Category Archives: education

भारत में हिन्दीः आम और खास वर्ग की अलग अलग पहचान करती भाषा-हिन्दी लेख (comman and special class of hindi in india-hindi lekh)


भारत की खिल्ली उड़ाने वाले विदेशी लोग इसे ‘‘साधुओं और सपेरों का देश कहा करते थे। भारत के बाहर प्रचार माध्यम इसी पहचान को बहुत समय आगे बढ़ाते रहे पर जिन विदेशियों ने उस समय भी भारत देखा तो पाया कि यह केवल एक दुष्प्रचार मात्र था। हालांकि अब ऐसा नहीं है पर अतीत की छबि अभी कई जगह वर्तमान स्वरूप में विद्यमान दिखाई देती है। इससे एक बात तो मानी जा सकती कि आधुनिक प्रचार माध्यमों के -टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं- अधिकतर कार्यकर्ता जनमानस में अपनी बात स्थापित करने में बहुत सक्षम है। इसी क्षमता का लाभ उठाकर वह अनेक तरह के भ्रम मी सत्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अनेक लोग तो करते ही हैं। इस साधु और सपेरों की छबि से देश मुक्त हुआ कि पता नहीं पर वर्तमान में भी भारत की छबि को लेकर अनेक प्रकार के अन्य भ्रम यही प्रचार माध्यम फैलाते हैं और जिनका प्रतिकार करना आवश्यक है।
अगर हम इस पर बहस करेंगे तो पता नहीं कितना लंबा लिखना पड़ेगा फिर यह भी तय नहीं है कि बहस खत्म होगी कि नहीं। दूसरा प्रश्न यह भी है कि यह प्रचार माध्यम कार्यकर्ता कहीं स्वयं ही तो मुगालतों में नहीं रहते। पता नहीं बड़े शहरों में सक्रिय यह प्रचार माध्यम कर्मी इस देश की छबि अपने मन की आंखों से कैसी देखते हैं? मगर इतना तय है कि यह सब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न है और यहां की अध्यात्मिक ताकत को नहीं जानते इसलिये अध्यात्म की सबसे मज़बूत भाषा हिन्दी का एक तरह से मज़ाक बना रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि उनके पाठक, दर्शक तथा श्रोता केवल कान्वेंट पढ़े बच्चे ही हैं या फिर केवल वही उनके अभिव्यक्त साधनों के प्रयोक्ता हैं। मज़दूर गरीब, और ग्रामीण परिवेश के साथ ही शहर में हिन्दी में शिक्षित लोगों को तो केवल एक निर्जीव प्रयोक्ता मानकर उस पर अंग्रेजी शब्दों का बोझ लादा जा रहा है।
अनेक समाचार पत्र पत्रिकाऐं अंग्रेजी भाषा के शब्द देवनागरी लिपि के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं-कहीं तो कहीं तो शीर्षक के रूप में पूरा वाक्य ही लिख दिया जाता है। यह सब किसी योजना के तहत हो रहा है इसमें संशय नहीं है और यह भी इस तरह की योजना संभवत तीन साल पहले ही तैयार की गयी लगती है जिसे अब कार्यरूप में परिवर्तित होते देखा जा रहा है।
अंतर्जाल पर करीब तीन साल पहले एक लेख पढ़ने में आया था। जिसमें किसी संस्था द्वारा रोमन लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को लिखने के लिये प्रोत्साहन देने की बात कही गयी थी। उसका अनेक ब्लाग लेखकों ने विरोध किया था। उसके बाद हिन्दी भाषा में विदेशी शब्द जोड़ने की बात कही गयी थी तो कुछ ने समर्थन तो कुछ ने विरोध किया था। उस समय यह नहीं लगा था कि ऐसी योजनायें बनाने वाली संस्थायें हिन्दी में इतनी ताकत रखती हैं कि एक न एक दिन उनकी योजना ज़मीन पर रैंगती नज़र आती हैं। अब यह बात तो साफ नज़र आ रही है कि इन संस्थाओं में व्यवसायिक लोग रहते हैं जो कहीं न कहीं से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्राप्त कर ही आगे बढ़ते हैं। प्रत्यक्षः वह बनते तो हिन्दी के भाग्य विधाता हैं पर वह उनका इससे केवल इतना ही संबंध रहता है कि वह अपने प्रयोजको को सबसे अधिक कमा कर देने वाली इस भाषा में निरंतर सक्रिय बनाये रखें। यह उन लोगों के भगवान पिता या गॉड फादर बन जाते हैं जो हिन्दी से कमाने आते हैं। यह उनको सिफारिशें कर अपने प्रायोजकों के साथ जोड़ते हैं-आशय यह है कि टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में काम दिलाते होंगे। हिन्दी भाषा से उनका कोई लेना देना नहीं है अलबत्ता कान्वेंट मे शिक्षित  लोगों को वह हिन्दी में रोजगार तो दिला ही देते होंगे ऐसा लगता है। यही कारण है कि इतने विरोध के बावजूद देश के पूरे प्रचार माध्यम धड़ल्ले से इस कदर अंग्रेजी के शब्द जोड़ रहे हैं कि भाषा का कबाड़ा हुए जा रहा है। अब हिन्दी दो भागों में बंटती नज़र आ रही है एक आम आदमी की दूसरी खास लोगों की भाषा।
हिन्दी के अखबार पढ़ते हुए तो अपने ही भाषा ज्ञान पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषी होने का अपमान झेल रहे हैं। इससे भी ज्यादा इस बात की हैरानी कि आम आदमी के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव यह व्यवसायिक संस्थान कैसे रख रहे हैं। सीधी बात कहें तो देश का खास वर्ग और उसके वेतनभोगी लोग समाज से बहुत दूर हो गये हैं। यह तो उनका मुगालता ही है कि वह समाज या हिन्दी को अपने अनुरूप बना लेंगें क्योंकि इस देश का आधार अब भी गरीब, मज़दूर और आम व्यवसायी है जिसके सहारे हिन्दी भाषा जीवीत है। जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विश्व को दिखाने तक ही ठीक हैं। उस विकास को लेकर देश के प्रचार माध्यम झूम रहे हैं उसकी अनुभूति इस देश का आम आदमी कितनी करता है यह देखने की कोशिश नहंी करते। उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है क्योंकि उनकीभाषा आम आदमी के भाव से मेल नहीं खाती। वह साधु सपेरों वाले देश को दृष्टि तथा वाणी से हीन बनाना चाहते हैं। अपनी भाषा के विलुप्तीकरण में अपना हित तलाश रहे लोगों से अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह हिन्दी भाषा के सभ्य रूप को बने रहने देंगे।
हिन्दी के कथित विकास के लिये बनी संस्थाओं में सक्रिय बुद्धिजीवी भाषा की दृष्टि से कितने ज्ञाता हैं यह कहना कठिन है अलबत्ता कहीं न कहीं अंग्रेजी के समकक्ष लाने के दावे वह जरूर करते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी कई जगह सक्रिय हैं और हिन्दी भाषा के लिये गुरु की पदवी भी धारण कर लेते हैं। उनकी कीर्ति या संपन्नता से हमें कोई शिकायत नहीं है पर इतना तय है कि व्यवसायिक संस्थानों के प्रबंधक उनकी मौजूदगी इसलिये बनाये रखना चाहते हैं कि उनको अपने लिये हिन्दी कार्यकर्ता मिलते रहें। मतलब हिन्दी के भाग्य विधाता हिन्दी के व्यववायिक जगत और आम प्रयोक्ता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। इससे अधिक उनकी भूमिका नहीं है। ऐसे में नवीन हिन्दी कार्यकर्ता रोजगार की अपेक्षा में उनको अपना गुरु बना लेते हैं।
ऐसे प्रयासों से हिन्दी का रूप बिगड़ेगा पर उसका शुद्ध रूप भी बना रहेगा क्योंकि साधु और सपेरे तो वही हिन्दी बोलेंगे और लिखेंगे जो आम आदमी जानता हो। हिन्दी आध्यात्म या अध्यात्म की भाषा है। अनेक साधु और संत अपनी पत्रिकायें निकालते हैं। उनके आलेख पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसमें हिन्दी का साफ सुथरा रूप दिखाई देता है। अब तो ऐसा लगने लगा है हिन्द समाचार पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने से तो अच्छा है कि अध्यात्म पत्रिकायें पढ़कर ही अपने हिन्दी भाषी होने का गर्व महसूस किया जाये। अखबार में भी वही खबरें पढ़ने लायक दिखती हैं जो भाषा और वार्ता जैसी समाचार एजेंसियों से लेकर प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय समाचारों के लिये क्योंकि स्थानीय पत्रकार होते हैं इसलिये उनकी हिन्दी भी ठीक रहती है मगर आलेख तथा अन्य प्रस्तुतियां जो कि साहित्य का स्त्रोत होती हैं अब अंग्रेजीगामी हो रही हैं और ऐसे पृष्ठ देखने का भी अब मन नहीं करता। एक बात तो पता लग गयी है कि हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय एक समूह ऐसा भी है जो दावा तो हिन्दी के हितैषी होने का है पर वह मन ही मन झल्लाता भी है कि अंग्रेजी में छपकर भी वह आम आदमी से दूर है इसलिये वह हिन्दी भाषा प्रचार माध्यमों में छद्म रूप लेकर घुस आया है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का उसका इरादा केवल तात्कालिक आर्थिक हित प्राप्त करना ही है। वह हिन्दी का महत्व नहींजानता क्योकि आध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपने अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति के कारण ही बढ़ेगी न कि सतही साहित्य के सहारे। ऐसे में हिन्दी की चिंदी करने वालों को केवल इंटरनेट के लेखक ही चुनौती दे सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके पास आम पाठक का समर्थन नहीं है। 
———–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

युद्ध और सत्संग-व्यंग्य कविता



धर्म के लिए अब नहीं होता सत्संग
हर कोई लड़ रहा है, उसके नाम पर जंग.
किताबों के शब्द का सच
अब तलवार से बयान किया जाता
तय किये जाते हैं अब धार्मिक रंग.

एक ढूँढता दूसरे के किताब के दोष
ताकि बढ़ा सके वह ज़माने का रोष
दूसरा दिखाता पहले की किताब में
अतार्किक शब्दों का भंडार
जमाने के लिए अपना धर्म व्यापार
बयानों का है अपना अपना ढंग..

धर्म का मर्म कौन जानना चाहता है
जो किताबें पढ़कर उसे समझा जाए
पर उसके बिना भी नहीं जमता विद्वता का रंग,
इसलिए सभी ने गढ़ ली अपनी परिभाषाएं,
पहले बढ़ाते लोगों की अव्यक्त अभिलाषाएं,
फिर उपदेश बेचकर लाभ कमाएं,
इंसान चाहे कितने भी पत्थर जुटा ले
लोहे और लकडी के सामान भी
उसका पेट भर सकते हैं
पर मन में अव्यक्त भाव कहीं
व्यक्त होने के लिए तड़पता हैं
जिसका धर्म के साथ बड़ी सहजता से होता संग.
सब चीजों के तरह उसके भी सौदागर हैं
अव्यक्त को व्यक्त करने का आता जिनको ढंग..
कहीं वह कराते सत्संग
कहीं कराते जंग..
———————————-

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
————————————-

यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

छोटा आदमी, बड़ा आदमी-लघुकथा


वह शिक्षित बेरोजगार युवक संत के यहां प्रतिदिन जाता था। उसने देखा कि उनके आशीर्वाद से अनेक लोगों की मनोकामना पूरी हो जाती हैं। एक दिन उसने संत के चरणों में सिर झुकाते हुए कहा-‘महाराज, अभी तक आपके चरणों में सिर झुकाता रहा पर कुछ मांगने का साहस नहीं हो सका। आज आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिये ताकि मैं भी बड़ा आदमी बन जाऊं।’
संत से मुस्कराकर पूछा-क्या बनना चाहते हो?
उस युवक ने कहा-‘महाराज, एक अंग्रेज विद्वान ने कहा है कि इस धरती पर सबसे बड़ा आदमी तो क्लर्क है। वही बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!
कुछ दिनों के बाद वह फिर संत के चरणों में आकर गिर पड़ा और बोला-‘महाराज क्लर्क बनने से मेरे रोजगार की समस्या तो दूर हो गयी पर बड़ा आदमी फिर भी नहीं बन सका। जो उपरी कमाई का हिस्सा बड़े क्लर्क को उसके डर के मारे देना पड़ता है। आप मुझे बड़ा क्लर्क बना दीजिये।’
संत ने कहा-तथास्तु!
वह बड़ा क्लर्क बना। फिर कुछ दिनों के बाद आया और बोला-‘महाराज, उससे भी बड़ा आदमी नहीं बन सका। उपरी कमाई का हिस्सा अफसर को उसके डर के मारे देना पड़ता है। आप तो मुझे अफसर बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
कुछ दिनों बाद वह फिर संत के चरणों में आकर गिर पड़ा और बोला-‘महाराज, अफसर से भी बड़ा वजीर है। आप तो वह बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
कुछ समय बाद वह फिर आया और बोला-महाराज, अब यह आखिरी बार मांग रहा हूं। वजीर से भी बड़ा राजा है। आप तो मुझे राजा बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
मगर एक दिन फिर आया और चरणों में गिर पड़ा-‘महाराज, राजा से भी बड़े आप हैं। यह मुझे वहां गद््दी पर बैठकर लगा क्योंकि आप जनता के हृदय में बसते हैं और इसलिये आपसे डरकर रहना पड़ता है। आप तो मुझे अपने जैसा संत बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु।’
फिर वह कुछ दिन बाद आया और चरणों में गिर पड़ा तो संत ने कहा-‘अब यह मत कहना कि मुझे सर्वशक्तिमान बनाकर स्वर्ग में बिठा दो। यह मेरे बूते का नहीं है। इतना बड़ा मैं किसी को नहीं बना सकता।’
उसने कहा-‘महाराज, आपसे जो मांगा आपने दिया पर मैं लालची था जो किसी को कुछ नहीं दे सका बल्कि आपसे मांगता ही रहा। आपने आशीर्वाद देकर क्लर्क से संत तक बड़ा आदमी बनाया पर मैं हमेशा छोटा ही बना रहा क्योंकि मेरे मन में केवल अपनी कामनायें थीं जो केवल आदमी को छोटा बनाये रखती हैं।’
संत ने कहा-‘तुम आज बड़े आदमी हो गये क्योंकि तुमने सच जान लिया है।’
…………………………….

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

सर्वशक्तिमान नहीं पैसा बनाता है जोड़ी-हास्य कविता


कौन कहता है ऊपर वाला ही
बनाकर भेजता इस दुनियां में जोड़ी
पचास साल के आदमी के साथ कैसे
जम सकती है बाईस साल की छोरी
अय्याशी के बनाते हैं संदेश
जिस पर नाचे पूरा देश
पर्दे पर काल्पनिक दृश्यों में
अभिनेताओं के साथ नाचते हुए
कई अभिनेत्रियां बूढ़ी हो जाती हैं
फिर कोई नयी आती है
पैसे और व्यापार के लिये खुल है पूरा
कहते हैं फिर ‘रब ने बना दी जोड़ी’
उठायें दीपक बापू सवाल
सर्वशक्तिमान ने रची है दुनियां
इंसान को अक्ल भी दी है
उसी पर काबू पाने के लिये
कई रचे गये प्रपंच
बना दिया धरती को बेवकूफियों का मंच
कामयाब हो जाये तो अपनी तारीफ
नाकाम होते ही अपनी गलती की
जिम्मेदारी सर्वशक्तिमान पर छोड़ी

……………………
मुश्किल है इस बात पर
यकीन करना कि
बन कर आती है ऊपर से जोड़ी
फिर कैसे होता कहीं एक अंधा एक कौड़ी
जो बना लेता हैं अपनी जोड़ी
कहीं घरवाली को छोड़
बाहरवाली से आदमी बना लेता अपनी जोड़ी

………………………….

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

टेलीफोन की हड़ताल का तिलिस्म-व्यंग्य


देश की एक टेलीफोन कंपनी में कर्मचारियों की हड़ताल हो गयी तो उसके इंटरनेट प्रयोक्ताओं को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा। इस लेखक का कनेक्शन उस कंपनी से जुड़ा नहीं है इसलिये उसे यह केवल अन्य ब्लाग लेखकों से ही पता चल पाया कि उनकी पाठन पाठन की नियमित प्रक्रिया पर उसका बुरा प्रभाव पड़ा। अनेक ब्लाग लेखकों को उनके मित्र ब्लाग लेखकों की नवीनतम रचनायें पढ़ने का अवसर नहीं मिल पाया तो लिखने से भी वह परेशान होते रहे। हड़ताल दो दिन चली और सुनने में आया कि वह समाप्त हो गयी।
अच्छा ही हुआ कि हड़ताल समाप्त हो गयी वरना इस ब्लाग/पत्रिका लेखक को अनेक प्रकार के भ्रम घेर लेते। हुआ यूं कि इस लेखक के बाईस ब्लाग पर पिछले तीन दिनों से जिस तरह पाठकों का आगमन हुआ वह हैरान करने वाला था। पिछले दो दिनों से यह संख्या हजार के पार गयी और उस दिन भी इसकी संभावना लगती हती कि कर ही लेगी। पांच ब्लाग पर यह संख्या आठ सौ के करीब है। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा? जिसकी वजह से इस ब्लाग लेखक के ब्लाग पर इतने पाठक आ गये। हिंदी ब्लाग जगत में अनेक तेजस्वी ब्लाग लेखक हैं जिनके लिखे को पढ़ने में मजा आता है। मगर टेलीफोन कंपनी के कर्मचारियों की हड़ताल हो तो फिर पाठक कहां जायें?
नियमित रूप से जिन ब्लाग लेखकों के पाठ हिंदी ब्लाग जगत को सूर्य की भांति प्रकाशमान करते हैं उनका अभाव पाठकों के लिये बौद्धिक रूप से अंधेरा कर देता है। शायद यही वजह है कि इस ब्लाग लेखक के चिराग की तरह टिमटिमाते पाठों में उन्होंने हल्का सा बौद्धिक प्रकाश पाने का प्रयास किया होगा।
यह एक दिलचस्प अनुभव है कि एक टेलीफोन कंपनी की हड़ताल से दूसरी टेलीफोन कंपनी के प्रयोक्ता ब्लाग लेखकों को पाठक अधिक मिल जाते हैं। दावे से कहना कठिन है कि कितने पाठक बढ़े होंगे और क्या यह संख्या आगे भी जारी रहेगी? वैसे तो इस लेखक के ब्लाग/पत्रिकाओं के करीब साढ़े सात सौ से साढ़े नौ सौ पाठ प्रतिदिन पढ़े जाते हैं। संख्या इसी के आसपास घूमती रहती है। पिछले तीन दिनों से यह संख्या तेरह सौ को पार कर गयी जो कि चैंकाने वाली थी। इसको टेलीफोन कर्मचारियों की हड़ताल का असर कहना इसलिये भी सही लगता है कि उस दिन शाम के बाद पाठक संख्या कम होती नजर आ रही और अगर यह संख्या एक हजार पार नहीं करती तो माना जाना चाहिये था कि यही बात सत्य है।
इस दौरान पाठकों की छटपटाहट ने ही उनको ऐसे ब्लागों पर जाने के लिये बाध्य किया होगा जो उनके पंसदीदा नहीं है। पढ़ने का शौक ऐसा भी होता है कि जब मनपसंद लेखक या पत्रिका नहीं मिल पाती तो निराशा के बावजूद पाठक विकल्प ढूंढता है। यह अच्छा ही हुआ कि हड़ताल समाप्त हो गयी वरना इस लेखक को कितना बड़ा भ्रम घेर लेता? भले ही आदमी कितनी भी ज्ञान की बातें लिखता पढ़ता हो पर सफलता को मोह उसे भ्रम में डाल ही देता है। अब कभी ऐसे तीव्र गति से पाठ पढ़े जायें तो यह देखना पड़ेगा कि उसकी कोई ऐसी वजह तो नहीं है कि जिसकी वजह से पाठक मजबूर होकर आ रहे हों। यह हड़ताल का तिलिस्म था जो इतने सारे पाठक दिखाई दिये। अच्छा ही हुआ जल्दी टूट गया वरना तो भ्रम बना ही रहता। वैसे टेलीफोन कंपनियों की हड़ताल से वही प्रयोक्ता परेशान होंगे जो उसके प्रयोक्ता होंगे। आज कोई और हुआ तो कल हम भी हो सकते हैं।
—————————–

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

कबीर दास के दोहे: अंधों के आगे रोना, अपनी आँखें बेकार में खोना


संत कबीरदास जी का कहना है
———————

गाहक मिलै तो कुछ कहूं, न तर झगड़ा होय
अन्धों आगे रोइये अपना दीदा खोय

कि कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो अपनी बात समझता हो तो उससे कुछ कहें पर जो बुद्धि से अंधे हैं उनके आगे कुछ कहना बेकार अपने शब्द व्यर्थ करना है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल हर कोई बस अपनी बात कहने के लिये उतावला हो रहा है। किसी की कोई सुनना नहीं चाहता। दो व्यक्ति आपस में मिलते हैं। एक कहता है कि ‘मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगी रही’ तो दूसरा तत्काल कहता है कि ‘मैं भी अपने लड़के लिये लिये दुकान ढूंढ रहा हूं’। एक कहता है कि ‘मेरी लड़की की शादी तय हो गयी है’ तो दूसरा तत्काल कहता है कि ‘मेरी लड़की की शादी पिछले माह हुई थी, वह घर आयी है‘। तात्पर्य यह है कि किसी की बात सुनकर उसमें मुख्य विषय के शीर्षक-जैसे लड़का,लड़की,माता पिता,भाई बहिन और चाचा चाची-एक शब्द पर ही आदमी बोलने लगता है। अनेक बार वार्तालाप में शामिल होकर मौन रहे और देखें कि कौन किसकी कितनी सुना है। तब इस बात की अनुभूति होगी कि सभी अपनी बात कहने के लिये उतावले हो रहे हैं। तब ऐसा लगता है कि उनके बीच में अपने शब्द बोलकर समय और ऊर्जा व्यर्थ करना ही है। कई बार तो ऐसा होता है कि ऐसे वार्तालाप में लोग सकारात्मक शब्द तो भूल जाते हैं पर नकारात्मक भाव के आशय दूसरों को सुनाकर बदनाम भी करते हैं। इसलिये अपनी बात ऐसे लोगोंे से ही कहनी चाहिये जो अच्छी तरह सुनते और समझते हों।
……………………….

