Tag Archives: hindi society

स्वर्ग व मोक्ष का दृश्यव्य रूप नहीं-हिन्दी लेख


                                   हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम फैलाये गये हैं। खासतौर से स्वर्ग और मोक्ष के नाम पर ऐसे प्रचारित किये गये हैं जैसे वह  देह त्यागने के बाद ही प्राप्त होते हैें।  श्रीमद्भागवतगीता के संदेशों का सीधी अर्थ समझें तो यही है कि जब तक देह है तभी तक इंसान अपने जीवन में स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर सकता है। देह के बाद कोई जीवन है, इसे हमारा अध्यात्मिक दर्शन मनुष्य की सोच पर छोड़ता है। अगर माने तो ठीक न माने तो भी ठीक पर उसे अपनी इस देह में स्थित तत्वों को बेहतर उपयोग करने के लिये योग तथा भक्ति के माध्यम से प्रयास करने चाहिये-यही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मानना है।

अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि

————-

मोक्षस्य न हि वासीऽस्ति न ग्राम्यान्तरमेव वा।

अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः।।

                                   हिन्दी में भावार्थ-मोक्ष का किसी लोक, गृह या ग्राम में निवास नहीं है किन्तु अज्ञानरूपी हृदयग्रंथि का नाश मोक्ष कहा गया है।

                                   जिस व्यक्ति को अपना जीवन सहजता, सरलता और आनंद से बिताना हो वह विषयों से वहीं तक संपर्क जहां तक उसकी दैहिक आवश्यकता पूरी होती है।  उससे अधिक चिंत्तन करने पर उसे कोई लाभ नहीं होता।  अगर अपनी आवश्यकताआयें सीमित रखें तथा अन्य लोगों से ईर्ष्या न करें तो स्वर्ग का आभास इस धरती पर ही किया जा सकता है। यही स्थिति मोक्ष की भी है।  जब मनुष्य संसार के विषयों से उदासीन होकर ध्यान या भक्ति में लीन में होने मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर लेता है।  सीधी बात कहें तो लोक मेें देह रहते ही स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जाती है-परलोक की बात कोई नहीं जानता।

————————-

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

राज्य प्रबंध में कुशल प्रबंध की आवश्यकता-हिन्दी लेख


                                   किसी जाति, भाषा या धर्म के लोगों को सरकारी सेवाओें में आरक्षण दिलाने के नाम पर आंदोलनकारी लोग कभी अपने अपने समाज के नेताओं से यह पूछें कि ‘क्या वास्तव में देश के सरकारी क्षेत्र  उनके लिये नौकरियां कितनी हैं? सरकार में नौकरियों पहले की तरह मिलना क्या फिर पहले की तरह तेजी से होंगी? क्या सभी लोगों को नौकरी मिल जायेगी।

                                   सच बात यह है कि सरकारी क्षेत्र के हिस्से का बहुत काम निजी क्षेत्र भी कर रहा है इसलिये स्थाई कर्मचारियों की संख्या कम होती जा रही है।  सरकारी पद पहले की अपेक्षा कम होते जा रहे हैं। इस कमी का प्रभाव अनारक्षित तथा आरक्षित दोनों पदों पर समान रूप से हो रहा है।  ऐसे में अनेक जातीय नेता अपने समुदायों को आरक्षण का सपना दिखाकर धोखा दे रहे हैं।  समस्या यह है कि सरकारी कर्मचारियों के बारे में लोगों की धारणायें इस तरह की है उनकी बात कोई सुनता नहीं।  पद कम होने के बारे में वह क्या सोचते हैं यह न कोई उनसे पूछता है वह बता पाते है।  यह सवाल  सभी करते भी हैं कि सरकारी पद कम हो रहे हैं तब इस  तरह के आरक्षण आंदोलन का मतलब क्या है?

