Tag Archives: hindi diwas

स्वर्ग व मोक्ष का दृश्यव्य रूप नहीं-हिन्दी लेख


                                   हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम फैलाये गये हैं। खासतौर से स्वर्ग और मोक्ष के नाम पर ऐसे प्रचारित किये गये हैं जैसे वह  देह त्यागने के बाद ही प्राप्त होते हैें।  श्रीमद्भागवतगीता के संदेशों का सीधी अर्थ समझें तो यही है कि जब तक देह है तभी तक इंसान अपने जीवन में स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर सकता है। देह के बाद कोई जीवन है, इसे हमारा अध्यात्मिक दर्शन मनुष्य की सोच पर छोड़ता है। अगर माने तो ठीक न माने तो भी ठीक पर उसे अपनी इस देह में स्थित तत्वों को बेहतर उपयोग करने के लिये योग तथा भक्ति के माध्यम से प्रयास करने चाहिये-यही हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मानना है।

अष्टावक्र गीता में कहा गया है कि

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मोक्षस्य न हि वासीऽस्ति न ग्राम्यान्तरमेव वा।

अज्ञानहृदयग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः।।

                                   हिन्दी में भावार्थ-मोक्ष का किसी लोक, गृह या ग्राम में निवास नहीं है किन्तु अज्ञानरूपी हृदयग्रंथि का नाश मोक्ष कहा गया है।

                                   जिस व्यक्ति को अपना जीवन सहजता, सरलता और आनंद से बिताना हो वह विषयों से वहीं तक संपर्क जहां तक उसकी दैहिक आवश्यकता पूरी होती है।  उससे अधिक चिंत्तन करने पर उसे कोई लाभ नहीं होता।  अगर अपनी आवश्यकताआयें सीमित रखें तथा अन्य लोगों से ईर्ष्या न करें तो स्वर्ग का आभास इस धरती पर ही किया जा सकता है। यही स्थिति मोक्ष की भी है।  जब मनुष्य संसार के विषयों से उदासीन होकर ध्यान या भक्ति में लीन में होने मोक्ष की स्थिति प्राप्त कर लेता है।  सीधी बात कहें तो लोक मेें देह रहते ही स्वर्ग तथा मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जाती है-परलोक की बात कोई नहीं जानता।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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लोगों से मन की बात कहने और सुनने से बढ़ती है लोकप्रियता-कौटिल्य का अर्थशास्त्र


                                   एक अमेरिकी अनुसंधान संस्था के अनुसार भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अभी भी बरकरार है। इस पर अनेक लोगों को हैरानी होती है। आमतौर से राजसी कर्म में लगे लोगों की लोकप्रियता समय के साथ गिरती जाती है जबकि श्रीनरेंद्रमोदी के मामले में यह लक्षण अभी तक नहीं देखा गया। अनुसंधान संस्था ने इस लोकप्रियता में निरंतरता के कारकों का पता नहीं लगाया पर हम जैसे अध्यात्मिक साधकों के लिये यह लोकप्रियता जनता से नियमित संवाद के कारण बनी हुई है।  खासतौर से वह नियमित रूप से रेडियो के माध्यम से जो मन की बात करते हैं उससे आमजन से उनकी करीबी अभी भी बनी हुई है।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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वार्ता प्रजा सधयन्ति वार्त वै लोक संश्रय।

प्रजायां व्यसनस्थायां न किञ्चिदपि सिध्यति।।

हिन्दी में भावार्थ-वार्ता ही प्रजा को साधती है, वार्ता ही लोक को आश्रित करती है। यदि व्यसनी हो जाये तो कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता।

