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भक्ति के नाम पर मनोरंजन करना सार्थक नहीं-हिन्दी लेख (bhakti ke nam par manoranjan-hindi lekh)


गुजरात के एक शहर में एक दिलचस्प समाचार टीवी चैनल पर देखने को मिला। वहां एक मंदिर निर्माण में धन जुटाने के लिये नृत्य और संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया गया ताकि उससे मिलने वाली राशि से सर्वशक्तिमान को अनुग्रहीत किया जा सके। खबर देखकर तो हंसी आ गयी। वहां कार्यक्रम देखने के लिये अनेक लोग आये पर वह इतनी कम देर चला कि उससे अपने को ठगा अनुभव कर रहे अनेक दर्शक नाराज हो गये और उन्होंने कुर्सियां तोड़ डाली। इस धर्म और मनोरंजन के बीच रिश्ता देखकर बहुत सारे ख्याल मन में आये।
कार्ल मार्क्स की बहुत सारी बातें हमारे समझ में नहीं आती पर उसने जो कहा है कि धर्म एक अफीम की तरह है उसमें कोई शक नहीं है। मगर कार्ल मार्क्स ने कहा है कि दुनियां का सबसे बड़ा सच रोटी है, यही कारण है कि उसका कोई चेला इस बात पर यकीन नहीं करता कि जिसने पेट दिया है वह भोजन भी देता है। इसलिये सभी गरीबों और मज़दूरों को रोटी दिलाने में लगे हैं। मगर सत्य रोटी नहीं जीवन है जो कि अपनी गति से इस धरती पर विचरण करता है भले ही जीव पैदा होने के साथ ही मरते हैं भी हैं पर सभी भूखे नहंी मरते।
अलबत्ता अगर कार्ल मार्क्स भारत आया होता तो वह अनेक अन्य सत्य भी जान जाता। इस देश में रोटी के साथ ही स्वाद भी बड़ा सत्य है। लोग रोटी से अधिक स्वाद पर अपना ध्यान रखते हैं। रोटी पेट भरने के लिये नहीं पेट भरने को ही जीवन मानते हैं। पेट भर कर उनका मन मनोरंजन की तरह भागता है और यह मनोरंजन भी कहीं इतना बड़ा सत्य बन जाता है कि रोटी को भी आदमी भूलकर उसमे मस्त रहता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि गरीबी से जूझ रहे इस देश में भूख से कम बल्कि भरपेट और गंदा खाने से लोग अधिक बीमार पड़ने के साथ ही मरते भी हैं। यही कारण है कि कार्ल मार्क्स के शिष्य तथा अनुयायी बरसों तक इस पूरे देश में भूखों और गरीबों के सहारे सत्ता का स्वाद चखने का सपना पाले रहे पर चंद इलाकों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता। धर्म को अफीम मानने वाले इस गुरु के चेले आज की धर्मनिरपेक्षता का स्वांग रच रहे हैं और उसमें अब उनको अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच अपना सपना साकार होता दिखता है। इनमें कई तो सर्वशक्तिमान के एक दरबार ढहने पर अपना विलाप हर साल करते हैं। वैसे रोटी का सत्य ही केवल सत्य नहीं है। रोटी का स्वाद भी सत्य नहीं है। मनोरंजन भी सत्य नहीं है। उनके लिए सत्य केवल धर्मनिरपेक्षता है। बहुसंख्यक समाज के कुछ टुकड़े गरीबी, भुखमरी तथा बेकारी के नाम पर तो वैसे ही उनके साथ हो जाते हैं अब समूचा अल्पसंख्यक समाज भी हाथ आ जाये तो ही उनके सपने पूरे होंगे। यह अलग बात है कि बाबा रामदेव, आसाराम बापू तथा श्री रविशंकर जैसे संगठित धर्म प्रवर्तकों की धारा उसे पूरा होने देगी या नहीं क्योंकि देखा जा रहा है कि अपने धर्मों के पाखंड से उकताये भारतीय लोग एक नयी रौशनी योग तथा भारतीय अध्यात्म में ढूंढ रहे हैं।
इधर इन कार्ल मार्क्स के चेलों का सामना भारतीय धर्म रक्षकों से भी होता रहता है। शक है कि यह सब फिक्सिंग के तहत ही होता है। यह धर्म रक्षक भी वह हैं जो केवल मंदिरों के बनाने तक ही अपना अभियान रखते हैं। उनके लिए मंदिर बनाना ही धर्म निभाना है। ऐसा इसलिये कि मंदिर बनाने में ईंट, पत्थर, सीमेंट, लोहा, लकड़ी तथा अन्य सामान लगता है और उसकी खरीद में कमीशन बनने के साथ ही बाद में चढ़ावा भी आता है। गुजरात में तो धर्म की प्रवृत्ति बहंुत ज्यादा है। हमारे अध्यात्म के आधार स्तंभ भगवान श्रीकृष्ण ने वहीं अपना निवास बनाया था। आज भी अनेक बड़े संत वहीं के हैं। प्रसंगवश हम अनेक बार यह कह चुके हैं कि जिस तरह कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों के बीच पनपता है उसी तरह हमारा अध्यात्म ज्ञान इसलिये ही सटीक है क्योंकि हमारे देश में अज्ञान का बोलबाला अधिक रहा है। दुष्टता में रावण और कंस जैसे प्रतापी शायद ही कहीं हुए जिनकी वजह से हम भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही भगवान श्रीराम का नायकत्व हम अकेले ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लोग पहचान पाये। लोगों के मन में अज्ञान, लोभ, लालच तथा काम का ऐसा वास है कि वह उससे विरक्त होने पर अध्यात्म शांति के लिये भी उतनी तेजी से भागते हैं और फिर देश के चालाक धार्मिक ज्ञानी उनका दोहन करते हैं। ऐसा भी कहीं विश्व में अन्यत्र होता नहीं दिखता। जिस भारतीय योग को पूरा विश्व बरसों से मान रहा है उसकी मान्यता अब कहीं जाकर बाबा रामदेव के आकर्षण से बड़ी है। कोई येागी भी बिना युद्ध के महान बन सकता है, यही सोचकर योग की तरफ आम लोग आकर्षित हुए हैं। नतीजा यह है कि कहीं, हॉट योग, कहीं सैक्सी योग, कहीं नग्न योग तो कहीं हास्य योग भी होने लगा है। उसे एक नयी शैली में विक्रय वस्तु बना दिया है। मतलब धर्म कहीं न कहीं अफीम या व्यसन की तरह बिकने का काम करता ही है।
गुजरात में जिस जगह मंदिर बनाने के लिये आयोजन किया गया होगा उनकी ईमानदारी या बेईमानी पर हम सवाल नहीं उठा रहे बल्कि उनके चिंतन के तरीके पर ही अपनी राय रख रहे हैं जिसमें यह मान लिया गया है कि जिस तरह इस दुनियां में बिना गलत राह चले बड़ा आदमी नहीं बना जा सकता वैसे ही भगवान का मंदिर बनना भी संभव नहीं है।
हैरानी की बात है कि लोग दान देने की बजाय नृत्य और गीत के लिये पैसा खर्च कर आये-यकीनन उन्होंने सोचा होगा कि इस तरह हम धर्म का काम कर रहे हैं। अब दान लेना भी आसान नहीं रहा न! पहले अनेक स्थानों पर मंदिर बनाने या नवरात्रि और गणेश प्रतिमाओं की स्थापना को लेकर जबरदस्ती चंदा लेने के आरोप लगते थे। अब तो इस देश मे धर्मनिरपेक्षता मय वातावरण बना दिया गया है तो धार्मिक व्यवसायियों ने नृत्य और गीत के माध्यम से धन जुटाने के प्रयास शुरु किये हैं। कहीं गणेशोत्सव और नवरात्रि पर बाकायदा ऐसे कार्यक्रम हुए जिनमें भक्ति दिखावे की थी जिस पर मनोंरजन का लेबल चिपका दिया गया। मतलब भक्तों को अब दर्शक और श्रोता को चोला भी पहनाया जा रहा है।
हम यहां केवल इसके लिये शिखर पुरुषों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। आम लोग भी कम नहीं है। वह भी चाहते हैं कि हम दर्शक और श्रोता की तरह लुत्फ उठायें पर दिखें भक्त की तरह! अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह समाज भटकाव की तरफ जा रहा है।
हम अगर भारतीय अध्यात्म ज्ञान की बात करें तो उसे समझने वाले यहां कितने हैं, यह तय करना कठिन है! वजह यह है कि आदमी के अंदर स्वयं अभिव्यक्त होने की भावना उसे अहंकार की तरफ ले जाती है और अहंकार नैतिक पतन की तरफ! बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि योगसाधना भी अगर नियमित की जाये तो वह व्यसन की तरफ चिपक जाती है यह अलग बात है कि वह खतरनाक नहीं है। ध्यान लगाने का अभ्यास हो जाये तो सारी दुनियां में चल रहे घटनाक्रम में स्वयं को देखने की इच्छा से आदमी विरक्त हो जाता है। मगर इससे यह फायदा होता है कि आपको कोई दूसरा संचालित नहंी कर सकता। भटकाव इसलिये नहीं होता क्योंकि अपना लक्ष्य हमेशा अपने पास रहता है जिसे हम कहते हैं मन की शांति! मनोरंजन कभी शांति नहीं देता बल्कि अपने साथ विकारों का ऐसा पिटारा ले आता है कि रात की नींद और दिन का चैन नहीं रह जाता। योग साधक भीड़ में इस बात का अहसास नहीं होने देता कि वह उससे अलग है पर होता तो है। धार्मिक तथा मनोंरजन के व्यवसायी इस कदर चालाक होते हैं कि वह आम इंसानों का अस्तित्व ही उससे अलग कर देते हैं पर योग साधक पर उनका जादू नहीं चलता। यही कारण है कि मनोरंजन और भक्ति को प्रथक रखने की कला वही जानते हैं। यह अलग बात है कि वह भक्ति में ही मनोरंजन करते हैं और बिना अध्यात्मिक ज्ञान के मनोरंजन को वह एक घटिया काम मानते हैं भले ही उसें सर्वशक्तिमान के लिये ढेर सारे निवेदन वाले गीत शामिल हों।
निष्कर्ष यही है कि जिस तरह इस संसार में कार्ल मार्क्स के अनुसार दो ही जातियां हैं एक अमीर और दूसरी गरीब! उसी तरह अपने देश में भी दो प्रकार के मनुष्य रहते हैं एक तो वह सच्चे भक्त हैं और दूसरे महा पाखंडी। मुश्किल यह है कि धर्म की ठेकेदारी अब विशुद्ध रूप से पाखंडियों के हाथ में आ गयी है जिनसे बचने की आवश्यकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्म के मूल तत्व अत्यंत प्रभावी हैं पर इसके लिये यह जरूरी है कि हम अपने धर्म ग्रंथों का स्वयं अध्ययन करें।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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मंदिर निर्माण के लिये मनोरंजन-व्यंग्य चिंतन लेख (mandir nirman ke liye manoranjan-vyangya chittan lekh)