                                   हैरानी की बात है कि अनेक आंदोलनकारी नेता अपनी तुलना भगतसिंह से करते है।  कमाल है गुंलामी (नौकरी) में भीख के अधिकार (आरक्षण) जैसी मांग और अपनी तुलना भगतसिंह से कर रहे हैं। भारत में सभी समुदायों के लोग शादी के समय स्वयं को सभ्रांत कहते हुए नहीं थकते  और मौका पड़ते ही स्वयं को पिछड़ा बताने लगते हैं।

             हमारा मानना है कि अगर देश का विकास चाहते हैं तो सरकारी सेवाओं में व्याप्त अकुशल प्रबंध की समस्या से निजात के लिय में कुशलता का आरक्षण होना चाहिये। राज्य प्रबंध जनोन्मुखी होने के साथ दिखना भी चाहिये वरना जातीय भाषाई तथा धार्मिक समूहों के नेता जनअसंतोष का लाभ उठाकर उसे संकट में डालते हैं। राज्य प्रबंध की अलोकप्रियता का लाभ उठाने के लिये जातीय आरक्षण की बात कर चुनावी राजनीति का गणित बनाने वाले नेता उग आते हैं। जातीय आरक्षण आंदोलन जनमानस का ध्यान अन्य समस्याओं से बांटने के लिये प्रायोजित किये लगते हैं।

……………..

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

गुलामी जब जायेगी तभी तो आजादी आयेगी-हिन्दी लेख


                                   15 अगस्त भारत का स्वतंत्रता दिवस हमेशा अनेक तरह से चर्चा का विषय रहता है। अगर हम अध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो भारत कभी गुलाम हुआ ही नहीं क्योंकि भौतिक रूप से कागजों पर  इसका नक्शा छोटा या बड़ा  भले ही होता रहा हो पर धार्मिक दृष्टि से भौतिक पहचान रखने वाले तत्वों में  गंगा, यमुना और नर्मदा नदियां वहीं बहती रहीं हैं जहां थीं।  हिमालय और विंध्याचल पर्वत वहीं खड़े रहे जहां थे। अध्यात्मिक दृष्टि से श्री रामायण, श्रीमद्भागवत गीता तथा वेदों ने अपना अस्तित्व बनाये रखा-इसके लिये उन महान विद्वानों को नमन किया जाना चाहिये जो सतत इस प्रयास में लगे रहे। भारत दो हजार साल तक गुलाम रहा-ऐसा कहने वाले लोग शुद्ध राजसी भाव के ही हो सकते हैं जो मानते हैं कि राज्य पर बैठा शिखर पुरुष भारत या यहां की धार्मिक विचारधारा मानने वाला नहीं रहा।

                                   हम जब अध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं तो पाते हैं कि विदेशों से आयी अनेक जातियां यहीं के समाज में लुप्त हो गयीं पर उस समय तक विदेशों में किसी धार्मिक विचाराधारा की पहचान नहीं थी। जब विदेशों में धार्मिक आधार पर मनुष्य में भेद रखना प्रारंभ हुआ तो वहां से आये राजसी व्यक्तियों ने भारत में आकर धार्मिक आधार पर भेद करने वाला  वही काम किया जो वहां करते थे।  अब तो स्थिति यह है कि भारतीय विचाराधारा न मानने वाले लोग यहीं के प्राचीन इतिहास से परे होकर विदेशी जमीन से अपनी मानसिक सोच चलाते हैं।  पाकिस्तानी मूल के कनाडाई लेखक तारिक फतह ने एक टीवी चैनल में साक्षात्कार में अपने ही देश की विचारधारा की जो धज्जियां उड़ाईं वह अत्यंत दिलचस्प है।  उन्होंने कहा कि पाकिस्तान का मुसलमान यह सोचता है कि वह अरब देशों से आया है जबकि उसे समझना चाहिये कि वह प्राचीन भारतीय संस्कृति का हिस्सा है।

                                   भारतीय उपमहाद्वीप में आये विदेशी लोगों ने यहां अपना वर्चस्प स्थापित करने के लिये जो शिक्षा प्रणाली चलाई वह गुलाम पैदा करती है। अगर हम राजसी दृष्टि से भी देखें तो भी आज वही शिक्षा प्रणाली प्रचलन में होने के कारण भारत की पूर्ण आजादी पर एक प्रश्न चिन्ह लगा मिलता है।  लोगों की सोच गुलामी के सिद्धांत पर आधारित हो गयी है।  विषय अध्यात्मिक हो या सांसरिक हमारे यहां स्वतंत्र सोच का अभाव है।  लोग या तो दूसरों को गुलाम बनाने की सोचते हैं या फिर दूसरे का गुलाम बनने के लिये लालयित होते हैं। इसलिये स्वतंत्रता दिवस पर इस बात पर मंथन होना चाहिये कि हमारी सोच स्वतंत्र कैसे हो?

‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘‘

कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

४.हिन्दी पत्रिका

५.दीपकबापू कहिन

६. ईपत्रिका 

७.अमृत सन्देश पत्रिका

८.शब्द पत्रिका

मीडिया की बहस से अध्यात्मिक दर्शन का लाभ नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


                                   हम जैसे योग तथा ज्ञानसाधक मानते हैं कि  लीलामय संत सुंदर कपड़े और गहने पहने पर उसमें उनका भाव लिप्त नहीं है तो चलेगा। कुछ संतों पर प्रचार युद्ध चल रहा है। हमारे अंदर अनेक तरक के विचार घूम रहे हैं। विवादास्पद गुरु ज्ञानी नहीं होते यह बात मीडिया वाले कैसे तय कर लेते हैं। क्या श्रीगीता का ज्ञान उन्होंने धारण कर लिया है? अनेक सवाल हमारे मन में आते हैं। हमारा तो यह भी कहना है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद हमारे हमारे समाज में अस्थिरता आयी है जिसे मनोरोगों के साथ ही शारीरिक रूप से भी लोगों में अनेक विकार पैदा हो रहे हैं।  ऐसे में  तनाव और रोगों से घिरे समाज में मानसिक रूप से कमजोरों का सहारा बनने वाले पेशेवर संत प्रशंसायोग्य ही कहना चाहिये। उनका कमाना भी बुरा नहीं।

                                   इस विषय पर समाचर माध्यमों में जमकर बहस हो रही है पर लगता नहीं है कि धर्म के विषय पर कोई पेशेवर विद्वान  अपनी समझ का प्रदर्शन कर पा रहा है। कर्मकांडों के आधार पर तर्क गढ़ने में सभी माहिर दिखते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है। मीडिया-हिन्दी समाचार चैनल- अमीर संतों के कारनामों की चर्चा के लिये समाचार और बहस के बीच इतना समय अपने विज्ञापनदाताओं की चीजें बिकवाने के लिये लगाता है। इससे अध्यात्मिक साधकों को परेशान होने की जरूरत नहीं है।

             एक योग तथा ज्ञान साधक होने के नाते हमारा मानना है कि  गीता का ज्ञान एक ऐसा चश्मा है जो अंतर्चक्षुओं पर पहनना ही चाहिये। उसे गुरु मानकर पढ़ो, समझो और फिर उसके आधार पर संसार को समझो। धर्म और धन लीला की समझ के साथ मजा भी आयेगा। मीडिया अमीर संतों के कारनामों की चर्चा के लिये समाचारा और बहस के बीच इतना समय अपने विज्ञापनदाताओं की चीजें बिकवाने के लिये लगाता है।

__________________________

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

सावन का महीना बीमारियों का शोर-सावन माह पर नया हिन्दी पाठ


                              आज से सावन का महीना प्रारंभ हो गया है। जब  वर्षा ऋतु अपनी  जलधारा से गर्मी की उष्णा को ठंडा करती है तब  मनुष्य ही नहीं वरन् हर जीव अपने अंदर एक नयी स्फूर्ति का अनुभव करता है। सावन में संतुलित वर्षा देह को अत्यंत सुखद लगती है पर मौसम विशेषज्ञों ने बता दिया है कि अनेक जगह वर्षा कहर बरसायेगी तो अनेक  जगह अल्प वर्षा की स्थिति भी तरसायेगी।  हमारा क्षेत्र दूसरी स्थिति वाला है।  उज्जैन में महाकाल के शिखर तक जल पहुंचाने वाले बादल हमारे शहर तक आते आते सूख जाते हैं। हवा का प्रवाह रुक जाता है और उमस त्रास का कारण बनती है। बादल शहर तक न आयें एक दुःख पर आकर न बरसें और फिर हवा रोक कर उमस बरसायें तो मानसिक संताप के साथ बीमारियां भी बढ़ती हैं।

                              मनभावन होने के बावजूद सावन का महीना मार्गशीर्ष जैसा पवित्र नहीं होता-श्रीमद्भागवत गीता में यही महीना श्रेष्ठ माना गया है।  मौसम की दृष्टि से यह मार्गशीर्ष  का  महीना न केवल सुहाना होता है वरन् अध्यात्मिक दृष्टि से भी उसका महत्व है।  सावन के महीने में जलाशय भर जाते हैं और देव प्रतिमाओं पर जलाभिषेक का क्रम भी प्रारंभ होता है। धन्य है वह भक्त जो प्रातःकाल ही मंदिरों में जाते हैं-उनकी वजह से सैर सपाटे करने वालों को अंधियारी सड़कों पर चहल पहल मिलती है।

                              इस महीने को संभवतः इसलिये भी अध्यात्मिक दृष्टि से मार्गशीर्ष से कम महत्व शायद इसलिये ही दिया गया क्योंकि इस माह में बीमारियों का भी प्रकोप रहता है।  वैसे तो जिस तरह का खानपान हो गया है उससे बिमारियां सदाबाहर हो गयी हैं पर इसके बावजूद सावन में चिकित्सालयों में कमाई की झड़ी लग जाती है। जब तक उच्च चिकित्सा सरकार के दायरे में थी तब तक ठीक था पर अब तो निजी क्षेत्र में तो इलाज का एक  ऐसा उद्योग बन गया है जिसमें संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं है।  इस लेखक से उम्र में बड़ा एक बुद्धिमान मित्र बताता था कि बरसात में खाने को  लेकर मन में बड़ी उत्तेजना रहती है पर पाचन की दृष्टि से मौसम अत्यंत संवदेनशील होता है।

                              हमारे यहां वर्षा के चार मास शांति से एक स्थान पर बने रहने के साथ ही जलाशयों से दूर रहने की बात कहते हैं ।।  हमारे यहां स्थिति उलट गयी है।  आज खाये पीये अघाये लोगों को पिकनिक मनाने के लिये जलाशय भाते हैं।  अनेक जगह भारी उमस में पका भोजन किया जाता है। कहा जाता है कि पहले सड़के नहीं थी इसलिये ही वर्षा में पर्यटन वर्जित किया गया था।  हमें लगता है कि यह विकासवाद का अंधा तर्क है वरना तो वर्षा में सड़कें अब भी लापता लगती हैं-उल्टे अब कचड़े के निष्पादन के अभाव के उसके ढेर बांध बनकर पानी रोकते हैं और सड़कें नदियां बन जाती हैं। शहरों में जिस तरह पानी से जूझते हुए लोग दिखते हैं उतना तो गांवों में नहीं दिखते।

                              बहरहाल हमारा मानना है कि सावन का महीना भले ही मनभावन है पर इस समय खान पान और चाल चलन में सावधानी रखने का भी है।

———————-

प्रचारकों से ज्यादा तो नशेड़ी जानते हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              हमारे देश के निजी हिन्दी टीवी समाचार चैनल अभी प्रसारण के उच्च स्तर से बहुत दूर हैं। बहुत समय से सोचते रहे हैं कि हिन्दी टीवी समाचार चैनलों पर अपनी राय रखें पर लगता नहीं है कि पहले तो सही जगह बात पहुंचेगी दूसरा यह कि इसका कोई प्रभाव पड़ेगा। वैसे भी हम जैसे असंगठित लेखकों के पढ़ने वाले लोग अधिक नहीं होते हैं।  बहरहाल भारत के जितने भी राष्ट्रीय हिन्दी समाचार चैनल हैं उनमें शायद ही कोई अब लोकप्रियता की दौड़ में है।  इन चैनलों के पास समाचारों के लिये क्रिकेट, पाकिस्तान की सीमा पर गोलीबारी और चीन के ड्रोन के अलावा अगर कोई चौथी सनसनीखेज खबर होती है तो वह भारतीय समाज में कथित साप्रदायिक तनाव को इंगित करती है। इस मुद्दे पर किसी का एक कोने में दिया गया बयान पहले पूरे देश में जबरदस्ती सुनाकर फिर उस पर बहस करते हैं।

                              इन चैनलों के प्रबंधकों का यह पता होना चाहिये कि मनोरंजन के लिये बहुत सारे चैनल है।  कुछ प्रादेशिक चैनल इन राष्ट्रीय चैनलों से बेहतर समाचार प्रसारण कर रहे हैं। इन चैनलों की सबसे बुरी प्रवृत्ति यह दिखाई दे रही है कि यह न्यायपालिका पर अप्रत्यक्ष हमला करते हैं। इतना ही नहीं सरकार की कुछ अपराधियों के विरुद्ध की गयी कार्यवाही में भी मीनमेख निकालने का प्रयास करते हैं-यह जानते हुए भी कि अंततः न्यायपालिका के बिना यहां किसी को सजा नहीं दी जा सकती।  बहरहाल इन राष्ट्रीय टीवी समाचार चैनलों को यह पता होना चाहिये कि दृनियां भर की खबर लेना भी एक नशा है जिसे यह परोस नहीं पा रहे।  उन्होंने अपनी विषयों का इतना सीमित कर दिया है कि समाचारों के अनेक  नशेड़ी भी अब इनसे विरक्त होने लगे हैं।  सभी चैनल एक जैसे हैं और यह कोई नशेड़ी यह नहीं बता सकता कि उसने कौनसा समाचार किस चैनल पर सुना था।  बहसों पर तो कोई बात भी नहीं करता। इसमें दिये गये तर्क इतने प्रायोजित होते हैं कि इसमें शामिल कथित विद्वानों से बेहतर सोच तो समाचारों के नशेड़ी स्वयं अपने पास रखते हैं।

—————–

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

कम आयु में मृत्यु की घटनायें चिंत्ताजनक


                      आमतौर से बड़ी आयु में मौत होना ही स्वाभाविक माना जाता है। उच्च रक्तचाप, मधुमेह और अन्य राजरोगों से एक सामान्य मनुष्य एक आयु तक स्वयं ही लड़ लेता है पर बड़ी उम्र होने पर वह हथियार डाल देता है। अब छोटी आयु में मौतें भी अधिक होने लगी हैं जिस पर शायद ही कोई अधिक चिंतित होता हो।  सड़क हादसों में अनेक युवा काल कवलित होते देखे गये हैं।  अगर बड़ी आयु के लोग अपनी स्मरण शक्ति पर बोझ डालें तो उन्हें लगेगा कि अपनी युवा अवस्था से अधिक उम्र के इस पड़ाव अनेक  गोदें सूनी होते देख रहे हैं।   बहरहाल तीस से चालीस के बीच अगर सड़क हादसे की बजाय बीमारी से किसी की मौत हो तो अब भी स्वाभाविक मानना कठिन लगता है पर जिस तरह तंबाकू के पाउचों का प्रचलन हुआ है उस पर अनेक स्वास्थ्य विशेषज्ञ चिंतित हैं। अनेक लोग तो इन पाउचों को धीमे विष जैसा मानते हैं। ऐसे में जागरुक लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिये।

                              इस लेखक ने एक चिकित्सक मित्र को एक अस्वस्थ युवक के पिता से यह कहते सुना था कि‘अगर तुम्हारा लड़का इस पाउच का सेवन बंद नहीं करता तो समझ लेना कि वह तुम्हें दुनियां का सबसे बड़ा दर्द देने वाला है।’ अतः यह जरूरी है कि इस विषय पर गंभीरता से अनुसंधान कर लोगों को जानकारी दी जाये।

                              शायद दस वर्ष पूर्व की बात होगी। इस लेखक के एक मित्र न मात्र 42 वर्ष की उम्र में हृदयाघात से दम तोड़ा होगा।  वह ऐसे पाउचों का सेवन करता था।  उससे एक दो वर्ष पूर्व एक लड़के ने इन पाउचों के सेवन का दुष्परिणाम बताया था। उसने पाउच की पूरी सामग्री एक ग्लास में भरते हुए पानी के साथ ही चार आल्पिनें उसमें डाल दीं। सुबह वह चारों आल्पिने गुम थीं।  मित्र की  मौत के बाद इस लेखन ने कम उम्र में हृदयाघात से मरने वालों की जानकारी लेना प्रारंभ किया।  दस में से सात इसके सेवन में लिप्त पाये गये। पिछले बीस पच्चीस वर्ष से यह पाउच प्रचलन में आया है इसलिये अनेक बड़ी आयु के भी इसका शिकार होते हैं तो बड़ी बात नहीं पर चूंकि उनकी मौत स्वाभाविक मानी जाती है इसलिये कोई चर्चा नहीं करतां।

—————-

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

त्यागियों की ही वजह से भारत बचा हुआ है-हिन्दी चिंत्तन लेख


                एक बार अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जूनियर जार्जबुश ने विश्व में बढ़ती महंगाई को भारतीय जनता में व्याप्त अधिक खाने की प्रवृत्ति को बताया था।  उस समय अनेक विद्वानों ने इसका मजाक उड़ाया था। अंतर्जाल पर सक्रियता में नवीन व्यक्ति होने के कारण  हमने भी अधिक पाठक बटोरने की दृष्टि से बुश साहब से अपनी असहमति जताई थी। यह सात वर्ष पहले की बात थी। उस समय निजी टीवी चैनल और अंतर्जाल दोनों ही संचार जगत में एक नयी शुरुआत कर रहे थे। जैसे जैसे संचार की शक्ति बढ़ी तो नयी नयी जानकारियां आने लगीं। भारत में इस दौरान खानपान की आदतों में भारी बदलावा भी आया। उस समय हमने लिखा था कि चूंकि भारत के चाट भंडारों में भीड़ रहती है इसलिये कोई भी यह सोच सकता है कि भारत में लोग खाते बहुत हैं।  सात वर्ष बाद अब तो  भारत में मॉल के रूप में आधुनिक बाज़ार का रूप लिया है और आकार में बड़े होने के कारण वहां भी भीड़ अधिक दिखती है। यह अलग बात है कि वहां खाद्य पदार्थों के अलावा फिल्मों के उपभोक्ता और दर्शक ही अधिक आते हैं। इस तरह उपभोग प्रवृत्ति में बदलाव तथा उपभोक्ताओं की बड़ी संख्या किसी विकास का परिचायक नहीं  है क्योंकि इसके पीछे हमारा कोई नवीन निर्माण नहीं है।  रोजगार, स्वास्थ्य तथा नैतिक आचरण का पैमाना बहुत नीचे चला गया है। कर्ज लेकर घी पीने के जिस सिद्धांत पर समाज चला है उसे देखकर तो अब विदेशी यह भी कह सकते हैं कि भारतीय कमाते कम हैं खाते ज्यादा हैं।

                              सब कुछ बदला है पर यहां के धनपितयों की प्रवृत्ति जस की तस है। खाद्य पदार्थों में मिलावट तथा पहनने ओढ़ने में नकली सामान बनाने  की वही कहानी अब भी जारी है। पहले बाज़ार से अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थों में मिलावट के समाचार आते थे पर अब तो एक टीवी समाचार चैनल ने प्लास्टिक के चावल बनने की बात कहकर हैरान ही कर दिया है। हम सभी जानते हैं कि अन्न से मन और मन से मनुष्य का अस्तित्व है। अगर इसी तरह अन्न से प्लास्टिक का मेल होने की बात आगे बढ़ी तो फिर हमें शुद्ध मनुष्य ढूंढना ही मुश्किल हो जायेगा।

                              हमने पहले भी कहा था और अब भी कह रहे हैं कि भारत में प्रकृत्ति की कृपा अन्य देशों से कहीं अधिक है।  यहां भूजल का बेहतर स्तर, हर तरह के अन्न की फसल और विभिन्न खनिजों संपदा को देखकर कोई नहीं कह सकता कि भारत अभिशप्त देश है। यह अलग बात है कि यहां लोभ की ऐसी प्रवृत्ति है कि कोई धनपति अपनी कमाई से संतुष्ट होने की बजाय दूसरे के मुंह से निवाला निकालकर या खींचकर अपनी तरफ करने पर ही प्रसन्न होता है। यही कारण है कि हमारा देश सब कुछ होते हुए भी गरीब और अविकसित कहा जाता है। मजे की बात यह है कि जितना अज्ञानी समुदाय है उससे ज्यादा ज्ञानी लोगों का समूह है।  शायद यही कारण है कि यह देश चल रहा है। अज्ञानी के लोभ की प्रवृत्ति के बावजूद ज्ञानियों का त्याग भाव हमारे देश को बचाये हुए है।

—————–

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

दंड शक्ति होने के बावजूद योगी उद्दण्ड नहीं बनते-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              एक पूर्व क्रिकेट खेल व्यापारी का किस्सा इन दिनों अंतर्जाल और प्रचार माध्यमों में छाया हुआ है। क्रिकेट के व्यापार में अनेक आरोपों का बोझ उठाये वह लंदन में बैठकर भारत में दूसरों पर आक्षेप कर अपने नायकत्व की छवि बना रहा है। भारतीय राजनीति के अनेक शिखर व्यक्तित्व उसके निशाने पर हैं।  हमारी इस तरह के राजसी विषय में इतनी रुचि नहीं है कि इस पर अधिक लिखने का प्रयास करें पर जिस तरह इस आड़ में योग विषय का मजाक बनाया जा रहा है वह थोड़ा आपत्तिजनक लग रहा है। उसे लेकर भारतीय शासन क्या कदम उठायेगा इस पर टिप्पणी करना हमारा काम नही है पर इस प्रसंग से उत्साहित कुछ लोग बराबर यह कह रहे हैं कि समाज को  योग साधना की प्रेरणा देने की बजाय शिखर पुरुषों को राजसी विषयों पर अपना हाथ दिखाना चाहिये।

                              अभी 21 जून को योग दिवस के अवसर भारत के अनेक राजसी शिखर पुरुषों ने सार्वजनिक  स्थानों पर साधना करते हुए समाज में चेतना लाने का प्रयास किया।  इससे समाज में चेतना कितनी फैली यह अलग से चर्चा का विषय है पर एक बात तय है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग विषय का विस्तार होगा।  योग न करने वाले कभी इसके अभ्यास करने वालों को समझ नहीं पाते तो विरोधियों का कहना ही क्या? योग साधकों को किसी विषय पर उत्तेजित नहीं करना चाहिये। जिन्होंने इसका बरसों अभ्यास किया हो उन्हें हम जैसे कम अवधि के साधक भी चुनौती नहीं देते। जब कोई दूसरा उनको देता है तो उस पर हंसी ही आती है। सच बात तो यह है कि अधिक अभ्यास करने वाले योगियों के पास दंड देने की स्वाभाविक रूप से आ जाती है पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह उद्दंडता पर उतर कर दूसरों को संतुष्ट करने का प्रयास करें।  दूसरी बात यह कि योगी का मौन हमेंशा चिंत्तन और मनन की क्रिया के लिये होता है इसलिये किसी खास विषय पर उनसे तत्काल निष्कर्ष बताने की आशा नहीं करते।  जब वह अपने समय पर बताते हैं तो दूसरे को हतप्रभ कर देते हैं। हम स्पष्ट कर दें कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर योग का विषय अनावश्यक रूप से नहीं घसीटा जाता तो हम कभी यह लेख नहीं लिखते। अपने बारह अभ्यास से योग विशारद लोगों की छवि हमारे हृदय में है उसी के कारण यह लिखने के लिये प्रेरित भी हुए। किसी के प्रति भ्रम या दृढ़ विश्वास व्यक्त करना भी हमारा लक्ष्य नहीं है क्योंकि अंततः यह धरती गोल है-यहां समय ही सबसे बलवान है।

———————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर   

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior

http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका