Category Archives: कविता

आदमी और अहसास-हिन्दी चिंतन और कविता (admi aur ahsas-hindi lekh aur kaivta)


आदमी अपनी जिंदगी को अपने नज़रिये से जीना चाहता है पर जिंदगी का अपना फलासफा है। आदमी अपनी सोच के अनुसार अपनी जिंदगी के कार्यक्रम बनाता है कुछ उसकी योजनानुसार पूर्ण होते हैं कुछ नहीं। वह अनेक लोगों से समय समय पर अपेक्षायें करता है उनमें कुछ उसकी कसौटी पर खरे उतरते हैं कुछ नहीं। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि संकट पर ऐसा आदमी काम आता है जिससे अपेक्षा तक नहीं की जाती। कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी भी अनिश्तताओं का से भरी पड़ी है पर आदमी इसे निश्चिंतता से जीना चाहता है। बस यहीं से शुरु होता है उसका मानसिक द्वंद्व जो कालांतर में उसके संताप का कारण बनता है। अगर आदमी यह समझ ले कि उसका जीवन एक बहता दरिया की तरह चलेगा तो उसका तनाव कम हो सकता है। जीवन में हर पल संघर्ष करना ही है यही भाव केवल मानसिक शक्ति दे सकता है। इस पर प्रस्तुत हैं कुछ काव्यात्मक पंक्तियां-
खुद तरसे हैं
जो दौलत और इज्जत पाने के लिये
उनसे उम्मीद करना है बेकार।
तय कोई नहीं पैमाना किया
उन्होंने अपनी ख्वाहिशों
और कामयाबी का
भर जाये कितना भी घर
दिल कभी नहीं भरता
इसलिये रहते हैं वह बेकरार।
————-
समंदर की लहरों जैसे
दिल उठता और गिरता है।
पर इंसान तो आकाश में
उड़ती जिंदगी में ही
मस्त दिखता है।
पांव तले जमीन खिसक भी सकती है
सपने सभी पूरे नहीं होते
जिंदगी का फलासफा
अपने अहसास कुछ अलग ही लिखता है।
—————————–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

युद्ध और सत्संग-व्यंग्य कविता



धर्म के लिए अब नहीं होता सत्संग
हर कोई लड़ रहा है, उसके नाम पर जंग.
किताबों के शब्द का सच
अब तलवार से बयान किया जाता
तय किये जाते हैं अब धार्मिक रंग.

एक ढूँढता दूसरे के किताब के दोष
ताकि बढ़ा सके वह ज़माने का रोष
दूसरा दिखाता पहले की किताब में
अतार्किक शब्दों का भंडार
जमाने के लिए अपना धर्म व्यापार
बयानों का है अपना अपना ढंग..

धर्म का मर्म कौन जानना चाहता है
जो किताबें पढ़कर उसे समझा जाए
पर उसके बिना भी नहीं जमता विद्वता का रंग,
इसलिए सभी ने गढ़ ली अपनी परिभाषाएं,
पहले बढ़ाते लोगों की अव्यक्त अभिलाषाएं,
फिर उपदेश बेचकर लाभ कमाएं,
इंसान चाहे कितने भी पत्थर जुटा ले
लोहे और लकडी के सामान भी
उसका पेट भर सकते हैं
पर मन में अव्यक्त भाव कहीं
व्यक्त होने के लिए तड़पता हैं
जिसका धर्म के साथ बड़ी सहजता से होता संग.
सब चीजों के तरह उसके भी सौदागर हैं
अव्यक्त को व्यक्त करने का आता जिनको ढंग..
कहीं वह कराते सत्संग
कहीं कराते जंग..
———————————-

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
————————————-

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

ख्वाब जब हकीकत बनते हैं-हिन्दी शायरी (khavab aur haqiqut-hindi shayri)


सपने जैसे शहर में
ख्वाब लगती उस इमारत की छत के नीचे
रौशनी की चमक से आंखें चुंधिया गयी हैं
फिर याद आती है
पीछे छोड़ आये उस शहर और घर की
जहां अंधेरे भी अक्सर आ जाते हैं।
राहें ऊबड़ खाबड़ है
गिरने का डर साथ लिये हर पल चलते जाते हैं
सपना जो सच बन कर सामने खड़ा है
फिर एक ख्वाब बन जायेगा
लौटकर कदम जाने हैं अपने शहर और घर
कितना अजीब है
अपना सच हमेशा साथ रहता है
चाहे भले ही सपनों की दुनियां में
सच होकर सामने आ जाये
ख्वाब जब हकीकत बनते हैं
तब भी पुरानी याद कहां छोड़ पाते हैं।
……………………..

कवि और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

भीड़ में गुलाम-व्यंग्य कविता (soch ke gulam-vyangya kavita)


हम यूं तन्हा नही रह जाते
अगर उस भीड़ में शामिल होते।
सभी चले जा रहे थे
उम्मीदों के गीत गा रहे थे
हमने वजह पूछी
पर किसी ने नहीं बताई
ऐसा लगा किसी के खुद ही समझ नहीं पाई
हम भी बढ़ाते उनके साथ कदम
अगर दूसरे की सोच के गुलाम होते।
…………………..
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

क्रिकेट और फिल्म में सफलता का साया-हास्य कविता(cricket and film-hasya kavita


नायिका ने बहुत किया अभिनय
पर चलचित्रों में सफलता का
दौर नहीं चल पाया।
नंबर वन की दौड़ में न पहुंचने पर
उसने प्रेमी निदेशक से अफसोस जताया।
तब वह बोला-
‘‘लगता है कि अपना नाम
फिल्म बाजार में ऐसे नहीं चलेगा,
केवल किसी अभिनेता के साथ
तुम्हारे नकली इश्क से मामला नहीं बनेगा,
मेरे अंदर एक नया विचार चल रहा है,
चलचित्र जगत की ऊंचाई पर तुम पहुंचो
यह सपना मेरे अंदर भी पल रहा है,
जिस तरह क्रिकेट और फिल्म का
रिश्ता आपस में बन गया है
उसका लाभ उठाओ,
किसी कुंवारे क्रिकेट खिलाड़ी से
इश्क का प्रचार करवाओ,
घूमते हुए फोटो खिंचवाना और
किसी मैच में जाकर उसके लिये
बजाना जोर से तालियां,
मेरे से प्रेम की बात कोई करे तो
देना चाहे मुझे खुलेआम गालियां,
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
होगी कृपा उनकी
तुम्हारे साथ होगा सफलता का साया।
चलचित्रों से पिटने की हट जायेगी छाया।
…………………………..

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

बासी खबर में उबाल-हिंदी व्यंग्य कविता (basi khabar men ubal-hindi vyangya kavita)


अखबार में छपी हर खबर
पुरानी नहीं हो जाती है।
कहीं धर्म तो कहीं भाषा और जाति के
झगड़ों में फंसे
इंसानी जज़्बातों की चाशनी में
उसके मरे हुए शब्दों को भी
डुबोकर फिर सजाया जाता
खबर फिर ताजी हो जाती है।
………………………..
कौन कहता है कि
बासी कड़ी में उबाल नहीं आता।
देख लो
ढेर सारी खबरों को
जो हो जाती हैं बासी
आदमी जिंदा हो या स्वर्गवासी
उसके नाम की खबर
बरसों तक चलती है
जाति, धर्म और भाषा के
विषाद रस पर पलती है
हर रोज रूप बदलकर आती
अखबार फिर भी ताजा नजर आता।

………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हिंदी दिवस:व्यंग्य कवितायें व आलेख (Hindi divas-vyangya kavitaen aur lekh)


लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
……………………………
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
……………………….
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

………………………………………………..

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

शांति पर कोई शांति से नहीं लिखता-हिंदी व्यंग्य कविता (peace writting-hindi vyangya)


विध्वंस कानों में शोर करते हुए
आंखों को चमत्कार की तरह दिखता है।
इसलिये हर कोई उसी पर लिखता है।

अथक परिश्रम से
पसीने में नहाई रचना
शांति के साथ पड़ी रहती हैं एक कोने में
कोई अंतर नहीं होता उसके होने, न होने में।
आवाज देकर वह नहीं जुटाती भीड़
इसलिये कोई उस पर नहीं लिखता है।
…………………….
किसी के मन में हिलौरें
नहीं उठाओगे।
तो कोई दाम नहीं पाओगे।
हर किसी में सामथर्य नहीं होता
कि जिंदगी की गहराई में उतरकर
शब्दों के मोती ढूंढ सके
तुम सतह पर ही डुबकी लगाकर
अपनी सक्रियता दिखाओ
चारों तरफ वाह वाह पाओगे।

सच्चे मोती लाकर क्या पाओगे।
उसके पारखी बहुत कम है
नकली के ग्राहक बहुत मिल जायेंगे
पर तुम्हारे दिल को सच से
तसल्ली मिल सकती है
पर इससे पहले की गयी
अपनी मेहनत पर पछताओगे।

……………………

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हादसों का प्रचार -त्रिपदम (hindi tripadam)


बड़े हादसे
प्रचार पा जाते हैं
बिना दाम के।

चमकते हैं
नकलची सितारे
बिना काम के।

कायरता में
ढूंढ रहे सुरक्षा
योद्धा काम के।

असलियत
छिपाते वार करें
छद्म नाम से।

भ्रष्टाचार
सम्मान पाता है
सीना तान के।

झूठी माया से
नकली मुद्रा भारी
खड़ी शान से ।

चाटुकारिता
सजती है गद्य में
तामझाम से।

असमंजित
पूरा ही समाज है
बिना ज्ञान के।

………………………….

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सर्वशक्तिमान नहीं पैसा बनाता है जोड़ी-हास्य कविता


कौन कहता है ऊपर वाला ही
बनाकर भेजता इस दुनियां में जोड़ी
पचास साल के आदमी के साथ कैसे
जम सकती है बाईस साल की छोरी
अय्याशी के बनाते हैं संदेश
जिस पर नाचे पूरा देश
पर्दे पर काल्पनिक दृश्यों में
अभिनेताओं के साथ नाचते हुए
कई अभिनेत्रियां बूढ़ी हो जाती हैं
फिर कोई नयी आती है
पैसे और व्यापार के लिये खुल है पूरा
कहते हैं फिर ‘रब ने बना दी जोड़ी’
उठायें दीपक बापू सवाल
सर्वशक्तिमान ने रची है दुनियां
इंसान को अक्ल भी दी है
उसी पर काबू पाने के लिये
कई रचे गये प्रपंच
बना दिया धरती को बेवकूफियों का मंच
कामयाब हो जाये तो अपनी तारीफ
नाकाम होते ही अपनी गलती की
जिम्मेदारी सर्वशक्तिमान पर छोड़ी

……………………
मुश्किल है इस बात पर
यकीन करना कि
बन कर आती है ऊपर से जोड़ी
फिर कैसे होता कहीं एक अंधा एक कौड़ी
जो बना लेता हैं अपनी जोड़ी
कहीं घरवाली को छोड़
बाहरवाली से आदमी बना लेता अपनी जोड़ी

………………………….

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

बिना मेकअप के अभिनय-हास्य व्यंग्य कविता


फिल्म का नाम था
‘नौकरानी ने बनी रानी’
जोरदार थी कहानी।
निर्देशक ने अभिनेत्री से कहा
‘आधी फिल्म में मेकअप बिना
आपको काम करना होगा
फटी हुई साड़ियों को ओढ़ना होगा
फिल्म जोरदार हिट होगी
अभिनय जगत में आपकी ख्याति का
नहीं होगा कोई सानी।’
अभिनेत्री ने कहा-‘
नये नये निर्देशक हो
इसलिये नहीं मुझे जानते हो
बिना मेकअप के चाहे कोई भी पात्र हो
उसका अभिनय नहीं करूंगी
सारी दुनियां में मुझे सुंदरी कहा जाता है
मेकअप के बिना तो मैं
अपना चेहरा आईने में खुद ही नहीं देखती
बिना मेकअप के तो कई बार
मैंने अपनी सूरत भी नहीं पहचानी।
अपने शयनकक्ष से ही बाहर
मैं मेकअप लगाकर आती हूं
अपनी मां को शक्ल ऐसे ही दिखाती हूं
ढेर सारे मेरे चाहने वाले
जब मेरी असल शक्ल देख लेंगे
तो आत्महत्या कर लेंगे
पड़ौस के लड़के जो
पल्के बिछाये मुझे देखते हैं
वह भी मूंह फेर लेंगे
जहां तक साड़ियों की बात है
तो आजकल काम वाली बाईयां भी
बन ठन कर घूमती हैं
ढेर सारी फिल्में ऐसी बनी हैं
जिनमें वह नई साड़ी में अपने
सजेधजे बच्चों को चूमती हैं
इसलिये अगर फिल्म में
मुझसे अभिनय कराना हो तो
महंगी साड़ियां ही मंगवाना
मेकअप का सामान हर हालत में जुटाना
चाहे बनाओ नौकरानी या रानी।’

…………………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

‘मेरे पास बस प्यार है’ -hasya kavita


प्रेमी अपनी प्रेमिका का हाथ
माँगने  उसकी  माँ के पास पहुँचा 
तब वह गुस्से में बोली
‘तुम्हारे पास क्या है 
गाड़ी, बंगला  या बैंक बेलेंस 
प्रेमी फिल्मी स्टाइल  में बोला
‘मेरे पास  बस प्यार है’
प्रेमिका की माँ भड़क गयी गयी
और चिल्लाकर बोली 
‘उसका क्या मेरी बेटी अचार डालेगी 
यह कमाकर  तुम्हें पालेगी 
यह हर महीने नया सूट खरीद कर लाती है 
तुम्हें जिस मोबाइल से करती है फोन
उसमे सिम बाप के पैसे से डलवाती है
तुम इसके खर्च उठा सकोगे
क्या है तुम्हारे पास  
प्रेमी बोला
‘मेरे पास बस प्यार है’
 
प्रेमिका अपनी माँ से नाराज होकर बोली 
‘मम्मी तुम मेरी इसके साथ 
शादी कराने पर राजी हो जाओ 
नहीं तो में अपनी जान दे दूँगी या
 इसके  साथ भाग जाऊंगी ‘
माँ खुश होकर बोली
‘बेटी इसमें पूछना क्या 
कल को भागती है
आज ही भाग जा 
बाकी मैं संभाल लूँगी’
वह अपने कमरे से 
अपना सामान उठाकर ले आई
और प्रेमी से बोली
‘चलो अब यहाँ से निकलते हैं
कहीं और बसते हैं’
‘ठीक है कुछ पैसे भी रख लेना
तुम्हारे प्यार में पिताजी के दिये 
सब पैसे तुम  पर खर्च का दिया
अब जो बचा
मेरे पास बस प्यार है’
 
 
पहले तो प्रेमिका हतप्रभ  रह गयी
और फिर सोचते हुए बोली
‘इससे काम नहीं चलेगा 
यह घर छोड़ा तो यहाँ भी फिर
यहाँ भी  नो एन्ट्री का बोर्ड लगेगा   
कुछ तो होगा तुम्हारे  पास
प्रेमी बोला
‘मेरे पास बस प्यार है’
 
प्रेमिका को  गुस्सा  आ गया और बोली 
‘तुम अब अकेले चले जाओ
इस तरह नहीं चल सकती जिन्दगी की गाड़ी
प्यार तो है चार दिन का 
फिर तो चाहिये मुझे गहने और साड़ी
फिर भी प्रेमी नहीं मान रहा था
आखिर माँ-बेटी ने धकेल कर
उसे  घर से बाहर निकाला    
वह बस ऐक ही रट   लगाये जा  रहा था
‘मेरे पास बस प्यार है’
 —————–
     

कहीं कहीं झगडे भी फिक्स होंगे -हास्य व्यंग्य कविताएँ


पहले तो क्रिकेट मैचों पर
फिक्सिंग की छाया नजर आती थी
अब खबरों में भी होने लगा है उसका अहसास।
शराबखानों पर करते हैं लोग
सर्वशक्तिमान का नाम लेकर हमला
कहीं टूटे कांच तो कहीं गमला
बहस छिड़ जाती है इस बात पर कि
सर्वशक्तिमान के बंदे ऐसे क्यों होना चाहिये
लंबे चैड़े नारों का दौर शुरु
हर वाद के आते हैं भाषण देने गुरु
ढेर सारे जुमले बोले जाते हैं
टूटे कांच और गमलों के साथ
जताई जाती है सहानुभूति
पर ‘शराब पीना बुरी बात है’
इस पर नहीं होता कोई प्रस्ताव पास।
खबरफरोश भूल जाते हैं शराब को
सर्वशक्तिमान के नाम पर ही
होती है उनको सनसनी की आस।
किसे झूठा समझें, किस पर करें विश्वास।
…………………………
शराब चीज बहुत खराब है
पीने वाला भी कर सकता है
न पीने भी कर सकता है
भले झगड़ा खराब है।
शराब खानों पर हुए झगड़ो पर
अब रोना बंद कर दो
क्योंकि सदियों से
करवाती आयी है जंग यह शराब
जैसे जैसे बढ़ते जायेंगे शराब खाने
वैसे ही नये नये रूपों में झगड़े
सामने आयेंगे
कहीं पीने वाले पिटेंगे तो
कहीं किसी को पिटवायेंगे
कहीं जाति तो कहीं भाषा के
नाम पर होंगे
कहीं प्रचार के लिये
पहले से ही तय झगड़े होंगे
इन पर उठाये सवालों का
कभी कोई होता नहीं जवाब है।

………………………………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

बहस करने का फैशन-हास्य व्यंग्य कविताएँ


नारी की आज़ादी विषय पर
उन्होने महफ़िल सजाई
दर्शक दीर्घा में पुरुषों के लिए भी
कुर्सी सजाई
पूछने पर बोलीं
“नारी और पुरुष को
प्राकृतिक रूप से अलग करना कठिन है
ऐसे ही जैसे समय का आधार रात और दिन है
बहस करने का फैशन हो गया है
नहीं करेंगे तो लगेगा महिलाओं का
दिमाग़ कहीं सो गया है
महिलाएँ तो बहस करेंगी
पर तालियों के लिए तरसेंगी
पुरुष इस काम को करेंगे खुशी से
इसलिए यह कुर्सियाँ सजाईं”
————————
नारियों के विषय पर हुए सम्मेलन से
लौटते हुए एक दर्शक ने दूसरे से कहा
“यार अपने को तो दर्शक दीर्घा में बैठाकर
महिलाओं ने खूब भाषण सुनाए
हमारी आलोचना में खूब बुरे विचार बताए
मेरे तो कोई बात समझ में नहीं आई
फिर भी हमेशा ताली बजाई”

दूसरे ने कहा
“मैं तो अपने सुनने की मशीन
घर पर ही छोड़ आया
जब तुमने ठोके हाथ
तब मैने भी ताली बजाई
समझने समझाने की बात भूल जाओ
हम तो मेकअप और चैहरे देखने आए थे
अपनी पॉल न खुले
इसलिए ही मैने भी ताली बजाई

——————————–

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

अभिनव बिंद्रा ही है असली इंडियन आइडियल-आलेख


ओलंपिक मेंं अभिनव बिंद्रा का स्वर्ण पदक जीतना बहुत खुशी की बात है इसका कारण यह है कि भारत में खेल जीवन का एक अभिन्न अंग माना जाता है और हर वर्ग का व्यक्ति इसमें रुचि लेता है पर कई कारणों वश भारत का नाम विश्व में चमक नहीं पाया।

पिछले कई वर्षों से क्रिकेट का आकर्षण लोगों पर ऐसा रहा है कि हर आयु वर्ग के लोग इसे खेलते और देखते रहे। अनेक जगह ऐसे प्रदर्शन मैच भी होते हैं जहां बड़ी आयु के लोग अपना खेल दिखाते हैं क्योंकि इसमें कम ऊर्जा से भी काम चल सकता है। कई जगह महिलाएं भी प्रदर्शन मैच खेलती रही हैं। मतलब इसका फिटनेस से अधिक संबंध नहीं माना जाता। वेसे भी अंग्रेज स्वयं ही इसे बहुत समय तक साहब लोगों का खेल मानते हैं और जहां उनका राज्य रहा है वहीं वह लोकप्रिय रहा है। यह अलग बात है कि प्रतियोगिता स्तर पर एकदम फिट होना जरूरी है पर भारतीय क्रिकेट टीम को देखें तो ऐसा लगता है कि सात खिलाड़ी चार बरस तक अनफिट हों तब भी टीम चल जाती है। भारत में शायद हाकी की जगह क्रिकेट को इसलिये ही बाजार में महत्व दिया गया कि कंपनियों के लिये माडलिंग करने वाले कुछ अनफिट खिलाड़ी भी अन्य खिलाडि़यों के सहारे अपना काम चला सकते हैं। हाकी,फुटबाल,व्हालीबाल,और बास्केटबाल भी टीम के खेल हैं पर उनमें दमखम लगता है। अधिक दमखम से खिलाड़ी अधिक से अधिक पांच बरस तक ही खेल सकता है, पर क्रिकेट में एसा कोई बंधन नहीं है। अब भारतीय क्रिकेट टीम की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। इसके बावजूद प्रचार माध्यम जबरन उसे खींचे जा रहे हैं।

अभिनव बिंद्रा ने व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता है। अपने आप में यह उनकी एतिहासिक जीत है। वह संभवत इस ओलंपिक के ऐसे स्वर्ण पदक विजेता होंगे जो लंबे समय तक अपने देश में सम्मान प्राप्त करेंगे। अन्य देशों के अनेक खिलाड़ी स्वर्ण पदक प्राप्त करेंगे तो उस देश के लोग किस किसका नाम याद रख पायेंगे आखिर सामान्य आदमी की स्मरण शक्ति की भी कोई सीमा होती है। सर्वाधिक बधाई प्राप्त करने वालों में भी उनका नाम शिखर पर होगा। उनकी इस उपलब्धि को व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। देश के अधिकतर खेलप्रेमी लोग केवल टीम वाले खेलों पर ही अधिक ध्यान देते हैं जबकि विश्व में तमाम तरह के खेल होते हैं जिनमें व्यक्तिगत कौशल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।
अभिनव बिंद्रा की इस उपलब्धि से देश में यह संदेश भी जायेगा कि व्यक्तिगत खेलों में भी आकर्षण है। अभी साइना बैटमिंटन में संघर्ष कर रही है। मुक्केबाज भी अभी मैदान संभाले हुए हैं। सभी चाहते हैं कि यह सभी जीत जायंे। ओलंपिक में जीत का मतलब केवल स्वर्ण पदक ही होता है। ओलंपिक ही क्या किसी भी विश्व स्तरीय मुकाबले में जीत का मतलब कप या स्वर्णपदक होता है। यह अलग बात है कि हमारे देश मेंे जिम्मेदारी लोग और प्रचार माध्यम देश को भरमाने के लिये दूसरे नंबर पर आयी टीम को भी सराहते हैंं। इसका कारण केवल उनकी व्यवसायिक मजबूरियां होती हैं। सानिया मिर्जा विश्व में महिला टेनिस की वरीयता सूची में प्रथम दस क्या पच्चीस में ं भी कभी शामिल नहीं हो पायी पर यहां के प्रचार माध्यम उसकी प्रशंसा करते हुए नहीं थकते। कम से कम अभिनव बिंद्रा ने सबकी आंखें खोली दी हैं। लोगों को यह समझ मेंं आ गया है कि किसी भी खेल में उसका सर्वोच्च शिखर ही छूना किसी खिलाड़ी की श्रेष्ठता का प्रमाण है।

भारतीय दल एशियाड,राष्ट्रमंडल या ओलंपिक मेें जाता है तो यहां के कुछ लोग कहते हैं कि ‘हमारा देश खेलने में विश्वास रखता है जीतने में नहीं। खेलना चाहिए हारे या जीतें।’
यह हास्यास्पद तक है। कुछ सामाजिक तथा आर्थिक विश्ेाषज्ञ किसी भी देश की प्रगति को उसकी खेल की उपलब्धियों के आधार पर ही आंकते हैं। जब तक भारत खेलों में नंबर एक पर नहीं आयेगा तब तक उसे कभी भी विश्व में आर्थिक या सामरिक रूप से नंबर एक का दर्जा नहीं मिल सकता। भारत में क्रिकेट लोकप्रिय है देश के अनेक लोग इसे गुलामी का प्रतीक मानते हैं। उनकी बात से पूरी तरह सहमत न भी हों पर इतना तय है कि अन्य खेलों में हमारे पास खिलाड़ी नहीं है और हैं तो उनको सुविधायें और प्रोत्साहन नहीं है। अभिनव बिंद्रा सच में असली इंडियन आइडियल है। अभी तक लोगों ने टीवी पर फिल्मी संगीत पर नाचते और गाते इंडियन आइडियल देखे थे उनको अभिनव की तरफ देख कर यह विचार करना चाहिए कि वह कोई नकली नहीं है। उन्होंने कोई कूल्हे मटकाते हुए कप नहीं जीता। ओलंपिक में स्वर्ण पदक हासिल करना कोई कम उपलब्धि नहीं होती। अपना अनुभव धीरज के साथ उपयोग करते हुए पूरे दमखम के साथ उन्होंने यह स्वर्ण पदक जीता है। वह भारत के अब तक के सबसे एतिहासिक खिलाड़ी हैं। अभी तक किसी भी भारतीय ने भी ऐसी व्यक्तिगत उपलब्धि प्राप्त नहीं की है। ध्यानचंद के नेतृत्व वाली हाकी टीम के बाद अब उनकी उपलब्धि ही एतिहासिक महत्व की है। जिस खेल में उन्होंने भाग लिया उसमें पूरे विश्व के खिलाड़ी खेलते हैं और वह क्रिकेट की तरह आठ देशों में नहीं खेला जाता। ऐसे अवसर पर अभिनव बिंद्रा को बधाई। वैसे उनका खेल निरंतर चर्चा में नही आता पर उनकी उपलब्धि हमेशा चर्चा में रहेगी।
………………………………………..

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक बापू कहिन’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप का शब्दज्ञान-पत्रिका

वर्डप्रेस का ब्लाग वेबसाइट वाले ब्लागरों की टिप्पणियां स्पैम में क्यों रख देता है-आलेख


कृपया वेबसाइट पर लिखने वाले ब्लाग लेखक इस बात का ध्यान रखें कि उनके द्वारा मेरे वर्डप्रेस के ब्लाग पर रखी गयी कमेंट स्पैम में चलीं जातीं हैं और मुझे उन्हें स्वयं माडरेट करना पड़ता है। यह अनुभव मुझे पिछले दिनों ही हुआ है। मैंने वर्डप्रेस के ब्लाग पर टिप्पणियां स्वीकार करने का कोई अधिकार नहीं रखा पर वह बिना वेबसाइट वाले ब्लाग लेखकों की ही टिप्पणियां सीधे प्रकाशित करता है। इसमें मेरी तरफ से कोई त्रुटि नहीं की गयी है और अगर कोई इस बारे में जानता हो तो कृपया बताये।

हालांकि पहले मैंने पहले स्पैम में कई ब्लाग लेखकों की टिप्पणियां देखी थीं तब मैंने सोचा था कि मेरी गलती से ही ऐसा हुआ होगा। यह सूचना मैंने इसलिये दी है कि कुछ ब्लाग लेखक माडरेशन का अधिकार रखने से नाराज होते हैं और अगर वह वेबसाइट पर लिख रहे हैं तो यह बात जान लें कि यह तकनीकी मसला है न कि मेरा कोई ऐसा इरादा है। ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ऐसी कोई रोक नहीं है और वहां वेबसाइट पर लिखने वालों की टिप्पणियां सीधे आ जातीं हैं। वेबसाइट पर लिखने वाले ब्लाग लेखकों की टिप्पणी सीधे प्रकाशित हो सके ऐसा कोई उपाय हो तो अवश्य बतायें।

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक बापू कहिन’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप का शब्दज्ञान-पत्रिका

अपनी कविताओं से दूसरों के ईमेल कूड़ेदान की तरह नहीं सजाते-हास्य कविता


दनदनाता आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, आज मिल गया
तुम्हारे हिट होने का मंतर
अपने फ्लाप होने का दर्द भूल जाओ
अपने ब्लाग लिखकर दूसरों के ईमेल में
जबरन भिजवाओ
हर कोई एक उड़ाने से पहले एक बार
जरूर देखेगा
इस तरह अपना हिट भेजेगा
चलो आज से जमकर लिखो कविता
और हिट की सीढि़या चढ़ जाओ’

सुनते ही उठ खड़े हुए और
चिल्लाते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘निकल यहां से जल्दी
वरना देख इन जबरन घुसे ईमेल संदेशों की तरह
तुम्हारा नाम भी दोस्तों की लिस्ट से उड़+ा देंगे
क्या समझ रखा है कि
जिस बात से स्वयं परेशान है
वह व्यवहार दूसरे से करेंगे
कमबख्त, जवां दिलों को पटाने के लिये
यह कविताएं नहीं शायरों का नुस्खा है
जैसे उनके लिये तंबाकू का गुटका है
न दिमाग की सोच से इसका वास्ता
न दिल की तरफ जाता शब्दों का रास्ता
यह शब्द भोजन की तरह हैं
आदमी स्वयं दाना खाकर पेट भरता
मछली को खिलाकर फांसता
इन शब्दों में भाव कम
किसी को बहलाने और हिट होने का
ताव है ज्यादा
अपने लेखक और कवि होने का भ्रम
उसे सच बनाने का है इरादा
कविता ऐसे लिखी है जैसे लिखना हो नाश्ता
साहित्य में बहुत जल्दी हिट होने का
साजिश से निकाल रहे है रास्ता
असली लिखने वाले कभी
पाठकों के दरवाजे नहीं बजाते
ईमेल को कूड़ेदान की तरह नहीं सजाते
लिखा जाये दिन और दिमाग से
तो लेखक और कवि लिखने का ही
सुख बहुत उठा लेते
कोई पढ़े या नहीं इस चिंता से मूंह फेर लेते
भेज रहे हैं जो जबरन कवितायें
दूसरों के गुलदस्ते को कूड़ेदान की तरह सजायें
हम फ्लाप है फिर को परवाह नहीं
हिट होने का ऐसा मोह नहीं कि
दूसरों के सामने हिट के लिये भीख मांगें
हर लिखे गये शब्द कविता या कहानी नहीं हो जाते
जब तक पढ़ने वाले उसे हृदय से नहीं अपनाते
अरे, फैंक रहे हैं जो
कूड़ें की तरह अपनी रचनायें
भला वह कहां सम्मान पायें
पल भर में ईमेल से उड़ा दी जायें
अपनी पत्रिका ही है वह किला
जहां रचना चमकते रहे शब्द सोने की तरह
पढ़े जो वह सम्मान दें
जो न पढ़ें, वह नहीं करते गिला
किसी दूसरे के आगे जाकर
उनको क्या मिलेगा
जब आदमी को प्यार नहीं मिला
तुम निकल लो यहां से
साथ में अपना मंतर भी ले जाओ
……………………………………………..

यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक बापू कहिन’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की ई-पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप का शब्दज्ञान-पत्रिका

इस तरह लगने लगा वहां भी मेला-हास्य कविता


उदास बैठा था चेला
तो गुरू ने उसका कारण पूछा
तो वह बोला
‘गुरूजी सभी आश्रम
पर भक्तों का लगता है मेला
खूब चढ़ावा उनके
गुरुओं के पास आ रहा है
अपने यहां नहीं आ रहा धेला
आखिर कब तक हम फ्लाप आश्रम चलायेंगे
कब भक्तों में हिट हो पायेंगे
कोई ऐसा उपाय बताईये
आप गुरु के रूप में मशहूर हो जायें
तो मैं प्रसाद पाकर हो जाऊं खास चेला’

गुरू ने अपना सिर खुजाया और कहा
‘सारे जतन कर देख लिये
हर विषय पर प्रवचन दिये
कोई भी उपाय काम नहीं आया
इससे तो अपनी चाय की दुकान पर
ही ठीक था
दोस्त ने ही मुझे बाबा बनने का
रास्ता बताया
मैं भी इस आश्रम के धंधे में आया
यहां आकर भी नहीं हाथ आयी माया
इससे तो अच्छा था चाय का ठेला’

सुनकर चेले ने अपना सिर खुजाया
और बोला
‘आपकी बात पर यह विचार मेरे मन में आया
आप अपना नाम रख लो
‘चाय वाले बाबा’
नाम में कुछ स्वाद होना जरूरी है
इस पर भी लोग आते हैं
कौन देखता है गुण-अवगुण एक दिन में
अपनी जिंदगी में लोग किसी को
नहीं समझ पाते हैं
हो सकता है इस नाम का कुछ असर हो
लग जाये अपने यहां मेला’

गुरु ने बात मान ली
बन गये वह चाय वाले बाबा
सलाहकार बन गया चेला
पहले तो लोग चाय पीने के भ्रम में
आश्रम में चले आते
फिर चेले बन जाते
इस तरह लगने लगा वहां भी मेला
………………………………

मेहरबानी कर तोहफे में जल्दी दो जुदाई-हास्य हिंदी शायरी


माशुका ने शायर से कहा
‘बहुत बुरा समय था जब मैंने
अपनी सहेलियों के सामने
किसी शायर से शादी करने की कसम खाई
तुमने मेरे इश्क में कितने शेर लिखे
पर किसी मुशायरे में तुम्हारे शामिल होने की
खबर अखबार में नहीं आई
सब सहेलियां शादी कर मां बन गयीं
पर मैं उदास बैठी देखती हूं
अब तो कोई मशहूर शायर
देखकर शादी करनी होगी
नहीं झेल सकती ज्यादा जगहंसाई’

शायर खुश होकर बोला
‘लिखता बहुत हूं
पर सुनने वाले कहते हैं कि
उसमें दर्द नहीं दिखता
भला ऐसा कैसे हो
जब मैं तुम्हारे प्यार में
श्रृंगार रस में डुबोकर शेर लिखता
अब तो मेरे शेरों में दर्द की
नदिया बहती दिखेगी
जब शराब मेरे सिर पर चढ़कर लिखेगी
अपने प्यार से तुम नहीं कर सकी मुझे रौशन
मेहरबानी कर तोहफे में जल्दी दो जुदाई’

शब्द हमेशा हवाओं में लहराते हैं-कविता


हर शब्द अपना अर्थ लेकर ही
जुबान से बाहर आता है
जो मनभावन हो तो
वक्ता बनता श्रोताओं का चहेता
नहीं तो खलनायक कहलाता है
संस्कृत हो या हिंदी
या हो अंग्रेजी
भाव से शब्द पहचाना जाता है
ताव से अभद्र हो जाता है

बोलते तो सभी है
तोल कर बोलें ऐसे लोगों की कमी है
डंडा लेकर सिर पर खड़ा हो
दाम लेकर खरीदने पर अड़ा हो
ऐसे सभी लोग साहब शब्द से पुकारे जाते हैं
पर जो मजदूरी मांगें
चाकरी कर हो जायें जिनकी लाचार टांगें
‘अबे’ कर बुलाये जाते हैं
वातानुकूलित कमरों में बैठे तो हो जायें ‘सर‘
बहाता है जो पसीना उसका नहीं किसी पर असर
साहब के कटू शब्द करते हैं शासन
जो मजदूर प्यार से बोले
बैठने को भी नहीं देते लोग उसे आसन
शब्द का मोल समझे जों
बोलने वाले की औकात देखकर
उनके समझ में सच्चा अर्थ कभी नहीं आता है

शब्द फिर भी अपनी अस्मिता नहीं खोते
चाहे जहां लिखें और बोले जायें
अपने अर्थ के साथ ही आते हैं
जुबान से बोलने के बाद वापस नहीं आते
पर सुनने और पढ़ने वाले
उस समय चाहे जैसा समझें
समय के अनुसार उनके अर्थ सबके सामने आते हैं
ओ! बिना सोचे समझे बोलने और समझने वालों
शब्द ही हैं यहां अमर
बोलने और लिखने वाले
सुनने और पढ़ने वाले मिट जाते हैं
पर शब्द अपने सच्चे अर्थों के साथ
हमेशा हवाओं में लहराते हैं
……………………….
दीपक भारतदीप