कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर
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भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़ने को सभी तैयार हैं
पर उसके रहने की जगह तो कोई बताये,
पैसा देखकर
सभी की आंख बंद हो जाती है
चाहे जिस तरह घर में आये।
हर कोई उसे ईमानदारी से प्यार जताये।
———-
सभी को दुनियां में
भ्रष्ट लोग नज़र आते हैं,
अपने अंदर झांकने से
सभी ईमानदार घबड़ाते हैं।
भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस है
जिसे सभी गाली दे जाते हैं।
सुसज्जित बैठक कक्षों में
जमाने को चलाने वाले
भ्रष्टाचार पर फब्तियां कसते हुए
ईमानदारी पर खूब बहस करते है,
पर अपने गिरेबों में झांकने से सभी बचते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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लोगों की संवेदनाऐं मर गयी हैं
इसलिये किसी को दूसरे का दर्द
तड़पने के लिये मजबूर नहीं कर पाता है।
निगाहों ने खो दी है अच्छे बुरे की पहचान
अपने दुष्कर्म पर भी हर कोई
खुद को साफ सुथरा नज़र आता है।
उदारता हाथ ने खो दी है इसलिये
किसी के पीठ में खंजर घौंपते हुए नहीं कांपता,
ढेर सारे कत्ल करता कोई
पर खुद को कातिल नहीं पाता है।
जीभ ने खो दिया है पवित्र स्वाद,
इसलिये बेईमानी के विषैले स्वाद में भी
लोगों में अमृत का अहसास आता है।
किससे किसकी शिकायत करें
अपने से ही अज़नबी हो गया है आदमी
हाथों से कसूर करते हुए
खुद को ही गैर पाता है।
————
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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लोगों के जल संकट से
हमदर्दी जताने के लिये उन्होंने
पूरा एक दिन सड़क पर
अनशन कर बिताया।
भले ही तंबू को चारों तरफ से ढंककर
गर्मी से बचने के लिये ऐसी भी लगवाया,
समय अच्छा बीते इसलिये टीवी भी चलवाया,
चेलों ने मजे लेकर नारे लगाये
उनको लोगों का सबसे बड़ा हमदर्द दिखाया।
———-
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दिन भर वह दोनों ज्ञानी
अपने शब्दों की प्रेरणा से
लोगों को लड़ाने के लिये
झुंडों में बांट रहे थे,
रात को ईमानदारी से
लूट में मिले सामान में
अपना अपना हिस्सा
ईमानदारी से छांट रहे थे।
——-
शब्द रट लेते हैं किताबों से,
सुनाते हैं उनको हादसों के हिसाबों से,
पर अक्लमंद कभी खुद जंग नहीं लड़ते।
नतीजों पर पहुंचना
उनका मकसद नहीं
पर महफिलों में शोरशराबा करते हुए
अमन की राह में उनके कदम
बहुत मजबूती से बढ़ते।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बाजार के खेल में चालाकियों के हुनर में
माहिर खिलाड़ी
आजकल फरिश्ते कहलाते हैं।
अब होनहार घुड़सवार होने का प्रमाण
दौड़ में जीत से नहीं मिलता,
दर्शकों की तालियों से अब
किसी का दिल नहीं खिलता,
दौलतमंदों के इशारे पर
अपनी चालाकी से
हार जीत तय करने के फन में माहिर
कलाकार ही हरफनमौला कहलाते हैं।
———-
काम करने के हुनर से ज्यादा
चमचागिरी के फन में उस्ताद होना अच्छा है,
अपनी पसीने से रोटी जुटाना कठिन लगे तो
दौलतमंदों के दोस्त बनकर
उनको ठगना भी अच्छा है।
अपनी रूह को मारना इतना आसान नहीं है
इसलिये उसकी आवाज को
अनसुना करना भी अच्छा है।
किस किस फन को सीख कर जिंदगी काटोगे
नाम का ‘हरफनमौला’ होना ही अच्छा है।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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खरीदे देशभक्तों ने बस, उनको दोहराया ।
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इंसान की हर अदा पर मिलते हैं
पर सच बोलने पर कोई इनाम नहीं होता।
कितना भी हो जाये कोई अमीर,
पीछा नहीं छोड़ता उसका जमीर,
कैसे दे सकते हैं इनाम, उस शख्स को
बोलता है हमेशा सच जो,
खड़ी है दौलत की इमारत उनकी झूठ पर
चाटुकारों को लेते हैं, अपनी बाहों में भर
क्योंकि सच बोलने वालो से उनका काम नहीं होता।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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इस अवसर पर कुछ क्षणिकायें
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रंगों में मिलावट
खोऐ में मिलावट
व्यवहार में दिखावट
होली कैसे मनायें।
कच्चे रंग नहीं चढ़ता
अब इस बेरंग मन पर
दिखावटी प्यार कैसे जतायें।
———
रंगों के संग
खेलते हुए उन्होंने होली
कुछ इस तरह मनाई,
नोटों के झूंड में बैठकर
इठलाते रहे
इसलिये उनकी पूरी काया
रंगीन नज़र आयी।
———
अगर रुपयों का रंग चढ़ा गया तो
फिर कौनसे रंग में
बेरंग इंसान नहायेगा,
आंख पर कोई रंग असर नहीं करता
होली हो या दिवाली
उसे बस मुद्रा में ही रंग नज़र आयेगा।
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प्लास्टिक की तलवारों से
प्रायोजित जंग को देखकर
कभी असली होने का वहम मत करना।
चाहे किसी योद्धा के पेट में
बंधी थैली से
खून बहता दिखे,
उसके असली होने पर
कोई कितने भी शब्द लिखे,
पर्दे पर दिखें या सड़क पर सजें
अफसानों को हकीकत समझ कर
कभी नहीं डरना।
———
अपने इरादों पर
चले ज़माना तो, अफसोस क्यों करते।
यहां तो खरीद कर बाजार से सपने
लोग उसी पर ही मरते,
उधार पर लेकर दूसरे के ख्याल को
अपनी सोच बनाकर चले रहे सभी
अपनी अक्ल को तोलने में डरते।
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3.अनंत शब्दयोग
न हार है, न जीत है,
न क्रोध है,न प्रीत है।
पर्दे के दृश्यों में मत बहो
सभी इंसानों से अभिनीत हैं।
——-
उनकी अदायें देखकर
हम भी हैरान थे,
दरअसल पुतलों के भेष में
वह चलते फिरते इंसान थे।
पर उनका कदम बढ़ता था
दूसरे के इशारे पर,
जुबां से निकलते तभी शब्द
लिख कर देता कोई कागज पर,
लुटाये लोगों ने उन पर पैसे
अपनी झोली में समेट कर, वह चल पड़े
किसी को जानते न हों जैसे,
चेहरा सजाया था फरिश्तों की तरह
दरअसल वह खरीदे हुए शैतान थे।
रोज नैतिकता की बात
हर बार आदर्श पर चर्चा
सिद्धांतों की दुहाई देते लोग थकते नहीं हैं।
फिर भी समाज के बिगड़ते जाने की चिंता
सभी को सता रही है,
हर जगह से
भ्रष्टाचार की बू आ रही है,
धर्म की राह के सभी राहगीर,
अपने पाप से बना रहे अपने लिये खीर,
प्रवचनों में ढेर सारे लोगों का जमा है झुंड,
शायद मूक और बधिर हैं सभी नरमुंड,
चक्षुओं से देखते आसमान में
देवताओं के जमीन पर आने की राह,
अपने को छोड़कर सभी इंसानों को
ईमानदारी का बोझ ढोते देखने की चाह,
वह उम्मीदें करते हैं जमाने से
जो खुद पूरी कर सकते नहीं हैं।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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मतलब के लिए इंसान
अपना दिल इस तरह बदल जाते
कि आखें होती तो
बेपैंदी के लोटे भी देखकर शर्माते।
जुबान होती तो
एक दूसरे पर इंसान होने का शक जताते।
———-
नब्बे फीसदी सांप
जहरीले नहीं होते
यह विशेषज्ञ ने बताया।
तब से इंसानों की सांप से
तुलना करना बंद कर दिया हमने
क्योंकि सांप के डसने से
कई लोगों को बचते देखा
पर इंसानों के धोखे से बचता
कोई नज़र नहीं आया।
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उन्होंने अपने अभिनय से
कर ली दुनियां अपनी मुट्ठी में
पर अपना ही सच भूल जाते हैं।
बोलते अपनी जुबां से, वह जो भी शब्द,
करता है उसे कोई दूसरा कलमबद्ध,
दूसरों के इशारे पर बढ़ाते कदम,
उनके चलने को होता बस, एक वहम,
पर्दे पर हों या पद पर
अपने ही अहसासों को भूल जाते हैं,
फुरसत में भी आजादी से सांस लेना मुश्किल
बस, आह भरकर रह जाते हैं।
जमाना उनको बना रहा है अपना प्रिय
जो दिखावटी प्रेम का अभिनय किये जाते हैं।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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पति ने पत्नी से कहा
‘ बहुत कोशिश पर भी इतने दिनों में
अपने बेटे की
शादी नहीं करवा पाये,
कमाता कौड़ी भी नहीं है
पर कमाऊ दिखाने के लिये
अपने बैंक खाते भी उसके नाम करवाये।
जानने वाले लोग पोल खाते हैं
इसलिये क्यों न अब उसके लिये स्वयंवर
आयोजित किया जाये।
नयी परंपरा है
लोग दौड़े चले आयेंगे
हो सकता है कि काम बन जाये।’
पत्नी ने कहा
‘हां, अच्छा है
अपना बेटा भी भगवान राम की तरह ही गुणवान है,
भले ही कमाता नहीं पर अपनी शान है,
सीता जैसी बहू मिल जाये
तो जीवन धन्य हो जाये,
पर समधी भी जनक जैसा हो,
दहेज देने में झिझके नहीं, ऐसा हो,
पर किसी पर यकीन नहीं करना
अपने कार्यक्रम में ऐसे ही लोगों को
आमंत्रित करना जिनके पास माल हो,
ऐसा न कि बाद में बुरा हाल हो,
घुसने से पहले सभी को
अपनी मांग बता देना,
उनकी हालत भी पता कर लेना,
सभी खोये रहें इस नयी स्वयंवर परंपरा में
पर तुम कम दहेज पर सहमत न होना
कोई कितना भी समझाये।’
———————
कान में लगाये मोबाइल पर
ऊंची आवाज में बतियाते
पांव उठाता सीना तानकर
आंखों से बहती कुटिल मुस्कराहट
वह अभिमान से चला जा रहा है।
लोगों ने बताया
‘अपनी बेईमानी से कभी लाचार
वह भाग रहा था जमाने से
गिड़गिड़ाता तथा छोटे इंसानों के सामने भी
अब मिल गया है उसे लोगों के भला करने का काम
उसकी कमाई से उसका कद बढ़ता जा रहा है।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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दौलत की रौशनी से अमीर, अपनी महफिलें सजाते हैं,
गरीबों के दिल में लगे आग, इसलिये चिराग जलाते हैं।
मत बहको ऊंचे उनके ठाठ देखकर, हमेशा धोखा खाओगे,
बेचने वाली शयों के, सौदागर ही पहले ग्राहक बन जाते हैं।
दरियादिल दिख रहे है, पर सारा सामान मुफ्त का सजा है
कहीं से चीज का मिला तोहफा, कहीं से पैसा जुटाते हैं।
घी से भरा उनका घर, मिलावटी तेल के कनस्तर बेचकर
मौत के मुख में भेजने पहले, जिंदगी का रास्ता बताते हैं।
———————–
राज रखकर ही राज
चलाये जाते हैं
सामने कर दुश्मनी के सौदे
बंद कमरे में दोस्तों में
हाथ मिलाये जाते हैंजाते हैं।
जज़्बात मर गये हैं लोगों के
प्यार हो या नफरत
दिल के अदंर तक नहीं पहुंचती
केवल जमाने को दिखाये जाते हैं।
——–
दिन भर दिखाते रहे
अपनी दुश्मनी जमाने को,
रात को चले दोस्ती निभाने को।
विज्ञापन का युग है
तारीफों पर अब लोग नहीं बहलते
इसलिये लोग चल पड़ते हैं
दोस्त के ही हाथ से अपने लिये गालियां लिखाने को।
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अपने गम और दूसरे की खुशी पर मुस्कराकर
हमने अपनी दरियादिली नहीं दिखाई।
चालाकियां समझ गये जमाने की
कहना नहीं था, इसलिये छिपाई।
——–
अपनी तकदीर से ज्यादा नहीं मिलेगा
यह पहले ही हमें पता था।
बीच में दलाल कमीशन मांगेंगे
या अमीर हक मारेंगे
इसका आभास न था।
———-
रात के समय शराब में बह जाते हैं
दिन में भी वह प्यासे नहीं रहते
हर पल दूसरों के हक पी जाते हैं।
अपने लिये जुटा लेते हैं समंदर
दूसरों के हिस्से में
एक बूंद पानी भी हो
यह नहीं सह पाते हैं।
–
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3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप
गरीब और भूखे के लिये
रोटी एक सपना होती है,
मगर भरे हैं जिनके पेट
भूख भी भूत बनकर
उनके पीछे होती है।
इंसान की जिंदगी
कुछ सपने देखती
कुछ डरों के साथ बीत रही होती है।
…………………..
चाहे इंसान कितने भी
बड़े हो जायें
फरिश्ते नहीं बन पाते हैं।
यकीन बेचने वाले
अपने अंदाज-ए-बयां से
चाहे दिलासा दिलायें
यकीन नहीं करना
सर्वशक्तिमान बनने के लिये
सभी मुखौटा लगाकर आते हैं।
काला हो या गोरा
जो चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े हैं
वही वफा और यकीन बेचने आते हैं।
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वह रोज फूल जाते हैं।
मगर उनके ऊपर भी साहब हैं
जिनकी झिड़की पर वह झूल जाते हैं।
——————–
सभी के सिर पर चढ़ा है।
कामयाबी का खिताब
नीचे से ऊपर जाता साहब की तरफ
नाकामी की लानत का आरोप
ऊपर से उतरकर नीचे खड़ा है,
भले ही सभी जगह साहब हैं
बच जाये दंड से, वही बड़ा है
——–
साहबी संस्कृति में डूबे लोग
आम आदमी का दर्द कब समझेंगे।
जब छोटे साहब से बड़े बनने की सीढ़ी
जिंदगी में पूरी तरह चढ़ लेंगे।
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हांड़मांस के बुत हैं
इंसान भी कहलाते हैं,
चेहरे तो उनके अपने ही है
पर दूसरे का मुखौटा बनकर
सामने आते हैं।
आजादी के नाम पर
उनके हाथ पांव में जंजीर नहीं है
पर अक्ल पर
दूसरे के इशारों के बंधन
दिखाई दे जाते हैं।
नाम के मालिक हैं वह गुलाम
गुलामों पर ही राज चलाये जाते हैं।
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बड़े लोगों की होती है बड़ी बातें।
छोटा तो दिन में भी
छोटी शर्म का काम करते भी घबड़ाये
बड़ा आदमी गरियाता है
गुजारकर बेशर्म रातें।।
———-
छोटे आदमी की रुचि
फांसी पर झूले
या लजा तालाब में डूबे
बड़ा आदमी अपनी रातें गरम कर
कुचलता है कलियां
फिर झूठी हमदर्दी जताये।
बड़े आदमी की विलासता भी
लगाती उसके पद पर ऊंचे पाये।
———
हर जगह बड़े आदमी की शिकायत
बरसों तक कागजों के ढेर के नीचे
दबी पड़ी है।
छोटे की हाय भी
उसके बीच में इंसाफ की उम्मीद लिये
जिंदा होकर सांसें अड़ी है।
बड़े लोग हो गये बेवफा
पर समय की ताकत के आगे
हारता है हर कोई
हाय छोटी है तो क्या
इंसाफ की उसकी उम्मीद बड़ी है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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मेहननकश इंसान आग बुझा देता है
पर जिस शैतान ने
लालच को लक्ष्य बना लिया
वह पूरे जमाने को
झौंक कर झुलसा देता है।
पर खातों में अपनी रकम को
बढ़ते देखकर भी नहीं सो रहा सेठ,
अपने पास जमा सोने की ईंटों से भी
नहीं भर रहा है दिल उसका
तिनके से बनी झौंपड़ी को खाक कर
उसकी राख में रुपया तलाश लेता है।
कोई आसमान में नहीं बसते,
इंसानी चेहरों में वह भी संवरते,
पसीने की आग से जो रोटी खा रहे हैं,
अपने दर्द और खुशियों के साथ
जीवन बिता रहे हैं,
मुफ्त में जिनको मिली है विरासत,
जंग की ही करते हैं सियासत,
बनते हैं जो जमाने के खैरख्वाह,
नाम के हैं वह फरिश्ते
उनके आशियाने हैं
इंसानी जज़्बातों की कत्लगाह,
ऐसा हर शैतान
अपनी जिंदगी के चैन के लिये
जमाने की बैचनी बढ़ा देता है।
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