Tag Archives: साहित्य

बंटवारा-हास्य व्यंग्य कवितायें


<b>पहले जाति में बांटा
भाषा में छांटा
और धर्म में काटा
फिर समाज में एकता की कोशिश
अमन के ठेकेदार करने लगे।
नारी की तरक्की देखकर
हक के नाम पर लड़ाने के लिये
उसे भी अब बांटने, छांटने तथा काटने  के लिये जगे।
……………………………….
क्या पता नारियां आगे बढ़कर
कहीं दुनियां में एकता न स्थापित कर दें
इस खौफ से
जमाने की फूट पर रोटियां सैंकने वाले
कंपने लगे हैं।
इसलिये ही जाति, भाषा और धर्म के
अलग अलग खंडों में नारियों को भी बांटने लगे हैं।
————-
मां है
बहिन है
पत्नी है
और बेटी है
नारी हर रिश्ता ईमानदारी से निभाती है।
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
लड़ने वाले पुरुषों की जननी जरूर है
पर फिर भी अपनी निर्मलता पर नहीं उसे गरुर है
इज्जत के अहंकार में लड़ने वाले  पुरुष
जब उसके  हकों में पुराने जमाने के तर्क देने लगे
समझ लो उन्हें स्त्री सत्ता की आशंकायें सताती हैं।
—————-
जमाना बदल रहा है
महिलाओं के हकों के लिये
पुरुष भी लड़ने लगे हैं।
इसे चालाकी कहें या सादगी कि
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
महिलाओं को आगे लाने की बात कर
अपने समूहों के भले का नारा देने वाले ठेकेदार
अपनी रोटी सैंकने के लिये भी तत्काल जगे हैं। </b>
———
<b>लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com</b&gt;
————————————-
<blockquote>
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युद्ध और सत्संग-व्यंग्य कविता



धर्म के लिए अब नहीं होता सत्संग
हर कोई लड़ रहा है, उसके नाम पर जंग.
किताबों के शब्द का सच
अब तलवार से बयान किया जाता
तय किये जाते हैं अब धार्मिक रंग.

एक ढूँढता दूसरे के किताब के दोष
ताकि बढ़ा सके वह ज़माने का रोष
दूसरा दिखाता पहले की किताब में
अतार्किक शब्दों का भंडार
जमाने के लिए अपना धर्म व्यापार
बयानों का है अपना अपना ढंग..

धर्म का मर्म कौन जानना चाहता है
जो किताबें पढ़कर उसे समझा जाए
पर उसके बिना भी नहीं जमता विद्वता का रंग,
इसलिए सभी ने गढ़ ली अपनी परिभाषाएं,
पहले बढ़ाते लोगों की अव्यक्त अभिलाषाएं,
फिर उपदेश बेचकर लाभ कमाएं,
इंसान चाहे कितने भी पत्थर जुटा ले
लोहे और लकडी के सामान भी
उसका पेट भर सकते हैं
पर मन में अव्यक्त भाव कहीं
व्यक्त होने के लिए तड़पता हैं
जिसका धर्म के साथ बड़ी सहजता से होता संग.
सब चीजों के तरह उसके भी सौदागर हैं
अव्यक्त को व्यक्त करने का आता जिनको ढंग..
कहीं वह कराते सत्संग
कहीं कराते जंग..
———————————-

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
————————————-

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अपनों से अजनबी हो जाओ-हिंदी शायरी (hindi poem)


हमने छोड़ दिया यकीन करना
धोखे की बचने को यही रास्ता मिला
उधार तो अब भी देते हैं
वापसी पर नहीं होता किसी से गिला.
———————-
दोस्ती में धोखे होते हैं
फिर क्यों रोते हैं.
अपनी हकीकत अपने से न छिपा सके
दोस्त को बाँट दी
हो गए बदनाम तो फिर क्यों रोते हैं.
————————–
गैरों में अपनापन क्यों तलाशते हो
अपनों से अजनबी होकर.
वो गैर भी किसी के अपने हैं
जो आये हैं कहीं से अजनबी होकर.
रिश्ते भूल गया है निभाना
पूरा ही ज़माना
उम्मीद तो करते हैं सभी
एक दूसरे से वफ़ा की
फिर भी मारते हैं ठोकर
भले ही अपनों से अजनबी हो जाओ
पर फिर भी गैर से न उम्मीद करना
उसके लिए भी रहना अजनबी होकर.

——————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

जज्बात की पतली धारा-व्यंग्य कविता


पड़ौसन ने कहा उस औरत से
‘तुम्हारा आदमी रात को रोज
शराब पीकर आता है
पर तुम कुछ नहीं कहती
वह आराम से सो जाता है
अरे, उससे कुछ कहा कर
ताकि चार लोग सुन सकें
तो वह सुधर जायेगा
इज्जत खराब होने के डर से
वह शराब पीना भूल जायेगा’

औरत से जवाब दिया
‘जानती हूं, तुम तमाशा देखना चाहती हो
इसलिये उकसाती हो
जब रात को वह पीकर आता है
तो मैं कुछ नहीं कहती
क्योंकि शराबी को अपने मान अपमान की
परवाह नहीं होती
पहले किराये के मकान में
रोज तमाशा होता था
सभी इसका समर्थन करते थे
जब यह मुझसे पिटकर रोता था
अपना इसलिये अब सुबह गुस्सा सुबह उठकर
इसकी पिटाई लगाती हूंं
दिन के उजाले में आवाज नहीं आती
इसलिये तुमको भी नहीं बताती
सुबह इसे अपने अपमान का
इसे कई बार भय सताता है
इसलिये कई बार बिना पिये घर आता है
अगर रात को मचाऊं कोहराम
जमाने भर में हीरो के रूप में हो जायेगा इसका नाम
पिटा हुआ शराबी भी क्यों न हो
जमाने भर को उस पर तरस आता है
क्यों करूं अपना खराब नाम
जमाना तो जज्बात की पतली धारा में ही बह जाता है
………………………………

ब्लाग पर त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाने वालों का आभार


कुछ ब्लोगों में शब्द और वर्तनी की गलतिया आ जाती हैं. मैं खुद कई गलतियां कर जाता हूँ, यह स्वीकार करते हुए कोई शर्म नहीं है कि यह गलतिया मेरी लापरवाही से होतीं हैं. जो लोग मेरा इनकी तरफ आकर्षित कराते हैं उनका आभारी हूं. वैसे कई ब्लोगर अनजाने में यह गलतियां कर जाते हैं और जल्दबाजी में उनको ठीक करना भूल जाते हैं.

इन गलतियों के पीछे केवल एक ही कारण है कि हम जब इसे टंकित कर रहे हैं तो अंग्रेजी की बोर्ड का इस्तेमाल करते हैं. दूसरा यह कि कई शब्द ऐसे हैं जो बाद में बेक स्पेस से वापस आने पर सही होते हैं, और कई शब्द तो ऐसे हैं जो दो मिलाकर एक करने पड़ते हैं. ki से की भी आता है और कि भी. kam से काम भी आता है कम भी. एक बार शब्द का चयन करने के बाद दुबारा सही नहीं करना पड़ता है पर गूगल के हिन्दी टूल का अभ्यस्त होने के कारण कई बार इस तरफ ध्यान नहीं जाता और कुछ गलतिया अनजाने में चली जाती हैं. वैसे तो मैं कृतिदेव से करने का आदी हूँ और यह टूल इस्तेमाल करने में मुझे बहुत परेशानी है, पर मेरे पास फिलहाल इसके अलावा कोई चारा नहीं है. वैसे मैं अंतरजाल पर लिखने से पहले अपनी रचनाएं सीधी कंप्यूटर पर कृतिदेव में टायप करता था और हिन्दी टूल से अब भी यही करता हूँ और मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपने मूल स्वरूप के अनुरूप नहीं लिख पाता. ऐसा तभी होगा जब मैं हाथ से लिखकर यहाँ टाइप करूंगा. अभी यहाँ बड़ी रचनाएं लिखने का माहौल नहीं बन पाया है और जब हाथ से लिखूंगा तो बड़ी हो जायेंगी. इसलिए अभी जो तात्कालिक रूप से विचार आता है उसे तत्काल यहाँ लिखने लगता हूँ, उसके बाद पढ़ने पर जो गलती सामने आती है उसको सही करता हूँ फिर भी कुछ छूट जातीं हैं.

चूंकि अंग्रेजी की बोर्ड का टाईप सभी कर रहे हैं इसलिए गलती हो जाना स्वाभाविक है पर इसे मुद्दा बनाना ठीक नहीं है और अगर सब कमेन्ट लिखते समय एक दूसरे इस तरफ ध्यान दिलाएं तो अच्छी बात है-क्योंकि जब कोई रचना या पोस्ट चौपाल पर होती है तो उसका ठीक हो जाना अच्छी बात है, अन्य पाठकों के पास तो बाद में पहुँचती है और तब तक यही ठीक हो जाये तो अच्छी बात है. वैसे कुछ लिखने वाले वाकई कोई गलती नहीं करते पर कुछ हैं जिनसे गलतियां हो जातीं हैं. हाँ इस गलती आकर्षित करने पर किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए. अब बुध्दी हो या बुद्धि हम समझ सकते हैं कि कोई जानबूझकर गलती नहीं करता. इस पर किसी का मजाक नहीं बनाना चाहिऐ. मैंने बडे-बडे अख़बारों में ऐसी गलतियां देखीं हैं.

इस मामले में मैं उन लोगों का आभारी हूँ जिन्होंने मेरा ध्यान इस तरफ दिलाया है, और अब तय किया है कि अपने लिखे को कम से कम दो बार पढा करूंगा. इसके बावजूद कोई रह जाती है तो उसका ध्यान आकर्षित करने वालों का आभार व्यक्त करते हुए ठीक कर दूंगा.

चाणक्य नीति:असंयमित जीवन से व्यक्ति अल्पायु


1.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

2.जो सुख चाहते है वह विद्या छोड़ दें। जो विद्या चाहते हैं वह सुख छोड़ दें। सुखार्थी को ज्ञान और ज्ञानार्थी को सुख कहाँ मिलता है। बिना सोचे-समझे खर्च करने वाला, अनाथ, झगडा करने वाला तथा असंयमित जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति अल्पायु होते हैं।धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या संग्रह में और वाद-विवाद में जो निर्लज्ज होता है, वही सुखी होता है।

3.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

काहेका भला आदमी!


वह सुबह जाने की लिए घर से निकले, तो कालोनी में रहने वाले एक सज्जन उनके पास आ गए और बोले-”मेरी बेटी कालिज में एडमिशन लेना चाहती है उसे कालेज में प्रवेश का लिए फार्म चाहिये. आपका उस रास्ते से रोज का आना-जाना है. आप तो भले आदमी हैं इसलिए आपसे अनुरोध है कि वहाँ से उसका फार्म ले आयें तो बहुत कृपा होगी.”

वह बोले-”इसमें कृपा की क्या बात है? आपकी बेटी तो मेरी भी तो बेटी है. मैं कालिज से उसका फार्म ले आऊँगा.”

समय मिलने पर वह उस कालिज गए तो वहाँ फार्म के लिए लाइन लगी थी. वह फार्म लेने के लिए उस लाइन में लगे और एक घंटे बाद उनको फार्म मिल पाया. वह बहुत प्रसन्न हुए और घर आकर अपना स्कूटर बाहर खडा ही रखा और फिर थोडा पैदल चलकर उन सज्जन के घर गए और बाहर से आवाज दी वह बैठक से बाहर आये तो उन्होने उनका फार्म देते हुए कहा-“लीजिये फार्म”
सज्जन बोले-“अन्दर तो आईये. चाय-पानी तो लीजिये.”
वह बोले-“नहीं, मैं जल्दी में हूँ. बिलकुल अभी आया हूँ. फिर कभी आऊँगा.”

सज्जन फार्म लेकर अन्दर चले गए और यह अपनी घर की तरफ. अचानक उन्हें याद आया कि’फार्म भरने की आखरी तारीख परसों है यह बताना भूल गए’.
वह तुरंत लौट गए तो अन्दर से उन्होने सुना कोई कह रहा था-‘आदमी तो भला है तभी तो फार्म ले आया .’
फिर उन्होने उन सज्जन को यह कहते हुए सुना-”कहेका भला आदमी है. फार्म ले आया तो कौनसी बड़ी बात है. नहीं ले आता तो मैं क्या खुद ही ले आता. जरा सा फार्म ले आने पर क्या कोई भला आदमी हो जाता है.”
वह हतप्रभ रह गए और सोचने लगे-‘क्या यह सज्जन अगर कह देते कि भला आदमी है तो क्या बिगड़ जाता. सुबह खुद ही तो कह रहा था कि आप भले आदमी हो.’

फिर मुस्कराते हुए उन सज्जन को आवाज दी तो वह बाहर आये उनके साथ दूसरे सज्जन भी थे. वह बोले-”मैं आपको बताना भूल गया था कि फार्म भरने की परसों अन्तिम तारीख है.”

वह सज्जन बोले-‘अच्छा किया जो आपने बता दिया है. हम कल ही यह फार्म भर देंगे.”-फिर वह अपने पास खडे सज्जन से बोले”यह भले आदमी हैं. देखो अपनी बिटिया के लिए फार्म ले आये.

वह मुस्कराये. उनके चेहरे के पर विद्रूपता के भाव थे. वह सज्जन फिर दूसरे सज्जन से मिलवाते हुए बोले-”यह मेरा छोटा भाई है. बाहर रहता है कल ही आया है.”

वह मुस्कराये और उसे नमस्ते की और बाहर निकल गए और बाहर आकर बुदबुदाये-” काहेका भला आदमी!

शायद कभी छपे अच्छी खबर


हर सुबह अपने घर के
दरवाजे पर रखा उठाता हूँ
अखबार ताजा समझकर
पर पढने पर लगती है
बासी हर खबर

अखबार के हर पृष्ठ पर
नजरें दौडाता हूँ उसके चारों और
रंग-बिरंगे और छोटे और बडे
अक्षरों को निहारता हूँ
इस यकीन के साथ कि
शायद कुछ नया पढने को मिल जाये
ऐसा कुछ हो
जो मन पर छा जाये
पर आता नहीं कुछ नया नजर

ह्त्या, डकैती, और लूट की खबरें
काले मोटे अक्षरों में सुर्ख़ियों में
छपी होती हैं
पात्र और नाम बदले रहते हैं
ऐसा लगता है मैंने पढी है
पहले भी कहीं यह खबर

बडे नाम वालों के बडे बयान
कुछ छोटे नाम वालों को
बडे बनाते बयान
समाज सेवा और जन कल्याण के
दावों की लंबी-चौड़ी सूची
सोचता हूँ कि कितनी मनगढ़त
और कितनी सत्य के निकट होगी खबर

मन को ललचाते, बहलाते और फुसलाते
विज्ञापनों का झुंड
सामने आ ही जाता है
चाहे बचाओ जितनी नज़र
विज्ञापन में वर्णित वस्तुओं के
बेचने के लिए
समर्थन देती छपती है एक खबर

सोचता हूँ कि अखबार न पढूं
पर बरसों पुरानी आदतें
ऐसे ही नहीं जातीं
भले ही मजा नहीं आता
फिर भी दौडा ही लेता हूँ
सरसरी नज़र
शायद कभी छपे अच्छी खबर

इस ब्लोग की पाठक संख्या दस हजार के पार


आज दीपकबापू कहिन ने १० हजार पाठकों का आंकडा पार कर लिया है. मेरे द्वारा बनाया जब यह ब्लोग बनाया गया था तब मुझे यह मालुम भी नहीं था की मैं बना क्या रहा हूँ?कमेन्ट क्या होती हैं. इसका पता इतना लंबा है तो केवल इसीलिए के जब उसे लिख रहा तो इस बात का ज्ञान भी नहीं था कि इसे हमेशा लिखना होगा. इसे कोई अन्य कैसे पढेगा इसका ज्ञान भी नहीं था. यू.टी.ऍफ़-८ ई फाइल में देव-१० फॉण्ट में लिखता था. हिन्दी श्रेणी भी नही रखा पाया था इसलिए डैशबोर्ड पर भी नहीं दिखता था.

उस समय हमारे मित्र उन्मुक्त जी ने इसे देखा और बताया कि वह इसे पढ़ नहीं पा रहे थे. मुझे हंसी आयी. सोचा कोई होगा जो मुझे परेशान कर रहा है याह खुद कुछ जानता नहीं है और मुझे सीखा रहा है. उसी समय ब्लागस्पाट का एक ब्लोग भी बनाया था जिसे आज दीपक भारतदीप का चिंतन नाम से जाना जाता है. उसमें इस तरह अपनी घुसपैठ कर ली थी कि वह तो सादा हिन्दी फॉण्ट में भी काम करने लगा था.

उन्मुक्त जी ने दोनों की कापी मेरे पास भेज दी तो मैं दंग रह गया. उनकी दशा देखकर मुझे हैरानी हो रही थी. शहर के अन्य कंप्यूटरों पर देखा तो मुझे सही दिखाए दे रहे थे. ब्लोग बनने से जितना खुश था उतना ही अब परेशान हो रहा था. इसी परेशानी में गूगल का हिन्दी फॉण्ट मेरे हाथ आया. कैसे? यह मुझे याद नहीं. उसीसे लिखना शुरू किया और लिखता चला गया. हर नये प्रयोग के लिए नया ब्लोग खोलता था. एक नहीं आठ ब्लोग खोल लिए. इसी बीच नारद पर पंजीकरण का प्रयास किया, पर पंजीकरण करना आये तब तो हो. मेरे प्रयासों के उनको गुस्सा आया और बिन करने की धमकी दे डाली. आज जब काम करता हूँ और जो ब्लोग लिखने कि पूरी प्रकिया है उसे देखकर तो उनका गुस्सा सही लगता है. इसके बाद मैं चुप हो गया और लिखने लगा. तब एक दिन सर्व श्री सागर चंद नाहर, उन्मुक्त जी संजय बैगानी और पंकज बैगानी जी की कमेन्ट आयी कि आप तो बहुत लिख चुके हैं पर नारद पर आपका ब्लोग नहीं दिख रहा है आप पंजीकृत कराईये.

मैं उस समय सब करने को तैयार था सिवाय नारद पर पंजीकरण कराने के. क्योंकि अब कोई गलती वहाँ से मेरे को बिन करा सकती थी. मैं सिर पकड़ कर बैठ गया कि अब इस नारद से कैसे सुलझें. बहरहाल उसे दिन भाग्य था और पंजीकरण कैसे हो गया यह अब मुझे भी याद नहीं है. उसके बाद मेरा ब्लोग मैदान में आ गया. धीरे-धीर समझ में आने लगा कि वह सब लोग मेरे को अपने साथ जोड़ने के लिए इतनी मेहनत कर रहे थे. उन्मुक्त जी के प्रयास तो बहुत प्रशंसनीय हैं. मैं इन सब लोगों का आभारी हूँ.

अंतर्जाल लिख्नते समय मेरे पास कोई योजना नहीं थी. मेरे एक लेखक मित्र ने मुझे अभिव्यक्ति (अंतर्जाल की पत्रिका) का पता दिया था. वहाँ मुझे नारद दिखता था पर मैं उसे नहीं देखता था और जब देखा तो भी मुझे उसमें रूचि नही जागी-इसका कारण यह भी था कि उसमें मुझे उस समय साहित्य जैसे विषय पर कुछ लिखा गया नहीं लगा. एक बार मेरी नजर ब्लागस्पाट पर एक हिन्दी ब्लोग पर पढ़ गई. मैंने उसे पढा तो आश्चर्य हुआ. उस विषय में मेरी दिलचस्पी बहुत थी और उस लेखक ने जो लिखा उससे मैं बहुत प्रभावित हुआ. उसने मुझे भी उसी तरह लिखने की प्रेरणा दी. अभिव्यक्ति को तो मैं अपनी रचनाएं भेज रहा था पर उस ब्लोग को मैं आज तक नहीं भूल पाया. उसकी विषय सामग्री मेरे दिमाग में आज तक है. मुझे उस लेखक का नाम याद नहीं है. मुझे उस समय अनुभव नहीं था उसके नीचे कमेंट देखता तो शायद कुछ याद रहता-उस समय कमेंट लगाने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता. हाँ, ऐसा लगता है कि उस ब्लोग अपनी इन चारों फोरम पर होना चाहिए. फुरसत में मैं इन फोरम पर उसका ब्लोग तलाशता हूँ. उसके बारे में कोई संकेत इसलिए नहीं दे सकता क्योंकि वह उस समय एक विवादास्पद विषय पर लिखा गया था पर उसकी स्पष्टवादिता ने मेरे मन को खुश कर दिया था. तब मुझे लगा कि इस ब्लोग विधा को मैं अपने सृजन को लोगों तक पहुचा सकता हूँ. उस ब्लोग लेखक ने जो व्यंग्य लिखा था वह कोई समाचार पत्र या पत्रिका शायद ही छापने का साहस कर सके और मुझे लगा कि यह विधा आगे आम आदमी को आपनी बात कहने के लिए बहुत योगदान देने वाली है. मैं उस अज्ञात ब्लोग लेखक को कभी नहीं भूल सकता.

श्रीश शर्मा -(ईसवामी) का नाम यहाँ लेना जरूरी है इसलिए लिख रहा हूँ. वह मेरे मित्र हैं और उनकी कोई सलाह मेरे काम नहीं आती या मैं उनके अनुसार चल नहीं पाता यह अलग बात है पर उस अज्ञात ब्लोग लेखक के बाद उनका नंबर भी याद रखने लायक है. जब मैंने अभिव्यक्ति पर नारद खोला तो उनका ब्लोग देखा(यह भी हो सकता है कोई उनका लेख हो) जिसमें उनका कंप्यूटर पर काम करते हुए फोटो था. मैं उस फोटो को देखने से पहले ब्लोग लिखने का फैसला कर चुका था और वहाँ इसलिए गया था कि आगे कैसे बढूँ. उनका लिखा मेरे समझ में नहीं आया पर तय कर चुका था कि इस राह पर चलना ही है और मैं यह नहीं जानता था कि उनसे मेरी मित्रता होने वाली है-उन्होने अभी मुझे गूगल ट्रांसलेटर टूल का पता भेजा और मैं कह सकता हूँ कि उनकी यह पहली सलाह है जो काम आ रही है इससे पहले उनका बताया काम तो नहीं आता पर इस इस रास्ते पर अनुभव बढ़ता जाता था.एक बात जो मुझे प्रभावित करती थी कि उन्होने कोई बात पूछने पर उसका उत्तर अवश्य सहज भाव से देते थे , मैंने बाद में श्री देवाशीष और श्री रविन्द्र श्रीवास्तव के लेख भी पढे और आगे बढ़ने का विचार दृढ़ होता गया. आज मैं जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो हँसता हूँ. शायद यह सब हँसेंगे कि यह क्या लिख रहा है पर मैं बता दूं कि उनका काम अभी ख़त्म नहीं हुआ है मुझ जैसे अभी कई होंगे जिनकी उन्हें मदद करनी होगी. इन सबका धन्यवाद ज्ञापित करते हुए आशा करूंगा कि यह लोग अपना सहयोग जारी रखेंगे.
आखिर में समीर लाल जी का धन्यवाद ज्ञापित करूंगा कि उन्होने मेरा होंसला बढाने में कोई कसर नहीं छोडी. चिट्ठा चर्चा में उन्होने दीपक बापू कहिन के लिए लिखा था कि यह ब्लोग नया अलख जगायेगा. उनको यह बताने के लिए ही मैं लिख रहा हूँ १० हजार पाठकों का आंकडा पर कर चुके इस ब्लोग की एक दिन में पाठक संख्या का सर्वोत्तम आंकडा १९१ है जो पिछले सप्ताह ही बना था. उसके बाद हैं १७७, १६६, १५२, और १४८ है. कल इसकी संख्या ९७ थी.

यह केवल जानकारी भर है और मैं अपने मित्रो और पाठकों को इस बात के लिए प्रशंसा करता हूँ कि उनकी जो पढ़ने में रुचियाँ हैं उनसे अंतर्जाल पर अच्छा लिखने वालों की संख्या बढेगी. लोग अच्छा पढ़ना चाहते हैं अगर लिखा जाये तो. मैं आगे भी लिखता रहूंग इस विश्वास के साथ कि आप भी मेरे को प्रेरित करते रहेंगे. मैं चारों फोरम-नारद, ब्लोग्वानी, चिट्ठाजगत और हिन्दी ब्लोग- के कर्णधारों का आभारी हूँ जो अपना सहयोग दे रहे हैं.

खोटी और खरी नीयत


असली सांप पालते तो
शायद अकारण डसने का ख़तरा
नही नजर नहीं आता
पर सांप जैसे मन वाले इंसानों को
पालने वाला कभी भी उनके दंश का
शिकार हो जाता
असली बिच्छू को पालने से
भी कोई भय नजर नहीं आता
क्योंकि उस पर ध्यान हमेशा जाता
पर बिच्छु जैसी नीयत वाले
इंसान से साथ निभाने वाला
कभी भी उनका शिकार हो जाता
कहैं दीपक बापू जो दिखता है
उसकी पहचान बहुत आसान है
पर नीयत का पता लगाना भी जरूरी है
जो बात करें साफ और भाषा हो खरी
समझो उनका दिल और नीयत है साफ
जो करें चिकनी-चुपडी बातें
वादे करें लुभावने
सपने दिखाएँ सुहावने
उनकी नियत में खोट साफ नजर आता

आराम से उपजती पीडा


वाशिंगटन स्थित वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के मध्यम वर्ग में सुस्त और आश्रित जीवनशैली को अपनाने से लोगों में वह बीमारियाँ पैदा हो रहीं हैं जो पहले कभी पश्चिम यूरोप वासियों को ही हुआ करती थी. ऐसा नहीं है कि इस रिपोर्ट से पहले कभी कोई चर्चा इस विषय पर नहीं हुई पर लगता है हमारे देश से ज्यादा विदेश के लोग हमारी चिंता कर रहे हैं कि हम उन संकटों में न फंसे जिससे निजात पाने के लिए वह जूझ रहे हैं.

वैसे इस रिपोर्ट पर जब उन्होने काम शुरू किया होगा और जब उसके निष्कर्ष प्रस्तुत किये होंगे तब से लेकर तो पता नहीं कितना पानी गंगा में बह गया होगा. इसलिए वह वर्तमान में ही ‘हो रहीं हैं’ शब्द लिखा गया है. हमारा देश तो बहुत पहले ही बहुत सी ऐसी बीमारियों की चपेट में आ गया है जिनकी चर्चा ही बहुत बाद में होगी. सबसे अधिक तो लोगों में मानसिक तनाव व्याप्त है-और समाज में जो वैचारिक धरातल पर खोखलापन आया है उसका आंकलन करने वाला कौन है? मनुष्य की पहचान है उसका मन और अगर वही अस्वस्थ है तो वह कैसे स्वस्थ हो सकता है. पहले तो बस संकट बडों तक ही सीमित था और बच्चों के लिए कहते थे कि ‘ अभी तो बच्चे हैं खेलने दो यही तो इनके दिन हैं’-पर अब फास्ट फ़ूड के उपयोग से उन्हें जो बीमारियाँ होतीं है वह उनका बचपन छीनकर उन्हें बुढापा प्रदान कर देती हैं. हम भारतीय वैसे तो मर्यादा और अनुशासन की बात तो बहुत करते हैं पर जीवनशैली में उससे परहेज करते हैं.

टीवी,मोबाइल.कंप्यूटर,फ्रिज और पेट्रोल चालित वाहन उपयोग के लिए साधन मात्र है न कि साध्य! हमें मिल गया है तो ऐसा लगता है कि वही सब कुछ है. मनोरंजन की जरूरत है तो टीवी देखें न कि इसलिए देखें कि घर में पडा है तो देखें. मोबाइल है सूचना के आदान प्रदान के लिए न कि उससे चिपक कर लोगों को बताने के लिए कि हमारे पास है-उस पर बात तो कर रहे हैं पर वह कितनी सार्थक है इस पर भी विचार तो करना चाहिए. कंप्यूटर रचनात्मक काम करने वालों के लिए एक बहुत अच्छा साधन है पर जो लोग इंटरनेट पर काम करते देखता हूँ तो हंसी आती है. एक साइबर कैफे में जाकर मैंने देखा वहाँ स्कूल की ड्रेस पहने छात्र बैठे थे और उनकी खुली हुईं साइटें देखीं तो हैरान हो गया-वह किसी भी दृष्टि से उनके शैक्षणिक विषय से संबंधित नहीं थीं और अगर उन्हें मनोरंजक भी कहा जाये तो हास्यास्पद ही होगा क्योंकि उससे भी कुछ शिक्षा मिलती है और मुझे नहीं लग रहा था कि वह दोनों में से कोई काम कर रहे थे सिवाय अपना कीमती समय खराब करने के. पेट्रोल चालित वाहन कहीं पहुंचने का साधन है और उसका उपयोग क्या वाकई उसके लिए हो रहा है. कहीं जाना है इसलिए गाडी का उपयोग होना चाहिए न कि इसलिए कि वाहन है तो कहीं जाना है.

वैसे तो इस देश में गरीबी बहुत है और सबकी आरामदायक जीवन शैली है यह कहना गलत है पर मध्यम वर्ग समाज की एक बहुत बडी शक्ति होता है और उसे वह व्याधियां घेर रही हैं जिससे उसकी स्वयं की तकलीफें बढाएगी और उसका तो वैसे भी आर्थिक आधार हवा में होता है जब तक शरीर स्वस्थ है तब तक खूब कमा लो और जो वह डावांडोल हुआ कि गरीबी के वर्ग में शामिल होते देर नहीं लगेगी. लोग चल-फिर रहे हैं और लगता नहीं है कि उनको कोई बीमारी है पर वह केवल इसलिए कि उनके पास वाहन हैं और थोडा पैदल चलने के लिए कहा जाये तो उनके हाथ-पाँव फूल जाते हैं-सबसे अधिक तो जो मानसिक तनाव है उसका तो कोई पैमाना नहीं है. मैंने एक रिपोर्ट पढी थी कि लोगों की बहुत बड़ी ऐसी संख्या है जो मनोरोगी हैं और यह उनको खुद नहीं मालुम. मनोरोगी का अर्थ एकदम पागल होना नहीं होता यह समझ लेना चाहिए. अकारण चिंता, उठते-बैठते घबराहट और नींद न आना,अकेले में घबडाना तथा फालतू बडबडाना और अधिक बोलना भी इसके लक्षण है.

शरीर का सीधा नियम है जितना चलाओगे चलेगा और जितना आराम करोगे उतना ही कमजोर होगा. आहार-विहार , विचार, निद्रा और काम करने के तय नियमों का पालन करते हुए अनुशासित जीवन शैली ही ऐसी बीमारियों का सामना करने की शक्ति दे सकते हैं और दवाईयों से कितना आराम मिलता है यह सब जानते हैं.

देश में जनचेतना लाना जरूरी


आज एक चैनल पर विभिन्न मनोरंजक चैनलों पर संगीत कार्यक्रमों में नृत्य और संगीत की प्रतियोगिताओं में किये जा रहे निर्णयों के बारे में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए उन पर संशय व्यक्त किया गया. कुछ प्रतियोगी निर्णयों से सन्तुष्ट थे तो कुछ असंतुष्ट. कुछ हारे प्रतियोगियों ने मांग की प्रतियोगियों के जजों को पूर्ण अधिकार दिए जाने चाहिए तो कुछ ने कहा पचास प्रतिशत जजों को तथा पचास प्रतिशत एसएमएस को दिया जाना चाहिए तो कुछ ने अपने अन्य संशय भी जाहिर किये.

अभी तक इन प्रतियोगिताओं के कार्यक्रम पर लोगों को संशय था पर प्रचार माध्यम एकदम खामोश थे, इस संबध में कई अपने हिंदी के ब्लोग लेखक लिख चुके हैं. मैने भी कुछ हास्य कवितायेँ और आलेख इस बारे में लिखे. मैं यह दावा नहीं करता के इन ब्लोग लेखकों की वजह से समाचार माध्यम चेते हैं पर जब कहीं किसी सार्वजानिक विषय पर चर्चा शुरू होती है तो उस जगह तक जरूर जाती है जहाँ से उसका स्त्रोत मौजूद होता है.

लोगों में इस बार में पहले से ही संशय था और भारत के समाचार चैनलों से यह आशा की जा रही थी कि वह इस पर रोशनी डालें, आज एक चैनल ने इस पर अपना दूसरा पक्ष दिखाया है कल को दूसरा चैनल भी कर सकता है. अंतर्जाल पर हो रही चर्चाओं पर लोगों की नजर नही जाती यह कभी नहीं सोचना चाहिए. हो सकता है कि हमें कम पाठक देखते हैं पर कई लोग और संस्थाएं ऎसी हैं जो इस पर नजर रखती होंगी. हिंदी में अन्तर्जाल पर ब्लोग है यह सभी जानते हैं और जिनका काम ही जनसंपर्क का है वह लोग इस पर नजर रखेंगें ही. अत: ब्लोग लेखक यह मानकर चलें कि वह जो लिख रहे हैं और उसका प्रभाव होगा. बढ़ते बाजारी करण में लोगों को भ्रम में डालने के लिए नए नए तरीके आएंगे और उन पर अपने विचार व्यक्त कर जहां ब्लोग लेखक अपनी बात रखकर मन हल्का करेंगे और समाज में चेतना भी ला सकते हैं. इतना ही नहीं प्रचार मध्यम भी आगे चलकर इन पर नजर रखेंगें क्योंकि उन्हें यहाँ से अपने कार्यक्रमों के बारे में रूचि और अरुचि की जानकारी मिलेगी.

भारतीय प्रचार माध्यमों से जुडे लोगों को भी सतत ऎसी व्यवसायिक चालों पर नजर रखनी होगी, क्योंकि अब उन पर भी नजर रखी जा रही है. आजकल लोग बहुत जागरूक हैं और इन प्रतियोगिताओं पर उनके मन में संशय शुरू से ही है कि इनमें शायद ही विजेताओं का चयन उस तरह होता हो जैसा कि दावा किया जाता है. चैनलों द्वारा इस तरह की रिपोर्ट देने से उन लोगों को भी वास्तविक धरातल पर विचार करने का अवसर मिलेगा जो इससे अवगत नहीं थे. व्यवसायिक बाध्यताओं के चलते ऎसी प्रतियोगिताओं के विज्ञापन देने में कोई बुराई नहीं है पर जनचेतना उत्पन्न करने की जिम्मेदारी के तहत उन्हें इनकी वास्तविकताओं पर प्रकाश डालना भी उनका दायित्व है और यह उन्होने किया यह संतोष की बात है.

असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो-हास्य कविता


असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
तुम्हारे लिए किये इतने सारे इंतजाम
हम सुनाते हैं तुम सुनो
हम दिखाते हैं तुम देखो
पर तुम अपने होंठ सिलकर रहो
जो हम करते हैं वह सहो
टीवी पर तुम्हारे लिए किया हैं इंतजाम
करना नहीं हैं तुमको कोई काम
गीत और नृत्य देखते रहो
मनोरंजन के कार्यक्रम जंग की तरह सजाये हैं
हम जानते हैं देव-दानवों के द्वन्द्वों के
दृश्य हमेशा तुम्हारे मन को भाये हैं
घर में ही मैदान का मजा दिलाने के लिए
एसएमएस का किया है इंतजाम

सवाल कोई नहीं उठाना
हमारा उद्देश्य है कमाना
जवाब देना नहीं है हमारा काम
सब कुछ अच्छा है
यही हम सब जगह दिखा रहे हैं
खोये रहो तुम ख्वावों में
भयावह सच इसलिये छिपा रहे हैं
हम भी डरते हैं
इसलिये नकली को असली बता रहे हैं
तुम पैसा निकाल सकते हो
इसलिये सब तुम्हारे लिए सजा रहे हैं
जिनके पास नही है
उन्हें तुमसे दूर भगा रहे हैं
तुम नहीं खर्च कर सकते तो
तुम्हारा भी नहीं यहाँ काम

बेकारी, भुखमरी, भय और भ्रष्टाचार पर
चर्चा मत करो
उनसे मत डरो
उसे तुमसे दूर भगा रहे हैं
इसलिये कहीं नहीं दिखा रहे हैं
असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
गीत और नृत्य के कार्यक्रम देखते रहो
हम किये जा रहे अपना काम
तुम करो अपना काम

शाश्वत प्रेम के कितने रुप


‘प्रेम’ शब्द मूलरूप से संस्कृत के ‘प्रेमन’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है-‘प्रिय का भाव’। ऐक अन्य प्रकार की व्युत्पत्ति दिखाई देती है, जहाँ प्रेम को ‘प्रीञ’ धातु से मनिन’ प्रत्यय करके सिद्ध किया गया है (प्रीञ+मनिन=प्रेमन)। इस द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार प्रेम का अर्थ है-प्रेम होना, तृप्त होना, आनन्दित होना या प्रेम, तृप्त और आनंदित करना।

निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अद्वैत मतावलंबियों ‘सच्चिदानंद’ कहा है। वह सत है क्योंकि उसका विनाश नही होता, वह चित है क्योंकि स्वयं प्रकाशमान और ज्ञानमय है तथा आनंद रुप है इसलिये कि वह प्रेममय है। यदि वह आनंदात्मक न हो तो उसके अस्तित्त्व और और चैतन्य की क्या सार्थकता रह जायेगी। सत-चित का भी प्रयोजन यह आनंद या प्रेम ही है। इसी प्रेम लक्षण के वशीभूत होकर वह परिपूर्ण, अखंड ब्रह्म सृष्टि के लिए विवश हो गया। वह न अकेले प्रेम कर सका , न तृप्त हो सका और न आनंद मना सका। तब उसके मन में एक से अनेक बन जाने की इच्छा हुई और वह सृष्टि कर्म में प्रवृत्त हुआ।

आनंद स्वरूप प्रेम से ही सभी भूतों की उत्पत्ति होती है, उसमें ही लोग जीते हैं और उसमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं। यही तथ्य तैत्तिरीयोपनिषद (३.६) की पंक्तियों में प्रतिपादित किया गया है।

प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड और उससे परे जो कुछ है- सब इसकी परिधि में आ जाते हैं। प्रेम संज्ञा भी है और क्रिया वाचक भी है। संज्ञा इसलिये कि सब में अंत:स्थ भाव रुप (मन का स्थायी भाव) है और यह भाव व्यक्त भी होता है अव्यक्त भी। क्रियात्मक इसलिये कि समस्त चराचर के व्यापारों का प्रेरक भी है व्यापारात्मक भी है। किन्तु मूल है अंत:स्थ का अव्यक्त भाव, जो अनादि और अनंत है, जो सर्वत्र और सब में व्याप्त है। यही अव्यक्त भाव रुप प्रेम सात्विक, राजस और तामस इन तीन गुणों के प्रभाव से विविध विकारों के रुप में बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है और व्यवहार में व्यक्त होता है ।

यही प्रेम बडों के प्रति आदर, छोटों के लिए स्नेह, समान उम्र वालों के लिए प्यार, बच्चों के लिए वात्सल्य, भगवान् के प्रति भक्ति , आदरणीय लोगों के लिए श्रद्धा, जरूरतमंदों के प्रति दया एवं उदारता से युक्त होकर सेवा, विषय-सुखों के संबध में राग और उससे उदासीनता के कारण विराग, स्व से (अपने से) जुडे रहने से मोह और प्रदर्शन से युक्त होकर अहंकार, यथार्थ में आग्रह के कारण सत्य, जीव मात्र के अहित से विरत होने में अहिंसा, अप्रिय के प्रति अनुचित प्रतिक्रिया के कारण घृणा और न जाने किन-किन नामों से संबोधित होता है। प्रेम तो वह भाव है जो ईश्वर और सामान्य जीव के अंतर तक को मिटा देता है। जब अपने में और विश्व में ऐक-जैसा ही भाव आ जाय, और बना रहे तो वह तीनों गुणों से परे शुद्ध प्रेम है।

यह प्रेम साध्य भी है प्रेम पाने का साधन भी है। साधारण प्राणी सर्वत्र ऐक साथ प्रेम नहीं कर सकता-इस तथ्य को देखते हुए ही हमारे देश के पूज्य महर्षियों ने भक्ति का मार्ग दिखाया जिससे मनुष्य अदृश्य ईश्वर से प्रेम कर सके। इन्द्रियों के वशीभूत दुर्बल प्राणियों के लिए ईश्वर से प्रेम की साधना निरापद है जबकि लौकिक प्रेम में भटकाव का भय पग-पग पर बना रहता है। ईश्वरीय प्रेम को सर्वोच्च प्रतिपादित करने के पीछे यही रहस्य छिपा है और ईश्वरीय प्रेम का अभ्यास सिद्ध होने के पश्चात प्राणी ‘तादात्म्य भाव’ की स्थिति में आरूढ़ हो जाता है और तब शुद्ध प्रेम की स्थिति उसे स्वयंसिद्ध हो जाती है। प्रेम की इस दशा में पहुंचकर साधक को अपने ही अन्दर सारा विश्व दृष्टिगोचर होने लगता है और संपूर्ण विश्व में उसे अपने ही स्वरूप के दर्शन होने लगते है। समस्त चराचर जगत में जब अपने प्रियतम इष्ट के दर्शन होने लगें तो समझ लेना चाहिऐ कि हमें अनन्य और शाश्वत प्रेम की प्राप्ति हो गयी।

(कल्याण से साभार)

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रहीम के दोहे: जागते हुए सोये उसे क्या शिक्षा देना



जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोई।
ताहि सिखाई जगाईबो, उचित न होई ॥

अर्थ-समझ-बूझकर भी जो व्यक्ति अन्याय करता है वह तो जागते हुए भी सोता है, ऐसे व्यक्ति को जाग्रत रहने के शिक्षा देना भी उचित नहीं है।
कविवर रहीम का आशय यह कई जो लोग ऐसा करते हैं उनके मन में दुर्भावना होती है और वह अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझते हैं अत: उन्हें समझना कठिन है और उन्हें सुधारने का प्रयास करना भी व्यर्थ है।

क्रिकेट देखने से अच्छा है ब्लोग पर लिखें


यूँ तो हारने के हजार बहाने हैं
पर घर में ही हार पर कितनी सफाई दो
यहां कौन माने हैं
बाहर जीत कर आये
तो शेर की तरह घर आये
कंगारुओं ने किया पलटवार
दो दिन में तारे नजर आये
नाम बडे हैं जिनके
दर्शन उनके छोटे तो हो जाने हैं

कहैं दीपक बापू
जीत का नशा इतनी जल्दी
उतर जायेगा किसे पता
स्कोर का कोई नाम लेवा नहीं था
फिर अब भीड़ जुटने लगी थी
लगता नही ज्यादा समय तक
चलेगा यह फिर खेल
अपने देश के क्रिकेट में पिटते देख कर
दुखी होने से ज्यादा अच्छा तो यह है कि
लोग अपने ब्लोग पर ही
शब्दों से खेलने लगें
अब तो इन्टरनेट पर ब्लोग
लिखने-पढने के दिन भी जरूर आने हैं
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संत कबीर वाणी:जहां गुणों की कद्र न हो वहां न जायें


कबीर क्षुधा कूकरी, करत भजन में भंग
वाकूं टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग

संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि भूख कुतिया के समान है। इसके होते हुए भजन साधना में विध्न-बाधा होती है। अत: इसे शांत करने के लिक समय पर रोटी का टुकडा दे दो फिर संतोष और शांति के साथ ईश्वर की भक्ति और स्मरण कर सकते हो ।

जहाँ न जाको गुन लहै , तहां न ताको ठांव
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गाँव

इसका आशय यह है कि जहाँ पर जिसकी योग्यता या गुण का प्रयोग नहीं होता, वहाँ उसका रहना बेकार है। धोबी वहां रहकर क्या करेगा जहां ऐसे लोग रहते हैं जिनके पास पहनने को कपडे नहीं हैं या वह पहनते नहीं है। अत: अपनी संगति और स्वभाव के अनुकूल वातावरण में रहना चाहिए। भावार्थ यह है कि जहां गुण की कद्र न हो वहां नहीं जायें.

डाक्टर और अस्पताल की छाया-हास्य कविता


एक आदमी ने सुबह-सुबह
दौड़ लगाने का कार्यक्रम बनाया
और अगले दिन ही घर से बाहर आया
उसने अपने घर से ही
दौड़ लगाना शुरू की
आसपास के लड़के बडे हैरान हुए
वह भी उसके पीछे भागे
और भागने का कारण पूछा
तो वह बोला
‘मैने कल टीवी पर सुना
मोटापा बहुत खतरनाक है
कई बिमारियों का बाप है
आजकल अस्पताल और डाक्टरों के हाल
देखकर डर लगता है
जाओ इलाज कराने और
लाश बनकर लौटो
इसलिये मैने दौड़ने का मन बनाया’

लड़कों ने हैरान होकर पूछा
‘पर आप इस उम्र में दौडैंगे कैसे
आपकी हालत देखकर हमें डर समाया’
उसने जवाब दिया
‘जब मेरी उम्र पर आओगे तो सब समझ जाओगे
लोग भगवान् का ध्यान करते हुए
योग साधना करते हैं
मैं यही ध्यान कर दौड़ता हूँ कि
जैसे कोई मुझे डाक्टर पकड़ने आया
अपनी स्पीड बढाता हूँ ताकि
उसकी न पडे मुझ पर छाया

रहीम के दोहे:मेंढक टर्राये,कोयल होती मौन



पावस देखि रहीम मन, कोइल साथै मौन
अब दादुर बकता भए, हमको पूछत कौन

कविवर रहीम कहते हैं कि जब वर्षा ऋतू आती है तो कोयल मौन धारण कर लेती है, यह सोचकर कि अब तो मेंढक टर्राने लगे हैं तो उनकी कौन सुनेगा।
अगर हम इसका भाव इस रूप में लेते हैं जम समाज में धन का प्रवाह सहृदय कलाकारों, रसिक हृदय कवियों kee ओर होने लगता है तब अनेक कलाकार और कवि मैदान में आ जाते हैं और मेंढकों की तरह टराने लगते हैं और उनको देखकर श्रेष्ठ और विद्वान, कलाकरौर कवि चुपचाप अपने को समेटकर अपने घर बैठ जाते हैं।

रहिमन प्रीति सराही, मिली होत रंग दून
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी दून

उसी प्रेम के प्रशंसा करना चाहिए जिसमें दोनों प्रेमियों का प्रेम मिलकर दुगुना हो जाता है, जैसे जल्दी पीली होती है और चूना सफ़ेद, परंतु दोनों मिलकर एक नया लाल रंग बना देता है। हल्दी अपने पीले रंग को और चूना अपने सफ़ेद रंग को छोड देता है।
इसका आशय यह है कि प्रेम करने वालों को अपना पहले का रूप त्याग देना चाहिऐ और एक नए रूप में आना चाहिऐ।

अभी लिखा क्या है जो लिपि पर झगड़ने लगे-हास्य कविता


स्कूल से घर लौटे बच्चे आपस में
रोमन और देवनागरी लिपि को
लेकर लड़ने लगे
‘मैं तो रोमन में हिंदी लिखूंगा
तुझे देवनागरी में लिखना है लिख
दूसरा कहता है
‘मैं तो हिंदी में ही हिंदी जैसा दिखूंगा
तुझे अंग्रेजी जैसा दिखना है तो दिख’
माँ हैरान है और पूछती है
‘बेटा अभी तो शब्द ज्ञान आया है
लिखोगे तुम तो पढेगा कौन
तुम चिल्ला रहे हो
कौन सुने और कौन पढे
शब्द तो तभी पढा और सुना जाता है
जब आदमी होता है मौन
तुम क्या लिखोगे और क्या पढोगे
प्रेमचंद, निराला, प्रसाद और कबीर को
नहीं पढा लडाई झगडा करते हुए
अपनी ज़िन्दगी गुजारोगे
अभी तो बोलना शुरू किया है
अब तक लिखा क्या है जो
लिपि को लेकर लड़ने लगे हो
हिंदी का जो होना है सो हॊगा
पहले पढ़ना सीखो और फिर सोचो
लोगों चाव से पढ़ें एसा नहीं लिखा तो
तुम्हारा नाम भी अनाम होगा
यह अभी से ही लग रहा है दिख
जब यूनिकोड है तो काहेका झगडा
रोमन में लिख देवनागरी में पढ
रोमन में भी पढ देवनागरी में लिख’