Category Archives: मातृभाषा

असली झगड़ा, नकली इंसाफ-हिन्दी व्यंग्य और कविता (asli jhagad aur nakli insaf-hindi vyangya aur kavita)


टीवी पर सुनने को को मिला कि इंसाफ नाम का कोई वास्तविक शो चल रहा है जिसमें शामिल हो चुके एक सामान्य आदमी का वहां हुए अपमान के कारण निराशा के कारण निधन हो गया। फिल्मों की एक अंशकालिक नर्तकी और गायिका इस कार्यक्रम का संचालन कर रही है। मूलतः टीवी और वीडियो में काम करने वाली वह कथित नायिका अपने बिंदास व्यवहार के कारण प्रचार माध्यमों की चहेती है और कुछ फिल्मों में आईटम रोल भी कर चुकी है। बोलती कम चिल्लाती ज्यादा है। अपना एक नाटकीय स्वयंवर भी रचा चुकी है। वहां मिले वर से बड़ी मुश्किल से अपना पीछा छुड़ाया। अब यह पता नहीं कि उसे विवाहित माना जाये, तलाकशुदा या अविवाहित! यह उसका निजी मामला है पर जब सामाजिक स्तर का प्रश्न आता है तो यह विचार भी आता है कि उस शादी का क्या हुआ?
बहरहाल इंसाफ नाम के धारावाहिक में वह अदालत के जज की तरह व्यवहार करती है। यह कार्यक्रम एक सेवानिवृत महिला पुलिस अधिकारी के कचहरी धारावाहिक की नकल पर बना लगता है पर बिंदास अभिनेत्री में भला वैसी तमीज़ कहां हो सकती है जो एक जिम्मेदार पद पर बैठी महिला में होती है। उसने पहले तो फिल्म लाईन से ही कथित अभिनय तथा अन्य काम करने वाले लोगों के प्रेम के झगड़े दिखाये। उनमें जूते चले, मारपीट हुई। गालियां तो ऐसी दी गयीं कि यहां लिखते शर्म आती है।
अब उसने आम लोगों में से कुछ लोग बुलवा लिये। एक गरीब महिला और पुरुष अपना झगड़ा लेकर पहुंच गये या बुलाये गये। दोनों का झगड़ा पारिवारिक था पर प्रचार का मोह ही दोनों को वहां ले गया होगा वरना कहां मुंबई और कहां उनका छोटा शहर। दोनों ने बिंदास अभिनेत्री को न्यायाधीश मान लिया क्योंकि करोड़ों लोगों को अपना चेहरा दिखाना था। इधर कार्यक्रम करने वालों को भी कुछ वास्तविक दृश्य चाहिये थे सो बुलवा लिया।
जब झगड़ा था तो नकारात्मक बातें तो होनी थी। आरोप-प्रत्यारोप तो लगने ही थे। ऐसे में बिंदास या बदतमीज अभिनेत्री ने आदमी से बोल दिया‘नामर्द’।
वह बिचारा झैंप गया। प्रचार पाने का सारा नशा काफूर हो गया। कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो सभी ने देखा। अड़ौस पड़ौस, मोहल्ले और शहर के लोग उस आदमी को हिकारत की नज़र से देखने लगे। वह सदमे से मरा या आत्महत्या की? यह महत्वपूर्ण नहंी है, मगर वह मरा इसी कारण से यह बात सत्य है। पति पत्नी दोनों साथ गये या अलग अलग! यह पता नहीं मगर दोनों गये। घसीटे नहीं गये। झगड़ा रहा अलग, मगर कहीं न कहीं प्रचार का मोह तो रहा होगा, वरना क्या सोचकर गये थे कि वहां से कोई दहेज लेकर दोबारा अपना घर बसायेंगे?
छोटे आदमी में बड़ा आदमी बनने का मोह होता है। छोटा आदमी जब तक छोटा है उसे समाज में बदनामी की चिंता बहुत अधिक होती है। बड़ा आदमी बेखौफ हो जाता है। उसमें दोष भी हो तो कहने की हिम्मत नहीं होती। कोई कहे भी तो बड़ा आदमी कुछ न कहे उसके चेले चपाटे ही धुलाई कर देते हैं। यही कारण है कि प्रचार के माध्यम से हर कोई बड़ा बनना या दिखना चाहता है। ऐसे में विवादास्पद बनकर भी कोई बड़ा बन जाये तो ठीक मगर न बना तो! ‘समरथ को नहीं दोष, मगर असमर्थ पर रोष’ तो समाज की स्वाभविक प्रवृत्ति है।
एक मामूली दंपत्ति को क्या पड़ी थी कि एक प्रचार के माध्यम से कमाई करने वाले कार्यक्रम में एक ऐसी महिला से न्याय मांगने पहुंचे जो खुद अभी समाज का मतलब भी नहीं जानती। इस घटना से प्रचार के लिये लालायित युवक युवतियों को सबक लेना चाहिए। इतना ही नहीं मस्ती में आनंद लूटने की इच्छा वाले लोग भी यह समझ लें कि यह दुनियां इतनी सहज नहीं है जितना वह समझते हैं।
प्रस्तुत है इस पर एक कविता
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घर की बात दिल ही में रहे
तो अच्छा है,
जमाने ने सुन ली तो
तबाही घर का दरवाज़ा खटखटायेगी,
कोई हवा ढूंढ रही हैं
लोगों की बरबादी का मंजर,
दर्द के इलाज करने के लिये
हमदर्दी का हाथ में है उसके खंजर,
जहां मिला अवसर
चमन उजाड़ कर जश्न मनायेगी।
——

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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घर की बात दिल में ही रहे-हिन्दी व्यंग्य और शायरी (ghar ki baat dil mein rah-hindi vyangya aur shayri)

आतंक और युद्ध में फर्क होता है-हिन्दी लेख (diffarence between terarrism and war-hindi aticle)


फर्जी मुठभेड़ों की चर्चा कुछ
इस तरह सरेआम हो जाती कि
अपराधियों की छबि भी
समाज सेवकों जैसी बन जाती है।
कई कत्ल करने पर भी
पहरेदारों की गोली से मरे हुए
पाते शहीदों जैसा मान,
बचकर निकल गये
जाकर परदेस में बनाते अपनी शान
उनकी कहानियां चलती हैं नायकों की तरह
जिससे गर्दन उनकी तन जाती है।
——–
टीवी चैनल के बॉस ने
अपने संवाददाता से कहा
‘आजकल फर्जी मुठभेड़ों की चल रही चर्चा,
तुम भी कोई ढूंढ लो, इसमें नहीं होगा खर्चा।
एक बात ध्यान रखना
पहरेदारों की गोली से मरे इंसान ने
चाहे कितने भी अपराध किये हों
उनको मत दिखाना,
शहीद के रूप में उसका नाम लिखाना,
जनता में जज़्बात उठाना है,
हमदर्दी का करना है व्यापार
इसलिये उसकी हर बात को भुलाना है,
मत करना उनके संगीन कारनामों की चर्चा।
———–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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भारत में भूत-हिन्दी हास्य कविता (bharat men bhoot-hindi hasya kavita)


पोते ने दादा से पूछा
‘‘अमेरिका और ब्रिटेन में
कोई इतनी भूतों की चर्चा नहीं करता,
क्या वहां सारी मनोकामनाऐं पूरी कर
इंसान करके मरता है,
जो कोई भूत नहीं बनता है।
हमारे यहां तो कहते हैं कि
जो आदमी निराश मरते हैं,
वही भूत बनते हैं,
इसलिये जहां तहां ओझा भूत भगाते नज़र आते हैं।’’

दादा ने कहा-
‘‘वहां का हमें पता नहीं,
पर अपने देश की बात तुम्हें बताते हैं,
अपना देश कहलाता है ‘विश्व गुरु’
इसलिये भूत की बात में जरा दम पाते हैं,
यहां इंसान ही क्या
नये बनी सड़कें, कुऐं और हैंडपम्प
लापता हो जाते हैं,
कई पुल तो ऐसे बने हैं
जिनके अवशेष केवल काग़ज पर ही नज़र आते हैं,
यकीनन वह सब भूत बन जाते हैं।’’
——–

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अब अंधेरों से डरने लगे हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता


रौशनी के आदी हो गये, अब अंधेरों से डरने लगे हैं।
आराम ने कर दिया बेसुध, लोग बीमारियों से ठगे हैं।।
पहले दिखाया सपना विकास का, भलाई के ठेकेदारों ने
अब हर काम और शय की कीमत मांगने लगे हैं।।
खिलाड़ी बिके इस तरह कि अदा में अभिनेता भी न टिके
सौदागर सर्वशक्तिमान को भी सरेराह बेचने लगे हैं।
अपनी हालातों के लिये, एक दूसरे पर लगा रहे इल्ज़ाम,
अपना दामन सभी साफ दिखाने की कोशिश में लगे हैं।।
टुकुर टुकुर आसमान में देखें दीपक बापू, रौशनी के लिए,
खुली आंखें है सभी की, पता नहीं लोग सो रहे कि जगे हैं।।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इस ब्लाग ने पार की एक लाख पाठक संख्या-विशेष संपादकीय


इस ब्लाग ने आज एक लाख की पाठक संख्या को पार किया।  एक लाख पार करने वाला यह इस लेखक का तीसरा ब्लाग है।  इसकी यह यात्रा बहुत सुस्त इस मायने में रही कि इसके बाद बने दो ब्लाग इस संख्या को पहले ही पार चुके हैं।  दिलचस्प बात यह कि इस लेखक ने अपने जीवन में अंतर्जाल जगत के हिन्दी लेखन के क्षेत्र में पदार्पण इसी ब्लाग से किया था।  इसके पिछडने का मुख्य कारण यह है कि इसका पता बहुत लंबा है और इसे बिना सोचे समझे बनाया गया था।  तब यह तकनीकी ज्ञान नहीं  था कि यह इसका पता है और इसे बदलना अब कठिन होगा।
बहरहाल सुस्त रफ्तार के बावजूद यह ब्लाग इस लेखक की पहचान तो है ही साथ ही गूगल की चार रैंक प्राप्त यह पांचवा ब्लाग है।  अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की यात्रा बिना किसी आर्थिक समर्थन तथा भावनात्मक प्रेरणा के बिना तय करना मुश्किल लगता है पर अगर स्वातं सुखाय लेखन हो तो यह कठिन नहीं रहता।
अक्सर लोग सवाल करते हैं कि आप इतने सारे ब्लाग का प्रबंध कैसे करते हो? दरअसल इसका कारण इस लेखक की स्वप्रेरणा और लापरवाही है। इतने सारे ब्लाग बनाये तब यह सोचा ही नहीं था कि इनका प्रबंध रैंक के बनाये रखने के लिये करना जरूरी होगा-यह लापरवाही थी। चूंकि इस लेखक को हर विद्या में लिखने का शौक है इसलिये इस बात के प्रति आश्वस्त था कि स्वप्रेरणा के स्त्रोत इतनी आसानी से नहीं सूखने वाले।  इतना क्यों लिखते हैं? सीधा सा जवाब है कि मनोरंजन के नाम पर लिखने से अधिक कोई अच्छा साधन नहंी दिखता।  खासतौर से गुरुजनों की कृपा था माता सरस्वती का आशीर्वाद इस स्वप्रेरणा में सहायक है। टीवी देखना, अखबार पढ़ना या रेडियो सुनना कोई बुरा साधन नहीं है बशर्ते कि आपके चिंतन के तत्व सुप्तावस्था में हों।  बाजार और उसका बंधुआ प्रचार माध्यम-जो स्वतंत्र होने का दावा भर करते हैं-अपना धार्मिक, शैक्षिक तथा उपभोग का ऐजेंडा सामने रखकर दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं को बंधुआ बनाये हुए हैं। उसमें वह सफल  भी हुए हैं।  अगर आप लेखक हैं तो अभिव्यक्त होने के लिये आपके पास इन्हीं माध्यमों के पास जाने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। दूसरा रास्ता यह है कि आप अपनी लेखन और चिंतन को सुप्तावस्था में रखकर बाजार और प्रचार माध्यमों के ऐजेंडे पर चलते जायें।
ऐसे में आप ब्लाग लिखकर अपनी अभिव्यक्ति को स्वतंत्र दिशा दे सकते हैं। मुश्किल यह है कि आपको तकनीकी ज्ञान होने के साथ हिन्दी या अंग्रेजी का टाईप का ज्ञान होना चाहिये। अगर आप ऐसा नहीं करते तो लिखकर किसी को यह काम सौंपे पर आपको यह अफसोस तो रहेगा कि आप स्वयं ऐसा नहंी कर पार  रहे। बाजार ने मोबाइल और  माउस हाथ में पकड़ाकर एक उंगली  के इशारे पर काम करना सिखाया है इसलिये अब कोई दसों उंगलियां चलाने वाला काम करना ही नहीं चाहता-टाईप सीखना लोगों को बोझिल लगता है। फिर इंटरनेट पर नये टाईप का मनोरंजन ढूंढने के लिये माउस जो है।  ऐसे में वह भाग्यशाली हैं जो स्वयं टाईप कर सकते हैं और यह लेखक उनमें शामिल है।  तब क्यों न परमात्मा को धन्यवाद देते हुए लिखते रहना चाहिये।
यह सच है कि अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने से कोई प्रसिद्धि नहीं मिलती पर यह भी तय है कि भविष्य का हिन्दी लेखन यहीं से होकर गुजरेगा।  इसके दो कारण है कि इस पर अव्यवसायिक लोगों का जमावड़ा होगा जो कि बिना किसी दबाव के लिखेंगे। दूसरा यह कि परंपरागत विद्याओं से अलग यहां पर संक्षिप्तीकरण का अधिक महत्व रहेगा। अगर हम यहां देखें तो गद्य और पद्य की दृष्टि से विषय सामग्री महत्वपूर्ण नहीं  जितना कि उसका भाव है।  सामान्य तौर से समाचार पत्र पत्रिकाओं में कवितायें देखकर मुंह बिचकाते हैं पर यहां ऐसा नहीं है। इसका कारण यह है कि कथ्य और तथ्य की रोचकता होने पर उसकी विद्या का महत्व अंतर्जाल पर अधिक नहीं
रहता।  कम से कम वर्डप्रेस के ब्लाग पर कविताओं को मिलने वाले समर्थन को देखकर तो यही लगता है।
जो लोग स्वतंत्र और मौलिक रूप से अंतर्जाल पर लिख रहे हैं वह लिखने के बाद इस बात में रुचि कम लें कि उनका लिखा कितना लोग पढ़े रहे हैं क्योंकि इससे वह कुंठा का शिकार हो जायेंगे।  दूसरी बात यह भी कि उनके पाठ दूसरे लोग नहीं  पढ़ते बल्कि उनके पाठ भी अपने पाठकों  को पढ़ते हैं। यह बात टिप्पणियों से तो पता लगती ही है। जब किसी पाठ को अधिक और निरंतर पढ़ा जा रहा है। दूसरे उसे लिंक दे रहे हैं तो समझ लीजिये कि आपकी लिखी बात आगे बढ़ रही है।  अपने लिखे का पीछा न कर दूसरों को भी पढ़ें।  सबसे बड़ी बात यह है कि लिखकर अपने लेखक होने का गुमान न पालकर एक पाठक हो जायें तब आप देखेंगे कि आपकी रचनायें कैसे स्वाभाविक रूप से बाहर आती है। जहां आपने सफलता की सोचा वहां लड़खड़ाने लगेंगे।  चित्रों को लगाकर परंपरागत प्रचार माध्यमों की बराबरी न करें क्योंकि शब्दों के खेल के सामने कोई भी तस्वीर टिक नहीं सकती।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि टीवी, रेडियो या अखबार से जुड़े रहने पर आप स्वयं अभिव्यक्त नहीं होते। किसी बात पर कुड़ते हैं तो कहें या लिखें कहां? ब्लाग इसके लिये बढ़िया साधन है।  किसी का नाम न लिखकर व्यंजना विधा में लिखें। इससे दो लाभ कि आप अपनी बात भी कह गये और दूसरे को मुफ्त में प्रचार भी नहंी दिया। इस अवसर ब्लाग लेखक मित्रों को उनके सहयोग के लिये धन्यवाद तथा पाठकों का आभार जिन्होंने इसे यहां तक पहुंचने में सहायता की।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर

चमचागिरी का फन-हिन्दी शायरी


बाजार के खेल में चालाकियों के हुनर में
माहिर खिलाड़ी
आजकल फरिश्ते कहलाते हैं।
अब होनहार घुड़सवार होने का प्रमाण
दौड़ में जीत से नहीं मिलता,
दर्शकों की तालियों से अब
किसी का दिल नहीं खिलता,
दौलतमंदों के इशारे पर
अपनी चालाकी से
हार जीत तय करने के फन में माहिर
कलाकार ही हरफनमौला कहलाते हैं।
———-
काम करने के हुनर से ज्यादा
चमचागिरी के फन में उस्ताद होना अच्छा है,
अपनी पसीने से रोटी जुटाना कठिन लगे तो
दौलतमंदों के दोस्त बनकर
उनको ठगना भी अच्छा है।
अपनी रूह को मारना इतना आसान नहीं है
इसलिये उसकी आवाज को
अनसुना करना भी अच्छा है।
किस किस फन को सीख कर जिंदगी काटोगे
नाम का ‘हरफनमौला’ होना ही अच्छा है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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स्वतंत्र और मौलिक लेखकों को सम्मान मिलना सरल नहीं-हिन्दी लेख


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कोई साहित्य अकादमी अगर अपने द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों के लिये किसी देशी या विदेशी कंपनी को प्रायोजित करने के लिये बुलाती है तो उसमें बुराई देखना या न देखना हम जैसे असंगठित आम लेखकों के विषय के बाहर की बात है। सुनने में आ रहा है कि एक विचाराधारा विशेष के लेखक समूह उसका विरोध कर रहे हैं। तय बात है जब कोई संगठन अपनी तरफ से कोई अभियान प्रारंभ करता है तो वह आमजन का हवाला देता है वही संगठित विचाराधारा के समूह बद्ध लेखकों ने भी किया।
उनका तर्क बड़ा जोरदार है कि इस देश के लेखकों की एक बहुत बड़ी आबादी इस देश के समाज में चल रहे संघर्षों पर रचनायें कर रही हैं और इस तरह किसी बहुराष्ट्रीय को यहां बुलाकर उनका मजाक उड़ाना है।
उस साहित्य अकादमी के लोकतांत्रिक और स्वायत्त स्वरूप को क्षति पहुंचने की संभावना भी व्यक्त की जा रही है। चाहे देश में कोई भी भाषा हो, कम से कम एक आम लेखक तब तक कहीं से पुरस्कार मिलने की आशा नहीं करता जब तक वह संस्थागत होकर किसी को अपना शीर्ष पुरुष नहीं बनाता-हिन्दी का तो मामला कुछ अधिक ही विचित्र है। जब भी गणतंत्र दिवस आता है अनेक संस्थायें हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत करती हैं पर यह पुरस्कार किसी आम लेखक या कवि के पास जाते हुए नहीं दिखता। अनेक पाठकों को यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि इस देश में आजादी के बाद अनेक ऐसे शायर, कवि और लेखक हुए हैं जिन्होंने गज़ब का लिखा पर उनका नाम कभी राष्ट्रीय मानचित्र पर नहीं दिखा क्योंकि वह अपनी रोजरोटी के लिये जूझते रहे और उनके पास किसी संस्था से जुड़ने का अवसर नहीं रहा-यह लेखक कम से कम चार गज़ब के शायर और कवियों के बारे में जानता है। पता नहीं बाकी लोगों का इसमें क्या अनुभव है पर इस लेखक ने देखा है कि संस्थागत लेखन में पुरस्कार खूब बंटे पर उसे हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठा नहीं मिल सकी भले ही उसे येनकेन प्रकरेण पाठ्य पुस्तकों में स्थान दिया गया। यही कारण है कि हिन्दी में नाटक, कहानियां और उत्कृष्ट पद्य की कमी की बात हमेशा कही जाती है।
इस बहस में मुख्य प्रश्न यह है कि जब फिल्म, क्रिकेट, व्यापार तथा अन्य क्षेत्रों में देशी तथा विदेशी कंपनियों का निवेश आ रहा है और उसका यहां के धनपति तथा अन्य लोग लाभ उठा रहे हैं तो फिर लेखकों को उससे दूर क्यों रहना चाहिये? एक बात सभी को समझना चाहिये कि भारत में हिन्दी तथा अन्य भाषाओं का आम लेखक कभी अपने लेखन की वजह से फलदायी स्थिति में नहीं रहा। संस्थागत लेखक भले ही उसका नाम लेते हों पर असंगठित लेखक इस बात को जानते हैं कि वह अपने लेखन की दम पर कभी बड़े पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सकते। अभी जिस अभियान की बात हम कर रहे हैं उसे आम लेखक का समर्थन मिल रहा होगा यह आशा करना व्यर्थ ही है क्योंकि आम लेखक को न तो बहुराष्ट्रीय कंपनी की अनुपस्थिति में पुरस्कार मिलना था और न अब मिलना है? फिर जब हम देख रहे हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कई जगह अपने पांव फैलाये हैं तो साहित्य उससे कैसे बच सकता है? यहां राष्ट्रप्रेम की बात भी नहीं चल सकती क्योंकि यह पुरस्कार मिलना तो भारत के ही लोगों को है। दूसरी बात यह है कि पुरस्कार देने वाली सभी संस्थायें किसी न किसी विचारधारा के प्रभाव में रहती हैं और संबद्ध लेखक ही पुरस्कृत होते हैं ऐसे में एकता की बात बेमानी लगती है। दूसरा यह भी कि इन पुरस्कारों में हिन्दी के अनेक प्रदेश उपेक्षित रहे हैं और वहां के लेखकों के लिये ऐसे पुरस्कार एक अजूबा ही हैं। फिर क्षेत्र, भाषा और वैचारिक विभाजन की वजह से देश का बहुत बड़ा हिस्सा यह अनुभव कर सकता है कि संभवतः एक संस्था के लेखक पुरस्कार पायेंगे और दूसरे अपनी उपेक्षा की आशंका से पुरस्कारों के बहुराष्ट्रीय कंपनी के प्रायोजन का विरोध कर रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि जो लेखक हैं उनको इस तरह के विरोध के लिये सड़क पर क्यों आना चाहिये? जब आम लेखक को लिखने के लिये प्रेरित करने की बात आती है तो संस्थागत लेखक कहते हैं कि पुरस्कार आदि की बात भूल जाओ क्योंकि यह स्वांत सुखाय है पर जब अपने सम्मानित होने का अवसर उपस्थित हो अपने पक्ष में ढेर सारे तर्क देते हैं। फिर सभी प्रकार के संस्थागत लेखक अपने ही निबंधों में बड़ा लेखक उसी को मानते हैं कि जिसे पुरस्कृत किया गया हो या जिसकी किताब छपी हो। ऐसे में उनको याद रखना चाहिये कि इस देश में लाखों लेखक हैं और सभी को न तो पुरस्कृत किया जा सकता है और न ही सभी किताबें छपवा सकते हैं। ऐसे में किसी अकादमी द्वारा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से अपने पुरस्कारों का प्रायोजन बुरा हो तो भी आम लेखक उसके विरोध से परे दिखता है। संस्थागत लोग चाहे कितना भी शोर करें वह संपूर्ण भाषा साहित्य के प्रतिनिधि होने का दावा नहीं कर सकते क्योंकि उनके साथ जुड़े लोग भी सीमित क्षेत्र से होते हैं। इसके विपरीत अभी तक पुरस्कारों से वंचित कुछ उपेक्षित संगठित लेखकों का समूह इस आशा से इसका समर्थन भी कर सकता है कि कहीं उनको पुरस्कार मिल जाये। अलबत्ता हम जैसे आम लेखक के लिये ऐसे विषय केवल किनारे बैठकर देखने जैसे दिखते हैं। असंगठित क्षेत्र का लेखक चाहे कितना भी लिख ले पुरस्कार या किताब छपे बिना छोटा ही माना जाता है और देश में ऐसे ही लोगों की संख्या अधिक है।

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हिन्दी के ब्लाग क्रिकेट मैच से पिट जाते हैं-व्यंग्य चिंत्तन


वह हमारा मित्र है बचपन का! कल हम पति पत्नी उसे घर देखने गये। कहीं से पता लगा कि वह बहुत बीमार है और डेढ़ माह से घर पर ही पड़ा हुआ है।
घर के बाहर दरवाजे पर दस्तक दी तो उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला और देखते ही उलाहना दी कि ‘आप डेढ़ महीने बाद इनको देखने आये हैं।’
मैने कहा-‘पर उसने मुझे कभी फोन कर बताया भी नहीं। फिर उसका मोबाइल बंद है।’
वह बोली-‘नहीं, हमारा मोबाइल चालू है।’
मैंने कहा-‘अभी आपको बजाकर बताता हूं।’
वह कुछ सोचते हुए बोलीं-‘हां, शायद जो नंबर आपके पास है उसकी सिम काम नहीं कर रही होगी। उनके पास दो नंबर की सिम वाला मोबाइल है।’

दोस्त ने भी उलाहना दी और वही उसे जवाब मिला। उसकी रीढ़ में भारी तकलीफ है और वह बैठ नहीं सकता। पत्थरी की भी शिकायत है।
हमने उससे यह तो कहा कि उसका मोबाइल न लगने के कारण संशय हो रहा था कि कहीं अपनी बीमारी के इलाज के लिये बाहर तो नहीं गया, मगर सच यह है कि यह एक अनुमान ही था। वैसे हमें भी हमें पंद्रह दिन पहले पता लगा था कि वह बीमार है यानि एक माह बाद।

हमें मालुम था कि बातचीत में ब्लागिंग का विषय आयेगा। दोनों की गृहस्वामिनियों के बीच हम पर यह ताना कसा जायेगा कि ब्लागिंग की वजह से हमारी सामाजिक गतिविधियां कम हो रही हैं। हालांकि यह जबरन आरोप है। जहां जहां भी सामाजिक कार्यक्रमों में उपस्थिति आवश्यक समझी हमने दी है। शादियों और गमियों पर अनेक बार दूसरे शहरों में गये हैं। वहां भी हमने कहीं साइबर कैफे में जाकर अपने ईमेल चेक करने का प्रयास नहीं किया। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि जिस घर में गये वहां पर इंटरनेट सामने था पर हमने उसे अनदेखा कर दिया। बालक लोग इंटरनेट की चर्चा करते रहे पर हमने खामोशी ओढ़ ली। इसका कारण यह था कि हमने जरा सा प्रयास किया नहीं कि हम पर ब्लाग दीवाना होने की लेबल लगने का खतरा था। बसों में तकलीफ झेली और ट्रेनों में रात काटी। कभी अपने ब्लाग की किसी से चर्चा नहीं की। अलबत्ता घर पर आये तो सबसे पहला काम ईमेल चेक करने का किया क्योंकि यह हमारा अपना समय होता है।
लगभग दो घंटे तक मित्र और उनकी पत्नी से वार्तालाप हुआ। हमने उससे यह नहीं पूछा कि ‘आखिर उसके खुद के ब्लाग का क्या हुआ?’
उसने इंटरनेट कनेक्शन लगाने के बाद अपन ब्लाग बनाया था। उसने उस पर एक कविता लिखी और हमने पढ़ी थी। उससे वादा किया था कि वह आगे भी लिखेगा पर शर्त यह रखी थी कि हम उसे घर आकर ब्लाग की तकनीकी की पूरी जानकारी देंगे। इस बात को छह महीने हो गये। अब बीमारी की हालत में उससे यह पूछना सही नहीं था कि उसके ब्लाग का क्या हुआ।
उसे हमने अपने गूगल का इंडिक का टूल भी भेजा था ताकि हिन्दी लिखने में उसे आसानी हो पर पता नहीं उसका उसने क्या किया?
उसकी बीमारी पर चर्चा होती रही। उसका मनोबल गिरा हुआ था। आखिरी उसकी पत्नी ने कह ही दिया कि ‘यह इंटरनेट पर रात को दो दो बजे तक काम करते थे भला क्यों न होनी थी यह बीमारी?’
हमने पूछ लिया कि ‘क्या तुम ब्लाग लिखते थे।’
इसी बीच श्रीमती जी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा कि ‘यह भी बाहर से आते ही थोड़ी देर में ही इंटरनेट से चिपक जाते हैं, और रात के दस बजे तक उस पर बैठते हैं।’
मित्र पत्नी ने कहा-‘पर यह तो रात को दो दो बजे तक कभी कभी तो तीन बजे तक वहां बैठे रहते हैं।’
श्रीमतीजी ने कहा-‘पर यह दस बजे नहीं तो 11 बजे के बाद बंद कर देते हैं। सुबह अगर बिजली होती है तो बैठते हैं नहीं तो चले जाते हैं।’
इधर हमने मित्र से पूछा-‘तुम इंटरनेट पर करते क्या हो? वह मैंने तुम्हें हिन्दी टूल भेजा था। उसका क्या हुआ? वैसे तुमसे जब भी ब्लाग के बारे में पूछा तो कहते हो कि समय ही नहीं मिलता पर यहां तो पता लगा कि तुम रात को दो बजे तक बैठते हो। क्या करते हो?’
वह बोला-‘मैं बहुत चीजें देखता हूं गूगल से अपना घर देखा। रेल्वे टाईम टेबल देखता हूं। अंग्रेजी-हिन्दी और हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी देखता हूं। अंग्रेजी में लिखना है। बहुत सारी वेबसाईटें देखता हूं। अखबार देखता हूं। स्वाईल फ्लू जब फैला था उसके बारे में पूरा पढ़ा। हां, मैं अंग्रेजी वाली वेबसाईटें पढ़ता हूं। मैं अंग्रेजी में लिखना चाहता हूं। हिन्दी तो ऐसे ही है।’
‘कैसे?’हमने पूछा
‘कौन पढ़ता है?’वह बोला।
‘‘हमने पूछा तुम अखबार कौनसे पढ़ते हो?’
वह बोला-‘हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही पढ़ता हूं। हां, अपना लेखन अंग्रेजी में करना चाहता हूं। जब मैं ठीक हो जाऊं तो आकर ब्लाग की तकनीकी की विस्तार से जानकारी दे जाना। हिन्दी बहुत कम लोग पढ़ते हैं जबकि अंग्रेजी से अच्छा रिस्पांस मिल जायेगा।’
हम वहां से विदा हुए। कुछ लोग तय कर लेते हैं कि वह बहुत कुछ जानते हैं। इसके अलावा अपने समान व्यक्ति से कुछ सीखना उनको छोटापन लगता है। हमारा वह मित्र इसी तरह का है। जब उसने ब्लाग बनाया था तो मैं उसे कुछ जानकारी देना चाहता था पर वह समझना नहीं चाहता था। उसने उस समय मुझसे ब्लाग के संबंध में जानकारी ऐसे मांगी जैसे कि वह कोई महान चिंतक हो ओर मैदान में उतरते ही चमकने लगेगा-‘मेरे दिमाग में बहुत सारे विचार आते हैं उन्हें लिखूंगा’, ‘एक से एक कहानी ध्यान में आती है’ और ऐसी बातें आती हैं कि जब उन पर लिखूंगा तो लोग हैरान रह जायेंगे’।
उसने मेरे से हिन्दी टूल मांगा था। किसलिये! उसके कंप्यूटर में हिन्दी फोंट था पर उसकी श्रीमती जी को अंग्रेजी टाईप आती थी। वह कहीं शिक्षिका हैं। अपने कक्षा के छात्रों के प्रश्नपत्र कंप्यूटर पर हिन्दी में बनाने थे और हिन्दी टाईप उनको आती नहीं थी। उस टूल से उनको हिन्दी लिखनी थी।
उसने उस टूल के लिये धन्यवाद भी दिया। जब भी उसके ब्लाग के बारे में पूछता तो यही कहता कि समय नहीं मिल रहा। अब जब उसकी इंटरनेट पर सक्रियता की पोल खुली तो कहने लगा कि अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ा रहा है। हमने सब खामोशी से सुना। हिन्दी लेखकों की यही स्थिति है कि वह डींगें नहीं हांक सकते क्योंकि उसमें कुछ न तो मिलता है न मिलने की संभावना रहती है। अंतर्जाल पर अंग्रेजी में कमाने वाले बहुत होंगे पर न कमाने वाले उनसे कहीं अधिक हैं। हमारे सामने अंग्रेजी ब्लाग की भी स्थिति आने लगी है। अगर सभी अंग्रेजी ब्लाग हिट हैं तो शिनी वेबसाईट पर हिन्दी ब्लाग उन पर कैसे बढ़त बनाये हुए हैं? अंग्रेजी में अंधेरे में तीर चलाते हुए भी आदमी वीर लगता है तो क्या कहें? एक हिन्दी ब्लाग लेखक के लिये दावे करना मुश्किल है। हो सकता है कि हमारे हिन्दी ब्लाग हिट पाते हों पर कम से कम एक विषय है जिसके सामने उनकी हालत पतली हो जाती है। वह है क्रिकेट मैच! उस दिन हमारे हिन्दी ब्लाग दयनीय स्थिति में होते हैं। ऐसे में लगता है कि ‘हम किसी को क्या हिन्दी में ब्लाग लिखने के लिये उकसायें जब खुद की हालत पतली हो।’ फिर दिमाग में विचार, कहानी या कविताओं का आना अलग बात है और उनको लिखना अलग। जब ख्याल आते हैं तो उस समय किसी से बात भी कर सकते हैं और उसे बुरा नहीं लगा पर जब लिखते हैं तो फिर संसार से अलग होकर लिखना पड़ता है। ऐसे में एकांत पाना मुश्किल काम होता है। मिल भी जाये तो लिखना कठिन होता है। जो लेखक हैं वही जानते हैं कि कैसे लिखा जाये? यही कारण है कि दावे चाहे जो भी करे लेखक हर कोई नहीं बन जाता। उस पर हिन्दी का लेखक! क्या जबरदस्त संघर्ष करता हुआ लिखता है? लिखो तो जानो!
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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मुद्दा कथा चोरी का-व्यंग्य आलेख (mudda katha chori ka-hindi lekh)


यह पेज

पता नहीं उस लेखक के उपन्यास पर फिल्म बनी हैं या नहीं-जैसा कि वह दावा कर रहा है। बहरहाल फिल्म के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्माता-कई जगह नायक का अभिनय करने वाले अभिनेता भी फिल्म में पैसा लगाते हैं पर जाहिर नहीं करते-इससे इंकार कर रहे हैं। फिल्म निर्माता ने तो एक पत्रकार को इस विषय पर प्रश्न करने पर कह दिया-‘शटअप’।
इस विवाद में एक बात निश्चित है कि मुंबईया फिल्म बनाने वालों के पास कल्पनाशक्ति का अभाव है और उससे देखकर यह मजाकिया निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर फिल्म की कहानी कुंभ मेले से बिछड़े भाईयो बहिनों के मिलन, किसी मजबूर आदमी के भईया से भाई या बहिन जी बनने या किसी विदेशी फिल्म की देशी नकल न हो तो यकीनन वह किसी देशी लेखक की नकल है।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे एक ग्वालियर मित्र लेखक का है जो शायद बीस वर्ष से अधिक पुराना है। उन्होंने एक कहानी संग्रह बड़ी मेहनत से पैसा खर्च कर प्रकाशित कराया था। कहानियां ठीकठाक थी। किताब कोई अधिक प्रसिद्ध नहीं थी पर उनमें से एक कहानी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कुछ दिन बाद बनी एक फिल्म की कथा देखकर उन्होंने दावा किया कि वह उनकी कहानी की नकल है। उन्होंने इसके बारे में तथ्य देकर एक लेख स्थानीय समाचार पत्रों में लिखा था। बाद मेें क्या हुआ पता नहीं पर वह मित्र आज भी हमसे अक्सर मिलते रहते हैं। हम इस बारे में कोई प्रश्न नहीं करते कहीं उनको यह न लगे कि यह व्यंग्यकार जरूर कुछ हमारे बारे में अंटसंट लिखेगा-वह उस पत्रिका के संपादक भी रहे हैं जिसमें हमारे व्यंग्य प्रकाशित होते रहे हैं। सच बात कहें तो उस समय उनकी यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगी थी कि कोई बड़ा कलात्मक फिल्मों का निर्माता-आम धारा से हटकर बनी फिल्मों को कलात्मक भी माना जाता है-ऐसी हरकत कर सकता है। व्यवसायिक फिल्मों में उस समय कहानी के नाम पर तो कुछ होता ही नहीं था इसलिये यह आरोप तो कोई उन पर लगाता ही नहीं था।
बहरहाल समय के साथ हमें लगने लगा कि चाहे व्यवसायिक फिल्मकार हों या कलात्मक उनके पास कहानियों का नितांत अकाल है। फिल्मी दृश्यों के तकनीकी पक्ष में उनकी कल्पना शक्ति कितनी भी जोरदार हो कहानी और पटकथा में वह अत्यंत कमजोर हैं।
यह सुंदर, चमकते और ठुमकते हुए चेहरे चिंतन से शून्य हैं और जब कहीं साक्षात्कार होते हैं तब इनकी असलियत वहां दिखाई दे जाती है। अंग्रेजी में बोलेंगे ताकि हिन्दी भाषा का दर्शक औकात न भांप लें और सवालों पर ऐसे भड़केंगे कि जैसे वह हर जगह नायक या निर्देशक हों।
इसलिये हमें उस लेखक की बात पर अधिक यकीन है कि उसके उपन्यास से कहानी चुराकर अपनी पटकथा के साथ फिल्म वालों ने अपनी प्रस्तुति की हो। हालांकि वह लेखक अंग्रेजी का है पर है तो भारतीय। भारतीय लेखकों की कल्पनाशीलता लाजवाब है इस बात को शायद अंग्रेजी के साथ अंग्रेजों के भक्त स्वीकार नहीं करेंगे। यही कारण है कि अंतर्जाल के कुछ लेखक वैश्विक काल में हिन्दी के उद्भव की कामना करते हैं क्योंकि इसमें नया लिखे जाने की पूरी संभावना है। बहरहाल उस लेखक ने अपनी बात टीवी पर हिन्दी में रखी और ऐसा लगा कि उसका कहना सच भी हो सकता है। वैसे वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का अंग्रेजी का लेखक है इसलिये उसकी बात सुनी जायेगी पर बात यहीं खत्म नहीं होती। इससे पहले भी देश के कुछ हिन्दी लेखकों ने ऐसी शिकायतें की यह अलग बात है कि वह छोटे शहरों के थे और देश के प्रचार माध्यम केवल बड़े शहरों के लेखकों की बातों को ही अधिक महत्व देते हैं। टीवी वालों से इसे महत्व भी इसलिये दिया क्योंकि लेखक एक तो अंग्रेजी का है फिर वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है और वह भारतीय प्रचार माध्यमों का मोहताज नहीं है-हिन्दी वाला होता तो शायद उसे वह महत्व नहीं देते क्योंकि उससे उसके प्रसिद्ध होने का भय पैदा हो जाता। यह काम प्रचार माध्यम कभी नहीं कर सकते कि वह किसी हिन्दी भाषी लेखक को स्वयं लेखक बनायें। बन जाये तो फिर उसका उपयोग वह कर सकते हैं।
मुद्दे की बात यह है कि मुंबईया फिल्म वाले हिन्दी के मूल लेखकों का महत्व नहीं समझते-हमने सुना है कि प्रेमचंद फिल्म क्षेत्र छोड़कर अपनी साहित्य दुनियां में लौट गये। कवि नीरज भी वहां के रवैये से संतुष्ट नहीं थे। सच तो यह है कि आजतक एक भी हिन्दी का स्थापित लेखक फिल्म से नहीं जुड़ा है। यह हिन्दी लेखकों की कमी नहीं बल्कि फिल्म वालों की कमजोरी का प्रमाण है। वह अपनी दुनियां को चमकदार बनाये रखना चाहते हैं पर कहानियों के पक्ष को समझते नहीं। कुंभ मेले में बिछड़े बच्चों के मिलन या मजबूरी से भाई बने कहानी में उनको अच्छे और आकर्षक सैट दिखाने का अवसर मिलता है और वह ऐसी कहानियां अपने लिपिक नुमा लेखकों से लिखा लेते हैं। जिसे कहानी कहा जाता है उसे कभी फाइव स्टार होटल में या किसी इमारत में बैठकर केवल कल्पना से नहीं लिखा जा सकता है। उसके लिये जरूरी है कि सत्यता के पुट के लिये आदमी सड़क पर स्वयं निकले। अंधेरी गलियों में घूमे और ऊबड़ खाबड़ सड़कों में धूल फांके। यह उनके व्यवसायिक लेखकों के बूते का नहीं है। अब देखना यह है कि उस अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध लेखक के साथ फिल्म वालों का विवाद किस जगह पहुंचता है।
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हिन्दी भाषा की महिमा-आलेख


हिन्दी भाषा की एक महिमा बड़ी विचित्र है कि उसके अधिकतर लेखक अपनी रचनाओं में यह तो बताते हैं कि कब, कैसे, कहां, क्यों और किसके लिये लिखना चाहिये। वह अपने इस विषय पर इतने शब्द खर्च करते हैं कि उससे एक सही समय पर एक बेहतर गद्य या पद्य रचना कागज या कंप्यूटर पर अपनी साहित्यक अभिव्यक्ति के लिये लिखकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा सकती है। इसे हम कहें तो यह लेखक रचनाधर्मियों के लिये संदेश देते हुए लिखते हैं और पाठकों का इससे कोई मतलब नहीं होता। क्योंकि पाठक हर समय परिस्थतियों के अनुसार शब्द रचनाओं को अखबार या कंप्यूटर पर आत्म संतोष के लिये स्वांत सुखाय पढ़ते हैं। हम सीधी बात करें तो यह कहा जा सकता है कि एक आम पाठक को बेहतर विषय पर एक बेहतर निबंध, कविता, कहानी, और व्यंग्य रचना से ही सरोकार हेाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो लेखकों के लिये ऐसे लिखने वाले बहुत हैं जो उनको पाठक के लिये लिखना सिखा रहे हैें। इसकी वजह से जो लेखक स्वयं भी एक पाठक के रूप में पढ़ते हैं अन्य का लिखा पढ़ा निराश हो जाते हैं।
समाचार पत्र पत्रिकाओं, टीवी चैनलों, सार्वजनिक चर्चाओं और अब अंतर्जाल में हिन्दी भाषा में लेखकों की कमी की शिकायत करने वाले अनेक लेख मिल जायेंगे पर स्वयं पाठक के लिये लिखने वाले कम ही हैं। इसका कारण यह है कि देश के कथित बुद्धिजीवी पाठक के लिये लिखने जैसे श्रमसाध्य काम करने से बचते हुए केवल लेखकों के लिये प्रचार में अपनी उपस्थिति बनाये रखने के लिये ही ऐसी चर्चाये करते हैं। इससे उनको लाभ यह होता है कि वह लेखकों के लेखक बन जाते हैं। कुछ लेखक इस गलतफहमी में रहते हैं कि अगर कोई हमें समझा रहा है तो वह वाकई बड़ा लेखक होगा इसलिये वह उनकी चर्चा अपनी रचनाओं में करते हैं। कुछ उनके चेला होते हैं जो अपने गुरु का उपदेश प्रचार माध्यमों में वितरित करते है। ऐसे में वह आम पाठक के लिये क्यों लिखें? वैसे यह हिन्दी भाषा ही जिसमें ऐसे अनेक लेखक हैं जिन्होंने साहित्य जैसा कुछ न लिखा हो पर साहित्यकार कहलाते हैं। याद रहे एक हिन्दी विद्वान का कहना है कि सामयिक विषयों में लिखना साहित्य नहीं होता पर यह सामयिक विषय पर लिखने वाले ही महान लेखक बन रहे है। फिर अब तो इंटरनेट पर लिखा जा रहा है और उसमें स्वयं टंकित करने जैसा श्रम से भरपूर कार्य करना हरेक के बूते का नहीं है। इसलिये हिन्दी बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग अब अखबारों और सेमिनारों में श्रमजीवी ब्लाग लेखकों को यह समझाने में लगेे हैंे कि क्या लिखें। ब्लाग लेखकों के लिये श्रमजीवी शब्द का प्रयोग इसलिये ठीक लगता है क्योंकि उनको यहां लिखने पर कुछ नहीं मिलता। उनकी रोजीरोटी के साधन उनके श्रम साध्य कार्यों से ही चलती है चाहे पूरी देह से या केवल उंगलियों से ही कलम या टाईप कर पूरे किये जाते हैं। ब्लाग लिखने से पैसा नहीं मिलता भले ही बुद्धि लगती हो पर उसे बुद्धिजीवी नही माना जा सकता है।
यह केवल प्रस्तावना थी। असल बात यह है कि एक अंतर्जाल पर एक विद्वान ब्लाग लेखक ने एक महिला लेखक का लेखक प्रकाशित किया जो शायद उनकी छात्रा है-ऐसा बताया गया है। उसमें हिन्दी बुद्धिजीवियों पर जमकर शब्दिक प्रहार किये गये। उनकी कुछ आलोचनाओं का देखें तो वह इस प्रकार हैं-
1-हिन्दी के बुद्धिजीवी ज्ञान के अभाव के कारण ही वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव नहीं बना सकें, जबकि बंगाली सहित कुछ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के रचनाकारों ने यह सफलता पाई।
2. हिन्दी के बुद्धिजीवी केवल भक्त बनाते हैं पर ज्ञान पूर्वक नहीं लिखते।
3. हिन्दी के बुद्धिजीवी अहंकार से सराबोर हैं।
उसमें तमाम तरह की आलोचना थी। हिन्दी बुद्धिजीवियों पर प्रहार करते हुए उस लेख में कोई आपत्ति नहीं थी। अनेक ब्लाग लेखक ऐसी बातें लिख चुके हैं यह अलग बात है कि उस लेख की भाषा और तथ्य बहुत अच्छे थे। मुश्किल यह हुई कि उस लेख की पैरौडी बनाकर हिन्दी ब्लाग लेखकों की तरफ मोड़ने की कोशिश करते एक ब्लाग लेखक ने उसे अपने पाठ के रूप में प्रकाशित किया। बुद्धिजीवी की जगह हिन्दी चिट्ठाकर कम पैरोडीकार ने हिन्दी के ब्लाग लेखकों को हिला दिया। बात यहीं नहीं रुकी। एक चर्चाकार ने ने ब्लाग लेखक को अपने यहां पाठ के रूप में रखा जबकि उनके ब्लाग पर किसी एक ब्लाग की चर्चा नहीं होती। अपनी आलोचना से आहत अनेक ब्लाग लेखकों ने अपना विवेक खो दिया और बेचारगीपूर्ण टिप्पणियां लिखी। पैरोडीकार और चर्चाकार ब्लागरों पर अपना गुस्सा निकाला तो ठीक उस लेख पर भी उन्होंने प्रहार किये जिसमें बुद्धिजीवियों पर लिखा गया था।
ब्लागरों ने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि इस तरह की बातें वह स्वयं ही हिन्दी के बुद्धिजीवियों पर करते हैं पर बड़ी चालाकी से उन्हे पैरोडी बनाकर निशाना बनाया गया।
जिन पैरोडीकार और चर्चाकार ने इस लेख को आगे बढ़ाया वह अभी कुछ ही दिन पहले हिन्दी बुद्धिजीवियों के एक मसीहा के पास हिन्दी ब्लाग जगत के लिए आशीवार्द लेने गये थे। श्रमसाध्य और प्रोत्साहन विहीन हिन्दी ब्लाग लेखकों के लिये वहां भी आलोचना के अलावा क्या हो सकता था! उस पर जमकर हंगामा मचा! भारतीय बुद्धिजीवियों ने तब भी हिन्दी ब्लाग जगत पर कम प्रहार नहीं किए। देखा जाये तो पैरोडीकार और चर्चाकार दोनों ही बुद्धिजीवियों के प्रतिनिधि के तौर पर यहां अपने पाठ लिखे रहे थे। उन्होंने हिन्दी ब्लाग जगत पर तमाम तरह के कटाक्ष भी किये। सीधा कहें तो पैरोडीकार और चर्चाकार परंपरागत बुद्धिजीवियों के पैरोकार दिखते रहे हैं और बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष किये लेख को उन्होंने चालाकी से हिन्दी ब्लाग जगत पर रखा। इसे कहते हैं कि ‘मियां की जूती मियां के सिर’।
पैरोडी पाठ पर आक्रमण करने वाले एक ब्लाग लेखक तो स्वयं भी उस आशीर्वाद सम्मेलन में गये थे। जहां रात भर उनको होटल में मच्छरों ने काटा था।
अब ब्लाग लेखक बड़ी बिचारागी से पैरोडी पाठ पर पैरोडी कार और चर्चाकार से पूछ रहे हैं कि‘बताईये हिन्दी ब्लाग जगत पर कौन हिन्दी की सेवा कर रहा है कौन नहीं?
इन ब्लाग लेखकों को यह पता हीं नहीं कि इसका जवाब उन्हें नहीं मिलना। पैरेाडीकार और चर्चाकार खुद अपने को हिन्दी का सेवक तो मानेंगे नहीं। दूसरे को मानकर उसे सम्मानित करने वाला कोई नहंी है। दूसरी बात उन्हें समझ लेना चाहिये कि मूल पाठ लिखने वाली लेखिका ने बुद्धिजीवियों पर निशाना साधा था। अगर अगली बार किसी ब्लाग लेखक को ऐसे ही किसी बुद्धिजीवियों के मसीहा से हिन्दी ब्लाग जगत को आशीर्वाद दिलाने का के लिये होने वाले सम्मेलन में जाने का अवसर मिले तो वह उस पाठ की कापी लेजाकर पढ़ कर देखे। तय बात है उसे किसी होटल में मच्छर काटने का अवसर नहीं मिलेगा क्योंकि आयोजक उसे तत्काल वहां से अपने ही खर्च पर वापस लौटने को कह सकते हैं।
यह सच है कि हिन्दी के बुद्धिजीवी और लेखक वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना सके जैसे कि बंगाली भाषा वालों ने बनाये हैं। इसके अन्य कारण हैं जिस पर यहां लिखना ठीक नहीं है पर हिन्दी ब्लाग जगत पर यह नियम लागू नहीं होता।
हिन्दी ब्लाग लेखक चाहें तो जाकर पैरोडीकार और चर्चाकार से यह पूछें कि क्या किसी अन्य भाषा में केाई ऐसा लेखक है जिसके बीस में से पांच ब्लाग गूगल की पेज रैकिंग में चार का अंाकड़ा छूने के साथ ही अन्य भी 14 भी तीन की रैकिंग से नीचे न हों। जिन पांच ब्लाग की गूगल पेज रैकिंग चार हैं उसके नाम हम यही बतला देते हैं।
1. हिन्दी पत्रिका
2.शब्द पत्रिका
3. ईपत्रिका
4.दीपक बापू कहिन
5.शब्दलेख पत्रिका।
बाकी तीन रैकिंग वाले ब्लाग के विवरण की आवश्यकता नहीं है। हां, इस पर अलेक्सा की रैकिंग की बात न करना क्योंकि हम इस मामले में गूगल विश्लेक्षण पर अधिक भरोसा करते हैं। एक बाद दूसरी भी है कि शिनी वेबसाईट पर ईपत्रिका अनेक बार अंग्रेजी ब्लाग पर बढ़त बनाता हुआ शीर्ष क्रम में चार तक पहुंच चुका है। इसका आशय यह है कि देश के हिन्दी ब्लाग जगत को कमतर मत समझें। कम से कम बुद्धिजीवियों वाले लेख की पैरोडी तो न चलायें तभी अच्छा। वैसे ब्लाग लेखकों को अपनी पढ़ने की क्षमता भी विकसित करना चाहिये ताकि किसी प्रकार की पैरोडी उन पर चिपकाये तो बिचारगी से नहीं बल्कि दृढ़तापूर्वक उसका मुकाबला कर सकें। आने वाले समय में हिन्दी की महिमा बढ़ेगी और ऐसी चालाकियों को समझना जरूरी है।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दू अध्यात्मिक संदेश-धीरज न रखने से पतन होता है (dhiraj aur jivan-hindu adhyatmik sandesh)


कुमिकीटवधोहत्या मद्यानुगतभोजनम्।
फलेन्धनकुसुमस्तयमधैर्य च मलावहम्।।
हिंदी में भावार्थ-
कोई भी मनुष्य कीड़े मकोड़ों तथा पक्षियों की हत्या कर , मदिरा के साथ मांस का भक्षण कर, ईंधन व फूलों को चुराकर तथा जीवन में धैर्य न रखकर पतित हो जाता है।
ब्राह्म्णस्य रुजकृत्वा घ्रातिरघ्रेयमद्ययोः।
जैह्मयं च मैथुनं पुंसिजातिभ्रंशकरं स्मृतम।।
हिंदी में भावार्थ-
डंडे से पीटकर किसी पीड़ा देना, मदिरादि दुर्गंधित पदार्थों को सूंघना, कुटिलता करना तथा पुरुष से मैथुन करना जैसे पाप मनुष्य जाति के लिये भयंकर हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनु स्मृति का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि उनके युग में जिन कृत्यों और चीजों को पाप कहा जाता था वह अब आधुनिक सभ्यता का प्रतीक बन गये हैं। मदिरा के साथ मांस के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं समलैंगिकता के नाम पर आज की नयी पीढ़ी को इस तरह गुमराह किया जा रहा है जैसे कि यह कोई नया फैशन हो। देहाभिमान मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और यही उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की वजह से दिमागी रूप से बंधक बना देती है। स्वतंत्रता के नाम पर वह एक उपभोक्ता बनकर रह जाता है। मगर उसका सबसे बड़ा भयंकर रूप आजकल समलैंगिकता के लिये आजादी के अभियान के रूप में दिख रहा है जैसे कि यह कोई एसा काम हो जो महान आनंद देने वाला है। सभी जानते हैं कि दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की एक सीमा है। एक समय के बाद भौतिकता से आदमी का मन ऊबने लगता है और ऐसे में उसे अध्यात्मिक शांति की आवश्यकता होती है पर उसे कोई समझ नहीं पाता। यही कारण है कि समाज में लोगों का मानसिक संताप बढ़ रहा है और उसके कारण अनेक प्रकार की नयी बीमारियां जन्म ले रही हैं।
हमारे यहां शादी को एक संस्कार कहा जाता है। इसमें दिये जाने वाले भोजों के अवसर पर मदिरा और मांस का सेवन करने की किसी परंपरा की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं है पर आज उसे एक फैशन मानकर अपनाया जा रहा है। जहां हमारी संस्कृति की बात आती है तो हम अपने परिवारिक परंपराओं और संस्कारों का उदाहरण देते हैं पर यह केवल उपरी आवरण है जो दुनियां को दिखा रहे हैं पर सच यह है कि आधुनिकता के नाम पर कालिख उन पर हमने स्वयं ही पोती है।
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ख्वाब जब हकीकत बनते हैं-हिन्दी शायरी (khavab aur haqiqut-hindi shayri)


सपने जैसे शहर में
ख्वाब लगती उस इमारत की छत के नीचे
रौशनी की चमक से आंखें चुंधिया गयी हैं
फिर याद आती है
पीछे छोड़ आये उस शहर और घर की
जहां अंधेरे भी अक्सर आ जाते हैं।
राहें ऊबड़ खाबड़ है
गिरने का डर साथ लिये हर पल चलते जाते हैं
सपना जो सच बन कर सामने खड़ा है
फिर एक ख्वाब बन जायेगा
लौटकर कदम जाने हैं अपने शहर और घर
कितना अजीब है
अपना सच हमेशा साथ रहता है
चाहे भले ही सपनों की दुनियां में
सच होकर सामने आ जाये
ख्वाब जब हकीकत बनते हैं
तब भी पुरानी याद कहां छोड़ पाते हैं।
……………………..

कवि और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अपनों से अजनबी हो जाओ-हिंदी शायरी (hindi poem)


हमने छोड़ दिया यकीन करना
धोखे की बचने को यही रास्ता मिला
उधार तो अब भी देते हैं
वापसी पर नहीं होता किसी से गिला.
———————-
दोस्ती में धोखे होते हैं
फिर क्यों रोते हैं.
अपनी हकीकत अपने से न छिपा सके
दोस्त को बाँट दी
हो गए बदनाम तो फिर क्यों रोते हैं.
————————–
गैरों में अपनापन क्यों तलाशते हो
अपनों से अजनबी होकर.
वो गैर भी किसी के अपने हैं
जो आये हैं कहीं से अजनबी होकर.
रिश्ते भूल गया है निभाना
पूरा ही ज़माना
उम्मीद तो करते हैं सभी
एक दूसरे से वफ़ा की
फिर भी मारते हैं ठोकर
भले ही अपनों से अजनबी हो जाओ
पर फिर भी गैर से न उम्मीद करना
उसके लिए भी रहना अजनबी होकर.

——————————

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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-किसी को अपनी योग्यता से अधिक महापद भी मिल जाता है (ablity and post-kautilya ka arthshastra)


कौटिल्य महाराज के अनुसार
—————————-
उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।
प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये।
आजकल हम जब किसी बड़े पदासीन व्यक्ति को देखते हैं तो यह भी नहीं समझना चाहिए कि वह कोई अधिक योग्य है क्योंकि अनेक ऐसे लोग जो अपनी योग्यता से अधिक का पद पाने की कामना कहते हैं वह येनकेन प्रकरेन उस पद पर पहुँच जाते है,या  फिर दूसरे लोग मुखौटे की तरह उनको वहां बिठा देते हैं।
…………………………… 

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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हिंदी दिवस:व्यंग्य कवितायें व आलेख (Hindi divas-vyangya kavitaen aur lekh)


लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
……………………………
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
……………………….
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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बेजान चीजों से इश्क-हास्य व्यंग्य कविता(Lifeless things Ishq-hindi kavita


जेब खाली हो तो
अपना चेहरा आईने में देखते हुए भी
बहुत डर लगता है
अपने ही खालीपन का अक्स
सताने लगता है।

क्यों न इतरायें दौलतमंद
जब पूरा जमाना ही
आंख जमाये है उन पर
और अपने ही गरीब रिश्ते से
मूंह फेरे रहता है।

अपना हाथ ही जगन्नाथ
फिर भी लगाये हैं उन लोगों से आस
जिनके घरों मे रुपया उगा है जैसे घास
घोड़ों की तरह हिनहिना रहे सभी
शायद मिल जाये कुछ कभी
मिले हमेशा दुत्कार
फिर भी आशा रखे कि मिलेगा पुरस्कार
इसलिये दौलतमंदों के लिये
मुफ्त की इज्जत और शौहरत का दरिया
कमअक्लों की भीड़ के घेरे में ही बहता है।

……………………………
बेजान चीजों के इश्क ने
अपने ही रिश्तों में गैर का अहसास
घोल दिया है।
किसी से दिल लगाना बेकार लगता है
दोस्ती को मतलब से तोल दिया है।
हर तरफ चलती है मोहब्बत की बात
आती नहीं कभी चाहने की रात
सुबह से शाम तक
तन्हा गुजारता इंसान
तड़ता है अमन के पलों के लिये
जिसने शायरों के लिये
गमों के शेर लिखकर
वाह वाही लूटने का रास्ता खोल दिया है।

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जाम,आदर्श और कविता की शाम -हास्य कविता (jaam aur sham-hindi hasya kavita


एक पुराने कवि ने
अपनी पहली कविता लिखने के दिवस को
साहित्यक पदार्पण दिवस के
रूप में मनाया।
ढेर सारे हिट और फ्लाप कवियों का
जमघट होटल में लगाया।
चला दौर जाम का
कविता के नाम का
सभी ने अपना ग्लास एक दूसरे से टकराया।

अकेले में एक फ्लाप कवि ने
उस कवि से पूछ लिया
‘आप तो पीते हो जाम
बातें करते हो आदर्श की सरेआम
भला या विरोधाभास कैसे दिख रहा है
लोग नहीं देखते यह सब
जबकि अपने नाम खूब कमाया।’

सुनकर वह पुराना कवि हंस पड़ा
और बोला-‘
‘अभी नये आये हो सब पता चल जायेगा
बिना पिये यह जाम
नहीं सज सकती कविता की शाम
जब तक हलक से न उतरे
देश में तरक्की की बात करने का
जज्बा नहीं आ सकता
एकता, अखंडता और जन कल्याण का
नारा कभी नहीं छा सकता
गला जब तर होता है तभी
ख्याल वहां पैदा होते हैं
आम लोग करते हैं वाह वाह
गहराई से चिंतन लिखने वाले
हमेशा ही असफल होकर रोते हैं
अंग्रेज अपनी संस्कृति के साथ
छोड़ गये यह बोतल भी यहां
आजादी की दीवानगी पर लिखने वाले भी
उनके गुलाम होकर विचरते यहां
पढ़ते लिखते नहीं धर्म की किताबें
उन भी हम बरस जाते
सारे धर्म छोड़कर इंसान धर्म मानने की
बात कहकर ऐसे ही नहीं हिट हो जाते
साथ में प्रगति के प्रतीक भी बन जाते
ओढ़े बैठे हैं जो धर्म की किताबों की चादर
उनको अंधविश्वासी बताकर जमाने से दूर हम हटाते
हमने जब भी बिताई अपनी शाम
कविता और साहित्य के नाम छलकाये
बस! इसी तरह जाम
कभी नहीं रखा धर्म से वास्ता
जाम से सराबोर नैतिकता का बनाया अपना ही रास्ता
ऐसे ही नहीं इतिहास में नाम दर्ज कराया।’

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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वस्त्रों के पैमाने शर्म का आधार मत बनाओ-व्यंग्य कविता (Clothes do not make the basis of shame scale – satirical poem)


वासनओं पर जितना नियंत्रण करोगे
वह बढ़ती जायेंगी।
तुम उन्हें भगाने की कोशिश मत करो
वह तुम्हें दौड़ायेंगी।

समाज को स्वच्छ रखने का
ख्याल बहुत अच्छा है
पर यहां हर कोई नहीं बच्चा है
वस्त्र पहनने की शर्त
आदमी ने खुद ओढ़ी है
आचरण की तरफ जिंदगी स्वयं मोड़ी है
वस्त्रों के पैमाने शर्म का आधार मत बनाओ
अल्प वस्त्र पहनकर नर नारियां
बटोर रहे हैं तालियां
वस्त्रहीन न घूमने का कायदा
उनको दे रहा है आधुनिक बनने फायदा
परंपराओं का वास्ता देकर
उन्हें मत चमकाओ
तोड़ने की भावनाऐं अधिक बढ़ जायेंगी।

खत्म करो सारे नियंत्रण
भेजो वस्त्र हीनता को आमंत्रण
फिर भी सारा जमाना वस्त्र पहनेगा
वरना गर्मी में जल जायेगा
सर्दी में बर्फ की तरह जम जायेगा
पर अल्प वस्त्रों को दोहरा खेल
नहीं चल पायेगा
जब देंगे वस्त्रहीन उनको ललकारेंगे
अल्प वस्त्र वाले आधुनिकता के भ्रम से
और लोगों की वाह वाह से भागेंगे
समाज के चलने की है अपनी राह
अल्पवस्त्रों को देखकर क्यों भरते आह
सौदागर मनोरंजन के नाम पर खेल रहे हैं
भले लोग हतप्रभ होकर सब झेल रहे हैं
वस्त्रहीनों को भी खुलकर सड़क पर आने दो
कमाई शौहरत जिन्होंने अल्पवस्त्रों से
उनको भी चुनौती मिल जाने दो
मनोरंजन को खेल को बन जाने दो संघर्ष
मत करो अमर्ष
जिनको अपनी इज्जत प्यारी है
वह कोई तमाशा नहीं करेंगे
वस्त्र उतारने के खेल में
जो चढ़ गये है बुलंदियों पर
पर वह भी कोई आशा नहीं करेंगे
पर्दे पर रोज आयेंगे नये वस्त्रहीन नायक नायिकायें
बदल जायेंगी सारी परिभाषायें
कितना भी कोई शौहरत वाला क्यों न हो
वस्त्रहीन दिखने से घबड़ाता है
जब होगी अपने से अधिक बलशाली
वस्त्रहीन आदमी की चुनौती
मांगने लगेंगे पानी
सब जानते हैं कि वस्त्रहीनों से
सर्वशक्तिमान भी डरता है
अभी तक समाज पर हंस कर
उसी से बटोरी है वाह वाही
उसकी फब्तियां उनको दहलायेंगी।
………………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

इन्टरनेट हैकर्स-आलेख (internet hecker-hindi lekh)


उस दिन अखबार में पढ़ा कि चीन में इंटरनेट के हेकर्स को प्रशिक्षण देने वाले बकायदा संस्थान खुल गये हैं। यह कोई एक दो नहीं बल्कि बड़ी तादाद में है। यह पढ़कर माथा ठनका। इससे पहले चीनी हेकर्स द्वारा पूरी दुनियां में उत्पात बचाने की चर्चा हो चुकी है। हो सकता है कि कुछ लोग इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हों पर खबर पढ़कर लगा कि जैसे अब अंतर्जालीय आतंकवाद की तैयारी हो रही है।
इन हैकर्स को विदेशियों के सर्वरों की सूचनायें एकत्रित करने और उन्हें हैक करने का बकायदा प्रशिक्षण दिया जा रहा है। यह कोई मनोरंजन के लिये नहीं हो रहा बल्कि इस आतंकवाद का बकायदा व्यवसायिक उपयोग होने की आशंका प्रतीत होती है। चीन में इस समय बेकारी बहुत है और हो सकता है कि उसके युवक युवतियां इसमें बेहतर संभावनायें ढूंढ रहे हों। देश के कुछ लोगों को शायद यह मजाक लगे पर इस लेखक ने तीस साल पहले आतंकवाद पर कविता लिखी थी और आज भी लिखता है और यही अनुभव बताता है कि कहीं न कहीं अवैध ढंग से धन कमाने वाले इसी प्रकार के आतंकवाद के पीछे जाकर अपना काम करते हैं। यह हैकरी का धंधा कोई अकेले चीनी नहीं करेंगे बल्कि उनको उन देशों में अपने जमीनी संगठन की जरूरत होगी जहां से अपने कुकृत्य से धन वसूल करना होगा। ऐसे में बकायदा गिरोह बन सकते हैं।

चीन में जिस तरह की व्यवस्था है उसमें यह संभव नहीं है कि वहां के हैकर अपने देश के लोगों के विरुद्ध यह काम करें इसलिये इससे असली खतरा अन्य देशों को हैं जिसमें भारत का नाम होना तय है। जिस तरह खूनी आतंकवाद में विश्व के लोग भेद करते हैं वैसे ही इस अंतर्जालीय आतंकवाद में भी करेंगे और उसमें भी भारत के आतंकवाद को अनदेखा किया जा सकता है। भारत में सरकारी और निजी क्षेत्र में अनेक संगठन हैं और उनको निशाना बनाने का प्रयास भविष्य में हो सकता है। अखबारों में हैकर को प्रशिक्षण देने वाले संस्थानों सार्वजनिक रूप से खुलना इस बात का ही संकेत हैं। उस समय चीन जांच और कार्यवाही में सहयोग करेगा यह तो सोचना ही बेकार है। फिर भारत में कहीं न कहीं उन हैकर्स का जमीनी संगठन जरूर बनेगा जिसके सहारे वह यहां अंतर्जालीय आतंक फैला सकें।
कहने को चीन तो यही कहेगा कि यह तो निजी क्षेत्र के कुछ लोग कर रहे हैं पर यह सब जानते हैं कि वहां की सरकार के बिना वहां पता भी नहीं हिल सकता।
अभी हाल ही में भारतीय नक्शे के साथ छेड़छाड़ की बात सामने आयी जिसपर गूगल ने अपनी गलती मानी पर एक हिदी ब्लाग लेखक ने अपनी टिप्पणी में लिखा कि यह किसी चीनी हैकर्स की बदमाशी है। इसमें भारतीय अधिकार वाले क्षेत्र चीनी क्षेत्र में दिखाई दिये गये। कुछ ब्लाग लेखकों ने इस पर शोर मचाया तो कुछ ने इसे तकनीकी पक्ष में अपने विचार रखते हुए बताया कि यह एक चीनी हैकर की शरारत है। एक हिंदी ब्लाग लेखक का कहना है कि गूगल के आधिकारिक नक्शे में सब पहले ही जैसे है। जिस नक्शे में हेराफेरी की गयी है उसे कोई भी कापी कर उसमें हेरफेर कर सकता है। संभव है कि गूगल ने इस इरादे के साथ उसे खुला रखा हो कि कोई अच्छा परिवर्तन वहां हो जाये तो उसे अपने नक्शे में भी दिखाया जाये। इसी बारे में एक ब्लाग लेखक ने बताया कि किसी चीनी हैकर ने उसमें घुसकर परिवर्तन किया है। मजे की बात यह है कि गूगल इस गलती को अपनी मान रहा है भारतीय ब्लाग लेखक तो कहते हैं कि उसकी कोई गलती नहीं है पर वह मानेगा क्योंकि उससे लोगों में यह संदेश जायेगा कि उनके सारा डाटा सुरक्षित हैं। अगर अपनी गलती न मानकर वह चीनी हैकर पर बात डालता हो यह संदेश उल्टा जायेगा। आशय यह है कि चीनी हैकर्स को यह सुविधा मिल गयी है कि वह अपराध भी कर बच भी गया। इस लेखक को अधिक जानकारी नहीं है पर जो टीवी चैनल पर देखा और हिंदी ब्लाग जगत में पढ़ा उसी के आधार पर यह सब लिख रहा है।
कुछ तकनीकी ब्लाग लेखक बताते हैं कि गूगल ने बाहर के लोगों से मदद लेने के लिये अपने कुछ साफ्टवेयर खुले रख छोड़ रखे हैं। इनमें गूगल समूह का नाम तो सभी जानते हैं। इस समूह में हिंदी ब्लाग जगत के अनेक तकनीकी ब्लाग लेखकों ने ‘चिट्ठाकार समूह’ शुरु किया जो आजतक चल रहा है। इसी में ही भारतीय भाषाओं के जानकारों ने हिंदी के यूनिकोड टूल भी स्थापित किये हैं जो इस लेखक के लिये भी बड़े उपयोगी सिद्ध हो चुके हैं।
कहने का तात्पर्य है कि गूगल अपने साथ अधिक से अधिक लोग जोड़ने की गुंजायश रखता है और यही कारण है कि वह रचनाकर्मियों और व्यवसायियों का प्रिय बना हुआ है। जिन लोगों ने हिंदी ब्लाग जगत की शुरुआत की उनके लिये गूगल ही सबसे बड़ा सहायक रहा है और वह इसी कारण कि उसने इसके लिये गुंजायश रखी हुई है। अब सवाल यह है कि भारत के लोगों की नीयत साफ है इसलिये वह तो रचनाकर्म में लग जाते हैं पर चीन में तो हालत ऐसी नहीं है इसलिये वह ऐसे साफ्टवेयरों में प्रवेश कर उनका भारत विरोधी उपयोग के लिये कर सकते हैं। जोर जबरन जनसंख्या पर नियंत्रण के प्रयासों ने वहां के समाज का ढर्रा ही बिगाड़ दिया है। फिर इधर उसने यौन सामग्री से सुसज्जित वेबसाईटों पर प्रतिबंध भी लगाया। यहां यह बात याद रखने लायक है कि चीन में कंप्यूटर पर सक्रिय रहने वालों की संख्या भारत से कहीं अधिक है। दूसरी बात यह है कि चीन सरकार स्वयं ही कंप्यूटर पर काम करने वालों को प्रोत्साहन दे रही है। इसके विपरीत भारत में निजी मठाधीशी की परंपरा है। इसके चलते जिनका वर्चस्व कला, साहित्य, पत्रिकारिता तथा अन्य क्षेत्रों में बना हुआ है उनको लगता है कि अंतर्जाल पर आमजन की अधिक सक्रियता से उनके पीछे की भीड़ वहां से खिसक जायेगी। इसलिये वह न केवल स्वयं उपेक्षा का भाव रखे हुए हैं बल्कि दूसरों को भी निरुत्साहित करते हैं। ऐसे में वेबसाईट और ब्लाग पर रचनाकर्म के लिये सक्रिय ब्लाग लेखकों को एकाकी होकर ही अपना काम करना पड़ता है। ऐसे में हैकरी वगैरह से निपटने के लिये उनको समय कहां मिल सकता है। उधर चीन में तो बकायदा हैकरों का एक तरह संगठन बनता जा रहा है। उनका सामना करने का सामथ्र्य अमेरिका और ब्रिटेन के अंतर्जाल विशेषज्ञों में ही हो सकता है पर वह क्यों भारत के लिये यह काम करेंगे?
अनेक अमेरिकी आर्थिक विशेषज्ञ चीन की प्रगति में काले धन का योगदान मानते हैं जिसमें अपराधिक क्षेत्रों का अधिक योगदान है। अंतर्जाल पर ब्लैकमेल और वसूली के लिये धन जुटाने के प्रकरण बढ़ सकते हैं। फिर भारत विरोधी केवल धन से ही संतुष्ट कहां होते हैं? वह सांस्कृतिक, साहित्यक तथा धार्मिक क्षेत्रों मे भी वैचारिक आक्रमण करते हैं। ऐसे में अंतर्जाल पर हिंदी की समृद्धि के लिये प्रयासरत ब्लाग लेखकों को अपने ब्लाग की रक्षा भी करने के लिये सोचना पड़ेगा। जब यह लेखक अपने दो ब्लाग जब कैद में फंसे देखता है तब इस बात पर विचार करना ही पड़ता है।
यह लेखक जब किसी दिन अपना ब्लाग चीन में पढ़ा गया देखता है तो चिंता की लकीर माथे पर आने लगती हैं। इंटरनेट में हैकर्स का नाम सुनते थे पर जिस तरह तेजी से घटनाक्रम घूम रहा है उससे तो लगता है कि यहां एकचित से लिखना कोई आसान नहीं रहने वाला। हालंाकि वह समय दूर है। अभी हिंदी ब्लाग जगत पर किसी की नजर नहीं जा रही। भारत में ही लोगों को नहीं पता तो चीन वालों की नजर कहां से जायेगी। अलबत्ता नक्शे में हेरफेर इस बात को दर्शाता है कि यह तो एक तरह से अंतर्जाल पर हमले की शुरुआत है। इससे यह संकेत तो मिल गया है कि जहां भी चीनी हैकर्स को जब अवसर मिलेगा वह भारत विरोधी कार्यवाही को अंजाम दे सकता है। हिंदी के ब्लाग अनेक भाषाओं में पढ़े देखे गये हैं सिवाय चीनी भाषा के-इससे यह तो तय है कि उनसे मित्रता की आशा फिलहाल तो नहीं की जा सकती।
……………………………

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यादों का बयान-हिन्दी शायरी


यादों में जो बसता है
उसका नाम जुबां से बयां कहां होता है।

दिलबर नजर से हो कितना भी दूर
उसके पास होने का हमेशा अहसास होता है

आंखों में बसा दिखता है यह पूरा जमाना
पर ख्याल में जो बसा, वही दिल के पास होता है।
……………………..
तंगदिल साथी के साथ
जिंदगी का यह सफर
तन्हाई में गुजरता जाता है।

शिकायतों का पुलिंदा ढोते हैं साथ
उम्मीद नहीं है, चाहे पास है उसका हाथ
शिकायतों का बोझ दिल में लिये
कारवां राह पर, खामोशी से गुजरता जाता है।

…………………………

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