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धार्मिक ज्ञान के साथ यौन शिक्षा-हास्य व्यंग्य


अगर विश्व में निर्मित सभी धार्मिक समाजों और समूहों का यही हाल रहा तो आगे चलकर कथित रूप से सभी धर्मों के कथित गुरु और ठेकेदार सामान्य लोगों को धार्मिक ग्रंथों की बजाय यौन शिक्षा देने लगेंगे। जैसे जैसे विश्व में लोग सभ्य और शिक्षित हो रहे हैं वह छोटे परिवारों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों में आधुनिक शिक्षा का बोलबाला है उनकी जनसंख्या कम हो रही है जिनमें नहीं है उनकी बढ़ रही है। हालांकि इसके पीछे स्थानीय सामाजिक कारण अधिक हैं पर धार्मिक गुरु जनसंख्या की नापतौल में अपने समाज को पिछड़ता देख लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने की सलाहें दे रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों की संख्या बढ़ रही है वह भी अपने लोगों को बच्चे का प्रजनन रोकना धर्म विरोधी बताकर रोकने का प्रयास कर रहे हैं। कायदे से सभी धर्म गुरुओं को केवल व्यक्ति में सर्वशक्तिमान की आराधना और समाज के लिये काम करने की प्रेरणा देने का काम करना चाहिये पर वह ऐसे बोलते हैं जैसे कि सामने मनुष्य नहीं बल्कि चार पाये वाला एक जीव बैठा हो।

उस दिन अखबार में पढ़ा विदेश में धर्म प्रचारक अपने समाज के युवा जोड़ों से सप्ताह में सात दिन ही यौन संपर्क करने का आग्रह कर डाला। उसके अनुसार यह सर्वशक्तिमान का उपहार है और इसका इस्तेमाल करते हुए उसे धन्यवाद देना चाहिये। हर होती है हर चीज की। इस तरह के आग्रह करना अपने आप में एक हास्याप्रद बात लगती है। शरीर के समस्त इंद्रियां आदमी क्या पशु तक को स्वतः ही संचालित करती हैं और उसमें कोई किसी को क्या सलाह और प्रेरणा देगा? मगर धर्मगुरुओं और ठेकेदारों की चिंता इस बात की है कि अगर उनके समाज की जनसंख्या कम हो गयी तो फिर उनके बाद आने वाली गुरु पीढ़ी का क्या होगा? वह उनको ही कोसेगी कि पुराने लोगों ने ध्यान नहीं दिया

अपने ही देश में एक कथित धार्मिक विद्वान ने सलाह दे डाली कि जो धनी और संपन्न लोग हैं वह अधिक बच्चे पैदा करें। एक तरह से उनका आशय यह है कि अमीर लोगों को ही अधिक ब्रच्चे पैदा करने का अधिकार है। जब अपने देश में हो उल्टा रहा है। जहां शिक्षा और संपन्नता है वहां लोग सीमित परिवार अपना रहे हैं-हालांकि उसमें भी कुछ अपवाद स्वरूप अधिक बच्चे पैदा करते हैं। जहां अशिक्षा, गरीबी और भुखमरी है वहां अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैं। कई बार जब गरीबी और भुखमरी वाली रिपोर्ट टीवी चैनलों में देखने और अखबार पढ़ने का अवसर मिलता है तो वहां उन परिवारों में एक दो बच्चे की तो बात ही नहीं होती। पूरे पांच छह कहीं आठ बच्चे मां के साथ खड़े दिखाई दे जाते हैं जो कुपोषण के कारण अनेक तरह की बीमारियों के ग्रसित रहते हैं। ऐसा दृश्य देखने वाले शहरों के अनेक संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की हाय निकल जाती है। वह कहतीं हैं कि कमाल है इनको बिना किसी आधुनिक चिकित्सा के यह बच्चे आसानी से हो जाते हैं यहां तो बिना आपरेशन के नहीं होते।’

तय बात है कि ऐसा कहने वाली उन महिलायें उन परिवारों की होती हैं जहां बर्तन से चैके तक का काम बाहर की महिलाओं के द्वारा पैसा लेकर किया जाता है।

हालांकि समस्या केवल यही नहीं है। लड़कियों के भ्रुण की हत्या के बारे में सभी जानते हैं। इसके कारण समाज में जो असंतुलन स्थापित हो रहा है। मगर इस पर धार्मिक गुरुओं और सामाजिक विद्वानों का सोच एकदम सतही है।

कम जनसंख्या होना या लडकियों का अनुपात में कम होना समस्यायें नहीं बल्कि उन सामाजिक बीमारियों का परिणाम है जिनको कथित धार्मिक ठेकेदार अनदेखा कर रहे हैं। हमारे देश में आदमी पढ़ा लिखा तो हो गया है पर ज्ञानी नहीं हुआ है। जिन लोगों ने अर्थशास्त्र पढा है उसमें भारत के पिछड़े होने का कारण यहांं की साामजिक कुरीतियां भी मानी जाती है। कहने को तो तमाम बातें की जा रही हैं पर समाज की वास्तविकताओं को अनदेखा किया जा रहा है। दहेज प्रथा का संकट कितना गहरा है यह समझने की नहीं अनुभव करने की आवश्यकता है।

लड़की वाले हो तो सिर झुकाओ। इसके लिये भी सब तैयार हैं। लड़के वाले जो कहें मानो और लोग मानते हैं। लड़की के माता पिता होने का स्वाभिमान कहां सीखा इस समाज ने क्योंकि उन्हीं माता पिता को पुत्र का माता पिता होने का कभी अहंकार भी तो दिखाना है!

यह एक कटु सत्य है कि अगर किसी को दो बच्चे हैं तो यह मत समझिये कि वहां परिवार नियोजन अपनाया गया होगा। अगर पहले लड़की है और उसके बाद लड़का हुआ है और दोनों की उमर में अंतराल अधिक है तो इसमें बहुत कुछ संभावना इस बात की भी अधिक लगती है कि वहां अल्ट्रा साउंड से परीक्षण कराया गया होगा। अनेक ऐसी महिलायें देखने को मिल सकती हैं जिन्होंने बच्चे दो ही पैदा किये पर उन्होंने अपने गर्भपात के द्वारा अपने शरीर से खिलवाड़ कितनी बार अपनी इच्छा से या दबाव में होने दिया यह कहना कठिन है।

एक धार्मिक विद्वान ने अपने समाज के लोगों को सलाह दी कि कम से कम चार बच्चे पैदा करो। दूसरे समाज के लोगों की बढ़ती जनसंख्या का मुकाबला करने के लिये उनको यही सुझाव बेहतर लगां।
अपने देश की शिक्षा पाश्चात्य ढंग पर ही आधारित है और जो अपने यहां शिक्षितों की हालत है वैसी ही शायद बाहर भी होगी। धार्मिक शोषण का शिकार अगर शिक्षित होता है तो यह समझना चाहिये कि उसकी शिक्षा में ही कहीं कमी है पर पूरे विश्व में हो यही रहा है। ऐसा लगता है कि पश्चिम में धार्मिक शिक्षा शायद इसलिये ही पाठ्यक्रम से ही अलग रखी ताकि धार्मिक गुरुओं का धंधा चलता रहे। हो सकता है कि धार्मिक गुरु भी ऐसा ही चाहते हों।

वैसे इसमें एक मजेदार बात जो किसी के समझ में नही आती। वह यह कि जनंसख्या बढ़ाने के यह समर्थक समाज में अधिक बच्चे पैदा करने की बात पर ही क्यों अड़े रहते हैं? कोई अन्य उपाय क्यों नहीं सुझाते ?
पश्चिम में एक विद्वान ने सलाह दे डाली थी कि अगर किसी समाज की जनंसख्या बढ़ानी है और समाज बचाना है तो समाज पर एक विवाह का बंधन हटा लो। उसने यह सलाह भी दी कि विवाहों का बंधन तो कानून में रहना ही नहीं चाहिये। चाहे जिसे जितनी शादी करना है। जब किसी को अपना जीवन साथी छोड़ना है छोड़ दे। उसने यह भी कहा कि अगर अव्यवस्था का खतरा लग रहा हो तो उपराधिकार कानून को बनाये रखो। जिसका बच्चा है उसका अपनी पैतृक संपत्ति पर अधिकार का कानून बनाये रखो। उसका मानना था कि संपन्न परिवारों की महिलायें अधिक बच्चे नहीं चाहतीं और अगर उनके पुरुष दूसरों से विवाह कर बच्चे पैदा करें तो ठीक रहेगा। संपन्न परिवार का पुरुष अपने अधिक बच्चों का पालन पोषण भी अच्छी तरह करेगा। कानून की वजह से उनको संपत्ति भी मिलेगी और इससे समाज में स्वाभाविक रूप से आर्थिक और सामाजिक संतुलन बना रहेगां।

उसके इस प्रस्ताव का जमकर विरोध हुआ। उसने यह सुझाव अपने समाज की कम होती जनसंख्या की समस्या से निपटने के परिप्रेक्ष्य में ही दिया था पर भारत में ऐसा कहना भी कठिन है। कम से कम कथित धार्मिक विद्वान तो ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि उनकी भक्ति की दुकान स्त्रियों की धार्मिक भावनाओं पर ही चल रही हैं। ऐसा नियम आने से समाज में अफरातफरी फैलेगी और फिर इन कथित धर्मगुरुओं के लिये ‘‘सौदे की शय’ के रूप में बना यह समाज कहां टिक पायेगा? सभी लोग ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जिन समाजों में अधिक विवाह की छूट है उसमें सभी ऐसा नहीं करते। यह बात निश्चित है पर जो अपने रिश्तों के व्यवहार के कारण चुपचाप मानसिक कष्ट झेलते हैं वह उससे मुक्त हो जायेंगे और फिर तनाव मुक्त भला कहां इन गुरुओं के पास जाता है? ऐसा करने से उनके यहां जाने वाले मानसिक रोगियों की संख्या कम हो जायेगी यह निश्चित है। अगर तनाव में फंसे लोग जब अपने जीवन साथी बदलते रहेंगे तो फिर उनको तनाव के लिये अध्यात्म शिक्षा की आवश्यकता ही कहां रह जायेगी?

बहरहाल अपनी जनसंख्या घटती देख विश्व के अनेक धर्म प्रचारक जिस तरह अब यौन संपर्क वगैरह पर बोलने लगे हैं उससे काम बनता नजर नहीं आ रहा हैं। अब तो ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनियां में धार्मिक प्रचारक यौन संपर्क का ज्ञान बांटेंगे। वह पुरुषों को बतायेंगे कि किसी स्त्री को कैसे आकर्षित किया जाता है। लंबे हो या नाटे, मोटे हो या पतले और काले हो या गोरे तरह अपने को यौन संपर्क के लिये तैयार करो। अपनी शिष्याओं से वह ऐसी ही शिक्षा महिलाओं को भी दिलवायेंगे।’
वह कंडोम आदि के इस्तमाल का यह कहकर विरोध करेंगे कि सब कुछ सर्वशक्तिमान पर छोड़ दो। जो करेगा वही करेगा तुम तो अपना अभियान जारी रखो। बच्चे पैदा करना ही सर्वशक्तिमान की सेवा करना है।

इससे भी काम न बना तो? फिर तो एक ही खतरा है कि धर्म प्रचारक और उनके चेले सरेआम अपने सैक्स स्कैण्डल करेंगे और कहेंगे कि सर्वशक्तिमान की आराधना का यही अब एक सर्वश्रेष्इ रूप है।

यह एक अंतिम सत्य है कि पांच तत्वों से बनी मनुष्य देह में तीन प्रकृतियां-अहंकार,बुद्धि और मन- ऐसी हैं जो उससे संचालित करती हैं और सभी धर्म ग्रंथ शायद उस पर नियंत्रण करने के लिये बने हैं पर उनको पढ़ने वाले चंद लोग अपने समाजों और समूहों पर अपना वर्चस्प बनाये रखने के लिये उनमें से उपदेश देते है।ं यह अलग बात है कि उनका मतलब वह भी नहीं जानते। पहले संचार माध्यम सीमित थे उनकी खूब चल गयी पर अब वह तीव्रतर हो गये हैं और सभी धर्म गुरुओं को यह पता है कि आदमी आजकल अधिक शिक्षित है और उस पर नियंत्रण करने के लिये अनेक नये भ्रम पैदा करेंगे तभी काम चलेगा। मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है और इसलिये समाज या समूह के विखंडन का भय उसे सबसे अधिक परेशान करता है और कथित धार्मिक गुरु और ठेकेदार उसका ही लाभ उठाते हैं। यह अलग बात है कि जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र े आधार पर समाजों और समूहों का बनना बिगड़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस पर किसी का बस नहीं। जिस सर्वशक्तिमान ने इसे बनाया है उसके लिये सभी बराबर हैं। कोई समाज बिगड़े या बने उसमें उसका हस्तक्षेप शाायद ही कभी होता हो। मनुष्य सहज रहे तो उसके लिये पूरी दुनियां ही मजेदार है पर समाज और समूहों के ठेकेदार ऐसा होने नहीं देते क्योंकि भय से आदमी को असहज बनाकर ही वह अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
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ब्लागस्पाट का लेबल, वर्डप्रेस की श्रेणियां और टैग-जानकारी के लिये आलेख


यह आलेख मैं एक प्रयोक्ता की तरह लिख रहा हूं और मुझे अपने तकनीकी ज्ञान को लेकर कोई खुशफहमी नहीं है। कल कुछ ब्लाग लेखक ने टैगों को लेकर सवाल किये। अधिकतर लोग ब्लागस्पाट पर काम करते हैं और उनका यही कहना था कि उनके यहां टैग(लेबल)कम लग पाता है। कई लोग के मन में वर्डप्रेस के ब्लाग को लेकर भी हैरानी है। यह आलेख मैं ऐसे ही नये ब्लाग लेखकों के दृष्टिकोण से लिख रहा हूं जिन्हें शायर मुझसे कम जानकारी हो।

पहले ब्लाग स्पाट के लेबल या टैग के बारे में बात कर लें। वहां लेबल में 200 से अंग्रेजी वर्ण नहीं आते यह सही बात है पर उसका उपयोग अगर इस तरह किया जाये जिससे स्पेस कम हो तो उसमें अंग्रेजी के अधिकतक शब्द हम शामिल कर सकते हैं। अगर हिंदी के शब्द भी लिखने हैं तो पहले हिंदी में शब्द फिर उसके साथ अंग्रेजी के शब्द लिखकर वहां से कापी लाकर लेबल पर पेस्ट करें। उसका तरीका यह है। हिंदी,कविता,शायरी,साहित्य,हास्य,व्यंग्य,hindi,kavita,shayri,sahitya,hasya,
कोमा के बाद स्पेस न दें। इससे दोनों मिलाकर अट्ठारह से बीस टैग या लेबल आ सकते हैं।
वैसे तो वर्ड प्रेस के किसी ब्लाग लेखक ने कोई सवाल नहीं किया पर फिर भी उसकी जानकारी दे देता हूं। वहां कैटेगरी और टैग दो तरह से सुविधा मिली है। कैटेगरी में अगर आप ऐसे शब्द भर दें जो आप हमेशा ही अपने पाठों के साथ कर सकते है। जैसे हिंदी,कविता,साहित्य,आलेख,व्यंग्य,hindi,kavita,sahitya,vyangya,hasya vyangya। वहां अपने ब्लाग में सैटिंग में जाकर अपने ब्लाग ओर पाठ की सैटिंग में हिंदी शब्द ही लिखें। इससे आपका ब्लाग हिंदी के डेशबोर्ड पर दिखता रहेगा। मुझे तो अपने ब्लाग की सैटिंग ही दो महीने बाद समझ में आयी थी। वैसे मेरे वहां इस समय आठ ब्लाग हैं जिनमें से दो अन्य श्रेणी में कर रखे हैं क्योंकि वह भी बिना किसी फोरम के इतने पाठक जुटा लेते हैं कि डेशबोर्ड पर दिखने लगते हैं। उस पर मैं अभी तक दूसरे ब्लाग से पाठ उठाकर रखता हूं और डेशबोर्ड पर हिंदी के नियमित ब्लाग लेखक भ्रमित न हों मैंने उसे अन्य श्रेणी में कर रखा है। यह अलग बात है कि चिट्ठाजगत वालों की उस पर नजर पड़ गयी और अपने यहां उसे लिंक किये हुए हैं। वर्डप्रेस में वर्णों की संख्या का कोई बंधन नहीं हैं। मैंने शुरू में एक ब्लाग लेखक को इतनी श्रेणियां उपयोग करते देखा था कि डेशबोर्ड पर उससे हमारे ब्लाग पर दूर ही दिख रहे थे। जब वह नंबर वन पर था तो हमें बड़ी मेहनत से अपने ब्लाग देखने पड़ रहे थे। वर्डप्रेस पर वर्ण या शब्द की कोई सीमा नहीं है

अब आ जाये टैग की किस्म पर जो शायद इस समय सबसे अधिक विवादास्पद है। मुझे अनुमान नहीं था कि यह इतना तीव्र हो जायेगा कि मुझे यह सब लिखना पड़ेगा।
मैने ब्लाग के बारे में लेख पढ़ा था अपने ब्लाग बनाने के छह महीने पहले यानि सवा दो साल पहले। उसके निष्कर्ष मुझे याद थे और आज भी हैं और मैं उन्हीं पर ही चलता हूं।
1.नियमित रूप से अपने ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखते रहें। इस बात की परवाह मत करें कि सभी पाठ आपके पाठको अच्छे लगें पर नियमित होने से वह वहां आते हैं और उनकी आमद बनी रहे।
2.ब्लाग पर जमकर टैग लगायें। टैग लगाते समय आपको यह ध्यान रखना चाहिये कि आप अपना ब्लाग कहां और किन पाठकों को पढ़ाना चाहते हैं। उसमें अपने विषय से संबंधित टैग तो लगाना ही चाहिए बल्कि ऐसे लोकप्रिय टैग भी इस तरह लगाना चाहिए कि कोई उन पर आपत्ति न कर सके। याद रहे टैग पाठक को पढ़ाने के लिये नहीं बल्कि अपना ब्लाग वहां तक पहुंचाने के लिये है।
3.अखबारों में आप छपते हैं तो वह अगले दिन ही कबाड़ में चला जाता है। किताबें अल्मारी में बंद हो जाती हैं पर यह आपका ब्लाग अंतर्जाल पर हमेशा ही सक्रिय बना रहेगा।

यह मूलमंत्र मुझे याद है। टैग गलत लगाकर पाठकों को धोखा देना नहीं है-ऐसे तर्क मेरे जैसे लेखक के आगे रखना ही अपनी अज्ञानता का प्रमाण देना है। हम टैग लगा रहे हैं शीर्षक नहीं। कहा यह जाता है कि हमारे पाठ के अनुरूप शीर्षक होना चाहिये। यह टैग वैसी होने की बात किस हिंदी की साहित्य की किताब में कहा गया है। टैग कभी शीर्षक नहीं होते, जैसे पूंछ कभी मूंछ नहीं होती। पैर का इलाज सिर पर नहीं चलता। शीर्षक सिर है और टैग पांव है। आपने देखा होगा पत्र-पत्रिकाओं में होली के अवसर किसी प्रतिष्ठत हस्ती का चेहरा लिया जाता है और किसी दूसरे का निचला हिस्सा लेकर उसका कार्टून बनाया जाता है। मतलब शीर्षक ही पहचान है पाठ की।
टैग तो एक हाकर की तरह है जो उसे लेकर चलता है। अब कहानी है तो वह संस्मरण भी हो सकती है और अभिव्यक्ति या अनुभूति भी। केवल यही नहीं आप ऐसे लोकप्रिय शब्द ले सकते हैं जिनका आम लोग सर्च इंजिन खोलने के लिये उपयोग करते हैं। हां इसमें केवल अमूर्त वस्तुओं, शहरों, या नदियों का नाम लिख सकते हैं जिससे आपको अपना ट्रेफिक बढता हुआ लगे। प्रसिद्ध व्यक्तियों या संस्थाओं का नाम कभी नहीं लिखें क्योंकि इससे आपकी कमजोरी ही जाहिर होगी और उनके प्रशंसकों द्वारा उसका प्रतिवाद भी संभव है। संभव है आम पाठक आप में दिलचस्पी न लें क्यों िउनसे संबंधित सामग्री वैसे ही अंतर्जाल पर होती है।

