Tag Archives: हिन्दी साहित्य

स्वर्ग व मोक्ष का दृश्यव्य रूप नहीं-हिन्दी लेख


                                   हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम फैलाये गये हैं। खासतौर से स्वर्ग और मोक्ष के नाम पर ऐसे प्रचारित किये गये हैं जैसे वह  देह त्यागने के बाद ही प्राप्त होते हैें।  श्रीमद्भागवतगीता के संदेशों का सीधी अर्थ समझें तो यही है कि जब तक देह है तभी तक इंसान अपने जीवन में स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर सकता है। देह के बाद कोई जीवन है, इसे हमारा अध्यात्मिक दर्शन मनुष्य की सोच पर छोड़ता है। अगर माने तो ठीक न माने तो भी ठीक पर उसे अपनी इस देह में स्थित तत्वों को बेहतर उपयोग करने के लिये योग तथा भक्ति के माध्यम से प्रयास करने चाहिये-यही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मानना है।

अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि

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मोक्षस्य न हि वासीऽस्ति न ग्राम्यान्तरमेव वा।

अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः।।

                                   हिन्दी में भावार्थ-मोक्ष का किसी लोक, गृह या ग्राम में निवास नहीं है किन्तु अज्ञानरूपी हृदयग्रंथि का नाश मोक्ष कहा गया है।

                                   जिस व्यक्ति को अपना जीवन सहजता, सरलता और आनंद से बिताना हो वह विषयों से वहीं तक संपर्क जहां तक उसकी दैहिक आवश्यकता पूरी होती है।  उससे अधिक चिंत्तन करने पर उसे कोई लाभ नहीं होता।  अगर अपनी आवश्यकताआयें सीमित रखें तथा अन्य लोगों से ईर्ष्या न करें तो स्वर्ग का आभास इस धरती पर ही किया जा सकता है। यही स्थिति मोक्ष की भी है।  जब मनुष्य संसार के विषयों से उदासीन होकर ध्यान या भक्ति में लीन में होने मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर लेता है।  सीधी बात कहें तो लोक मेें देह रहते ही स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जाती है-परलोक की बात कोई नहीं जानता।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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राज्य प्रबंध में कुशल प्रबंध की आवश्यकता-हिन्दी लेख


                                   किसी जाति, भाषा या धर्म के लोगों को सरकारी सेवाओें में आरक्षण दिलाने के नाम पर आंदोलनकारी लोग कभी अपने अपने समाज के नेताओं से यह पूछें कि ‘क्या वास्तव में देश के सरकारी क्षेत्र  उनके लिये नौकरियां कितनी हैं? सरकार में नौकरियों पहले की तरह मिलना क्या फिर पहले की तरह तेजी से होंगी? क्या सभी लोगों को नौकरी मिल जायेगी।

                                   सच बात यह है कि सरकारी क्षेत्र के हिस्से का बहुत काम निजी क्षेत्र भी कर रहा है इसलिये स्थाई कर्मचारियों की संख्या कम होती जा रही है।  सरकारी पद पहले की अपेक्षा कम होते जा रहे हैं। इस कमी का प्रभाव अनारक्षित तथा आरक्षित दोनों पदों पर समान रूप से हो रहा है।  ऐसे में अनेक जातीय नेता अपने समुदायों को आरक्षण का सपना दिखाकर धोखा दे रहे हैं।  समस्या यह है कि सरकारी कर्मचारियों के बारे में लोगों की धारणायें इस तरह की है उनकी बात कोई सुनता नहीं।  पद कम होने के बारे में वह क्या सोचते हैं यह न कोई उनसे पूछता है वह बता पाते है।  यह सवाल  सभी करते भी हैं कि सरकारी पद कम हो रहे हैं तब इस  तरह के आरक्षण आंदोलन का मतलब क्या है?

                                   हैरानी की बात है कि अनेक आंदोलनकारी नेता अपनी तुलना भगतसिंह से करते है।  कमाल है गुंलामी (नौकरी) में भीख के अधिकार (आरक्षण) जैसी मांग और अपनी तुलना भगतसिंह से कर रहे हैं। भारत में सभी समुदायों के लोग शादी के समय स्वयं को सभ्रांत कहते हुए नहीं थकते  और मौका पड़ते ही स्वयं को पिछड़ा बताने लगते हैं।

             हमारा मानना है कि अगर देश का विकास चाहते हैं तो सरकारी सेवाओं में व्याप्त अकुशल प्रबंध की समस्या से निजात के लिय में कुशलता का आरक्षण होना चाहिये। राज्य प्रबंध जनोन्मुखी होने के साथ दिखना भी चाहिये वरना जातीय भाषाई तथा धार्मिक समूहों के नेता जनअसंतोष का लाभ उठाकर उसे संकट में डालते हैं। राज्य प्रबंध की अलोकप्रियता का लाभ उठाने के लिये जातीय आरक्षण की बात कर चुनावी राजनीति का गणित बनाने वाले नेता उग आते हैं। जातीय आरक्षण आंदोलन जनमानस का ध्यान अन्य समस्याओं से बांटने के लिये प्रायोजित किये लगते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

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गुलामी जब जायेगी तभी तो आजादी आयेगी-हिन्दी लेख


                                   15 अगस्त भारत का स्वतंत्रता दिवस हमेशा अनेक तरह से चर्चा का विषय रहता है। अगर हम अध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो भारत कभी गुलाम हुआ ही नहीं क्योंकि भौतिक रूप से कागजों पर  इसका नक्शा छोटा या बड़ा  भले ही होता रहा हो पर धार्मिक दृष्टि से भौतिक पहचान रखने वाले तत्वों में  गंगा, यमुना और नर्मदा नदियां वहीं बहती रहीं हैं जहां थीं।  हिमालय और विंध्याचल पर्वत वहीं खड़े रहे जहां थे। अध्यात्मिक दृष्टि से श्री रामायण, श्रीमद्भागवत गीता तथा वेदों ने अपना अस्तित्व बनाये रखा-इसके लिये उन महान विद्वानों को नमन किया जाना चाहिये जो सतत इस प्रयास में लगे रहे। भारत दो हजार साल तक गुलाम रहा-ऐसा कहने वाले लोग शुद्ध राजसी भाव के ही हो सकते हैं जो मानते हैं कि राज्य पर बैठा शिखर पुरुष भारत या यहां की धार्मिक विचारधारा मानने वाला नहीं रहा।

                                   हम जब अध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं तो पाते हैं कि विदेशों से आयी अनेक जातियां यहीं के समाज में लुप्त हो गयीं पर उस समय तक विदेशों में किसी धार्मिक विचाराधारा की पहचान नहीं थी। जब विदेशों में धार्मिक आधार पर मनुष्य में भेद रखना प्रारंभ हुआ तो वहां से आये राजसी व्यक्तियों ने भारत में आकर धार्मिक आधार पर भेद करने वाला  वही काम किया जो वहां करते थे।  अब तो स्थिति यह है कि भारतीय विचाराधारा न मानने वाले लोग यहीं के प्राचीन इतिहास से परे होकर विदेशी जमीन से अपनी मानसिक सोच चलाते हैं।  पाकिस्तानी मूल के कनाडाई लेखक तारिक फतह ने एक टीवी चैनल में साक्षात्कार में अपने ही देश की विचारधारा की जो धज्जियां उड़ाईं वह अत्यंत दिलचस्प है।  उन्होंने कहा कि पाकिस्तान का मुसलमान यह सोचता है कि वह अरब देशों से आया है जबकि उसे समझना चाहिये कि वह प्राचीन भारतीय संस्कृति का हिस्सा है।

                                   भारतीय उपमहाद्वीप में आये विदेशी लोगों ने यहां अपना वर्चस्प स्थापित करने के लिये जो शिक्षा प्रणाली चलाई वह गुलाम पैदा करती है। अगर हम राजसी दृष्टि से भी देखें तो भी आज वही शिक्षा प्रणाली प्रचलन में होने के कारण भारत की पूर्ण आजादी पर एक प्रश्न चिन्ह लगा मिलता है।  लोगों की सोच गुलामी के सिद्धांत पर आधारित हो गयी है।  विषय अध्यात्मिक हो या सांसरिक हमारे यहां स्वतंत्र सोच का अभाव है।  लोग या तो दूसरों को गुलाम बनाने की सोचते हैं या फिर दूसरे का गुलाम बनने के लिये लालयित होते हैं। इसलिये स्वतंत्रता दिवस पर इस बात पर मंथन होना चाहिये कि हमारी सोच स्वतंत्र कैसे हो?

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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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मीडिया की बहस से अध्यात्मिक दर्शन का लाभ नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


                                   हम जैसे योग तथा ज्ञानसाधक मानते हैं कि  लीलामय संत सुंदर कपड़े और गहने पहने पर उसमें उनका भाव लिप्त नहीं है तो चलेगा। कुछ संतों पर प्रचार युद्ध चल रहा है। हमारे अंदर अनेक तरक के विचार घूम रहे हैं। विवादास्पद गुरु ज्ञानी नहीं होते यह बात मीडिया वाले कैसे तय कर लेते हैं। क्या श्रीगीता का ज्ञान उन्होंने धारण कर लिया है? अनेक सवाल हमारे मन में आते हैं। हमारा तो यह भी कहना है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद हमारे हमारे समाज में अस्थिरता आयी है जिसे मनोरोगों के साथ ही शारीरिक रूप से भी लोगों में अनेक विकार पैदा हो रहे हैं।  ऐसे में  तनाव और रोगों से घिरे समाज में मानसिक रूप से कमजोरों का सहारा बनने वाले पेशेवर संत प्रशंसायोग्य ही कहना चाहिये। उनका कमाना भी बुरा नहीं।

                                   इस विषय पर समाचर माध्यमों में जमकर बहस हो रही है पर लगता नहीं है कि धर्म के विषय पर कोई पेशेवर विद्वान  अपनी समझ का प्रदर्शन कर पा रहा है। कर्मकांडों के आधार पर तर्क गढ़ने में सभी माहिर दिखते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान का अभाव है। मीडिया-हिन्दी समाचार चैनल- अमीर संतों के कारनामों की चर्चा के लिये समाचार और बहस के बीच इतना समय अपने विज्ञापनदाताओं की चीजें बिकवाने के लिये लगाता है। इससे अध्यात्मिक साधकों को परेशान होने की जरूरत नहीं है।

             एक योग तथा ज्ञान साधक होने के नाते हमारा मानना है कि  गीता का ज्ञान एक ऐसा चश्मा है जो अंतर्चक्षुओं पर पहनना ही चाहिये। उसे गुरु मानकर पढ़ो, समझो और फिर उसके आधार पर संसार को समझो। धर्म और धन लीला की समझ के साथ मजा भी आयेगा। मीडिया अमीर संतों के कारनामों की चर्चा के लिये समाचारा और बहस के बीच इतना समय अपने विज्ञापनदाताओं की चीजें बिकवाने के लिये लगाता है।

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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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सावन का महीना बीमारियों का शोर-सावन माह पर नया हिन्दी पाठ


                              आज से सावन का महीना प्रारंभ हो गया है। जब  वर्षा ऋतु अपनी  जलधारा से गर्मी की उष्णा को ठंडा करती है तब  मनुष्य ही नहीं वरन् हर जीव अपने अंदर एक नयी स्फूर्ति का अनुभव करता है। सावन में संतुलित वर्षा देह को अत्यंत सुखद लगती है पर मौसम विशेषज्ञों ने बता दिया है कि अनेक जगह वर्षा कहर बरसायेगी तो अनेक  जगह अल्प वर्षा की स्थिति भी तरसायेगी।  हमारा क्षेत्र दूसरी स्थिति वाला है।  उज्जैन में महाकाल के शिखर तक जल पहुंचाने वाले बादल हमारे शहर तक आते आते सूख जाते हैं। हवा का प्रवाह रुक जाता है और उमस त्रास का कारण बनती है। बादल शहर तक न आयें एक दुःख पर आकर न बरसें और फिर हवा रोक कर उमस बरसायें तो मानसिक संताप के साथ बीमारियां भी बढ़ती हैं।

                              मनभावन होने के बावजूद सावन का महीना मार्गशीर्ष जैसा पवित्र नहीं होता-श्रीमद्भागवत गीता में यही महीना श्रेष्ठ माना गया है।  मौसम की दृष्टि से यह मार्गशीर्ष  का  महीना न केवल सुहाना होता है वरन् अध्यात्मिक दृष्टि से भी उसका महत्व है।  सावन के महीने में जलाशय भर जाते हैं और देव प्रतिमाओं पर जलाभिषेक का क्रम भी प्रारंभ होता है। धन्य है वह भक्त जो प्रातःकाल ही मंदिरों में जाते हैं-उनकी वजह से सैर सपाटे करने वालों को अंधियारी सड़कों पर चहल पहल मिलती है।

                              इस महीने को संभवतः इसलिये भी अध्यात्मिक दृष्टि से मार्गशीर्ष से कम महत्व शायद इसलिये ही दिया गया क्योंकि इस माह में बीमारियों का भी प्रकोप रहता है।  वैसे तो जिस तरह का खानपान हो गया है उससे बिमारियां सदाबाहर हो गयी हैं पर इसके बावजूद सावन में चिकित्सालयों में कमाई की झड़ी लग जाती है। जब तक उच्च चिकित्सा सरकार के दायरे में थी तब तक ठीक था पर अब तो निजी क्षेत्र में तो इलाज का एक  ऐसा उद्योग बन गया है जिसमें संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं है।  इस लेखक से उम्र में बड़ा एक बुद्धिमान मित्र बताता था कि बरसात में खाने को  लेकर मन में बड़ी उत्तेजना रहती है पर पाचन की दृष्टि से मौसम अत्यंत संवदेनशील होता है।

                              हमारे यहां वर्षा के चार मास शांति से एक स्थान पर बने रहने के साथ ही जलाशयों से दूर रहने की बात कहते हैं ।।  हमारे यहां स्थिति उलट गयी है।  आज खाये पीये अघाये लोगों को पिकनिक मनाने के लिये जलाशय भाते हैं।  अनेक जगह भारी उमस में पका भोजन किया जाता है। कहा जाता है कि पहले सड़के नहीं थी इसलिये ही वर्षा में पर्यटन वर्जित किया गया था।  हमें लगता है कि यह विकासवाद का अंधा तर्क है वरना तो वर्षा में सड़कें अब भी लापता लगती हैं-उल्टे अब कचड़े के निष्पादन के अभाव के उसके ढेर बांध बनकर पानी रोकते हैं और सड़कें नदियां बन जाती हैं। शहरों में जिस तरह पानी से जूझते हुए लोग दिखते हैं उतना तो गांवों में नहीं दिखते।

                              बहरहाल हमारा मानना है कि सावन का महीना भले ही मनभावन है पर इस समय खान पान और चाल चलन में सावधानी रखने का भी है।

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प्रचारकों से ज्यादा तो नशेड़ी जानते हैं-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              हमारे देश के निजी हिन्दी टीवी समाचार चैनल अभी प्रसारण के उच्च स्तर से बहुत दूर हैं। बहुत समय से सोचते रहे हैं कि हिन्दी टीवी समाचार चैनलों पर अपनी राय रखें पर लगता नहीं है कि पहले तो सही जगह बात पहुंचेगी दूसरा यह कि इसका कोई प्रभाव पड़ेगा। वैसे भी हम जैसे असंगठित लेखकों के पढ़ने वाले लोग अधिक नहीं होते हैं।  बहरहाल भारत के जितने भी राष्ट्रीय हिन्दी समाचार चैनल हैं उनमें शायद ही कोई अब लोकप्रियता की दौड़ में है।  इन चैनलों के पास समाचारों के लिये क्रिकेट, पाकिस्तान की सीमा पर गोलीबारी और चीन के ड्रोन के अलावा अगर कोई चौथी सनसनीखेज खबर होती है तो वह भारतीय समाज में कथित साप्रदायिक तनाव को इंगित करती है। इस मुद्दे पर किसी का एक कोने में दिया गया बयान पहले पूरे देश में जबरदस्ती सुनाकर फिर उस पर बहस करते हैं।

                              इन चैनलों के प्रबंधकों का यह पता होना चाहिये कि मनोरंजन के लिये बहुत सारे चैनल है।  कुछ प्रादेशिक चैनल इन राष्ट्रीय चैनलों से बेहतर समाचार प्रसारण कर रहे हैं। इन चैनलों की सबसे बुरी प्रवृत्ति यह दिखाई दे रही है कि यह न्यायपालिका पर अप्रत्यक्ष हमला करते हैं। इतना ही नहीं सरकार की कुछ अपराधियों के विरुद्ध की गयी कार्यवाही में भी मीनमेख निकालने का प्रयास करते हैं-यह जानते हुए भी कि अंततः न्यायपालिका के बिना यहां किसी को सजा नहीं दी जा सकती।  बहरहाल इन राष्ट्रीय टीवी समाचार चैनलों को यह पता होना चाहिये कि दृनियां भर की खबर लेना भी एक नशा है जिसे यह परोस नहीं पा रहे।  उन्होंने अपनी विषयों का इतना सीमित कर दिया है कि समाचारों के अनेक  नशेड़ी भी अब इनसे विरक्त होने लगे हैं।  सभी चैनल एक जैसे हैं और यह कोई नशेड़ी यह नहीं बता सकता कि उसने कौनसा समाचार किस चैनल पर सुना था।  बहसों पर तो कोई बात भी नहीं करता। इसमें दिये गये तर्क इतने प्रायोजित होते हैं कि इसमें शामिल कथित विद्वानों से बेहतर सोच तो समाचारों के नशेड़ी स्वयं अपने पास रखते हैं।