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्दलेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

मशहूर होने का बोझ सभी नहीं उठा सकते-आलेख


हिंदी ब्लाग जगत पर अनेक लोग छद्म नाम से लिखते हैं और यह परंपरा उन्होंने अंग्रेजी से ही ली है। जहां तक हिंदी में छद्म नाम से लिखने का सवाल है तो इतिहास में ऐसे कई लेखक और कवि उस नाम से प्रसिद्ध हुए जो उनका असली नाम नहीं था। अनेक लोग अपने नाम के साथ आकर्षक उपनाम-जिसे तखल्लुस भी कहते हैं-लिख देते हैं और उससे उनके कुल का उपनाम विलोपित हो जाता है। इसलिये उनके नाम को छद्म कहना ठीक नहीं है।
हिंदी ब्लाग जगत की शुरुआत करने वाले एक ब्लाग लेखक ने लिखा था कि उसने अपना छद्म नाम इसलिये ही लिखा था क्योंकि अंतर्जाल के ब्लाग या वेबसाईट पर कोई भी गंदी बात लिख सकता है। ऐसे में कोई परिचित पढ़ ले तो वह क्या कहेगा?
उसका यह कथन सत्य है। ऐसे में जब पुरुष ब्लाग लेखकों के यह हाल हैं तो महिला लेखकों की भी असली नाम से लिखने पर चिंता समझी जा सकती है। हालत यह है कि अनेक लोग असली नाम से लिखना शुरु करते हैं और फिर छद्म नाम लिखने लगते हैं।
छद्म नाम और असली नाम की चर्चा में एक बात महत्व की है और वह यह कि आप किस नाम से प्रसिद्ध होना चाहते हैं। जब आप लिखते हैं तो आपको इसी नाम से प्रसिद्धि भी मिलती है। कुछ लोग अपने असली नाम की बजाय अपने नाम से दूसरा उपनाम लगाकर प्रसिद्ध होना चाहते हैं उसे छद्म नाम नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह छिपाने का प्रयास नहीं है।
दूसरी बात यह है कि अंतर्जाल पर लोग केवल इस डर की वजह से अपना परिचय नहीं लिख रहे क्योंकि अभी ब्लाग लेखक को कोई सुरक्षा नहीं है। इसके अलावा लोग ब्लाग तो केवल फुरसत में मनोरंजन के साथ आत्म अभिव्यक्ति के लिये लिखते हैं। अपने घर का पता या फोन न देने के पीछे कारण यह है कि हर ब्लाग लेखक अपना समय संबंध बढ़ाने में खराब नहीं करना चाहता। सभी लोग मध्यम वर्गीय परिवारों से है और उनकी आय की सीमा है। जब प्रसिद्ध होते हैं तो उसका बोझ उठाने लायक भी आपके पास पैसा होना चाहिये।
अधिकतर ब्लाग लेखक अपने नियमित व्यवसाय से निवृत होने के बाद ही ब्लाग लिखते और पढ़ते हैं। यह वह समय होता है जो उनका अपना होता है। अगर वह प्रसिद्ध हो जायें या उनके संपर्क बढ़ने लगें ं तो उसे बनाये रखने के लिये इसी समय में से ही प्रयास करना होगा और यह तय है कि इनमें कई लोग इंटरनेट कनेक्शन का खर्चा ही इसलिये भर रहे हैं क्योंकि वह यहां लिख रहे हैं। सीमित धन और समय के कारण नये संपर्क निर्वाह करने की क्षमता सभी में नहीं हो सकती। यहां अपना असली नाम न लिखने की वजह डर कम इस बात की चिंता अधिक है कि क्या हम दूसरों के साथ संपर्क रख कर कहीं अपने लिखने का समय ही तो नष्ट नहीं करेंगे।
ब्लाग पढ़ने वाले अनेक पाठक अपना फोटो, फोन नंबर और घर का पता मांगते हैं। उनकी सदाशयता पर कोई संदेह नहीं है पर अपनी संबंध निर्वाह की क्षमता पर संदेह होता है तब ऐसे संदेशों को अनदेखा करना ही ठीक लगता है। सीमित धन और समय में से सभी ब्लाग लेखकों के लिये यह संभव नहीं है कि वह प्रसिद्धि का बोझ ढो सकें। इसलिये पाठकों पढ़ते देखकर संतोष करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
हां, एक बात मजे की है। भले ही लेखक असली नाम से लिखे या छद्म नाम से उसका चेहरा पहचाना जा सकता है। अगर आपने किसी को असली नाम से लिखते देखा है और अगर वह छद्म नाम से लिखेगा तो भी आप पहचान लेंगे। एक बात याद रखने की है शब्दों के चेहरे तभी पहचाने जा सकते हैं जब आप उस लेखक को नियमित पढ़ते हों।
प्रसंगवश याद आया कि अंतर्जाल पर अपने विरोधियों से निपटने के लिये इस ब्लाग/पत्रिका लेखक ने भी दो ब्लाग अन्य नाम -उसे भी छद्म नहीं कहा जा सकता-से बनाया था और वह अन्य बाईस ब्लाग में सबसे अधिक हिट ले रहे हैं पर उनमें सात महीने से कुछ नहीं लिखा जा रहा है क्योंकि उस नाम से प्रसिद्ध होने की इस लेखक की बिल्कुल इच्छा नहीं है। आज अपने मित्र परमजीत बाली जी का एक लेख पढ़ते हुए यह विचार आया कि क्यों न उनको अपने ही इस नाम से पुनः शुरु किया जाये। उस नाम से दूसरे ब्लाग पर एक टिप्पणी आई थी कि आपकी शैली तो …………………….मिलती जुलती है।
मतलब टिप्पणीकर्ता इस लेखक की शैली से पूरी तरह वाकिफ हो चुका था और वह इस समय स्वयं एक प्रसिद्ध ब्लाग लेखक है।
जहां तक शब्दों से चेहरे पहचानने वाली बात है तो यह तय करना कठिन होता है कि आखिर इस ब्लाग जगत में मित्र कितने हैं एक, दो, तीन या चार, क्योंकि उनके स्नेहपूर्ण शब्द एक जैसे ही प्रभावित करतेे हैं? विरोधी कितने हैं? यकीनन कोई नहीं पर शरारती हैं जिनकी संख्या एक या दो से अधिक नहीं है। वह भी पहचान में आ जाते हैं पर फिर यह सोचकर कि क्या करना? कौन हम प्रसिद्ध हैं जो हमारे अपमान से हमारी बदनामी होगी। ले देकर वही पैंच वही आकर फंसता है कि प्रेम और घृणा का अपना स्वरूप होता है और आप कोई बात अंतर्जाल पर दावे से नहीं कह सकते। जब चार लोग प्रेम की बात करेंगे तो भी वह एक जैसी लगेगी और यही घृणा का भी है। कितने प्रेम करने वाले और कितने नफरत करने वाले अंतर्जाल पर उसकी संख्या का सही अनुमान करना कठिन है। रहा छद्म नाम का सवाल तो वह रहने ही हैं क्योंकि आम मध्यम वर्गीय व्यक्ति के लिये अपनी प्रसिद्धि का बोझ उठाना संभव नहीं है। ब्लाग लेखन में वह शांतिप्रिय लेखक मजे करेंगे जो लिखते हैं और प्रसिद्धि से बचना चाहते हैं। अपने लिखे पाठों को प्रसिद्धि भी मिले और लेखक बड़े मजे से बैठकर शांति से उसे दृष्टा की तरह (state counter पर) देखता रहे-यह सुख यहीं नसीब हो सकता है।
………………………………………..

यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग

‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’

पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप

खाली जुबान से कैसे जीतोगे-हिन्दी शायरी


वहम और दिखावे से कैसे जंग लड़ोगे
इंसानी दिमाग की फितरत है
अच्छी हो या बुरी
किसी सोच की गुलामी करना
तुम खाली जुबां से कैसे जीतोगे
उस अंधेरे से
जब तक अल्फाजों की नई रौशनी नहीं भरोगे।

आदमी का दिल कितना भी दरिया हो
ख्यालों के दायरे उसके बहुत तंग हैं
चलते हैं उधार की सोच पर सभी
अपने अल्फाज़ नहीं तय करते वह कभी
दोस्त हो या दुश्मन
जो दिखाये सपने, होते उसी के संग हैं
रौशनी के चिराग बुझ जाते हैं
कितना भी बचो, अंधेरे फिर भी आते हैं
मंजिल का पता नहीं
रास्ते सभी भटके हैं
फिर भी उम्मीद पर
किताबी कीड़ों के घर पर लटके हैं
शायद वह कोई अल्फाज़ों से निकालकर
मंजिल का पता बता दे
कैसे बताओगे उनको
सही मंजिल और रास्ते का पता
जब तक तुम अपनी सोच को
खुद ही रौशन नहीं करोगे

…………………………..

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हरियाली के कायदे रेगिस्तान में नहीं चलते-हिन्दी शायरी


हरियाली के कायदे कभी
रेगिस्तान में नहीं चलते।
हरी दूब में चलते हों जो पांव
रेत की धरती पर बुरी तरह जलते।

जमीन के अपने है कायदे
पर इंसान ने अपने उसूल नये बना लिये
आसमान में देखता है फरिश्ते
अपनी अक्ल के चिराग बुझा दिये
हरियाली में मिलते हैं हाथी
कहां मिलेंगे वह रेत के समंदर में
जहां रेगिस्तान के जहाज ऊंट पलते।

इठलाते हैं वह पहाड़
जिनको साथ हिमालय का मिला है
वह हरियाली और जल के स्त्रोतों में नहाते
बसंत और वर्षा में खुशी के गीत गाते
सूखी धरती पर रेत के ढेरों को
नहीं नसीब पानी की बूंद
फिर भी उनको न शिकवा न गिला है
अपने हालातों में सभी यूं ही ढलते।

पर इंसानों को चैन नहीं
रेतीली जमीन पर हरियाली
और पेड़ पौद्यों से सजी धरती पर
रेगिस्तान के कायदे चलाने के लिये
करता है लड़ाई
ताकि हो उसकी बड़ाई
अपनी ताकत दिखाने के लिये उनके दिल मचलते।

इस धरती पर बदलाव की
धारा लाकर अपने इंसान होने का
सबूत देने के लिये
अपने दिमाग घमंड से सिल दिये
इंसान को मिली है अक्ल
दिखाये उसकी ताकत उसे चैन नहीं आता
मिसाल जमती हो या नहीं
हर कोई एक दूसरे पर थोप कर इतराता
रेगिस्तान में पीपल का पेड़ नहीं बो सकता
इसलिये हरियाली में खुजूर का पेड़ लगाता
तेल से कर रहा है अपनी दुनियां रौशन
जानता है कि पानी के बिना जिंदगी नहीं होती
फिर भी उसकी परवाह नहीं
जमीन के हर हिस्से के
अपने होते अलग कायदे
जिन पर चलकर ही होते हैं फायदे
पर उधार की अक्ल पर चलने वाले
इंसानों में अकड़ बहुत है
ला नहीं सकते जो अपने घर में अमन
सह नहीं पाते खामोश चमन
इसलिये उसे उजाड़ने के लिये
बना लेते हैं अपने कायदे
लड़ते हैं उनका नाम लेकर जंग
जिसमें शहर और घर जलते हैं।

………………………

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

अंतर्जाल पर हिंदी का नया वैश्विक काल प्रारंभ -संपादकीय


हिंदी में विभिन्न कालों की चर्चा बहुत रही है। सबसे महत्वपूर्ण स्वर्णकाल आया जिसमें हिंदी भाषा के लिये जो लिखा गया वह इतना अनूठा था कि उसकी छबि आज तक नहीं मिट सकी। विश्व की शायद ही कोई ऐसी भाषा हो जिसके भाग्य में एसा स्वर्ण काल आया हो। इसके बाद रीतिकाल आया। आजकल आधुनिक काल चल रहा है पर अब इस पर वैश्विक काल की छाया पड़ चुकी है। ऐसी अपेक्षा है कि इस वैश्विक काल में हिंदी का स्वरूप इतना जोरदार रहेगा कि भविष्य में यह अंग्रेजी को चुनौती देती मिलेगी। हिंदी ब्लाग जगत पर कुछ नये लेखक -इसमें आयु की बात नहीं क्योंकि जो इस समय भारत के हिंदी जगत प्रसिद्ध नहीं है पर लिखते हैं जोरदार हैं इसलिये उनको नया ही माना जाना चाहिये-इतना अच्छा और स्तरीय लिख रहे हैं उससे तो यह लगता है कि आगे चलकर उनके पाठ साहित्य का हिस्सा बनेंगे।
उस दिन कहीं साहित्यकार सम्मेलन था। वहां से लौटे एक मित्र ने इस लेखक से कहा-‘आखिर तुम इस तरह के साहित्यकार सम्मेलनों में में क्यों नहीं दिखते? यह ठीक है कि तुम आजकल अखबार वगैरह में नहीं छपते पर लेखक तो हो न! ऐसे सम्मेलनों में आया करो । इससे अन्य साहित्यकारों से मेल मिलाप होगा।’
इस लेखक ने उससे कहा-‘दरअसल अंतर्जाल पर इस तरह का मेल मिलाप अन्य लेखकों के साथ होने की आदत हो गयी हैै। वह लोग हमारा पाठ पढ़कर टिप्पणी लिखते हैं और हम उनके ब्लाग पर टिपियाते हैं।’
लेखक मित्र को इस लेखक के ब्लाग पर लिखने की बात सुनकर आश्चर्य हुआ। तब उसने कहा-‘यार, मेरे घर में इंटरनेट है पर मुझे चलाना नहीं आता। एक दिन तुम्हारे घर आकर यह सीखूंगा फिर स्वयं भी इंटरनेट पर लिखूंगा।’
हिंदी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले लेखकों के लिये इंटरनेट अब भी एक अजूबा है। कुछ लोग जानबूझकर भी इसके प्रति उपेक्षा का भाव दिखाते हैं जैसे कि अंतर्जाल पर लिखने वाले साहित्यकार नहीं है या उनके द्वारा लिख जा रहा विषय स्तरीय नहीं है। कई पुराने साहित्यकार ब्लाग लेखकों को इस तरह संदेश देते हैं जैसे कि वह लेखक नहीं बल्कि कोई टंकित करने वाले लिपिक हों। हां, यहां शब्दों को लिखने की वजह टांके की तरह लगाना पड़ता है और शायद इसी कारण कई लोग इससे परहेज कर रहे हैं। कई पुराने लेखक इसीलिये भी चिढ़े हुए हैं क्योंकि आम लोगों का इंटरनेट की तरफ बढ़ता रुझान उन्हें अपनी रचनाओं से दूर ले जा रहा है।
इस लेखक ने हिंदी साहित्य की करीब करीब सभी प्रसिद्ध लेखकों का अध्ययन किया है। उनमें बहुत सारी बढ़िया कहानियां, व्यंग्य, निबंध, उपन्यास और कवितायें हैं पर हिंदी का व्यापक स्वरूप देखते हुए उनकी संख्या नगण्य ही कहा जा सकता है इसी नगण्यता का लाभ कुछ ऐसे लेखकों को हुआ जिनकी रचनायें समय के अनुसार अपना प्रभाव खो बैठीं। इसके अलावा एक बात जिसने हिंदी लेखन को प्रभावित किया वह यह कि हिंदी भाषा के साहित्य बेचकर कमाने वाले लोगों ने लेखक को अपने बंधुआ लिपिक की तरह उपयोग किया। इसलिये स्वतंत्र और मौलिक लेखक की मोटी धारा यहां कभी नहीं बह सकी। एक पतली धारा बही वह बाजार की इच्छा के विपरीत उन कम प्रसिद्ध लेखकों की वजह से जिन्होंने निष्काम भाव से लिखा पर न किसी ने उनकी रचनायें खरीदी और न उनको बेचने का कौशल आया। क्या आप यकीन करेंगे कि इस लेखक के अनेक साहित्यकार मित्र ऐसे भी हैं जो एक दूसरे पर पैसे के सहारे आगे बढ़ने का आरोप लगाते हैं। ऐसे आरोप प्रत्यारोपों के बीच लिखा भी क्या जा सकता था? इसलिये ही स्वतंत्रता संग्राम, अकालों और पुराने सामाजिक आंदोलनों पर पर लिखा गया साहित्य आज भी जबरन पढ़ने को हम मजबूर होते है। बाजार ने कसम खा रखी है कि वह किसी नये लेखक को प्रसिद्धि के परिदृश्य पर नहीं लायेगा। इसलिये ही केवल उनकी ही किताबें प्रकाशित होती हैं स्वयं पैसा देकर कापियां लेते हैं या फिर उनकी लेखन से इतर जो प्रतिष्ठा होती है और उनके प्रशंसक यह काम करते हैं। एक तरह से हिंदी का आधुनिक काल बाजार के चंगुल में फंसा रहा और वैश्विक काल उसे मुक्त करने जा रहा है।
सच बात तो यह है कि हिंदी के स्वर्णकाल के-जिसे भक्तिकाल भी कहा जाता है-बाद के कालों में हिंदी में कभी चाटुकारिता से तो कभी पाखंड और कल्पना से भरी रचनाओं से सजती गयी और लिखने वालों को पुरस्कार, सम्मान और इनाम मिले तो उन्होंने अपने सृजन को उसी धारा पर ही प्रवाहित किया। ऐसे मेें कुछ लेखकों ने निष्काम भाव से लिखते हुए जमकर लिखा और उन्होंने हिंदी भाषा का विस्तार एक नयी दिशा में करने का प्रयास किया। ऐसे ही निष्काम महान लेखक कम थे पर उन्होंने हिंदी का निर्बाध प्रवाह कर आने समय में इसके विश्व में छा जाने की बुनियाद रखी। इस धारा में इनाम, पुरस्कारों और सम्मानों से सजे लेखकों की तात्कालिक प्रभाव वाली कुछ रचनायें भी आयीं पर अब वह अपना प्रभाव खो चुकी हैं। ऐसे में कुछ ब्लाग लेखक गजब की रचनायें लिख रहे हैं। उनको पढ़कर मन प्रसन्न हो उठता है। सच बात तो यह है कि जिस तरह के विषय और उन पर मौलिक तथा स्वतंत्र लेखन यहां पढ़ने को मिल रहा है वह बाहर नहीं दिखाई देता।
हिंदी ब्लाग जगत पर पढ़ने पर सम सामयिक विषयों पर ऐसे विचार और निष्कर्ष पढ़ने को मिल जाते हैं जिनको व्यवसायिक प्रकाशन छापने की सोच भी नहीं सकते। ब्लाग लेखकों की बेबाक राय को प्रस्तुति कई संपादकों के संपादकीय से अधिक प्रखर और प्रसन्न करने वाली होती है।
अंतर्जाल पर हिंदी का जो आधुनिक कल चल रहा है वह अब वैश्विक काल में परिवर्तित होने वाला है-इसे हम सार्वभौमिक काल भी कह सकते हैं। अनुवाद के जो टूल हैं उससे हिंदी भाषा में लिखी सामग्री
किसी भी अन्य भाषा में पढ़ी जा सकती है। हिंदी लेखन में अभी तक उत्तर भारत के लेखकों का वर्चस्व था पर अब सभी दिशाओं के लेखक अंतर्जाल पर सक्रिय हैं। इसलिये इसके लेखन के स्वरूप में भी अब वैश्विक रूप दिखाई देता है। ऐसा लग रहा है कि कहानियों, व्यंग्यों, निबंधों और कविताओं की रचनाओं में पारंपरिक स्वरूप में-जिसमेें कल्पना और व्यंजना की प्रधानता थी- बदलाव होकर निजत्व और प्रत्यक्षता का बोलबाला रहेगा। हां, कुछ सिद्ध लेखक व्यंजना विद्या का सहारा लेंगे पर उनकी संख्या कम होगी। हां, संक्षिप्पता से प्रस्तुति करना भी का लक्ष्य रहेगा। जिस तरह ब्लाग लेखक यहां लिख रहे हैं उससे तो लगता है कि आगे भी ऐसे लेखक आयेंगे। ऐसा लगता है कि परंपरागत साहित्य के समर्थक चाहे कितना भी ढिंढोरा पीटते रहें पर अंतर्जाल के ब्लाग लेखक-वर्तमान में सक्रिय और आगे आने वाले- ही हिंदी को वैश्विक काल में अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं से अग्रता दिलवायेंगे और यकीनन उनकी प्रसिद्ध आने वाले समय में महानतम हिंदी लेखकों में होगी। अनेक ब्लाग लेखक साक्षात्कार, निबंध, कवितायें और कहानियां बहुत मासूमियत से लिख रहे हैं। अभी तो वह यही सोच रहे है कि चलो हिंदी के परांपरागत स्थलों पर उनको उनके लिये स्थान नहीं मिल रहा इसलिये अंतर्जाल पर लिखकर अपना मन हल्का करें पर उनके लिखे पाठों का भाव भविष्य में उनके प्रसिद्धि के पथ पर चलने का संकेत दे रहा है।
कुल मिलाकर अंतर्जाल पर हिंदी का वैश्विक काल प्रारंभ हो चुका है। इसमें हिंदी एक व्यापक रूप के साथ विश्व के परिदृश्य पर आयेगी और इसकी रचनाओं की चर्चा अन्य भाषाओं में जरूर होगी। हां, इसमें एक बात महत्वपूर्ण है कि हिंदी के स्वर्णकाल या भक्तिकाल की छाया भी इस पड़ेगी और हो सकता है कि वैश्विक काल में उस दौरान की गयी रचनाओं को भी उतनी लोकप्रियता विदेशों में भी मिलेगी। अंतर्जाल पर इस ब्लाग/पत्रिका लेखक के अनेक पाठों पर तो ऐसे ही संकेत मिले हैं।

अंधेरे से रौशनी पैदा नहीं हो सकती-व्यंग्य कविता


धरती की रौशनी बचाने के लिये
उन्होंने अपने घर और शहर में
अंधेरा कर लिया
फिर उजाले में कहीं वह लोग खो गये।
दिन की धूप में धरती खिलती रही
रात में चंद्रमा की रौशनी में भी
उसे चमक मिलती रही
इंसान के नारों से बेखबर सुरज और चंद्रमा
अपनी ऊर्जा को संजोते रहे
एक घंटे के अंधेरे से
सोच में रौशनी पैदा नहीं हो सकती
अपनी अग्नि लेकर ही जलती
सूरज की उष्मा से ही पलती
और चंद्रमा की शीतलता पर यह धरती मचलती
उसके नये खैरख्वाह पैदा हो गये।
नारों से बनी खबर चमकी आकाश में
लगाने वाले चादर तानकर सो गये।

………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

व्यंग्य के लिए धार्मिक पुस्तकों और देवों के नाम के उपयोग की जरूरत नहीं-आलेख


यह कोई आग्रह नहीं है यह कोई चेतावनी भी नहीं है। यह कोई फतवा भी नहीं है और न ही यह अपने विचार को किसी पर लादने का प्रयास है। यह एक सामान्य चर्चा है और इसे पढ़कर इतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर मस्तिष्क में अगर चिंतन के तंतु हों तो उनको सक्रिय किया जा सकता है। किसी भी लेखक को किसी धर्म से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये पर उसे इस कारण यह छूट भी नहीं लेना चाहिये कि वह अपने ही धार्मिक पुस्तकों या प्रतीकों की आड़ में व्यंग्य सामग्री (गद्य,पद्य और रेखाचित्र) की रचना कर वाह वाही लूटने का विचार करे।
यह विचित्र बात है कि जो लोग अपनी संस्कृति और संस्कार से प्रतिबद्धता जताते हैंे वही ऐसी व्यंग्य सामग्रियों के साथ संबद्ध(अंतर्जाल पर लेखक और टिप्पणीकार के रूप में) हो जाते हैं जो उनके धार्मिक प्रतीकों के केंद्र बिंदु में होती है।
यह लेखक योगसाधक होने के साथ श्रीगीता का अध्ययनकर्ता भी है-इसका आशय कोई सिद्ध होना नहीं है। श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण की आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर हमें कोई पीड़ा नहीं हुई न मन विचलित हुआ। अगर अपनी इष्ट पुस्तक और देवता के आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर परेशानी नहीं हुई तो उसका श्रेय भी उनके संदेशों की प्रेरणा को ही जाता है।
यह कोई आक्षेप नहीं है। हम यहां यह चर्चा इसलिये कर रहे हैं कि कम से कम अंतर्जाल पर सक्रिय लेखक इससे बाहर चल रही पुरानी परंपरागत शैली से हटकर नहीं लिखेंगे तो यहां उनकी कोई पूछ परख नहीं होने वाली है। अंतर्जाल से पूर्व के लेखकों ने यही किया और प्रसिद्धि भी बहुत पायी पर आज भी उन्हें इस बात के लिये फिक्रमंद देखा जा सकता है कि वह कहीं गुमनामी के अंधेरे में न खो जायें।
स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के हिंदी लेखकों का एक वर्ग सक्रिय हो गया था जो भारतीय अध्यात्म की पुस्तकों को पढ़ न पाने के कारण उसमें स्थित संदेशों को नहीं समझ पाया इसलिये उसने विदेशों से विचारधारायें उधार ली और यह साबित करने का प्रयास किया कि वह आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपने को विकासवादी कहा तो उनके सामने खड़े हुए परंपरावादियों ने अपना मोर्चा जमाया यह कहकर कि वह अपनी संस्कृति और संस्कारों के पोषक हैं। यह लोग भी कर्मकांडों से आगे का ज्ञान नहीं जानते थे। बहरहाल इन्हीं दो वर्गों में प्रतिबद्ध ढंग से लिखकर ही लोगों ने नाम कमाया बाकी तो संघर्ष करते रहे। अब अंतर्जाल पर यह अवसर मिला है कि विचाराधाराओं से हटकर लिखें और अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें।
पर यह क्या? अगर विदेशी विचाराधाराओं के प्रवर्तक लेखक भगवान श्रीकृष्ण या श्रीगीता की आड़ में व्यंग्य लिखें तो समझा जा सकता है और उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और ज्ञान-विज्ञान में अभिरुचि रखने का संदेश देने वाली श्रीगीता का नितांत श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया जाये तो वह इतना दृढ़ बना देती है कि आप उसकी मजाक उड़ाने पर भी विचलित नहीं होंगे बल्कि ऐसा करने वाले पर तरस खायेंगे।
अगर श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण में विश्वास करने वाले होते तो कोई बात नहीं पर ऐसा करने वाले कुछ लेखक विकासवादी विचाराधारा के नहीं लगे इसलिये यह लिखना पड़ रहा है कि अगर ऐसे ही व्यंग्य कोई अन्य व्यक्ति करता तो क्या वह सहन कर जाते? नहीं! तब वह यही कहते कि हमारे प्रतीकों का मजाक उड़ाकर हमारा अपमान किया जा रहा है। यकीनन श्रीगीता में उनकी श्रद्धा होगी और कुछ सुना होगा तो कुछ ज्ञान भी होगा मगर उसे धारण किया कि पता नहीं। श्रीगीता का ज्ञान धारण करने वाला कभी उत्तेजित नहीं होता और न ही कभी अपनी साहित्य रचनाओं के लिये उनकी आड़ लेता है।
सच बात तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से योगसाधना और श्रीगीता की आड़ लेकर अनेक जगह व्यंग्य सामग्री देखने,पढ़ने और सुनने को मिल रही है। एक पत्रिका में तो योगसाधना को लेकर ऐसा व्यंग्य किया गया था जिसमें केवल आशंकायें ही अधिक थी। ऐसी रचनायें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि योगसाधना और व्यंग्य पर वही लोग लिख रहे हैं जिन्होंने स्वयं न तो अध्ययन किया है और न उसे समझा है। टीवी पर अनेक दृश्यों में योगसाधना पर व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देखकर इस बात का आभास तो हो गया है कि यहां गंभीर लेखन की मांग नहीं बल्कि चाटुकारिता की चाहत है। लोगों को योग साधना करते हुए हादसे में हुई एक दो मौत की चर्चा करना तो याद रहता है पर अस्पतालों में रोज सैंकड़ों लोग इलाज के दौरान मरते हैं उसकी याद नहीं आती।
देह को स्वस्थ रखने के लिये योगसाधना करना आवश्यक है पर जीवन शांति और प्रसन्नता से गुजारने के लिये श्रीगीता का ज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस धरती पर मनुष्य के चलने के लिये दो ही रास्ते हैं। मनुष्य को चलाता है उसका मन और वह श्रीगीता के सत्य मार्ग पर चलेगा या दूसरे माया के पथ पर। दोनों ही रास्तों का अपना महत्व है। मगर आजकल एक तीसरा पथ भी दिखता है वह दोनों से अलग है। माया के रास्ते पर चले रहे हैं पर वह उस विशाल रूप में साथ नहीं होती जो वह मायावी कहला सकें। तब बीच बीच में श्रीगीता या रामायण का गुणगान कर अनेक लोग अपने मन को तसल्ली देते हैं कि हम धर्म तो कर ही रहे हैं। यह स्थिति तीसरे मार्ग पर चलने वालों की है जिसे कहा जा सकता है कि न धन साथ है न धर्म।
अगर आप व्यंग्य सामग्री लिखने की मौलिक क्षमता रखते हैं तो फिर प्राचीन धर्म ग्रंथों या देवताओं की आड़ लेना कायरता है। अगर हमें किसी पर व्यंग्य रचना करनी है तो कोई भी पात्र गढ़ा जा सकता है उसके लिये पवित्र पुस्तकों और भगवान के स्वरूपों की आड़ लेने का आशय यह है कि आपकी सोच की सीमित क्षमतायें है। जो मौलिक लेखक हैं वह अध्यात्म पर भी खूब लिखते हैं तो साहित्य व्यंग्य रचनायें भी उनके हाथ से निकल कर आती हैं पर कभी भी वह इधर उधर से बात को नहीं मिलाते। अगर किसी अध्यात्म पुरुष पर लिखते हैं फिर उसे कभी अपने व्यंग्य में नहीं लाते।
अरे इतने सारे पात्र व्यंग्य के लिये बिखरे पड़े हैं। जरूरी नहीं है कि किसी का नाम दें। अगर आप चाहें तो रोज एक व्यंग्य लिख सकते हैं इसके लिये पवित्र पुस्तकों यह देवताओं के नाम की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब अब किसी का नाम लेकर रचना करते हैं और वह सीधे उसकी तरफ इंगित होती है तो वह व्यंजना विधा नहीं है इसलिये व्यंग्य तो हो ही नहीं सकती।
यह पाठ किसी प्रकार का विवाद करने के लिये नहीं लिखा गया है। हम तो यह कहते हैं कि दूसरा अगर हमारी पुस्तकों या देवताओं की मजाक उड़ाता है तो उस पर चर्चा ही नहीं करो। यहां यह भी बता दें कुछ लोग ऐसे है जो जानबूझकर अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करने के लिये अपने ही देवताओं और पुस्तकों पर रची गयी विवादास्पद सामग्री को सामने लाते हैं ताकि अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित कर सकें। उनकी उपेक्षा कर दो। ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाकई सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर अनजाने में या उत्साह में ऐसी रचनायें कर जाते हैं। उनका यह समझाना भर है कि जब हम अपनी पवित्र पुस्तकों या देवताओं की आड़ में कोई व्यंग्य सामग्री लिखेंगे- भले ही उसमें उनके लिये कोई बुरा या मजाकिया शब्द नहीं है-तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को समझाइश कैसे दे सकते हैं जो बुराई और मजाक दोनों ही करता है। याद रहे समझाईश! विरोध नहीं क्योंकि ज्ञानी लोग या तो समझाते हैं या उपेक्षा कर देते हैं। यह भी समझाया अपने को जाता है गैर की तो उपेक्षा ही की जानी चाहिये। हालांकि जिन सामग्रियों को देखकर यह पाठ लिखा गया है उनमें श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण के लिये कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं थी पर सवाल यह है कि वह व्यंग्यात्मक सामग्रियों में उनका नाम लिखने की आवश्यकता क्या है? साथ ही यह भी कि अगर कोई इस विचार से असहमत है तो भी उस पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। सबकी अपनी मर्जी है और अपने रास्ते पर चलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, पर चर्चायें तो होती रहेंगी सो हमने भी कर ली।
……………………………………

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जो संस्कृति शराब में डूब जाए -व्यंग्य कविता


शराब की बूंदों में जो संस्कृति ढह जाती है
ढह जाने दो, वह भला किसके काम जाती है
ऐसी आस्था
जो शराब की बोतल की तरह टूट जाती है
उसके क्या सहानुभूति जतायें
लोहे की बजाय कांच से रूप पाती है
…………………………..
नशा कोई और करे
झगड़ा कोई और
क्यों कर रहा है पूरा जमाना उस पर गौर
संस्कृति के झंडे तले शराब का विज्ञापन
अधिकारों के नाम पर
नशे के लिये सौंप रहे ज्ञापन
जिंदा रहे पब और मधुशाला
इस मंदी के संक्रमण काल में
मुफ्त के विज्ञापन का चल रहा है
शायद यह एक दौर

………………………….