कुछ शब्द हैं जैसे अल्हड़,मस्तराम,मनमौजी और भोला शब्द अगर वह आपके प्यार का नाम है तो उपयोग कर सकते हैं। जैसे मुझे मेरी नानी कहती थी ‘मस्तराम’। मुझे उनका यह दिया गया नाम बहुत प्यारा है। मैंने पहले इसे अपने नाम के साथ ब्लाग में जोड़ा पर चिट्ठाजगत वालों ने उसे पकड़कर लिंक कर लिया तो मैंने सोचा कि इसका टैग ही बना देते हैं। फिर अब उसे टैग बना लिया। टैगों में संबंद्ध विषय से संबंधित जानकारी होना चाहिए यह बात ठीक है पर हम उसे विस्तार देकर अपने पाठक तक पहुंचने का प्रयास न करें यह कोई नियम नहीं है। इस पर फिर कभी।

कुल मिलाकर टैग वह मार्ग है जो आपको पाठकों तक पहुंचा सकता है। ब्लागस्पाट का मुझे पता नहीं पर वर्डप्रेस में मैंने यही अनुभव किया है। आखिरी बात यह कि मैंने यह आलेख एक प्रयोक्ता की तरह लिखा है और हो सकता है मेरा और आपका अनुभव मेल न खाये। फिर ब्लाग स्पाट के ब्लाग अभी वैसे परिणाम नहीं दे पाये जैसे अपेक्षित थे। कुल मिलाकर यह मेरा अनुभव है जिसे मैंने प्रयोक्ता के रूप में पाया और इससे अधिक तो मुझ कुछ आता भी नहीं। कुछ खोजबीन चल रही है और यही टैग उसके लिये काम कर रहे हैं। शेष फिर कभी।
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अभिनव बिंद्रा ही है असली इंडियन आइडियल-आलेख


ओलंपिक मेंं अभिनव बिंद्रा का स्वर्ण पदक जीतना बहुत खुशी की बात है इसका कारण यह है कि भारत में खेल जीवन का एक अभिन्न अंग माना जाता है और हर वर्ग का व्यक्ति इसमें रुचि लेता है पर कई कारणों वश भारत का नाम विश्व में चमक नहीं पाया।

पिछले कई वर्षों से क्रिकेट का आकर्षण लोगों पर ऐसा रहा है कि हर आयु वर्ग के लोग इसे खेलते और देखते रहे। अनेक जगह ऐसे प्रदर्शन मैच भी होते हैं जहां बड़ी आयु के लोग अपना खेल दिखाते हैं क्योंकि इसमें कम ऊर्जा से भी काम चल सकता है। कई जगह महिलाएं भी प्रदर्शन मैच खेलती रही हैं। मतलब इसका फिटनेस से अधिक संबंध नहीं माना जाता। वेसे भी अंग्रेज स्वयं ही इसे बहुत समय तक साहब लोगों का खेल मानते हैं और जहां उनका राज्य रहा है वहीं वह लोकप्रिय रहा है। यह अलग बात है कि प्रतियोगिता स्तर पर एकदम फिट होना जरूरी है पर भारतीय क्रिकेट टीम को देखें तो ऐसा लगता है कि सात खिलाड़ी चार बरस तक अनफिट हों तब भी टीम चल जाती है। भारत में शायद हाकी की जगह क्रिकेट को इसलिये ही बाजार में महत्व दिया गया कि कंपनियों के लिये माडलिंग करने वाले कुछ अनफिट खिलाड़ी भी अन्य खिलाडि़यों के सहारे अपना काम चला सकते हैं। हाकी,फुटबाल,व्हालीबाल,और बास्केटबाल भी टीम के खेल हैं पर उनमें दमखम लगता है। अधिक दमखम से खिलाड़ी अधिक से अधिक पांच बरस तक ही खेल सकता है, पर क्रिकेट में एसा कोई बंधन नहीं है। अब भारतीय क्रिकेट टीम की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। इसके बावजूद प्रचार माध्यम जबरन उसे खींचे जा रहे हैं।

अभिनव बिंद्रा ने व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता है। अपने आप में यह उनकी एतिहासिक जीत है। वह संभवत इस ओलंपिक के ऐसे स्वर्ण पदक विजेता होंगे जो लंबे समय तक अपने देश में सम्मान प्राप्त करेंगे। अन्य देशों के अनेक खिलाड़ी स्वर्ण पदक प्राप्त करेंगे तो उस देश के लोग किस किसका नाम याद रख पायेंगे आखिर सामान्य आदमी की स्मरण शक्ति की भी कोई सीमा होती है। सर्वाधिक बधाई प्राप्त करने वालों में भी उनका नाम शिखर पर होगा। उनकी इस उपलब्धि को व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। देश के अधिकतर खेलप्रेमी लोग केवल टीम वाले खेलों पर ही अधिक ध्यान देते हैं जबकि विश्व में तमाम तरह के खेल होते हैं जिनमें व्यक्तिगत कौशल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।
अभिनव बिंद्रा की इस उपलब्धि से देश में यह संदेश भी जायेगा कि व्यक्तिगत खेलों में भी आकर्षण है। अभी साइना बैटमिंटन में संघर्ष कर रही है। मुक्केबाज भी अभी मैदान संभाले हुए हैं। सभी चाहते हैं कि यह सभी जीत जायंे। ओलंपिक में जीत का मतलब केवल स्वर्ण पदक ही होता है। ओलंपिक ही क्या किसी भी विश्व स्तरीय मुकाबले में जीत का मतलब कप या स्वर्णपदक होता है। यह अलग बात है कि हमारे देश मेंे जिम्मेदारी लोग और प्रचार माध्यम देश को भरमाने के लिये दूसरे नंबर पर आयी टीम को भी सराहते हैंं। इसका कारण केवल उनकी व्यवसायिक मजबूरियां होती हैं। सानिया मिर्जा विश्व में महिला टेनिस की वरीयता सूची में प्रथम दस क्या पच्चीस में ं भी कभी शामिल नहीं हो पायी पर यहां के प्रचार माध्यम उसकी प्रशंसा करते हुए नहीं थकते। कम से कम अभिनव बिंद्रा ने सबकी आंखें खोली दी हैं। लोगों को यह समझ मेंं आ गया है कि किसी भी खेल में उसका सर्वोच्च शिखर ही छूना किसी खिलाड़ी की श्रेष्ठता का प्रमाण है।

भारतीय दल एशियाड,राष्ट्रमंडल या ओलंपिक मेें जाता है तो यहां के कुछ लोग कहते हैं कि ‘हमारा देश खेलने में विश्वास रखता है जीतने में नहीं। खेलना चाहिए हारे या जीतें।’
यह हास्यास्पद तक है। कुछ सामाजिक तथा आर्थिक विश्ेाषज्ञ किसी भी देश की प्रगति को उसकी खेल की उपलब्धियों के आधार पर ही आंकते हैं। जब तक भारत खेलों में नंबर एक पर नहीं आयेगा तब तक उसे कभी भी विश्व में आर्थिक या सामरिक रूप से नंबर एक का दर्जा नहीं मिल सकता। भारत में क्रिकेट लोकप्रिय है देश के अनेक लोग इसे गुलामी का प्रतीक मानते हैं। उनकी बात से पूरी तरह सहमत न भी हों पर इतना तय है कि अन्य खेलों में हमारे पास खिलाड़ी नहीं है और हैं तो उनको सुविधायें और प्रोत्साहन नहीं है। अभिनव बिंद्रा सच में असली इंडियन आइडियल है। अभी तक लोगों ने टीवी पर फिल्मी संगीत पर नाचते और गाते इंडियन आइडियल देखे थे उनको अभिनव की तरफ देख कर यह विचार करना चाहिए कि वह कोई नकली नहीं है। उन्होंने कोई कूल्हे मटकाते हुए कप नहीं जीता। ओलंपिक में स्वर्ण पदक हासिल करना कोई कम उपलब्धि नहीं होती। अपना अनुभव धीरज के साथ उपयोग करते हुए पूरे दमखम के साथ उन्होंने यह स्वर्ण पदक जीता है। वह भारत के अब तक के सबसे एतिहासिक खिलाड़ी हैं। अभी तक किसी भी भारतीय ने भी ऐसी व्यक्तिगत उपलब्धि प्राप्त नहीं की है। ध्यानचंद के नेतृत्व वाली हाकी टीम के बाद अब उनकी उपलब्धि ही एतिहासिक महत्व की है। जिस खेल में उन्होंने भाग लिया उसमें पूरे विश्व के खिलाड़ी खेलते हैं और वह क्रिकेट की तरह आठ देशों में नहीं खेला जाता। ऐसे अवसर पर अभिनव बिंद्रा को बधाई। वैसे उनका खेल निरंतर चर्चा में नही आता पर उनकी उपलब्धि हमेशा चर्चा में रहेगी।
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आखिर उसने इस ब्लाग के पूर्व पाठ की कापी क्यों नहीं की-आलेख


उसने कल मेरा इसी ब्लाग पर लिखा गया आलेख पढ़ा और इसलिये उसने उसकी कापी नहीं की क्योंकि इसमें उसी पर आक्षेप किया गया था। इसका मतलब साफ है कि वह एक सक्रिय ब्लाग लेखक है। उसने मेरे पाठ की कापी अपने ब्लाग पर रखकर एक तरह से अपराधिक कृत्य किया है। वह शायद अनुमान नहीं कर सकता कि मैं उसे ढूंढ लूंगा। उसे कोई अधिकार नहीं है कि मुझे पैसे का भुगतान किये बिना अपनी वेबसाईट पर मेरे पाठ रखे।

उसने मेरे कल तीन ऐसे ब्लाग की पोस्टें कापी कीं जो हिंदी के ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरमों नारद, चिट्ठाजगत और हिंदी ब्लाग पर ही दिखते हैं ब्लागवाणी पर नहीं। इनके नाम हैं साहित्य पत्रिका, अभिव्यक्ति पत्रिका, और अनुभूति पत्रिका। इन तीनों के नाम मैं अक्सर बदलता रहता हूं और कल ही इनका यह नाम रखा था, पर वह इनसे पहले से ही पाठ उठा रहा है। इन पर मैं कभी कभी अपनी पुराने पाठ रखता हूं। जो 12 ब्लाग सभी फोरमों पर दिखते हैं उन पर अपनी नये पाठ रखता हूं। कल के व्यूज देखने से पता चलता है कि उसने नारद और चिट्ठाजगत से ही यह ब्लाग देखे हैं। वह इन्हीं फोरमों से यह कापी करता होगा क्योंकि ब्लागवाणी से उसे पकड़े जाने का भय भी है। ब्लागवाणी पर पसंद का बटन किसी भी कंप्यूटर से एक बार ही दबता है और यह संदेह पैदा करता है कि कहीं वहां उसकी पकड़ न हो। नारद और चिट्ठाजगत से उसे ऐसा भय नहीं है। मतलब वह पुराना आदमी है और यहां से पूरी तरह जानकार है।

सवाल यह है कि उसने विनय प्रजापति ‘नजर’ और मेरे ब्लाग से ही कापी इस क्यों की? इसका उत्तर यह है उसमें साहित्य जैसे विषय होते हैं जो कि आम पाठक के लिये एक अच्छी सामग्री होती है। उसका यह ब्लाग किसी फोरम पर नहीं है। उसने डोमेन लिया है और वह पैसे कमाना चाहता है। वह यहां भी सक्रिय है एक सभ्य ब्लागर के रूप में। उसकी कार्यशैली को मैं जानता हूं उसे इस पाठ के माध्यम से यही समझा रहा हूं।
इससे साहित्यक ब्लाग लेखक हताश होंगे। डोमेन के पैसे का भुगतान तो लोग कर रहे हैं पर हमारे पाठों को वह फ्री का माल नहीं समझ सकते। यह अपने ब्लाग लेखकों और मित्रों को बता दूं यहां डोमेन होना या फ्री ब्लाग होना कोई मायने नहीं रखता। यहां महत्व है लिखे गये विषय का! चुराने वाले तो वेब साइट से भी चुरा सकते हैं और ब्लाग से भी! वह मुझसे चिढ़ा हुआ है और फायदा भी उठाना चाहता है। उसने पेैसे खर्च कर डौमेन तो ले लिया पर लिखे क्या? ताउम्र छलकपट में निकाल दी। लिखने के लिये सरल हृदय होना आवश्यक है। उसने ब्लाग बनाया पर लिखता क्या होगा? उसने विनय प्रजापति ‘नजर’, अचेत, रेवा स्मृति तथा मेरे साहित्यक पाठों की कापी अपने यहां रखी क्योंकि वह ऐसा नहीं लिख सकता।
वह अपने कमाने के लिये मेरा मुफ्त में उपयोग नहीं कर सकता है। मेरे एक पाठ की कीमत है 2500 रु.। उसे अधिक लग सकती है। वह कह सकता है कि यह तो फालतू पड़ी थी। नहीं, उसे यह बात समझनी होगी कि शोरुम में सोने के अनेक कीमती गहने पड़े रहते हैंं पर उससे उनकी कीमत कम नहीं हो जाती। मेरे उसने ढाई लाख रुपये से अधिक के पाठों की कापी की है और उसका भुगतान वह कर नहीं सकता। अगर कोई उस ब्लाग को देखेगा तो कहेगा कि यह तो दीपक भारतदीप का ब्लाग है। वह मेरे नाम को भी भुनाना चाहता है। भले ही फोरमों पर मुझे उस जैसे हिट नहीं मिलते पर आम पाठक की पहुंच मेरे ब्लाग पर बढ़ती जा रही है इसलिये वह मेरे नाम को भी लिख रहा है। यह उसकी चाल है। वह कथित रूप से इन फोरमों पर हिट ब्लागर ही हो सकता है। वह तकनीकी ब्लागर नहीं हैं पर प्रयोक्ता के रूप में वह इसका उपयोग अच्छी तरह जानता है।

उसकी सक्रियता का प्रमाण यह है कि कल उसने मेरे पाठ को अपने कापी कर अपने यहां चिपकाने का काम नहीं किया। आज मेरे कमेंट को माडरेट नहीं कर रहा है। शायद वह अपने उस ईमेल को भी नहीं खोलता होगा जिससे यह ब्लाग संबंद्ध है। वह देख चुका है कि इस पर बवाल मच रहा है। मैंने तकनीकी मित्रों से सलाह की है उनका कहना है कि उसे ढूंढना कोई मुश्किल काम नहीं है। मैं गुस्से में हूं पर अपना विवेक कभी नहीं खोता। यहां अनेक ब्लाग लेखकों ने मुझे कभी न कभी सहयोग और प्रेरणा दी है इसलिये नहीं चाहता कि किसी को इतना मानसिक अधिक आघात पहुंचा दूं कि फिर मुझे पैर वापस खींचने का अवसर ही न रहे। यहां अनेक ब्लाग लेखक है, और पिछले पौने दो वर्षों से अनेक ब्लाग लेखकों से मेरी मित्रता है और करीब करीब सभी सहृदय हैं। कई तो बहुत भोले हैं और मुझे उनके किसी की चाल में फंसने पर दुःख होता है। जिस ब्लाग लेखक पर संदेह है उसे पता नहीं क्यों मैं शुरू से संशय से देखता आया हूं। वह सक्रिय ब्लाग लेखकों है पर उसने टिप्पणी अधिक से अधिक तीन बार दी होगी और उसके प्रिय विषय देखकर मुझे यह समझते देर नहीं लगती कि बेकार की बातें भी कर सकता है।

किसी भी ब्लाग लेखक का पाठ कापी कर अपने ब्लाग पर रखना अपराधिक कृत्य है। इसके लिये उसकी पूर्व अनुमति आवश्यक है।
दीपक भारतदीप, लेखक और संपादक

आज मैं राजीव तनेजा जी की शिकायत पर उस ब्लाग पर गया जहां उनकी कहानी कापी कर रखी गयी थी। उसका भी मैंने विश्लेषण किया तो लगा कि अधिक से अधिक दो लोग ही ऐसे हैं जो ऐसा काम कर रहे हैं। उस पर जो देखकर आया उसे पर आगे लिखूंगा। हां, इतना तय है कि यह ब्लाग पर साहित्य लिखने वाले ब्लाग लेखकों को हतोत्साहित करने वाला कदम है। वैसे अगर नारद और चिट्ठा जगत के पास ऐसा कोई साफ्टवेयर हो कि पता चले कि कल मेरे इन तीन ब्लाग को किस ईमेल से देखा गया तो पता चला सकता है कि वह कौन है क्योंकि कुछ लोगों के पास ऐसे साफ्टवेयर हैं जिससे ईमेल से फोन नंबर पता किया जा सकता है-ऐसा । कल मेरे ब्लाग पर वहां से दो-दो व्यूज आये उनमें एक तो सहृदय ब्लाग लेखक अपनी टिप्पणी दे गये। इसका मतलब दूसरा देखने वाला ही संदेह के घेरे में हो सकता है। अधिक व्यूज होते तो मैं नहीं कहता। वैसे एक बात और है कि वर्डप्रेस के ब्लाग कम व्यूज ही बताते हैं इसलिये मैं इस पर दावे से कुछ नहीं कह सकता कि अन्य व्यूज नहीं होंगे। मै ऐसे ही किसी का नाम नहीं लूंगा जब तक मुझे कोई प्रमाण नहीं मिलेगा। बाकी अभी मैं उसकी गतिविधियों पर नजर रखे हुए हैं उसे रोकना तो होगा ही नहीं तो यहां मौलिक लेखक करना बेकार ही लगने लगेगा।

लेख प्रकाशित करने के चिट्ठकार समूह की चर्चा देखी तो पता चला कि आई डी तो ढूंढ निकाला है। नाम कुछ अंग्रेजी में है पर इससे क्या? वह हिंदी जानता है या कोई ऐसा उसका सहायक है। उसने कल मेरी पाठ की कापी नहीं की इसका आशय यह है कि उसका मतलब वह समझ गया है। वैसे जिस ब्लाग लेखक पर मेरा संदेह है वह न हो तो अच्छा ही है। कम से कम मुझे इस बात की प्रसन्नता होगी कि कि हमारे अपने लोगों पर कभी कोई ऐसा आक्षेप नहीं करेगा।

भेदात्मक दृष्टि वाले विद्वानों की बहुतायत-आलेख


भारत में कदम कदम पर विद्वान मिल जायेंगे। अगर देखा जाये तो हर तीसरे आदमी को अपना ज्ञान बघारने की आदत होती है। फिर अब तो अंग्रेजी से पढ़े लिखे लोगों का कहना ही क्या? यहां भाषा का ऐसा कबाड़ा हुआ है कि हिंदी वाले ही सही शुद्ध हिंदी नहीं समझ पाते और इसलिये अंग्रेजी वालों का भाव अधिक बढ़ा ही रहता है। ऐसे में उनको अपने ज्ञान के अंतिम होने का आभास-जिसे भ्रम भी कहा जा सकता है-कि अपने विचार के प्रतिवाद करने पर हायतौबा मचा देते हैं। ऐसे में मेरा कई ऐसे विद्वानों से वास्ता पढ़ता है जो अपनी बात को अंतिम कहते हैं और सिर हिलाकर सहमति देता हूं। अगर देखता हूं कि वह सहनशील है तो प्रतिवाद करता हूं हालांकि यह भी एक बात है कि जो वास्तव में जो ज्ञानी होते है वह गलत प्रतिवाद पर भी उत्तेजित नहीं हेाते।

