ण, जय श्री राम, हरिओम
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

                  यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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रहीम के दोहे: जागते हुए सोये उसे क्या शिक्षा देना



जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोई।
ताहि सिखाई जगाईबो, उचित न होई ॥

अर्थ-समझ-बूझकर भी जो व्यक्ति अन्याय करता है वह तो जागते हुए भी सोता है, ऐसे व्यक्ति को जाग्रत रहने के शिक्षा देना भी उचित नहीं है।
कविवर रहीम का आशय यह कई जो लोग ऐसा करते हैं उनके मन में दुर्भावना होती है और वह अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझते हैं अत: उन्हें समझना कठिन है और उन्हें सुधारने का प्रयास करना भी व्यर्थ है।

रहीम के दोहे: संबंधियों से दूरी भली



टूटे सुजन मनाईये, जौ टूटे सौ बार
रहिमन फिर पोहिए, टूटे मुक्ताहार

कवि रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार सच्चे मोतियों का हर टूट जाने पर बार-बार पिरोया जाता है, उसी प्रकार यदि सज्जन सौ बार भी नाराज हो जाये तो भी उन्हें सौ बार मना लेना चाहिऐ क्योंकि वे मोतियों के समान ही मूल्यवान होते हैं।

नात नेह दूरी भली, तो रहीम जिय जानि
निकट निरादर होत है, ज्यों गडही को पानि

कवि रहीम कहते हैं कि यह बात ऐक दम तय है कि संबंधियों से दूरी भली होती है। उनके निकट रहने से गड्ढे में भरे जल की भांति निरादर होता है।

रहीम के दोहे:मेंढक टर्राये,कोयल होती मौन



पावस देखि रहीम मन, कोइल साथै मौन
अब दादुर बकता भए, हमको पूछत कौन

कविवर रहीम कहते हैं कि जब वर्षा ऋतू आती है तो कोयल मौन धारण कर लेती है, यह सोचकर कि अब तो मेंढक टर्राने लगे हैं तो उनकी कौन सुनेगा।
अगर हम इसका भाव इस रूप में लेते हैं जम समाज में धन का प्रवाह सहृदय कलाकारों, रसिक हृदय कवियों kee ओर होने लगता है तब अनेक कलाकार और कवि मैदान में आ जाते हैं और मेंढकों की तरह टराने लगते हैं और उनको देखकर श्रेष्ठ और विद्वान, कलाकरौर कवि चुपचाप अपने को समेटकर अपने घर बैठ जाते हैं।

रहिमन प्रीति सराही, मिली होत रंग दून
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी दून

उसी प्रेम के प्रशंसा करना चाहिए जिसमें दोनों प्रेमियों का प्रेम मिलकर दुगुना हो जाता है, जैसे जल्दी पीली होती है और चूना सफ़ेद, परंतु दोनों मिलकर एक नया लाल रंग बना देता है। हल्दी अपने पीले रंग को और चूना अपने सफ़ेद रंग को छोड देता है।
इसका आशय यह है कि प्रेम करने वालों को अपना पहले का रूप त्याग देना चाहिऐ और एक नए रूप में आना चाहिऐ।

रहीम के दोहे: वाणी से होती है आदमी की पहचान


दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं
जान परत हैं काक पिक, ऋतू बसंत के माहिं

कविवर रहीम कहते हैं कि जब तक मुख से बोलें नहीं कौआ और कोयल एक ही समान प्रतीत होते हैं ऋतूराज बसंत की आने पर कोयल की मीठी वाणी कुहू-कुहू से और कौए की कर्कश आवाज से अंतर का आभास हो जाता है।
इसका आशय यह है कि मनुष्य को अपनी वाणी मधुर और कोमल रखने का प्रयास करना चाहिए अन्यथा अपनी अयोग्यता का परिचय ही देना होगा। आदमी की काया कितनी भी सुन्दर क्यों न हो अगर उसके वाणी में माधुर्य और कोमलता नहीं है तो वह प्रभावहीन हो जाता है।

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात
जैसे कुल कि कुलबधू , चिथडन मांह समात

जैसे वंश की कुलवधु फटे-पुराने कपडे में भी शोभायमान होती है उसी प्रकार यदि अपने पास धन कम भी है, परंतु समाज में मान-सम्मान है वह चिंता का विषय नहीं है ।
हमें कभी यह नहीं समझना चाहिए कि समाज में केवल धन से सम्मान मिलता है, अगर व्यवहार और योग्यता से समाज में सम्मान मिलता है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए कि हमारे पास धन नहीं है।

रहीम के दोहे:मांगने से पद छोटा हो जाता है


धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय

उदधि बढ़ाई कौन है जगत पिआसो जाय

 

जाय संत रहीम जल के महत्व का बखान करते हुए कहते हैं कि कीचड का जल भी धन्य है जहाँ छोटे प्राणी उसे पीकर तृप्त हो जाते हैं परंतु सागर की बढ़ाई कोई नहीं करता क्योंकि उसके तट पर जाकर संपूर्ण संसार प्यासा लौटकर आता है।

मांगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बढ़ि काम
तीन पैग बसुधा करो, तऊ बावनै नाम

यहाँ आशय यह है कि याचना कराने से पद कम हो जाता है चाहे कितना ही बड़ा कार्य करें। राजा बलि से तीन पग में संपूर्ण पृथ्वी मांगने के कारण भगवान् को बावन अंगुल का रूप धारण करना पडा।