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

कहीं कहीं झगडे भी फिक्स होंगे -हास्य व्यंग्य कविताएँ


पहले तो क्रिकेट मैचों पर
फिक्सिंग की छाया नजर आती थी
अब खबरों में भी होने लगा है उसका अहसास।
शराबखानों पर करते हैं लोग
सर्वशक्तिमान का नाम लेकर हमला
कहीं टूटे कांच तो कहीं गमला
बहस छिड़ जाती है इस बात पर कि
सर्वशक्तिमान के बंदे ऐसे क्यों होना चाहिये
लंबे चैड़े नारों का दौर शुरु
हर वाद के आते हैं भाषण देने गुरु
ढेर सारे जुमले बोले जाते हैं
टूटे कांच और गमलों के साथ
जताई जाती है सहानुभूति
पर ‘शराब पीना बुरी बात है’
इस पर नहीं होता कोई प्रस्ताव पास।
खबरफरोश भूल जाते हैं शराब को
सर्वशक्तिमान के नाम पर ही
होती है उनको सनसनी की आस।
किसे झूठा समझें, किस पर करें विश्वास।
…………………………
शराब चीज बहुत खराब है
पीने वाला भी कर सकता है
न पीने भी कर सकता है
भले झगड़ा खराब है।
शराब खानों पर हुए झगड़ो पर
अब रोना बंद कर दो
क्योंकि सदियों से
करवाती आयी है जंग यह शराब
जैसे जैसे बढ़ते जायेंगे शराब खाने
वैसे ही नये नये रूपों में झगड़े
सामने आयेंगे
कहीं पीने वाले पिटेंगे तो
कहीं किसी को पिटवायेंगे
कहीं जाति तो कहीं भाषा के
नाम पर होंगे
कहीं प्रचार के लिये
पहले से ही तय झगड़े होंगे
इन पर उठाये सवालों का
कभी कोई होता नहीं जवाब है।

………………………………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

बुद्धिजीवियों की होली अब वैलेंटाईन डे पर मनती है -हास्य व्यंग्य


वैलेंटाईन डे के मायने अब वह नहीं रहे जो पहले बताये गये थे। अपना अपना नजरिया है। कुछ लोगों ने संस्कृति विरोधी दिवस कहा तो किसी ने नारी स्वातंत्र्य दिवस के रूप में मनाया। टीवी चैनलों और अखबारों के साथ अंतर्जाल पर हिंदी अंग्रेजी ब्लाग पर जोरदास बहस सुनने और देखने को मिली। तय बात है कि बहस हमेशा बुद्धिजीवियों के बीच होती है। वैलेंटाईन डे पर यह बहस जमकर चली और जिनकां इनसे कुछ लेना देना नहीं था उन्होंने फोकट में अपने रंग (शब्द) खर्च किये मजे लिये। यह लोग चालाक थे और उन्होंने इससे भी कहा बढि़या और उससे भी कहा बढि़या-मजा भी लिया और सुरक्षित भी रहे। समझ में नहीं आया कि प्रशंसा कर रहे हैं कि मजाक बना रहे हैं। एक तरह से कहा जाये तो वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों ने होली की तरह मनाया। साल में एक दिन होली मनाना जरूरी है और होली पर रंग गुलाल से परहेज करने वाले बुद्धिजीवियों ने वैलेंटाईन डे पर शब्दों का रंगों की तरह इस्तेमाल कर इसे नया रूप दे दिया। अब यह कहना कठिन है कि अगले साल वह इसी तरह मनायेंगे या नहीं।

वैलंटाईन नाम एक ऋषि पश्चिम में हुए हैं। कहा जाता है कि उनके समय में एक राजा ने अपने राज्य की रक्षा के लिये सैनिक जुटाने के लिये युवकों के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया और महर्षि वैलेंटाईन ने उसके विरोध स्वरूप ही एक आंदोलन चलाया जिसमें युवक युवतियों का विवाह कराना शामिल था। उनकी स्मृति में मनाये जाने वाले इस त्यौहार पर कुछ कथित समाज सुधारक बिना विवाह के घूमने वाले युवक युवतियों का विवाह कराने की धमकी दे रहे थे। बस हो गया विवाद शुरु। नारी स्वातंत्र्य के समर्थकों ने पुरुष सत्ता को चुनौती देते हुए लड़कियों को खुले में घूमने के लिये ललकारा-यकीनन वह युवकों के साथ ही जो कि पुरुष ही होते हैं। स्त्री को प्यार करने की स्वतंत्रता होना चाहिये-यकीनन पुरुष के साथ ही। समाज को विभाजित कर उसे एक करने वाले बुद्धिजीवियों ने जमकर रंग (शब्द) बरसाये। नारी के पब में जाने से संस्कृति को खतरा बताने वाले भी अपने अपने रंग लेकर आये। एक तरह से वैलेंटाईन डे ऐसा हो जैसे कि कुछ लोग होली पर अपने बैरी से बदला लेने के लिये उस पर पक्का रंग फैंकते हैं ताकि वह उतरे नहीं। कुछ होते है तो वह कीचड़ का ही रंग की तरह उपयोग करते हैं।

अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने कुछ हिंदी अंग्रेजी ब्लाग लेखक तो ऐसे ही रहे जैसे होली पर कुछ अधिक रंग खेलने वाले लगते हैं। जैसे कोई सामान्य व्यक्ति होली पर कई मित्रों के घर जाता है और सभी जगह रंग खेलता है तो उसके रोम रोम में रंग छा जाता है। ऐसे ही कुछ हिंदी और अंग्रेजी के ब्लाग अनुकूल प्रतिकूल टिप्पणियों से रंगे हुए थे। इस तरह भी हुआ कि कुछ लोगों ने अपनी टिप्पणियां उन पर नहीं लगायीं कि वह तो पहले से ही अधिक हैं-ठीक ऐसे ही जैसे होली पर ऐसे व्यक्ति को रंग लगाने की इच्छा नहीं होती जो पहले ही रंगा हुआ होता है।
अब टीवी चैनलों, अखबारों और अंतर्जाल पर एकदम खामोशी हो गयी है। ऐसे ही जैसे होली के दो बजे के बाद सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है। कोई बहस नहीं। ऐसे में अब कुछ लोग फिर भी सक्रिय हैं जो उस दौरान खामोश थे-लगभग ऐसे ही जैसे रंगों से चिढ़ने वाले दोपहर बाद सड़क पर निकलते हैं। कहने को तो सभी लिखने पढ़ने वाले बुद्धिजीवी हैं पर यह होली-वैलेंटाईन डे-सभी ने नहीं मनायी। केवल देखते रहे कि कौन किस तरह के रंग उपयोग कर रहा है। सच कहा जाये तो यह वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों की होली की तरह लगा। जिन लोगों ने इस होली का मजा लिया उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो भारतीय होली भी नहीं खेलते भले ही उस पर व्यंग्य कवितायें लिखकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। पब में नारियों के जाने पर खतरा और जाने पर स्वतंत्रता का आभास दिलाना अपने आप में हास्यास्पद है। मजाक की बातें कहकर दूसरों का मनोरंजन करना भी एक तरह से होली का ही भाग है और वैलंटाईन डे के अवसर पर चली बहस से इसका आभास कुछ लोगों को हुंआ तो उसे गलत तो नहीं कहा जा सकता है। हालांकि इस अवसर पर कुछ लोगों ने गंभीर और मर्यादा के साथ इस बहस में भाग लिया पर बहुत लोग हैं जो होली भी ऐसे ही मनाते हैं।
………………………………………….

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

एक दिन क्या पूरा महीना है मज़े लेने का – व्यंग्य


वैलंटाईन डे की चर्चा आजकल सुर्खियों में हैं। इसका कुछ लोग विरोध करते हैं तो कुछ नारी स्वतंत्रता के नाम पर इसे मनाये रखने के पक्षधर हैं। सही तो पता नहीं है पर कोई बता रहा था कि पश्चिम में वैलंटाइन नाम के कोई संत हो गये हैं जिनकी स्मृति में यह दिवस मनाया जाता है। हिंदी के गहन ज्ञान रखने वाले एक सज्जन ने बताया कि इसे ‘शुभेच्छु दिवस’ कहा जाता है। बाजार और प्रचार में इसे प्रेम दिवस कहा जा रहा है और निश्चित रूप से इसका लक्ष्य युवाओं को प्रेरित करना है ताकि उनकी जेब ढीली की जा सके।
आज से दस पंद्रह वर्ष पूर्व तक अपने देश में पश्चिम में मनाये जाने वाले वैलंटाइन डे (शुभेच्छु दिवस) और फ्रैंड्स डे (मित्र दिवस) का नाम नहीं सुना था पर व्यवसायिक प्रचार माध्यमों ने इसे सुनासुनाकर लोगोें के दिमाग में वह सब भर दिया जिसे उनके प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रायोजकों को युवक और युवतियों एक उपभोक्ता के रूप में मिल सकें।

मजेदार बात यह है कि वैलंटाईन डे को मनाने का क्या तरीका पश्चिम में हैं, किसी को नहीं पता, पर इस देश में युवक युवतियां साथ मिलकर होटलों में मिलकर नृत्य कर इसे मनाने लगे हैं। प्रचार माध्यमों का मुख्य उद्देश्य देश के युवा वर्ग में उपभोग की प्रवृत्ति जाग्रत करना है जिससे उसकी जेब का पैसा बाजार में जा सके जो इस समय मंदी की चपेट में हैं। आप गौर करें तो इस समय पर्यटन के लिये प्रसिद्ध अनेक स्थानों पर लोगों के कम आगमन की खबरें भी आती रहती हैं और प्रचार और विज्ञापनों पर निर्भर माध्यमों के लिये यह चिंता का विषय है।

बहरहाल हम इसके विरोध और समर्थन से अलग विचार करें। इस समय बसंत का महीना चल रहा है। बसंत पंचमी बीते कुछ ही दिन हुए हैं। यह पूरा महीना ही प्रेम रस पीने का है। जो कभी कभार सोमरस पीने वाले हैं वह भी इस समय उसका शौकिया सेवन कर लेते हैं। पश्चिम में शायद लोगों को समय कम मिलता है इसलिये उन्होंने आनंद मनाने के लिये दिन बनाये हैं पर अपने देश में तो पूरा महीना ही आनंद का है फिर एक दिन क्यों मनाना? अरे, भई यह तो पूरा महीना है। चाहे जैसा आनंद मनाओ। बाहर जाने की क्या जरूरत है? घर में ही मनाओ।

दरअसल संकीर्ण मानसिकता ने संस्कृति और संस्कारों के नाम पर लोगों की सोच को विलुप्त कर दिया। हालत यह है कि बच्चे शराब पीते हैं पर मां बाप को पता नहीं। बाप के सामने बेटे का पीना अपराध माना जाता है। सच बात तो यह है कि परिवार में अपने से छोटों से जबरन सम्मान कराने के नाम पर कई बुराईयां पैदा हो गयी हैं। कहा जाता है कि जिस प्रवृत्ति को दबाया जाता है वह अधिक उबर कर सामने नहीं पाती।

एक पिता को पता लगा कि‘उसका पुत्र शराब पीता है।’
पिता समझदार था। उसने अपने पुत्र से कहा-‘बेटा, अगर तूने शराब पीना शुरु किया है तो अब मैं तुम्हें रोक नहीं सकता! हां, एक बंदिश मेरी तरफ से है। वह यह कि जितनी भी पीनी है यहां घर में बैठकर पी। मुझसे दूसरे काम के लिये पैसे लेकर शराब पर मत खर्च कर। तेरी शराब की बोतल मैं ले आऊंगा।’
लड़के की मां अपने पति से लड़ने लगी-‘आप भी कमाल करते हो? भला ऐसा कहीं होता है। बेटे को शराब पीने से रोकने की बजाय उसे अपने सामने बैठकर पीने के लिये कह रहे हो। अरे, शराब पीने में बुराई है पर उसे अपने बड़ों के सामने पीना तो अधिक बुरा है। यह संस्कारों के विरुद्ध है।
पति ने जवाब दिया-‘याद रखना! बाहर शराब के साथ दूसरी बुराईयां भी आयेंगी। शतुरमुर्ग मत बनो। बेटा बाहर पी रहा हो और तुम यहां बैठकर सबसे कहती हो ‘मेरा बेटा नहीं पीता‘। तुम यह झूठ अपने से बोलती हो यह तुम्हें भी पता है। उसे अपने सामने बैठकर पीने दो। कम से कम बाहरी खतरों से तो बचा रहेगा। ऐसा न हो कि शराब के साथ दूसरी बुरी आदतें भी हमारे लड़के में आ जायें तब हमारे लिये हालात समझना कठिन हो जायेगा।’
इधर बेटे ने एक कुछ दिन घर में शराब पी। फिर उसका मन उचट गया और वह फिर उस आदत से परे हो गया। पिता ने एक बार भी उसे शराब पीने से नहीं रोका।
अगर आदमी की बुद्धि में परिपक्वता न हो तो स्वतंत्रता इंसान को अनियंत्रित कर देती है और जिस तरह अनियंत्रित वाहन दुर्घटना का शिकार हो जात है वैसे ही मनुष्य भी तो सर्वशक्तिमान का चलता फिरता वाहन है और इस कारण उसके साथ यह भय रहता है।
भारतीय अध्यात्म ज्ञान और हिंदी साहित्य में प्रेम और आनंद का जो गहन स्वरूप दिखता है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। वेलंटाईन डे पर अंग्रेज क्या लिखेंगे जितना हिंदी साहित्यकारों ने बंसत पर लिखा है। बसंत पंचमी का मतलब एक दिन है पर बसंत तो पूरा महीना है। वैलंटाईन डे का समर्थन करने वालों से कुछ कहना बेकार है क्योंकि नारों तक उनकी दुनियां सीमित हैं पर जो इसका विरोध करते हैं उनको भी जरा बसंत पर कुछ लिखना चाहिये जैसे कवितायें और कहानियां। उन्हें बसंत का महात्म्य भी लिखना चाहिये। इस मौसम में न तो सर्दी अधिक होती है न गर्मी। हां आजकल दिन गर्म रहने लगे हैं पर रातें तो ठंडी हो जाती हैं-प्रेमरस में रत रहने और सोमरस को सेवन करने अनुकूल। किसी की खींची लकीर को छोटा करने की बजाय अपनी बड़ी लकीर खींचना ही विद्वता का प्रमाण है। वैलंटाईन डे मनाने वालों को रोकने से उसका प्रचार ही बढ़ता है इससे बेहतर है कि अपने बंसत महीने का प्रचार करना चाहिये। वैसे आजकल के भौतिक युग में बाजार अपना खेल दिखाता ही रहेगा उसमें संस्कृति और संस्कारों की रक्षा शारीरिक शक्ति के प्रदर्शन से नहीं बल्कि लोगों अपनी ज्ञान की शक्ति बताने से ही होगी।हां, यह संदेश उन लोगों को नहीं दिया जा सकता जिनको आनंद मनाने के लिये किस्मत से एक दिन के मिलता है या उनकी जेब और देह का सामथर््य ही एक दिन का होता है। सच यही है कि आनंद भी एक बोतल में रहता है जिसे हर कोई अपने सामथर््य के अनुसार ले सकता है। अगर आनंद में सात्विक भाव है तो वह परिवार वालों के सामने भी लिया जा सकता है। अंतिम सत्य यह है कि आंनद अगर समूह में मनाया जाये तो बहुत अच्छा रहता है क्योंकि उससे अपने अंदर आत्म विश्वास पैदा होता है। वैलंटाईन डे और फ्रैंड्स डे जैसे पर्व दो लोगों को सीमित दायरे में बांध देते हैं। इस अवसर पर जो क्षणिक रूप से मित्र बनते हैं वह लंबे समय के सहायक नहीं होते।
……………………………….

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जोखिम उठाना बेकार–हास्य व्यंग्य


अपने बास के आदेश पर टीवी कैमरामैन और संवाददाता कि सनसनीखेज खबर को ढूंढने लगे। वह अपनी कार में बैठे सड़कों पर इधर उधर घूम रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि एक आदमी पैदल चलते हुए सड़क पर बने एक गड़ढे में गिर गया। संवाददाता ने कार चालक को कार रोकने का इशारा किया और कैमरामैन से कहा-‘‘जल्दी उतरो। वह आदमी गड़ढे में गिर गया है।’’
कैमरामैने ने कहा-‘अरे सर! आप भूल रहे हो कि हमारा काम खबरें देना हैं न कि लोगों की मदद करना। कम से कम किसी गिरे को उठाने का काम तो हमारा बिल्कुल नहीं है।’
संवाददाता ने कहा-‘अरे, बीच सड़क पर गड्ढा बन गया है। उसमें आदमी गिर गया है। इस खबर से सनसनी फैल सकती है और नहीं फैलेगी तो गड्ढे की बदौलत हम उसे बना लेंगे। आदमी की मदद के लिये थोड़ी ही हम लोग चल रहे हैं।’
दोनों उतर पड़े। मगर तब तक वह आदमी वहां से उठ खड़ा हुआ और अपनी राह चलने लगा। संवाददाता उसके पास पहुंच गया और बोला-‘अरे, आप भी कमाल करते हैं। सड़क पर बने गड्ढे में गिर पड़े और बिना हल्ला मचाये चले जा रहे हैं। जरा रुकिये!’
उस आदमी ने कहा-‘भाई साहब, मुझे जल्दी जाना है। उधार वाले पीछे पड़े रहते हैं। अच्छा हुआ जल्दी उठ गया वरना अधिक देर लगाता तो हो सकता है कि यहां से कोई लेनदार गुजरता तो तकादा करने लग जाता।’
संवाददाता ने कहा-‘उसकी चिंता आप मत करिये। हम समाचार दिखाने वाले लोग हैं। किसी की हिम्मत नहीं है कि कोई हमारे कैमरे के सामने आपसे कर्जा मांग सके। आप वैसे ही इस गड्ढे में दोबारा गिर कर दिखाईये तो हम आपका फोटो टीवी पर दिखायेंगे। इससे गड्ढे के साथ आपका भी प्रचार होगा। आप देखना कल ही यह गड्ढा भर जायेगा।’
उस आदमी ने कहा-‘तो आप गड्ढे का ही फोटो खीच लीजिये न! कल अगर मेरा चेहरा लेनदारों को दिख गया तो उनको पता चलेगा कि मैं इसी शहर में हूं। अभी तो वह घर पर जाते हैं तो परिवार के सदस्य कह देते हैं कि बाहर गया है।’
संवाददाता ने कहा-‘कल तुम यहां की प्रसिद्ध हस्ती हो जाओगे किसी की हिम्मत नहीं है कि तुमसे कर्जा मांग सके। हो सकता है कि इतने प्रसिद्ध हो जाओ कि फिल्मों मेंं तुम्हें गड़ढे में गिरने वाले दृश्यों के लिये स्थाई अभिनेता मान लिया जाये।’
वह आदमी प्रसन्न हो गया। उसने गड्ढे में गिरने का अभिनय किया और इससे उसकी हथेली पहले से अधिक घिसट गयी और खरौंच के निशान बन गये। संवाददाता ने कैमरामैन को इशारा किया। इससे पहले वह फोटो खींचता कि संवाददाता का मोबाइल बज गया। उसने मोबाइल पर बात की और उसे तत्काल जेब में रखते हुए कैमरामैन से बोला-‘इसे छोड़ो। उधर एक सनसनीखेज खबर मिल गयी है। सर्वशक्तिमान की दरबार के बाहर एक चूहा मरा पाया गया है। अभी तक वहां कोई भी दृश्य समाचार टीम नहीं पहुंची है। इस खबर से सनसनी फैल सकती है।’

कैमरामैन ने- जो कि फोटो खींचने की तैयारी कर रहा था- संवाददाता के आदेश पर अपना कैमरा बंद कर दिया। संवाददाता और कैमरामैन दोनों वहां से चल दिये। पीछे से उस आदमी ने कहा-‘अरे, मरे चूहे से क्या सनसनी फैलेगी। तुम इस गड्ढे को देखो और फिर मेरी तरफ? मेरा हाथ छिल गया है? कितनी चोट लगी है।’
संवाददाता ने कहा-‘यह गड्ढा सड़क के एकदम किनारे है और तुम इधर उधर यह देखते हुए चल रहे थे कि कोई लेनदार देख तो नहीं रहा और गिर गये। इसलिये इस खबर से सनसनी नहीं फैलेगी। फिर पहले तो तुमको चोट नहीं आयी। टीवी पर दिखने की लालच पर तुम दूसरी बार गिरे। यह पोल भी कोई दृश्य समाचार देने वाला खोल सकता है। अब हमारे पास एक सनसनी खेज खबर आ गयी है इसलिये जोखिम उठाना बेकार है।
वह दोनों चले गये तो वह आदमी फिर उठकर खड़ा हुआ। यह दृश्य उसको रोज अखबार देने वाला हाकर देख रहा था। वह उसके पास आया और बोला-‘साहब, आप भी किसके चक्कर में पड़े गये और खालीपीली हाथ छिलवा बैठे।’
उस आदमी ने कहा-‘तुम अखबार में समाचार भी देते हो न! जाकर यह खबर दे देा कि दृश्य समाचार वालों के चक्कर में मेरी यह हालत हुई है। हो सकता है इससे प्रचार मिल जाये दूसरे दृश्य समाचार वाले मेरे से साक्षात्कार लेने आ जायें।’
हाकर ने कहा-‘साहब! मैं छोटा आदमी हूं। इन दृश्य समाचार वालों से बैर नहीं ले सकता। क्या पता कब अखबार की ऐजेंसी बंद हो जाये और हमें छोटे मोटे काम के लिये इनके यहां नौकरी के लिये जाना पड़े।’
वह आदमी अपने छिले हुए हाथ को देखता हुआ रुंआसे भाव से चला गया।
………………………………………………

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप

hasya

जज्बात की पतली धारा-व्यंग्य कविता


पड़ौसन ने कहा उस औरत से
‘तुम्हारा आदमी रात को रोज
शराब पीकर आता है
पर तुम कुछ नहीं कहती
वह आराम से सो जाता है
अरे, उससे कुछ कहा कर
ताकि चार लोग सुन सकें
तो वह सुधर जायेगा
इज्जत खराब होने के डर से
वह शराब पीना भूल जायेगा’