जीवन में कई बार ऐसा अवसर आता है जब हमें दूसरे से विचार या ज्ञान लेने की आवश्यकता पड़ जाती है। ऐसे में संबंधित विषय की जानकारी रखने वाले की शरण लेने में कोई संकोच भी नहीं करना चाहिए। मुश्किल तब आती है जब हम ज्ञानी समझकर किसी के पास जाते हैं और वह अल्पज्ञानी होता है। हम उसकी राय से सहमत नहीं होते तो वह उग्र हो जाता है‘-तुम मेरे पास आये ही क्यों?’
फिर अंग्रेजों ने इस देश में अनेक विभाजन स्थापित कर दिये। चाहे
वह समाज हो या शिक्षा सभी क्षेत्रों के अलग अलग स्वरूप कर दिये। उनको इस देश पर राज्य करना था इसलिये फूट डालो और राज्य करो की नीति अपनाई तो शिक्षा में भी अलग-अलग विषय स्थापित किये। अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, हिंदी, राजनीति शास्त्र, विज्ञान, और दर्शनशास्त्र जैसे विषयों में शिक्षा का विभाजन कर इस देश में अधिकाधिक विद्वानों का अस्तित्व बनाये रखने का मार्ग प्रशस्त किया ताकि विवाद खड़े होते रहें पर समाधान न हो। वैसे अर्थशास्त्र में दर्शनशास्त्र को छोड़कर सारे शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है-इसमें भारत के प्राचीन शास्त्र शामिल नहीं है। इस शिक्षा पद्धति से विद्वानों के झुंड के झंड इस देश में पैदा हो गये और आजकल सभी जगह बहसों में उन विद्वानों को बुलाया जाता है जो कहीं अपनी ख्याति अपनी शिक्षा की बजाय अपने धन, पद, और प्रतिष्ठा के कारण अर्जित कर चुके होते हैं।

अब विद्वानों की बात करें तो अर्थशास्त्र के विद्वान केवल अर्थ के धन और ऋण से अधिक नहीं जानते। वह मांग और आपूर्ति की बात करते हैं वह विश्व बाजार में से अपने देश के बाजार की तुलना करते हैं पर कभी अपने समाज के बारे में वह नहीं बोलते। समाज के नियमित क्रिया कलापों का किसी भी देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता पर किसी अर्थशास्त्री को उसका जिक्र करते हुए नहीं देखते होंगे। अर्थशास्त्र के अध्ययन में भारत के पिछड़े होने का कारण यहां के लोगों के अंधविश्वास और रूढियों को भी बताया जाता है। सगाई शादी और मृत्यु के अवसर पर उनके द्वारा दिखावे के लिये धन व्यय करना गांवों में गरीबी का एक बहुत बड़ा कारण माना जाता है। इसके लिये लोग अपनी जमीन गिरवी रखकर सगाई, शादी और मुत्यु के अवसर पर समाज में अपनी साख बनाये रखने के लिये भोज का आयोजन करते हैं और कई लोग तो इतना कर्जा लेते हैं कि उनकी पीढि़यां भी उबर नहीं पाती। पहले भारत के किसान साहूकारों से कर्जा लेते थे और उनकी ब्याज दर बहुत अधिक होती थी। आजकल कई जगह बैंकों से भी कर्जा दिया जाने लगा है पर वह धन वास्तव में कृषि पर होता है या अनुत्पादक कार्यों-जैसा सगाई, शादी या मुत्यु भोज- पर इस कोई चर्चा नहीं करता। आपने कई जगह किसानों द्वारा आत्महत्या की बात सुनी होगी। नित-प्रतिदिन ऐसी घटनायें प्रचार माध्यमों से आती हैं। आखिर वह किसके कर्ज से त्रस्त हो कर आत्म हत्या कर रहे हैं और वह कर्ज किस काम के लिये लिया और किस काम पर किया-यह कभी चर्चा का विषय नहीं बनता। अर्थशास्त्र के विद्वान तो समाज शास्त्र का मुद्दा होने के कारण इस पर प्रकाश नहीं डालते और समाज शास्त्री अर्थशास्त्र का विषय मानकर मूंह फेर जाते हैं। वर्तमान में पश्चिमी प्रभावित संस्कृति ने जिस तरह इस देश में पांव फैलाये हैं और भौतिकता के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है उससे समाज में तमाम तरह के आर्थिक तनाव है पर यह बात कोई नहीं लिखता।
मैंने इस पर अनेक लंबी चैड़ी बहसें सुनी हैं पर यह सच्चाई सामने नहीं आ पाती कि आखिर किसानों के कर्ज के आत्महत्या के मूल में कारण क्या है? क्या किसी समाज शास्त्र ने इस पर अपना विचार रखा है। यह एक चिंता का विषय है। यह आत्महत्यायें देश के लिये शर्म की बात है पर हमारे अर्थ और समाज शास्त्री इसके मूल कारणों पर प्रकाश डालने की बजाय ऐसी बहसों में ही लगे रहते हैं जिनका कोई हल नहीं निकलाता।
अर्थशास्त्र में यह भी पढ़ाया जाता है कि यहां रूढि़वादिता है। अगर किसी किसान के छह बेटे हैं तो उसके बाद उसकी जमीन के छह विभाजन हो जाते हैं और यह विभाजन आगे बढ़ता जाता है और धीरे-धीरे कृषि योग्य जमीन कम होती जाती है। जनसंख्या वृद्धि के चलते यह समस्या बढ़ती जाती है और इसका अंत भी अभी तो नजर नहीं आता। देश के अर्थशास्त्री विश्व बाजार में उथल पुथल के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की बात तो करते हैं जो कि जो केवल औद्योगिक क्षेत्र पर ही पड़ता है। भारत की अर्थव्यवस्था आज भी कृषि प्रधान है और उसके साथ ऐसी समस्यायें जो अन्य देशों में कम ही पायी जातीं है-जिनका निराकरण केवल कर्जे माफी से नहीं बल्कि देश में रूढि़वादिता के विरुद्ध लोगों में जागृति कर ही लाया जा सकता है।
किसान-उद्योगपति, मजदूर-मालिक, स्त्री-पुरुष, जवान बालक-वृद्ध और अधिकारी-कर्मचारी जैसे भेद कर सब पर अलग-अलग चर्चा करते हुए ढेर सारे विद्वानों के तर्क सुनिये और फिर भूल जाईये। कोई घटना हो तो तैयार हो जाईये प्रचार माध्यमों पर फिर वही बहस सुनने के लिये।
बहसें भी ऐसी होती हैं कि किसान, मजदूर, स्त्री, बालक-वृद्ध के कल्याण पर ऐसे तर्क सुनाये जाते हैं कि दिल खुश हो जाता है। उद्योगपति, मालिक, पुरुष और जवान की जैसे कोई समस्या नहीं है जबकि यह अभी तक इस भारतीय समाज में अपनी सक्रियता के कारण प्रभाव बनाये हुए हैं।
आखिर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सारी बहसें होने के बावजूद कोई निष्कर्ष क्यों नहीं स्थापित हो पाता है। कुछ लोग कहते हैं कि अगर निष्कर्ष निकलने लगे तो फिर बहस के लिये बच क्या जायेगा? अर्थशास्त्र में मनोविज्ञान का अध्ययन किया जाता है जो कि सारे शास्त्रों का आधार स्तंभ होता है पर विद्वान लोग इस पर कभी चर्चा नहीं करते। वैसे मैंने मनोविज्ञान नहीं पढ़ा पर अपने मन को एक दृष्टा की तरह उसके उतार चढ़ाव देखकर कई अनुभूतियां होती हैं उस पर कविता और आलेख लिखता हूं। इसलिये मैं कभी भेदात्मक दृष्टि से कहीं नहीं देखता।
ऐसा अनेक बार होता है कि कहीं दो समुदायों में दंगे होते हैं तो वहां पर कुछ सज्जन लोग दूसरे समुदाय वाले को न बल्कि बचाते हैं बल्कि उसकी अन्य प्रकार से सहायता भी करते हैं। वह लोग प्रशंसनीय हैं पर देखने वाले लोग इसमें भी भेद देखते हुए उसकी कहानी बयान इस तरह बताते हैं कि जैसे कोई अस्वाभाविक बात हुई हो। तमाम तरह के कसीदे पढ़े जाते हैं और बताया जाता है कि ऐसे में भी कुछ लोग हैं जो दुर्भावना में नहीं बहते।

आप जरा इस पर गहराई से दृष्टि डालें तो यह समझ में आयेगा कि मनुष्य का मन ही उसे ऐसे काम के लिये प्रेरित करता हैं हर मनुष्य में क्रूरता और उदारता का भाव होता है। कुछ लोगों में जब क्रूरता का भाव पैदा होता है तो कुछ में दया भाव भी होता है। अगर कहीं कोई मनुष्य तकलीफ में है तो और इधर उधर कातर भाव से देखता है तो उसकी भाषा न जानने वाला व्यक्ति सामथर्य होने पर उसकी सहायता करता हैं-कोई भी मनुष्य अपने पास पानी या भोजन होने पर किसी को प्यासा या भूखा करने नहीं दे सकता क्योंकि उसका मन नहीं मानता। अगर किसी व्यक्ति को किन्हीं व्यक्तियों से खतरा उत्पन्न हो गया है तो उसके निकट उस समय मौजूद कोई अनजान आदमी भी उसे छिपा सकता है क्योंकि किसी आदमी को संकट में फंसे होने पर मूंह फेरने के लिये उसका मन नहीं मानता। यह मन है जो मनुष्य को चलाता है मगर देखने और सुनने वाले भी उसमें धर्म, जाति और भाषा के भेद कर उस पर लिखते हैं और वाहवाही बटोरते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर कोई मनुष्य किसी की सहायता करता है तो वह उसकी प्रकृति न कि उसे जाति, धर्म या प्रदेश से जोड़ना चाहिये।

वाद और नारों पर बनी अनेक विचाराधाराओं के मानने वाले विद्वान इस देश में हैं और वह अपनी भेदात्मक बुद्धि के कारण विश्व में कोई सम्मान नहीं बना पाये उल्टे वह विदेशी विद्वानों के कथनों को यहां लिखकर ऐसे दिखाते हैं जैसे तीर मार लिया हो। अगर आप देखें तो निश्चयात्मक और भेद रहित होकर संत कबीर, रहीम और तुलसी ने पूरे विश्व में ख्याति अर्जित की और अब तो विदेशों में भी उनकी लोकप्रियता बढ़ रही है। मूर्धन्य हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद ने भी इसी मार्ग का अनुसरण किया और इसलिये उनको पूरे विश्व में ख्याति मिली। बाद में हुए विद्वान वाह वाही बटोरने के लिये अंग्रेजों द्वारा सुझाये गये भेदात्मक मार्ग पर चले तो फिर किसी ने विश्व में अपनी ख्याति नहीं बनायी। हां, तमाम तरह के शास्त्रों के अध्ययन के नाम पर उनको धन और सम्मान जरूर मिला पर यहां वह लोगों के हृदय में स्थान नहीं मना सके। यही कारण है कि पुराने विद्वान आज भी प्रासंगिक है और वर्तमान विद्वान भेदात्मक मार्ग के कारण आपस में झगड़े कर वहीं गोल-गोल चक्कर लगाते हैं।

इसका कारण यह है कि वाद और नारों पर चलते रहने से एक छवि बन जाती है और उससे विद्वान लोगों को यह लगता है कि उसे भुनाया जाये। वैसे अधिकतर लोग किसान, नारी,गरीब, बालक, शोषित, वृद्ध और अन्य तमाम तरह के वह वर्ग जिनके नाम पर शब्दों का संघर्ष कर अपनी छवि बनायी जा सकती है उनका उपयोग करते हैं। अब ऐसा भी नहीं है किसी एक वर्ग का नारा लगाकर काम करते हों वह समय के अनुसार अपने अभियानों में वर्ग बदलते रहते है ताकि लोग उनके वाद और नारों से उकतायें नहीं। कभी किसान की बात करेंगे तो कभी गरीब और कभी नारी कल्याण की बात करेंगे। यह सब केवल अपनी छवि बनाये रखने के लिये करते है। यही कारण है कि कोई समग्र विकास में समस्त लोगों के हित देखने की बात कोई नहीं करता।

अपनी गलतियों से सिखाता हुआ बीस हजार की पाठक संख्या पार कर गया यह ब्लोग


मेरे यह ब्लाग/पत्रिका भी आज बीस हजार की पाठक संख्या को पार कर गया। ऐसा करने वाला यह तीसरा ब्लाग/पत्रिका है। इस ब्लाग का नाम गंभीरता से नहीं लिखा गया। पता तो केवल प्रयोग करने के लिये डाला गया इसी कारण इतना लंबा है। इस ब्लाग से मेरी ऐसी यादें जुड़ीं हुईं है जो मेरा आत्म विश्वास बढ़ाती हैं। कभी कभी मेरे दिमाग में उग्रता का भाव आता है तो मैं इसके लिये ही लिखने लगता हूं। अंतर्जाल पर अपने लिखने के लिऐ एक लेखक जब तकनीकी ज्ञान से रहित हो तब पर किन हालतों से गुजरता है और किस तरह अपनी गलतियों से सीखता है यही संदेश यह ब्लाग मुझे देता है।

आज से सात वर्ष पूर्व मैं उच्च रक्तचाप का शिकार हुआ। तब मुझे लगा कि मैं जब भी अध्यात्म और लेखन से दूर जाता हूं मेरे अंदर अनेक शारीरिक विकार उत्पन्न होते है। ऐसे में मैंने लिखने में अपना मन लगाने के साथ ध्यान में अपना मन लगाने का विचार किया। चूंकि यह दोनों मनोवृत्तियां मेरे अंदर प्रारंभ से ही है इसलिये अनेक लोगों से व्यक्तिगत संपर्क में इस पर चर्चा होती रहती है। उन्हीं दिनों एक भक्त किस्म के व्यक्ति को मैं अपनी एक अध्यात्म संबंधी रचना दिखा रहा था तो उसने मुझसे कहा ‘तुम तो दीपक बापू हो‘। फिर वह जब भी मिलते मुझे इसी नाम से बुलाते हैं। उन्हीं दिनों मैं एक रजिस्टर खरीद लाया और उस पर ऐसे ही शीर्षक लिख दिया ‘दीपक बापू कहिन’। अकेले बैठकर उस पर चिंतन वगैरह लिखता और कभी कभी पत्रिकाओं के लिए व्यंग्य वगैरह लिखता तो वह अलग से लिखता। उस रजिस्टर पर मैंने कविताएं भीं लिखीं।

जब अंतर्जाल पर लिखना शुरू किया तो वह रजिस्टर मेरे पास ही था क्योंकि मैं कृतिदेव से पाठ लिखकर इस प्रकाशित करने वाला था। अक्षरग्राम से मेरा संपर्क जम नहीं रहा था। पता नहीं कैसे वर्डप्रेस पर जब दीपक बापू कहिन लिखा कर हाथ पांव मारे तो अक्षरग्राम जैसा कुछ सामने आता लगा-तब मैं नहीं जानता था कि यह एक दरवाजा है जहां से मैं दाखिल हो रहा हूं। फिर नारद से भी संपर्क नहीं जम रहा था तब चल पड़ा था अपनी अकेली राह। हां, मुझे याद है उन्मुक्त का वह संदेश ‘आपका ब्लाग तो कूड़ा दिख रहा है।’ हतप्रभ होकर मैंने दूसरा ब्लाग बनाया जिसे आज ‘शब्द पत्रिका’ फिर तीसरा ‘हिंदी पत्रिका’ के नाम से जाना जाता है। ‘हिंदी पत्रिका’ पर यूनिकोड में एक क्षणिका टाईप कर प्रकाशित की और उस पर मिली थी मुझे पहली टिप्पणी। मगर मुझे आगे लेकर निकली थी उन्मुक्त जी और सागरचंद नाहर की टिप्पणियां। मैं उन्मुक्त जी का प्रशंसक हूं। कभी भ्रमित नहीं करते और तकनीकी ब्लाग लेखकों में उनको और अनुनादजी को मैं बहुत मानता हूं। श्रीश शर्मा जी की बहुत याद आती है पर वह दिखते ही नहीं।

ब्लाग लेखकों ने प्रेरित किया और समय समय पर टूल भी बताये पर ब्लाग की तकनीकी के बारे में मुझे किसी ने कुछ नहीं सिखाया। अगर मैं सीखा तो अपनी गलतियों से। अभी दोतीन दिनों से चिट्ठाकार चर्चा में बहस इस बात पर चल रही है कि किसी के ब्लाग पर व्यस्क सामग्री की चेतावनी आ रही है। तमाम बड़े ब्लाग लेखक उसके साथ सहानुभूति जता रहे हैं पर यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि ब्लाग स्पाट की सैटिंग में उसने व्यस्क सामग्री पर ‘हां‘ पर क्लिक कर रखा है। मैंने दो दिन पहले भी बताया था और आज भी लिख रहा हूं। पहले मेरा लिखा अगर पढ़ा होता तो शायद आज उनको इतने सारे शब्द खर्च नहीं करना पड़ता। इससे एक बात तो पता लगती है कि जो तकनीकी श्रेणी का छलावा है वह भी कम नहीं है।

चिट्ठा चर्चा में श्री समीरलाल ‘उड़न तश्तरी’ ने लिखा था कि ‘दीपक बापू कहिन इस ब्लाग जगत में नया अलख जगायेगा‘। मैं आज भी सोचता हूं कि उन्होंने केवल तुक्का मारा था या पढ़कर प्रभावित हुए थे। क्योंकि मुझे लगता है कि वह अब कहीं जाकर बेहतर लिख रहे हैं। उस समय तो मुझे उनके पाठों में अधिक रुचि नहीं रहती थी। उस समय मैं उनकी परवाह भी नहीं करता था पर आज देखकर लगता है कि वह वाकई प्रभावशाली व्यक्तित्व के मालिक हैं। उस समय उनके अधिकतर पाठ ब्लाग लेखकों को ही प्रभावित करने वाले लगते थे। अब उनके लेखक में जो गंभीरता आ रही उससे ही लगता है कि वह न केवल अच्छे लेखक भी हैं बल्कि पाठक भी हैं। वैसे अच्छे पाठक अच्छे लेखक हो यह जरूरी नहीं है पर अच्छे लेखक जरूर अच्छे पाठक होते हैं। आप देखिये तीन दिन पहले मैंने ही ब्लाग स्पाट के ब्लाग लेखक को व्यस्क सामग्री संबंधी जानकारी दी पर किसी ने नहीं पढ़ी और आज सभी लोग फिर उसी बहस में लगे रहे। यह इस बात का प्रमाण है कि लोग कम पढ़ते हैं और लिखने का प्रयास अधिक करते हैं। मैं आज यह सोचता हूं कि मैं एक ब्लाग लेखक होकर वेबसाइट धारकों सलाह लेने की गलती करता था इसी कारण हमेशा परेशान रहा-यह संदेश मुझे इसी ब्लाग पर मिलता है। इस ब्लाग को विलंब इसलिये भी लगा कि मैंने इस पर रचनाएं भी एक अंतराल के बाद ही दोबारा प्रकाशित करना शुरू कीं।

आने वाले समय में भी मैं सोच रहा हूं कि थोड़ा अधिक बेपरवाह होकर लिखा जाये। अभी कुछ बातें स्पष्ट करने में थोड़ा संकोच होता है पर अब उसे भी छोड़ना होगा। अंतर्जाल पर लटके-झटके और भ्रमजाल का विस्तार हो रहा है। फिर अब यह भी अनुभव हो रहा है कि वेबसाइट बनाने वाले ब्लाग लेखक एक तरह से अपने को अलग समझ रहे हैं। वह अपने को ऐसा ही समझ रहे हैं जैसे अधिक पैसा खर्च कर विशिष्ट कक्ष में बैठे हैं। इनमें कुछ मेरे मित्र है और वाकई भोले हैं पर कुछ चालाक हैं और उनकी मित्रता केवल दिखावा है। लिखने के मामले में अधिक प्रभाव नहीं छोड़ते भले ही टिप्पणियां उनके पास अधिक होती हैं। वेबसाइट का मालिक होने के बावजूद वह ब्लाग जगत में इसलिये सक्रिय हैं कि उनके कुछ निहितार्थ हैं। मैं मूलतः अल्हड आदमी हूं पर चालाकियां मेरे सामने छिपतीं नहीं है। बहरहाल मैं अपने पाठको, मित्रों और हितचिंतकों का आभारी हूं। यह मेरा सेनापति ब्लाग है और ब्लाग लेखकों के साथ ही अनेक वेबसाइटें इस पर मेहरबान हैं। हां, पाठकों का समर्थन अधिक नहीं मिल पा रहा है इसलिये यह विलंब से इस मुकाम पर आया। अब मेरा सोचना है कि मुझे लिखना कम कर यहां हिंदी ब्लाग जगत पर साहित्य लिखने वालों पर प्रेरणा देन का काम भी टिप्पणियां उनके ब्लाग पर रखकर करना चाहिए। यहां ऐसा लिखने वाले कई हैं पर उनको प्रेरित करने वालों में समीरलाल और दो तीन अन्य लोग ही इस बात के लिए प्रयत्नशील रहते हैं पर यह संख्या पर्याप्त नहीं है।
विभिन्न प्रमुख स्थानों से आये पाठक

narad.akshargram.com 965
blogvani.com 819
filmyblogs.com/hindi.jsp 334
google.co.in/ig?hl=hi 296
chitthajagat.in 146
blogvani.com/?mode=new 75
blogvani.com/Default.aspx?count=100 63
anantraj.blogspot.com 48
rajlekh.blogspot.com 43
narad.akshargram.com/page/2 38
rajlekh.wordpress.com 36
parikalpnaa.blogspot.com 36
gwaliortimes.com 35
blogvani.com/Default.aspx?mode=new 32
narad.akshargram.com/?show=all 31
blogvani.com/Default.aspx?count=50 28

पाठकों के पसंद से विभिन्न पाठ
Title Views
रहीम के दोहे: सं 423
पुराने ताजमहल ़/a> 212
चाणक्य नीति:अस़/a> 211
तन में तंत्र मन 193
पति-पत्नी और चो༯a> 192
वर्षा ऋतु:कहीं ༯a> 169
फिर करना अभिमा़/a> 168
संत कबीर वाणी:ज༯a> 166
भजन करते-करते भ༯a> 148
गर्मी पर लिखी ग༯a> 147
निष्काम और सहज ༯a> 139
चाणक्य नीति:कु़/a> 136
इस ब्लोगर मीट प༯a> 135
अपना नाम भी होग༯a> 128
काहेका भला आदमॼ/a> 127
रहीम के दोहे: जा 127
उसने मोबाइल की ༯a> 126
गीत-संगीत का मो༯a> 118
रहीम के दोहे: वा 115
मूर्ति पूजा से ༯a> 113
रहीम के दोहे:मा༯a> 112
अंग्रेजी की लत़/a> 111
रहीम के दोहे:मे 104
शेयर बाजार के उ༯a> 104

इसलिए आज हमने कोई व्यंग्य नहीं लिखा


कृतिदेव को यूनिकोड के बदलने वाला टूल आने पर मैंने सोचा था कि प्रतिदिन व्यंग्य लिखा करूंगा। जब यूनिकोड में लिखता था तो मुझे कुछ नहीं सूझता था और व्यंग्य कविता लिख कर काम चलाता था उससे जो नाम कमाया आज तक मेरे साथ चल रहा है। तब मन ही मन गुंस्सा भी होता था कि यार यह कहां फंस गये। लिखने का कुछ सोचते मगर लिख कुछ और जाते। अब तो कृतिदेव सीधे लिखने की सुविधा है तो लगता है कि बकवास अधिक लिख रहे हैं, व्यंग्य वगैरह तो गया तेल लेने। पहले फ्लाप थे और कृतिदेव को यूनिकोड में बदलने वाला टूल आया तो सोचा कि अब तो हिट होकर ही दम लेंगे। मगर आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत खराब होती है और भले ही सबको सलाह खूब देते हैं पर स्वयं उसका शिकार जरूर होते है। यह तो गनीमत है कि यूनिकोड मेंं मजबूर होकर लिखने की वजह से कुछ ऐसे पाठ लिख गये जो आज तक हमारा नाम चला रहे हैं।

आज हमने सोचा चलो पाठ लिखने को विराम देते है। कुछ आत्ममंथन करें। दूसरों के ब्लाग देखें और फिर शुरू करें। फोरम पर चलते हुऐ हम आशीष कुमार अंशु के ब्लाग पर पहुंच गये। उनके ब्लाग पर किसी टीवी चैनल की ब्रेकिंग न्यूज दिखाई जा रही थी। वह तो अपनी पोस्ट डाल कर बैठ गये और हम पढ़ते हुए चिंतन में आ गये। भई याह क्या है? कमिश्नर का कुत्ता मिला! वह कुता जो लापता हो गया था! हमने उल्टा पुल्टा विचार किया और सोचते रहे आखिर यह क्या हो रहा है? आखिर पोस्ट डालकर वह कहना क्या चाहते है? कुछ लिखा ही नहीं। मगर क्या लिखते ‘अंशु जी’। जब ऐसे व्यंग्य चित्रों के रूप में हास्य व्यंग्य के जीवंत दृश्य प्रकट होते हैं तो भला कौन अपने शब्द लिखकर हिट हो सकता है। बना बनाया हुआ व्यंग्य सामने आ जाये तो लिखा हुए व्यंग्य कौन पढ़ना चाहेगा?

हमारे व्यंग्यकार मित्र श्री शिवकुमार मिश्र ढेर सारे शब्द लिखकर कर व्यंग्य लिखते हैं। उनको देखकर ही मैं सोचता हूं कि अगर व्यंग्य लिखूं तो उन जैसा नहीं तो लिखना बेकार है-ऐसे ही अपनी छवि बनी हुई। अगर हम व्यंग्य लिखें तो उनसे लोग तुलना करेंगे और हम क्या उनका मुकाबला करेंगे। मगर आज पोस्ट देखकर मैं सोच रहा ं कि व्यंग्य लिखकर तो मैं तो क्या मेरे फरिश्ते भी हिट नहीं हो सकते। एक तो श्री शिवकुमार मिश्र की चुनौती का सामना करने में मैं संक्षम नहीं फिर अगर यह टीवी चैनल वाले ऐसी खबरें देते रहे और आशीष कुमार ‘अंशु’ जैसे लोग उनको लाकर यहां ब्लाग रखते रहे तो भला हम कहां लिख पायेंगे। इससे तो अच्छा है चिंतन लिखकर अपना रुतवा झाड़ते रहें। लोग सोचें कि कोई बड़ा भारी विद्वान है जिसका ब्लाग पढ़ रहे हैं।
कुछ दिनों बाद टीवी पर चैनलों पर ऐसी ही खबरे आयेंगीं कि अमुक हीरो का कुत्ता खो गया। चारों तरफ रेड अलर्ट घोषित किया गया है। तलाशा जारी है। कभी ऐसी खबरें आयेंगी कि अमुक हीरोइन की बिल्ली बीमार है उसके लिये पूरे देश में प्रार्थना की जा रही है। एक फिल्मी हस्ती के घर के बाहर एक चूहे को दौरा करते देखा गया। एक हीरो ने अपनी बिल्ली का आज नामकरण किया और जोरदार पार्टी रखी। आईये हम आपको सीधे वहां ले चलते हैं। वगैरह… वगैरह……..
लोग हंसते हुए कभी कभी रोने भी लगेंगे। हंसेगा कौन मैं, उड़न तश्तरी और श्री शिवकुमार मिश्र और अन्य व्यंग्यकार ब्लाग लेखक। रोएगा कौन? ताकतवर हस्तियों को देखकर उनमें अपने जजबात जोड़ने वालों की संख्या का अनुमान मेरे पास नहीं।

अभी हमारे हिंदी ब्लाग जगत के सबसे लोकप्रिय ब्लाग लेखक उड़न तश्तरी के समर्थकों ने एक सुपर स्टार का ब्लाग नहीं देखा। नहीं तो उनमें से कई उनसे मूंह फेर लेते और कहते कि अब यह ब्लाग जगत के सुपर स्टार नहीं है। उस सुपर स्टार के ब्लाग पर 294 टिप्पणियां तों मैंने देखी थी। उस समय मैं सोच रहा था कि हमारे हिंदी ब्लाग जगत में शायद अभी तो कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जो अपने ब्लाग लेखक मित्रों के अलावा कहीं से इतनी टिप्पणियां जुटा सके। मेरा दावा कि कई लोगों ने उस ब्लाग को पढ़ा ही नहीं होगा क्योंकि वह अंग्रेजी में था दूसरा उसका विवरण पहले ही अखबारों में छप चुका थां। आखिर मुझे उस समय उड़न तश्तरी जी की याद क्यों आयी? मैं उस अंग्रेजी में लिखने वाले सुपर स्टार के मुकाबले अपने ही मित्र और हिंदी भाषा के सेवक समीरलाल उड़न तश्तरी को कमतर क्यों बता रहा हूं? इसलिये कि उस ब्लाग को मैं हिंदी-अंग्रेजी टूल से पढ़ रहा था तो मेरे लिए तो हिंदी में ही हुआ न!सच तो यह है कि लोग आकर्षण का जबरदस्त शिकार हैं और वह ऐसे आनंद में खोना चाहते हैं जिसमें उनकी बुद्धि का व्यय न हो। यह मान लिया गया है कि कला और साहित्य में सृजन भी केवल प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोगों से ही चमकता है। पढ़ना समझ में आये या नहीं पर पढ़ने का गौरव हर कोई चाहता है और इसलिय जरूरी है कि कोई बड़ा नाम लिखने वाले से जोड़ा जाये।

आम लोग शायद इसी तरह के खबरें पसंद करते हैं जिसमें कोई बड़ी हस्ती का नाम जुड़ा हो-मीडिया जगत में यही एक विचार है। विद्वान कहते है कि निजी क्षेत्र मांग और पूर्ति के आधार पर कार्य करता है। मुझे लगता है कि कई बार यह सिद्धांत नहीं करता बल्कि अपनी पूर्ति के लिये मांग बनाता है। अब कई ऐसे तत्व हैं जो हमारी नजर में नहीं आते। समाचार चैनलों पर समाचार तो हैं ही नहीं। मैं घर में सवा (सात, आठ और कभी कभी नौं) के टाईम पर आता हूं। दस पंद्रह मिनट शवासन और ध्यान कर जब टीवी खोलता हूं तो जबरन क्रिकेट की खबरें मेरे सामने होतीं हैं। मुझे नहीं लगता कि क्रिकेट प्रेमियों का टीवी की खबरों में रुचि होती है। हां हम भी तब ही देखते हैं जब अपना देश जीत जाता है। यहां कोई भी टीम इतनी लोकप्रिय नहीं है जिसके लिये इतना समय बर्बाद किया जाये। मगर निजी टीवी चैनल जबरन खबरें थोपे जा रहे हैं। सरकारी दूरदर्शन आज भी समाचारों की दृष्टि से सवौपरि है-हो सकता है मेरी यह बात कुछ लोगों का बुरी लगे पर जब खबरें देखनी हैं तो वही देखने में मजा आता है। मनोरंजक चैनल हों या समाचार चैनल लोगों को मूर्ख मानकर अपने कार्यक्रम पेश किये जा रहे है। 14 वर्ष की एक लड़की की हत्या और उसके आरोप में उसके पिता की गिरफ्तारी के मामले में इस मीडिया का रवैया संवेदनहीन रहा है। जिस तरह खबर को एक फिल्म की तरह प्रस्तुत किया गया उसके आगे तो कई कहानियां भी फ्लाप है और अगर ऐसे ही खबरे आईं तो फिल्म वालों की भी स्थिति खराब हो जायेंगी।

बहरहाल जब मैंने यह ब्लाग देखा तो तय किया कि आज तो कोई व्यंग्य नहीं लिखेंगे। इससे अधिक हिट तो मिल ही नहीं सकते। हां, अगर यह पाठ पढ़कर हमारे मित्र श्री शिवकुमार मिश्र वहां यह ब्लाग न पढ़ने न चले जायें हो सकता है कि वह भी कहीं ऐसा निर्णय न ले बैठें। तब हम कहां जायेंगे। ऐसी खबरों पर हंस सकते हैं पर अधिक देर तक नहीं और हमें मजबूर होकर उनका ब्लाग तो पढ़ना ही है। अब कुछ दिन तक देखकर ही व्यंग्य लिखेंगे। इतनी मेहनत से व्यंग्य लिखो और फ्लाप हो जाओं तो क्या फायदा? यकीन मानिए कुछ लोग इस खबर पर यह भी कह रहे होंगे कि ‘भगवान की कृपा हो तो आपका खोया कुत्ता भी वापस आ सकता है। इसलिए भगवान को भजना चाहिए।
नोट-यहां मैंने अपने कुछ मित्र ब्लाग लेखकों के नाम उनके प्रति सद्भावना के कारण लिखे है। उनको इंगित करते हुए जो मैंने शब्द लिखें हैं उसका अन्य कोई आशय नहीं है। उससे पाठकों को यह समझाना है कि उनकी बौद्धिक चेतना का हरण किया जाकर उन्हें मूर्ख बनाया जा रहा है।

अपनी मूल भाषा में लिखने से पाठ में आती है स्वाभाविक मौलिकता-आलेख


मेरे विचार से अब हमें यह तय करना चाहिए कि हम अपनी भाषा के साथ अपना मौलिक जीवन जीना चाहते है या अंग्रेजी के साथ बनावटी रूप रखकर अपने आपको धोखा देना चाहते हैं। मैं हिंदी में कई बरसों से लिखता आया हूं । बीच बीच में मेरे मस्तिष्क में यह विचार आता था कि अंग्रेजी में लिखूं। मैंने शैक्षणिक जीवन मेंे तीन माह तक अंग्रेजी की शिक्षा निजी रूप से एक शिक्षक से प्राप्त की थी। इस कारण अंग्रेजी के व्याकरण का ज्ञान है इसलिये अगर कठिन शब्द न हों तो मैं अंग्रेजी भी पढ़ लेता हूं। सीखने के बाद ऐसे हालात नहीं मिले कि मैं अंग्रेजी का अभ्यास करता और फिर हिंदी में ही पढ़ने को बहुत था तो अंग्रेजी के अभ्यास के लिये उससे परे रहने का विचार तक नहीं किया। हां, अंग्रेजी के कई मशहूर उपन्यास हिंदी में अनुवाद होकर छपते थे तो उनको पढ़ लेता था। हिंदी के साथ अंग्रेजी टाइप का ज्ञान मेरे काम आया और मुझे एक अखबार में तब फोटो कंपोजिंग के रूप में कार्य करने का अवसर मिला।
जी हां, जो कंप्यूटर घर घर में पहुंच रहा है उसे मैंने आत्म निर्भरता के लिये उठाये कदम के रूप में 1982 में कार्य किया था। उस समय विंडो नहीं था। अगर इस पाठ को पढ़ने वाला कोई व्यक्ति इससे पुराना इस पर काम करने वाला हो तो इस पाठ पर टिप्पणी जरूर लिखे।

उस समय अक्सर लोग कहते थे कि सारा तकनीकी ज्ञान अंग्रेजी में है इसलिये उसका ज्ञान जरूरी है। उस समय जब कंप्यूटर की किताब हमें पढ़ने के लिऐ दी गयी वह मेरी समझ में नहीं आयी फिर भी मैं कंप्यूटर सीखा। उस समय मैं कंप्यूटर पर काम करने वाली लड़कियो या लड़कों के पास बैठा रहता। मेरे साथ तीन अन्य लोग भी थे और वह भी वहां ऐसे ही प्रशिक्षण ले रहे थे। मैं उनको की बोर्ड पर अक्षरों के अलावा अन्य बटन दबाकर देखता था कि वह उसका क्या उपयोग कर रहे हैं। अक्षरों के साइज, बनावट और अन्य विशेष काम एफ-1 से एफ-300 तक होता था। मतलब सारा काम कीबोर्ड से होता था। हम चारों दूसरों का कम देख नोट बनाते और फिर रात को कमरे पर उसे आपस में बांटते। मात्र एक माह में हम वहां कार्य करने योग्य हो गये थे। मतलब किसी ज्ञान के लिये भाषा नहीं बल्कि आदमी में लगन होना बहुत आवश्यक है।

उसके बाद जब दोबारा कंप्यूटर पर आया तो हिंदी में एक किताब खरीद लाया। मतलब आज तक मुझे अंग्रेजी का पूरा ज्ञान न होने के बावजूद कंप्यूटर पर काम करते देख कोई भी कह सकता है कि अंग्रेजी का महत्व है पर उतना नहीं कि आप आदमी उसके बिना विकास न कर सके। मुझे याद है जब मैं हिंदी टाईप सीख रहा था तब लोग मुझ पर हंसते थे कि देखो सारी दुनियां अंग्रेजी की तरफ जा रही है और यह हिंदी की तरफ जा रहा है। मैंने पहले हिंदी में टाईप मध्यप्रदेश बोर्ड से पास की और फिर अंग्रेजी टाईप सीखी। बेरोजगारी के दिनों में मुझे यह लगता था कि इसका ज्ञान भी होना चाहिए। हालांकि उसमें अधिक प्रवीणता कभी नहीं रही पर कई बार उसकी अभ्यास कर लेता। जब मैंने अंतर्जाल पर लिखना शुरू किया तो मुझे आज भी वह दिन याद आते हैं जब मैंने अपने आपको उन दिनों हिंदी और अंग्रेजी को लेकर अपने को मानसिक अंतद्वंद्व में अनुभव किया था। उस समय कई बार लगता था कि बेकार ही हिंदी में उपन्यास आदि पढ़ने में नष्ट किया इससे अंग्रेजी ही पढ़ लेता। समय के साथ धीरे-धीरे यह भी लगने लगा कि मुख्य बात है अपनी लगन और परिश्रम। हिंदी में लिखने पर जब लोगों से प्रशंसा मिलने लगी तो भी मुझे यही लगता था कि भला इससे क्या होने वाला है?

मैं पिछले दो वर्ष से अंतर्जाल पर लिख रहा हूं। ब्लाग बनाने में मुझे परेशानी आयी पर इसका कारण अंग्रेजी के अज्ञान का अभाव नहीं बल्कि उतावलापन था। जब मैं ब्लाग बना रहा था तब भी यह आत्मविश्वास था कि जब मैं इस पर लिखना शूरू करूंगा तो अपने लिये मित्रों और पाठकों की संख्या बहुत अंिधक संख्या में जुटा लूंगा। जिस दिन गूगल पर हिंदी में शीर्षक के रूप में टंकित शब्द मुझे हिंदी में कुछ दूसरा नजर आया और फिर उसके हिंदी टूल पर पहला अक्षर टाईप किया तो मैंने अनुभव किया कि हिंदी पूरे विश्व पर भी छा सकती है। आज रोमन से हिंदी में शब्द कर रहा है कल हिंदी को भी अंग्रेजी अनुवाद करने वाला टूल भी आ सकता है। तब हो सकता है कि मेरा हिंदी में लिखा अंग्रेजी में पढ़ा भी जा सके।

उस समय यह केवल एक विचार था पर आज उसे इतनी जल्दी साकार होते देख मुझे आश्चर्य होता है। एक लेखक के रूप में मेरी सफलता या असफलता का मूल्यांकन करने का कोई आधार मेरे पास नहीं है पर इतना तय है कि मुझे अपने हिंदी लेखक होने को लेकर कोई ग्लानि नहीं है। मेरे सारी अंतर्जाल पर हिंदी को लेकर लगाये अनुमार एक के बाद एक साकार होते गये। मेरे से पुराने ब्लाग लेखक यह बता सकते हैं कि मेरा कृतिदेव या देव में लिखे गये हिंदी लेख उनको समझ में न आने पर मुझे किस तरह रोमन लिपि में यूनिकोड टूल से हिंदी लिखने का प्रेरित किया। इन्हीं ब्लाग लेखक मित्रों से ही फिर वापस अपने रास्ते पर आ गया।

अगर मेरे ब्लाग की कुल पोस्टें देखें तो अभी भी नब्बे प्रतिशत के आसपास रोमन लिपि से टूल के द्वारा हिंदी में परिवर्तित हैं। अभी शायद एक या डेढ़ महीने से ही देव और कृतिदेव का उपयोग कर रहा हूं। यह कथा तो मैं कई बार लिख चुका हूं पर अपनी यह बात बताने के लिये लोगो को यह समझाना जरूरी है कि दोनों के बीच में अंतर क्या है?
सीधे यूनिकोड में लिखने वाले लेखक मेरे बात को अन्यथा न लें और अगर उनको हिंदी टाईप नहीं आती तो वह रास्त भी न बदलें पर यह वास्तविकता है कि कृतिदेव में लिखते हुए जितनी सहयता लगती है उतनी यूनिकोड मेंे नहीं होती। भाषा का भाव से गहरा संबंध हैं। अगर मुझे क लिखना है तो मेरे दिमाग में शूरू से क होना चाहिए। यूनिकोड में पाठ लिखते हुए मस्तिष्क से निकलने वाले विचार में कहीं न कहीं अवरोध अनुभव होता है। मैंने कई बार कई सुधार इसलिये नहीं किये क्योंकि मुझे लगता कि दोबारा मेहनत हो जायेगी। कई बार विचारों का क्रम टूटकर कहीं अन्यत्र जाता दिखा। आज जब कृतिदेव से लिखता हूं तो इतना सहज होकर लिखता हूं कि लगता है कि ब्लाग पर लिखना अभी कुछ दिनों से ही शूरु किया है।

मैं यह नहीं कह रहा कि अंग्रेजी के दिन लद गये हैं बल्कि कहता हूं कि हिंदी के ऐसे दिन आ रहे है जब उसका लिखा बिना किसी मध्यस्थ के दूसरी भाषाओं को पाठकों द्वारा पढ़ा जायेगा और हिंदी का लेखक जिसे अपने ही लोग सस्ता समझते हैं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर सकता है। भाषा केवल भाव संप्रेक्षण के लिये होती है और उसका उपयोग अन्य व्यक्ति से संपर्क करने के लिए है। रोटी के लिए कोई भाषा सीखने का कोई अर्थ नहीं है रोटी अपने आप वह भाषा सिखा देती है जहां से वह आती है। ऐसे एक नहीं सैंकड़ों उदाहरण है जो इस देश से कम पढ़े लिखे लोग विदेश गये और आज फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहे हैं। देश के अंग्रेजी जानने वालों को गुस्सा आ सकता है और मैं भी अपने सौ प्रतिशत सही होने का दावा नहीं करता पर मुझे अपने देश और विदेश के अंग्रेजी लेखकों में कुछ गड़बड़ लगती है। मैंने अंग्रेजी के ब्लाग लेखकों के पाठ अनुवाद टूल से हिंदी में किये तो उनको थोड़ी कम कठिनाई से पढ़ा जबकि भारत के अंग्रेजी ब्लाग लेखकों को पाठ पढ़ने और समझने में उससे कहीं अधिक कठिनाई आती है। इसका मतलब यह है कि कहीं न कहीं भारत के अंग्रेजी लेखकों की भाषा में अस्वाभाविकता है।
यह जरूरी नहीं कि सब मेरी बात मानें पर अब अंग्रेजी कोई रोटी दिलाने की गारंटी नहीं देती। अंग्रेजी ब्लाग किस हालत में यह तो उसके ब्लाग लेखक मेरे ब्लाग पर टिप्पणी बता गये हैं। हां, हो सकता है कि हिंदी से रोजी रोटी कमाने की सुविधा पहले से कहीं अधिक मिल सकती है। आजकल हिंदी शुद्ध लिखने और टाईप करने वालों की कमी है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोजी रोटी कमाने की अनिवार्यता भी समाप्त हो रही है। दूरियां कम हो रहीं है ऐसे में हो सकता है कि विदेशों में लोग भारत के लोगों पर इस बात पर हंसें कि उनकी अंग्रेजी शुद्ध नहीं है। वैसे मैने अपने कुछ पाठ-जिनको सभी शब्द अंग्रेजी टूल से सही कर प्रस्तुत किया था-अंग्रेजी के जानकार मित्र को पढ़ाये उसने कहा कि‘ हां, इसे वैसे ही समझा जा सकता है जैसे तुम चाहते हो।’

मतलब यह कि मेरा हिंदी में लिखा अंग्रेजी का कोई पाठक पढ़ सकता है जबकि मैं अंग्रेजी में लिख नहीं पाता। भाषा की दीवारों के ढहने के साथ ही लोगों का यह बात समझ लेना चाहिए कि वह अपने पहले नयी पीढ़ी को अपनी भाषा में पारंगत करने पर जोर दें। वैसे अंग्रेजी तो सभी को सीखना चाहिए पर प्राथमिकता हिंदी और हिंदी टाईप को दें। मेरे विचार से अब लोगों के हिंदी टाईप भी सीखने पर जोर देना चाहिए। भाषा संप्रेषण का प्रभाव तभी संभव है जब अपनी मूल भाषा में व्यक्त करें। टंकण में हिंदी टाईप हो तो पाठ में स्वाभाविकता आयेगी। कितना भी दक्ष क्यों न हो क की बजाय के कल कल्पना से टंकित करना शूरू करेगा तो उसके विचार प्रवाह में व्यवधार आएगा ही। इतना ही अपनी भाषा के बिना विचारों में मौलिकता भी नहीं आतीं जिसकी आने वाले समय में सर्वाधिक महत्व रहने वाला है। इस विषय पर अपना शेष विचार फिर कभी।

अंतर्जाल पर पाठ के शीर्षक की अधिक महत्वपर्ण भूमिका है-आलेख


मैंने एक बार एक ब्लाग देखा था जिसके लेखक ंने चार ब्लाग लेखकों के
नाम शीर्षक में लिखकर अपना पाठ पूरा छोड़ दिया और नीचे लिखी संक्षिप्त विषय सामग्री में उसने यह बताया कि किस तरह सभी ब्लाग लेखक केवल शीर्षक देखकर ही पढ़ते हैं। उस पर कुछ ब्लाग लेखकों ने बहुत नाराजगी भरी टिप्पणियां रखीं तो कुछ ने अपने साथियों की इस कमी पर हंसते हुए समर्थन में विचार व्यक्त कर रहे थे। मुझे यह देखकर ताज्जुब होता है कि लोग दूसरे के मन और विचारों पर टिप्पणियां तो लिख लेते हैं कि पर अगर वह आत्म अवलोकन करें तो शायद अपनी इस गलती से बच सकत है।

उस समय मैंने इस पर अपना विचार भी लिखा था पर यूनिकोड में लिख रहा था इसलिये मुझे लगता है कि अपनी बात पूरी तरह नहीं कह पाया, फिर उसके बाद कुछ अनुभव ऐसे भी हुए जिससे लगता है कि उनके बारे में लिख कर अंतर्जाल पर वेबसाईटों या पेजों पर लिखने वाले मित्रों के साथ बांटा जाये।
अगर कोई आदमी शीर्षक देखकर रचना या पाठ पढ़ने का आदी है तो उसमें मुझे कुछ अस्वाभाविक नहीं लगता। शीर्षक तो रचना या पाठ का शीर्ष होता है। हम आदमी और पशु को उसके शीर्ष से पहचान पाते हैं। शीर्ष के बिना अन्य देह का महत्व नहीं होता। पुरुष और महिला के चेहरों में भी अंतर परिलक्षित होता है जो पृथक-पृथक पहचान है? प्रकृति ने शायद इसलिये ही यह अंतर रखा ताकि अधिक बखेड़े खड़े न हों। आशय यह है कि शीर्ष और शीर्षक पहचान है और किसी रचना या पाठ की पहचान उसके शीर्षक से ही होती है। अगर किसी पाठ में दवा का नुस्खा है तो उस पर हास्य व्यंग्य नहीं लिख सकते। ऐसा करना मूर्खता होगी। हम अपने सामने से गुजरने वाला हर विषय नहीं पढ़ सकते-शीर्षक से उसके विषय का अनुमान कर ही उसे पढ़ते है। ऐसे में शीर्षक स्पष्ट होना चाहिए। इसलिये शीर्षक देखकर पढ़ने की आदत का किसी पर भी आरोप लगाना गलत है। जिस ब्लाग का मैंने ऊपर चर्चा की थी उउसका शीर्षक देखकर ही उसकी विषय सामग्री पढ़ने के लिए खोला था उससे मुझे भी निराशा हुई थी। साथ ही मुझे हैरानी इस बात पर हो रही थी कि अपने साथियों पर ही हंसने वाले लोग अपना आत्म मंथन करते नहीं लग रहे थे-मेरा दावा है कि वह भी शीर्षक देखकर ही पढ़ते होंगे।

अब अंतर्जाल पर शीर्षक का महत्व भी जान लें। हम यहां जिसे पाठ जो भी शीर्षक लिखते हैं उसका हर शब्द प्राणवान होता है। जैसे मैंने लिखा था ‘ब्लागर चला क्रिकेट मैच खेलने’। यह पाठ पांचों शब्द ही अलग-अलग सर्च इंजिन में रखकर कर कई बार पढा जा चुका है। हमारी रचनाओं और पाठों के शीर्षक का हर शब्द अंतर्जाल पर एक स्वतंत्र इकाई है। उसमें से शीर्षक को कोई भी एक शब्द आपके पूरे पाठ को पाठक के सामने ले जाता है। यहां शीर्षक केवल मूर्त रूप में अपनी देह यानि पाठ से नहीं जुड़ा कि वह उसकी पहचान ही करायेगा बल्कि वह उस जगह समूचे स्वरूप में पहुंच सकता है जहां उसको ढूंढा जायेगा। ऐसे में शीर्षक उतना ही महत्व रखते हैं जितने पाठ के शब्द। मैं अपने पाठों के शीर्षकों के मामलें में अधिकतर सतर्कता बरतता हूं। पाठ के अंदर की सामग्री का परिचय अपने शीर्षक में दे देता हूं। हास्य कविता, हास्य व्यंग्य, कविता, लघु कथा, कहानी या आलेख को स्पष्टीकरण इसलिये देता हूं कि जिसे अगर वह नापसंद हो तो वह मूंह फेर ले। कुछ लोगों को कविताओं से परहेज होती है और उन्हें मेरे पाठों से परे जाने में असुविधा न हो इसलिये ही करता हूं। हालांकि यह काम श्रेणियों और टेगों से भी किया जाता है तो वह भी बहुत लाभदायक रहता है क्योंकि ऊपर तो एक ही कोई श्रेणी दी जा सकती है।

अंत में यही कहना चाहूंगा कि शीर्षक ही पाठ का महत्वपूर्ण भाग है और अगर हम सोचते हैं कि कोई उसे पढ़े तो वह आकर्षक तो होना ही चाहिए अपने पाठ की विषय सामग्री का मूल मंत्र भी उसमें होना चाहिए। यह मानकर चलें कि लोग इसके आधार पर ही आपके लिखे पाठ की ओर आकर्षित होते हैं और उन पर आपत्ति उठाने की बजाय हमें यह भी देखना चाहिए कि क्या हम स्वयं ऐसा नहीं करते? अंतर्जाल पर शीर्षक की भूमिका बाहर से कहीं अधिक प्रतीत होती है।

यह तो है हिंदी का अंतर्जाल युग -आलेख


हिंदी की विकास यात्रा का चार खंडों में बांटा जाता है और इसमें हमारे यहां सबसे अधिक भक्ति काल महत्वपूर्ण रहा है। आजकल आधुनिक काल के दौर से हिंदी गुजर रही है। मैं सोचता हूं कि अंतर्जाल पर लिखी जा रही हिंदी को आखिर किस स्वरूप में देखा जाय। हिंदी की अंतर्जाल यात्रा को अभी तक कोई अधिक समय नहीं हुआ है और देखा जाय तो इस पर पुरानी पुस्तकों से उठाकर भी बहुत लिखा जा रहा है। आधुनिक काल के अनेक लेखकों के नाम यहां बार-बार आते हैं उनकी रचनाओं की चर्चा भी यहां पढ़ने को मिलती है। अगर पुराने आध्यात्म ग्रंथों और स्वर्णकाल (भक्ति काल) की उल्लिखित रचनाओं का छोड़ दिया जाये तो आधुनिक काल के रचनाकारों की रचनायें यहां अधिक लोकप्रिय नहीं हो पा रहीं हैं-मुझे ऐसा आभास हो रहा है।

स्वर्णकाल या भक्ति काल की रचनायें अधिकतर काव्यात्मक हैं और उनके रचनाकारों मीरा, तुलसी, सूर, कबीर और रहीम आदि कवियों ने अपनी रचनाओं में बहुत संक्षिप्त में जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर करने के साथ भक्ति और ज्ञान का प्रकाश फैलाया। उन्होंने गागर में सागर भरा जो कि अंतर्जाल पर लिखकर लोकप्रियता प्राप्त करने की प्रथम शर्त है। आधुनिक काल में भी ऐसी रचनाएं होती रहीं हैं पर वह उनकी चर्चा बहुत कम होती हैं। यहां बड़े उपन्यास और कहानियों को पढ़ना कठिन है। हां, आगे चलकर जब इस पर घर में प्रिंट निकालना सस्ता होगा तभी ऐसी संभावना बनती है कि बड़ी रचनाओं को लोकप्रियता मिलने लगे। अभी तो कंप्यूटर के साथ जो प्रिंटर मिल रहा है उसकी स्याही बहुत महंगी है और इस कारण उस पर प्रिंट निकालना महंगा है।

मैं मानता हूं कि अंतर्जाल पर हिंदी के स्वरूप के समझने के लिए इसे हिंदी का अंतर्जाल युग भी कह सकते हैं और जो लोग लिख रहे हैं उनको इस बात को समझना चाहिए कि वह हिंदी का एक युग अपने कंधे पर लेकर चल रहे हैं। मैं अनेक नये लेखकों को पढ़ता हूं तो लगता है कि उनमें नवीन शैली से लिखने का अभ्यास अब अच्छा होता जा रहा है। आधुनिक काल तक हिंदी कागज पर चली थी पर अंतर्जाल पर कागज का स्वरूप फोटो के रूप में है। यहां गागर में सागर भरने की शर्त वैसी है जैसे स्वर्ण काल के रचनाकारों ने निभाई। अपनी कहानियों के साथ प्रकृति या दृश्यव्य वस्तुओं का वर्णन पढ़ने से पाठकों में उकताहट आ सकती है। बहुत संक्षिप्त और सीधें बात कहने से भाषा का सौंदर्य ढूंढने वालों को भी निराशा का अनुभव हो सकता है। ऐसे में संक्षिप्त रूप के साथ भाषा का सौंदर्य जो रचनाकार अपने पाठ में देंगे वह यहां पर बहुत लोकप्रिय होंगे।

अक्सर लोग एक दूसरे पर फब्तियां कसते हैं-‘अरे, कविता लिखते हो तो क्या तुलसी या सूर हो जाओगे, या ‘कहानी लिखते हो तो क्या अमुक विख्यात लेखक जैसे हो जाओगे’। मेरा मानना है कि तुलसी,मीरा,सूर,रहीम और कबीर जैसा संत बनना तो एक अलग विषय है पर यहां कई कहानीकारों के लिए हिंदी मे लिखते हुए ‘अंतर्जाल के कहानीकार, व्यंग्यकार और कवि’ के रूप में प्रसिद्ध होने की संभावनाएं बहुत है।
हिंदी के आधुनिक काल के रचनाकारों की एक लंबी फेहस्ति बहुत लंबी है। आधुनिक काल के लेखकों और कवियों ने हिंदी के विकास के लिये तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टिगत बहुत सारी रचनाएं लिखीं पर उनमे बदलाव के कारण उनका पढ़ना कम होता गया है। स्वर्णकाल के कवियों ने मानव के मूल स्वभाव के दृष्टिगत अपनी बात लिखी जिसमें बदलाव कभी नहीं आता पर परिस्थितियों को घ्यान में रखकर लिखीं गयी आधुनिक काल की रचनाएं इसलिये पुरानी होने के कारण लोकप्रिय नहीं रह पातीं और धीरे-धीरे नयी परिस्थितियों में लिखने वाले लेखकों रचनाऐं लोगों के मस्तिष्क मेंे स्थान बनाती जातीं हैं।
अनेक लेखक अब भी अपनी किताबें छपवाने के लिए लालायित रहते हैं। मेरा अंतर्जाल पर पर्दापण ही मेरे एक ऐसे मित्र लेखक के कारण हुआ जिसने अपनी किताब छपवाई थी और वह मुझसे अंतर्जाल की एक पत्रिका का पता मांग रहा था। मैंने इंटरनेट लगवाया इसलिये था कि इससे देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं त्वरित गति से भेज सकूंगा। जब उस मित्र ने मुझे उस पत्रिका का पता ढूंढने के लिये कहा तो मैं हिंदी शब्द डालकर उसे ढूंढ रहा था पर वह नहीं मिली। आज वही शब्द डालता हूं तो बहुत कुछ आ जाता है। धीरे-धीरे मैंने अपने ब्लाग को ही पत्रिका मानकर इस पर लिखना शुरू किया।

मुझे लगता है कि लोगों में हिंदी में अच्छा पढ़ने की बहुत ललक है पर अभी पाठक और लेखक के बीच के संबंध व्यापक आधार पर स्थापित नहीं हो पा रहे पर यह आगे जरूर बनेंगे। हालांकि इसमें सबसे सबसे बड़ा सवाल पहचान का है कि जिसने हमकों लिखा है वह असली नाम से है या छद्म वाला। मैरे पास कई टिप्पणी आती हैं और उससे यह समझना कठिन लगता है कि आम पाठक की है या किसी मित्र ब्लाग लेखक की-हालांकि मुझे लगता है कि आगे चलकर पाठक भी अपनी टिप्पणियों लिखेंगे और वह अपने पंसदीदा लेखकों के बारे में विचार व्यक्त करेंगे। वजह हिंदी में पढ़ने वाले लोग यह जानते हैं कि अच्छा लिखने वालों की इस देश में कमी नहीं है पर पत्र-पत्रिकाओं में उनके सामने वही लेखक आते हैं जो लिखने के अलावा छपवाने में भी माहिर होते हैं। इसमें छिपा हुआ कुछ नहीं है। अधिकतर कालम लिखने वालों के परिचय में उनका लेखक के रूप मेंे कम दूसरा प्रसिद्ध परिचय अधिक छपा रहता है। फिल्म, साहित्य, कला, चित्रकला, संगीत, पत्रकारिता और आकर्षक व्यवसायों में वही पुराने लोग हैं या उनकी संतानें अब अपना काम कर रहीं हैं। लोग नया चाहते हैं और उनको पता है कि यह स्वतंत्र रूप से केवल अंतर्जाल पर ही संभव है।
कुछ लोग पुराने साहित्यकारों के नामों के सहारे यहां अपना प्रचार कर रहे हैं पर उनको अधिक सफलता नहीं मिलने वाली। पाठक लोग नया चाहते हैं और पुरानी रचना और रचनाकार जिनको वह जानते हैं अब यहां पढ़ना नहीं चाहते। मैं ब्लाग जगत पर निरंतर सजगता से देखता हूं। मै ढूंढता हूं कि मौलिक लेखक कौन है? हां, अब यह देखकर खुशी हो रही है कि मौलिक लेखक अब यहां खूब लिख रहे है।
मेरी मौलिक लेखकों को सलाह है कि वह पीछे न देखें। चलते चले जायें। अगर कोई उनसे कहता है कि तुम क्या अमुक लेखक जैसे बड़े बन सकते हो? तो उसका जवाब न दो क्योंकि तुम उससे भी बडे बन सकते हो। तुम्हारी रचनाऐं तो अनंतकाल तक यहां रहने वाली हैं जबकि पुराने रचनाकारों की रचनाऐं और किताबें अल्मारी में बंद पड़ी रहती हैं जब तक कोई उसे न खोले पढ़ी नहीं जातीं। जबकि अंतर्जाल लेखकों की रचनाएं तो चाहे जहां पहुंच सकतीं हैं और बिना किसी मेहनत के कोई इसका अनुवाद कर भी पढ़ सकता है। हिंदी के अंतर्जाल युग में वही लेखक अपना मुकाम लोगों के हृदय में बनायेंगे तो मौलिक रूप से लिखेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई लेखक तो इसलिए नाम कमा सके कि येनकेन प्रकरेण उन्होंने संपर्क बनाकर शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में अपनी रचनाएं छपवायीं। अंतर्जाल तो एक खुला मैदान है जहां कोई किसी के आगे लाचार या मजबूर नहीं है। इसलिये मैं मानता हूं कि हिंदी के अंतर्जाल युग का सूत्रपात हो चुका है। आधुनिक काल के कई समर्थक इसका विरोध कर सकते हैं पर उसका जवाब भी मैं कभी दूंगा हालांकि उस पर विवाद खड़ा होगा और वैसे भी सब तरफ फ्लाप होते ब्लाग को देखते हुए यह समय ठीक नहीं है।

जो समझ में आया वही लिख दिया-आलेख


मेरे मित्र और उड़न तश्तरी ब्लाग के लेखक श्री समीर लाल वाकई हिंदी ब्लाग जगत के उत्थान के लिए प्रयत्नशील हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। वह मेरे ब्लागों पर सबसे अधिक टिप्पणी रखने वाले व्यक्ति हैं और मैं हृदय में उनके प्रति आत्मीयता का भाव रखता हूं पर उसका प्रदर्शन करना मुझे ठीक नहीं लगता। उनकी टिप्पणियां आमतौर से संक्षिप्त और औपचारिक होती हैं पर उससे अपने अंदर एक प्रसन्नता की लहर दौड़ती है। मैं यह लेख उनकी प्रशंसा या समीक्षा के लिये नहीं लिख रहा हूं बल्कि कल उनकी टिप्पणी में जिस तरह दूसरे ब्लाग और टिप्पणियां लिखने के लिये अभियान चलाने की बात कही है उसी परिप्रेक्ष्य में मेरे मस्तिष्क में कुछ विचार आये जो शायद अलग प्रतीत हों पर उनको रखना जरूरी समझता हूं।

श्री समीरलाल जी ने हिंदी में ब्लाग बढ़ाने तथा उन पर टिप्पणियां लिखने की बात कहीं है वह मेरे अभियान का एक भाग है पर मैं हिंदी ब्लाग जगत लिये पाठक जुटाने के अभियान को भी कम वरीयता नहीं देता। हिंदी ब्लाग में निराशाजनक स्थिति को मैं भी अनुभव करता हूं पर इसके लिये पाठकों की कमी भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है। अंतर्जाल हिंदी ब्लाग के लिये पाठकों की संख्या नगण्य है। इसलिये अनेक ब्लाग लेखक केवल हिंदी के ब्लाग सभी एक जगह दिखाने वाले एग्रीगेटरों पर हिंट पाने के लिये लिखते हैं और वहां साहित्य सृजन जैसा वातावरण अभी नहीं बन पाया है। अनेक ब्लाग लेखक अपने पाठों में यह बात लिख चुके हैं कि वह लिखने तो आये थे साहित्य और यहां अब कुछ अन्य लिख रहे हैं। मैं उनका लिखा पढ़कर यह बात मानता भी हूं कि वह वाकई साहित्य लिखते होंगे। देव और कृतिदेव फोंट में टाईप करने वाले अनेक लेखक यूनिकोड में लिखते हुए ब्लाग पर आये तो स्वयं मूल स्वरूप खो बैठे जिनमें मैं भी स्वयं भी शामिल हूं। अब देव और कृतिदेव को यूनिकोड मेंे बदलने वाला टूल आया है तब अनेक लोग खुश हुए क्योंकि उनको लगा कि वह अब पहले से अच्छे परिणाम निकाल सकते हैं। आज इतना बड़ा लेख लिखने का साहस मेरे अंदर केवल इसीलिये आया क्योंकि सीधे कृतिदेव में लिख रहा हूं और यह टूल आये अभी अधिक वक्त नहीं हुआ। ऐसे में मुझे विश्वास है कि आगे और ब्लाग लेखक बेहतर लिखकर लेखक जुटाने का प्रयास करेंगे। इस समय जो हिंदी ब्लाग जगत पर लिखा जा रहा है उस पर दृष्टिपात किये बिना हम अगर किसी अभियान पर निकलेंगे तो शायद वहीं होंगे जहां अभी हैं।

शुरूआती दिनों में मैंने भी एग्रेगेटरों पर हिट पाने के लिये ऐसी पोस्टें लिखीं पर मुझे ध्यान आया कि एक लेखक के लिये अपने पाठकों की संख्या बढ़ाने वाले व्यापक आधार वाले विषयों पर लिखना आवश्यक है। मैने हास्य कविताएं, आलेख, हास्य व्यंग्य, कहानियां, लघु कथाएं बहुत कठिनाई से यूनिकोड में लिखीं पर एग्रीगेटरों पर उनके हिट ने मुझे निराश किया। फिर भी मैं आगे बढ़ता रहा यह सोचकर कि देखा जायेगा कि आगे क्या होता है? ब्लाग लेखक साथी हो सकते हैं पाठक नहीं यह बात मुझे अपने बढ़ते पाठक देखकर बहुत बाद में समझ आयी। तब मैंने तय किया कि अब आम पाठक को लक्ष्य कर लिखना चाहिए। फिर यह भी देखा कि मेरे ब्लाग पर आने वाला पाठक अन्य ब्लाग भी देखे ताकि वह अधिक से अधिक हिंदी भाषा के ब्लागों से परिचित हो सके इसलिये मैंने दूसरे ब्लाग लेखकों के भी ब्लाग लिंक किये ताकि अगर पाठक मुझसे असंतुष्ट हो तो वह दूसरे का ब्लाग लेखकों का लिखा पढ़कर वह यह समझ सके कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखने वाले भी कम नहीं है। यह मैने बहुत देर से किया फिर भी मेरे ब्लाग दूसरे ब्लागों पर पाठक भेजते हैं। यह मैं बीस हजार की पाठक संख्या पार करने वाले ब्लाग की सूचनाओं में बता चुका हूं। उसमें यह भी बता चुका हूं कि किस तरह लोग जहां हास्य की सामग्री देखते ही झपट पड़ते हैं। उसमें ‘हंसते रहो’ और ‘ठहाका’ ब्लाग को अधिक संख्या में मेरे ब्लाग से पाठक मिलना इसी बात का प्रमाण हैं। मेरे ब्लाग से उड़न तश्तरी ब्लाग पर भी पाठक जाते हैं और श्रीसमीरलाल जी के पास कोई काउंटर हो तो वह इसे देख सकते हैं। मैं श्रीसमीरलाल को बहुत पसंद करता हूं पर मेरे अज्ञात पाठक मेरी इस राय को नहीं जानते इसलिये उड़न तश्तरी के बाद लिंक किये गये ब्लागों पर अधिक गये-केवल इसलिये ही न कि उसका नाम वहां किसी हास्य सामग्री होने का संदेश नहीं देता।
केवल नये ब्लाग बनवाने और टिप्पणियां लिखने से हिंदी ब्लाग जगत के लाभ की मैं संभावना नहीं देखता। सबसे बड़ी बात यह है कि विषय भी आम पाठक से सरोकार रखने वाला होना चाहिए। इस हिंदी ब्लाग जगत में मेरे कुछ मित्र हैं जो हमेशा ही कमेंट देते हैं और कुछ ब्लाग लेखक जब कोई जोरदार विषय होता है तो इस बात की परवाह नहीं करते कि मैंने उनको कभी टिप्पणी दी कि नहीं वह लिख जाते हैं।
श्री समीरलाल जी अकेले ऐसे ब्लाग लेखक हैं जो ब्लाग से हटकर लिखे गये विषयों पर भी बहुत सारी टिप्पणियां प्राप्त कर लेते हैं पर इसका श्रेय उनके मधुर व्यवहार को जाता है और टिप्पणियां तो इतनी करते हैं कि मैं भी सोचता हूं कि यह व्यक्ति अगर ऐसा न करे तो मैं लिखूंगा कि नहीं। वह बहुत अच्छा लिखते हैं पर इतनी सारी हिट दिलाने के लिये यह अकेला कारण नहीं है।

इस अंतर्जाल पर जो ब्लाग लेखक लंबे समय तक लिखना चाहते हैं उनको सोचना अंतर्मुखी होगा पर लिखना बहिर्मुखी होगा। मेरे दिमाग में कुछ विचार हैं जो इस प्रकार हैं।

(1) अपने ब्लाग पर दूसरे के ब्लाग को भी लिंक दे। अकेले सफलता पाने का का विचार त्याग दें। कोई हमारा मित्र है या नियमित रूप से टिप्पणी करने वाला ब्लाग लेखक तो लिंक दें अच्छी बात है पर यह भी देखें कि क्या कोई ऐसे ब्लाग लेखक भी हैं जो आपको कमेंट नहीं देते पर उनकी सामग्री पठनीय है तो उसे भी लिंक दें। हो सकता है उसकी वजह से आपका ब्लाग पढ़ने आम पाठक आये क्योंकि वह सोचेगा कि यह आपके ब्लाग में लगा ब्लाग है वह ऊपर उसका पता थोड़े ही देखता है। मेरे मित्र उड़न तश्तरी और ममता श्रीवास्तव को पढ़ते हैं पर वह जाते मेरे ही ब्लाग से ही हैं-उनके ब्लाग का कोई अपने कंप्यूटर पर पता नहीं रखता। हो सकता है कोई ऐसे भी लोग हैं जो मेरे ब्लाग पर इसलिये आते हों कि किसी दूसरे ब्लाग लेखक का ब्लाग मेरे ब्लाग से चिपका समझते होंं। जब तक नारद अभिव्यक्ति पत्रिका से लिंक था मैं वहीं से उस पर जाता था-हो सकता है कि कुछ पाठक मेरे जैसे ही हों। अगर कोई अच्छा लिखने वाला ब्लाग लेखक है तो बिना किसी पूर्वाग्रह के उसका ब्लाग लिंक करें। इसके लिये आपको सभी ब्लाग पढ़ना पढ़ेंगे।
(2)ब्लाग लेखकों को ऐसे विषयों पर ही ध्यान देना चाहिए जो सार्वजनिक हों। अगर कोई समाचार दे रहें हैं तो उसके साथ एक संपादक के रूप में भी विचार व्यक्त करें। याद रखिये जो आम पाठक यहां आते हैं वह उस ब्लाग लेखक की मौलिकता देखना चाहते हैं। महापुरुषों के संदेश लिखने वाली पोस्टों पर अनेक लोगों ने टिप्पणी लिखी थी कि अगर आप इनके साथ अपने विचार रखते तो बहुत अच्छा होता।
(3)अपनी पोस्ट के साथ अधिकतम श्रेणियां रखें। कभी-कभी अंग्रेजी में भी टिप्पणियां रखें। हमारा ब्लाग अंग्रेजी वालें भी पढ़ें यह तो चाहते हैं पर इस बात का ध्यान नहीं रखते कि अंग्रेजी वाले वहां कैसे आयेंगे। इसके अलावा अंग्रेजी शब्दों से भी हिंदी पाठक ब्लाग पर आते हैं
(4)आलेख, निबंध, कविता, हास्य कविता, व्यंग्य और कहानी जैसे शब्द शीर्षक में लिख दें तो बढिया। मेरी वही हास्य कविताएं लोग पढ़ रहे हैं जिन पर मैंने ऊपर ही लिख दिया है।
मैं जैसा हूं सबके सामने हैं। एग्रीगेटरों पर मैं हिट नहीं पाता यह सच है पर मुझे लगता है कि आम पाठकों का कुछ रुझान मेरी तरफ है। आम पाठकों की बात तो मैं ही लिखता हूं बाकी तो कोई नहीं बताता कि उसकी तरफ कैसा रुझान है? यह सबसे महत्वपूर्ण है। एग्रीगेटरों पर अनेक ब्लाग लेखकों से मित्रता मेरे लिए एक बोनस है क्योंकि मेरा मुख्य लक्ष्य पाठकों तक पहुंचना है। अभी सफलता दूर है पर मैंने भी ऐसा क्या लिख दिया है कि उछलता फिरूं। सच तो यह है कि कृतिदेव का यूनिकोड टूल मिलने के बाद तो मैंने सहज भाव से लिखना शुरू किया है और मैं जानता हूं कि यह सफलता अकेले चलने से नहीं मिलेगी इसलिये चाहता हूं कि अन्य ब्लाग लेखक भारी सफलता पायेंगे तो कुछ मेरे हिस्से में भी आयेगी। आखिरी बात यह है कि मैं कोई सिद्ध व्यक्ति नहीं हूं जो यह कहूं कि जो मैने लिखा है वही सही है। जो अनुभव किया वही लिख रहा हूं और हो सकता है कई इससे सहमत न हों और इसकी संभावना रहेगी भी क्योंकि ब्लागवाणी के हिट इस बात का प्रमाण है कि मेरे हाथ से कोई हिट पोस्ट नहीं निकली। वैसे भी मैं अपने कंप्यूटर की समस्याओं से एक महीने से परेशान हूँ और इधर कही बिजली तो कभी आंधी मेरी पोस्ट को रोक देती हैं।शेष फिर कभी

पसीना ही कविता लिखवाता है


बदलते मौसम के साथ
मन भी यूं बदल जाता है
जैसे उसके साथ बंधे हों हाथ
ग्रीष्म के जलती दोपहर में
व्यग्रता इतनी बढ़ जाती है
नरक लगता हो जीवन
शाम होते बहती ठंडी हवा का
एक झौंका भी शीतल कर देता है
मौसम और मन के पहिये
घूमते देख कौन कह सकता है
हमारा मन भी होता है कभी हमारे साथ
……………………..

गर्मी की दोपहर में
साइकिल पर चलते हुए
पसीने में नहाए मैंने उसे देखा है
लिखता है कविता वह हसंते हुए
कभी उसे रोते नहीं देखा है
पूछने पर बताता है
उसके दोपहर का पसीना ही
रात में शीतलता देकर उससे कविता लिखवाता है
मैं उसे केवल आईने में ही देख पाता हूं
क्योंकि वह चेहरा
केवल उसी में नजर आता है

हिंदी-अंग्रेजी टूल बहुत दिलचस्प लगा-आलेख (2)


हिंदी -अंग्रेजी अनुवाद टूल का मैं कल से उपयोग कर रहा देख रहा हूं तो उसमें सुखद आश्चर्य का अनुभव हो रहा है। प्रथम तो यह कि यदि शुद्ध हिंदी भाषा को लिखेंगे तो ही वह स्वीकार करेगा। कहीं पाठ को लिखने के दौरान उर्दू या इंग्लिश शब्द का उपयोग किया तो वह उसे स्वीकार नहीं करेगा। जैसे भावनाओं को जजबात नहीं लिख सकते। धर्म को मजहब नहीं लिख सकते । भ्रम को गलतफहमी लिखेंगे तो वह कोई नहीं पढ़ पायेगा। अगर कोई हिंदी शब्द लिखने में गलती कर जाते हैं तो अंग्रेजी में अनुवाद करने वाला टूल उसे अनुवाद करने की बजाय वैसे का वैसे ही प्रस्तुत कर देता है।

मै अंग्रेजी में अनुवाद से पहले अपनी देवनागरी भाषा में पाठ लिखने के बाद उसे यूनिकोड टूल में ले जाता हूं फिर उसे अनुवाद टूल में रखता हूं और जब उसमें कोई लिख गया शब्द नहीं बदला होता है तो उसे पहले अपने मूल पाठ में सही करता हूं। एक से अधिक शब्द होने पर सभी शब्दों को पुनः लिखने के बाद फिर उसे यूनिकोड में बदलने वाले टूल पर लाता हूं वहां से फिर अनुवाद वाले टूल पर कर देखता पड़ता है कि सही हुआ कि नहीं। बहरहाल अब यह तो इग्लिश में पढ़ने वाले ही तय करेंगे कि उसका परिणाम कैसा है पर एक बात निश्चित है कि वह अगर ऐसे टूलों से ही हिंदी पढ़ने वाले हैं तो उसके लिये मेरे द्वारा किये गये थोड़े प्रयास भी मेरे द्वारा रचित पाठ को अधिक पढ़ने योग्य बना देंगे बनिस्बत अन्य हिंदी ब्लाग के उन पाठों के जो इस अनुवाद वाले टूल पर परीक्षण करके नहीं रखे गये। कल कुछ ब्लागर लिख रहे थे कि इसमें कुछ कमियां है और इसका उपाय यह है कि जो ब्लागर चाहते हैं तो उनके सामने दो रास्ते हैं कि वह अपने पाठ का इस अनुवाद टूल पर परीक्षण कर देखें कि उसमें पूरे शब्द अंग्रेजी में आ रहे हैं कि नहीं, जो नहीं आ रहे उनमें परिवर्तन कर फिर देखें और अपनी पोस्ट रखें दूसरा यह कि छोड़ दे पढ़ने के इच्छुक पाठक के लिये जो इस टूल से वैसा ही पढ़ेगा जैसा कि अपने रखा है पर उसके लिये उसे यह टूल लाना पड़ेगा। ऐसे में वह शायद जहमत न उठाये तो आपने अगर अपना पाठ अंग्रेजी में रखा है तो वह पढ़ ही लेगा।

मैने कुछ पोस्टों पर प्रयोग किया और पाया कि वैसी भाषा किसी के लिये नहीं हो सकती जिसका वह पाठक है पर भाव तो समझा ही जा सकता है। मैंने आज कुछ इंग्लिश ब्लाॅगरों की पोस्ट को हिंदी में पढ़ा। उसमें बहुत दिक्कत है पर अंग्रेजी और हिंदी दोनों के पाठ मेरे सामने थे तो भाव और अर्थ मैंने एकदम समझ लिया। मैं यह कह सकता हूं कि मैंने आज जो इंग्लिश ब्लाग देखे वह पूरी तरह पढ़े और समझे हैं। उनकी विषय वस्तु पूरी तरह वैसे ही मेरे समझ में आयी जैसा उसका लेखक चाहता था। थोड़ी मेहनत हुई पर जिस तरफ विश्व का ब्लाग जगत बढ़ रहा है उसकी दृष्टि से वह कोई अधिक नहीं थी। इंग्लिश-हिंदी अनुवाद टूल का मतलब यह है कि आप दुनियां की पंद्रह भाषाओं में घुसपैठ कर सकते हैं और जब ऐसा करेंगे तो दूसरी भाषा के ब्लागर भी ऐसा ही करेंगे। भले ही अनुवाद के पाठ ऐसे नहीं आ रहे जैसे अपेक्षित हैं पर वह इतने बुरे नहीं है कि संवाद कायम करने के लिये काफी न हों। समय की कमी के कारण कुछ लोग इस पर अधिक काम न करें पर जिनके पास समय है वह पूरी दुनियां में अनेक भाषाओं में अपने मित्र बनायेंगे। क्या यह आश्चर्य नहीं होगा कि जब कोई चीनी अपनी हमारी पोस्ट को अपनी भाषा में पढ़ने का प्रयास करेगा।
हालांकि मैंने अपनी कुछ पोस्टों का अंग्रेजी अनुवाद कर उसे ब्लाग पर प्रस्तुत किया है पर हमेशा ऐसा नहीं करूंगा पर यह तय है कि उनको लिखने के बाद इंग्लिश अनुवाद टूल पर परीक्षण कर उसे इस लायक तो बनाऊंगा कि उसे कोई अहिंदी भाषी पढ़ना चाहे तो उसे दिक्कत न आये। इसके अलावा इंग्लिश ब्लाग भी पढ़ता रहूंगा ताकि उसे जानकारियां मिल सकें। आज तीन ब्लाग पढ़कर यह समझ में आ गया कि जितनी अंग्रेजी सीखी है वह पर्याप्त है।

it translashan by google tool
Hindi – English tool seemed very interesting – Article (2)

Hindi – English translation tool use from tomorrow I am going to see if there is a feeling of pleasant surprise. First, the Hindi language to write the net if he will accept. During much of the text to write English or Urdu word used, it will not accept it. Such as feelings jajbat can not write. religion to religion can not write. Write to the confusion, misunderstanding that no one will read. If a mistake in writing the Hindi word to the English are translated into a tool to translate it so instead of just presenting them out.

I translated into English from its first published in the language of the text after writing it in Unicode tools it takes I am strongly in the translation tool and when it was writing a word, it is not changed before I correct in his original text. More than one word at all to re-write the words again after a change in the Unicode tool brought on from there, then I can see the translation of the tool that is not correct that. However, it is now in inglish determine that its reading of the results of what is certain is that if one thing from such टूलों Hindi, who read for him by my little efforts have been made to the text Created by me to read more qualified Blog other than the will of the Hindi translation of the texts of the tool on the test were not maintained. Yesterday that there were some blogger write some drawbacks and is the measure that ब्लागर who want that way, their front two of his trial on the text of the translation tool that it can see the whole word in English that are not , Which did not come back to see them change and keep his second post that leave the reader to read the willing tool of the things just want it kept as it is for him on this tool will bring. So perhaps he did not, you’ve taken into account if your English is, he will read it.

I used some of the posts and found that such a language for which the reader can not be understood, but the price may be. Today I have some English blogger the post read in Hindi. There is a lot of trouble both in English and Hindi text in front of me was the sense of meaning and I totally understood. I can say that I am today that he viewed the English Blog read and fully understood. Her subject matter so I fully understand his films, as was the author. A little hard on the side of the world’s Blog world is increasing its terms, it was not any more. English – Hindi translation tool means is that you fifteen languages of the world can infiltrate and will do so when the other language blogger do the same. Even if such a translation of the text has not been as expected but it is not so bad, that is not enough to maintain dialogue. Due to time some of the people who do more work time is not on the whole world in several languages, create your friend. Is it any wonder that when the Chinese will not be posted to our own will try to read in their language.
However, I have some posts on the Blog of the English translation it is always presented on it so that I will not write them after the English translation tool on the testing that will make it worth it to a non-speaking, reading to go to trouble Do not come. Besides, I read the English blog information so that it can get. Today, the three Blog reading was in the understanding that it is learnt English as adequate.

नकली जिंदगी की खातिर-हास्य कविता


फिल्मों में ही होता है चक दे इंडिया
सच में तो सब जगह है
एक ही नारा गूंजता है भग दे इंडिया
फिल्म में हाकी की काल्पनिका कहानी ने
देश में खूब नाम कमाया
ओलम्पिक से हाकी टीम का
‘नो एंट्री’ संदेश आया
कहें दीपक बापू
‘फिल्मों में नकली हीरो और
नकली कहानी पर फिदा होकर लोग
उसी राह पर चल रहे हैं
ख्वाबों ही देख रहे हैं तरक्की की सपना
पर सबका कर्म और भाग्य होता अपना
आखें से देखते नजर आते हैं
पर देख कहां पाते हैं
कानों से सुनते तो दिखते
पर कितना सुन पाते हैं
अपनी अक्ल रख दी है
नकली ख्वाबों की अलमारी में बंद
गुलामों की तरह दूसरे के
इशारे पर चले जाते हैं
पर्दे पर देखते जो जिंदगी
उसे ही सच करने के कोशिश में
बुझा देते हैं अपनी जिंदगी का दिया
……………………….


आशा ही नहीं रखते तो निराशा भी नहीं होती-आलेख


ब्लागस्पाट के ब्लाग एक आकर्षक कूड़ेदान की तरह लगते है। उस दिन मैं अपने टेलिफोन और इंटरनेट कनेक्शन का बिल भरने  गया तो वहां पानी पीने के लिये प्लास्टिक का ग्लास उठाया और पीने के बाद  वहीं पड़े फाइबर प्लास्टिक के कूड़ेदान में डाल दिया। वह दिखने में बहुत अच्छा लग रहा था तब मुझे ब्लागस्पाट के ब्लाग की याद आयी।
इसके ब्लागों पर मैंने भी बहुत लिखा है पर लगता है कि गई भैंस पानी में। जब मैंने शुरू में इस पर ब्लाग बनाये तब विज्ञापन वर्गैरह का विचार नहीं था। फिर जब दूसरे ब्लागरोंं के ब्लाग पर विज्ञापन देखें तो हमने भी लगा लिये। उस समय अधिक जानकारी नहीं  थी, सो  थोड़ी जगह पर ही विज्ञापन लगाये। फिर हमने एक वरिष्ठ ब्लागर की पोस्ट पर पढ़ा कि गूगल का हिंदी में आर्थिक योगदान नगण्य है। तब हमने इसके विज्ञापन हटा दिये। फिर एक ब्लाग पर पढ़ा कि अगर गूगल के विज्ञापनों को अधिक जगह दी जायें तो उससे आय हो सकती हैं। वह किया तो एक ब्लागर के ब्लाग पर पढ़ा कि यह अंग्रेजी ब्लाग के मुकाबले कमीशन कम देता है। मतलब वह भी हिंदी के प्रकाशकों की तरह है।

अब हमने जब अपने गूगल एकाउंट को चेक किया तो इसमें तो 100 डालर में दस से पाचं वर्ष से क्या कम समय लगेगा-यह अनुमान मेरा अपने ब्लाग के बारे में दूसरों का मुझे पता नहीं है। मतलब साफ है कि गूगल के एडस एकाउंट का प्रदर्शन हिंदी में अत्यंत खराब है और इसलिये ही गूगल को भारत में अधिक लोकप्रियता भी नहीं मिली। मैंने देखा है जो हमारे निजी जानकार मित्र हैं अधिकतर लोग याहू पर अपना ईमेल बनाते है। सच तो यह है कि हिंदी के ब्लागर अगर ब्लागस्पाट के ब्लाग नहीं बनाते तो शायद उसके जीमेल को कोई भी नहीं पूछता। मैने भी शुरूआत मंे याहू पर ही ईमेल बनाया और वर्डप्रेस के दो ब्लाग मैंने उसी पर ही बनाये। वहां समझ में नही आया (उसकी वजह यह थी कि मैं यूनिकोड में नही लिख रहा था) तब ब्लागस्पाट पर ब्लाग बनाने के लिये जीमेल बनाया। 

मैने वर्डप्रेस और ब्लागस्पाट पर बराबर लिखा है। हां पहले सोचा था कि देखें
ब्लागस्पाट के ब्लाग से शायद कोई आय हो जाये पर अब तो लगता है कि सारी मेहनत पानी में गयी। असल में इसके पीछे एक कारण और भी है। वर्डप्रेस पर हम चाहें अपनी पोस्ट पर जितनी श्रेणी रख दें वह लेता है जबकि ब्लागस्पाट पर अंग्रेजी के 200 वर्ण से अधिक नहीं लेता। यही श्रेणियां पाठक तक हमारे ब्लाग को ले जातीं है। इसलिये वर्डपेस के ब्लाग अधिक पाठक जुटा लेते हैं और चहलकदमी करते हैं और वहां के ब्लागर उनको देखकर अपना दिल भी बहलाते हैं। उसका डेशबोर्ड ब्लागरों के आपस में मिलाने का काम भी करता है। जबकि ब्लागस्पाट के ब्लाग के लिये पूरी तरह हिंदी के एग्रीगेटरों पर ही निर्भर रहता पड़ता है। ब्लागस्पाट पर अपनी पोस्टें रखने का मतलब है कि साठ फीसदी पाठकों से अपनी पोस्ट दूर रखना। आज दोपहर तक ब्लागस्पाट के सात   ब्लाग पर केवल आठ व्यूज हैं जबकि  वर्डप्रेस के पांच ब्लाग पर  पचास व्यूज हैं। शाम तक वर्डप्रेस के ब्लाग करीब डेढ़ सौ के आसपास व्यूज जुटा लेंगे और  ब्लागस्पाट पर अगर कोई नई पोस्ट नहीं लिखी तो वहां अधिक से अधिक दस और व्यूज आएंगे।

मुझे हमेशा वर्डप्रेस पर  अपनी सक्रियता देखकर खुशी होती है जबकि ब्लागस्पाट के ब्लाग बोर कर देते हैं। न इसमें नाम है और न नामा। गूगल का एड एकाउंट जितनी आय दिखा रहा है उससे कई गुना तो वह जगह घेर रहा है हालांकि यह भी सही है कि उस पर एग्रीगेटर के बाहर पाठक नगण्य हैं। अन्य ब्लाग पर  भी जब गूगल के विज्ञापन देखता हूं तो मुझे अपने पर हंसी आती है। यह सोचकर कि देखो हम  दूसरों पर  भ्रम में पड़ जाने वाली बात कहते है और हम  भी इसमें पड़ गये। बहरहाल उनकी चमक की वजह से ही लोग उस पर अधिक आकर्षित हैं पर जैसा कि नाचने के बाद मोर रोता है वैसे ही वहां से ब्लागर जब उकता जाते हैं तो निराशा की बातें भी करते हैं जबकि वर्डप्रेस वाले क्योंकि कोई आशा ही नहीं रखते तो निराश भी नहीं होते।

हम कहां जा रहे हैं-आलेख


आज जब हिन्दी ब्लाग दिखाने वाले फोरमों को दौरा किया तो लगा कि जैसे व्यंग्य के लिऐ कहीं और जाने की आवश्यकता ही नहीं है। अक्सर  व्यंग्य लिखने के प्रयास में रहता हूं और इसके लिये मुझे विषय की आवश्यकता होती है। पहले जब सीधे यूनिकोड में लिखता था तो गद्य में व्यंग्य लिखने से बचता था और इसीलिये हास्य कविताओं से काम चलाता था जिसमें विषय को स्पष्ट करने में कठिनाई होती थी अब जब कृतिदेव में मेरे लिये लिखना सरल हुआ है तब से विषयों को लेकर कोई समस्या नहीं है।

आज एक ब्लाग देखा जिसमें लिखा था कि ब्लाग चूंकि फ्री में है इसलिये चाहे जो उस पर लिख रहा है और इस तरह ब्लागिंग दिशाहीन हो रही है। मैंने सोचा था कि उसमें कोई भारी भरकम विचार होगा पर जब ब्लाग खोला तो पाया कि केवल दस लाईनें लिखीं हैं। ऐसा-वैसा बस और कुछ नहीं। अब ब्लागिंग दिशाहीन है तो फिर उसकी दिशा क्या हो? इसका जवाब उसमें नहीं लिखा था। लिखने वाले ने भी लिखने के लिये लिखा था और उसे जोरदार हिट मिले थे।

यह फोरम हिंदी ब्लागिंग को दिशा देने के लिये सज्जन लोगों ने बनाये पर वहां आकर अच्छा खासा लेखक दिशाहीन हो ही जाता है। रोज जो दोस्तों से हिट और कमेंट मिलते हैं उसे पचाना आसान होगा यह तो हम नहीं मानते क्योंकि हमें न तो इतने हिट मिलते हैं और न ही कमेंट। सो पता नहीं उसको पचाने के लिये कितनी देर वज्रासन में बैठना पड़ेगा। फोरमों पर अपने ब्लाग फ्लाप देखकर दिल को तसल्ली होती है कि अब कोई खतरा नहीं है क्योंकि हिट मिलेंगे तो लोगों की दृष्टि में आ जायेंगे और वह फिर तमाम तरह के मीनमेख निकालने लगेंगे। फिर उनका जवाब देते फिरो। समय की खराबी और ऊर्जा के निरर्थक विसर्जन के अलावा उसमें कुछ नहीं हैं।

अब लोग लिख रहे है कि ब्लागिंग दिशाहीन है तो फिर उनका खुद का लिख किस दिशा से आया और किस दिशा को जा रहा है यह हम पूछ सकते थे पर लगा कि ख्वामख्वाह में उनको नाराज कर दें। इसीलिये अपना ही एक व्यंग्य लिख दें। वह इसे पढेगे ही नहीं क्योंकि किसकों यहां पता हम किसको पढ़कर लिख रहे हैं।

सभी आदमी सब जगह दौड़े जा रहे हैं।  दिशा का पता नहीं पर दौड़े जा रहे हैं।  एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि ‘आखिर हम किस दिशा में दौड़ रहे हैं?’

पर कोई किसी को जवाब नहीं देता। पूछते सब ही हैं जब थककर सांस लेते हैं। उस समय सब दौड़ रहे होते हैं और जवाब इसलिये नहीं देते कि क्या पता फिनिशिंग टच में ही इस दौड़ प्रतियोगिता में पिछड़े गये हैं तो गया जो मिलने वाला होगा। क्या? इसका किसी को पता नहीं है।

सो ब्लागिंग भी ऐसे ही है। सब लिखे जा रहे है कि हो सकता है आगे कोई पुरस्कार वगैरह मिल जाये तो हो सकता है कि समाज में थोड़ा सम्मान बढ़ जाये। अब 2008 चल रहा है और साल भर इसी तरह कुछ लाईने लिखते रहे तो हो सकता है इस साल के नाम पर मिलने वाला कोई पुरस्कार ही हाथ लग जाये। इसी तरह ही लिखते जाओ। ब्लागरों पर कुछ भी लिख दो हिट हो जाता है। आम पाठक के लिये वह दो र्कौड़ी का नहीं है। इसीलिये हम ब्लागरों को विषय इस तरह बनाते हैं कि वह आम पाठक को भी समझ में आये कि इंटरनेट पर ईमेल के विस्तार के रूप में एक ब्लाग भी होता है जिस पर लोग कुछ लिखते भी हैं और वह ब्लागर कहलाते हैं। हमारे लिये यह ईमेल का विस्तार ऐसे ही जैसे एक पत्रिका। जिस तरह एक रजिस्टर का इस्तेमाल एक गणित का छात्र भी करता है तो एक लेखक उस पर अपनी रचनाएं लिखता है-कुछ लोग डायरी भी लिखते हैं पर वह लेखक नहीं कहलाते।
 हम तो एक लेखक की तरह लिखने का काम कर रहे हैं। हमारी नजर में ब्लागर वह हैं जो ब्लाग का ईमेल के विस्तार की तरह इस्तेमाल करते हैं और लेखक वह हैं जो इसे अपनी रचनाओं के लिखने के लिये उपयोग करते हैं। जिस तरह रजिस्टर पर लिखा गया सभी लोगों के उपयोग का नहीं होता। वैसे ही हाल ब्लाग का है। हम इतनी बड़ी पोस्ट लिख रहे हैं यह फोरमों पर फ्लाप हो जायेगी पर दिशाहीन बताने वाली पोस्ट हिट पा चुकी है। है न दिलचस्प बात!

कुछ पुराने ब्लागर अब यह समझ गये हैं कि इन फोरमों के आगे भी होती है ब्लागिंग। पहले एक फोरम पर तो कविता के ब्लाग ही नहीं लिये जाते थे और अब हालत यह है कि फोरम वाले हिंदी का जो ब्लाग देखते हैं वही अपने यहां दिखाने लगते हैं। अभी कोई कथित पुरस्कार बंटे तो बड़ी बेदर्दी से कहा गया कि इसमे कविता के ब्लाग शामिल नहीं किये गये। हमने अपने ब्लाग की रेटिंग दिखाने पर जब हास्य कविताएं बरसाईं तो समझ में आया कि क्या होती है कविता। हमें भी बहुत हैरानी होती है यह देखकर कि हमारी हास्य कविताएं पाठकों में ऐसे हिट पा रहीं है कि डर लगने लगा कि कहीं इतना लिखने की सजा हम हास्य कवि की उपाधि के रूप में न पायें।

हिंदी भाषा लिखने में हमें मजा  आता है पर कोइै कहानीकार, व्यंग्यकार और लेखक कहे तो सुनकर अच्छा लगता है पर हास्य कवि कहे तो ऐसा लगता है कि हमारी पूरी मेहनत गयी पानी में-क्योंकि उससे कि हमारा दायदा सीमित हो गया प्रतीत होता है। 

बहरहाल दिशाहीनता की स्थिति नहीं है। हां,यहां लेखक कम हैं और ईमेल विस्ताकर अधिक हैं जो तात्कालिक हिट्स या ईमेल पाकर खुश हो जाते हैं।  आम पाठक अभी अपनी बात लिख कर लेखक को दे नहीं रहा इसीलिये कभी कभी निराशा होती है पर फिर अपनी रचना से जो प्रतिबद्धता हो वह फिर होंसला ला देती है।

आखिरी बात यह ब्लाग फ्री में नहीं है जैसा कि कुछ ब्लागर लिखते हैं। जनाब जिस कंपनी के भी इंटरनेट कनेक्शन हैं उनके विज्ञापन गूगल पर  अन्य वेब साईटों पर देखे जा सकते हैं और उनको हम बराबर भुगतान कर रहे है। कंपनियां अपनी कमाई के सारे रास्ते खुले रखना चाहतीं हैं इसलिये इस ब्लाग को एस.एम.एस की तरह ही इस्तेमाल करवा रहीं हैं। अपनी भडास निकालो और हर महीने कनेक्शन का भुगतान करते जाओ। फिर भी कुछ ब्लागर अच्छा लिख रहे हैं और उनको पढ़ने में मजा आता है-जहां तक हमारी जानकारी है कुछ ब्लागर हमारे लिखे का भी आनंद उठाते हैं। हम फोरमों पर एक पाठक की तरह जाते हैं इसीलिये कभी अपने हिट या फ्लाप होने का अध्ययन नहीं करते। हां, अपना ब्लाग सामने आ जाता है तब ही उसके व्यूज देखते हैंं। आम पाठकों की संख्या बढ़ती लग रही हैं। इधर कृतिदेव में सीधे लिखने की वजह से हम और बेपरवाह हो गये हैं कि अब तो लिखना है हिट या फ्लाप तो अब आम पाठक तय करेंगे और दिशा भी अब उनकी पसंद पर ही तय होनी है।

कभी-कभी ऐसा भी होता है-आलेख


              अगर देखा जाये तो ब्लागवाणी फ्लाप ब्लागरों के लिये अपने प्रचार के लिये बिल्कुल उपयोगी नहीं है। अधिकतर ब्लागर ब्लागवाणी पर आते हैं तो  वह याद रखें कि उनसे कोई मिलने वाला घर मिलने आये तो उसे अपने ब्लाग दिखाते हैं तो उसके बाद  कोई फोरम दिखाना हो तो कभी ब्लागवाणी पर न ले जायें क्योंकि अगर किसी ने पूछ लिया कि यह पोस्ट के आगे अंक होने का क्या मतलब है और आपने सज्जनता  से बता दिया कि यह पढ़ने वालों की संख्या है तो आपका भांडा फूट जायेगा। भले ही आपने पूरी ईमानदारी बरती हो पर बाहर वह सबको बता देगा कि आप फ्लाप हैं-क्योंकि मेरे हिसाब से अधिकतर ब्लाग बहुत सहज और सरल भाव के हैं क्योंकि लिख तो वही सकता है जो ऐसा हो।

आज एक सज्जन आये थे शादी का कार्ड देने और मुझसे अपना कंप्यूटर दिखाने के लिये बोले तो मैं उनको वहां तक ले आया और जब उन्होंने इंटरनेट कनेक्शन देखा तो पूछा-‘‘इस पर क्या करते हो?

मैने कहा-‘‘ब्लाग लिखता हूं। तुम समझो तो अपनी निज पत्रिका प्रकाशित करता हूं।’’

ब्लाग से वह समझ नहीं पाते इसलिये मैने उनको निज पत्रिका कहा और उनके समझ में भी आ गया। फिर मैने उनको अपने ब्लाग दिखाये और अन्य फोरम दिखाता हुआ ब्लागवाणी की तरफ ले गया। मैने कहा कि इन एग्रीगेटरो को तुम एक अखबार भी कह सकते हो और हमारे ब्लाग यहां एक पृष्ठ की तरह हैं। वह देखते रहे और जब मैं अपने ब्लाग की तरफ आया और अपने व्यूज देखे तो वहां से तत्काल आगे कर्सर निकाल ले गया। बाद में उन सज्जन ने अपनी कुछ बेव साइट देखीं और विदा हो गये।

तब मैं सोच रहा था कि अगर यह मैं उनको बता देता कि यह  मेरे ब्लाग की पाठक संख्या है तो वह क्या सोचते? अब उसके लिये फिर उनको वर्डप्रेस या स्टेट काउंटर दिखाने पड़ते। कुल मिलाकर तब यह लगा कि ब्लागवाणी अपने लिये तो ठीक है पर हम किसी और को अपना ब्लाग वहां दिखायें यह हम फ्लाप श्रेणी के ब्लाग को नहीं करना चाहिए। हालांकि वहां हिट होना कोई मुश्किल काम नहीं है पर उसके लिये पोस्टें भी ऐसीं होना चाहिए जो ब्लागरों के मतलब की हों पर वह फिर आम पाठक को दिखाने के मतलब की नहीं होतीं।  हमारे जो दोस्त अंतर्जाल पर देखते हैं वह ऐसी पोस्टों पर नाराज होते हैं। मैने एक मित्र को बता दिया कि अगर ब्लागवाणी पर जाये तो वह पढ़ने वालों की संख्या कतई नहीं देखे नहीं तो उसे दुःख होगा। एक दिन वह ब्लागवाणी से घूमफिरकर आया और बोला-‘‘तुंम ठीक हो अपनी राह चलो। वहां जाने की बजाय तो मैं तुम्हारे  ब्लाग पर लिंकित ब्लाग ही पढ़ लिया करूंगा। हालांकि वहां  कुछ अच्छा लिखने वाले भी हैं और तुम उन सबको अपने उस ब्लाग पर लिंक कर दो जहां से हम दाखिल होते हैं।’

उसने जो वहां हिट पोस्टें देखीं तक उसमें एक-दो में अपठनीय शब्द था जिस कारण उसका मन भी खराब हुआ। हालांकि वह इन फोरमों को देखकर खुश होता है और कहता है कि हिंदी को अंतर्जाल पर पढ़ना ऐसे ही जैसे फाइव स्टार टाइप पढ़ना। एक बात याद रखना मैं कोइै शिकायत नहीं कर रहा न मुझे किसी बात पर एतराज है। एग्रीगेटरों की अपनी दुनियां हैं और मेरी अपनी। अंर्तजाल पर हिंदी लिखने के अभियान के तहत उनसे मेरा संपर्क हुआ है पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम लोग एक दूसरे पर अपनी बातें थोपें। एक जगह ब्लाग दिखने के जो फायदे हैं उन्हें नहीं भूलना चाहिए। इसके बावजूद यह तय है कि यह एक मंच है जिस पर हम ऐकत्रित हैं। हालांकि बाद में मुझे इस बात का अफसोस भी हुआ कि मैंने अपनी पाठक संख्या के बारे में उनको क्यों नहीं बताया? आप कह सकते हैं  यह भी वास्तविकता है कि आत्मविश्वास कभी साथ छोड़ जाता है या कभी आप अनावश्यक रूप से कोई बात बताना जरूरी नहीं होता। यह दोनों बातें मेरे मस्तिष्क में एक साथ मौजूद थीं।

मुझे आज अपनी पोस्टों पर लगायीं गयीं कमेंटों  का ध्यान आया जिसमें ब्लागवाणी के हिट्स पर प्रतिकूल टिप्पणियां की जातीं हैं। मैं उन पर ध्यान देता हूं पर कुछ लिखकर फिर भूल जाता हूं। कभी कभी मुझे लगता है कि कुछ ब्लागर इस बात से बहुत नाराज है कि वह वहां हिट्स नहीं ले पाते और मेरा ध्यान उनकी तरफ कभी नहीं जाता आज गया तो सोचा लिख डालूं एक पोस्ट कि भई अंतर्जाल की यह माया है कहीं हिट्स और फ्लाप की माया है। अभी प्रयोगात्मकता का दौर है जब उसके कुछ परिणाम दिखने लगेंगे  उस पर भी लिखेंगे। कौन हिट कौन फ्लाप का फैसला अभी बहुत दूर है शायद इसलिये कुछ ब्लागर लोगों को जाने अनजाने इसमें व्यस्त रखकर ब्लागरों से लिखवा रहे हैं। इस फिर कभी। 

कमरे के अंदर-बाहर की राजनीति होती हैं अलग-अलग-हास्य कविता


सभाकक्ष से बाहर निकलते ही
फंदेबाज जोर से चिल्लाया
‘‘दीपक बापू, तुम्हें तो
मैं बहुत भला आदमी समझा था
पर तुम तो निकले एकदम चालू
अपने मजदूरों के वेतन और बोनस
बढ़ाने के लिये प्रबंधकों का पास तुम्हें लाया
मै उनका अध्यक्ष हूं और तुम मित्र
ढंग से हमारी बात कहोगे
यही सोच तुम्हें बुलाया
पर तुमने कंपनी से अपने ठेके के रेट बढ़ाये
मेरे लिये भी कुछ लाभ जुटाये
पर जिन मजदूरों की बात करने गये थे
उस पर तो हम बोल ही न पाये
बताओं अब क्या मूंह लेकर
साथियों के पास जाऊं
यह तुमने केसा हमको फंसाया ’’

गला खंखार कर मुस्कराते हुए बोले
‘‘चलो चलते हैं पहले वहां होटल में
जहां खाने की पर्ची  तुम्हारे प्रबंधन ने दी है
फिर समझाते हैं तुम्हें माजरा
राजनीति करने चले हो या
खरीदने ज्वार बाजरा
हम न तीन में  न तेरह में
न अटे में न फटे में
हम तो तुम्हारे वफादार हैं
मजदूरों के हिमायती है हम भी
पर राजनीति तो तुम्हारी चमकानी है
कमरे के अंदर
बाहर होती है राजनीति अलग-अलग
एक समझना बात बचकानी है
हमार ठेके के रेट तो वैसे ही बढ़ते
पर तुम कभी राजनीति की सीढ़ी नहीं चढ़ते
अरे, जाकर मजदूरों को
आश्वासन मिलने की बात बता देना
वहां कर रहे थे हम दोनों हुजूर-हुजूर प्रबंधन की
पर मजदूरों में हाय-हाय करा देना
कुछ तालियां हमारे नाम की बजवा देना
अपने दो-चार चमचों को भी
प्रमोशन दिलवा देना
पर असली हक की लड़ाई कभी न लड़ना
तुम्हारे बूते का नहीं है यह सब
निकल गया हाथ से मामला तो
फिर मुश्किल होगा पकड़ना
वाद और नारों पर चलना सालों साल
भरना अपने घर में माल
हमारी तरह गहरा चिंतन न करना
हम तो हैं सब जगह फ्लाप
और अब तो हिट की फिक्र छोड़ दी है
पर राजनीति में तुम्हें हिट होने के लिये
ऐसा ही मायाजाल है रचना
कमरे के बाहर हाय-हाय
अंदर उनको हुजूर-हुजूर करना
अब सब जगह ऐसा ही वक्त आया
कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा
पूरा जमाना इसी रास्त चलता आया
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सूचना-यह काल्पनिक हास्य व्यंग्य रचना है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई मेल नहीं है अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

वर्डप्रेस के डेशबोर्ड की अब नये ढंग से प्रस्तुति-आलेख


वर्डप्रेस के ब्लाग का  डेशबोर्ड अब नई और आकर्षक साजसज्जा के साथ प्रस्तुत हुआ है। इस समय हिंदी के अधिकतर ब्लागर ब्लागस्पाट और वर्डप्रेस पर ही लिखते हैं। वर्डप्रेस के ब्लाग की थीम से अधिक आकर्षक तथा विज्ञापन की सुविधा होने के कारण अधिकतर ब्लागर ब्लागस्पाट पर लिखते हैं। एक वर्ष पूर्व तक अनेक प्रसिद्ध ब्लागर वर्डप्रेस  के ब्लाग छोड़कर ब्लागस्पाट पर पहुंच गये। मेरे तो कुछ समझ में ही नही आ रहा था क्योंकि उस समय तक मेरा कोई भी ब्लाग नारद पर नहीं था इसलिये दोनो पर बराबर लिखता रहा।
ब्लागस्पाट के विज्ञापन पहले लगाये फिर हटाये और पुनः यह सोचकर कि देखें कुछ फायदा होता है उनका जोड दिया। इधर विज्ञापन डाले तो उधर  कुछ वरिष्ठ ब्लागरों की गूगल के विज्ञापन खाते के संबंध मेंं निराशजनक जानकारी  भी पढ़ी। तब मैने सोचा कि फिलहाल उन्हें बना रहने दो। असली बात यह है कि हिंदी के सामान्य ब्लागर के पास इस समय केवल उसी से ही आय का आसरा हो सकता है शायद इसलिये अनेक लोग उससे जुड़े।

इसके बावजूद कई एसे ब्लागर है जिनका वर्डप्रेस से मोह खत्म नहीं हुआ। इसके कुछ कारण हैं। ब्लागस्पाट में किसी भी पोस्ट पर लेबल के रूप में अंग्रेजी  के 200 वर्ण से अधिक नहीं लिख सकते और अगर हिंदी में कुछ लेबल लगायें तो वह फिर अधिक से अधिक अंग्रेजी वर्ण होने के कारण वह सीमित संख्या में ही लग पाते हैं। वर्डप्रेस में इसकी कोई सीमा नहीं है। वहां चाहे जितनी श्रेणियां और टैग लगाये जा सकते हैं। इससे कोई भी पोस्ट अधिक से अधिक शब्दों के साथ सर्च इंजिन में आ जाती है। हालांकि यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि ब्लागस्पाट के शीर्षक भी सर्च इंजिन में आ जाते हैं पर अंग्रेजी में अधिक शब्दों के साथ उन्हें पकड़ा जा सकता है। यह बात सही है कि हम हिंदी में लिख रहे हैं पर देश के आम पाठक के दिमाग में अभी अंग्रेजी शब्दों  से सर्च इंजिन में ढूंढने की प्रवृत्ति है और इसलिये वर्डप्रेस पर उनका इस्तेमाल व्यापक रूप से किया जा सकता है। इस कारण वहां पर पाठक अधिक आते दिखते हैं। मैं अंतर्जाल पर कोई दावा पक्के ढंग से नहीं करता क्योंकि हो सकता है कि मेरे से समझने में कहीं चूक हो रही हो इसकी संभावना को हमेशा मानता हूं। वर्डप्रैस पर पाठकों की लगातार आमद देख कर एक विश्वास बना रहता है कि आगे इनकी संख्या बढ़ सकती है। कई बार तो ऐसा होता है कि पोस्ट न लिखने के बावजूद  भी डेशबोर्ड ब्लाग रेटिंग में ऊपर बना रहता है। इसलिये वहां लिखने वालों का मन लगा रहता है। यही कारण है कि वर्डप्रैस  पर लिखने वाले कभी निराशाजनक बातें करते हुए नहीं दिखते। ब्लागस्पाट के ब्लाग पर भी पाठक आते दिखते हैं पर उनकी संख्या वहां के मुकाबले बहुत कम है और अगर पोस्ट न लिखने पा फोरमों से पाठक नहीं मिल पाते तब एक निराशा घर कर जाती है। यही कारण है कि ब्लागस्पाट के ब्लागर कभी-कभी निराशाजनक बातें कर जाते हैं।

वर्डप्रेस ने आज मेरे ब्लाग पर ही तमाम तरह के नवीन दृश्य रखना शुरू कर दिये। सबसे अधिक हिट और सक्रिय पोस्ट के पाठकों की संख्या के साथ पाठकों की संख्या का विवरण भी दिखाना शुरू कर दिया और अब उसके लिये अब कहीं नहीं जाना। कमेंट भी अब सामने पढ़ी जा सकतीं है। पहले कमेंट पढ़ने के लिये उसके कमेंट कालम को क्लिक करना पड़ता था और शायद इसलिये कई ब्लागर उसे अपने पास रखे हुए थे। जिन लोगों ने माडरेशन का अधिकार नहीं रखा उनका तो देखना पड़ता था कि कोई कमेंट तो नहीं आया।

अब डेशबोर्ड आकर्षक और अधिक जानकारी प्रदान करने वाला हो गया है। इधर कुछ नये ब्लागर भी वहां अच्छा और जोरदार लिखने वाले आ गये हैं। कुछ पुराने और जोरदार ब्लागर अभी भी वहंा लिख रहे हैं। हम वर्डप्रैस  के ब्लागर एक दूसरे को फोरमों पर ही पढ़ लेते हैं। सच तो यह है कि ब्लागस्पाट पर जब कोई पोस्ट रखता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि वह पाठकों की सीमित संख्या में पढ़ी जायेगी। बीच में वर्डप्रैस के ब्लाग और गूगल के विज्ञापन खाते को जोड़कर ब्लोग इन काम के बनाये  ब्लोग की चर्चा मैंने की थी पर उस पर लिखने का विचार अभी तक नहीं बन पाया क्योंकि उसका खाता जब ब्लागस्पाट से ब्लाग पर ही अधिक उपयोगी नहीं है तो फिर दूसरी जगह कैसे रहेगा? ऐसे में ख्वामख्वाह में बदनामी लेते फिरो कि पैसे के लिये लिख रहा है।

बहरहाल वर्डप्रैस भी जिस तरह नित बदलाव कर रहा है उससे लग रहा है कि हो सकता है कि वह आगे कोई विज्ञापन का भी इंतजाम करे। आज ही मैंने एक ब्लाग में पढ़ा तो उससे पता लगा कि उन्हीं विज्ञापनों में फायदा है जो आनलाइन खरीददारी के लिये उपयोगी हों। इसका मतलब यह है कि अभी कुछ समय लगेगा। बहरहाल वर्डप्रैस वालों को इन नवीन परिवर्तनों के लिये बधाई। इस पर मिलने वाली दिलचस्प जानकारी है इसमें कोई संदेह नहीं है।
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अब बंद हो गया हकलाते हुए लिखना


मुझे लग रहा है कि जैसे आज से अंतर्जाल पर लिखना शुरू कर रहा हूं। रोमन लिपि में लिखकर हिंदी लिखता तो कहीं न कही मन में अस्वभाविकता का अनुभव तो होता ही था-एसा लगता था कि हकलाते और तुतलाते हुए ही लिख रहा हूं। मैने नारद पर अपनी जो पहली पोस्ट लिखी थी उसका शीर्षक ही था ‘मैं हकलाते हुए लिख रहा हूं’। उसके बाद भी बहुत लिखा पर हमेशा कहीं न कहीं यह लगता कि अपना मौलिक स्वरूप जब खुद ही नहीं दिख पा रहा हूं तो दूसरे क्या देख पाते होंगे।

कृतिदेव में कल से यह मेरी छठी पोस्ट है। कल कृतिदेव का हिंदी टूल जब अपने डेस्कटाप पर ला रहा था तो शंका थी कि वह सफल होगा क्यांकि पहले भी ऐसे ही दो टूलों पर मैं अपना समय खराब कर चुका था-हालांकि मैं यह नहीं कह सकता कि वह टूल गलत थे। हो सकता है कि मुझे उपयोग करना ही नहीं आता हो। संभवत: मेरा कंप्यूटर उसे स्वीकार नहीं करता हो। ऐसे टूल रहे होंगे इसमें तो मुझे यकीन था क्योंकि अंतर्जाल की दो पत्रिकाओं हिन्दी नेस्ट और अभिव्यक्ति-अनुभूति ने मेरी देव और कृतिदेव फोट में भेजी गयी रचनाओं को संभवतः इन्हीं टूलों से यूनिकोड में बदल कर प्रकाशित किया गया होंगा। इसके बावजूद मैं एक वर्ष तक इन टूलों से दूर रहा तो इसका कारण यही हो सकता है कि यह टूल पूरी तरह सौ प्रतिशत उपयोगी नहीं रहे होंगे या इनका स्थानांतरण कठिन होगा। ऐसा इसलिए कह सकता हूं कि मैने कुछ साथी ब्लागरों को यह लिखते हुए देखा कि हमें तो कृतिदेव में ही काम करना पसंद करते है।’ इधर यह भी स्वीकार करते थे कि वह यूनिकोड में लिख रहे है।

मैं इन चर्चाओं पर नजर रखता था। एक बार तो मैने लिख भी दिया था कि ऐसा कोई प्रमाणिक टूल आयेगा तो वह गूगल से ही आयेगा। कल जब मैने एक ब्लाग देखा और उसमें इस टूल को अपने डेस्कटाप पर लाया। जब इसमें मैने अपनी कृतिदेव में टंकित सामग्री यूनिकोड में रखी और क्लिक किया तो जो सामने परिणाम आया उसे मन खुश हो गया। यूनिकोड का उपयोग के इस्तेमाल की बात करें तो कह सकते हैं कि कुछ नहीं से तो जो है वहीं ठीक है। अपनी अभिव्यक्ति करने के लिये रोमन लिपि का हिंदी टूल का उपयोग किया पर कृतिदेव का परिवर्तित टूल का कल से इतना उपयोग कर लिया है कि अब उसमें सीमित दिलचस्पी रह गयी। वह भी कभी कमेंट लगाने या शीर्षक के लिये काम में लेंगे।

यह टूल बहंत पहले नहीं मिला इसको लेकर मन में कोई निराशा भी नहीं है। वजह यह है कि यूनिकोड में बहुंत कठिनाई से लिखते थे पर वह संघर्ष कई एसी हास्य कविताओं का जन्मदाता बना जिसके न होने पर संभव नहीं होता। कई बार अच्छा और मजेदार ख्याल आया तो उस पर बड़ा व्यंग्य लिखने की बजाय छोटी हास्य कविताएं लिख दीं और वह पंसद की गयीं। सबसे बड़ी बात यह थी कि महापुरूषों के संदेश सुबह लिखने का मन बनाया क्यांकि अपने निजी जीवन और लेखन में उनके संदेशों पर आधुनिक संदर्भ में व्याख्या को कई लोगों ने बहुत पसंद किया। जब शूरूआत की तो कम समय होने के कारण हमने सीधे संदेश ही लिखे ताकि मन को तसल्ली रहे कि हम यहां भी वही कर रहे है। पिछले पंद्रह दिन से अपनी टंकण की अपनी गति को बढ़ा हुआ देखा तो वर्तमान संदर्भ में व्याख्या देने का काम शूरू किया तब तक यह टूल आ गया। यह टूल आफलाइन भी काम कर रहा है इसलिए इंटरनेट को खोलकर बैठने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा कोई शब्द गलत दिख जाये तो उसे बीच में ठीक किया जा सकता है जबकि दूसरे टूलों पर यह त्रटियां ठीक करने में कठिनाई आती थी।

कई बार जब व्यंग्य या कहानी लिखने का मन आता तो पहले तो यह सोचना पड़ता था कि वह कितना लंबा खिंचेगा। जब लगता कि वह लंबा खिंचेगा तो फिर मन नहीं होता था। कृतिदेव में इस चिंता से मुक्त रहेंगे। एक बैठक में नहीं तो अगली बैठक में उसे पूरा कर सकते है-क्योंकि उसको तो अपने वर्ड प्रोग्राम में ही तो रखना है।
कुल मिलाकर अभी तक हकलाते और तुतलाते लिख रहे थे पर अब लगता है कि वह बंद हो गया है। सबसे बड़ी बात यह कि इसमें हमारी आंखें नहीं थकेंगी क्योंकि इसमें हमें कंप्यूटर की तरह देखने की जरूरत ही नहीं है। अगर कोई कागज या किताब सामने रखकर लिखते जायेगे जबकि यूनिकोड में सामने भी देखना पड़ता है कि अक्षर सही आया कि नहीं। कृतिदेव में तो हम आंखें ही बंद कर टाइप कर लेते है। एक बार टाइप करने के बाद उसे फिर देखते हैं और कोई सुधार होता है तो कर देते है।