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कम आयु में मृत्यु की घटनायें चिंत्ताजनक


                      आमतौर से बड़ी आयु में मौत होना ही स्वाभाविक माना जाता है। उच्च रक्तचाप, मधुमेह और अन्य राजरोगों से एक सामान्य मनुष्य एक आयु तक स्वयं ही लड़ लेता है पर बड़ी उम्र होने पर वह हथियार डाल देता है। अब छोटी आयु में मौतें भी अधिक होने लगी हैं जिस पर शायद ही कोई अधिक चिंतित होता हो।  सड़क हादसों में अनेक युवा काल कवलित होते देखे गये हैं।  अगर बड़ी आयु के लोग अपनी स्मरण शक्ति पर बोझ डालें तो उन्हें लगेगा कि अपनी युवा अवस्था से अधिक उम्र के इस पड़ाव अनेक  गोदें सूनी होते देख रहे हैं।   बहरहाल तीस से चालीस के बीच अगर सड़क हादसे की बजाय बीमारी से किसी की मौत हो तो अब भी स्वाभाविक मानना कठिन लगता है पर जिस तरह तंबाकू के पाउचों का प्रचलन हुआ है उस पर अनेक स्वास्थ्य विशेषज्ञ चिंतित हैं। अनेक लोग तो इन पाउचों को धीमे विष जैसा मानते हैं। ऐसे में जागरुक लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिये।

                              इस लेखक ने एक चिकित्सक मित्र को एक अस्वस्थ युवक के पिता से यह कहते सुना था कि‘अगर तुम्हारा लड़का इस पाउच का सेवन बंद नहीं करता तो समझ लेना कि वह तुम्हें दुनियां का सबसे बड़ा दर्द देने वाला है।’ अतः यह जरूरी है कि इस विषय पर गंभीरता से अनुसंधान कर लोगों को जानकारी दी जाये।

                              शायद दस वर्ष पूर्व की बात होगी। इस लेखक के एक मित्र न मात्र 42 वर्ष की उम्र में हृदयाघात से दम तोड़ा होगा।  वह ऐसे पाउचों का सेवन करता था।  उससे एक दो वर्ष पूर्व एक लड़के ने इन पाउचों के सेवन का दुष्परिणाम बताया था। उसने पाउच की पूरी सामग्री एक ग्लास में भरते हुए पानी के साथ ही चार आल्पिनें उसमें डाल दीं। सुबह वह चारों आल्पिने गुम थीं।  मित्र की  मौत के बाद इस लेखन ने कम उम्र में हृदयाघात से मरने वालों की जानकारी लेना प्रारंभ किया।  दस में से सात इसके सेवन में लिप्त पाये गये। पिछले बीस पच्चीस वर्ष से यह पाउच प्रचलन में आया है इसलिये अनेक बड़ी आयु के भी इसका शिकार होते हैं तो बड़ी बात नहीं पर चूंकि उनकी मौत स्वाभाविक मानी जाती है इसलिये कोई चर्चा नहीं करतां।

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त्यागियों की ही वजह से भारत बचा हुआ है-हिन्दी चिंत्तन लेख


                एक बार अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जूनियर जार्जबुश ने विश्व में बढ़ती महंगाई को भारतीय जनता में व्याप्त अधिक खाने की प्रवृत्ति को बताया था।  उस समय अनेक विद्वानों ने इसका मजाक उड़ाया था। अंतर्जाल पर सक्रियता में नवीन व्यक्ति होने के कारण  हमने भी अधिक पाठक बटोरने की दृष्टि से बुश साहब से अपनी असहमति जताई थी। यह सात वर्ष पहले की बात थी। उस समय निजी टीवी चैनल और अंतर्जाल दोनों ही संचार जगत में एक नयी शुरुआत कर रहे थे। जैसे जैसे संचार की शक्ति बढ़ी तो नयी नयी जानकारियां आने लगीं। भारत में इस दौरान खानपान की आदतों में भारी बदलावा भी आया। उस समय हमने लिखा था कि चूंकि भारत के चाट भंडारों में भीड़ रहती है इसलिये कोई भी यह सोच सकता है कि भारत में लोग खाते बहुत हैं।  सात वर्ष बाद अब तो  भारत में मॉल के रूप में आधुनिक बाज़ार का रूप लिया है और आकार में बड़े होने के कारण वहां भी भीड़ अधिक दिखती है। यह अलग बात है कि वहां खाद्य पदार्थों के अलावा फिल्मों के उपभोक्ता और दर्शक ही अधिक आते हैं। इस तरह उपभोग प्रवृत्ति में बदलाव तथा उपभोक्ताओं की बड़ी संख्या किसी विकास का परिचायक नहीं  है क्योंकि इसके पीछे हमारा कोई नवीन निर्माण नहीं है।  रोजगार, स्वास्थ्य तथा नैतिक आचरण का पैमाना बहुत नीचे चला गया है। कर्ज लेकर घी पीने के जिस सिद्धांत पर समाज चला है उसे देखकर तो अब विदेशी यह भी कह सकते हैं कि भारतीय कमाते कम हैं खाते ज्यादा हैं।

                              सब कुछ बदला है पर यहां के धनपितयों की प्रवृत्ति जस की तस है। खाद्य पदार्थों में मिलावट तथा पहनने ओढ़ने में नकली सामान बनाने  की वही कहानी अब भी जारी है। पहले बाज़ार से अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थों में मिलावट के समाचार आते थे पर अब तो एक टीवी समाचार चैनल ने प्लास्टिक के चावल बनने की बात कहकर हैरान ही कर दिया है। हम सभी जानते हैं कि अन्न से मन और मन से मनुष्य का अस्तित्व है। अगर इसी तरह अन्न से प्लास्टिक का मेल होने की बात आगे बढ़ी तो फिर हमें शुद्ध मनुष्य ढूंढना ही मुश्किल हो जायेगा।

                              हमने पहले भी कहा था और अब भी कह रहे हैं कि भारत में प्रकृत्ति की कृपा अन्य देशों से कहीं अधिक है।  यहां भूजल का बेहतर स्तर, हर तरह के अन्न की फसल और विभिन्न खनिजों संपदा को देखकर कोई नहीं कह सकता कि भारत अभिशप्त देश है। यह अलग बात है कि यहां लोभ की ऐसी प्रवृत्ति है कि कोई धनपति अपनी कमाई से संतुष्ट होने की बजाय दूसरे के मुंह से निवाला निकालकर या खींचकर अपनी तरफ करने पर ही प्रसन्न होता है। यही कारण है कि हमारा देश सब कुछ होते हुए भी गरीब और अविकसित कहा जाता है। मजे की बात यह है कि जितना अज्ञानी समुदाय है उससे ज्यादा ज्ञानी लोगों का समूह है।  शायद यही कारण है कि यह देश चल रहा है। अज्ञानी के लोभ की प्रवृत्ति के बावजूद ज्ञानियों का त्याग भाव हमारे देश को बचाये हुए है।

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दंड शक्ति होने के बावजूद योगी उद्दण्ड नहीं बनते-हिन्दी चिंत्तन लेख


                              एक पूर्व क्रिकेट खेल व्यापारी का किस्सा इन दिनों अंतर्जाल और प्रचार माध्यमों में छाया हुआ है। क्रिकेट के व्यापार में अनेक आरोपों का बोझ उठाये वह लंदन में बैठकर भारत में दूसरों पर आक्षेप कर अपने नायकत्व की छवि बना रहा है। भारतीय राजनीति के अनेक शिखर व्यक्तित्व उसके निशाने पर हैं।  हमारी इस तरह के राजसी विषय में इतनी रुचि नहीं है कि इस पर अधिक लिखने का प्रयास करें पर जिस तरह इस आड़ में योग विषय का मजाक बनाया जा रहा है वह थोड़ा आपत्तिजनक लग रहा है। उसे लेकर भारतीय शासन क्या कदम उठायेगा इस पर टिप्पणी करना हमारा काम नही है पर इस प्रसंग से उत्साहित कुछ लोग बराबर यह कह रहे हैं कि समाज को  योग साधना की प्रेरणा देने की बजाय शिखर पुरुषों को राजसी विषयों पर अपना हाथ दिखाना चाहिये।

                              अभी 21 जून को योग दिवस के अवसर भारत के अनेक राजसी शिखर पुरुषों ने सार्वजनिक  स्थानों पर साधना करते हुए समाज में चेतना लाने का प्रयास किया।  इससे समाज में चेतना कितनी फैली यह अलग से चर्चा का विषय है पर एक बात तय है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग विषय का विस्तार होगा।  योग न करने वाले कभी इसके अभ्यास करने वालों को समझ नहीं पाते तो विरोधियों का कहना ही क्या? योग साधकों को किसी विषय पर उत्तेजित नहीं करना चाहिये। जिन्होंने इसका बरसों अभ्यास किया हो उन्हें हम जैसे कम अवधि के साधक भी चुनौती नहीं देते। जब कोई दूसरा उनको देता है तो उस पर हंसी ही आती है। सच बात तो यह है कि अधिक अभ्यास करने वाले योगियों के पास दंड देने की स्वाभाविक रूप से आ जाती है पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह उद्दंडता पर उतर कर दूसरों को संतुष्ट करने का प्रयास करें।  दूसरी बात यह कि योगी का मौन हमेंशा चिंत्तन और मनन की क्रिया के लिये होता है इसलिये किसी खास विषय पर उनसे तत्काल निष्कर्ष बताने की आशा नहीं करते।  जब वह अपने समय पर बताते हैं तो दूसरे को हतप्रभ कर देते हैं। हम स्पष्ट कर दें कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर योग का विषय अनावश्यक रूप से नहीं घसीटा जाता तो हम कभी यह लेख नहीं लिखते। अपने बारह अभ्यास से योग विशारद लोगों की छवि हमारे हृदय में है उसी के कारण यह लिखने के लिये प्रेरित भी हुए। किसी के प्रति भ्रम या दृढ़ विश्वास व्यक्त करना भी हमारा लक्ष्य नहीं है क्योंकि अंततः यह धरती गोल है-यहां समय ही सबसे बलवान है।

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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर   

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior

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योग साधना नित्य कर्म बनायें-हिन्दी चिंत्तन लेख


                                    21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर सभी देशों में आयोजनों की तैयारियां चल रही हैं।  अनेक प्रकार की चर्चायें चल रही हैं पर उनका संबंध इसके दैहिक लाभ से ही है।  इसके अध्यात्मिक शक्ति मिलने की बात बहुत कम लोग कर रहे हैं। योग साधक भी अनेक प्रकार हैं। एक तो वह जो कभी कभार ही करते हैं। दूसरे वह जो अक्सर करते हैं। ऐसे योग साधकों की संख्या नगण्य है जो इसे नियमित करते हैं। जिन लोगों के लिये यह एक आदत या नशा है पर मौसम की परवाह नहीं करते है। हम जैसे योग साधकों के लिये तो यह सुबह का नशा है। प्रातः अगर शुद्ध वायु का सेवन न करें तो पूरा दिन ऐसा लगता है जैसे कि नींद से उठे ही नहीं।

                                    हमारी दृष्टि से तो योग साधना के अभ्यास से शरीर का तेल निकल जाता है-डरने की बात नहीं जब हम पूर्ण साधना कर लेते हैं तब  शरीर में मक्खन बनने की अनुभूति भी आती है।  गर्मी में तो हवा चलती है इसलिये थोड़ी राहत मिलती है पर जब वर्षा ऋतु में  बादल मुंह फेरे रहते हैं तब तो आसनों के समय पसीना इस तरह निकलता है कि चिढ़ भी आने लगती है। शरीर में गर्मी लाने वाले आसनों से उस समय परहेज की जा सकती है पर तब यह आदत छूटने की आशंका से यह विचार छोड़ना पड़ता है।

                                    इस समय चहूं ओर योग साधना की बात हो रही है। अंग्रेजी महीना जून और भारतीय माह आषाढ़ एक साथ चल रहे हैं।  जब हम योग साधना करते हैं तब 21 जून विश्व योग दिवस वाली बात तो भूल ही जाते हैं। कभी कभी हवा राहत देती है तो कभी शरीर में इतनी उष्णता लगती है कि सोचते हैं जितना कर लिया ठीक है।  फिर हवा चलती है तो धीरे धीरे अपनी साधना भी बढ़ती है।  अंत में जब मंत्र जाप करते हैं तो मन में यह उत्साह पैदा होता है कि चलो हमने किसी तरह अपनी साधना तो पूरी कर ली। स्नान और पूजा से निवृत होकर जब चाय पीते समय टीवी पर कहीं योग का कार्यक्रम देखते हैं तभी ध्यान आता है कि हम भी यही कर आ रहे हैं।  इन कार्यक्रमों में योग स्थान देखकर लगता है कि काश! हम भी वहीं जाकर साधना करें। अब उन स्थानों तक पहुंचने के लिये रेल या बस यात्रा तो करनी ही होगी-तब यह सोचकर खुश होते हैं कि जहां भी कर ली वहीं ठीक है।

                                    आमतौर से लोग सुबह के भ्रमण या व्यायाम को योग के समकक्ष रखते हैं पर यह दृष्टिकोण उन्हीं लोगों का है जो इसे केवल शारीरिक अभ्यास के रूप में पहचानते हैं।  हमने अपने अभ्यास से तो यही निष्कर्ष निकाला है कि योग साधना के नियमपूर्वक आसन, प्राणायाम और ध्यान करने से मानसिक तथा वैचारिक लाभ भी होते हैं।  अनेक लोग इसे धर्मनिरपेक्ष बताकर प्रचारित कर रहे हैं जबकि हमारी दृष्टि से योग स्वयं एक धर्म है।  विश्व में जितने भी संज्ञाधारी धर्म है वह वास्तव में आर्त भाव में स्थिति हैं जिसमें सर्वशक्तिमान से जीवन सुखमय बनाने के लिये प्रार्थना की जाती है। समय के साथ मनुष्य सांसरिक विषयों में निरंतर लिप्त रहने के कारण कमजोर हो जाता है इसलिये वह अपना मन हल्का करने के लिये आर्त भाव अपना लेता है जबकि योग से न केवल ऊर्जा का क्षरण रुकता है वरन नयी स्फूर्ति भी आती है इसलिये मनुष्य आर्त भाव की तरफ नहीं जाता। इसलिये वह सर्वशक्तिमान से याचना की बजाय उसे अध्यात्मिक संयोग बनाने का प्रयास करता है। यही कारण है कि सभी कथित धार्मिक विद्वान इसके केवल शारीरिक लाभ की बात कर रहे हैं ताकि लोग अध्यात्मिक रूप से इस पर विचार न करें।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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लोकप्रिय लोगों की मजबूरी है प्रचार माध्यमों से जुड़ा रहना-हिन्दी चिंत्तन लेख


     आज का प्रचार तंत्र एकदम व्यवसायिक है। टीवी, समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं के संचालक संस्थान विशुद्ध रूप से अर्थतंत्र के उन सिद्धांतों पर आधारित है जिनमें मानवीय सिद्धांतों का कोई स्थान नहीं है। आजादी के समय अनेक लोगों ने विशुद्ध रूप से देशभक्ति के भाव से समाचार पत्र पत्रिकायें निकाली थीं पर उसके बाद तो समाज तथा उस पर नियंत्रण करने वाली इकाईयों पर अपना प्रभाव रखने की प्रवृत्ति ही पत्रकारिता का उद्देश्य  रह गया है।

      एक संपादक ने अपना एक रोचक किस्सा इस लेखक को सुनाया। वह उस समय एक समाचार पत्र में प्रथम या मुख  पृष्ठ के संपादक थे, जब केवल एजेंसियों की खबर ही छपती थीं।  वह उन्हें लिखते या शीर्षक लगाते थे।  उनके साथ अनेक नये लड़के काम करते थे।  लड़के उनसे अक्सर यह कहते थे कि ‘साहब, आप हमें नगर समाचार पर काम करवाईये।’

वह कारण पूछते तो यही बताया जाता था कि इससे पुलिस तथा प्रशासन से संपर्क बनता है जो लाभदायक रहता है।’

     यह विचार  जब वेतनभोगी कर्मचारियों का हो तो स्वामियों का नहीं होगा यह सोचना ही बेकार है। वह दौर पुराना था पर अब इस दौर में जब वेतनभोगियों को अपनी नौकरी और स्वामियों को अपने संस्थान का प्रभाव बनाये रखने की चिंता नित हो तो फिर अधिक संवेदनशीलता की आशा कम से कम उन लोगों को तो करना ही नहीं चाहिये जो इसके सहारे प्रतिष्ठा और पद पा लेते हैं। इतना ही नहीं पद पाने से पहले समाज सेवक की भूमिका और बाद में अपनी सेवा के प्रचार के लिये सभी को प्रचार की आवश्यकता होती है। सच तो यह है कि प्रचार माध्यमों ने अनेक ऐसे लोगों को नायक बनाया जिनके अपेक्षा वह स्वयं भी नहंी की।

           अंततः प्रचार माध्यमों को जनता में बना रहना है इसलिये हमेशा ही किसी के सगे बनकर नहीं रह सकते। इसलिये कभी अपने ही बनाये नायक में खलनायक भी देखने लगते हैं। उन्हें अपनी खबरों के लिये कला, फिल्म, राजनीति, तथा खेल के शिखर पुरुषों से ही अपेक्षा रहती है। यही कारण है कि शिखर पुरुषों के जन्म दिन, सगाई, शादी, तलाक और सर्वशक्तिमान के दरबारों मत्था टेकने की खबरें भी प्रचार माध्यमों में आती हैं। इतना ही नहीं अंतर्जाल पर हजारों आम लोग सक्रिय हैं और उनकी अनेक रचनायें अद्वितीय लगती हैं पर ब्लॉग, फेसबुक, और ट्विटर पर शिखर पुरुषों की रचनायें ही प्रचार माध्यमों पर सुशोभित होती हैं। जब तक प्रचार प्रबंधकों को लगता है कि शिखर पुरुषों को नायक बनाकर उनकी खबरें बिक रही हैं तब तक तो ठीक है, पर जब उनको लगता है कि अब उन्हें खलनायक दिखाकर सनसनी फैलानी है तो वह यह भी करते हैं। जब तक शिखर पुरुषों को अपना प्रचार अनुकूल लगता है तब तक वह प्रचार माध्यमों को सराहते र्हैं, पर जब प्रतिकूल की अनूभूति होती तो वह उन पर आरोप लगाते हैं।

इस पर एक कहानी याद आती है।  रामलीला मंडली में एक अभिनेता राम का अभिनय करता था। आयु बढ़ी तो वह रावण बनने लगा जबकि उसके पुत्र को राम बनाया जाता था। एक बार इस पर उससे प्रतिक्रिया पूछी गयी। रामलीला मंडली में काम करने वाले अध्यात्मिक रूप से परिपक्व तो होते ही हैं। उसने जवाब दिया कि ‘समय की बलिहारी है। मैं कभी राम बनता था अब रावण का अभिनय करता हूं। यह मेरा रोजगार है। रामलीला मंडली छोड़ना मेरे लिये संभव नहीं है।’

        प्रचार माध्यम भी लोकतांत्रिक लीला में यही करते हैं। पहले नायकत्व की छवि प्रदान करते हैं और कालांतर में खलनायक का भूमिका सौंप देते हैं।  लोकतांत्रिक लीला में जिन्हें नित्य कार्य करना ही है वह जब नायकत्व की छवि का आनंद लेते हैं तो बाद में उन्हें प्रचार माध्यमों की खलनायक की भूमिका भी सहजता से स्वीकार करना चाहिये। उन्हें आशा करना चाहिये कि संभव है कभी उन्हें नायकत्व दोबारा न मिले पर खलनायक की  जगह उन्हें सहनायक की भूमिका मिल सकती है जैसे रामलीला में राम का चरित्र निभाने वाले को को अपने बेटे के लिये दशरथ की भूमिका मिलती है।

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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

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योग एक अध्यात्मिक विज्ञान है-21 जून पर विश्व योग दिवस पर विशेष लेख


                  21 जून विश्व योग दिवस जैसे जैसे करीब आता जा रहा है वैसे वैसे भारतीय प्रचार माध्यम भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा न मानने वाले समुदायों के कुछ लोगों को ओम शब्द, गायत्री मंत्र तथा सूर्यनमस्कार के विरोध करने के लिये बहस में निष्पक्षता के नाम पर बहसों में आगे लाकर अपने विज्ञापन का समय पास कर रहे हैं। हमारा मानना है कि भारतीय योग विद्या को विश्व पटल पर स्थापित करने के इच्छुक लोगों को ऐसी तुच्छ बहसों से दूर होना चाहिये। उन्हें विरोध पर कोई सफाई नहीं देना चाहिये।

                 योग तथा ज्ञान साधक के रूप में हमारा मानना है कि ऐसी बहसों में न केवल ऊर्जा निरर्थक जाती है वरन् तर्क वितर्क से कुतर्क तथा वाद विवाद से भ्रम उत्पन्न होता है।  भारतीय प्रचार माध्यमों की ऐसे निरर्थक बहसों से योग विश्वभर में विवादास्पद हो जायेगा। विश्व योग दिवस पर तैयारियों में लगी संस्थायें अब विरोध की सफाई की बजाय उसके वैश्विक प्रचार के लिये योग प्रक्रिया तथा विषय का प्रारूप बनाने का कार्य करें। जिन पर इस योग दिवस का जिम्मा है वह अगर आंतरिक दबावों से प्रभावित होकर योग विद्या से छेड़छाड़ करते हैं तो अपने ही श्रम को व्यथ कर देंगे।

           हम यहां बता दें कि भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा का देश में ही अधिक विरोध होता है। इसका कारण यह है कि जिन लोगों ने गैर भारतीय विचाराधारा को अपनाया है वह कोई सकारात्मक भाव नहीं रखते। इसके विपरीत यह कहना चाहिये कि नकारात्मक भाव से ही वह भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा से दूर हुए हैं।  उन्हें समझाना संभव नहीं है।  ऐसे समुदायों के सामान्य जनों को समझा भी लिया जाये पर उनके शिखर पुरुष ऐसा होने नहीं देंगे। इनका प्रभाव ही भारतीय विचाराधारा के विरोध के कारण बना हुआ है। वैसे हम एक बात समझ नहीं पाये कि आखिर चंद लोगों को गैर भारतीय विचाराधारा वाले समुदायों का प्रतिनिधि कैसे माना जा सकता है?  समझाया तो भारतीय प्रचार माध्यमों के चंद उन लोगों को भी नहीं जा सकता जो निष्पक्षता के नाम पर समाज को टुकड़ों में बंटा देखकर यह सोचते हुए प्रसन्न होते हैं कि विवादों पर बहसों से उनके विज्ञापन का समय अव्छी तरह पास हो जाता है।

    योग एक विज्ञान है इसमें संशय नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता संसार में एक मात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान है। यह सत्य भारतीय विद्वानों को समझ लेना चाहिये।  विरोध को चुनौती समझने की बजाय 21 जून को विश्व योग दिवस पर समस्त मनुष्य योग विद्या को सही ढंग से समझ कर इस राह पर चलें इसके लिये उन्हें मूल सामग्री उलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिये।  विरोधियों के समक्ष उपेक्षासन कर ही उन्हें परास्त किया जा सकता है। उनमें  योग विद्या के प्रति सापेक्ष भाव लाने के लिये प्रयास करने से अच्छा है पूरी ऊर्जा भारत तथा बाहर के लोगों में दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक रूप से स्वस्था रहने के इच्छुक लोगों को जाग्रत करने में लगायी जाये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

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लोकतंत्र और गरीब इंसान-हिंदी कविता


तंगहाल लोगों को

खूबसूरत सपने दिखाकर

बरगलाना आसान है,

यही सिद्धांत लोकतंत्र की जान है।

कहें दीपक बापू

किसी की निंदा जितना ही खतरा

किसी की तारीफ करने में है

इसलिये मौन रहने से  ही बढ़ती शान है।

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गरीब का स्तर कमतर रहना जरूरी है,

अमीर के नखरे उठाये उसकी मजबूरी हैं।

कहें दीपक बापू

गरीब के पसीने से लोकतंत्र नहीं चलता,

अमीर के पैसे से अंधेरे में खड़ीभेड़ों की भीड़ के लिये

सपनों का  चिराग जलता,

गरीब के भले के लिये

चलते रहेंगे बड़े बड़े अभियान

तख्त पर बैठेगा वही

जिसकी गरीबी से दूरी है।

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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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चिकित्सा चर्चा-हिन्दी व्यंग्य


                         हम अगर देश के वर्तमान कथित सभ्रांत वर्ग के लोगों की शारीरिक, मानसिक, वैचारिक तथा बौद्धिक स्थिति पर दृष्टिपात करें तो चिकित्सालय स्वर्ग, चिकित्सक देवता, दवायें, अमृत, गोलियां मिष्ठान और बीमारी दर्शन बन गयी है।  कहीं भी शादी या गमी में युवावस्था के ंअंतिम दौर में चलने वाले, बड़ी आयु या वृद्ध लोगों की बैठक हो वहां बीमारियों को लेकर चर्चा जरूर  होती है।  कभी कभी तो लगता है कि सिवाय बीमारियों पर चर्चा को लेकर उनके पास दूसरा कोई विषय नहीं है।  इतना ही नहीं कुछ लोग राजनीतिक विषय पर बात करते हुए बीमारियों पर बात करने लगते हैं।

                        चलते चलते लोग एक दूसरे को टोकने लगते हैं-‘‘आपने शुगर चेक कराई।’’

                        अगर कोई जवाब दे नहीं तो फिर उससे कहा जाता है कि हर महीने चेक कराया करो। आजकल बीमारियों का पता नहीं चलता। अमुक आदमी की मधुमेह से किडनी खराब हो गयी अमुक का लीवर फट गया।  इस प्रकार के ब्रह्मवाक्य सुनने को मिलते है।  जिनको डायबिटीज है उनके लिये हमराही बहुत सारे हो जाते हैं। कभी कभी तो लगता है कि बीमार लोग अपने चिकित्सक से अधिक  जानते हैं।  अगर अध्यात्मिक दृष्टि से कहें तो क्षेत्रज्ञ वही है जो बीमार्री झेल रहा है।

                        उस दिन हम शहर के एक बड़े पार्क घूमने गये। वहां पर एक पुराने परिचित मिल गये। उनका घर पास ही था इसलिये वहां अक्सर वह शाम को आते थे।  हमें देखकर उन्होंने हालचाल पूछे और बताने लगे कि उनका कुछ दिन पहले ही पथरी का आपरेशन हुआ है।

                        हमने पूछा-‘‘आपकी अब तबियत कैसी है?’’

                        वह तपाक से बोले-‘‘अब तो बढ़िया है।  मैंने अपना इलाज जिस डाक्टर से कराया वह बहुत बड़ा विशेषज्ञ है। उसका निजी अस्पताल भी जोरदार है। एकदम स्वर्ग जैसा।  उसकी दवाओं ने अमृत जैसा काम किया। पैसा हमारा जरूर खर्च किया पर लगता है कि स्वर्ग भोगकर लौटे हैं। अब तो सावधानी रखनी है। डाक्टर ने बताया कि अगर अब तबियत बिगड़ी तो किडनी निकालनी पड़ेगी।’’

                        हमने कहा-‘‘हां, आप अब सावधानी रखा करें।

                        वह बोले-‘‘आप भी अपना चेकअप करा लो। खासतौर से पथरी का पता जरूर करो।  इसका शुरु में पता नहीं चलता अगर चेकअप करा लें तो बुरा नहीं है। अगर पहले ही पता लग जाये तो बिना आपरेशन के ठीक हो जाओगे।’’

                        हमने कहा-‘‘हां, हम करा लेंगे।

                        वह बोले-‘‘डायबिटीज का भी चेकअप करा लो।  ऐसा क्यों नहीं करते, हमारे वाले चिकित्सक के पास जाकर सारे टेस्ट करा लो। उनके सामने मेरा नाम लेना। अब मेरी उस डाक्टर से दोस्ती हो गयी है।’’

                        उन्होंने उस चिकित्सक की ढेंर सारी प्रशंसा की गोया कि इस धरती पर विचरने वाले कोई देवता हों। वैसे हमारे यहां कहा जाता है कि डाक्टर भगवान का रूप है।  हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर सवाल यह है कि यह डाक्टर लोग अपनी अमृतमय दवायें लिखकर वाहवाही तेा बटोरते हैं साथ में परहेज रखने की हिदायत भी देते हैं। ऐसे में हम जैसे क्षेत्र ज्ञान साधक के लिये यह समझना कठिन होता है कि मरीज दवा से ठीक होता है या परहेज से उसका स्वास्थ्य पूर्ववत होता है। अगर दवा से ठीक होता है तो परहेज क्यों बताते हैं, और परहेज से ठीक होता है तो फिर दवा की जरूरत क्या है?

                        कहा जाता है कि कम खाओ, गम खाओ, हमेशा स्वास्थ्य पाओ। हमारी पुरावनी कहावतें और मुहावरे अनेक रहस्यमय बातें एक पंक्ति में कह जाते हैं।  वैसे भी कहा जाता है कि हमारे देश में भुखमरी है पर फिर भी लोग यहां भूख से कम मरते हैं जबकि अधिक खाकर दुःख उठाने वालों की संख्या अधिक होती है।

                        उस दिन मधुमेह का एक पर्चा देखा। उसमें बकायदा बीमारों के लिये मीनू लिखा हुआ था। यह खायें, यह कभी नहीं और यह कभी कभी कम मात्रा में खायें।  हमारे सामने एक महिला दूसरी महिला को यह मीनू नोट करवा रही थी।  दोनों को ही मधुमेह ने घेर रखा था और बातचीत में एक दूसरे को वह अपना अनुभव सुना रही थीं।  जब बीमारी की चर्चा हो तो चिकित्सालय, चिकित्सक, दवायें और खान पान की चर्चा न हो यह संभव नहीं है। अमुक चिकित्सक ज्यादा होशियार है अमुक कम अनुभवी है। उसकी दवा लगती है उसकी नहीं।  जिस तरह फलों का आम और  सब्जियों का आलू राजा होता है उसी तरह मधुमेह उस बीमारी का नाम है जो बीमारियों की रानी है।

                        बहरहाल अगर आप स्वस्थ हों तो भी अपने से मिलने जुलने वालों के सामने इसकी चर्चा न करें।  डायबिटीज, एसिडिटी, उच्च रक्तचाप, और थाइराइड के शिकार लोगों की संख्या इतनी अधिक है कि अब स्वस्थ लोगों को ढूंढना पड़ता है।  ऐसे में अगर बीमारी का शिकार कोई मिल जाये तो उसके सामने कभी अपने स्वास्थ्य का बखान न करें। जब किसी बीमार को पता लगता है कि अमुक आदमी बड़ी आयु होने पर भी स्वस्थ है तो वह उसे जांच की सलाह देता है।  अगर कोई योग साधना या प्रातःकाल घूमता है तो भी बीमार लोग उससे कहते हैं कि घूमने से कुछ नहीं होता। बीमारियों का पता नहीं चलता। जांच कराया करो।

                        अगर आप स्वस्थ दिख रहे हैं और बीमारों के सामने यह दावा  करते हैं कि आपको कोई बीमारी नहीं है तो पूछा जायेगा कि आपने चेकअप कराया है।

                        आप कहेंगे नहीं तो नाकभौं सिकोड़ कर कहा जायेगा‘-ऊंह, फिर यह दावा कैसे कर रहे हो कि तुम स्वस्थ हो।’’

                        वहां अपने व्यायाम, सैर सपाटे या योगसाधना की चर्चा न करें वरना ऐसे लोगों की सूची भी बतायी जायेगी जो यह सब करते हुए भी बीमार हों।  यह अलग बात है कि ऐसे बीमार नियम से यह नहीं करते पर दावा यही करते है जिसका प्रचार दूसरे बीमार यह साबित करने के लिये करते हैं कि उन बीमारियों से बचना कठिन है।

                        वैसे भी हमारे चाणक्य महाराज कहते हैं कि अपना धन तथा स्वास्थ्य छिपाकर रखना चाहिये।  इसका सीधा मतलब यही है कि  धन पर किसी दुष्ट की नजर पड़ गयी तो वह वक्रदृष्टि डालेगा और अगर स्वास्थ्य कि चर्चा आप किसी बीमार के सामने करते हैं तो  आह भरते हुए मन ही मन कह सकता है कि हे भगवान, इसे भी मेरी वाली बीमारी लग जाये  कहा भी जाता है कि गरीब और बेबस की आह लग जाती है।  अगर कोई कहे कि अस्पताल में स्वर्ग, डाक्टर में देवता, दवा में अमृत और गोलियों में शहद बसता है तो मान लीजिये। यह जीवन में सहज बने रहने का एक सबसे बेहतर उपाय है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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शराब न खुशी बढाती न गम घटाती-हिंदी व्यंग्य कविता


हर रात की तरह आज भी

महफिलों में जाम छलकेंगे,

कुछ लोग मदहोशी में खामोश होंगे,

कुछ अपना मुद्दा उठाकर भड़केंगे,

जाम के पैमाने का हिसाब पीने वाले नहीं रखते

चढ़ गया नशा उनके दिमाग भी बहकेंगे।

कहें दीपक बापू

कमबख्त! शराब चीज क्या है

कोई समझ नहीं पाया,

जिसने नहीं पी वह रहा उदास

जिसने पी वह भी अपने दर्द का

पक्का इलाज नहीं कर पाया,

शराब न खुशी बढ़ाती है,

न गम कभी घटाती है,

छोड़ गयी हमें फिर भी उसके कायल हैं,

अपने घाव कभी नहीं भूलते, ऐसे हम भी घायल हैं,

सच यह है कि शराब का नशा एक भ्रम है,

नशा हो या न हो

इंसान के जज़्बातों के बहने का तय क्रम है,

पीकर कोई अपने नरक में

स्वर्ग के अहसास करे यह संभव है

मगर जिसने नहीं पी

वह भी नरक के अहसास भुला नहीं पाते,

शराब का तो बस नाम है

इंसान अपने जज़्बातों में यूं ही बह जाते,

अपने दर्द का इलाज इंसान क्या करेगा

अपने घाव की समझ नहीं दवा क्या भरेगा,

अलबत्ता, रात में खामोशी बढ़ती जायेगी

बस, पीने वाले ही नशे में नहाकर गरजेंगे।

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लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
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खूबसूरत और डरावने चेहरे-हिंदी व्यंग्य कविता


सामने पर्दे पर खबरची टीवी पर

खबरें ही खबरें चल रही हैं,

देखते रहो तो मानस रोऐगा

यह मानकर गोया कि पूरी दुनियां में

आग ही आग जल रही है,

अरे, जल्दी रात को सो जाओ

कुछ खूबसूरत कुछ डरावने सपने

आने को तैयार खड़े हैं

पथराई आंखें खोले बैठे हो

जिनमें नींद करवट बदल रही है।

कहें दीपक बापू

खबरे पहले से आयोजित,

बहसें हैं प्रायोजित,

कपड़े पहने घूमती नारियों की मर्यादा

कभी बाज़ार में बेचने की शय नहीं होती

पर्दे की नायिकायें बनती वही

जो कपड़ों से बाहर झांकते अंगों वाली

तस्वीर में ढल रही हैं,

खबर दर खबर से ज़माना सुधर जायेगा

यह आसरा देते प्रचार के प्रबंधक,

जिनकी नौकरी है बाज़ार के सौदागरों के यहां बंधक,

भूखे को रोटी देने की बजाय

वह उसकी खबर पकायेंगे,

शीतल हवा क्या वह बहायेंगे,

जिनके खाने की  पुड़ी

देशी घी से भरी कड़ाई में

आग पर तल रही है।

—————————

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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सम्मान का पाखंड-हिंदी व्यंग्य कविता


 

दौलत के भंडार है उनके घर

 

पर जिस्म में ताकतवर जान नहीं है,

 

महापुरुषों की  तस्वीरों पर

 

चढ़ाते हैं दिखावे के लिये  माला

 

पर दिल में उनके लिये मान नहीं है,

 

सारे जहान में फैला है पाखंड

 

दिखना चाहते हैं शानदार वह लोग

 

जिनकी आंखों में किसी की शान नहीं है।

 

कहें दीपक बापू

 

मजदूर ने तराशा जिस पत्थर को

 

अपनी पसीने से तराशा

 

बन गया भगवान,

 

पड़ा रहा जो रास्ते पर

 

बना रहा दुनियां में अनजान,

 

जिनके पेट भरे हैं

 

उनकी चिंता सभी करते हैं

 

परिश्रम करने वालों को पूरी रोटी मिले

 

इससे आंखें फेरते है

 

स्वर्ग की चिंता में जिंदगी

 

दाव पर लगाते हैं लोग

 

जिसका किसी को ज्ञान नहीं है,

 

दिवंगतों की तस्वीर के  आगे सिर झुकाते लोग

 

शोकाकुल सुरत से श्रद्धा निभाते

 

भले ही उनकी बनती  शान नहीं है।

 

————–

 

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

 

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

 

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

 

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दौलत के भंडार है उनके घर

 

पर जिस्म में ताकतवर जान नहीं है,

 

महापुरुषों की  तस्वीरों पर

 

चढ़ाते हैं दिखावे के लिये  माला

 

पर दिल में उनके लिये मान नहीं है,

 

सारे जहान में फैला है पाखंड

 

दिखना चाहते हैं शानदार वह लोग

 

जिनकी आंखों में किसी की शान नहीं है।

 

कहें दीपक बापू

 

मजदूर ने तराशा जिस पत्थर को

 

अपनी पसीने से तराशा

 

बन गया भगवान,

 

पड़ा रहा जो रास्ते पर

 

बना रहा दुनियां में अनजान,

 

जिनके पेट भरे हैं

 

उनकी चिंता सभी करते हैं

 

परिश्रम करने वालों को पूरी रोटी मिले

 

इससे आंखें फेरते है

 

स्वर्ग की चिंता में जिंदगी

 

दाव पर लगाते हैं लोग

 

जिसका किसी को ज्ञान नहीं है,

 

दिवंगतों की तस्वीर के  आगे सिर झुकाते लोग

 

शोकाकुल सुरत से श्रद्धा निभाते

 

भले ही उनकी बनती  शान नहीं है।

 

————–

 

 लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

 

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

 

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हिंदी दिवस पर व्यंग्य कविता-अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है


14 सितंबर हिन्दी दिवस के बहाने,

राष्ट्रभाषा का महत्व मंचों पर चढ़कर

बयान करेंगे

अंग्रेजी के सयानो।

कहें दीपक बापू

अंग्रेजी में रंगी जिनकी जबान,

अंग्रेजियत की बनाई जिन्होंने पहचान,

हर बार की तरह

साल में एक बार

हिन्दी का नाम जपते नज़र आयेंगे।

लिखें और बोलें जो लोग हिन्दी में

श्रोताओं और दर्शकों की भीड़ में

भेड़ों की तरह खड़े नज़र आयेंगे,

विद्वता का खिताब होने के लिये

अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है

वरना सभी गंवार समझे जायेंगे,

गुलामी का खून जिनकी रगों में दौड़ रहा है

वही आजादी की मशाल जलाते हैं

वही लोग हमेशा की तरह हिन्दी भाषा के  महत्व पर

एक दिन रौशनी डालने आयेंगे।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर

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सूरज की रौशनी में रंग फीके हो जाते हैं-हिंदी व्यंग्य कविता


रोज पर्दे पर देखकर उनके चेहरे

मन उकता जाता है,

जब तक दूर थे आंखों से

तब तक उनकी ऊंची अदाओं का दिल में ख्वाब था,

दूर के ढोल की तरह उनका रुआब था,

अब देखकर उनकी बेढंगी चाल,

चरित्र पर काले धब्बे देखकर होता है मलाल,

अपने प्रचार की भूख से बेहाल

लोगों का असली रूप  बाहर आ ही जाता है।

कहें दीपक बापू

बाज़ार के सौदागर

हर जगह बैठा देते हैं अपने बुत

इंसानों की तरह जो चलते नज़र आते हैं,

चौराहों पर हर जगह लगी तस्वीर

सूरज की रौशनी में

रंग फीके हो ही जाते हैं,

मुख से बोलना है उनको रोज बोल,

नहीं कर सकते हर शब्द की तोल,

मालिक के इशारे पर उनको  कदम बढ़ाना है,

कभी झुकना तो कभी इतराना है,

इंसानों की आंखों में रोज चमकने की उनकी चाहत

जगा देती है आम इंसान के दिमाग की रौशनी

कभी कभी कोई हमाम में खड़े

वस्त्रहीन चेहरों पर नज़र डाल ही जाता है,

एक झूठ सौ बार बोलो

संभव है सच लगने लगे

मगर चेहरों की असलियत का राज

यूं ही नहीं छिप पाता है।

——————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष हिन्दी लेख-श्रीगीता के सृजक को कोटि कोटि नमन


                        आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है।  भारत में धर्मभीरु लोगों के लिये यह उल्लास का दिन है।  इसमें कोई संशय नहीं है कि मनुष्य में मर्यादा का सर्वोत्तम स्तर का मानक जहां भगवान श्रीराम ने स्थापित किया वहीं भगवान श्रीकृष्ण ने अध्यात्मिक ज्ञान के उस स्वर्णिम रूप से परिचय कराया जो वास्तविक रूप से मनुष्यता की पहचान है। भोजन और भोग का भाव सभी जीवो में समान होता है पर बुद्धि की अधिकता के कारण मनुष्य तमाम तरह के नये प्रयोग करने में ंसक्षम है बशर्ते वह उसके उपयोग करने का तरीका जानता हो।  भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में मनुष्य को बुद्धि पर नियंत्रण करने की कला बताई है। आखिर उन्होंने इसकी आवश्यकता क्यों अनुभव की होगी? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य का मन उसकी बुद्धि से अधिक तीक्ष्ण है।  बुद्धि की अपेक्षा  से कहीं उसकी गति तीव्र है।  सबसे बड़ी बात मनुष्य पर उसके मन का  ही नियंत्रण है।  ज्ञान के अभाव में मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग मन के अनुसार करता है पर जिसने श्रीगीता का अध्ययन कर लिया वह बुद्धि से ही मन पर नियंत्रण कर सफलतापूर्वक जीवन व्यतीत करता है। वही ब्रह्मज्ञानी है।

                        चंचल मन मनुष्य को इधर से उधर भगाता है। बेकाबू मन के दबाव में मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग केवल उसी के अनुसार करता है। बुद्धि की चेतना उस समय तक सुप्तावस्था में रहती है जब तक मन उस पर अधिकार जमाये रहता है।  ऐसे में जो मनुष्य सांसरिक विषयों में सिद्धहस्त हैं वह सामान्य मनुष्य को भेड़ की तरह भीड़ बनाकर हांकते हुए चले जाते हैं।  सामान्य मनुष्य समाज की सोच का स्तर इसी कारण इतना नीचा रहता है कि वह अधिक भीड़ एकत्रित करने वाले सांसरिक विषयों में  प्रवीण लोगों को ही सिद्ध मानने लगता है।

                        इस देश में अध्यात्मिक ज्ञान और धार्मिक कर्मकांडों का अंतर नहीं किया गया।  जिस हिन्दू धर्म की हम बात करते हैं उसके सभी प्रमाणिक ग्रंथों में  कहीं भी इस नाम से नहीं पुकारा गया। कहा जाता है कि प्राचीन धर्म सनातन नाम से जाना जाता था पर इसका उल्लेख भी प्रसिद्ध ग्रंथों में नहंी मिलता। दरअसल इन ग्रंथों में आचरण को ही धर्म का प्रमाण माना गया हैं।  इस आचरण के सिद्धांतों को धारण करना ही अध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है।  हमारी देह पंच तत्वों से बनी है जिसमें मन, बुद्धि तथा अहंकार तीन प्रवृत्तियां स्वाभाविक रूप से आती हैं। हम अपने ही मन, बुद्धि तथा अहंकार के चक्रव्यूह में फंसी देह को धारण करने वाले अध्यात्म को नहीं पहचानते। अपनी ही पहचान को तरसता अध्यात्म यानि आत्मा जब त्रस्त हो उठता है और पूरी देह कांपने लगती है पर ज्ञान के अभाव में यह समझना कठिन है-यदि ज्ञान हो तो फिर ऐसी स्थिति आती भी नहीं।  यह ज्ञान कोई गुरु ही दे सकता है यही कारण है कि गुरु सेवा को श्रीगीता में बखान किया है।  समस्या यह है कि अध्यात्मिक गुरु किसी धर्म के बाज़ार में अपना ज्ञान बेचते हुए नहीं मिलते। जिन लोगों ने धर्म के नाम पर बाज़ार सजा रखा है उनके पास ज्ञान के नारे तो हैं पर उसका सही अर्थ से वह स्वयं अवगत नहीं है। 

                        हमारे देश में धार्मिक गुरुओं की भरमार है। अधिकतर गुरु आश्रमों के नाम पर संपत्ति तथा गुरुपद प्रतिष्ठित होने के लिये शिष्यों का संचय करते हैं।  गुरु सेवा का अर्थ वह इतना ही मानते हैं कि शिष्य उनके आश्रमों की परिक्रमा करते रहें।  श्रीकृष्ण जी ने गुरुसेवा की जो बात की है वह केवल ज्ञानार्जन तक के लिये ही कही है। शास्त्र मानते हैं कि ज्ञानार्जन के दौरान गुरु की सेवा करने से न केवल धर्म निर्वाह होता है वरन् उनकी शिक्षा से सिद्धि भी मिलती है।  यह ज्ञान भी शैक्षणिक काल में ही दिया जाना चाहिये।  जबकि हमारे वर्तमान गुरु अपने साथ शिष्यों को बुढ़ापे तक चिपकाये रहते हैं।  हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के दिन यह गुरु अपने आश्रम दुकान की तरह सजाते हैं।  उस समय धर्म कितना निभाया जाता है पर इतना तय है कि अध्यात्म ज्ञान का विषय उनके कार्यक्रमों से असंबद्ध लगता है।  शुद्ध रूप से बाज़ार के सिद्धांतों पर आधारित ऐसे धार्मिक कार्यक्रम केवल सांसरिक विषयों से संबद्ध होते हैं। नृत्य संगीत तथा कथाओं में सांसरिक मनोरंजन तो होता है  पर अध्यात्म की शांति नहीं मिल सकती।  सीधी बात कहें तो ऐसे गुरु सांसरिक विषयों के महारथी हैं।  यह अलग बात है कि उनके शिष्य इसी से ही प्रसन्न रहते हैं कि उनका कोई गुरु है।

                        हमारे देश में श्रीकृष्ण के बालस्वरूप का प्रचार ऐसे पेशेवर गुरु अवश्य करते हैं। अनेक गुरु तो ऐसे भी हैं जो राधा का स्वांग कर श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं।  कुछ गुरु तो राधा के साथ श्याम के नाम का गान करते हैं।  वृंदावन की गलियों का स्मरण करते हैं। महाभारत युद्ध में श्रीमद्भावगत गीता की स्थापना करने वाले उन भगवान श्रीकृष्ण को कौन याद करता है? वही अध्यात्मिक ज्ञानी तथा साधक जिन्होंने गुरु न मिलने पर भगवान श्रीकृष्ण को ही गुरु मानकर श्रीमद्भागवत के अमृत वचनों का रस लिया है, उनका स्मरण मन ही मन करते हैं। उन्होंनें महाभारत युद्ध में हथियार न उठाने का संकल्प लिया पर जब अर्जुन संकट में थे तो चक्र लेकर भीष्म पितामह को मारने दौड़े।  उस घटना को छोड़कर वह पूरा समय रक्तरंजित हो रहे कुरुक्षेत्र के मैदान में कष्ट झेलते रहे। एक अध्यात्मिक ज्ञानी के लिये ऐसी स्थिति में खड़े रहने की सोचना भी कठिन है पर भगवान श्रीकृष्ण ने उस कष्ट को उठाया।  उनका एक ही लक्ष्य था अध्यात्मिक ज्ञान की प्रक्रिया से धर्म की स्थापना करना। यह अलग बात है कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर गीता की चर्चा करने की बजाय  उनके बालस्वरूप और लीलाओं पर ध्यान देकर भक्तों की भीड़ एकत्रित करना पेशेवर धार्मिक व्यक्तित्व के स्वामी भीड़ को एकत्रित करना सुविधाजनक मानते हैं।

                        जैसे जैसे आदमी श्रीगीता की साधना की तरफ बढ़ता है वह आत्मप्रचार की भूख से परे होता जाता है। वह अपना ज्ञान बघारने की बजाय उसके साथ जीना चाहता है। न पूछा जाये तो वह उसका ज्ञान भी नहीं देगा। सम्मान की चाहत न होने के कारण वह स्वयं को ज्ञानी भी नहीं कहलाना चाहता। सबसे बड़ी बात वह भीड़ एकत्रित नहीं करेगा क्योंकि जानता है कि इस संसार में सभी का ज्ञानी होना कठिन है।  भीड़ पैसे के साथ प्रसिद्धि दिला सकती है मगर वह  सिद्धि जो उद्धार करती है वह एकांत में ही मिलना संभव है।  गुरु न मिले तो ज्ञान चर्चा से भी अध्यात्म का विकास होता है। श्रीमद्भागवत गीता के संदेश तथा भगवान श्रीकृष्ण का चरित्र भारतीय धरती की अनमोल धरोहर है।  भारतीय धरा को ऐसी महान विरासत देने वाले श्रीकृष्ण के बारे में लिखते या बोलते  हुए अगर होठों पर मुस्कराहट की अनुभूति हो रही हो तो यह मानना चाहिये कि यह उनके रूप स्मरण का लाभ मिलना प्रारंभ हो गया है। ऐसे परमात्मा स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को कोटि कोटि नमन!

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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