औरत से जवाब दिया
‘जानती हूं, तुम तमाशा देखना चाहती हो
इसलिये उकसाती हो
जब रात को वह पीकर आता है
तो मैं कुछ नहीं कहती
क्योंकि शराबी को अपने मान अपमान की
परवाह नहीं होती
पहले किराये के मकान में
रोज तमाशा होता था
सभी इसका समर्थन करते थे
जब यह मुझसे पिटकर रोता था
अपना इसलिये अब सुबह गुस्सा सुबह उठकर
इसकी पिटाई लगाती हूंं
दिन के उजाले में आवाज नहीं आती
इसलिये तुमको भी नहीं बताती
सुबह इसे अपने अपमान का
इसे कई बार भय सताता है
इसलिये कई बार बिना पिये घर आता है
अगर रात को मचाऊं कोहराम
जमाने भर में हीरो के रूप में हो जायेगा इसका नाम
पिटा हुआ शराबी भी क्यों न हो
जमाने भर को उस पर तरस आता है
क्यों करूं अपना खराब नाम
जमाना तो जज्बात की पतली धारा में ही बह जाता है
………………………………

पाठ नंबर 3013-विशेष संपादकीय


अगर चिट्ठाजगत पर दर्ज आंकड़ों को सही मान लिया जाये तो इस लेखक का अंतर्जाल पर यह 3013वां पाठ होना चाहिये। कुछ दिन पहले जब यह पता लगा कि अपने ब्लाग पर लिखे गये पाठों की संख्या पार होने वाली है तब आश्चर्य हुआ था। लिखते लिखते कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि कितने पाठ लिख रहा हूं। सच बात तो यह है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति के साधन के रूप में ब्लाग के मिल जाने से निरंतर लिखने की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं हुई बल्कि यह पहले से ही थी। अंतर यह था कि पहले एक रजिस्टर पर लिखा करता था अब ब्लागस्पाट के ब्लाग को यही समझकर लिख देता हूं जैसे कि रजिस्टर हो। हां, पहले कहीं से टाईप कर अपनी रचना प्रकाशन के लिये भेजा करता था पर डाक टिकटों पर खर्च किया गया पैसा व्यर्थ जाता रहा। ऐसे में यह सोचा कि शायद ही हम अपना लिखा लोगों तक पहुंचा पायें। पर इंसान जैसा सोचे वैसे ही यह दुनियां नहीं चलती। मेरा अंतर्जाल पर लिखना तो शायद पच्चीस साल पहले ही तय हो गया था जब मैंने फोटो कंपोजिंग पर काम शुरु किया था। उस समय पता नहीं था कि अखबार के दफ्तर में एक प्रशिक्षु के रूप में जो कार्य कर रहा हूं वह कभी अंतर्जाल पर काम आयेगा। यहां आना भी आसान नहंीं था। आने से पहले भी कुछ एक के बाद एक संयोग बने जिसका मार्ग अंतर्जाल पर ले आया। सौ घंटे के फ्री कनेक्शन के साथ कंप्यूटर यह सोचकर खरीदा था कि इससे समाचार पत्र पत्रिकाओं को रचनायें भेजेंगे। इसी दौरान एक पुराने मित्र से परिचय हुआ जिन्होंनें अंतर्जाल पर अपनी रचनायें भेजने के लिये अभिव्यक्ति और अनुभूति पत्रिकाओं के डाक पते की जानकारी मांगी। हमने उसे खोलकर देखा तो पाया कि वह तो केवल ईमेल से ही रचनायें स्वीकार करते हैं। हमने अपने मित्र को बताया पर इसी बीच हमने अपनी रचनायें भेजी। उसी समय हमारी नजर में हिंदी नेस्ट कर एक पत्रिका भी आयी जिसमें हमने अपनी रचनाये भेजीं। अभिव्यक्ति पर नारद फोरम देखकर यह समझ में नहीं आता था कि यह लेखक लोग क्या और किस पर लिख रहे हैं। अक्षरग्राम पर ब्लाग बनाने का प्रयास भी नाकाम रहा। बहुत सारी स्मृतियां दिमाग में है पर यह याद नहीं कि आखिर यह ब्लाग हमारे हाथ आया कैसे?
इतना याद है कि जैसे ही आया था हमने इसे पत्रिका के रूप में उपयोग करने का निर्णय लिया।

अध्यात्म का विषय तो बचपन से रुचिकर रहा है पर विभिन्न विषयों पर कहानियां, व्यंग्य, कवितायें, और लेख लिखना सबसे अच्छा लगा। अंतर्जाल पर आने से पहले चिंतन लिखने पर लोगों में बहुत लोकप्रियता मिली। इससे एक बार व्यंग्य और कहानियां लिखना बंद हो गया था। अंतर्जाल पर आने के बाद मन में दबी सारी भावनाओं को बाहर निकालने का अवसर मिला जिसे गंवाना न ठीक था न संभव क्योंकि लिखने का इतना सहज अभ्यास है कि कहीं भी बैठ जाऊं लिखने का मन होता है। पहले भी कहींं समय या सुविधा नहीं होती तो अपने विचार क्षणिकाओं के रूप में लिख लेता था अब यही काम ब्लाग पर करने लगता हूं। सच बात तो यह है कि फोरमों पर मेरे पाठों की गिनती होती है इसलिये कम कवितायें लिखता हूं। मैंने कुछ नये ब्लाग इसी उद्देश्य से बनाये थे कि उन पर चुपचाप बैठकर लिखूंगा पर चिट्ठाजगत वाले सारे ब्लाग लिंक कर लेते हैं फिर उन पर लिखो तो मित्र लोग पाठों की संख्या देखकर नजर लगा देते हैं कि इतना सारा कैसे लिखते हो। अब यह उनको कैसे समझायें कि क्षणिकाऐं या छोटी कविताऐं लिखने में मुझे अधिक समय नहीं लगता। अगर कृतिदेव को यूनिकोड मेंं बदलने वाला टूल नहीं होता तो सीधे ही ब्लाग स्पाट पर क्षणिका या छोटी कविताये टाईप कर प्रकाशित करते जाते तब शायद उनकी संख्या अधिक होती। अब अपने ही कंप्यूटर पर टाईप कर बाद में टूल से यूनिकोड में अपना पाठ ले जाते हैं जिसमें समय अधिक लग जाता है और इसी कारण कम ही पाठ रह जाते हैं। क्षणिकाओं और कविताओं के बारे में अगर यह कहें कि समय गुजारने के लिये उनका उपयोग बहुत अच्छा है पर उनसे पाठों की संख्या बढ़ने से लोग बाग टोकाटोकी करते हैं।
चिंतन और हास्य व्यंग्य लिखना पसंद है पर उसके लिये समयाभाव लगता है। इसलिये सुबह महापुरुषों के संदेश लिखना शुरु किया था। उसके पीछे मेरा कोर्ई उद्देश्य नहीं था पर 28 मार्च 2008 को कृतिदेव का यूनिकोड टूल मिल जाने के बाद उनके साथ अपनी व्याख्या जोड़ने का विचार भी किया। जिस समय सुबह लिखता हूं तब मेरा दिमाग एक निर्लिप्त रहता है। दरअसल अध्यात्म विषयों पर लिखने की इच्छा अवश्य होती है पर उससे प्रशंसा पाने की कोई आकांक्षा मेरे हृदय में नहीं होती। न ही इस बात की परवाह होती है कि उसे कितने लोगों ने पढ़ा। अन्य विषयों पर लिखे गये पाठों में इस बात की दिलचस्पी रहती है कि कि उसे कितने लोगों ने पढ़ा या कौनसे विषय लोगों को पंसद हैं।
अब जब आंकलन करता हूं तो लगता है कि अध्यात्मिक संदेशों की वजह से कुछ अधिक पहचान बन गयी है जिसके बारे में कभी सोचा नहीं था। मैं अन्य विषयों पर प्रशंसा और आलोचना पर विचार करता हूं पर अध्यात्मिक विषय पर आलोचनायें मेरी समझ में नहीं आती। मैने किसी को जबरदस्ती तो कहा नहीं है कि इसे पढ़ो पर यह ताज्जुब का विषय है कि मेरे अध्यात्मिक पाठों पर प्रतिकूल और अपमानजनकर टिप्पणियां अधिक मिली हैं। एक तो ऐसा करने वाले अनाम होते हैं इसलिये उनको समझाना मुश्किल है दूसरे मेरी अध्यात्मिक विषयों पर अधिक बहस में दिलचस्पी बिल्कुल नहीं है । अपने ब्लाग पर महापुरुषों के संदेश वाले दो पाठ और तीन कवितायें लिखने का मतलब तो यही समझना चाहिये कि मैंने उस दिन कुछ नहीं लिखा।

आखिरी बात यह है कि मेरा लक्ष्य अपनी बात लिखना है और पढ़ने वाले की उसमें रुचि है या नहीं इस पर विचार करना दिमाग पर अनावश्यक बोझ उठाना लगता है। मैंने इसलिये अपने वर्डप्रेस के ब्लाग ब्लागवाणी से हटवा लिये कि ब्लाग लेखकों के समक्ष पाठों को दोहराव सामने न आये। ब्लाग स्पाट के ब्लाग डायरी और वर्डप्रेस के पत्रिका की तरह लगते हैं। इसलिये अपने पाठ वहां दोबारा रखता हूं। प्रसंगवश मेरा यह ब्लाग दीपकबापू कहिन जो मेर सबसे पहला ब्लाग है तीस हजार की संख्या पार कर गया है और इस पर यह लिखा गया यह विशेष संपादकीय ब्लागवाणी पर दिखाई नहीं देगा क्योंकि यह ब्लाग वहां नहीं दिखता। हां इधर यह भी सोच रहा हूं कि क्यों न वर्डप्रेस भी अब मूल रचनायें लिखना प्रारंभ की जायें क्योंकि ब्लाग स्पाट से यहां लाने से अच्छा है कि यहीं लिखा जाये क्योंकि जितना समय लिखने में लगता है उतना ही लाने में भी लग जाता है। इस अवसर पर बस इतना ही।

ज़िंदगी के होते है अलग अलग रूप-व्यंग्य कविता


हंसने की चाहत है जिसमें
उसे चुटकुले सुनने का इंतजार नहीं होता
अपनी करतूतों में ही छिपे होते है
हंसने के ढेर सारे बहाने
किसी के दर्द उठने का इंतजार जरूरी नहीं होता
…………………………..
नींद भरी आंखों में
पर फिर भी आती नहीं
खुशियां बिखरी पड़ी हैं चारों ओर
पर अपने दिल के दरवाजे पार आती नहीं
खड़े होकर देख रहे हैं उन शयों को
जो बहुत अच्छी लगती है
पर वह हमारे पास आती नहीं
दिल और दिमाग के पर्दे बंद कर
जिंदगी बिताने के आदी हो चुके लोग
इंतजार करते हैं मजे लेने का
पर कैसे होते है जानते नहीं
दौड़ते जाते हैं छाया के पीछे
जो किसी की पकड़ में आती नहीं
………………………………..
जिंदगी में हर पल अपने

नियम से गुजर जाता है

बचपन गुजरता है खेलते हुए

जवानी गुजरती है सोते हुए

बुढ़ापा रोने में गुजर जाता है

ऐसे ही आदमी भी

पहले बनता है परिश्रमी

फिर समाज का बनता है आदर्श

जब आता है घौटाला सामने

तब वह खलनायक बन जाता है

लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकाएं भी हैं। वह अवश्य पढ़ें।
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका
4.अनंत शब्दयोग
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप