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संत कबीर वाणी:जादू टोना सब झूठ है


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।

बोलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि
कहैं कबीर ता दास को, कबहु न आवै हारि

इसका आशय यह है कि जो आदमी वाणी के महत्त्व को जानता है,, समय देखकर उसके अनुसार सोच और विचार कर बोलता है और अपने लिए उचित स्थान देखकर बैठता है वह कभी भी कहीं भी पराजित नहीं हो सकता।

जंत्र मन्त्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय

संत शिरोमणि कबीरदास जीं का यह आशय है कि यन्त्र-मन्त्र एवं टोना-टोटका आदि सब मिथ्या हैं। इनके भ्रम में मत कभे मत आओ। परम सत्य के ठोस शब्द-ज्ञान के बिना, कौवा कभी भी हंस नहीं हो सकता अर्थात दुर्गुनी-अज्ञानी लोग सदगुनी और ज्ञानवान नही हो सकते

रहीम के दोहे: वाणी से होती है आदमी की पहचान


दोनों रहिमन एक से, जौ लौं बोलत नाहिं
जान परत हैं काक पिक, ऋतू बसंत के माहिं

कविवर रहीम कहते हैं कि जब तक मुख से बोलें नहीं कौआ और कोयल एक ही समान प्रतीत होते हैं ऋतूराज बसंत की आने पर कोयल की मीठी वाणी कुहू-कुहू से और कौए की कर्कश आवाज से अंतर का आभास हो जाता है।
इसका आशय यह है कि मनुष्य को अपनी वाणी मधुर और कोमल रखने का प्रयास करना चाहिए अन्यथा अपनी अयोग्यता का परिचय ही देना होगा। आदमी की काया कितनी भी सुन्दर क्यों न हो अगर उसके वाणी में माधुर्य और कोमलता नहीं है तो वह प्रभावहीन हो जाता है।

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात
जैसे कुल कि कुलबधू , चिथडन मांह समात

जैसे वंश की कुलवधु फटे-पुराने कपडे में भी शोभायमान होती है उसी प्रकार यदि अपने पास धन कम भी है, परंतु समाज में मान-सम्मान है वह चिंता का विषय नहीं है ।
हमें कभी यह नहीं समझना चाहिए कि समाज में केवल धन से सम्मान मिलता है, अगर व्यवहार और योग्यता से समाज में सम्मान मिलता है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए कि हमारे पास धन नहीं है।

मनु स्मृति: भोजन प्रसन्नता से ग्रहण करें


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  1. मनुष्य हो या पशु पानी सभी की मूलभूत आवश्यकता होती है। जिस प्रकार पानी के अभाव में प्राणी व्याकुल हो जाते हैं यहां तक कि उनके प्राण भी निकल जाते हैं, उसी प्रकार पानी न मिलने से वृक्ष भी भारी कष्ट का अनुभव करते हैं। पानी की कमी से वृक्षों-वनस्पतियों का सूखना तो ऊपर से दिखाई देता है लेकिन उनका कष्ट प्राणी को ऊपर से दिखाई नहीं देता।
  2. मनुष्य को जैसा भोजन प्राप्त हो उसे देखकर प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिऐ। प्राप्त भोजन में गुण-दोष निकाले बिना उसे ईश्वर का प्रसाद समझ कर प्रसन्नता से ग्रहण करें, जूठन न छोड़ें। यह अन्न सदैव मुझे प्राप्त हो यह भावना रखने चाहिए।
  3. प्रसन्नता से ग्रहण किया भोजन बल-वीर्य की वृद्धि करता है, जबकि निंदा और निराशा से किया भोजन सामर्थ्य और वीर्य को नष्ट करता है।
  4. भूख से बैचैन होने पर भी विवेकशील व्यक्ति प्रतिग्रह को धर्म और न्याय के विरुद्ध जानकर तथा प्रतिग्रह से मिलने वाली वस्तुओं के लाभ का ज्ञान होते हुए भी उसे ग्रहण नहीं करते।