                                   राजसी कर्म एक ऐसा विषय है जिसमें सभी को एक साथ प्रसन्न नहीं रखा जा सकता है।  लोग आशा रखते हैं किसी की पूरी होती तो किसी को निराशा हाथ आती है।  ऐसी स्थिति से निपटने का एक ही उपाय रहता है कि गुड़ न दे तो गुड़ जैसी बात दे।  आमतौर जीवन निर्वाह के लिये राजसी कर्म करना ही पड़ता है। हर व्यक्ति अपने परिवार, समाज, या सार्वजनिक जीवन में राजसी पद पर होता ही है। ऐसे में उसे अपने पर आश्रित लोगों के साथ सदैव वार्ता करते रहना चाहिये।  किसी को उसकी सफलता पर बधाई तो देना चाहिये पर निराश व्यक्ति का भी मनोबल बढ़ाना भी आवश्यक है।  मनुष्य अपनी वाणी से न केवल अपने बल्कि दूसरे के भी काम सिद्ध कर सकता है पर अगर वह व्यसनी हो जाये तो सारे प्रयास निरर्थक हो जाते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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राज्य प्रबंध में कुशल प्रबंध की आवश्यकता-हिन्दी लेख


                                   किसी जाति, भाषा या धर्म के लोगों को सरकारी सेवाओें में आरक्षण दिलाने के नाम पर आंदोलनकारी लोग कभी अपने अपने समाज के नेताओं से यह पूछें कि ‘क्या वास्तव में देश के सरकारी क्षेत्र  उनके लिये नौकरियां कितनी हैं? सरकार में नौकरियों पहले की तरह मिलना क्या फिर पहले की तरह तेजी से होंगी? क्या सभी लोगों को नौकरी मिल जायेगी।

                                   सच बात यह है कि सरकारी क्षेत्र के हिस्से का बहुत काम निजी क्षेत्र भी कर रहा है इसलिये स्थाई कर्मचारियों की संख्या कम होती जा रही है।  सरकारी पद पहले की अपेक्षा कम होते जा रहे हैं। इस कमी का प्रभाव अनारक्षित तथा आरक्षित दोनों पदों पर समान रूप से हो रहा है।  ऐसे में अनेक जातीय नेता अपने समुदायों को आरक्षण का सपना दिखाकर धोखा दे रहे हैं।  समस्या यह है कि सरकारी कर्मचारियों के बारे में लोगों की धारणायें इस तरह की है उनकी बात कोई सुनता नहीं।  पद कम होने के बारे में वह क्या सोचते हैं यह न कोई उनसे पूछता है वह बता पाते है।  यह सवाल  सभी करते भी हैं कि सरकारी पद कम हो रहे हैं तब इस  तरह के आरक्षण आंदोलन का मतलब क्या है?

                                   हैरानी की बात है कि अनेक आंदोलनकारी नेता अपनी तुलना भगतसिंह से करते है।  कमाल है गुंलामी (नौकरी) में भीख के अधिकार (आरक्षण) जैसी मांग और अपनी तुलना भगतसिंह से कर रहे हैं। भारत में सभी समुदायों के लोग शादी के समय स्वयं को सभ्रांत कहते हुए नहीं थकते  और मौका पड़ते ही स्वयं को पिछड़ा बताने लगते हैं।

             हमारा मानना है कि अगर देश का विकास चाहते हैं तो सरकारी सेवाओं में व्याप्त अकुशल प्रबंध की समस्या से निजात के लिय में कुशलता का आरक्षण होना चाहिये। राज्य प्रबंध जनोन्मुखी होने के साथ दिखना भी चाहिये वरना जातीय भाषाई तथा धार्मिक समूहों के नेता जनअसंतोष का लाभ उठाकर उसे संकट में डालते हैं। राज्य प्रबंध की अलोकप्रियता का लाभ उठाने के लिये जातीय आरक्षण की बात कर चुनावी राजनीति का गणित बनाने वाले नेता उग आते हैं। जातीय आरक्षण आंदोलन जनमानस का ध्यान अन्य समस्याओं से बांटने के लिये प्रायोजित किये लगते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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हिंदी भाषा का महत्व उसमें अध्यात्म तत्त्व होने के कारण – हिंदी दिवस पर विशेष लेख


         अंतर्जाल पर हिन्दी दिवस को लेकर जमकर खोज हो रही है।  इस लेखक के ब्लॉगों जिन पाठों में हिन्दी दिवस के विषय पर लिखा गया है उन पर पाठकों की संख्या पहले से इन दिनों  छह गुना अधिक है।  इसका मतलब यह है कि पूरे वर्ष में    कम से कम एक दिन तो ऐसा है जब बौद्धिक प्रवृत्ति के लोगों को हिन्दी की याद आती है। कौन लोग हैं जो सर्च इंजिनों में हिन्दी दिवस से से जुड़े शब्द डालकर इससे संबंधित पाठ खोज रहे होंगे?
     एक बात तय है कि अभी इंटरनेट पर हिन्दी जनसामान्य में लोकप्रिय नहीं है। नयी पीढ़ी के लोग तथा कंप्यूटर के जानकार बौद्धिक व्यक्ति ही यह खोज कर रहे होंगें।  नयी पीढ़ी में वह लोग हैं जिनको शायद हिन्दी दिवस पर अपनी शैक्षणिक संस्थानों के अलावा हिन्दी में अनुदान प्राप्त संघों के यहां  होने वाली निबंध,कहानी, कविता अथवा वाद विवाद प्रतियोगिताओं मे भाग लेना हो। इसलिये  यहां से कुछ प्रेरणा प्राप्त करना चाहते हो।  इसके अलावा कुछ बौद्धिक लोगों को समाचार पत्रपत्रिकाओं के लिये लेख लिखने अथवा राजकीय धन से आयोजित परिचर्चा या भाषण देने के लिये कोई नयी सामग्री की तलाश हो।  वह भी शायद इंटरनेट पर कुछ खोज रहे हों।  इसी कारण इस लेखक को अपने पाठ पढ़ने का दोबारा अवसर मिल रहा है।
         उन लेखों से कोई प्रेरणादायी सामग्री मिल सकती है यह भ्रम लेखक नहीं पालता।  दरअसल हिन्दी के महत्व पर लिखे गये एक लेख पर अनेक टिप्पणीकार यह लिख चुके हैं कि आपने उसमें असली बात नहीं लिखी।  विस्तार से हिन्दी का महत्व बतायें।  इस बात पर हैरानी होती है कि हिन्दी का महत्व अभी भी समझाना बाकी है।  इस लेखक का विश्वास है कि हिन्दी दिवस पर लिखे गये पाठों वाले ब्लॉग इस समय किसी भी हिन्दी वेबसाइट या ब्लॉग  से अधिक पाठक जुटा रहे हैं।  शिनी स्टेटस में साहित्य वर्ग में एक ब्लॉग अंग्रेजी ब्लॉगों को पार करता हुआ तीन नंबर के स्थान में पहुंच गया है। कल इसके एक नंबर पर पहुँचने की संभावना है।  इस वर्ग के पंद्रह ब्लॉग में तीन  इस लेखक के हैं। मनोरंजन के अन्य वर्ग में एक ब्लॉग पंद्रहवें नंबर पर है। 14 सितंबर को हिन्दी दिवस है और 13 सितंबर वह दिन है जब इस लेखक के अनेक ब्लॉग अपनी पिछली संख्या का कीर्तिमान पार करेंगे। यह संख्या एक दिन में ढाई से तीन हजार होगी।
    हिन्दी का महत्व क्या बतायें? यह रोटी देने वाली भाषा नहीं है।  अगर प्रबंध कौशल में दक्ष नही है तो इसमें लिखकर कहीं सम्मान वगैरह की आशा करना भी व्यर्थ है।  फिर सवाल पूछा जायेगा कि इसका महत्व क्या है?

इसका हम संक्षिप्त जवाब भी देते हैं।  अनेक भाषाओ का ज्ञान रखना अच्छी बात है पर जिस भाषा में सोचते हैं अभिव्यक्ति के लिये वही भाषा श्रेयस्कर है।  फेसबुक पर नयी पीढ़ी के लोगों को देखकर तरस आता है।  वह हिन्दी में सोचते हैं-यह प्रमाण रोमनलिपि में उनकी हिन्दी देखकर लगता है- मगर प्रस्तुति के  समय वह हकला जाते हैं।  हिन्दी लिखने के ढेर सारे टूल उनके पास है वह इसका उपयोग नहीं जानते। जानते हैं तो कट पेस्ट में समय खराब करना उनको अच्छा नहीं लगता।  उनका लिखा हमें हकलाते हुए पढ़ना पढ़ता है।  तय बात है कि वह लिखते हुए समय बचाते हैं पर जब दूसरे का लिखा  पढ़ने का समय आता है तो उनका दिमाग भी लिखे गये विषय को हकलाते हुए पकड़ता है।  कुछ लोग अंग्रेजी में लिखते हैं पर पढ़ते समय साफ लगता है कि उनके मन का विचार हिन्दी में है। हिन्दी भाषा अध्यात्म की भाषा है यह इस लेखक की मान्यता है।  जब हिन्दी में सोचकर अंग्रेजी भाषा या रोमन लिपि में लिखते हैं तो हकलाहट का आभास होता है।  भाषा का संबंध भूमि, भावना और भात यानि रोटी से है।  भारत में रोमन लिपि और अंग्रेजी भाषा की गेयता कभी पूरी तरह से निर्मित नहीं हो सकती।  इस सच्चाई को मानकर जो हिन्दी को अपने बोलचाल के साथ ही अपने जीवन में अध्यात्मिक रूप से उपयोग करेगा उसके व्यक्त्तिव में दृढ़ता, वाणी में शुद्धता और विचारों में पवित्रता का वास होगा।  यह तीनों चीजें अध्यात्मिक तथा भौतिक विकास दोनों में सहायक होती हैं।  अध्यात्मिक विकास की लोग सोचते नहीं है पर भौतिक विकास के पीछे सभी हैं।  कुछ लोग भौतिक संपन्नता प्राप्त भी करते हैं तो उसका सुख नहीं ले पाते।  सीधी मतलब यह है कि अध्यात्मिक शक्तियां ही भौतिक सुख दिलाने में सहायक हैं और इसी कारण हर भारतवासी को हिन्दी के साथ जुड़े रहना होगा।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kukreja “Bharatdeep”
Gwalior madhyapradesh
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,ग्वालियर मध्यप्रदेश
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आशिक खिलाड़ी-हिन्दी दिवस पर हास्य कविता (player and lover-comic poem on hindi diwas)


आशिक ने माशुका से कहा
‘तुम आज जाकर अपने माता पिता से
अपनी शादी की बात करना,
मेरी प्रशंसा का उनकी आंखों के सामने बहाना झरना,
उनको बताना
मेरा आशिक कई खेलों का खिलाड़ी है,
अपने प्रतिद्वंद्वियों की हालत उसने हमेशा बिगाड़ी है,
हॉकी में बहुत सारे गोल ठेलता है,
तो कुश्ती के लिये भी डंड पेलता है,
बहुत दूर तक भाला उछालता है,
तो बॉल भी उछल कर बॉस्केट में डालता है,
देखना वह खुश हो जायेंगे,
तब हम अपनी शादी बनायेंगे।’

जवाब में माशुका बोली
‘‘मैंने उनको यह सब बताया था,
पर उनको खुश नहीं पाया था,
उन्होनें मुझे समझाया कि
‘खिलाड़ी नहायेगा क्या
निचोड़ेगा क्या,
जो क्रिकेट नहीं खेले वह खिलाड़ी कैसा,
पैसा न कमाये वह होता अनाड़ी जैसा,
अगर खेल प्रतियोगिता का ठेकेदार होता
तो बात कुछ बनती,
कहीं मैदान बनवाता तो कहीं खरीदता खेल का सामान
तब कमीशन लेने पर ही जिंदगी उसकी छनती,
हमने तो बड़े बड़े खिलाड़ियों को सोने का पदक
पीतल के भाव बेचते देखा है,
कईयों को ठेला खींचते भी देखा है,
खेलने में मज़दूरी जितनी कमाई,
भला किसके काम आई,
अगर हो कोई खेल प्रबंधक तो ही
रिश्ता मंजूर है,
वरना उसके लिये दिल्ली अभी दूर है,’
इसलिये तुम खेलना बंद करो,
या मुझे भूल जाओ,
कहीं अपनी जुगाड़ लगाओ
इतने सारे संगठन हैं
कहीं सचिव या अध्यक्ष पद पर कब्जा कर
बढ़ाओ अपना सामाजिक सम्मान,
नामा और मिले और नाम,
वरना अपने सपने अधूरे रह जायेंगे।’’
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिंदी दिवस:व्यंग्य कवितायें व आलेख (Hindi divas-vyangya kavitaen aur lekh)


लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
……………………………
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
……………………….
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप