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छोटा आदमी, बड़ा आदमी-लघुकथा


वह शिक्षित बेरोजगार युवक संत के यहां प्रतिदिन जाता था। उसने देखा कि उनके आशीर्वाद से अनेक लोगों की मनोकामना पूरी हो जाती हैं। एक दिन उसने संत के चरणों में सिर झुकाते हुए कहा-‘महाराज, अभी तक आपके चरणों में सिर झुकाता रहा पर कुछ मांगने का साहस नहीं हो सका। आज आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप मुझे आशीर्वाद दीजिये ताकि मैं भी बड़ा आदमी बन जाऊं।’
संत से मुस्कराकर पूछा-क्या बनना चाहते हो?
उस युवक ने कहा-‘महाराज, एक अंग्रेज विद्वान ने कहा है कि इस धरती पर सबसे बड़ा आदमी तो क्लर्क है। वही बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!
कुछ दिनों के बाद वह फिर संत के चरणों में आकर गिर पड़ा और बोला-‘महाराज क्लर्क बनने से मेरे रोजगार की समस्या तो दूर हो गयी पर बड़ा आदमी फिर भी नहीं बन सका। जो उपरी कमाई का हिस्सा बड़े क्लर्क को उसके डर के मारे देना पड़ता है। आप मुझे बड़ा क्लर्क बना दीजिये।’
संत ने कहा-तथास्तु!
वह बड़ा क्लर्क बना। फिर कुछ दिनों के बाद आया और बोला-‘महाराज, उससे भी बड़ा आदमी नहीं बन सका। उपरी कमाई का हिस्सा अफसर को उसके डर के मारे देना पड़ता है। आप तो मुझे अफसर बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
कुछ दिनों बाद वह फिर संत के चरणों में आकर गिर पड़ा और बोला-‘महाराज, अफसर से भी बड़ा वजीर है। आप तो वह बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
कुछ समय बाद वह फिर आया और बोला-महाराज, अब यह आखिरी बार मांग रहा हूं। वजीर से भी बड़ा राजा है। आप तो मुझे राजा बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु!’
मगर एक दिन फिर आया और चरणों में गिर पड़ा-‘महाराज, राजा से भी बड़े आप हैं। यह मुझे वहां गद््दी पर बैठकर लगा क्योंकि आप जनता के हृदय में बसते हैं और इसलिये आपसे डरकर रहना पड़ता है। आप तो मुझे अपने जैसा संत बना दीजिये।’
संत ने कहा-‘तथास्तु।’
फिर वह कुछ दिन बाद आया और चरणों में गिर पड़ा तो संत ने कहा-‘अब यह मत कहना कि मुझे सर्वशक्तिमान बनाकर स्वर्ग में बिठा दो। यह मेरे बूते का नहीं है। इतना बड़ा मैं किसी को नहीं बना सकता।’
उसने कहा-‘महाराज, आपसे जो मांगा आपने दिया पर मैं लालची था जो किसी को कुछ नहीं दे सका बल्कि आपसे मांगता ही रहा। आपने आशीर्वाद देकर क्लर्क से संत तक बड़ा आदमी बनाया पर मैं हमेशा छोटा ही बना रहा क्योंकि मेरे मन में केवल अपनी कामनायें थीं जो केवल आदमी को छोटा बनाये रखती हैं।’
संत ने कहा-‘तुम आज बड़े आदमी हो गये क्योंकि तुमने सच जान लिया है।’
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विदुर नीति-जैसे दिल में ख्याल होते हैं वैसे ही बनता है नज़रिया


द्वेषो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डित।
प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेष्ये पापानि चैव ह।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य के हृदय में अगर किसी के प्रति द्वेष भाव का निर्माण होता है तो-भले ही वह साधु या विद्वान हो-उसमें दोष ही दोष दिखाई देते हैं। उसी तरह अगर किसी के प्रति स्नेह या प्रेम पैदा हो तो-चाहे भले ही वह दुष्ट और पापी हो- उसमें गुण ही गुण दिखाई देते हैं।
न वृद्धिबंहु मन्तव्या या वृद्धि क्षयमावहेत्।
क्षयोऽपि बहु मन्तव्यो यः क्षयो वृद्धिमावहेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो विकास या वृद्धि अपने लिये भविष्य में घातक होने होने की आशंका हो उससे अधिक महत्व नहीं देना चाहिये। साथ ही अगर ऐसा पतन या कमी हो रही हो जिससे हमारा अभ्युदय होने की संभावना है तो उसका स्वागत करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक दृष्टा की तरह अगर हम अपने भौतिक स्वरूप देह का अवलोकन करें तो पायेंगे कि सारी दुनियां के प्राणी एक समान हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जिनके प्रति हमारे मन में प्यार या स्नेह होता है उनके दोषों पर हमारा ध्यान नहीं जाता। उसी तरह जिनके प्रति द्वेष या नाराजी है उनमें कोई गुण हमें दिखाई नहीं देता-कभी कभी ऐसा होता है कि उनका कोई गुण हमारे दिमाग में आता भी है तो उसे अपने चिंतन से जबरन दूर हटाने का प्रयास करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमारा मन और मस्तिष्क हमारी पूरी देह पर नियंत्रण किये रहता है। इसका आभास तभी हो सकता है जब योग साधना और ध्यान के द्वारा हम अपने अंदर बैठे दृष्टा के दृष्टिकोण को आत्मसात करें।
नीति विशारद विदुर यह भी कहते हैं कि हमें अपने आसपास हो रहे भौतिक तत्वों में विकास या वृद्धि बहुत अच्छी लगती है पर उनमें से कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो भविष्य में हमारे लिये घातक हों उसी तरह उनमें पतन या कमी ऐसी भी हा सकती है जो अच्छा परिणाम देने वाली हो। अतः अपने अंदर समबुद्धिरूप से विचार करने की शक्ति विकसित करना चाहिये।
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बीच बाज़ार में-हिन्दी शायरी


सूरत देखकर ही
लोग सिर पर ताज पहनाते हैं
किसकी सीरत कौन देखेगा
अपने काम पर लोग खुद ही शर्माते हैं.
कहैं दीपक बापू
“बीच बाज़ार में
कागज पर लिखकर हों
या उसके बने नोटों में बिककर हों
सामने सबके सौदा होने से पहले
कमरे के अन्दर अकेले में तय किये जाते हैं.
किसने पहना
और किसने पहनाया ताज
इसमें भले नहीं दिखता कोई राज
पर भूमिका और पात्र कहीं अन्यत्र
तय किये जाते हैं.

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मशहूर होने का बोझ सभी नहीं उठा सकते-आलेख


हिंदी ब्लाग जगत पर अनेक लोग छद्म नाम से लिखते हैं और यह परंपरा उन्होंने अंग्रेजी से ही ली है। जहां तक हिंदी में छद्म नाम से लिखने का सवाल है तो इतिहास में ऐसे कई लेखक और कवि उस नाम से प्रसिद्ध हुए जो उनका असली नाम नहीं था। अनेक लोग अपने नाम के साथ आकर्षक उपनाम-जिसे तखल्लुस भी कहते हैं-लिख देते हैं और उससे उनके कुल का उपनाम विलोपित हो जाता है। इसलिये उनके नाम को छद्म कहना ठीक नहीं है।
हिंदी ब्लाग जगत की शुरुआत करने वाले एक ब्लाग लेखक ने लिखा था कि उसने अपना छद्म नाम इसलिये ही लिखा था क्योंकि अंतर्जाल के ब्लाग या वेबसाईट पर कोई भी गंदी बात लिख सकता है। ऐसे में कोई परिचित पढ़ ले तो वह क्या कहेगा?
उसका यह कथन सत्य है। ऐसे में जब पुरुष ब्लाग लेखकों के यह हाल हैं तो महिला लेखकों की भी असली नाम से लिखने पर चिंता समझी जा सकती है। हालत यह है कि अनेक लोग असली नाम से लिखना शुरु करते हैं और फिर छद्म नाम लिखने लगते हैं।
छद्म नाम और असली नाम की चर्चा में एक बात महत्व की है और वह यह कि आप किस नाम से प्रसिद्ध होना चाहते हैं। जब आप लिखते हैं तो आपको इसी नाम से प्रसिद्धि भी मिलती है। कुछ लोग अपने असली नाम की बजाय अपने नाम से दूसरा उपनाम लगाकर प्रसिद्ध होना चाहते हैं उसे छद्म नाम नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह छिपाने का प्रयास नहीं है।
दूसरी बात यह है कि अंतर्जाल पर लोग केवल इस डर की वजह से अपना परिचय नहीं लिख रहे क्योंकि अभी ब्लाग लेखक को कोई सुरक्षा नहीं है। इसके अलावा लोग ब्लाग तो केवल फुरसत में मनोरंजन के साथ आत्म अभिव्यक्ति के लिये लिखते हैं। अपने घर का पता या फोन न देने के पीछे कारण यह है कि हर ब्लाग लेखक अपना समय संबंध बढ़ाने में खराब नहीं करना चाहता। सभी लोग मध्यम वर्गीय परिवारों से है और उनकी आय की सीमा है। जब प्रसिद्ध होते हैं तो उसका बोझ उठाने लायक भी आपके पास पैसा होना चाहिये।
अधिकतर ब्लाग लेखक अपने नियमित व्यवसाय से निवृत होने के बाद ही ब्लाग लिखते और पढ़ते हैं। यह वह समय होता है जो उनका अपना होता है। अगर वह प्रसिद्ध हो जायें या उनके संपर्क बढ़ने लगें ं तो उसे बनाये रखने के लिये इसी समय में से ही प्रयास करना होगा और यह तय है कि इनमें कई लोग इंटरनेट कनेक्शन का खर्चा ही इसलिये भर रहे हैं क्योंकि वह यहां लिख रहे हैं। सीमित धन और समय के कारण नये संपर्क निर्वाह करने की क्षमता सभी में नहीं हो सकती। यहां अपना असली नाम न लिखने की वजह डर कम इस बात की चिंता अधिक है कि क्या हम दूसरों के साथ संपर्क रख कर कहीं अपने लिखने का समय ही तो नष्ट नहीं करेंगे।
ब्लाग पढ़ने वाले अनेक पाठक अपना फोटो, फोन नंबर और घर का पता मांगते हैं। उनकी सदाशयता पर कोई संदेह नहीं है पर अपनी संबंध निर्वाह की क्षमता पर संदेह होता है तब ऐसे संदेशों को अनदेखा करना ही ठीक लगता है। सीमित धन और समय में से सभी ब्लाग लेखकों के लिये यह संभव नहीं है कि वह प्रसिद्धि का बोझ ढो सकें। इसलिये पाठकों पढ़ते देखकर संतोष करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
हां, एक बात मजे की है। भले ही लेखक असली नाम से लिखे या छद्म नाम से उसका चेहरा पहचाना जा सकता है। अगर आपने किसी को असली नाम से लिखते देखा है और अगर वह छद्म नाम से लिखेगा तो भी आप पहचान लेंगे। एक बात याद रखने की है शब्दों के चेहरे तभी पहचाने जा सकते हैं जब आप उस लेखक को नियमित पढ़ते हों।
प्रसंगवश याद आया कि अंतर्जाल पर अपने विरोधियों से निपटने के लिये इस ब्लाग/पत्रिका लेखक ने भी दो ब्लाग अन्य नाम -उसे भी छद्म नहीं कहा जा सकता-से बनाया था और वह अन्य बाईस ब्लाग में सबसे अधिक हिट ले रहे हैं पर उनमें सात महीने से कुछ नहीं लिखा जा रहा है क्योंकि उस नाम से प्रसिद्ध होने की इस लेखक की बिल्कुल इच्छा नहीं है। आज अपने मित्र परमजीत बाली जी का एक लेख पढ़ते हुए यह विचार आया कि क्यों न उनको अपने ही इस नाम से पुनः शुरु किया जाये। उस नाम से दूसरे ब्लाग पर एक टिप्पणी आई थी कि आपकी शैली तो …………………….मिलती जुलती है।
मतलब टिप्पणीकर्ता इस लेखक की शैली से पूरी तरह वाकिफ हो चुका था और वह इस समय स्वयं एक प्रसिद्ध ब्लाग लेखक है।
जहां तक शब्दों से चेहरे पहचानने वाली बात है तो यह तय करना कठिन होता है कि आखिर इस ब्लाग जगत में मित्र कितने हैं एक, दो, तीन या चार, क्योंकि उनके स्नेहपूर्ण शब्द एक जैसे ही प्रभावित करतेे हैं? विरोधी कितने हैं? यकीनन कोई नहीं पर शरारती हैं जिनकी संख्या एक या दो से अधिक नहीं है। वह भी पहचान में आ जाते हैं पर फिर यह सोचकर कि क्या करना? कौन हम प्रसिद्ध हैं जो हमारे अपमान से हमारी बदनामी होगी। ले देकर वही पैंच वही आकर फंसता है कि प्रेम और घृणा का अपना स्वरूप होता है और आप कोई बात अंतर्जाल पर दावे से नहीं कह सकते। जब चार लोग प्रेम की बात करेंगे तो भी वह एक जैसी लगेगी और यही घृणा का भी है। कितने प्रेम करने वाले और कितने नफरत करने वाले अंतर्जाल पर उसकी संख्या का सही अनुमान करना कठिन है। रहा छद्म नाम का सवाल तो वह रहने ही हैं क्योंकि आम मध्यम वर्गीय व्यक्ति के लिये अपनी प्रसिद्धि का बोझ उठाना संभव नहीं है। ब्लाग लेखन में वह शांतिप्रिय लेखक मजे करेंगे जो लिखते हैं और प्रसिद्धि से बचना चाहते हैं। अपने लिखे पाठों को प्रसिद्धि भी मिले और लेखक बड़े मजे से बैठकर शांति से उसे दृष्टा की तरह (state counter पर) देखता रहे-यह सुख यहीं नसीब हो सकता है।
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अंधेरे से रौशनी पैदा नहीं हो सकती-व्यंग्य कविता


धरती की रौशनी बचाने के लिये
उन्होंने अपने घर और शहर में
अंधेरा कर लिया
फिर उजाले में कहीं वह लोग खो गये।
दिन की धूप में धरती खिलती रही
रात में चंद्रमा की रौशनी में भी
उसे चमक मिलती रही
इंसान के नारों से बेखबर सुरज और चंद्रमा
अपनी ऊर्जा को संजोते रहे
एक घंटे के अंधेरे से
सोच में रौशनी पैदा नहीं हो सकती
अपनी अग्नि लेकर ही जलती
सूरज की उष्मा से ही पलती
और चंद्रमा की शीतलता पर यह धरती मचलती
उसके नये खैरख्वाह पैदा हो गये।
नारों से बनी खबर चमकी आकाश में
लगाने वाले चादर तानकर सो गये।

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व्यंग्य के लिए धार्मिक पुस्तकों और देवों के नाम के उपयोग की जरूरत नहीं-आलेख


यह कोई आग्रह नहीं है यह कोई चेतावनी भी नहीं है। यह कोई फतवा भी नहीं है और न ही यह अपने विचार को किसी पर लादने का प्रयास है। यह एक सामान्य चर्चा है और इसे पढ़कर इतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर मस्तिष्क में अगर चिंतन के तंतु हों तो उनको सक्रिय किया जा सकता है। किसी भी लेखक को किसी धर्म से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये पर उसे इस कारण यह छूट भी नहीं लेना चाहिये कि वह अपने ही धार्मिक पुस्तकों या प्रतीकों की आड़ में व्यंग्य सामग्री (गद्य,पद्य और रेखाचित्र) की रचना कर वाह वाही लूटने का विचार करे।
यह विचित्र बात है कि जो लोग अपनी संस्कृति और संस्कार से प्रतिबद्धता जताते हैंे वही ऐसी व्यंग्य सामग्रियों के साथ संबद्ध(अंतर्जाल पर लेखक और टिप्पणीकार के रूप में) हो जाते हैं जो उनके धार्मिक प्रतीकों के केंद्र बिंदु में होती है।
यह लेखक योगसाधक होने के साथ श्रीगीता का अध्ययनकर्ता भी है-इसका आशय कोई सिद्ध होना नहीं है। श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण की आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर हमें कोई पीड़ा नहीं हुई न मन विचलित हुआ। अगर अपनी इष्ट पुस्तक और देवता के आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर परेशानी नहीं हुई तो उसका श्रेय भी उनके संदेशों की प्रेरणा को ही जाता है।
यह कोई आक्षेप नहीं है। हम यहां यह चर्चा इसलिये कर रहे हैं कि कम से कम अंतर्जाल पर सक्रिय लेखक इससे बाहर चल रही पुरानी परंपरागत शैली से हटकर नहीं लिखेंगे तो यहां उनकी कोई पूछ परख नहीं होने वाली है। अंतर्जाल से पूर्व के लेखकों ने यही किया और प्रसिद्धि भी बहुत पायी पर आज भी उन्हें इस बात के लिये फिक्रमंद देखा जा सकता है कि वह कहीं गुमनामी के अंधेरे में न खो जायें।
स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के हिंदी लेखकों का एक वर्ग सक्रिय हो गया था जो भारतीय अध्यात्म की पुस्तकों को पढ़ न पाने के कारण उसमें स्थित संदेशों को नहीं समझ पाया इसलिये उसने विदेशों से विचारधारायें उधार ली और यह साबित करने का प्रयास किया कि वह आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपने को विकासवादी कहा तो उनके सामने खड़े हुए परंपरावादियों ने अपना मोर्चा जमाया यह कहकर कि वह अपनी संस्कृति और संस्कारों के पोषक हैं। यह लोग भी कर्मकांडों से आगे का ज्ञान नहीं जानते थे। बहरहाल इन्हीं दो वर्गों में प्रतिबद्ध ढंग से लिखकर ही लोगों ने नाम कमाया बाकी तो संघर्ष करते रहे। अब अंतर्जाल पर यह अवसर मिला है कि विचाराधाराओं से हटकर लिखें और अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें।
पर यह क्या? अगर विदेशी विचाराधाराओं के प्रवर्तक लेखक भगवान श्रीकृष्ण या श्रीगीता की आड़ में व्यंग्य लिखें तो समझा जा सकता है और उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और ज्ञान-विज्ञान में अभिरुचि रखने का संदेश देने वाली श्रीगीता का नितांत श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया जाये तो वह इतना दृढ़ बना देती है कि आप उसकी मजाक उड़ाने पर भी विचलित नहीं होंगे बल्कि ऐसा करने वाले पर तरस खायेंगे।
अगर श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण में विश्वास करने वाले होते तो कोई बात नहीं पर ऐसा करने वाले कुछ लेखक विकासवादी विचाराधारा के नहीं लगे इसलिये यह लिखना पड़ रहा है कि अगर ऐसे ही व्यंग्य कोई अन्य व्यक्ति करता तो क्या वह सहन कर जाते? नहीं! तब वह यही कहते कि हमारे प्रतीकों का मजाक उड़ाकर हमारा अपमान किया जा रहा है। यकीनन श्रीगीता में उनकी श्रद्धा होगी और कुछ सुना होगा तो कुछ ज्ञान भी होगा मगर उसे धारण किया कि पता नहीं। श्रीगीता का ज्ञान धारण करने वाला कभी उत्तेजित नहीं होता और न ही कभी अपनी साहित्य रचनाओं के लिये उनकी आड़ लेता है।
सच बात तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से योगसाधना और श्रीगीता की आड़ लेकर अनेक जगह व्यंग्य सामग्री देखने,पढ़ने और सुनने को मिल रही है। एक पत्रिका में तो योगसाधना को लेकर ऐसा व्यंग्य किया गया था जिसमें केवल आशंकायें ही अधिक थी। ऐसी रचनायें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि योगसाधना और व्यंग्य पर वही लोग लिख रहे हैं जिन्होंने स्वयं न तो अध्ययन किया है और न उसे समझा है। टीवी पर अनेक दृश्यों में योगसाधना पर व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देखकर इस बात का आभास तो हो गया है कि यहां गंभीर लेखन की मांग नहीं बल्कि चाटुकारिता की चाहत है। लोगों को योग साधना करते हुए हादसे में हुई एक दो मौत की चर्चा करना तो याद रहता है पर अस्पतालों में रोज सैंकड़ों लोग इलाज के दौरान मरते हैं उसकी याद नहीं आती।
देह को स्वस्थ रखने के लिये योगसाधना करना आवश्यक है पर जीवन शांति और प्रसन्नता से गुजारने के लिये श्रीगीता का ज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस धरती पर मनुष्य के चलने के लिये दो ही रास्ते हैं। मनुष्य को चलाता है उसका मन और वह श्रीगीता के सत्य मार्ग पर चलेगा या दूसरे माया के पथ पर। दोनों ही रास्तों का अपना महत्व है। मगर आजकल एक तीसरा पथ भी दिखता है वह दोनों से अलग है। माया के रास्ते पर चले रहे हैं पर वह उस विशाल रूप में साथ नहीं होती जो वह मायावी कहला सकें। तब बीच बीच में श्रीगीता या रामायण का गुणगान कर अनेक लोग अपने मन को तसल्ली देते हैं कि हम धर्म तो कर ही रहे हैं। यह स्थिति तीसरे मार्ग पर चलने वालों की है जिसे कहा जा सकता है कि न धन साथ है न धर्म।
अगर आप व्यंग्य सामग्री लिखने की मौलिक क्षमता रखते हैं तो फिर प्राचीन धर्म ग्रंथों या देवताओं की आड़ लेना कायरता है। अगर हमें किसी पर व्यंग्य रचना करनी है तो कोई भी पात्र गढ़ा जा सकता है उसके लिये पवित्र पुस्तकों और भगवान के स्वरूपों की आड़ लेने का आशय यह है कि आपकी सोच की सीमित क्षमतायें है। जो मौलिक लेखक हैं वह अध्यात्म पर भी खूब लिखते हैं तो साहित्य व्यंग्य रचनायें भी उनके हाथ से निकल कर आती हैं पर कभी भी वह इधर उधर से बात को नहीं मिलाते। अगर किसी अध्यात्म पुरुष पर लिखते हैं फिर उसे कभी अपने व्यंग्य में नहीं लाते।
अरे इतने सारे पात्र व्यंग्य के लिये बिखरे पड़े हैं। जरूरी नहीं है कि किसी का नाम दें। अगर आप चाहें तो रोज एक व्यंग्य लिख सकते हैं इसके लिये पवित्र पुस्तकों यह देवताओं के नाम की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब अब किसी का नाम लेकर रचना करते हैं और वह सीधे उसकी तरफ इंगित होती है तो वह व्यंजना विधा नहीं है इसलिये व्यंग्य तो हो ही नहीं सकती।
यह पाठ किसी प्रकार का विवाद करने के लिये नहीं लिखा गया है। हम तो यह कहते हैं कि दूसरा अगर हमारी पुस्तकों या देवताओं की मजाक उड़ाता है तो उस पर चर्चा ही नहीं करो। यहां यह भी बता दें कुछ लोग ऐसे है जो जानबूझकर अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करने के लिये अपने ही देवताओं और पुस्तकों पर रची गयी विवादास्पद सामग्री को सामने लाते हैं ताकि अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित कर सकें। उनकी उपेक्षा कर दो। ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाकई सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर अनजाने में या उत्साह में ऐसी रचनायें कर जाते हैं। उनका यह समझाना भर है कि जब हम अपनी पवित्र पुस्तकों या देवताओं की आड़ में कोई व्यंग्य सामग्री लिखेंगे- भले ही उसमें उनके लिये कोई बुरा या मजाकिया शब्द नहीं है-तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को समझाइश कैसे दे सकते हैं जो बुराई और मजाक दोनों ही करता है। याद रहे समझाईश! विरोध नहीं क्योंकि ज्ञानी लोग या तो समझाते हैं या उपेक्षा कर देते हैं। यह भी समझाया अपने को जाता है गैर की तो उपेक्षा ही की जानी चाहिये। हालांकि जिन सामग्रियों को देखकर यह पाठ लिखा गया है उनमें श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण के लिये कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं थी पर सवाल यह है कि वह व्यंग्यात्मक सामग्रियों में उनका नाम लिखने की आवश्यकता क्या है? साथ ही यह भी कि अगर कोई इस विचार से असहमत है तो भी उस पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। सबकी अपनी मर्जी है और अपने रास्ते पर चलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, पर चर्चायें तो होती रहेंगी सो हमने भी कर ली।
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जो संस्कृति शराब में डूब जाए -व्यंग्य कविता


शराब की बूंदों में जो संस्कृति ढह जाती है
ढह जाने दो, वह भला किसके काम जाती है
ऐसी आस्था
जो शराब की बोतल की तरह टूट जाती है
उसके क्या सहानुभूति जतायें
लोहे की बजाय कांच से रूप पाती है
…………………………..
नशा कोई और करे
झगड़ा कोई और
क्यों कर रहा है पूरा जमाना उस पर गौर
संस्कृति के झंडे तले शराब का विज्ञापन
अधिकारों के नाम पर
नशे के लिये सौंप रहे ज्ञापन
जिंदा रहे पब और मधुशाला
इस मंदी के संक्रमण काल में
मुफ्त के विज्ञापन का चल रहा है
शायद यह एक दौर

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तस्वीरों और शब्दों में दिखाते घाव-हिंदी शायरी


वह दिखाते अपनी तस्वीरों और शब्दों में लोगों के घाव।
प्रचार में चलता है इसलिये हमेशा चलता है उनका दाव।।
अपने दर्द से छिपते हैं दुनियां के सभी लोग
दूसरे के आंसू के दरिया में चलाते दिल की नाव।।
जज्बातों के सौदागर इसलिये कोई दवा नहीं बेचते
दर्द चाहे जब जितना खरीदो, एक किलो या पाव।।

…………………………..
जिसके लिये प्रेम होता दिल में पैदा
उसके पास जाने की
इच्छा मन में बढ़ जाती है
आंखें देखती हैं पर
बुद्धि अंधेरे में फंस जाती है
कुंद पड़ा दिमाग नहीं देख पाता सच
कहते हैं दूर के ढोल सुहावने
पर दूरी होने पर ही
किसी इंसान की असलियत समझ में आती है
इसलिये फासले पर रखो अपना विश्वास
किसी से टकराने पर
हादसों से जिंदगी घिर जाती है

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कहीं कहीं झगडे भी फिक्स होंगे -हास्य व्यंग्य कविताएँ


पहले तो क्रिकेट मैचों पर
फिक्सिंग की छाया नजर आती थी
अब खबरों में भी होने लगा है उसका अहसास।
शराबखानों पर करते हैं लोग
सर्वशक्तिमान का नाम लेकर हमला
कहीं टूटे कांच तो कहीं गमला
बहस छिड़ जाती है इस बात पर कि
सर्वशक्तिमान के बंदे ऐसे क्यों होना चाहिये
लंबे चैड़े नारों का दौर शुरु
हर वाद के आते हैं भाषण देने गुरु
ढेर सारे जुमले बोले जाते हैं
टूटे कांच और गमलों के साथ
जताई जाती है सहानुभूति
पर ‘शराब पीना बुरी बात है’
इस पर नहीं होता कोई प्रस्ताव पास।
खबरफरोश भूल जाते हैं शराब को
सर्वशक्तिमान के नाम पर ही
होती है उनको सनसनी की आस।
किसे झूठा समझें, किस पर करें विश्वास।
…………………………
शराब चीज बहुत खराब है
पीने वाला भी कर सकता है
न पीने भी कर सकता है
भले झगड़ा खराब है।
शराब खानों पर हुए झगड़ो पर
अब रोना बंद कर दो
क्योंकि सदियों से
करवाती आयी है जंग यह शराब
जैसे जैसे बढ़ते जायेंगे शराब खाने
वैसे ही नये नये रूपों में झगड़े
सामने आयेंगे
कहीं पीने वाले पिटेंगे तो
कहीं किसी को पिटवायेंगे
कहीं जाति तो कहीं भाषा के
नाम पर होंगे
कहीं प्रचार के लिये
पहले से ही तय झगड़े होंगे
इन पर उठाये सवालों का
कभी कोई होता नहीं जवाब है।

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बुद्धिजीवियों की होली अब वैलेंटाईन डे पर मनती है -हास्य व्यंग्य


वैलेंटाईन डे के मायने अब वह नहीं रहे जो पहले बताये गये थे। अपना अपना नजरिया है। कुछ लोगों ने संस्कृति विरोधी दिवस कहा तो किसी ने नारी स्वातंत्र्य दिवस के रूप में मनाया। टीवी चैनलों और अखबारों के साथ अंतर्जाल पर हिंदी अंग्रेजी ब्लाग पर जोरदास बहस सुनने और देखने को मिली। तय बात है कि बहस हमेशा बुद्धिजीवियों के बीच होती है। वैलेंटाईन डे पर यह बहस जमकर चली और जिनकां इनसे कुछ लेना देना नहीं था उन्होंने फोकट में अपने रंग (शब्द) खर्च किये मजे लिये। यह लोग चालाक थे और उन्होंने इससे भी कहा बढि़या और उससे भी कहा बढि़या-मजा भी लिया और सुरक्षित भी रहे। समझ में नहीं आया कि प्रशंसा कर रहे हैं कि मजाक बना रहे हैं। एक तरह से कहा जाये तो वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों ने होली की तरह मनाया। साल में एक दिन होली मनाना जरूरी है और होली पर रंग गुलाल से परहेज करने वाले बुद्धिजीवियों ने वैलेंटाईन डे पर शब्दों का रंगों की तरह इस्तेमाल कर इसे नया रूप दे दिया। अब यह कहना कठिन है कि अगले साल वह इसी तरह मनायेंगे या नहीं।

वैलंटाईन नाम एक ऋषि पश्चिम में हुए हैं। कहा जाता है कि उनके समय में एक राजा ने अपने राज्य की रक्षा के लिये सैनिक जुटाने के लिये युवकों के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया और महर्षि वैलेंटाईन ने उसके विरोध स्वरूप ही एक आंदोलन चलाया जिसमें युवक युवतियों का विवाह कराना शामिल था। उनकी स्मृति में मनाये जाने वाले इस त्यौहार पर कुछ कथित समाज सुधारक बिना विवाह के घूमने वाले युवक युवतियों का विवाह कराने की धमकी दे रहे थे। बस हो गया विवाद शुरु। नारी स्वातंत्र्य के समर्थकों ने पुरुष सत्ता को चुनौती देते हुए लड़कियों को खुले में घूमने के लिये ललकारा-यकीनन वह युवकों के साथ ही जो कि पुरुष ही होते हैं। स्त्री को प्यार करने की स्वतंत्रता होना चाहिये-यकीनन पुरुष के साथ ही। समाज को विभाजित कर उसे एक करने वाले बुद्धिजीवियों ने जमकर रंग (शब्द) बरसाये। नारी के पब में जाने से संस्कृति को खतरा बताने वाले भी अपने अपने रंग लेकर आये। एक तरह से वैलेंटाईन डे ऐसा हो जैसे कि कुछ लोग होली पर अपने बैरी से बदला लेने के लिये उस पर पक्का रंग फैंकते हैं ताकि वह उतरे नहीं। कुछ होते है तो वह कीचड़ का ही रंग की तरह उपयोग करते हैं।

अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने कुछ हिंदी अंग्रेजी ब्लाग लेखक तो ऐसे ही रहे जैसे होली पर कुछ अधिक रंग खेलने वाले लगते हैं। जैसे कोई सामान्य व्यक्ति होली पर कई मित्रों के घर जाता है और सभी जगह रंग खेलता है तो उसके रोम रोम में रंग छा जाता है। ऐसे ही कुछ हिंदी और अंग्रेजी के ब्लाग अनुकूल प्रतिकूल टिप्पणियों से रंगे हुए थे। इस तरह भी हुआ कि कुछ लोगों ने अपनी टिप्पणियां उन पर नहीं लगायीं कि वह तो पहले से ही अधिक हैं-ठीक ऐसे ही जैसे होली पर ऐसे व्यक्ति को रंग लगाने की इच्छा नहीं होती जो पहले ही रंगा हुआ होता है।
अब टीवी चैनलों, अखबारों और अंतर्जाल पर एकदम खामोशी हो गयी है। ऐसे ही जैसे होली के दो बजे के बाद सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है। कोई बहस नहीं। ऐसे में अब कुछ लोग फिर भी सक्रिय हैं जो उस दौरान खामोश थे-लगभग ऐसे ही जैसे रंगों से चिढ़ने वाले दोपहर बाद सड़क पर निकलते हैं। कहने को तो सभी लिखने पढ़ने वाले बुद्धिजीवी हैं पर यह होली-वैलेंटाईन डे-सभी ने नहीं मनायी। केवल देखते रहे कि कौन किस तरह के रंग उपयोग कर रहा है। सच कहा जाये तो यह वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों की होली की तरह लगा। जिन लोगों ने इस होली का मजा लिया उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो भारतीय होली भी नहीं खेलते भले ही उस पर व्यंग्य कवितायें लिखकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। पब में नारियों के जाने पर खतरा और जाने पर स्वतंत्रता का आभास दिलाना अपने आप में हास्यास्पद है। मजाक की बातें कहकर दूसरों का मनोरंजन करना भी एक तरह से होली का ही भाग है और वैलंटाईन डे के अवसर पर चली बहस से इसका आभास कुछ लोगों को हुंआ तो उसे गलत तो नहीं कहा जा सकता है। हालांकि इस अवसर पर कुछ लोगों ने गंभीर और मर्यादा के साथ इस बहस में भाग लिया पर बहुत लोग हैं जो होली भी ऐसे ही मनाते हैं।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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जज्बात की पतली धारा-व्यंग्य कविता


पड़ौसन ने कहा उस औरत से
‘तुम्हारा आदमी रात को रोज
शराब पीकर आता है
पर तुम कुछ नहीं कहती
वह आराम से सो जाता है
अरे, उससे कुछ कहा कर
ताकि चार लोग सुन सकें
तो वह सुधर जायेगा
इज्जत खराब होने के डर से
वह शराब पीना भूल जायेगा’

औरत से जवाब दिया
‘जानती हूं, तुम तमाशा देखना चाहती हो
इसलिये उकसाती हो
जब रात को वह पीकर आता है
तो मैं कुछ नहीं कहती
क्योंकि शराबी को अपने मान अपमान की
परवाह नहीं होती
पहले किराये के मकान में
रोज तमाशा होता था
सभी इसका समर्थन करते थे
जब यह मुझसे पिटकर रोता था
अपना इसलिये अब सुबह गुस्सा सुबह उठकर
इसकी पिटाई लगाती हूंं
दिन के उजाले में आवाज नहीं आती
इसलिये तुमको भी नहीं बताती
सुबह इसे अपने अपमान का
इसे कई बार भय सताता है
इसलिये कई बार बिना पिये घर आता है
अगर रात को मचाऊं कोहराम
जमाने भर में हीरो के रूप में हो जायेगा इसका नाम
पिटा हुआ शराबी भी क्यों न हो
जमाने भर को उस पर तरस आता है
क्यों करूं अपना खराब नाम
जमाना तो जज्बात की पतली धारा में ही बह जाता है
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प्रतियोगिता से कहीं अधिक वजन जंग में आता है-लघु व्यंग्य


अपने वाद्ययंत्रों के साथ सजधजकर वह घर से बाहर निकला और अपनी मां से बोला-‘‘मां, आशीर्वाद दो जंग पर जा रहा हूं।’
मां घबड़ा गयी और बोली-‘बेटा, मैंने तुम्हें तो बड़ा आदमी बनने का सपना देखा था । भला तुम फौज में कब भर्ती हो गये? मुझे बताया ही नहीं। हाय! यह तूने क्या किया? बेटा जंग में अपना ख्याल रखना!’
बेटे ने कहा-‘तुम क्या बात करती हो? मैं तो सुरों की जंग में जा रहा हूं। अंग्रेजी में उसे कांपटीनशन कहते हैं।’
मां खुश हो गयी और बोली-‘विजयी भव! पर भला सुरों की जंग होती है या प्रतियोगिता?’
बेटे ने कहा-‘मां अपने प्रोग्राम को प्रचार में वजन देने के लिये वह प्रतियोगिता को जंग ही कहते हैं और फिर आपस में लड़ाई झगड़ा भी वहां करना पड़ता है। वहां जाना अब खेल नहीं जंग जैसा हो गया है।’
वह घर से निकला और फिर अपनी माशुका से मिलने गया और उससे बोला-‘मैं जंग पर जा रहा हूं। मेरे लौटने तक मेरा इंतजार करना। किसी और के चक्कर में मत पड़ना! यहां मेरे कई दुश्मन इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कब मैं इस शहर से निकलूं तो मेरे प्रेम पर डाका डालें।’

माशुका घबड़ा गयी और बोली-‘देखो शहीद मत हो जाना। बचते बचाते लड़ना। मेरे को तुम्हारी चिंता लगी रहेगी। अगर तुम शहीद हो गये तो तुम्हारे दुश्मन अपने प्रेम पत्र लेकर हाल ही चले आयेंगे। उनका मुकाबला मुझसे नहीं होगा और मुझे भी यह शहर छोड़कर अपने शहर वापस जाना पड़ेगा। वैसे तुम फौज में भर्ती हो गये यह बात मेरे माता पिता को शायद पसंद नहीं आयेगी। जब उनको पता लगेगा तो मुझे यहां से वापस ले जायेंगे। इसलिये कह नहीं सकती कि तुम्हारे आने पर मैं मिलूंगी नहीं।’
उसने कहा-‘मैं सीमा पर होने वाली जंग में नहीं बल्कि सुरों की जंग मे जा रहा हूं। अगर जीतता रहा तो कुछ दिन लग जायेंगे।’

माशुका खुश हो गयी और बोली-अरे यह कहो न कि सिंगिंग कांपटीशन में जा रहा हूं। अरे, तुुम प्रोगाम का नाम बताना तो अपने परिवार वालों को बताऊंगी तो वह भी देखेंगे। हां, पर किसी प्रसिद्ध चैनल पर आना चाहिये। हल्के फुल्के चैनल पर होगा तो फिर बेकार है। हां, पर देखो यह जंग का नाम मत लिया करो। मुझे डर लगता है।’
उसने कहा-‘अरे, आजकल तो गीत संगीत प्रतियोगिता को जंग कहा जाने लगा है। लोग समझते हैं यही जंग है। अगर किसी से कहूं कि प्रतियोगिता में जा रहा हूंे तो बात में वजन नहीं आता इसलिये ‘जंग’ शब्द लगाता हूं। प्रतियोगिता तो ऐसा लगता है जैसे कि कोई पांच वर्ष का बच्चा चित्रकला प्रतियागिता में जा रहा हो। ‘जंग’ से प्रचार में वजन आता है।’
माशुका ने कहा-‘हां, यह बात ठीक लगती है। तुम यह कांपटीशन से जीतकर लौटोगे तो मैं तुम्हारा स्वागत ऐसा ही करूंगी कि जैसे कि जंग से लौटे बहादूरों का होता है। विजयी भव!
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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जहां बेचने वाला खरीददार की फिक्र करता नहीं-हिंदी शायरी


किसी इमारत में लगी आग
कहीं रास्ते में बिखरा खून
किर्सी जगह हथियारों की आवाज से गूंजता आकाश
दिल और दिमाग को डरा देता है
पर कहीं अमन है
खिलता है फूलों से ऐसे भी चमन हैं
गीत और संगीत का मधुर स्वर
कानों के रास्ते अंदर जाकर
दिल को बाग बाग कर देता है
दुनियां में दृश्य तो आते जातें
देखने वाले पर निर्भर है
वह अपनी आंखों की नजरें
कहां टिका देता है
कहां से फेर लेता है

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नायक बेचने के लिये
उनको खलनायक भी चाहिए
अपने सुर अच्छे साबित करने के लिये
उनको बेसुरे लोग भी चाहिए
यह बाजार है
जहां बेचने वाला
खरीददार की फिक्र करता नहीं
उसकी जेब का कद्रदान होता है
सौदा बेचने के लिये
बेकद्री भी होना चाहिए
ओ बाजार में अपने लिये
चैन ढूंढने वालों
जेब में पैसा हो तो
खर्च करने के लिये अक्ल भी चाहिए
………………………….
बाजार में भीड़
पर भीड़ में अक्ल नहीं होती
बिकती अक्ल बाजार में
तो भला भीड़ कहां से होती
इसलिये सौदागर चाहे जो चीज
बाजार में बेच जाते हैं
जो ठगे गये खरीददार
शर्म के मारे कहां शिकायत लेकर आते हैं
भीड़ में अपनी कमअक्ल की
पहचान हो जाने की चिंता सभी में होती

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छोटी सफलता पर क्या इतराना-संपादकीय एवं कविता


यह ब्लाग 25 हजार की पाठक संख्या पार कर गया। यह कोई बड़ी सफलता नहीं है खासतौर से यह देखते हुए कि मेरे दो अन्य ब्लाग/पत्रिकाऐं यह संख्या पहले ही कर चुके हैं और इसके अलावा हिंदी ब्लाग जगत के अनेक ब्लाग इससे कई गुना अधिक संख्या पहले ही पार कर चुके हैं। फिर भी आजकल के प्रचार के युग में यह जरूरी है कि कभी कभी आत्म प्रचार भी किया जाये खासतौर से जब आप इसके लिये कोई व्यय करने की स्थिति में नहीं है। वैसे आजकल मौसम इतना खराब चल रहा है कि कहीं भी बैठना कठिन है और मेरे हालत ऐसे हैं कि बड़ी मुश्किल से लिख पा रहा हूं। इस अवसर पर एक कविता लिखने का मन है सो प्रस्तुत है।

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पास से गुजरते हुई हवा के झौंके से
गुलाब के पेड़ ने कहा
‘ओ हवा, बड़ी बहुत दूर से बहती हुई आई हो
कुछ देर मेरे पास ठहर जाना
मेरे ऊपर खड़े फूलों की
सुगंध को भी अपने साथ ले जाना
करो इनका स्पर्श
होगा तुम्हें भी बहुत हर्ष
इनका अस्तित्व मेरी है कामयाबी
इनकी कथा सभी जगह सुनाना
जहंा भी हो तुम्हारा जाना’

हवा के झौंके ने हंसते हुए कहा
‘बहुत अच्छे लगते हैं फूल
पर इनके साथ कांटे भी हैं
यह कैसे जायेंगे भूल
अगर फूलों का अस्तित्व तुम्हारी कामयाबी है
तो कांटों का यहां रहना नाकामी के
अलावा और क्या हो सकता है
तुम्हारे इन फूलों को सब तोड़ जाते हैं
पर कांटे चुभने से घबड़ाते हैं
पर यह कांटे ही
फूल का बनते हैं सहारा
वरना बन जाता यह बिचारा
इंसान भी वही जश्न मनाते हैं
जों अपनी नाकामी छिपाते हैं
तुमने भी फलों का किया बखान
पर कांटों का नहीं किया बयान
हम तो ठहरे हवा के झौंके
बहते चले जायेंगे
अच्छे बुरे हल हाल को
स्पर्श करते जायेंगे
पर रुकना नहीं काम हमारा
चलते रहकर इस संसार की नदी में
जीवन की धारा सदैव है बहाना
सुगंध और दुर्गंध
सुख और दुख
इसका मतलब हमने कभी नहीं जाना
तुम भी अपनी कामयाबी पर
इतना न इतराओ
कि नाकामी दिखाकर कोई तुम्हें
नीचा दिखाये
खड़े रहना अपनी ही जमीन पर
जिंदगी है जब तक तुम्हारी
इन कांटों को भी सहलाते रहना
यह भी तुम्हारे पहरेदार है
इनके बिना मुश्किल होगा तुम्हें अपने को बचाना

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अभी निष्कर्ष और विश्लेषण प्रस्तुत करने का समय नहीं है, पर कुछ लोग हैं जो इनमें रुचि रखते हैं इसलिये ही इस विशेष अवसर पर यह संपादकीय एवं कविता प्रस्तुत है। मैं यह कभी नहीं भूल सकता कि अनेक ब्लाग लेखक मित्रों ने मुझे हमेशा लिखने की प्रेरणा दी है। कई बातें उनसे सीखकर ही आजकल मैं इतना लिख पाता हूं। बस एक ही इच्छा रहती है कि हिंदी अंतर्जाल पर पढ़ी जाये और सभी ब्लाग लेखक एक ऐसा मुकान हासिल करें जिससे उनकी विश्व में प्रतिष्ठा बढ़े।
वैसे यह ब्लाग अपने सहयोगी ब्लाग/पत्रिकाओं से पिछड़ रहा है पर उसका कारण मेरे द्वारा इस पर कम लिखना ही है। हालांकि यह मेरे द्वारा बनाया गया सबसे पहला ब्लाग है और उस समय पता ही नहीं था कि जाना कहां है? अब जो अनुभव और जानकारी प्राप्त हुई है वह सब सहृदय ब्लाग लेखकों के सहयोग से ही संभव है और कम से कम मैं अपने आपको इस दृष्टि से भाग्यशाली समझाता हूं।
ऐसे सफलताओं पर अधिक प्रसन्न होने की जरूरत इसलिये भी नहीं है कि क्योंकि लक्ष्य बहुत लंबा है। सबसे अच्छी बात जो लगती है कि मित्र ब्लाग लेखकों द्वारा निष्काम भाव से सहयोग और आलोचकों द्वारा अपनी आलोचना से अधिक अच्छा लिखने की प्रेरणा देना। इस अवसर अपने परिचित और अपरिचित ब्लाग लेखक मित्रों, पाठकों और आलोचकों का आभार प्रदर्शित करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है।

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यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक बापू कहिन’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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ब्लागस्पाट का लेबल, वर्डप्रेस की श्रेणियां और टैग-जानकारी के लिये आलेख


यह आलेख मैं एक प्रयोक्ता की तरह लिख रहा हूं और मुझे अपने तकनीकी ज्ञान को लेकर कोई खुशफहमी नहीं है। कल कुछ ब्लाग लेखक ने टैगों को लेकर सवाल किये। अधिकतर लोग ब्लागस्पाट पर काम करते हैं और उनका यही कहना था कि उनके यहां टैग(लेबल)कम लग पाता है। कई लोग के मन में वर्डप्रेस के ब्लाग को लेकर भी हैरानी है। यह आलेख मैं ऐसे ही नये ब्लाग लेखकों के दृष्टिकोण से लिख रहा हूं जिन्हें शायर मुझसे कम जानकारी हो।

पहले ब्लाग स्पाट के लेबल या टैग के बारे में बात कर लें। वहां लेबल में 200 से अंग्रेजी वर्ण नहीं आते यह सही बात है पर उसका उपयोग अगर इस तरह किया जाये जिससे स्पेस कम हो तो उसमें अंग्रेजी के अधिकतक शब्द हम शामिल कर सकते हैं। अगर हिंदी के शब्द भी लिखने हैं तो पहले हिंदी में शब्द फिर उसके साथ अंग्रेजी के शब्द लिखकर वहां से कापी लाकर लेबल पर पेस्ट करें। उसका तरीका यह है। हिंदी,कविता,शायरी,साहित्य,हास्य,व्यंग्य,hindi,kavita,shayri,sahitya,hasya,
कोमा के बाद स्पेस न दें। इससे दोनों मिलाकर अट्ठारह से बीस टैग या लेबल आ सकते हैं।
वैसे तो वर्ड प्रेस के किसी ब्लाग लेखक ने कोई सवाल नहीं किया पर फिर भी उसकी जानकारी दे देता हूं। वहां कैटेगरी और टैग दो तरह से सुविधा मिली है। कैटेगरी में अगर आप ऐसे शब्द भर दें जो आप हमेशा ही अपने पाठों के साथ कर सकते है। जैसे हिंदी,कविता,साहित्य,आलेख,व्यंग्य,hindi,kavita,sahitya,vyangya,hasya vyangya। वहां अपने ब्लाग में सैटिंग में जाकर अपने ब्लाग ओर पाठ की सैटिंग में हिंदी शब्द ही लिखें। इससे आपका ब्लाग हिंदी के डेशबोर्ड पर दिखता रहेगा। मुझे तो अपने ब्लाग की सैटिंग ही दो महीने बाद समझ में आयी थी। वैसे मेरे वहां इस समय आठ ब्लाग हैं जिनमें से दो अन्य श्रेणी में कर रखे हैं क्योंकि वह भी बिना किसी फोरम के इतने पाठक जुटा लेते हैं कि डेशबोर्ड पर दिखने लगते हैं। उस पर मैं अभी तक दूसरे ब्लाग से पाठ उठाकर रखता हूं और डेशबोर्ड पर हिंदी के नियमित ब्लाग लेखक भ्रमित न हों मैंने उसे अन्य श्रेणी में कर रखा है। यह अलग बात है कि चिट्ठाजगत वालों की उस पर नजर पड़ गयी और अपने यहां उसे लिंक किये हुए हैं। वर्डप्रेस में वर्णों की संख्या का कोई बंधन नहीं हैं। मैंने शुरू में एक ब्लाग लेखक को इतनी श्रेणियां उपयोग करते देखा था कि डेशबोर्ड पर उससे हमारे ब्लाग पर दूर ही दिख रहे थे। जब वह नंबर वन पर था तो हमें बड़ी मेहनत से अपने ब्लाग देखने पड़ रहे थे। वर्डप्रेस पर वर्ण या शब्द की कोई सीमा नहीं है

अब आ जाये टैग की किस्म पर जो शायद इस समय सबसे अधिक विवादास्पद है। मुझे अनुमान नहीं था कि यह इतना तीव्र हो जायेगा कि मुझे यह सब लिखना पड़ेगा।
मैने ब्लाग के बारे में लेख पढ़ा था अपने ब्लाग बनाने के छह महीने पहले यानि सवा दो साल पहले। उसके निष्कर्ष मुझे याद थे और आज भी हैं और मैं उन्हीं पर ही चलता हूं।
1.नियमित रूप से अपने ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखते रहें। इस बात की परवाह मत करें कि सभी पाठ आपके पाठको अच्छे लगें पर नियमित होने से वह वहां आते हैं और उनकी आमद बनी रहे।
2.ब्लाग पर जमकर टैग लगायें। टैग लगाते समय आपको यह ध्यान रखना चाहिये कि आप अपना ब्लाग कहां और किन पाठकों को पढ़ाना चाहते हैं। उसमें अपने विषय से संबंधित टैग तो लगाना ही चाहिए बल्कि ऐसे लोकप्रिय टैग भी इस तरह लगाना चाहिए कि कोई उन पर आपत्ति न कर सके। याद रहे टैग पाठक को पढ़ाने के लिये नहीं बल्कि अपना ब्लाग वहां तक पहुंचाने के लिये है।
3.अखबारों में आप छपते हैं तो वह अगले दिन ही कबाड़ में चला जाता है। किताबें अल्मारी में बंद हो जाती हैं पर यह आपका ब्लाग अंतर्जाल पर हमेशा ही सक्रिय बना रहेगा।

यह मूलमंत्र मुझे याद है। टैग गलत लगाकर पाठकों को धोखा देना नहीं है-ऐसे तर्क मेरे जैसे लेखक के आगे रखना ही अपनी अज्ञानता का प्रमाण देना है। हम टैग लगा रहे हैं शीर्षक नहीं। कहा यह जाता है कि हमारे पाठ के अनुरूप शीर्षक होना चाहिये। यह टैग वैसी होने की बात किस हिंदी की साहित्य की किताब में कहा गया है। टैग कभी शीर्षक नहीं होते, जैसे पूंछ कभी मूंछ नहीं होती। पैर का इलाज सिर पर नहीं चलता। शीर्षक सिर है और टैग पांव है। आपने देखा होगा पत्र-पत्रिकाओं में होली के अवसर किसी प्रतिष्ठत हस्ती का चेहरा लिया जाता है और किसी दूसरे का निचला हिस्सा लेकर उसका कार्टून बनाया जाता है। मतलब शीर्षक ही पहचान है पाठ की।
टैग तो एक हाकर की तरह है जो उसे लेकर चलता है। अब कहानी है तो वह संस्मरण भी हो सकती है और अभिव्यक्ति या अनुभूति भी। केवल यही नहीं आप ऐसे लोकप्रिय शब्द ले सकते हैं जिनका आम लोग सर्च इंजिन खोलने के लिये उपयोग करते हैं। हां इसमें केवल अमूर्त वस्तुओं, शहरों, या नदियों का नाम लिख सकते हैं जिससे आपको अपना ट्रेफिक बढता हुआ लगे। प्रसिद्ध व्यक्तियों या संस्थाओं का नाम कभी नहीं लिखें क्योंकि इससे आपकी कमजोरी ही जाहिर होगी और उनके प्रशंसकों द्वारा उसका प्रतिवाद भी संभव है। संभव है आम पाठक आप में दिलचस्पी न लें क्यों िउनसे संबंधित सामग्री वैसे ही अंतर्जाल पर होती है।

कुछ शब्द हैं जैसे अल्हड़,मस्तराम,मनमौजी और भोला शब्द अगर वह आपके प्यार का नाम है तो उपयोग कर सकते हैं। जैसे मुझे मेरी नानी कहती थी ‘मस्तराम’। मुझे उनका यह दिया गया नाम बहुत प्यारा है। मैंने पहले इसे अपने नाम के साथ ब्लाग में जोड़ा पर चिट्ठाजगत वालों ने उसे पकड़कर लिंक कर लिया तो मैंने सोचा कि इसका टैग ही बना देते हैं। फिर अब उसे टैग बना लिया। टैगों में संबंद्ध विषय से संबंधित जानकारी होना चाहिए यह बात ठीक है पर हम उसे विस्तार देकर अपने पाठक तक पहुंचने का प्रयास न करें यह कोई नियम नहीं है। इस पर फिर कभी।

कुल मिलाकर टैग वह मार्ग है जो आपको पाठकों तक पहुंचा सकता है। ब्लागस्पाट का मुझे पता नहीं पर वर्डप्रेस में मैंने यही अनुभव किया है। आखिरी बात यह कि मैंने यह आलेख एक प्रयोक्ता की तरह लिखा है और हो सकता है मेरा और आपका अनुभव मेल न खाये। फिर ब्लाग स्पाट के ब्लाग अभी वैसे परिणाम नहीं दे पाये जैसे अपेक्षित थे। कुल मिलाकर यह मेरा अनुभव है जिसे मैंने प्रयोक्ता के रूप में पाया और इससे अधिक तो मुझ कुछ आता भी नहीं। कुछ खोजबीन चल रही है और यही टैग उसके लिये काम कर रहे हैं। शेष फिर कभी।
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यह मूल पाठ इस ब्लाग ‘दीपक बापू कहिन’ पर लिखा गया। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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अभिनव बिंद्रा ही है असली इंडियन आइडियल-आलेख


ओलंपिक मेंं अभिनव बिंद्रा का स्वर्ण पदक जीतना बहुत खुशी की बात है इसका कारण यह है कि भारत में खेल जीवन का एक अभिन्न अंग माना जाता है और हर वर्ग का व्यक्ति इसमें रुचि लेता है पर कई कारणों वश भारत का नाम विश्व में चमक नहीं पाया।

पिछले कई वर्षों से क्रिकेट का आकर्षण लोगों पर ऐसा रहा है कि हर आयु वर्ग के लोग इसे खेलते और देखते रहे। अनेक जगह ऐसे प्रदर्शन मैच भी होते हैं जहां बड़ी आयु के लोग अपना खेल दिखाते हैं क्योंकि इसमें कम ऊर्जा से भी काम चल सकता है। कई जगह महिलाएं भी प्रदर्शन मैच खेलती रही हैं। मतलब इसका फिटनेस से अधिक संबंध नहीं माना जाता। वेसे भी अंग्रेज स्वयं ही इसे बहुत समय तक साहब लोगों का खेल मानते हैं और जहां उनका राज्य रहा है वहीं वह लोकप्रिय रहा है। यह अलग बात है कि प्रतियोगिता स्तर पर एकदम फिट होना जरूरी है पर भारतीय क्रिकेट टीम को देखें तो ऐसा लगता है कि सात खिलाड़ी चार बरस तक अनफिट हों तब भी टीम चल जाती है। भारत में शायद हाकी की जगह क्रिकेट को इसलिये ही बाजार में महत्व दिया गया कि कंपनियों के लिये माडलिंग करने वाले कुछ अनफिट खिलाड़ी भी अन्य खिलाडि़यों के सहारे अपना काम चला सकते हैं। हाकी,फुटबाल,व्हालीबाल,और बास्केटबाल भी टीम के खेल हैं पर उनमें दमखम लगता है। अधिक दमखम से खिलाड़ी अधिक से अधिक पांच बरस तक ही खेल सकता है, पर क्रिकेट में एसा कोई बंधन नहीं है। अब भारतीय क्रिकेट टीम की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। इसके बावजूद प्रचार माध्यम जबरन उसे खींचे जा रहे हैं।

अभिनव बिंद्रा ने व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता है। अपने आप में यह उनकी एतिहासिक जीत है। वह संभवत इस ओलंपिक के ऐसे स्वर्ण पदक विजेता होंगे जो लंबे समय तक अपने देश में सम्मान प्राप्त करेंगे। अन्य देशों के अनेक खिलाड़ी स्वर्ण पदक प्राप्त करेंगे तो उस देश के लोग किस किसका नाम याद रख पायेंगे आखिर सामान्य आदमी की स्मरण शक्ति की भी कोई सीमा होती है। सर्वाधिक बधाई प्राप्त करने वालों में भी उनका नाम शिखर पर होगा। उनकी इस उपलब्धि को व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। देश के अधिकतर खेलप्रेमी लोग केवल टीम वाले खेलों पर ही अधिक ध्यान देते हैं जबकि विश्व में तमाम तरह के खेल होते हैं जिनमें व्यक्तिगत कौशल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।
अभिनव बिंद्रा की इस उपलब्धि से देश में यह संदेश भी जायेगा कि व्यक्तिगत खेलों में भी आकर्षण है। अभी साइना बैटमिंटन में संघर्ष कर रही है। मुक्केबाज भी अभी मैदान संभाले हुए हैं। सभी चाहते हैं कि यह सभी जीत जायंे। ओलंपिक में जीत का मतलब केवल स्वर्ण पदक ही होता है। ओलंपिक ही क्या किसी भी विश्व स्तरीय मुकाबले में जीत का मतलब कप या स्वर्णपदक होता है। यह अलग बात है कि हमारे देश मेंे जिम्मेदारी लोग और प्रचार माध्यम देश को भरमाने के लिये दूसरे नंबर पर आयी टीम को भी सराहते हैंं। इसका कारण केवल उनकी व्यवसायिक मजबूरियां होती हैं। सानिया मिर्जा विश्व में महिला टेनिस की वरीयता सूची में प्रथम दस क्या पच्चीस में ं भी कभी शामिल नहीं हो पायी पर यहां के प्रचार माध्यम उसकी प्रशंसा करते हुए नहीं थकते। कम से कम अभिनव बिंद्रा ने सबकी आंखें खोली दी हैं। लोगों को यह समझ मेंं आ गया है कि किसी भी खेल में उसका सर्वोच्च शिखर ही छूना किसी खिलाड़ी की श्रेष्ठता का प्रमाण है।

भारतीय दल एशियाड,राष्ट्रमंडल या ओलंपिक मेें जाता है तो यहां के कुछ लोग कहते हैं कि ‘हमारा देश खेलने में विश्वास रखता है जीतने में नहीं। खेलना चाहिए हारे या जीतें।’
यह हास्यास्पद तक है। कुछ सामाजिक तथा आर्थिक विश्ेाषज्ञ किसी भी देश की प्रगति को उसकी खेल की उपलब्धियों के आधार पर ही आंकते हैं। जब तक भारत खेलों में नंबर एक पर नहीं आयेगा तब तक उसे कभी भी विश्व में आर्थिक या सामरिक रूप से नंबर एक का दर्जा नहीं मिल सकता। भारत में क्रिकेट लोकप्रिय है देश के अनेक लोग इसे गुलामी का प्रतीक मानते हैं। उनकी बात से पूरी तरह सहमत न भी हों पर इतना तय है कि अन्य खेलों में हमारे पास खिलाड़ी नहीं है और हैं तो उनको सुविधायें और प्रोत्साहन नहीं है। अभिनव बिंद्रा सच में असली इंडियन आइडियल है। अभी तक लोगों ने टीवी पर फिल्मी संगीत पर नाचते और गाते इंडियन आइडियल देखे थे उनको अभिनव की तरफ देख कर यह विचार करना चाहिए कि वह कोई नकली नहीं है। उन्होंने कोई कूल्हे मटकाते हुए कप नहीं जीता। ओलंपिक में स्वर्ण पदक हासिल करना कोई कम उपलब्धि नहीं होती। अपना अनुभव धीरज के साथ उपयोग करते हुए पूरे दमखम के साथ उन्होंने यह स्वर्ण पदक जीता है। वह भारत के अब तक के सबसे एतिहासिक खिलाड़ी हैं। अभी तक किसी भी भारतीय ने भी ऐसी व्यक्तिगत उपलब्धि प्राप्त नहीं की है। ध्यानचंद के नेतृत्व वाली हाकी टीम के बाद अब उनकी उपलब्धि ही एतिहासिक महत्व की है। जिस खेल में उन्होंने भाग लिया उसमें पूरे विश्व के खिलाड़ी खेलते हैं और वह क्रिकेट की तरह आठ देशों में नहीं खेला जाता। ऐसे अवसर पर अभिनव बिंद्रा को बधाई। वैसे उनका खेल निरंतर चर्चा में नही आता पर उनकी उपलब्धि हमेशा चर्चा में रहेगी।
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ब्लाग यानि अखबार और किताब-आलेख


अगर मुझसे कोई सवाल करता है कि अंतर्जाल पर क्या लिख रहे हो तो मेरा एक ही जवाब होता है कि‘ब्लाग पर लिखता हूं।’
फिर सवाल पूछा जाता है-‘ब्लाग यानि क्या?’
अब मेरे लिये बहुत मुश्किल होता है यह जवाब देना क्योंकि इसका कोई आधिकारिक हिंदी अनुवाद मेरे पास उपलब्ध नहीं है। तब मैं कहता हूं कि यह समझो कि‘जैसे अपनी समाचार पत्र या पत्रिका की तरह ही समझो।’
लोग आराम से मेरी बात समझ जाते हैं। हालांकि उनका अगला प्रश्न होता है कि-‘इसमें तुम्हें मिलता क्या है?’
तब मुझे बताना पड़ता है कि अभी ऐसी संभावना नहीं बनी है।’
उस दिन एक मित्र ने मुझसे कहा-‘यार, मेरी पत्नी एक स्कूल में टीचर है वहां निकलने वाली एक पत्रिका के लिये उसे एक निबंध चाहिये । कोई पुराना लिखा हो तो बता दो या फिर नया लिख दो।’
मैने उससे कहा-‘अलग से तो मैं कुछ लिखने से रहा पर अगर तुम मेरे घर आकर सभी ब्लाग देख लो और जो पसंद आ जाये तो उसे फ्लापी,सीडी, या पेन ड्राइव में ले जाओ।’
उसने कहा-‘ इंटरनेट तो उसी स्कूल में है तुम तो ब्लाग का पता दे दो।’

दो दिन बाद वह प्रिंट कर ले आया और बोला-‘यार, यह लेख मेरी पत्नी को पसंद आया पर इस पर थोड़ा कुछ और लिख दो मजा आ जाये। यह कुछ छोटा है।’

मैंने उस लेख को देखा और उस ब्लाग पर जाकर वहां से वह लेख ले आया और यूनिकोड से कृतिदेव में परिवर्तित कर विंडो में लाया और फिर उसमें जोड़कर उसे सीडी में दे दिया ताकि वह प्रिंट करा सके। चलते समय उसने कहा-‘यह ब्लाग तो वाकई काम की चीज है। यह एक अखबार की तरह भी है और किताब की तरह भी।
मैंने तुम्हारी कम से कम पांच लेखों की कापी निकलवाई थी और यह इसलिये ले आया कि इसमें संशोधन करा सकूं।’

यह बात आज से चार माह पुरानी है और मेरे से कई लोग कहते हैं कि अपनी रचनायें दो तो मैं उनसे कहता हूं कि तुम मेरे ब्लाग से उठा लो, पर कई लोग सुविधा होते हुए भी उसका लाभ नहीं उठा सकते। कारण यह है कि लोग यहां परंपरावादी हैंं। अभी भी लेखक को एक फालतू का आदमी समझा जाता है। ऐसा माना जाता है कि अगर वह मशहूर नहीं है तो किसी काम का नहीं है। अक्सर मैं सोचता था कि कोई प्रकाशक मिल जाये तो अपनी किताब छपवा लूं। मरे एक मित्र ने अपनी क्षणिकाओं की किताब छपवाई थी और वह चाहता था कि इस संबंध में वह किसी ई-पत्रिका से संपर्क कर इसे अंतर्जाल पर प्रचारित करे। उस समय मैंने नया कंप्यूटर केवल इस इरादे से लिया था कि उस पर आपन लेख टाईप करूंगा और बाहर का कोई काम आया तो उसे भी कर दूंगा। कंप्यूटर में सौ घंटे का इंटरनेट टाईम फ्री मिला। उससे पांच दस घंटे काम किया और वह फिर बंद हो गया। मेरे मित्र ने एक ई-पत्रिका का पता दिया और मैं उसे ढूंढने में लग गया पर वह नहीं मिली तो दूसरी हाथ लग गयी। उस पर लेख लिखा। उस समय सद्दाम को फांसी दी गयी थी और अंतर्जाल पर इस संबंध में मेरा आलेख वहां छपा। इधर यह विचार बना कि चलो अपना कनेक्शन लगा लेते हैंं।

ब्लाग पर काम करना शुरू किया तब पता लगी इसकी ताकत क्या है? आज एक जगह पढ़ा कि आस्+ट्रेलिया में टीवी चैनलों और अखबारों को इंटरनेट ने पीछे छोड़ दिया है। एक दिन यह यहां भी होना है। जैसे अंतर्जाल पर ब्लाग लेखन बढ़ता जायेगा वैसे पाठक भी इधर आयेगा। जैसे प्रिंटर मेरे पास है अगर उसकी स्याही सस्ती होती तो शायद मैं बहुत सारे प्रिंट निकालकर किताबें बांट चुका होता। यह प्रिंटर जितने का है उतने की तो स्याही है। एक तरह से मेरा प्रिंटर कबाड़ हो गया है।

समय बहुत बलवान है। जिस गति से पिछले दो सालों में जो बदलाव यहां मैने देखे हैं उससे लगता है कि वह समय भी आयेगा जब लोग ब्लाग को किताबों की तरह पढ़ेंगे। मुख्य समस्या यह है कि लेखक को क्या मिलेगा? हिंदी में मौलिक लेखकों के पाठों पर नजर सबकी है पर उनको कुछ मिले इसके लिये कोई प्रयासरत नहीं है। वैसे ही हिंदी लेखकों के साथ बहुत चालाकियां की जाती रहीं है और अंतर्जाल पर तो वह और भी अधिक होंगी इसमें संदेह नहीं है, पर यहां किसी से मनमानी से बचने का एक ही उपाय है कि अपने ब्लाग पर ही लिखते जायें। यहां किसी को आका बनाने की जरूरत नहीं है। जो मजा लेते हुए लिखेंगे वह कालांतर में बहुत नाम करेंगे। यह ब्लाग किताबों की तरह अंतर्जाल की लाइब्रेरी में बने रहेंगे। जब तक लिख रहे हैं तब तक अखबार की तरह लिखो।

लिखने के बारे में त्वरित टिप्पणियां का मोह त्यागे बिना अंतर्जाल पर बेहतर लिखना कठिन है। त्वरित टिप्पणियों से प्रेरणा मिलती है यह ठीक है पर उसमें मोह पालना अपने लेखन के लिए विष है तब केवल ब्लाग लेखकों को प्रसन्न करने के लिये ही लिखने का मन करता है और वह आम पाठकों के लिये किसी मतलब का नहीं रह जाता। कुल मिलाकर हिंदी ब्लाग जगत में अभी आम ब्लाग लेखक को आय अर्जित करने में समय लगेगा क्योंकि अभी किसी ने इतनी ख्याति अर्जित नहीं की है जिसे विज्ञापनदाता विज्ञापन दें। अभी तो जो लोग कमा रहे हैं उनके बारे में क्या लिखना?
वह सभी तो डोमेन लिये बैठे हैं ओर उनके लिये ब्लाग लेखक एक सहायक से अधिक नहीं है पर वह समय आयेगा जब ब्लाग लेखक कहीं लिंक करने के लिये भी पैसे मांगेंगे। शायद यही कारण है कि आम ब्लाग लेखकों को भटकाने की भी कोशिशें हो रहीं हैं। हमारे यहां लिख और दिख। कुछ लोगों को सम्मान आदि भी मिलेंगे पर जिनको अंतर्जाल पर प्रसिद्ध प्राप्त करना है उन्हें केवल अपने ब्लाग पर ही बने रहना बेहतर होगा क्योंकि यह अखबार भी है और किताब भी। उन्हें बेगारी से भी बचना होगा। यहां की चालाकियों पर शेष फिर कभी!

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ब्लागवाणी जैसे हिट किसी के लिये भी सपना-आलेख


ब्लागवानी के लोग सही कहते हैं कि वह लोग शौकिया हैं पर उनको नहीं मालुम वह कई व्यवसायिक लोगों के लिये चुनौती बने हुए हैंं। इस समय हिंदी ब्लाग जगत में चार हिंदी फोरम ऐसे हैं जो सभी हिंदी ब्लाग को अपनी जगह दिखाते हैं। ब्लाग वाणी के अलावा तीन अन्य हैं-नारद, चिट्ठाजगत, और हिंदी ब्लागस। अधिकतर हिंदी ब्लाग लेखक लिख तो पूरी दुनिया के रहे हैं पर उनकी दुनिया इन चार के आपपास ही सिमटी हुई है। इनमें ब्लागवाणी सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। अधिकतर हिंदी ब्लाग लेखक उस पर आकर ही दूसरे के ब्लाग को पढ़ना और उन पर टिप्पणियां लिखना पसंद करते हैं।

ब्लागवाणी के जन्म की एक कहानी है पर उसके बाद जो बदलाव हिंदी ब्लाग जगत में आये हैं उस पर अनेक लोगों की हिंदी ब्लाग जगत में दिलचस्पी जागी। वैसे हिंदी में ब्लाग लेखक की शुरुआत ऐसे लोगों ने की जो व्यवसायिक थे या फिर इसमें आगे व्यवसाय की संभावनाएं तलाश रहे थे। उनके साथ ऐसे लोगों का समूह भी जुड़ा जो पूरी तरह शौकिया था। ब्लाग वाणी के कर्णधार भले ही विनम्रता के कारण अपने आपको कर्णधार कहलाने की वजह कार्यकर्ता कहलाना चाहते हैं पर वह अनेक वेबसाईट और अपने स्वाजातीय फोरमों के कर्णधारों के लिये चुनौती है। ब्लागवाणी के कर्णधार विशुद्ध रूप से शौकिया है कम से कम यह बात हम मान सकते हैं क्योंकि वह किसी बदलाव से विचलित नहीं होते। उनको किसी एग्रगेटर या वेबसाइट का अभ्युदय विचलित नहीं करता पर ब्लागवाणी का आकर्षण कई लोगों के लिये ईष्र्या का विषय हो सकता है।

हिंदी में अन्य एग्रीगेटर और वेबसाईटें ब्लागवाणी की चुनौती का सामना करने के लिये तमाम उपाय कर रहीं हैं। यहां उनमें से किसी का नाम लेना ठीक नहीं है क्योंकि हर किसी को व्यवसाय करने का अधिकार है। मुद्दा यह है कि हिंदी में बरसों से चली आ रही परंपराओं के आधार लेखकों को मजदूर या मुफ्त का समझना है। हिंदी में लिखने वाले बहुत हैं पर जिसे रचना कहा जाता है उसकी कसौटी पर कितने खरे उतरते हैं-यह एक अलग विषय है। कई वेबसाईटें अपने यहा लिखने के लिये इनाम आदि देने की बात करती हैं तो कोई इशारों में सम्मान आदि देने की बात भी करती हैंं। दरअसल उन वेबसाईटों के कर्णधारों का मुख्य उदद्ेश्य अपने आपको प्रचारित करना है। लिखे लेखक और वह उसे छापकर संपादक या हिंदी भाषा के अंतर्जाल पर अभ्युदय करने वाले श्रेष्ठ व्यक्ति कहलाना चाहते हैं। इनमें कुछ लेखक भी हैं पर निरंतर लिखने के लिये उनके पास अवसर नहीं हैं पर नाम निरंतर चर्चा में बनाये रखने के लिये वह ऐसे प्रयास कर रहे हैं जिन पर सोचना पड़ता है।

ब्लागवाणी के कर्णधारों को अपने फोरम में कोई ऐसा बदलाव नहीं करना चाहिए जिससे ब्लागलेखक उनसे दूर जायें। उन्हें किसी दूसरी वेबसाईट की नकल भी नहीं करना चाहिए और अगर करते हैं तो उन्हें यह देखना चाहिए कि कहीं वह उनको ब्लाग लेखकों से दूर तो नहीं ले जायेगा। आज यह लेख लिखते समय इसके लेखक का ध्यान उनकी चिप्पियों की तरफ गया। वहां उसके ब्लाग से संबंधित कुछ भी नहीं था। चाणक्य, कबीर, रहीम, अध्यात्म तथा अन्य कई चिप्पियां गायब हैं। स्पष्टतः यह दूसरी वेबसाईटों से प्रेरित होकर किया लगता है यही कारण है कि अपनी श्रेणियों, लेबल और टैगों से आने वाले पाठकों के आने के मार्ग देखने पर पता चलता है कि तो वहां ब्लागवाणी का अस्तित्व नहीं दिखता जबकि उसका एक प्रतिद्वंद्वी फोरम सभी जगह दिखता है। यह लेखक कोई शिकायत नहीं करता क्योंकि इस अंतर्जाल पर किसी भी लेखक के शब्द ही अपने ब्लाग पर पाठको को लाने में सक्षम है। बाकी वेबसाईटें या तो अपने प्रिय ब्लाग लेखकों की चिप्पियां लगाये हुए हैं या फिर वह स्वयं ही उनके मालिक भी है। अगर ब्लागवाणी उनकी नकल कर रहा है तो वह गलती करने जा रहा है। यह उनकी अपनी मर्जी है पर लेखक का अपना यह एक विचार है। इस लेखक को तकनीकी ज्ञान नहीं है पर जो दिखता है उसे इसी सरल भाषा में लिखना जरूरी है। खासतौर से ब्लागवाणी के कर्णधार भी जब उसकी श्रेणी के उपेक्षित लेखकों की जमात से हो तब तो और भी जरूरी हो जाता है।
अनेक हिंदी वेबसाईटों के लिये ब्लागवाणी जितने पाठक पाना अभी भी एक ख्वाब हैं। यह अंतर्जाल है जहां अंतरिक्ष और हवा तक शब्दों घूम रहे हैं यहां जमीन पर चलने वाली पूंजीवादी और सामंतशाही के सहारे हिंदी में प्रसिद्धि पाना एक ख्वाब है। अंतर्जाल पर घूमने वाले टीवी चैनलों और अखबार के आधार पर ही यहां खोज करें यह जरूरी नहीं है। यही कारण है कि ऐसी मानसिकता वाले कुछ लोग ब्लागवाणी जैसा बनना चाहते हैं।

नारद फोरम की पुरानी साख है और वह परिदृश्य में अधिक नहीं होने के बावजूद लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है। हिंदी ब्लाग्स भी अपनी छबि धीरे धीरे बना रहा है पर चिट्ठाजगत इस समय जमकर प्रयोग कर रहा है। ब्लागवाणी को ऐसे प्रयोगों से बचना चाहिए क्योंकि वह हिंदी ब्लाग जगत पर जितनी चमक बनाये हुए है उसे फिलहाल कोई चुनौती नहीं है। कई चमकदार चेहरे अपने लेखन और व्यवसायिक कौशल से वैसी ही स्थिति प्राप्त करना चाहते हैं जो उसके कर्णधारों को बड़ी सहजता से ही मिल गयी। ब्लाग वाणी के कर्णधार पहले पंगों और धुरविरोध के लिये जाने जाते थे। उनमें जोश और लिखने के प्रति निष्काम भाव था जो उन्हें ऐसी स्थिति मिल गयी। ब्लोगवाणी इस लेखक के उस पाठ को नहीं भूले होंगे जिसमे सभी ब्लाग लेखकों से समस्त फोरमों पर जाने का आग्रह किया गया था और उसके बाद ब्लागवाणी तेजी ने नारद पर हावी हो गया। नारद के कर्णधारों ने एक योजना के तहत ही उसे शुरू किया पर ब्लागवाणी के कर्णधारों ने तो केवल उसे चुनौती देने के लिये ही यह फोरम बनाया।

ब्लागवाणी दूसरे फोरमों या वेबसाईटों की नकल करे इसके लिये अन्य बेवसाईटें बहुत प्रयास कर रही हैं- इनामों की घोषणा और हिंदी का एक मात्र मसीहा बनने की होड़ लगी हुई है। कहीं फिल्म के कार्यक्रम जोड़े जा रहे हैं तो कहीं इनाम आदि की घोषणा की जा रही है। कहीं लिखना सिखाया जा रहा है। कहीं ब्लाग लेखकों द्वारा लिखे जा रहे विषयों पर उंगलियां उठाई जा रही है। यह सब प्रयास प्रयास ब्लागवाणी को पथ से विचलित करने के लिए है।
फोरमों से अलग वेबसाईटें अभी हिंदी ब्लाग को इस तरह दिखाती हैं जैसे वह कोई हल्की विधा हो पर आने वाले समय में यह सभी छांटछांटकर ब्लाग अपने यहां दिखायेंगी यह इस लेखक का दावा है। अभी पुरानी किताबों से पुराने लेखकों की रचनायें छापकर लोग अपना काम चला रहे हैं पर नये लोगों को चाहिए नये संदर्भों के नयी रचनायें और आम ब्लाग लेखकों के अलावा यह कोई और नहीं कर सकता। ऐसे अनेक ब्लाग लेखक हैं जो स्तरीय लिख रहे हैं। अंतर्जाल पर संक्षिप्तता का महत्व है और यहां गागर में सागर भरने वाले ही हिंदी में पुराने लेखकों से भी अधिक नाम कर सकते हैं।
ब्लाग लेखकों को दोयम दर्जे का कहने वालों पर आप हंस सकते हैं क्योंकि उनके लिखों में वैसे ही पूर्वाग्रह हैं जो हम हिंदी में बरसों से देखते आ रहे हैं। अंतर्जाल पर हिंदी को ले जायेंगे तो यही केवल http:// वाले ब्लागर ही न कि www वाले। www लेने के बाद लोग लिखना ही भूल जाते हैं केवल यही प्रयास करते हैं कि उनके विज्ञापन पर अधिक क्लिक हो। सभी वेबसाईटें अपनी चिप्पियों में इस ब्लाग लेखक की श्रेणियों, लेबलों और टैगों से दूरी बनाये हुए हैं और यह सोच समझकर किया गया है। फोरमों के बारे में तो मुझे कुछ नहीं कहता पर बाकी वेबवाईटें अगर इस ब्लाग लेखक को इतना हेय समझती हैं तो क्यों फिर उसके ब्लाग लिंक किये बैठी हैं। बहरहाल ब्लाग लेखकों को लिखने के लिये प्रेरित किया जा रहा है पर न तो उनको नाम देना चाहता है कोई और नहीं सम्मान। ब्लाग लेखकों को यह समझना चाहिए कि उनको अपना लिखा ही शिखर पर पहुंचा सकता है। ब्लागवाणी के कर्णधारों के बारे में मेरी राय यही है कि वह आम ब्लाग लेखकों की मानसिकता वाले हैं और इस वास्तविकता का उन्हों समझ लेना चाहिए। वैसे वह भी जमीन पर पूंजीवादी, सामंतवादी और रूढि़वादी लोगों से उपेक्षित लेखक हैं और वह दूसरों के कहने में आकर बहकेंगे नहीं यह कहा जा सकता है पर सजी सजाई वेबसाईटें देखकर उनके मन में विचार आते ही होंगे तक उन्हें यह सोचना चाहिए कि उन जितने पाठक अभी किसी के पास भी नहीं है। अगर बहके तो वह लोकप्रियता के उस शिखर से गिरेंगे जिसकी कल्पना ही उनके प्रतिद्वंद्वी करते है। ब्लाग लेखकों को तो चारों फोरमों के प्रति एक जैसा रवैया अपनाना चाहिए पर अन्य वेबसाईटों के प्रचार पर बहुत सोच समझ कर विचार करना भी आवश्यक है कि क्या वह वास्तव में ब्लाग लेखकों का सम्मान करती हैं कि नहीं। यहां उन्हें किसी का मोहताज नहीं होना चाहिए। यह अंतर्जाल एक खुला मैदान हैं जहां केवल लेखकों के शब्द ही पाठक जुटा सकते है। इसलिये अपने ब्लाग पर ही लिखते रहें। कितने लोगों ने आज तक पढ़ा यह मत सोचें आगे कितने पढ़ने वाले हैं इस पर विचार करें। ब्लागवाणी नहीं कई ब्लाग लेखक भी इन वेबसाईटों के लिये चुनौती बने हुए हैं हालांकि यह लेखक ब्लागवाणी पर फ्लाप ब्लागर है पर यह इसी कारण कि इधर उधर घूमते हुए ऐसी चीजे उसकी नजर में आती है जिससे लगता है ब्लागवाणी जैसे हिट किसी के लिये भी अभी तक सपना है। ब्लागवाणी के कर्णधार (उनके अनुसार कार्यकर्ता) कभी दूसरी वेबसाईटों को देखकर यह न सोचें कि उनकी चमक हमसे अधिक कैसे? उनके पास पाठक नहीं है और न वह आम ब्लाग लेखकों को महत्व देती है।