गुजरात के एक शहर में एक दिलचस्प समाचार टीवी चैनल पर देखने को मिला। वहां एक मंदिर निर्माण में धन जुटाने के लिये नृत्य और संगीत का कार्यक्रम आयोजित किया गया ताकि उससे मिलने वाली राशि से सर्वशक्तिमान को अनुग्रहीत किया जा सके। खबर देखकर तो हंसी आ गयी। वहां कार्यक्रम देखने के लिये अनेक लोग आये पर वह इतनी कम देर चला कि उससे अपने को ठगा अनुभव कर रहे अनेक दर्शक नाराज हो गये और उन्होंने कुर्सियां तोड़ डाली। इस धर्म और मनोरंजन के बीच रिश्ता देखकर बहुत सारे ख्याल मन में आये।
कार्ल मार्क्स की बहुत सारी बातें हमारे समझ में नहीं आती पर उसने जो कहा है कि धर्म एक अफीम की तरह है उसमें कोई शक नहीं है। मगर कार्ल मार्क्स ने कहा है कि दुनियां का सबसे बड़ा सच रोटी है, यही कारण है कि उसका कोई चेला इस बात पर यकीन नहीं करता कि जिसने पेट दिया है वह भोजन भी देता है। इसलिये सभी गरीबों और मज़दूरों को रोटी दिलाने में लगे हैं। मगर सत्य रोटी नहीं जीवन है जो कि अपनी गति से इस धरती पर विचरण करता है भले ही जीव पैदा होने के साथ ही मरते हैं भी हैं पर सभी भूखे नहंी मरते।
अलबत्ता अगर कार्ल मार्क्स भारत आया होता तो वह अनेक अन्य सत्य भी जान जाता। इस देश में रोटी के साथ ही स्वाद भी बड़ा सत्य है। लोग रोटी से अधिक स्वाद पर अपना ध्यान रखते हैं। रोटी पेट भरने के लिये नहीं पेट भरने को ही जीवन मानते हैं। पेट भर कर उनका मन मनोरंजन की तरह भागता है और यह मनोरंजन भी कहीं इतना बड़ा सत्य बन जाता है कि रोटी को भी आदमी भूलकर उसमे मस्त रहता है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि गरीबी से जूझ रहे इस देश में भूख से कम बल्कि भरपेट और गंदा खाने से लोग अधिक बीमार पड़ने के साथ ही मरते भी हैं। यही कारण है कि कार्ल मार्क्स के शिष्य तथा अनुयायी बरसों तक इस पूरे देश में भूखों और गरीबों के सहारे सत्ता का स्वाद चखने का सपना पाले रहे पर चंद इलाकों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता। धर्म को अफीम मानने वाले इस गुरु के चेले आज की धर्मनिरपेक्षता का स्वांग रच रहे हैं और उसमें अब उनको अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच अपना सपना साकार होता दिखता है। इनमें कई तो सर्वशक्तिमान के एक दरबार ढहने पर अपना विलाप हर साल करते हैं। वैसे रोटी का सत्य ही केवल सत्य नहीं है। रोटी का स्वाद भी सत्य नहीं है। मनोरंजन भी सत्य नहीं है। उनके लिए सत्य केवल धर्मनिरपेक्षता है। बहुसंख्यक समाज के कुछ टुकड़े गरीबी, भुखमरी तथा बेकारी के नाम पर तो वैसे ही उनके साथ हो जाते हैं अब समूचा अल्पसंख्यक समाज भी हाथ आ जाये तो ही उनके सपने पूरे होंगे। यह अलग बात है कि बाबा रामदेव, आसाराम बापू तथा श्री रविशंकर जैसे संगठित धर्म प्रवर्तकों की धारा उसे पूरा होने देगी या नहीं क्योंकि देखा जा रहा है कि अपने धर्मों के पाखंड से उकताये भारतीय लोग एक नयी रौशनी योग तथा भारतीय अध्यात्म में ढूंढ रहे हैं।
इधर इन कार्ल मार्क्स के चेलों का सामना भारतीय धर्म रक्षकों से भी होता रहता है। शक है कि यह सब फिक्सिंग के तहत ही होता है। यह धर्म रक्षक भी वह हैं जो केवल मंदिरों के बनाने तक ही अपना अभियान रखते हैं। उनके लिए मंदिर बनाना ही धर्म निभाना है। ऐसा इसलिये कि मंदिर बनाने में ईंट, पत्थर, सीमेंट, लोहा, लकड़ी तथा अन्य सामान लगता है और उसकी खरीद में कमीशन बनने के साथ ही बाद में चढ़ावा भी आता है। गुजरात में तो धर्म की प्रवृत्ति बहंुत ज्यादा है। हमारे अध्यात्म के आधार स्तंभ भगवान श्रीकृष्ण ने वहीं अपना निवास बनाया था। आज भी अनेक बड़े संत वहीं के हैं। प्रसंगवश हम अनेक बार यह कह चुके हैं कि जिस तरह कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों के बीच पनपता है उसी तरह हमारा अध्यात्म ज्ञान इसलिये ही सटीक है क्योंकि हमारे देश में अज्ञान का बोलबाला अधिक रहा है। दुष्टता में रावण और कंस जैसे प्रतापी शायद ही कहीं हुए जिनकी वजह से हम भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही भगवान श्रीराम का नायकत्व हम अकेले ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के लोग पहचान पाये। लोगों के मन में अज्ञान, लोभ, लालच तथा काम का ऐसा वास है कि वह उससे विरक्त होने पर अध्यात्म शांति के लिये भी उतनी तेजी से भागते हैं और फिर देश के चालाक धार्मिक ज्ञानी उनका दोहन करते हैं। ऐसा भी कहीं विश्व में अन्यत्र होता नहीं दिखता। जिस भारतीय योग को पूरा विश्व बरसों से मान रहा है उसकी मान्यता अब कहीं जाकर बाबा रामदेव के आकर्षण से बड़ी है। कोई येागी भी बिना युद्ध के महान बन सकता है, यही सोचकर योग की तरफ आम लोग आकर्षित हुए हैं। नतीजा यह है कि कहीं, हॉट योग, कहीं सैक्सी योग, कहीं नग्न योग तो कहीं हास्य योग भी होने लगा है। उसे एक नयी शैली में विक्रय वस्तु बना दिया है। मतलब धर्म कहीं न कहीं अफीम या व्यसन की तरह बिकने का काम करता ही है।
गुजरात में जिस जगह मंदिर बनाने के लिये आयोजन किया गया होगा उनकी ईमानदारी या बेईमानी पर हम सवाल नहीं उठा रहे बल्कि उनके चिंतन के तरीके पर ही अपनी राय रख रहे हैं जिसमें यह मान लिया गया है कि जिस तरह इस दुनियां में बिना गलत राह चले बड़ा आदमी नहीं बना जा सकता वैसे ही भगवान का मंदिर बनना भी संभव नहीं है।
हैरानी की बात है कि लोग दान देने की बजाय नृत्य और गीत के लिये पैसा खर्च कर आये-यकीनन उन्होंने सोचा होगा कि इस तरह हम धर्म का काम कर रहे हैं। अब दान लेना भी आसान नहीं रहा न! पहले अनेक स्थानों पर मंदिर बनाने या नवरात्रि और गणेश प्रतिमाओं की स्थापना को लेकर जबरदस्ती चंदा लेने के आरोप लगते थे। अब तो इस देश मे धर्मनिरपेक्षता मय वातावरण बना दिया गया है तो धार्मिक व्यवसायियों ने नृत्य और गीत के माध्यम से धन जुटाने के प्रयास शुरु किये हैं। कहीं गणेशोत्सव और नवरात्रि पर बाकायदा ऐसे कार्यक्रम हुए जिनमें भक्ति दिखावे की थी जिस पर मनोंरजन का लेबल चिपका दिया गया। मतलब भक्तों को अब दर्शक और श्रोता को चोला भी पहनाया जा रहा है।
हम यहां केवल इसके लिये शिखर पुरुषों को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। आम लोग भी कम नहीं है। वह भी चाहते हैं कि हम दर्शक और श्रोता की तरह लुत्फ उठायें पर दिखें भक्त की तरह! अध्यात्मिक ज्ञान के बिना यह समाज भटकाव की तरफ जा रहा है।
हम अगर भारतीय अध्यात्म ज्ञान की बात करें तो उसे समझने वाले यहां कितने हैं, यह तय करना कठिन है! वजह यह है कि आदमी के अंदर स्वयं अभिव्यक्त होने की भावना उसे अहंकार की तरफ ले जाती है और अहंकार नैतिक पतन की तरफ! बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करेंगे कि योगसाधना भी अगर नियमित की जाये तो वह व्यसन की तरफ चिपक जाती है यह अलग बात है कि वह खतरनाक नहीं है। ध्यान लगाने का अभ्यास हो जाये तो सारी दुनियां में चल रहे घटनाक्रम में स्वयं को देखने की इच्छा से आदमी विरक्त हो जाता है। मगर इससे यह फायदा होता है कि आपको कोई दूसरा संचालित नहंी कर सकता। भटकाव इसलिये नहीं होता क्योंकि अपना लक्ष्य हमेशा अपने पास रहता है जिसे हम कहते हैं मन की शांति! मनोरंजन कभी शांति नहीं देता बल्कि अपने साथ विकारों का ऐसा पिटारा ले आता है कि रात की नींद और दिन का चैन नहीं रह जाता। योग साधक भीड़ में इस बात का अहसास नहीं होने देता कि वह उससे अलग है पर होता तो है। धार्मिक तथा मनोंरजन के व्यवसायी इस कदर चालाक होते हैं कि वह आम इंसानों का अस्तित्व ही उससे अलग कर देते हैं पर योग साधक पर उनका जादू नहीं चलता। यही कारण है कि मनोरंजन और भक्ति को प्रथक रखने की कला वही जानते हैं। यह अलग बात है कि वह भक्ति में ही मनोरंजन करते हैं और बिना अध्यात्मिक ज्ञान के मनोरंजन को वह एक घटिया काम मानते हैं भले ही उसें सर्वशक्तिमान के लिये ढेर सारे निवेदन वाले गीत शामिल हों।
निष्कर्ष यही है कि जिस तरह इस संसार में कार्ल मार्क्स के अनुसार दो ही जातियां हैं एक अमीर और दूसरी गरीब! उसी तरह अपने देश में भी दो प्रकार के मनुष्य रहते हैं एक तो वह सच्चे भक्त हैं और दूसरे महा पाखंडी। मुश्किल यह है कि धर्म की ठेकेदारी अब विशुद्ध रूप से पाखंडियों के हाथ में आ गयी है जिनसे बचने की आवश्यकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय अध्यात्म के मूल तत्व अत्यंत प्रभावी हैं पर इसके लिये यह जरूरी है कि हम अपने धर्म ग्रंथों का स्वयं अध्ययन करें।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
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ब्लागस्पाट का लेबल, वर्डप्रेस की श्रेणियां और टैग-जानकारी के लिये आलेख


यह आलेख मैं एक प्रयोक्ता की तरह लिख रहा हूं और मुझे अपने तकनीकी ज्ञान को लेकर कोई खुशफहमी नहीं है। कल कुछ ब्लाग लेखक ने टैगों को लेकर सवाल किये। अधिकतर लोग ब्लागस्पाट पर काम करते हैं और उनका यही कहना था कि उनके यहां टैग(लेबल)कम लग पाता है। कई लोग के मन में वर्डप्रेस के ब्लाग को लेकर भी हैरानी है। यह आलेख मैं ऐसे ही नये ब्लाग लेखकों के दृष्टिकोण से लिख रहा हूं जिन्हें शायर मुझसे कम जानकारी हो।

पहले ब्लाग स्पाट के लेबल या टैग के बारे में बात कर लें। वहां लेबल में 200 से अंग्रेजी वर्ण नहीं आते यह सही बात है पर उसका उपयोग अगर इस तरह किया जाये जिससे स्पेस कम हो तो उसमें अंग्रेजी के अधिकतक शब्द हम शामिल कर सकते हैं। अगर हिंदी के शब्द भी लिखने हैं तो पहले हिंदी में शब्द फिर उसके साथ अंग्रेजी के शब्द लिखकर वहां से कापी लाकर लेबल पर पेस्ट करें। उसका तरीका यह है। हिंदी,कविता,शायरी,साहित्य,हास्य,व्यंग्य,hindi,kavita,shayri,sahitya,hasya,
कोमा के बाद स्पेस न दें। इससे दोनों मिलाकर अट्ठारह से बीस टैग या लेबल आ सकते हैं।
वैसे तो वर्ड प्रेस के किसी ब्लाग लेखक ने कोई सवाल नहीं किया पर फिर भी उसकी जानकारी दे देता हूं। वहां कैटेगरी और टैग दो तरह से सुविधा मिली है। कैटेगरी में अगर आप ऐसे शब्द भर दें जो आप हमेशा ही अपने पाठों के साथ कर सकते है। जैसे हिंदी,कविता,साहित्य,आलेख,व्यंग्य,hindi,kavita,sahitya,vyangya,hasya vyangya। वहां अपने ब्लाग में सैटिंग में जाकर अपने ब्लाग ओर पाठ की सैटिंग में हिंदी शब्द ही लिखें। इससे आपका ब्लाग हिंदी के डेशबोर्ड पर दिखता रहेगा। मुझे तो अपने ब्लाग की सैटिंग ही दो महीने बाद समझ में आयी थी। वैसे मेरे वहां इस समय आठ ब्लाग हैं जिनमें से दो अन्य श्रेणी में कर रखे हैं क्योंकि वह भी बिना किसी फोरम के इतने पाठक जुटा लेते हैं कि डेशबोर्ड पर दिखने लगते हैं। उस पर मैं अभी तक दूसरे ब्लाग से पाठ उठाकर रखता हूं और डेशबोर्ड पर हिंदी के नियमित ब्लाग लेखक भ्रमित न हों मैंने उसे अन्य श्रेणी में कर रखा है। यह अलग बात है कि चिट्ठाजगत वालों की उस पर नजर पड़ गयी और अपने यहां उसे लिंक किये हुए हैं। वर्डप्रेस में वर्णों की संख्या का कोई बंधन नहीं हैं। मैंने शुरू में एक ब्लाग लेखक को इतनी श्रेणियां उपयोग करते देखा था कि डेशबोर्ड पर उससे हमारे ब्लाग पर दूर ही दिख रहे थे। जब वह नंबर वन पर था तो हमें बड़ी मेहनत से अपने ब्लाग देखने पड़ रहे थे। वर्डप्रेस पर वर्ण या शब्द की कोई सीमा नहीं है

अब आ जाये टैग की किस्म पर जो शायद इस समय सबसे अधिक विवादास्पद है। मुझे अनुमान नहीं था कि यह इतना तीव्र हो जायेगा कि मुझे यह सब लिखना पड़ेगा।
मैने ब्लाग के बारे में लेख पढ़ा था अपने ब्लाग बनाने के छह महीने पहले यानि सवा दो साल पहले। उसके निष्कर्ष मुझे याद थे और आज भी हैं और मैं उन्हीं पर ही चलता हूं।
1.नियमित रूप से अपने ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखते रहें। इस बात की परवाह मत करें कि सभी पाठ आपके पाठको अच्छे लगें पर नियमित होने से वह वहां आते हैं और उनकी आमद बनी रहे।
2.ब्लाग पर जमकर टैग लगायें। टैग लगाते समय आपको यह ध्यान रखना चाहिये कि आप अपना ब्लाग कहां और किन पाठकों को पढ़ाना चाहते हैं। उसमें अपने विषय से संबंधित टैग तो लगाना ही चाहिए बल्कि ऐसे लोकप्रिय टैग भी इस तरह लगाना चाहिए कि कोई उन पर आपत्ति न कर सके। याद रहे टैग पाठक को पढ़ाने के लिये नहीं बल्कि अपना ब्लाग वहां तक पहुंचाने के लिये है।
3.अखबारों में आप छपते हैं तो वह अगले दिन ही कबाड़ में चला जाता है। किताबें अल्मारी में बंद हो जाती हैं पर यह आपका ब्लाग अंतर्जाल पर हमेशा ही सक्रिय बना रहेगा।

यह मूलमंत्र मुझे याद है। टैग गलत लगाकर पाठकों को धोखा देना नहीं है-ऐसे तर्क मेरे जैसे लेखक के आगे रखना ही अपनी अज्ञानता का प्रमाण देना है। हम टैग लगा रहे हैं शीर्षक नहीं। कहा यह जाता है कि हमारे पाठ के अनुरूप शीर्षक होना चाहिये। यह टैग वैसी होने की बात किस हिंदी की साहित्य की किताब में कहा गया है। टैग कभी शीर्षक नहीं होते, जैसे पूंछ कभी मूंछ नहीं होती। पैर का इलाज सिर पर नहीं चलता। शीर्षक सिर है और टैग पांव है। आपने देखा होगा पत्र-पत्रिकाओं में होली के अवसर किसी प्रतिष्ठत हस्ती का चेहरा लिया जाता है और किसी दूसरे का निचला हिस्सा लेकर उसका कार्टून बनाया जाता है। मतलब शीर्षक ही पहचान है पाठ की।
टैग तो एक हाकर की तरह है जो उसे लेकर चलता है। अब कहानी है तो वह संस्मरण भी हो सकती है और अभिव्यक्ति या अनुभूति भी। केवल यही नहीं आप ऐसे लोकप्रिय शब्द ले सकते हैं जिनका आम लोग सर्च इंजिन खोलने के लिये उपयोग करते हैं। हां इसमें केवल अमूर्त वस्तुओं, शहरों, या नदियों का नाम लिख सकते हैं जिससे आपको अपना ट्रेफिक बढता हुआ लगे। प्रसिद्ध व्यक्तियों या संस्थाओं का नाम कभी नहीं लिखें क्योंकि इससे आपकी कमजोरी ही जाहिर होगी और उनके प्रशंसकों द्वारा उसका प्रतिवाद भी संभव है। संभव है आम पाठक आप में दिलचस्पी न लें क्यों िउनसे संबंधित सामग्री वैसे ही अंतर्जाल पर होती है।

कुछ शब्द हैं जैसे अल्हड़,मस्तराम,मनमौजी और भोला शब्द अगर वह आपके प्यार का नाम है तो उपयोग कर सकते हैं। जैसे मुझे मेरी नानी कहती थी ‘मस्तराम’। मुझे उनका यह दिया गया नाम बहुत प्यारा है। मैंने पहले इसे अपने नाम के साथ ब्लाग में जोड़ा पर चिट्ठाजगत वालों ने उसे पकड़कर लिंक कर लिया तो मैंने सोचा कि इसका टैग ही बना देते हैं। फिर अब उसे टैग बना लिया। टैगों में संबंद्ध विषय से संबंधित जानकारी होना चाहिए यह बात ठीक है पर हम उसे विस्तार देकर अपने पाठक तक पहुंचने का प्रयास न करें यह कोई नियम नहीं है। इस पर फिर कभी।

कुल मिलाकर टैग वह मार्ग है जो आपको पाठकों तक पहुंचा सकता है। ब्लागस्पाट का मुझे पता नहीं पर वर्डप्रेस में मैंने यही अनुभव किया है। आखिरी बात यह कि मैंने यह आलेख एक प्रयोक्ता की तरह लिखा है और हो सकता है मेरा और आपका अनुभव मेल न खाये। फिर ब्लाग स्पाट के ब्लाग अभी वैसे परिणाम नहीं दे पाये जैसे अपेक्षित थे। कुल मिलाकर यह मेरा अनुभव है जिसे मैंने प्रयोक्ता के रूप में पाया और इससे अधिक तो मुझ कुछ आता भी नहीं। कुछ खोजबीन चल रही है और यही टैग उसके लिये काम कर रहे हैं। शेष फिर कभी।
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मनुस्मृति-राजा का कर्तव्य है धर्म की रक्षा करना


१.धर्मज्ञ राजा को जातियों,  धर्मों, राज्य के धर्मों, श्रेणी धर्मों(व्यवसाय के प्रकार से नियत धर्मों) तथा कुल धर्मों को अच्छी तरह समझकर अपने धर्म का अनुसरण करना चाहिऐ.
२.जाति, देश और कुल धर्मानुसार अपने-अपने कामों को करने वाले तथा अपने-अपने कार्य में स्थित होकर दूर रहते हुए भी इस लोक में प्रिय हो जाते हैं.
३.राजपुरुष  को न तो स्वयं  झगडा करना चाहिए न ही किसी के झगडे को अनदेखा करना चाहिऐ.
४.राजपुरुष  को धर्म का अनुसरण करने वाले तथा सदाचरण करने वाले द्विजातियों द्वारा प्रमाणित  एवं  देश, कुल तथा जाति के अनुकूल ही झगडे का निर्णय करना चाहिऐ.
५.जिस सभा में अधर्म द्वारा धर्म को दबाया जाता है और वहाँ मौजूद सदस्य अन्याय को दूर नहीं करते वहाँ जिस कांटे से धर्म को दबाया जाता है वही बाद में सदस्यों को कष्ट पहुंचाता है.
६.ऐसी सभा में जहाँ सभासदों के सम्मुख ही झूठ जब सत्य को तथा अधर्म भी धर्म को दबाता तो उस पाप के कारण सभासद भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं.
७.राजपुरुष द्वारा उचित न्याय  नहीं होने पर अधर्म का पहला चौथाई भाग अधर्म करने वाले को, दूसरा चौथाई यह सब देखने वाले को, तीसरा चौथाई भाग राज्य की तरफ से नियुक्त सदस्यों को था चौथाई भाग राज्य  जो मिलता है. 

चाणक्य नीति:असंयमित जीवन से व्यक्ति अल्पायु


1.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

2.जो सुख चाहते है वह विद्या छोड़ दें। जो विद्या चाहते हैं वह सुख छोड़ दें। सुखार्थी को ज्ञान और ज्ञानार्थी को सुख कहाँ मिलता है। बिना सोचे-समझे खर्च करने वाला, अनाथ, झगडा करने वाला तथा असंयमित जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति अल्पायु होते हैं।धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या संग्रह में और वाद-विवाद में जो निर्लज्ज होता है, वही सुखी होता है।

3.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

मूर्ति पूजा से भी होता है ध्यान जैसा लाभ


इस देश में आध्यात्म को लेकर दो धाराएं सदैव रहीं हैं. एक तो निर्गुण और निराकार ईश्वर की आराधना की प्रवर्तक रही हैं दूसरी सगुण और साकार की उपासक. मतलब यह कि इतिहास इस विषय सा जुडे विवाद पर पहले भी बहुत बहस हो चुकी है पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका-और कभी निकलना भी नहीं है. सगुण और साकार भक्ति के उपासक भगवान की मूर्तियों बनाकर उसकी पूजा करते हैं और निर्गुण और निराकार ध्यान, ज्ञान और नाम की चर्चा कर भक्ति भाव का प्रदर्शन करते रहे हैं. देखा जाये तो भारतीय आध्यात्म की यही विशेषता रही हैं उसने दोनों धाराओं को अपने अन्दर समेटा है. श्रीगीता पढने वाले इसे तरह की बहस में नहीं पड़ते क्योंकि उसमें सब कुछ स्पष्ट कर दिया है और निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की भक्ति को मान्यता देते हुए हृदय में शुद्ध भावना स्थापित करने का संदेश दिया गया है. विगत समय में दोनों विचारधाराओं के विद्वानों के मध्य तीव्र मतभेद रहे हैं पर समय के साथ इस देश के आध्यात्म ने दोनों को आत्मसात कर लिया. अब योग और ध्यान से निर्गुण और निराकार की उपासना करने वाले भी मंदिरों मे जाते हैं क्योंकि मूतियों के सामने जाकर प्रार्थना और ध्यान करने से भी मन को शांति मिलती है. मूर्तियों का स्वरूप हमारे अन्दर ऐसी तरंगें उत्पन्न करता है जिससे मन में सुख का अनुभव होता है.

कुछ विद्वानों का मत है कि मूर्तियों की पूजा भी एक तरह से ध्यान का ही रूप है क्योंकि उनको देखने से कुछ देर के लिए हमारा ध्यान सांसरिक वस्तुओं से हट जाता है और इससे मन को शांति मिलती है. आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अगर शुद्ध हृदय से पूजा की जाये तो प्रतिमा में भी भगवान् है. होता यह है कि कुछ लोग केवल मूर्ति की पूजा करते हैं पर ध्यान कहीं होता है और मूंह में मन्त्र और मन में दुनिया का तंत्र होता है और इसलिये वह अपने मन में शांति का अनुभव नहीं कर पाते. देखा जाये तो सभी देवी देवताओं की तस्वीरे इसलिये आकर्षक बनाईं जातीं हैं ताकि वह आदमी जिसे निरंकार का ध्यान लगाने में सहजता का अनुभव नहीं होता वह पहले साकार को अपने मन में धारण कर ध्यान लगाएं. हमारे देश में सहिष्णुता का भाव हमेशा रहा है इसलिये कभी मूर्तियों के स्वरूप को लेकर विवाद नहीं रहा है पर विश्व के जिन भागों में यह पहले हुआ करती थी वहां लोग अपने देवी-देवताओं की मूर्तियों को लेकर झगड़ते थे और इसी कारण उन जगहों पर मूर्ति पूजाओं को वर्जित करने वाली विचारधाराओं को बढावा मिला. भारत में कभी इस तरह भक्त आपस में नहीं लड़े कि हम अमुक भगवान् की मूर्ति को मानेंगे और अमुक को नहीं. सभी मूर्तियों की पूजा को साकार से निराकार की उपासना करने का एक जरिया माना गया. यही कारण है कि यहां कभी मूर्तियों को लेकर झगड़े नहीं हुए. हालांकि अब तमाम तरह के ढोंग और पाखंड हो गये हैं और कई लोगों ने मूर्ति पूजाओं की आड़ मे अपने व्यवसाय बना लिए हैं, और अपने देश के अधिकतर भक्तजन जो इन स्थानों पर जाते हैं और निष्काम भक्ति भाव से दर्शन कर लौट जाते हैं और इन पाखंडों में रूचि नहीं लेते पर जिनके स्वार्थ हैं और जिन्हें अपनी भक्ति का पाखण्ड करना है वही मूर्तियों को लेकर तमाम तरह के प्रचार करते हैं पर उनके लिए ज्यादा समर्थन नहीं होता.

जो लोग निरंकार ईश्वर की उपासना नहीं कर पाते उन्हें श्रद्धा भाव से भगवान् की मूर्तियों पर ही शुद्ध भाव से नमन करना चाहिए क्योंकि उससे भी मन को संतोष मिलता है उन्हें इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि वह मूर्ति किसी धातु या पत्थर की बनी है. उसके आकर्षण को अपने मन में धारण करना चाहिऐ, ऐसा करने से भी मन में प्रफुलता का भाव पैदा होता है. मूर्ति पूजा साकार से निराकार की तरफ जाने का मार्ग है और जो लोग निरंकार की उपासना करने में असहज अनुभव करते हैं और जीवन में तनाव अधिक महसूस करते हैं उन्हें किसी इष्ट की मूर्ति के समक्ष नमन करना चाहिए और हो सके तो आरती भी करना चाहिए. यह उपाय भी ध्यान जैसा लाभ प्रदान करता है अगर शुद्ध हृदय से किया जाये.

मनुस्मृति:दुस्साहसी को क्षमा राज्य के लिए ख़तरा


१.अपनी क्षीण वृति, अर्थात आय की कमी से तंग होकर जो व्यक्ति रास्ते में पड़ने वाले खेत से कुछ कंद-मूल अथवा गन्ना ले लेता हैं उस पर दंड नहीं लगाना चाहिए.

२.जो व्यक्ति दुसरे के पशुओं को बांधता है, बंधे हुए पशुओं को खोल देता है तथा दासों, घोडों और रथों को हर लेता है, वह निश्चय ही दंडनीय है.

३.इस प्रकार जो राज्य प्रमुख चोरों को दण्डित कर चोरी का निग्रह करता है वह इस लोक में यश प्राप्त करता है तथा परलोक में दिव्य सुखों को भोगता है.

४.जो राज्य प्रमुख इस लोक में अक्षय यश व मृत्यु के बाद दिव्य लोक चाहता है उसे चोरों और डकैतों के अपराध को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए.

५. वह व्यक्ति जो अप्रिय वचन बोलता है, चोरी करता है और हिंसा में लिप्त होता है. उसे महापापी मानना चाहिए.

६.यदि राज्य दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा कर देता है या उसके कृत्य को अनदेखा कर देता है तो अतिशीघ्र उसका विनाश हो जाता है क्योंकि लोगों को उसके प्रति विद्वेष की भावना पैदा हो जाती है.

७.राज्य प्रमुख को चाहिए के वह स्नेह वश अथवा लालच वश भी प्रजाजन में डर उत्पन्न करने वाले अपराधियों को बन्धन मुक्त न करे.

८.यदि गुरु, बालक,वृद्ध व विद्वान भी किसी पर अत्याचार करता है तो उसे बिना विचार किये उपयुक्त दंड दिया जाना चाहिए.

९.अपने आत्म रक्षार्थ तथा किसी स्त्री और विद्वान पर संकट आने पर उसकी रक्षा के लिए जो व्यक्ति किसी दुष्ट व्यक्ति का संहार करता है उसे हत्या के पाप का भागीदार नहीं माना जाता.

बेनजीर की वापसी और धमाके


बेनजीर की पाकिस्तान वापसी पर उनके समर्थकों द्वारा किया गया स्वागत और आतंकवादियों के विस्फोट दोनों ही आज विश्व भर के समाचारों में छाये हुए हैं. इसका कारण यह है की यह सब जान चुके हैं की जब तक पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादियों पर नियंत्रण नहीं पाया जायेगा तब विश्व के किसी भी हिस्से में मौजूद आतंकवाद को समाप्त नहीं किया जा सकता हर देश वहाँ के वर्तमान शासकों को प्रसन्न करने में लगे होने के साथ भविष्य में भी अपने लिए गोटियाँ बिठाने में लगा है. पाकिस्तान केवल नाम का ही स्वतंत्र देश है अब इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है-क्योंकि उसके राजकाज में बाहरी हस्तक्षेप अब खुले में होने लगा है. जब पिछली बार नवाज शरीफ वापस लौटे थे तू उन्हें वापस भेज दिया गया, और उन्हें वह करार दिखाया गया जिसमें उन्होने दस साल देश में कदम न रखने की बात मानी थी और उसमें गवाह था कोई और देश.

बेनजीर की वापसी में अमेरिका का हाथ है और इसलिए पाकिस्तान के कट्टरपंथी उनके विरोधी हैं. इसके अलावा जिन्हें मुशर्रफ साहब ने ही हिंसा का पाठ पढाया वह जेहादी अब उनके लिए संकट बन गए हैं और बेनजीर के साथ उनके समझौते की चर्चा ने भी कट्टरपंथियों को उनका बैरी बना दिया है. इन विस्फोटों में इतने सारे लोगों की दर्दनाक मौत इस बात को दर्शाती है की अब पाकिस्तान भी अब उस हिंसा की चपेट में बुरी तरह फस चुका है जिसका जनक उसे ही माना जाता है.

पाकिस्तान में वैसे तो कट्टरपंथ का ही बोलबाला है पर कुछ कम(जिन्हें बाकी विश्व उदारवादी कहता है) और कुछ ज्यादा कट्टरपंथियों के बीच संघर्ष अब तेज हो गया है. वैसे मुशर्रफ स्वयं आधुनिक विचारधारा होने का दावा करते हैं पर धर्म निरपेक्षता की नीति से उन्हें भी एलर्जी है-यह बात वह खुद कह चुके हैं . अमेरिकी दबाव के चलते वह अधिक कट्टरपंथियों के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं. अब उन्हें देश में लोकतंत्र बहाली की याद आ रही है और उन्होने बेनजीर की देश वापसी का रास्ता साफ किया. हालांकि उन्होने बेनजीर को अभी आने से मना किया पर तेज तर्रार बेनजीर ने उनकी बात नहीं मानी और यह दिखाने की कोशिश की ऐसे गुप्त समझौते के बावजूद उन पर सैनिक शासन का कोई दबाव नहीं है. इसमें कोई शक नहीं है की पाकिस्तान के आधुनिक समाज में उनकी वापसी से लोकतंत्र की बहाली की आशा की जो किरण जागी है जो कट्टरपंथियों के दबाव से मुक्त होना चाहता है. देश में वैसे तो लोकतंत्र और कट्टर पंथ के बीच संघर्ष चल ही रहा है. दुर्भाग्ययह रहा है की पाकिस्तान में लोकतंत्र समर्थकों के पास कोई कद्दावर नेता नहीं था औरकट्टरपंथियों को भी मुशर्रफ के मुहँ फेर लेने से ऐसी ही स्थिति देखनी पडी है. बेनजीर की वापसी से लोकतंत्र के समर्थकों को एक कदावर नेत्री मिलने से वहाँ के कट्टरपंथियों की चिंता बढ़ना स्वाभाविक हैं और यह विस्फोट उसी का ही परिणाम है. अब पाकिस्तान की राजनीति दोनों सिरों पर पुख्ता हो गई है एक तरफ मुशर्रफ और दूसरी तरफ बेनजीर. ऐसे में मुशर्रफ से जूझ रहे कट्टरपंथी अपने को हाशिये पर खडा अनुभव कर रहे हैं.

इस हादसे की दृश्य चैनलों पर देख कर दुख हुआ. आखिर बेनजीर लोकतंत्र के जरिये ही अपना रास्ता तलाश कर रहीं है और उन्हें चुनाव में प्रचार कर रोका जा सकता है इसलिए इस तरह का हमला अनुचित है. इस हादसे में जो लोग मारे गए वह कोई जंग नहीं लड़ रहे थे पर उन्हें हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया गया. अब तो भारत और पाकिस्तान में इतने विस्फोट हो चुके हैं कि लोग पूरे नाम तक नहीं याद रख पाते. इनमें हमेशा ही ऐसे लोग मरते हैं जिनका किसी विवाद से सीधा संबंध नहीं होता. पाकिस्तान और भारत की आम जनता में एक स्वाभाविक रूप से राजनीतिक रूप से मन मुटाव हो सकता है पर इस तरह के हादसे एक-दूसरे के साथ होना उनको पसंद नहीं है. जिस तरह ऐसे विस्फोट कर निर्दोष आदमी को मारा जाता है वह अत्यंत घृणित कृत्य है और ऐसा केवल कायर ही करते हैं.

बहरहाल बेनजीर की वापसी से पाकिस्तान में अब राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ेंगी और उनकी वजह से विश्व में चर्चा होगी यही तो मुशर्रफ चाहते हैं कि विश्व में अब पाकिस्तान के लोकतंत्र की भी चर्चा हो, जिसमें उनके पिछलग्गू नेता सफल नहीं हो पाए थे. वह चुनाव लडे जीते मंत्री भी बने पर विश्व में फिर भी पाकिस्तान एक लोकतांत्रिक देश नहीं कहलाता था.बेनजीर के परिदृश्य में आने से अब उसकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर पूरे विश्व की नजर रहेगी.

नए समाज के निर्माण की पहल करें


भारत एक बृहद देश है और इसमें तमाम प्रकार के समुदाय और समाज के लोग रह्ते है और यह कोई नयी बात नही है। अगर कोई नयी बात है तो वह यह कि हम आधुनिक समय में एकता की बात अधिक करनें लगें है और यह इस बात का द्योतक है कि भारतीय समाज में अब धर्म, विचार और वैयक्तिक विषयों पर झगड़े पहले की बनस्बित बहुत बढ़ गये हैं. शायद यही वजह है कि हम सब जगह शांति और एकता के नारे लगा रहे हैं.

देश के हालत कैसे हैं यह सब जानते हैं और किस तरह समाज में वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं यह हम सभी देखते आ रहे हैं. फिर जब सब लोग शांति और एकता की बात करते हैं फिर भी हो क्यों नहीं पा रही है यह सोचने का विषय है. आखिर समाज में हम अपनी भूमिका किस रूप में निभा रहे हैं इस पर भी हमें आत्मंथन तो करना चाहिए. देश के सारे बुद्धिमान लोग एक भारतीय समाज बनाने की बात तो करते है पर उसकी कोई कल्पना उनके दिमाग में नहीं है और शांति और एकता केवल एक नारा बनकर रह गये हैं. फिर हम आ जाते हैं इस बात पर कि सब समाजों को एक होना चाहिए. सवाल यह है के समाज का कोई अपने आप में कोई भौतिक रूप नहीं होता और व्यक्ति की इकाई उसे यह संज्ञा प्रदान करती है तो क्यों न हमें व्यक्ति तक जाकर अपनी बात कहना चाहिए.

अगर हम एक भारतीय समाज की बात कर रहे हैं जिसमें सब समाज उसकी इकाई है तो हमें उनके वर्त्तमान स्वरूप को भी समझना होगा. समय ने इन हमारे सभी समाजों को कितना खोखला कर दिया है इस पर दृष्टिपात किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते. पहले समाज के संगठन बहुत मजबूत होते थे और लोग अपने से बडे, प्रतिष्ठित था विद्वान लोगों की बात मानते थे तब आर्थिक स्वरूप भी एसा नहीं था और मध्यम वर्ग अपनी बौद्धिक प्रभाव से दोनों वर्ग पर अपना नियन्त्रण रखता चलता था. लोग अपने समाज के दबंग लोगों से हमेशा तकलीफ में राहत मिलने की उम्मीद होती थी. अगर देखा जाये तो समाज के सबसे अधिक आवश्यकता आदमी को बच्चों के विवाह के समय होती है और इसमें भी कोई अधिक पहले परेशानी नहीं होती थी. अब बढते भौतिकतावाद ने रिश्तों को लोहे-लंगर के सामान से बाँध दिया है-और आजकल तो हालात यह है कि लड़के को कार मिलनी है लडकी वाले को देनी है. रिश्तों की औकात अब आर्थिक आधार पर तय होने लगी है. पहले भी रिश्तेदारों में अमीर गरीब होते थे पर आज अन्तर पहले से बहुत ज्यादा हो गया है. समाज के शक्तिशाली लोगों से गरीब और कमजोर तबका अब कोई आशा नहीं कर सकता. अत उनकी पकड़ समाजों पर वैसी नहीं है जैसे पहले थी

कहने का तात्पर्य यह है कि समाज टूटे पडे हैं और कोई नया समाज बन ही नहीं रहा और चूंकि हम लोगों को नाम के लिए ही सही उनकी छात्र छाया में रहें की आदत हो गयी है इसलिये उनके नाम पर उसके भग्नावशेषों में रह रहे हैं. जो लोग समाजों में एकता और शांति की बात करते हैं वह सभी समाजों के खोखलेपन को जानते हुए भी चर्चा नहीं करते. अपने समाज की आलोचना की तो वह नाराज होंगे और दूसरे की करने पर तो वैसे ही झगड़े का अंदेशा है ऐसे में नारा लगाकर रहना ही सबको श्रेयस्कर लगता है. मेरा आशय यह कि एकता व्यक्ति की व्यक्ति से हो सकती है पर समाज की एकता तो वैसे भी एक नारा ही लगती है फिर खोखले और बिखर चुके समाज अपने अन्दर तो एकता कर लें फिर दूसरे समाज से करने की सोचें.

मैं देख रहा हूँ लोग अब नए समाज की स्थापना करना चाहते हैं पर उनके मार्गदर्शक बुद्धिजीवी अभी भी उन्हें पुरानी पहचान पर एक होने का संदेश दे रहे हैं जो कि अब आम आदमी कि दृष्टि से अव्यवहारिक हो चुके हैं. अब अगर इस देश के बुद्धिमान लोग चाहते हैं कि इस देश में एकता और शांति से लोग रहे तो उन्हें नए समाज के निर्माण के लिए कार्य करना चाहिए. यह प्रक्रिया कोई एक दिन में पूरे नहीं होगी पर उसको शुरू तो किया जा सकता है, और इसके परिणाम भी अभी से दिखना शुरू होंगे. हमें केवल इस बात पर विचार करना चाहिए कि आम आदमी की सामाजिक परेशानी किस तरह की है और वह क्या चाहता है? हमें कभी न कभी तो समाजों में आये खोखलेपन पर दृष्टिपात करना ही होगा, जिनको हम देखते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं. इन सब पर विचार करके ही यह तय करना होगा कि हम समाज का कोई नया रूप देखना चाहिते हैं या इन्हीं भग्नावशेषों से ही एकता और शांति करना चाहते हैं

सच्चे आंकडे भी झूठ बोलते हैं


अगर कोई शब्दों पर यकीन नहीं करे तो उसे अंकों के जाल में फंसाओ-यह उन लोगों का नियम है जो झूठ के सहारे अपना काम चलाते हैं या उनको चलाना पड़ता है. मैने सांख्यिकी की किताब में एक विद्वान का कथन पढा था कि आंकडे हमेशा झूठ को सच साबित करने के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं. उस समय मुझे उस विद्वान के कथन पर विश्वास नहीं हुआ-सोचा जब सब अपने सामने हों तो उसे झूठ कैसे कहा जा सकता है.

पर अब सामने ही आंकड़ों का मायाजाल मौजूद हो और उसके ठीक विपरीत सच हो तो क्या कहा जाये? और अगर प्रमाण देखना हो तो बीसीसीआई की क्रिकेट टीम की को ही देख लो. आंकड़ों के दृष्टि से कितने महान खिलाड़ी भरे पडे हैं पर विश्व कप के नाम पर उनके खाते में जीरो दर्ज है. उनके द्वारा विश्व कप में भाग लेने की संख्या का जिक्र तो सब करते हैं पर कितनी बार जितवाया इस पर कोई बहस नहीं.

अगर कोई उन महान खिलाडियों से पीछा छुडाने की बात करे तो सब उसके पीछे पड़ जाता है कि इतने टेस्ट, इतने वन डै, इतने रन, इतने शतक और इतने कैच उसके खाते मना है कैसे हटाया जा सकता है? कहने वाला दो दिन में पलट जाता है कि मैने एसा नहीं कहा. फिर भारतीय टीम वहीं कि वहीं. अभी बीस ओवर में विश्व कप जीत कर आयी तो कहा गया कि उसकी तकनीकी अलग है, पर कंगारू तो पचास ओवर का मैच भी बीस ओवर की तरह खेल रहे हैं अब उसका जवाब भी तो उसी शैली में देना होगा. पर नहीं! आंकड़ों को देखो खेल नहीं. यह क्रिकेट अब बैट-बाल का नहीं बस आंकड़ों का रह गया. बीसीसीआई के खिलाडियों के पुराने आंकडे सुनो और खेल तो हम कंगारों का ही देखेंगे. भई क्या लाजवाब खेलते हैं. और अपने खिलाड़ी! उनके तो आंकडे देखो सब महान हैं. आंकडे तो सच्चे हैं झूठ बोलते हैं तो क्या?
सच्चे आंकडे भी झूठ बोलते हैं

शाश्वत प्रेम के कितने रुप


‘प्रेम’ शब्द मूलरूप से संस्कृत के ‘प्रेमन’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है-‘प्रिय का भाव’। ऐक अन्य प्रकार की व्युत्पत्ति दिखाई देती है, जहाँ प्रेम को ‘प्रीञ’ धातु से मनिन’ प्रत्यय करके सिद्ध किया गया है (प्रीञ+मनिन=प्रेमन)। इस द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार प्रेम का अर्थ है-प्रेम होना, तृप्त होना, आनन्दित होना या प्रेम, तृप्त और आनंदित करना।

निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अद्वैत मतावलंबियों ‘सच्चिदानंद’ कहा है। वह सत है क्योंकि उसका विनाश नही होता, वह चित है क्योंकि स्वयं प्रकाशमान और ज्ञानमय है तथा आनंद रुप है इसलिये कि वह प्रेममय है। यदि वह आनंदात्मक न हो तो उसके अस्तित्त्व और और चैतन्य की क्या सार्थकता रह जायेगी। सत-चित का भी प्रयोजन यह आनंद या प्रेम ही है। इसी प्रेम लक्षण के वशीभूत होकर वह परिपूर्ण, अखंड ब्रह्म सृष्टि के लिए विवश हो गया। वह न अकेले प्रेम कर सका , न तृप्त हो सका और न आनंद मना सका। तब उसके मन में एक से अनेक बन जाने की इच्छा हुई और वह सृष्टि कर्म में प्रवृत्त हुआ।

आनंद स्वरूप प्रेम से ही सभी भूतों की उत्पत्ति होती है, उसमें ही लोग जीते हैं और उसमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं। यही तथ्य तैत्तिरीयोपनिषद (३.६) की पंक्तियों में प्रतिपादित किया गया है।

प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड और उससे परे जो कुछ है- सब इसकी परिधि में आ जाते हैं। प्रेम संज्ञा भी है और क्रिया वाचक भी है। संज्ञा इसलिये कि सब में अंत:स्थ भाव रुप (मन का स्थायी भाव) है और यह भाव व्यक्त भी होता है अव्यक्त भी। क्रियात्मक इसलिये कि समस्त चराचर के व्यापारों का प्रेरक भी है व्यापारात्मक भी है। किन्तु मूल है अंत:स्थ का अव्यक्त भाव, जो अनादि और अनंत है, जो सर्वत्र और सब में व्याप्त है। यही अव्यक्त भाव रुप प्रेम सात्विक, राजस और तामस इन तीन गुणों के प्रभाव से विविध विकारों के रुप में बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है और व्यवहार में व्यक्त होता है ।

यही प्रेम बडों के प्रति आदर, छोटों के लिए स्नेह, समान उम्र वालों के लिए प्यार, बच्चों के लिए वात्सल्य, भगवान् के प्रति भक्ति , आदरणीय लोगों के लिए श्रद्धा, जरूरतमंदों के प्रति दया एवं उदारता से युक्त होकर सेवा, विषय-सुखों के संबध में राग और उससे उदासीनता के कारण विराग, स्व से (अपने से) जुडे रहने से मोह और प्रदर्शन से युक्त होकर अहंकार, यथार्थ में आग्रह के कारण सत्य, जीव मात्र के अहित से विरत होने में अहिंसा, अप्रिय के प्रति अनुचित प्रतिक्रिया के कारण घृणा और न जाने किन-किन नामों से संबोधित होता है। प्रेम तो वह भाव है जो ईश्वर और सामान्य जीव के अंतर तक को मिटा देता है। जब अपने में और विश्व में ऐक-जैसा ही भाव आ जाय, और बना रहे तो वह तीनों गुणों से परे शुद्ध प्रेम है।

यह प्रेम साध्य भी है प्रेम पाने का साधन भी है। साधारण प्राणी सर्वत्र ऐक साथ प्रेम नहीं कर सकता-इस तथ्य को देखते हुए ही हमारे देश के पूज्य महर्षियों ने भक्ति का मार्ग दिखाया जिससे मनुष्य अदृश्य ईश्वर से प्रेम कर सके। इन्द्रियों के वशीभूत दुर्बल प्राणियों के लिए ईश्वर से प्रेम की साधना निरापद है जबकि लौकिक प्रेम में भटकाव का भय पग-पग पर बना रहता है। ईश्वरीय प्रेम को सर्वोच्च प्रतिपादित करने के पीछे यही रहस्य छिपा है और ईश्वरीय प्रेम का अभ्यास सिद्ध होने के पश्चात प्राणी ‘तादात्म्य भाव’ की स्थिति में आरूढ़ हो जाता है और तब शुद्ध प्रेम की स्थिति उसे स्वयंसिद्ध हो जाती है। प्रेम की इस दशा में पहुंचकर साधक को अपने ही अन्दर सारा विश्व दृष्टिगोचर होने लगता है और संपूर्ण विश्व में उसे अपने ही स्वरूप के दर्शन होने लगते है। समस्त चराचर जगत में जब अपने प्रियतम इष्ट के दर्शन होने लगें तो समझ लेना चाहिऐ कि हमें अनन्य और शाश्वत प्रेम की प्राप्ति हो गयी।

(कल्याण से साभार)

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रहीम के दोहे: जागते हुए सोये उसे क्या शिक्षा देना



जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोई।
ताहि सिखाई जगाईबो, उचित न होई ॥

अर्थ-समझ-बूझकर भी जो व्यक्ति अन्याय करता है वह तो जागते हुए भी सोता है, ऐसे व्यक्ति को जाग्रत रहने के शिक्षा देना भी उचित नहीं है।
कविवर रहीम का आशय यह कई जो लोग ऐसा करते हैं उनके मन में दुर्भावना होती है और वह अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझते हैं अत: उन्हें समझना कठिन है और उन्हें सुधारने का प्रयास करना भी व्यर्थ है।

हिंदी भाषा की आत्मा है देवनागरी लिपि


कुछ लोगों ने अगर यह तय कर लिया है कि वह हिंदी सहित देश की अन्य भाषाओं को रोमन में लिपि में लिखेंगे तो उसकी वजह उनका भाषा प्रेम तो हो ही नहीं सकता-भले ही वह उसका दावा करते हौं। भारत की अधिकांश भाषाओं की लिपि देवनागरी है और आम आदमी उसमें सहजता पूर्वक अध्ययन और लिखने का काम करता है। पर कुछ लोगों को अपने विद्वान होने का प्रदर्शन करने के लिए देवनागरी लिपि पर आपत्ति करना अच्छा लगता है और वह कर रहे हैं। मुझे इसकी संभावना चार वर्ष पूर्व ही लग गयी थी जब यह लगने लगा कि भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है।

एक समय था कि लोग कहते थे कि हिंदी में पढने-लिखने का कोई मतलब नहीं है क्यों कि उससे रोजगार नहीं मिल सकता। सबने विदेशों में जाकर रोजगार पाने के ख़्वाब संजोते हुए अंग्रेजी की तरफ दौड़ लगाई। तब हिंदी के एक सिरे से खारिज करने वालों को उसकी लिपि में दोष देखने का समय ही कहॉ था क्यों कि हिंदी गरीबों की भाषा थी। मैं जानता हूँ कि भाषा का जितना संबंध भाव से है उतना ही रोजी-रोटी से भी है। उस समय भी मुझे यह नहीं लगता था कि हिंदी भाषा या देवनागरी लिपि कोई अवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है और न आज लगता है। यह दुनियां कि इकलौती ऎसी भाषा है जो जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। जब विश्व में भारत एक आर्थिक महाशक्ति बनने के तरफ अग्रसर है और उसके गरीब भी अब थोडा-बहुत पैसा रखने लगे हैं तब उसकी भाषा पर कब्जे की होड़ तो लगनी ही थी और जो लोग इसकी लिपि रोमन में देखना चाहते हैं उनके दो ही उद्देश्य हो सकते हैं ऐक तो उनको लगता है कि इससे उनको अच्छा व्यवसाय मिलने वाला है या फिर उनके मन में और हिंदी लेखकों को लिखते देखकर यह कुंठा हो रही है और वह सोचते हैं कि एक बार रोमन लिपि का मुद्दा उठा कर लोकप्रियता हासिल कर लें और फिर अपनी दूकान चाहे जिसमें चलाएँ।

मैं उनको रोकना नहीं चाहता पर इतना जरूर का सकता हूँ कि हिंदी को रोमन लिपि में पढने वालों की संख्या है पर ज्यादा नहीं है-कुछ ब्लोग लेखकों अगर यह लगता है कि उनके ब्लोग रोमन लिपि में पढते हैं तो दूर कर लें। खासतौर से इस संबंध में विदेशी लोगों का हवाला दिया जाता है-पर वहाँ ऐसे बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें हिंदी देवनागरी लिपि में पढ़ना नहीं आता होगा और वह इसमें दिलचस्पी लेते होंगे। उनकी मानसिकता में ही हिंदी होगी इसमें भी शक है। रोमन में हिंदी पढ़ना अपने आप में बिचारगी की स्थिति है। अभी मैने अपना चिट्ठा एक जगह रोमन लिपि में देखा था और मैं यह सोचकर खुश हुआ कि चलो जो इसे रोमन में पढने की चाहत रखने वाले भी पढ़ सकेंगे-क्यों कि उस पर मेरी कोई मेहनत नहीं थी और अगर कोई ऐक दो लोग पढ़ लेते हैं तो बुराई क्या है, पर मैं वहां से ज्यादा पाठक मिलने की आशा नहीं कर सकता।

ऐसा नहीं है कि रोमन लिपि में हिंदी पढने वाले नहीं मिल सकेंगे क्यों कि हमारे पडोसी देशों में फिल्मों की वजह से हिंदी समझने वालों की संख्या बहुत है और उनमें कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिंदी में लिखे को पढने में दिलचस्पी लें और इसमें खास तौर से पाकिस्तान और बंगलादेश के लोग हो सकते हैं, उसी तरह क्षेत्रीय भाषाओं के भी उनके सीमावर्ती देशों के लोगों को रोमन लिपि में पढ़ना अच्छ लग सकता है। पर अगर हम इसी मद्दे नजर अपने देश के पाठकों को नजर अंदाज करेंगे तो गलती करेंगे। हम यह मानकर भी गलती कर रहे हैं कि देश का पाठक तो केवल चौपालों पर ही आकर पढता है और बाहर जो पढ़ रहे हैं वह सब विदेशों के रहने वाले भारतीय है। इन चौपालों के बारे में देश के लोग बहुत कम जानते है और कंप्यूटर में इन्टरनेट पह हिंदी पढने वाले अपने रास्ते से हिंदी का लिखा पढते हैं। जिन्हें हिंदी में लिखने का मोह है और वह देव नागरी लिपि का ज्ञान नहीं रखते या असुविधा महसूस करते हैं उनके लिए रोमन लिखना स्वीकार्य हो सकता है पर वह कोई बड़ा तीर मार लेंगे यह गलत फ़हमी उन्हें नहीं पालना चाहिए, क्यों कि अंतत: हिंदी की लिपि देवनागरी है और वही आम पाठक तक आपको पहुंचा सकती है, एक बात और कि विदेशों में हिंदी का आकर्षण वहाँ की भारतीयों की वजह से कम इस देश की अर्थव्यवस्था के कारण है। इसलिये रोमन लिपि वाले अगर अपने लिखे से पैसा कमाने की ताक़त रखते हैं तो ख़ूब लिखें पर देश की भाषाओं का उद्धार करने की बात न ही करें तो अच्छा है। उसी तरह ब्लोगर भी यह भूल जाये कि उनको रोमन लिपि से कोई आर्थिक या सामाजिक लाभ होने वाला है। हिंदी को जो भी उर्जा मिलेगी वह इस देश के पाठक से ही मिलेगी-और यह नहीं भूलना चाहिए की हिंदी भाषा की आत्मा देवनागरी लिपि ही है।

पहले इसी ब्लोग पर प्रकाशित कविता
अभी लिखा क्या है कि लिपि पर झगडने लगे
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स्कूल से घर लौटे बच्चे आपस में
रोमन और देवनागरी लिपि को
लेकर लड़ने लगे
‘मैं तो रोमन में हिंदी लिखूंगा
तुझे देवनागरी में लिखना है लिख
दूसरा कहता है
‘मैं तो हिंदी में ही हिंदी जैसा दिखूंगा
तुझे अंग्रेजी जैसा दिखना है तो दिख’
माँ हैरान है और पूछती है
‘बेटा अभी तो शब्द ज्ञान आया है
लिखोगे तुम तो पढेगा कौन
तुम चिल्ला रहे हो
कौन सुने और कौन पढे
शब्द तो तभी पढा और सुना जाता है
जब आदमी होता है मौन
तुम क्या लिखोगे और क्या पढोगे
प्रेमचंद, निराला, प्रसाद और कबीर को
नहीं पढा लडाई झगडा करते हुए
अपनी ज़िन्दगी गुजारोगे
अभी तो बोलना शुरू किया है
अब तक लिखा क्या है जो
लिपि को लेकर लड़ने लगे हो
हिंदी का जो होना है सो हॊगा
पहले पढ़ना सीखो और फिर सोचो
लोगों चाव से पढ़ें एसा नहीं लिखा तो
तुम्हारा नाम भी अनाम होगा
यह अभी से ही लग रहा है दिख
जब यूनिकोड है तो काहेका झगडा
रोमन में लिख देवनागरी में पढ
रोमन में भी पढ देवनागरी में लिख’

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रहीम के दोहे:मेंढक टर्राये,कोयल होती मौन



पावस देखि रहीम मन, कोइल साथै मौन
अब दादुर बकता भए, हमको पूछत कौन

कविवर रहीम कहते हैं कि जब वर्षा ऋतू आती है तो कोयल मौन धारण कर लेती है, यह सोचकर कि अब तो मेंढक टर्राने लगे हैं तो उनकी कौन सुनेगा।
अगर हम इसका भाव इस रूप में लेते हैं जम समाज में धन का प्रवाह सहृदय कलाकारों, रसिक हृदय कवियों kee ओर होने लगता है तब अनेक कलाकार और कवि मैदान में आ जाते हैं और मेंढकों की तरह टराने लगते हैं और उनको देखकर श्रेष्ठ और विद्वान, कलाकरौर कवि चुपचाप अपने को समेटकर अपने घर बैठ जाते हैं।

रहिमन प्रीति सराही, मिली होत रंग दून
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी दून

उसी प्रेम के प्रशंसा करना चाहिए जिसमें दोनों प्रेमियों का प्रेम मिलकर दुगुना हो जाता है, जैसे जल्दी पीली होती है और चूना सफ़ेद, परंतु दोनों मिलकर एक नया लाल रंग बना देता है। हल्दी अपने पीले रंग को और चूना अपने सफ़ेद रंग को छोड देता है।
इसका आशय यह है कि प्रेम करने वालों को अपना पहले का रूप त्याग देना चाहिऐ और एक नए रूप में आना चाहिऐ।

अभी लिखा क्या है जो लिपि पर झगड़ने लगे-हास्य कविता


स्कूल से घर लौटे बच्चे आपस में
रोमन और देवनागरी लिपि को
लेकर लड़ने लगे
‘मैं तो रोमन में हिंदी लिखूंगा
तुझे देवनागरी में लिखना है लिख
दूसरा कहता है
‘मैं तो हिंदी में ही हिंदी जैसा दिखूंगा
तुझे अंग्रेजी जैसा दिखना है तो दिख’
माँ हैरान है और पूछती है
‘बेटा अभी तो शब्द ज्ञान आया है
लिखोगे तुम तो पढेगा कौन
तुम चिल्ला रहे हो
कौन सुने और कौन पढे
शब्द तो तभी पढा और सुना जाता है
जब आदमी होता है मौन
तुम क्या लिखोगे और क्या पढोगे
प्रेमचंद, निराला, प्रसाद और कबीर को
नहीं पढा लडाई झगडा करते हुए
अपनी ज़िन्दगी गुजारोगे
अभी तो बोलना शुरू किया है
अब तक लिखा क्या है जो
लिपि को लेकर लड़ने लगे हो
हिंदी का जो होना है सो हॊगा
पहले पढ़ना सीखो और फिर सोचो
लोगों चाव से पढ़ें एसा नहीं लिखा तो
तुम्हारा नाम भी अनाम होगा
यह अभी से ही लग रहा है दिख
जब यूनिकोड है तो काहेका झगडा
रोमन में लिख देवनागरी में पढ
रोमन में भी पढ देवनागरी में लिख’