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अपनी कविताओं से दूसरों के ईमेल कूड़ेदान की तरह नहीं सजाते-हास्य कविता


दनदनाता आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, आज मिल गया
तुम्हारे हिट होने का मंतर
अपने फ्लाप होने का दर्द भूल जाओ
अपने ब्लाग लिखकर दूसरों के ईमेल में
जबरन भिजवाओ
हर कोई एक उड़ाने से पहले एक बार
जरूर देखेगा
इस तरह अपना हिट भेजेगा
चलो आज से जमकर लिखो कविता
और हिट की सीढि़या चढ़ जाओ’

सुनते ही उठ खड़े हुए और
चिल्लाते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
‘निकल यहां से जल्दी
वरना देख इन जबरन घुसे ईमेल संदेशों की तरह
तुम्हारा नाम भी दोस्तों की लिस्ट से उड़+ा देंगे
क्या समझ रखा है कि
जिस बात से स्वयं परेशान है
वह व्यवहार दूसरे से करेंगे
कमबख्त, जवां दिलों को पटाने के लिये
यह कविताएं नहीं शायरों का नुस्खा है
जैसे उनके लिये तंबाकू का गुटका है
न दिमाग की सोच से इसका वास्ता
न दिल की तरफ जाता शब्दों का रास्ता
यह शब्द भोजन की तरह हैं
आदमी स्वयं दाना खाकर पेट भरता
मछली को खिलाकर फांसता
इन शब्दों में भाव कम
किसी को बहलाने और हिट होने का
ताव है ज्यादा
अपने लेखक और कवि होने का भ्रम
उसे सच बनाने का है इरादा
कविता ऐसे लिखी है जैसे लिखना हो नाश्ता
साहित्य में बहुत जल्दी हिट होने का
साजिश से निकाल रहे है रास्ता
असली लिखने वाले कभी
पाठकों के दरवाजे नहीं बजाते
ईमेल को कूड़ेदान की तरह नहीं सजाते
लिखा जाये दिन और दिमाग से
तो लेखक और कवि लिखने का ही
सुख बहुत उठा लेते
कोई पढ़े या नहीं इस चिंता से मूंह फेर लेते
भेज रहे हैं जो जबरन कवितायें
दूसरों के गुलदस्ते को कूड़ेदान की तरह सजायें
हम फ्लाप है फिर को परवाह नहीं
हिट होने का ऐसा मोह नहीं कि
दूसरों के सामने हिट के लिये भीख मांगें
हर लिखे गये शब्द कविता या कहानी नहीं हो जाते
जब तक पढ़ने वाले उसे हृदय से नहीं अपनाते
अरे, फैंक रहे हैं जो
कूड़ें की तरह अपनी रचनायें
भला वह कहां सम्मान पायें
पल भर में ईमेल से उड़ा दी जायें
अपनी पत्रिका ही है वह किला
जहां रचना चमकते रहे शब्द सोने की तरह
पढ़े जो वह सम्मान दें
जो न पढ़ें, वह नहीं करते गिला
किसी दूसरे के आगे जाकर
उनको क्या मिलेगा
जब आदमी को प्यार नहीं मिला
तुम निकल लो यहां से
साथ में अपना मंतर भी ले जाओ
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एक ब्लाग गायब हुआ तो दूसरा प्रकट हो गया-आलेख


अपने साफ्टवेयर की सहायता से वर्डप्रेस की पांच श्रेणियों को अपने यहां खिसकाकर ले जाने वाला ब्लाग परिदृश्य गायब हुआ तो दूसरा छठी श्रेणी से यही काम करते हुए प्रकट हो गया। 20 जुलाई को उसने इस लेखक के ब्लाग की एक पोस्ट ली है और उससे पहले और बाद में कोई पोस्ट नहीं ली। इस तरह का जो पहला ब्लाग था उसकी जानकारी एक सप्ताह पहले ही आयी थी और उस पर कुछ पाठ इसी ब्लाग पर लिखे गये थे। अब यह पता नहीं कि यह ब्लाग उसी विवाद के दौरान जानकारी के अभाव में बना या चूंकि इस ब्लाग से उस पर प्रहार हुए तो प्रतिकार स्वरूप उसने यह ब्लाग बनाया है। यह कोई एक व्यक्ति कर रहा है या कोई समूह है कहना मुश्किल है। यह कहना मुश्किल है कि इस ब्लाग पर लिखे गये पाठ उनकी दृष्टि में आ रहे हैं कि नहीं क्योंकि वह अपने यहां अनेक ब्लाग खींच लेते हैं और यह संभव नहीं है कि वह सभी पढ़ते हों। बहरहाल यह चालाकियों से भरा काम है और इसका मुकाबला चालाकी से ही किया जा सकता है। वह नाम छिपाना चाहते हैं तो हम अपने पाठों पर अपना नाम इस तरह दें कि उनके पाठक यह जान सकें कि उस पाठ को किसने लिखा है।

अंतर्जाल पर वैसे कोई बात तो पूरी तरह कह पाना मुश्किल है पर ऐसा लगता है कि लोगों के पास डोमेन की खरीद के कारण स्पेस हैं पर उनका उपयोग करने के लिये उनके पास कोई योजना नहीं है। वह नाम और नामा तो कमाना चाहते हैं पर इसके लिये जो प्रयास किये जाने की आवश्यकता है वह उनके बूते का नहीं है। अधिकतर वेबसाइट उतावली में बना लीं गयी कि हम कुछ करेंगे! पर क्या? इसकी कोई योजना नहीं है। डोमेन बेचने वालों की हालत के बारे में इन्हीं ब्लाग पर पढ़ा कि उनके व्यवसाय को वह ऊंचाई नहीं मिली जिसकी वह आशा कर रहे थे। ऐसे में हो सकता है कि जिनके पास डोमेन फालतू पड़े हों वह स्पेस भरकर यह प्रयास कर रहे हों कि शायद इससे कुछ बात बन जाये। कहने का मतलब यही है कि स्पेस भरने के लिये उन्हें कुछ चाहिए। फोटो और विडियो से भी कौन और कब तक काम चलायेगा? शब्द पढ़ने का अलग ही मजा है और अब उन्हें चाहिए शब्द! ऐसे में उनके पास इस दुनियां में अनेक भाषाओं को ब्लाग लेखक हैं जो अपनी अभिव्यक्ति और अनुभूतियों के साथ यहां मौजूद हैं। अपने हाथों को कंप्यूटर पर नचाते हुए अपना पसीना निकालकर शब्दों की रचना कर रहे हैं। उनसे अपने ब्लाग को साफ्टवेयर से सजाने में उनको भला क्या परेशानी?

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ऐसे साफ्टवेयर बनाये गये हैं जिसमें लेखक का नाम अगर पाठ में नहीं हो तो पाठक को दिखाई नहीं देगा। इसलिये वह उस ब्लाग की संपत्ति बन जाता है जिस पर वह दिखाई दे रहा है। शब्दों के रचयिता मजदूर भला कहां देखने जाते हैं कि उनका उपयोग कैसा कर रहा है? वह तो अपने ब्लाग पर ही पाठकों की आमद देखकर यही सोचते हैं कि उनके ब्लाग पर ही आमद हो रही है। जब यहां ऐसे कारिस्तानी करने वाले ब्लागर है तो कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसी चालाकियों की जानकारी संबंधित ब्लाग लेखकों तक पहुंचा कर अपने मजे लेते हैं। आशय यह हैकि यहां केवल लेखक होने से ही काम नहीं चलने वाला बल्कि अपने साथ ऐसे मित्र भी रखना जरूरी हैं कि जो अंतर्जाल पर अपने ब्लाग की देखरेख करते रहें।

कुल मिलाकर अब कहीं शिकायत लेकर जाने का विचार करना बेकार लगता है क्योंकि यह एक व्यवसायिक चालाकी है और उसका प्रतिकार किया जा सकता है। अभी कौनसा पैसा मिल रहा है बस नाम की एक ललक है और अगर कहीं पाठक ब्लाग का पाठ पढ़ते हुए लेखक का नाम पढ़ सकता है तो फिर विवाद में अपना समय नष्ट करने से कोई फायदा नहीं है। अपने कुछ तकनीकी ब्लागरों की राय अनुसार अपने ही ब्लाग पर अपनी पहचान लिखते जाना ही एक ठीक उपाय है । हर पाठ में अपने ब्लाग का नाम लिख कर लिंक लगाकर प्रदर्शित करना अच्छा उपाय है। यह लिंक ऐसे ही है जैसे अपनी पूंछ की कुर्सी बनाकर बैठना। जहां यह पाठ चालाकी से जायेगा वहां यही लिंक हमारे ब्लाग से उसको भी लिंक कर बताता है कि यह पाठ उस ब्लाग पर लिंक हुआ पड़ा है। अभी चालाक ब्लागरों की नजर में यह बात शायद नहीं आयी। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि यह काम कट पेस्ट कर नहीं किया गया क्योंकि उनके द्वारा ब्लाग को देखने की जानकारी कहीं नहीं मिल रही। अगर ऐसे ब्लाग लेखकों ने उसे मिटाने का प्रयास किया तो हर पैराग्राफ के नीचे अपनी पहचान लिखी जाये ताकि वह वह हम लोगों के ब्लाग के पाठ उठाने में कुछ मेहनत करें। वैसे वह लोग इतनी मेहनत करेंगे इसकी संभावना कम ही है।