रहीम के दोहे: वाणी से होती है आदमी की पहचान


दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं
जान परत हैं काक पिक, ऋतू बसंत के माहिं

कविवर रहीम कहते हैं कि जब तक मुख से बोलें नहीं कौआ और कोयल एक ही समान प्रतीत होते हैं ऋतूराज बसंत की आने पर कोयल की मीठी वाणी कुहू-कुहू से और कौए की कर्कश आवाज से अंतर का आभास हो जाता है।
इसका आशय यह है कि मनुष्य को अपनी वाणी मधुर और कोमल रखने का प्रयास करना चाहिए अन्यथा अपनी अयोग्यता का परिचय ही देना होगा। आदमी की काया कितनी भी सुन्दर क्यों न हो अगर उसके वाणी में माधुर्य और कोमलता नहीं है तो वह प्रभावहीन हो जाता है।

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात
जैसे कुल कि कुलबधू , चिथडन मांह समात

जैसे वंश की कुलवधु फटे-पुराने कपडे में भी शोभायमान होती है उसी प्रकार यदि अपने पास धन कम भी है, परंतु समाज में मान-सम्मान है वह चिंता का विषय नहीं है ।
हमें कभी यह नहीं समझना चाहिए कि समाज में केवल धन से सम्मान मिलता है, अगर व्यवहार और योग्यता से समाज में सम्मान मिलता है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए कि हमारे पास धन नहीं है।

भक्त मौन है


भक्त से पूछा गया
‘बता राम कौन है’
जो मनुष्यदेह धारण किये हो
और पूछे ऐसा प्रश्न
इस अहंकार पर भक्त मौन है

रोम-रोम में बसते हैं
कण-कण में रहते हैं
रक्त की हर बूँद में
सदैव प्रवाहित हैं
जिस भक्त के हृदय के स्वामी है
वह कैसे इस प्रश्न का उत्तर दे कि
‘राम कौन है’

प्रश्न में छाया है अहंकार
पर भक्ति तो होती निरंकार है
मन के भाव होते हैं पवित्र
उन्हें व्यक्त करना बेकार है
अंहकार का सबसे अच्छा उत्तर मौन है

जिन्होंने खोजा उसे पाया
जिनके मन में अहंकार
वाणी से निकले शब्दों में है प्रहार
आत्ममुग्धता से भरा व्यवहार
उनके भी पास हैं पर देख नहीं पाया

अंतर्दृष्टि का अँधेरा
दैहिक चक्षुओं से भी प्रकाश की
अनुभूति को दूर कर देता है
इसलिये वह पूछते हैं कि
‘राम कौन है’
जिसके घट-घट में बसते हैं
हर पल देह में विचरते हैं
वह भक्त मौन है
जिसे अपनी अटूट भक्ति में विश्वास है
वह जानता है उनकी कृपा दृष्टि को
इसलिये सुनकर भी यह प्रश्न
अनसुना कर देते हैं भक्त कि
‘यह राम कौन है’
आत्मा और परमात्मा के बीच
सेतु की तरह है राम का नाम
इसलिये भक्त मौन है

बहस और तर्क तो विद्वानों को करना चाहिए


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बहस और तर्क विद्वानों के बीच होना चाहिए। विद्वान का मतलब यह कि जिस विषय पर बहस हो उसमें उसने कहीं न कहीं शिक्षा और उपाधि प्राप्त की हो या उसने उस विषय को इस तरह पढा हो कि उसे उसके संबंध में हर तथ्य और तत्व का ज्ञान हो गया हो। हमारे देश में हर समय किसी न किसी विषय पर बहस चलती रहती है और उसमें भाग लेने वाले हर विषय पर अपने विचार देते हैं जैसे कि उस विषय का उनको बहुत ज्ञान हो और प्रचार माध्यमों में उनका नाम गूंजता रहता है। उनकी राय का मतलब यह नहीं है कि वह उस विषय में पारंगत हैं। उनको प्रचार माध्यमों में स्थान मिलने का कारण यह होता है कि वह अपने किसी अन्य कारण से चर्चित होते हैं, न कि उस विषय के विद्वान होने के की वजह से ।

स्वतंत्रता के बाद इस देश में सभी संगठनों, संस्थाओं और व्यक्तियों की कार्यशैली का एक तयशुदा खाका बन गया है जिससे बाहर आकर कोई न तो सोचना चाहता है और न उसके पास ऐसे अवसर हैं। धर्म, विज्ञान, अर्थशास्त्र, साहित्य, राजनीति, फिल्म और अन्य क्षेत्रों में बहुत लोग सक्रिय हैं पर प्रचार माध्यमों में स्थान मिलता है जिसके पास या तो कोई पद है या वह उन्हें विज्ञापन देने वाला धनपति है या लोगों की दृष्टि में चढ़ा कोई खिलाडी या अभिनेता है-यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि उसे उस विषय का ज्ञान हो जिस पर वह बोल रहा हो। इसी कारण सभी प्रकार की बहस बिना किसी परिणाम पर समाप्त हो जाती हैं या वर्षों तक चलती रहती हैं। जैसे-जैसे इलेक्ट्रोनिक प्रचार माध्यमों का विस्तार हुआ है और बहस भी बढने लगी है और कभी-कभी तो लगता है कि प्रचार माध्यमों को लोगों की दृष्टि में अपना प्रदर्शन में निरंतरता बनाए रखने के लिए विषयों की जरूरत है तो उनमें अपना नाम छपाने के लिए उन्हें यह अवसर सहजता से प्रदान करते हैं।

अन्य विषयों पर बहस होती है तो आम आदमी कम ही ध्यान देता है पर अगर धर्म पर बहस चल रही है तो वह खिंचा चला आता है। धर्म में भी अगर भगवान् राम श्री और श्री कृष्ण का नाम आ रहा तो बस चलता-फिरता आदमी रूक कर उसे सुनने, देखने और पढने के लिए तैयार हो जाता है। मैं कुछ लोगों की इस बात से सहमत हूँ कि भगवान श्री राम और श्री कृष्ण इस देश में सभी लोगों के श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक हैं। लोग उनके प्रति इतने संवेदनशील होते हैं कि उनकी निन्दा या आलोचना से उन्हें ठेस पहुँचती हैं। इसके बावजूद कुछ लोग प्रचार की खातिर ऐसा करते हैं और उसमें सफल भी रहते हैं।

धर्म के संबंध में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं किया गया पर इसके बावजूद इन्हें श्रद्धा भाव से पढने वालों की कमीं नहीं है। यह अलग बात है कि कोई कम तो कोई ज्यादा पढता है। फिर कुछ पढने वाले हैं तो ऐसे हैं जो इसमें ऐसी पंक्तियों को ढूंढते हैं जिसे उनकी आलोचना करने का अवसर मिले। वह पंक्तिया किस काल और संदर्भ में कही गयी हैं और इस समय क्या भारतीय समाज उसे आधिकारिक रुप से मानता है या नहीं, इस बात में उन्स्की रूचि नहीं होती। मुझे तो आश्चर्य तो तब होता है कि ऐसे लोग अच्छी बातों की चर्चा क्यों नहीं करते-जाहिर है कि उनका उद्देश्य ही वही होता है किसी तरह नकारात्मक विचारधारा का प्रतिपादन करें। मजे की बात तो यह है कि जो उनका प्रतिवाद करने के लिए मैदान में आते हैं वह भी कोई बडे ज्ञानी या ध्यानी नहीं होते हैं केवल भावनाओं पर ठेस की आड़ लेकर वह भी अपने ही लोगों में छबि बनाते हैं-मन में तो यह बात होती है कि सामने वाला और वाद करे तो प्रतिवाद कर अपनी इमेज बनाऊं।

मतलब यह कि धर्म मे विषय में ज्ञान का किसी से कोई वास्ता नहीं दिखता। एक मजेदार बात और है कि अगर किसी ने कोई संवेदनशील बयान दिया है प्रचार माध्यम भी उसके समकक्ष व्यक्ति से प्रतिक्रिया लेने जाते हैं बिना यह जाने कि उसे उस विषय का कितना ज्ञान है। भारत के प्राचीन ग्रंथों के कई प्रसिद्ध विद्वान है जो इस विषय के जानकार हैं पर उनसे प्रतिक्रिया नहीं लेने जाता जबकि उनके जवाब ज्यादा सटीक होते, पर उससे समाचारों का वजन नही बढ़ता यह भी तय है क्योंकि लोगों के दिमाग में भी यही बात होती है कि प्रतिक्रिया देने का हक केवल पद, पैसा और प्रतिष्ठा से संपन्न लोगों को ही है पंडितों (यहाँ मेरा आशय उस विषय से संबधित ज्ञानियों और विद्वानों से है जो हर वर्ग और जाति में होते हैं) को नहीं। वाद, प्रतिवाद और प्रचार के यह धुरी समाज कोई नयी चेतना जगाने की बजाय लोगों की भावनाओं का दोहन या व्यापार करने के उद्देश्य पर ही केंद्रित है।

इसलिये जब ऐसे मामले उठते हैं तब समझदार लोग इसमें रूचि कम लेते हैं और असली भक्त तो बिल्कुल नहीं। इसे उनकी उदासीनता कहा जाता है पर मैं नहीं मानता क्योंकि प्रचार की आधुनिक तकनीकी ने अगर उसके व्यवसाय से लगे लोगों को तमाम तरह की सुविधाएँ प्रदान की हैं तो लोगों में भी चेतना आ गयी है और वह जान गए हैं कि इस तरह के वाद,प्रतिवाद और प्रचार में कोई दम नहीं है।