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दुश्मनी के सौदे-हिन्दी शायरी


दौलत की रौशनी से अमीर, अपनी महफिलें सजाते हैं,

गरीबों के दिल में लगे आग, इसलिये  चिराग जलाते हैं।

मत बहको ऊंचे उनके ठाठ देखकर, हमेशा धोखा खाओगे,

बेचने वाली शयों के, सौदागर ही पहले ग्राहक बन जाते हैं।

दरियादिल दिख रहे है, पर सारा सामान मुफ्त का सजा है

कहीं से चीज का मिला तोहफा, कहीं से पैसा जुटाते हैं।

घी से भरा उनका घर, मिलावटी तेल के कनस्तर बेचकर

मौत के मुख में भेजने पहले, जिंदगी का रास्ता बताते हैं।
———————–
राज रखकर ही राज

चलाये जाते हैं

सामने कर दुश्मनी के सौदे

बंद कमरे में दोस्तों में

हाथ मिलाये जाते हैंजाते हैं।

जज़्बात मर गये हैं लोगों के

प्यार हो या नफरत

दिल के अदंर तक नहीं पहुंचती

केवल जमाने को दिखाये जाते हैं।

——–

दिन भर दिखाते रहे

अपनी दुश्मनी जमाने को,

रात को चले दोस्ती निभाने को।

विज्ञापन का युग है

तारीफों पर अब लोग नहीं बहलते

इसलिये लोग चल पड़ते हैं

दोस्त के ही हाथ से अपने लिये गालियां लिखाने को।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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तकदीर और चालाकियां-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (taqdir aur chalaki-hindi comic poems


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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अपने गम और दूसरे की खुशी पर मुस्कराकर

हमने अपनी दरियादिली नहीं दिखाई।

चालाकियां समझ गये जमाने की

कहना नहीं था, इसलिये छिपाई।

——–

अपनी तकदीर से ज्यादा नहीं मिलेगा

यह पहले ही हमें पता था।

बीच में दलाल कमीशन मांगेंगे

या अमीर हक मारेंगे

इसका आभास न था।

———-

रात के समय शराब  में बह जाते हैं

दिन में भी वह प्यासे नहीं रहते

हर पल दूसरों के हक पी जाते हैं।

अपने लिये जुटा लेते हैं समंदर

दूसरों के हिस्से में

एक बूंद पानी भी हो

यह नहीं सह पाते हैं।

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हिन्दी के ब्लाग क्रिकेट मैच से पिट जाते हैं-व्यंग्य चिंत्तन


वह हमारा मित्र है बचपन का! कल हम पति पत्नी उसे घर देखने गये। कहीं से पता लगा कि वह बहुत बीमार है और डेढ़ माह से घर पर ही पड़ा हुआ है।
घर के बाहर दरवाजे पर दस्तक दी तो उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला और देखते ही उलाहना दी कि ‘आप डेढ़ महीने बाद इनको देखने आये हैं।’
मैने कहा-‘पर उसने मुझे कभी फोन कर बताया भी नहीं। फिर उसका मोबाइल बंद है।’
वह बोली-‘नहीं, हमारा मोबाइल चालू है।’
मैंने कहा-‘अभी आपको बजाकर बताता हूं।’
वह कुछ सोचते हुए बोलीं-‘हां, शायद जो नंबर आपके पास है उसकी सिम काम नहीं कर रही होगी। उनके पास दो नंबर की सिम वाला मोबाइल है।’

दोस्त ने भी उलाहना दी और वही उसे जवाब मिला। उसकी रीढ़ में भारी तकलीफ है और वह बैठ नहीं सकता। पत्थरी की भी शिकायत है।
हमने उससे यह तो कहा कि उसका मोबाइल न लगने के कारण संशय हो रहा था कि कहीं अपनी बीमारी के इलाज के लिये बाहर तो नहीं गया, मगर सच यह है कि यह एक अनुमान ही था। वैसे हमें भी हमें पंद्रह दिन पहले पता लगा था कि वह बीमार है यानि एक माह बाद।

हमें मालुम था कि बातचीत में ब्लागिंग का विषय आयेगा। दोनों की गृहस्वामिनियों के बीच हम पर यह ताना कसा जायेगा कि ब्लागिंग की वजह से हमारी सामाजिक गतिविधियां कम हो रही हैं। हालांकि यह जबरन आरोप है। जहां जहां भी सामाजिक कार्यक्रमों में उपस्थिति आवश्यक समझी हमने दी है। शादियों और गमियों पर अनेक बार दूसरे शहरों में गये हैं। वहां भी हमने कहीं साइबर कैफे में जाकर अपने ईमेल चेक करने का प्रयास नहीं किया। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि जिस घर में गये वहां पर इंटरनेट सामने था पर हमने उसे अनदेखा कर दिया। बालक लोग इंटरनेट की चर्चा करते रहे पर हमने खामोशी ओढ़ ली। इसका कारण यह था कि हमने जरा सा प्रयास किया नहीं कि हम पर ब्लाग दीवाना होने की लेबल लगने का खतरा था। बसों में तकलीफ झेली और ट्रेनों में रात काटी। कभी अपने ब्लाग की किसी से चर्चा नहीं की। अलबत्ता घर पर आये तो सबसे पहला काम ईमेल चेक करने का किया क्योंकि यह हमारा अपना समय होता है।
लगभग दो घंटे तक मित्र और उनकी पत्नी से वार्तालाप हुआ। हमने उससे यह नहीं पूछा कि ‘आखिर उसके खुद के ब्लाग का क्या हुआ?’
उसने इंटरनेट कनेक्शन लगाने के बाद अपन ब्लाग बनाया था। उसने उस पर एक कविता लिखी और हमने पढ़ी थी। उससे वादा किया था कि वह आगे भी लिखेगा पर शर्त यह रखी थी कि हम उसे घर आकर ब्लाग की तकनीकी की पूरी जानकारी देंगे। इस बात को छह महीने हो गये। अब बीमारी की हालत में उससे यह पूछना सही नहीं था कि उसके ब्लाग का क्या हुआ।
उसे हमने अपने गूगल का इंडिक का टूल भी भेजा था ताकि हिन्दी लिखने में उसे आसानी हो पर पता नहीं उसका उसने क्या किया?
उसकी बीमारी पर चर्चा होती रही। उसका मनोबल गिरा हुआ था। आखिरी उसकी पत्नी ने कह ही दिया कि ‘यह इंटरनेट पर रात को दो दो बजे तक काम करते थे भला क्यों न होनी थी यह बीमारी?’
हमने पूछ लिया कि ‘क्या तुम ब्लाग लिखते थे।’
इसी बीच श्रीमती जी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा कि ‘यह भी बाहर से आते ही थोड़ी देर में ही इंटरनेट से चिपक जाते हैं, और रात के दस बजे तक उस पर बैठते हैं।’
मित्र पत्नी ने कहा-‘पर यह तो रात को दो दो बजे तक कभी कभी तो तीन बजे तक वहां बैठे रहते हैं।’
श्रीमतीजी ने कहा-‘पर यह दस बजे नहीं तो 11 बजे के बाद बंद कर देते हैं। सुबह अगर बिजली होती है तो बैठते हैं नहीं तो चले जाते हैं।’
इधर हमने मित्र से पूछा-‘तुम इंटरनेट पर करते क्या हो? वह मैंने तुम्हें हिन्दी टूल भेजा था। उसका क्या हुआ? वैसे तुमसे जब भी ब्लाग के बारे में पूछा तो कहते हो कि समय ही नहीं मिलता पर यहां तो पता लगा कि तुम रात को दो बजे तक बैठते हो। क्या करते हो?’
वह बोला-‘मैं बहुत चीजें देखता हूं गूगल से अपना घर देखा। रेल्वे टाईम टेबल देखता हूं। अंग्रेजी-हिन्दी और हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी देखता हूं। अंग्रेजी में लिखना है। बहुत सारी वेबसाईटें देखता हूं। अखबार देखता हूं। स्वाईल फ्लू जब फैला था उसके बारे में पूरा पढ़ा। हां, मैं अंग्रेजी वाली वेबसाईटें पढ़ता हूं। मैं अंग्रेजी में लिखना चाहता हूं। हिन्दी तो ऐसे ही है।’
‘कैसे?’हमने पूछा
‘कौन पढ़ता है?’वह बोला।
‘‘हमने पूछा तुम अखबार कौनसे पढ़ते हो?’
वह बोला-‘हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही पढ़ता हूं। हां, अपना लेखन अंग्रेजी में करना चाहता हूं। जब मैं ठीक हो जाऊं तो आकर ब्लाग की तकनीकी की विस्तार से जानकारी दे जाना। हिन्दी बहुत कम लोग पढ़ते हैं जबकि अंग्रेजी से अच्छा रिस्पांस मिल जायेगा।’
हम वहां से विदा हुए। कुछ लोग तय कर लेते हैं कि वह बहुत कुछ जानते हैं। इसके अलावा अपने समान व्यक्ति से कुछ सीखना उनको छोटापन लगता है। हमारा वह मित्र इसी तरह का है। जब उसने ब्लाग बनाया था तो मैं उसे कुछ जानकारी देना चाहता था पर वह समझना नहीं चाहता था। उसने उस समय मुझसे ब्लाग के संबंध में जानकारी ऐसे मांगी जैसे कि वह कोई महान चिंतक हो ओर मैदान में उतरते ही चमकने लगेगा-‘मेरे दिमाग में बहुत सारे विचार आते हैं उन्हें लिखूंगा’, ‘एक से एक कहानी ध्यान में आती है’ और ऐसी बातें आती हैं कि जब उन पर लिखूंगा तो लोग हैरान रह जायेंगे’।
उसने मेरे से हिन्दी टूल मांगा था। किसलिये! उसके कंप्यूटर में हिन्दी फोंट था पर उसकी श्रीमती जी को अंग्रेजी टाईप आती थी। वह कहीं शिक्षिका हैं। अपने कक्षा के छात्रों के प्रश्नपत्र कंप्यूटर पर हिन्दी में बनाने थे और हिन्दी टाईप उनको आती नहीं थी। उस टूल से उनको हिन्दी लिखनी थी।
उसने उस टूल के लिये धन्यवाद भी दिया। जब भी उसके ब्लाग के बारे में पूछता तो यही कहता कि समय नहीं मिल रहा। अब जब उसकी इंटरनेट पर सक्रियता की पोल खुली तो कहने लगा कि अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ा रहा है। हमने सब खामोशी से सुना। हिन्दी लेखकों की यही स्थिति है कि वह डींगें नहीं हांक सकते क्योंकि उसमें कुछ न तो मिलता है न मिलने की संभावना रहती है। अंतर्जाल पर अंग्रेजी में कमाने वाले बहुत होंगे पर न कमाने वाले उनसे कहीं अधिक हैं। हमारे सामने अंग्रेजी ब्लाग की भी स्थिति आने लगी है। अगर सभी अंग्रेजी ब्लाग हिट हैं तो शिनी वेबसाईट पर हिन्दी ब्लाग उन पर कैसे बढ़त बनाये हुए हैं? अंग्रेजी में अंधेरे में तीर चलाते हुए भी आदमी वीर लगता है तो क्या कहें? एक हिन्दी ब्लाग लेखक के लिये दावे करना मुश्किल है। हो सकता है कि हमारे हिन्दी ब्लाग हिट पाते हों पर कम से कम एक विषय है जिसके सामने उनकी हालत पतली हो जाती है। वह है क्रिकेट मैच! उस दिन हमारे हिन्दी ब्लाग दयनीय स्थिति में होते हैं। ऐसे में लगता है कि ‘हम किसी को क्या हिन्दी में ब्लाग लिखने के लिये उकसायें जब खुद की हालत पतली हो।’ फिर दिमाग में विचार, कहानी या कविताओं का आना अलग बात है और उनको लिखना अलग। जब ख्याल आते हैं तो उस समय किसी से बात भी कर सकते हैं और उसे बुरा नहीं लगा पर जब लिखते हैं तो फिर संसार से अलग होकर लिखना पड़ता है। ऐसे में एकांत पाना मुश्किल काम होता है। मिल भी जाये तो लिखना कठिन होता है। जो लेखक हैं वही जानते हैं कि कैसे लिखा जाये? यही कारण है कि दावे चाहे जो भी करे लेखक हर कोई नहीं बन जाता। उस पर हिन्दी का लेखक! क्या जबरदस्त संघर्ष करता हुआ लिखता है? लिखो तो जानो!
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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विज्ञान और ज़माना-हिन्दी व्यंग्य शायरी (vigyan aur zamana)


धरती  का खुदा

नहीं है बंदों से जुदा।

फिर भी धरती को बचाने के लिये

चंद लोग एकत्रित हो जाते हैं

कभी कोपेनहेगन तो कभी

रियो-डि-जेनेरियों में

महंगी महफिलें सजाते हैं

बिगाड़ दिया है दुनियां का नक्शा

अब फिर तय करने लगे है नया चेहरा

बन रहे  नये खुदा

सोचते ऐसे हैं जैसे

दुनियां के बंदों से हैं जुदा।

———

गोरों का राज्य मिट गया

पर फिर भी संसार पर हुक्म चलता है।

उसे बजाने के लिये हर

काला और सांवला मचलता है।

कुछ चेहरा है उनका गजब,

तो चालें भी कम नहीं अजब,

काला अंधेरा कर दिया

अपने विज्ञान से,

बीमार बना दिया सारा जमाना

अपने ज्ञान से,

बिछा दी चहुं ओर अपनी शिक्षा,

पढ़लिखकर साहुकार भी मांगे भिक्षा,

बिगाड़ दी हवा सारी दुनियां की

अब ताजी हवा को गोरे तरस रहे हैं,

सारे संसार पर अपने शब्दों से बरस रहे हैं,

विष  लिये पहुंचते हैं सभी जगह

अमृत की तलाश में

फिर भी दान नहीं मांगते

लूट का अंदाज है

फिर भी लोग उन्हें देखकर बहलते हैं।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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धर्म और कमाई-हास्य साहित्य कविता


 

धर्म बन गयी है शय
बेचा जाता है इसे बाज़ार में,
सबसे बड़े सौदागर
पीर कहलाते हैं.
भूख, गरीबी, बेकारी और बीमारी को
सर्वशक्तिमान के  तोहफे बताकर
ज़माने को  भरमाते हैं.
मांगते हैं गरीब के  खाने के लिए पैसा
जिससे खुद खीर खाते हैं.
————————
धर्म का नाम लेते हुए
बढ़ता जा रहा है ज़माना,
मकसद है बस कमाना.
बेईमानी के राज में
ईमानदारी की सताती हैं याद
अपनी रूह करती है  फ़रियाद 
नहीं कर सकते दिल को साफ़ कभी 
हमाम में नंगे हैं सभी 
ओढ़ते हैं इसलिए धर्म का बाना.
फिर भी मुश्किल है अपने ही  पाप से बचाना..
 
 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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तीक्ष्ण बुद्धि-हास्य कविता (sharp mind-hasya kavita)


आज के बच्चे
अपने माता पिता के बाल्यकाल से
अधिक तीक्ष्ण बुद्धि के पाये जाते
यह सच कहा जाता है।
किस नायिका का किससे
चल रहा है प्रेम प्रसंग
अपने जन्मदिन पर नायक की
किस दूसरे नायक से हुई जंग
कौन गायक
किस होटल में मंदिर गया
कौन गीतकार आया नया
कौनसा फिल्मी परिवार
किस मंदिर में करने गया पूजा
कहां जायेगा दूजा
रेडियो और टीवी पर
इतनी बार सुनाया जाता है।
देश का हर बच्चा ज्ञान पा जाता है।

……………………………

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बासी खबर में उबाल-हिंदी व्यंग्य कविता (basi khabar men ubal-hindi vyangya kavita)


अखबार में छपी हर खबर
पुरानी नहीं हो जाती है।
कहीं धर्म तो कहीं भाषा और जाति के
झगड़ों में फंसे
इंसानी जज़्बातों की चाशनी में
उसके मरे हुए शब्दों को भी
डुबोकर फिर सजाया जाता
खबर फिर ताजी हो जाती है।
………………………..
कौन कहता है कि
बासी कड़ी में उबाल नहीं आता।
देख लो
ढेर सारी खबरों को
जो हो जाती हैं बासी
आदमी जिंदा हो या स्वर्गवासी
उसके नाम की खबर
बरसों तक चलती है
जाति, धर्म और भाषा के
विषाद रस पर पलती है
हर रोज रूप बदलकर आती
अखबार फिर भी ताजा नजर आता।

………………………….

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इश्क और मशीन-हास्य कविता (hasya kavita)


माशुका को उसकी सहेली ने समझाया
‘आजकल खुल गयी है
सच बोलने वाली मशीन की दुकानें
उसमें ले जाकर अपने आशिक को आजमाओ।
कहीं बाद में शादी ा पछताना न पड़े
इसलिये चुपके से उसे वहां ले जाओ
उसके दिल में क्या है पता लगाओ।’

माशुका को आ गया ताव
भूल गयी इश्क का असली भाव
उसने आशिक को लेकर
सच बोलने वाली मशीन की दुकान के
सामने खड़ा कर दिया
और बोली
‘चलो अंदर
करो सच का सामना
फिर करना मेरी कामना
मशीन के सामने तुम बैठना
मैं बाहर टीवी पर देखूंगी
तुम सच्चे आशिक हो कि झूठे
पत लग जायेगा
सच की वजह से हमारा प्यार
मजबूत हो जायेगा
अब तुम अंदर जाओ।’

आशिक पहले घबड़ाया
फिर उसे भी ताव आया
और बोला
‘तुम्हारा और मेरा प्यार सच्चा है
पर फिर भी कहीं न कहीं कच्चा है
मैं अंदर जाकर सच का
सामना नहीं करूंगा
भले ही कुंआरा मरूंगा
मुझे सच बोलकर भला क्यों फंसना है
तुम मुझे छोड़ भी जाओ तो क्या फर्क पड़ेगा
मुझे दूसरी माशुकाओं से भी बचना है
कोई परवाह नहीं
तुम यहां सच सुनकर छोड़ जाओ
मुश्किल तब होगी जब
यह सब बातें दूसरों को जाकर तुम बताओ
बाकी माशुकाओं को पता चला तो
मुसीबत आ जायेगी
अभी तो एक ही जायेगी
बाद में कोई साथ नहीं आयेगी
मैं जा रहा हूं तुम्हें छोड़कर
इसलिये अब तुम माफ करो मुझे
अब तुम भी घर जाओ।’

…………………….

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भले होने का प्रमाण पत्र कहाँ से लायें-हिंदी व्यंग्य कविता (certificat of good men-hindi vyangya kavita)


उसने पूछा
‘क्या तुम बुरे आदमी हो‘
जवाब मिला
‘कभी अपने काम से
कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला
इसलिये कहना मुश्किल है
कभी इस बारे में सोचा ही नहीं।’

फिर उसने पूछा
‘क्या तुम अच्छे आदमी हो?’
जवाब मिला
‘यह आजमाने का भी
अवसर नहीं आया
पूरा जीवन अपने स्वार्थ में बिताया
कभी किसी ने मदद के लिये
आगे हाथ नहीं बढ़ाया
कोई बढ़ाता हाथ
तो पता नहीं मदद करता कि नहीं!’’
………………………………..
अपने भले होने का प्रमाण
कहां से हम लाते
ऐसी कोई जगह नहीं है
जहां से जुटाते।
शक के दायरे में जमाना है
इसलिये हम भी उसमें आते।
सोचते हैं कि
हवा के रुख की तरफ ही चलते जायें
कोई तारीफ करे या नहीं
जहां कसीदे पढ़ेगा कोई हमारे लिये
वह कोई चिढ़ भी जायेगा
अपने ही अमन में खलल आयेगा
इसलिये खामोशी से चलते जाते।

………………………….

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सोचने से सच का सामना-व्यंग्य चिंतन (sachne se sach ka samna-hindi vyangya)


कोई काम सोचने से वह सच नहीं हो जाता। आदमी की सोच पता नहीं कहां कहां घूमती है। बड़े बड़े ऋषि और मुनि भी इस सोच के जाल से नहीं बच पाते। अगर यह देह है तो उसमें बुद्धि, अहंकार और मन उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। इस सोच पर किसी बुद्धिमान और ज्ञानी का भी नियंत्रण नहीं रहता।
मान लीजिये कोई अत्यंत मनुष्य अहिंसक है। वह सपने में भी किसी के विरुद्ध हिंसा तो कर ही नहीं सकता पर अगर वह रात में सोते समय अपने कान में मच्छर के भिनभिनाने की आवाज से दुःखी हो जाता है उस समय अगर सोचता है कि इस मच्छर को मार डाले पर फिर उसे याद आता है उसे तो अहिंसा धर्म का पालन करना है। उसने मच्छर को नहीं मारा पर उसके दिमाग में मारने का विचार तो आया-भले ही वह उससे जल्दी निवृत हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि सोच हमेशा सच नहीं होता।
मान लीजिये कोई दानी है। वह हमेशा दान कर अपने मन को शांति प्रदान करता है। उसके सामने कुछ दादा लोग किसी ठेले वाले का सामान लूट रहे रहे हैं तब वह उसे क्रोध आता है वह सोचता है कि इन दादाओं से वह सामान छीनना चाहिये फिर उसे अपनी बेबसी का विचार आता है और वह वहां से चला जाता है। यह छीनने का विचार किसी भी दान धर्म का पालन करने वाले के लिये अपराध जैसा ही है। उस दानी आदमी ने दादाओं सामान छीनकर उस ठेले वाले को वापस लौटाने का प्रयास नहीं किया पर यह ख्याल उसके मन में आया। यह छीनने का विचार भी बुरा है भले ही उसका संदर्भ उसकी इजाजत देता है।
पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियों का खेल ऐसा है कि इंसान को वह सब खेलने और देखने को विवश करती हैं जो उसके मूल स्वभाव के अनुकूल नहीं होता। क्रोध, लालच, अभद्र व्यवहार और मारपीट से परे रहना अच्छा है-यह बात सभी जानते हैं पर इसका विचार ही नहीं आये यह संभव नहीं है।
मुख्य बात यह है कि आदमी बाह्य व्यवहार कैसा करता है और वही उसका सच होता है। इधर पता नहीं कोई ‘सच का सामना’ नाम का कोई धारावाहिक प्रारंभ हुआ है और देश के बुद्धिमान लोगों ने हल्ला मचा दिया है।
पति द्वारा पत्नी की हत्या की सोचना या पत्नी द्वारा पति से बेवफाई करने के विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को बुद्धिमान लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। कई लोग तो बहुत शर्मिंदगी व्यक्त कर रहे हैं। इस लेखक ने सच का सामना धारावाहिक कार्यक्रम के कुछ अंश समाचार चैनलों में देखे हैं-इस तरह जबरन दिखाये जाते हैं तो उससे बचा नहीं जा सकता। उसके आधार वह तो यही लगा कि यह केवल सोच की अभिव्यक्ति है कोई सच नहीं है। सवाल यह है कि इसकी आलोचना भी कहीं प्रायोजित तो नहंी है? हम इसलिये इस कार्यक्रम की आलोचना नहीं कर पा रहे क्योंकि इसे देखा नहीं है पर इधर उधर देखकर बुद्धिजीवियों के विचारों से यह पता लग रहा है कि वह इसे देख रहे हैं। देखने के साथ ही अपना सिर पीट रहे हैं। इधर कुछ दिनों पहले सविता भाभी नाम की वेबसाईट पर ही ऐसा बावेला मचा था। तब हमें पता लगा कि कोई यौन सामग्री से संबंधित ऐसी कोई वेबसाईट भी है और अब जानकारी में आया कि सच का सामना भी कुछ ऐसे ही खतरनाक विचारों से भरा पड़ा है।
इस लेखक का उद्देश्य न तो सच का सामना का समर्थन करना है न ही विरोध पर जैसे देश का पूरा बुद्धिजीवी समाज इसके विरोध में खड़ा हुआ है वह सोचने को विवश तो करता है। बुद्धिजीवियों ने इस पर अनेक विचार व्यक्त किये पर किसी ने यह नहीं कहा कि इस कार्यक्रम का नाम सच का सामना होने की बजाय सोच का सामना करना होना चाहिये। दरअसल सच एक छोटा अक्षर है पर उसकी ताकत और प्रभाव अधिक इसलिये ही वह आम आदमी को आकर्षित करता है। लोग झूठ के इतने अभ्यस्त हो गये है कि कहीं सच शब्द ही सुन लें तो उसे ऐसे देखने लगेंगे कि जैसे कि कोई अनूठी चीज देख रहे हों।
पहले ऐसे ही सत्य या सच नामधारी पत्रिकायें निकलती थीं-जैसे ‘सत्य कहानियां, सत्य घटनायें, सच्ची कहानियां या सच्ची घटनायें। उनमें होता क्या था? अपराधिक या यौन कहानियां! उनको देखने पर तो यही सच लगता था कि दुनियां में अपराध और यौन संपर्क को छोड़कर सभी झूठ है। यही हाल अब अनेक कार्यक्रमों का है। फिर सच तो वह है जो वास्तव में कार्य किया गया हो। अगर कथित सच का सामना धारावाहिक की बात की जाये तो लगेगा कि उसमें सोचा गया है। वैसे इस तरह के कार्यक्रम प्रायोजित है। एक कार्यक्रम में पत्नी के सच पर पति की आंखों में पानी आ जाये तो समझ लीजिये कि वह प्रायोजित आंसू है। अगर सच के आंसू है तो वह कार्यक्रम के आयोजक से कह सकते हैं कि-‘भई, अपना यह कार्यक्रम प्रसारित मत करना हमारी बेइज्जती होगी।’
मगर कोई ऐसा कहेगा नहीं क्योंकि इसके लिये उनको पैसे दिये जाते होंगे।
लोग देख रहे हैं। इनके विज्ञापन दाताओं को बस अपने उत्पाद दिखाने हैं और कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी रेटिंग बढ़ानी है। सच शब्द तो केवल आदमी के जज्बातों को भुनाने के लिये है। इसका नाम होना चाहिये सोच का सामना। तब देखिये क्या होता है? सोच का नाम सुनते ही लोग इसे देखना बंद कर देंगे। सोचने के नाम से ही लोग घबड़ाते हैं। उनको तो बिना सोच ही सच के सामने जाना है-सोचने में आदमी को दिमागी तकलीफ होती है और न सोचे तो सच और झूठ में अंतर का पता ही नहीं लगता। यहां यह बता दें कि सोचना कानून के विरुद्ध नहीं है पर करना अपराध है। एक पुरुष यह सोच सकता है कि वह किसी दूसरे की स्त्री से संपर्क करे पर कानून की नजर में यह अपराध है। अतः वहां कोई अपने अपराध की स्वीकृति देने से तो रहा। वैसे यह कहना कठिन है कि वहां सभी लोग सच बोल रहे होंगे पर किसी ने अगर अपने अपराध की कहीं स्वीकृति दी तो उस भी बावेला मच सकता है।
निष्कर्ष यह है कि यह बाजार का एक खेल है और इससे सामाजिक नियमों और संस्कारों का कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता मध्यम वर्ग के बद्धिजीवी-सौभाग्य से जिनको प्रचार माध्यमों में जगह मिल जाती है-इन कार्यक्रमों की आलोचना कर उनको प्रचार दे रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि उच्च और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों पर इसका प्रभाव होता है और उसे वही देख पाते हैं जो खामोशी से सामाजिक हलचलों पर पैनी नजर रखते हैं। बहरहाल मुद्दा वहीं रह जाता है कि यह सोच का सामाना है या सच का सामना। सोच का सामना तो कभी भी किया जा सकता है पर उसके बाद का कदम सच का होता है जिसका सामना हर कोई नहीं कर सकता
………………………….

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बहस और बाजार-व्यंग्य कविता (bahas aur bazar-hindi vyangya kavita)


सभागार के तले
मंच पर चले
बहसों के दौर
सुबह और शाम।
दिन पर चले पर नतीजा सिफर
छलकते हैं फिर भी रात को जाम।

अक्लमंदों की महफिल सजती है
उनकी दिमागी बोतल से
निकलते हैं लफ्ज
ऊपर लगी है मुद्दों की छाप
बाहर आते ही उड़ जाते बनकर भाप
मशहूर हो जाते बस यूं ही नाम।

बंद कमरे में हुई बहस
बाजार में बिकने आ जाती है
जमाने में छा जाती है
किसी नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद है बेकार
नहीं चली बहस आगे
तो जज्बातों के सौदागार हो जायेंगे बेजार
इसलिये मुद्दे बार बार
चमकाये जाते हैं
कभी लफ्ज तो कभी छाप
बदलकर सामने आते हैं
अक्लमंद करते हैं बहस
पीछे बाजार करता है अपना काम।
इसलिये जिस शय को बाजार में बेचना है
उस पर जरूरी है बंद कमरे में
पहले बहस कराने का काम।
……………………..

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बाजार में सजा स्वयंवर-हास्य व्यंग्य (bazar men swyanbar-hindi hasya vyangya)


वैसे तो भारतीय संस्कृति और संस्कारों में लोगों को ढेर सारे दोष दिखाई देते हैं पर फिर भी वह उसमें तमाम कथ्यों और तथ्यों की पुनरावृत्ति करते वही दिखाई देते हैं। भारतीय ग्रंथों में वर्णित हैं स्वयंवर की प्रथा। इसमें लड़की स्वेच्छा से वर का चुनाव करती है। भारतीय समाज में स्त्री को समान स्थान देने का दावा करने वाले इसी प्रथा का उदाहरण देते हैं।
सच बात तो यह है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मनुष्य मन को मोह लेने वाले सारे तत्व हैं। इससे आगे यह कहें कि जैसे जिसकी दृष्टि है वैसे ही वह उसे दिखाई देते हैं। हम अपने इन्हीं ग्रंथों को देखें तो उनका यह संदेश साफ है कि जिस दृष्टि से इस दुनियां को देखोगे वैसे ही दिखाई देगी। भारतीय ग्रंथों से आगे अन्य कोई सत्य ढूंढ नहीं सकता। भारत पर हमला करने वालों ने सबसे पहले उन स्थानों को जलाया और नष्ट किया जहां से पूरे देश में ज्ञान पहुंचता था। उन स्थानों पर योगी, योद्धा और युग का निर्माण होता था।
यही हमलावर अपने साथ आधे अधूरे कचड़ा बुद्धि वाल ज्ञानी भी ले आये जिन्होंने चमत्कारों और लोभ के सहारे यहां अपने ज्ञान का प्रचार किया। उन्होंने समाज में भेद स्थापित किये और यहां अपना परचम फहराया।

वह और उनके चेले माया की चमक में उस गहरे ज्ञान को क्या समझते? उन्होंने तो बस हाथ ऊपर उठाकर सर्वशक्तिमान से धन ,सुख और दिल की शांति मांगना ही सिखाया। इसे हम सकाम भक्ति का भी सबसे विकृत रूप कह सकते हैं। जीवन का अंतिम सत्य मौत है, पर उन्होंने अपने को जिंदा दिखाने के लिये मुर्दों को पूजना सिखाया।
सुना है आजकल एक अभिनेत्री का स्वयंवर का प्रत्यक्ष प्रसारण किसी टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है। स्वयंवर भारतीय समाज की एक आकर्षक और मन लुभावनी परंपरा रही है पर यह सभी लड़कियों के लिये नहीं है। स्वयंवर अधिकतर धनी मानी और राजसी युवतियों के भी इस आशा के साथ होते थे क्योंकि उसमें योद्धा, बुद्धिमान और सुयोग्य वर आने की संभावना अधिक होती थी। सामान्य लड़कियों के लिये स्वयंवर कभी आयोजित किये गये हों इसकी जानकारी नहीं है। भारतीय महापुरुषों तथा परंपराओं को सही ढंग से लोग नहीं इसलिये इन स्वयंवरों का इतिहास भी जानना जरूरी है। जिन आधुनिक लड़कियों के मन में उस अभिनेत्री को देखकर स्वयंवर की इच्छा जागे वह जरा यह भी समझ लें कि इन स्वयंवरों के बाद का इतिहास उन महान महिलाओं के लिये तकलीफदेह रहा है जो इन स्वयंवरों की नायिकायें थी।
सबसे पहले श्रीसीता जी के स्वयंवर का इतिहास देख लें। उनके पिता को अपनी असाधारण पुत्री-याद रहे वह राजा जनक को हल जोतते हुए मिली थी-के लिये असाधारण वर की आवश्यकता थी। श्रीराम के रूप में वह मिला भी। श्रीराम जी और श्रीसीता जी की यह जोड़ी पति पत्नी के रूप में आदर्श मानी जाती है पर दोनों ने कितने कष्ट उठाये सभी जानते हैं।
दूसरा स्वयंवर द्रोपदीजी का प्रसिद्ध है। उसके बाद जो महाभारत हुआ तो उससे श्रीगीता के संदेश इस विश्व में स्थापित हुआ। द्रोपदी को जीवन में कितना कष्ट हुआ सभी जानते हैं।
तीसरा स्वयंवर भी हुआ है जिसमें नारद जी ने भगवान विष्णु से श्रीहरि जैसा चेहरा मांग लिया तो उन्होंने वानर जैसा दे दिया। अपमानित होकर लौटे नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया कि कभी न कभी आपको वानर की सहायता लेनी पड़ेगी। श्रीरामावतार के रूप में यह शाप उन्होंने भोगा। जिसमें वानरों की सहायता लेनी पड़ी और उसमें भी श्रीहनुमान तो सेवक होते हुए भी श्रीहरि जैसे ही प्रसिद्ध हुए।
च ौथा स्वयंवर संयोगिता का है जिसमें से श्री प्रथ्वीराज उनका अपहरण कर ले गये। इतिहासकार मानते हैं कि वहां से जो इस देश में आंतरिक संघर्ष प्रारंभ हुआ तो वह गुलामी पर ही खत्म हुआ।
स्वयंवर एक अच्छी परंपरा हो सकती है पर सामान्य लोगों द्वारा इसे कभी अपनाया नहीं गया। वजह साफ है कि राजा या धनी आदमी के लिये तो कोई भी दामाद चुनकर उसको संरक्षण दिया जा सकता है पर सामान्य आदमी को देखदाख कर ही अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ता है। विवाह का मतलब होता है गृहस्थी बसाना। विवाह एक दिन का होता है पर गृहस्थी तो पूरे जीवन की है। इसमें आर्थिक और सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है।
वैसे एक बात समझ में नहीं आती कि आधुनिक समय में जो लोग आजादी से जीना चाहते हैं वह किसलिये विवाह के बंधन में फंसना चाहते हैं। अब तो अपने देश में बिना विवाह साथ रहने की छूट मिल गयी है। यहां याद रखने वाली है कि विवाह एक सामाजिक बंधन हैं। जो समाज आदि को नहीं मानते हुए इश्क के चक्कर में पड़ते हैं फिर इस सामाजिक बंधन के ंमें फिर उसी समाज को मान्यता क्यों देते हैं। कहीं धर्म बदलकर तो कहीं जाति बदलकर विवाह करते हैं। एक तरफ प्यार की आजादी की मांग उधर फिर यह विवाह जैसा सामाजिक बंधन! कभी कभी यह बातें हास्य ही पैदा करती हैं।
टीवी पर आता है कि प्यार पर समाज का हमला। अरे, भई जब आप अपने प्यार को एक समाज की विवाह प्रथा छोड़कर दूसरे की अपनाओगे तो हारने वाले समाज को तो गुस्सा आयेगा। यह स्वयंवर भी इसी तरह की परंपरा है। हिन्दू धर्म के आधार ग्रंथों की रचना के पीछे ऐसे ही स्वयंवर है पर फिर भी लोग इसे अब नहीं अपनाते।
आखिर में जाति और लिंग के आधार पर भेद करने वाली जिन ऋचाओं, श्लोकों और दोहों को हमारा हिन्दू समाज आज भले ही नहीं मानता पर उन्हीं की आड़ में उनकी आलोचना होती है पर जिसे पूरे समाज ने कभी नहीं अपनाया उसी स्वयंवर प्रथा का बाजारीकरण कर दिया। भई, यह बाजार है। आजकल इसमें स्वयंवर सज रहा है क्योंकि उससे बाजार पैसा कमा सकता है।
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जो सभी को पसंद हो वही कहो -हास्य कविता


प्रवचन करते समय
गुरुजी ने भक्तों को समझाया।
‘‘भ्रष्टाचार करना होता बहुत बड़ा शाप
दहेज समाज के लिये है एक शाप
इसी कारण देश और समाज
कभी आगे बढ़ न पाया।’‘

फिर गौर किया सामने तो
पूरा पंडाल खाली पाया
उन्होंने पूछा अपने शिष्य से
तो वहां से भी बड़ा दर्दनाक उत्तर आया।

‘महाराज, बोलने के लिये
बस क्या दो ही विषय थे
ध्यान, योग, और भक्ति पर
चाहे कुछ बोल देते
इस तरह लोगों की नाराजी तो न मोल लेते
भ्रष्टाचार का मायने भी जानते हैं आप
अपनी जेब में पैसा जाये तो कमाई
दूसरे करे तो पाप
मिट रहा है समाज पर
दहेज विरोध की बात नहीं करता आत्मसात
कन्या भ्रुण को गर्भ में मिटाकर
करने पर उतारू है आत्मघात
रग रग मेे जो पहुंचे गये रोग
अब बने व्यसन, जिसके नशे में जी रहे लोग
आपने शायद गुरु जी से
शिक्षा सही ढंग से नहीं पायी
‘लोगों को जो पसंद है वही बोलो’
यही नीति उन्होंने हमेशा अपनाई
इसलिये इतनी लोकप्रियता पाई
आपने उत्तराधिकार में जो गद्दी
उनसे पाई
समझो वह गंवाई
इस दहेज और भ्रष्टाचार पर बोलकर
आपने हमें भी संकट में पहुंचाया।’’
………………………..

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हादसों का प्रचार -त्रिपदम (hindi tripadam)


बड़े हादसे
प्रचार पा जाते हैं
बिना दाम के।

चमकते हैं
नकलची सितारे
बिना काम के।

कायरता में
ढूंढ रहे सुरक्षा
योद्धा काम के।

असलियत
छिपाते वार करें
छद्म नाम से।

भ्रष्टाचार
सम्मान पाता है
सीना तान के।

झूठी माया से
नकली मुद्रा भारी
खड़ी शान से ।

चाटुकारिता
सजती है गद्य में
तामझाम से।

असमंजित
पूरा ही समाज है
बिना ज्ञान के।

………………………….

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अंतर्जाल पर हिंदी का नया वैश्विक काल प्रारंभ -संपादकीय


हिंदी में विभिन्न कालों की चर्चा बहुत रही है। सबसे महत्वपूर्ण स्वर्णकाल आया जिसमें हिंदी भाषा के लिये जो लिखा गया वह इतना अनूठा था कि उसकी छबि आज तक नहीं मिट सकी। विश्व की शायद ही कोई ऐसी भाषा हो जिसके भाग्य में एसा स्वर्ण काल आया हो। इसके बाद रीतिकाल आया। आजकल आधुनिक काल चल रहा है पर अब इस पर वैश्विक काल की छाया पड़ चुकी है। ऐसी अपेक्षा है कि इस वैश्विक काल में हिंदी का स्वरूप इतना जोरदार रहेगा कि भविष्य में यह अंग्रेजी को चुनौती देती मिलेगी। हिंदी ब्लाग जगत पर कुछ नये लेखक -इसमें आयु की बात नहीं क्योंकि जो इस समय भारत के हिंदी जगत प्रसिद्ध नहीं है पर लिखते हैं जोरदार हैं इसलिये उनको नया ही माना जाना चाहिये-इतना अच्छा और स्तरीय लिख रहे हैं उससे तो यह लगता है कि आगे चलकर उनके पाठ साहित्य का हिस्सा बनेंगे।
उस दिन कहीं साहित्यकार सम्मेलन था। वहां से लौटे एक मित्र ने इस लेखक से कहा-‘आखिर तुम इस तरह के साहित्यकार सम्मेलनों में में क्यों नहीं दिखते? यह ठीक है कि तुम आजकल अखबार वगैरह में नहीं छपते पर लेखक तो हो न! ऐसे सम्मेलनों में आया करो । इससे अन्य साहित्यकारों से मेल मिलाप होगा।’
इस लेखक ने उससे कहा-‘दरअसल अंतर्जाल पर इस तरह का मेल मिलाप अन्य लेखकों के साथ होने की आदत हो गयी हैै। वह लोग हमारा पाठ पढ़कर टिप्पणी लिखते हैं और हम उनके ब्लाग पर टिपियाते हैं।’
लेखक मित्र को इस लेखक के ब्लाग पर लिखने की बात सुनकर आश्चर्य हुआ। तब उसने कहा-‘यार, मेरे घर में इंटरनेट है पर मुझे चलाना नहीं आता। एक दिन तुम्हारे घर आकर यह सीखूंगा फिर स्वयं भी इंटरनेट पर लिखूंगा।’
हिंदी पत्र पत्रिकाओं में लिखने वाले लेखकों के लिये इंटरनेट अब भी एक अजूबा है। कुछ लोग जानबूझकर भी इसके प्रति उपेक्षा का भाव दिखाते हैं जैसे कि अंतर्जाल पर लिखने वाले साहित्यकार नहीं है या उनके द्वारा लिख जा रहा विषय स्तरीय नहीं है। कई पुराने साहित्यकार ब्लाग लेखकों को इस तरह संदेश देते हैं जैसे कि वह लेखक नहीं बल्कि कोई टंकित करने वाले लिपिक हों। हां, यहां शब्दों को लिखने की वजह टांके की तरह लगाना पड़ता है और शायद इसी कारण कई लोग इससे परहेज कर रहे हैं। कई पुराने लेखक इसीलिये भी चिढ़े हुए हैं क्योंकि आम लोगों का इंटरनेट की तरफ बढ़ता रुझान उन्हें अपनी रचनाओं से दूर ले जा रहा है।
इस लेखक ने हिंदी साहित्य की करीब करीब सभी प्रसिद्ध लेखकों का अध्ययन किया है। उनमें बहुत सारी बढ़िया कहानियां, व्यंग्य, निबंध, उपन्यास और कवितायें हैं पर हिंदी का व्यापक स्वरूप देखते हुए उनकी संख्या नगण्य ही कहा जा सकता है इसी नगण्यता का लाभ कुछ ऐसे लेखकों को हुआ जिनकी रचनायें समय के अनुसार अपना प्रभाव खो बैठीं। इसके अलावा एक बात जिसने हिंदी लेखन को प्रभावित किया वह यह कि हिंदी भाषा के साहित्य बेचकर कमाने वाले लोगों ने लेखक को अपने बंधुआ लिपिक की तरह उपयोग किया। इसलिये स्वतंत्र और मौलिक लेखक की मोटी धारा यहां कभी नहीं बह सकी। एक पतली धारा बही वह बाजार की इच्छा के विपरीत उन कम प्रसिद्ध लेखकों की वजह से जिन्होंने निष्काम भाव से लिखा पर न किसी ने उनकी रचनायें खरीदी और न उनको बेचने का कौशल आया। क्या आप यकीन करेंगे कि इस लेखक के अनेक साहित्यकार मित्र ऐसे भी हैं जो एक दूसरे पर पैसे के सहारे आगे बढ़ने का आरोप लगाते हैं। ऐसे आरोप प्रत्यारोपों के बीच लिखा भी क्या जा सकता था? इसलिये ही स्वतंत्रता संग्राम, अकालों और पुराने सामाजिक आंदोलनों पर पर लिखा गया साहित्य आज भी जबरन पढ़ने को हम मजबूर होते है। बाजार ने कसम खा रखी है कि वह किसी नये लेखक को प्रसिद्धि के परिदृश्य पर नहीं लायेगा। इसलिये ही केवल उनकी ही किताबें प्रकाशित होती हैं स्वयं पैसा देकर कापियां लेते हैं या फिर उनकी लेखन से इतर जो प्रतिष्ठा होती है और उनके प्रशंसक यह काम करते हैं। एक तरह से हिंदी का आधुनिक काल बाजार के चंगुल में फंसा रहा और वैश्विक काल उसे मुक्त करने जा रहा है।
सच बात तो यह है कि हिंदी के स्वर्णकाल के-जिसे भक्तिकाल भी कहा जाता है-बाद के कालों में हिंदी में कभी चाटुकारिता से तो कभी पाखंड और कल्पना से भरी रचनाओं से सजती गयी और लिखने वालों को पुरस्कार, सम्मान और इनाम मिले तो उन्होंने अपने सृजन को उसी धारा पर ही प्रवाहित किया। ऐसे मेें कुछ लेखकों ने निष्काम भाव से लिखते हुए जमकर लिखा और उन्होंने हिंदी भाषा का विस्तार एक नयी दिशा में करने का प्रयास किया। ऐसे ही निष्काम महान लेखक कम थे पर उन्होंने हिंदी का निर्बाध प्रवाह कर आने समय में इसके विश्व में छा जाने की बुनियाद रखी। इस धारा में इनाम, पुरस्कारों और सम्मानों से सजे लेखकों की तात्कालिक प्रभाव वाली कुछ रचनायें भी आयीं पर अब वह अपना प्रभाव खो चुकी हैं। ऐसे में कुछ ब्लाग लेखक गजब की रचनायें लिख रहे हैं। उनको पढ़कर मन प्रसन्न हो उठता है। सच बात तो यह है कि जिस तरह के विषय और उन पर मौलिक तथा स्वतंत्र लेखन यहां पढ़ने को मिल रहा है वह बाहर नहीं दिखाई देता।
हिंदी ब्लाग जगत पर पढ़ने पर सम सामयिक विषयों पर ऐसे विचार और निष्कर्ष पढ़ने को मिल जाते हैं जिनको व्यवसायिक प्रकाशन छापने की सोच भी नहीं सकते। ब्लाग लेखकों की बेबाक राय को प्रस्तुति कई संपादकों के संपादकीय से अधिक प्रखर और प्रसन्न करने वाली होती है।
अंतर्जाल पर हिंदी का जो आधुनिक कल चल रहा है वह अब वैश्विक काल में परिवर्तित होने वाला है-इसे हम सार्वभौमिक काल भी कह सकते हैं। अनुवाद के जो टूल हैं उससे हिंदी भाषा में लिखी सामग्री
किसी भी अन्य भाषा में पढ़ी जा सकती है। हिंदी लेखन में अभी तक उत्तर भारत के लेखकों का वर्चस्व था पर अब सभी दिशाओं के लेखक अंतर्जाल पर सक्रिय हैं। इसलिये इसके लेखन के स्वरूप में भी अब वैश्विक रूप दिखाई देता है। ऐसा लग रहा है कि कहानियों, व्यंग्यों, निबंधों और कविताओं की रचनाओं में पारंपरिक स्वरूप में-जिसमेें कल्पना और व्यंजना की प्रधानता थी- बदलाव होकर निजत्व और प्रत्यक्षता का बोलबाला रहेगा। हां, कुछ सिद्ध लेखक व्यंजना विद्या का सहारा लेंगे पर उनकी संख्या कम होगी। हां, संक्षिप्पता से प्रस्तुति करना भी का लक्ष्य रहेगा। जिस तरह ब्लाग लेखक यहां लिख रहे हैं उससे तो लगता है कि आगे भी ऐसे लेखक आयेंगे। ऐसा लगता है कि परंपरागत साहित्य के समर्थक चाहे कितना भी ढिंढोरा पीटते रहें पर अंतर्जाल के ब्लाग लेखक-वर्तमान में सक्रिय और आगे आने वाले- ही हिंदी को वैश्विक काल में अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं से अग्रता दिलवायेंगे और यकीनन उनकी प्रसिद्ध आने वाले समय में महानतम हिंदी लेखकों में होगी। अनेक ब्लाग लेखक साक्षात्कार, निबंध, कवितायें और कहानियां बहुत मासूमियत से लिख रहे हैं। अभी तो वह यही सोच रहे है कि चलो हिंदी के परांपरागत स्थलों पर उनको उनके लिये स्थान नहीं मिल रहा इसलिये अंतर्जाल पर लिखकर अपना मन हल्का करें पर उनके लिखे पाठों का भाव भविष्य में उनके प्रसिद्धि के पथ पर चलने का संकेत दे रहा है।
कुल मिलाकर अंतर्जाल पर हिंदी का वैश्विक काल प्रारंभ हो चुका है। इसमें हिंदी एक व्यापक रूप के साथ विश्व के परिदृश्य पर आयेगी और इसकी रचनाओं की चर्चा अन्य भाषाओं में जरूर होगी। हां, इसमें एक बात महत्वपूर्ण है कि हिंदी के स्वर्णकाल या भक्तिकाल की छाया भी इस पड़ेगी और हो सकता है कि वैश्विक काल में उस दौरान की गयी रचनाओं को भी उतनी लोकप्रियता विदेशों में भी मिलेगी। अंतर्जाल पर इस ब्लाग/पत्रिका लेखक के अनेक पाठों पर तो ऐसे ही संकेत मिले हैं।

अंधेरे से रौशनी पैदा नहीं हो सकती-व्यंग्य कविता


धरती की रौशनी बचाने के लिये
उन्होंने अपने घर और शहर में
अंधेरा कर लिया
फिर उजाले में कहीं वह लोग खो गये।
दिन की धूप में धरती खिलती रही
रात में चंद्रमा की रौशनी में भी
उसे चमक मिलती रही
इंसान के नारों से बेखबर सुरज और चंद्रमा
अपनी ऊर्जा को संजोते रहे
एक घंटे के अंधेरे से
सोच में रौशनी पैदा नहीं हो सकती
अपनी अग्नि लेकर ही जलती
सूरज की उष्मा से ही पलती
और चंद्रमा की शीतलता पर यह धरती मचलती
उसके नये खैरख्वाह पैदा हो गये।
नारों से बनी खबर चमकी आकाश में
लगाने वाले चादर तानकर सो गये।

………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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तस्वीरों और शब्दों में दिखाते घाव-हिंदी शायरी


वह दिखाते अपनी तस्वीरों और शब्दों में लोगों के घाव।
प्रचार में चलता है इसलिये हमेशा चलता है उनका दाव।।
अपने दर्द से छिपते हैं दुनियां के सभी लोग
दूसरे के आंसू के दरिया में चलाते दिल की नाव।।
जज्बातों के सौदागर इसलिये कोई दवा नहीं बेचते
दर्द चाहे जब जितना खरीदो, एक किलो या पाव।।

…………………………..
जिसके लिये प्रेम होता दिल में पैदा
उसके पास जाने की
इच्छा मन में बढ़ जाती है
आंखें देखती हैं पर
बुद्धि अंधेरे में फंस जाती है
कुंद पड़ा दिमाग नहीं देख पाता सच
कहते हैं दूर के ढोल सुहावने
पर दूरी होने पर ही
किसी इंसान की असलियत समझ में आती है
इसलिये फासले पर रखो अपना विश्वास
किसी से टकराने पर
हादसों से जिंदगी घिर जाती है

——————

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पाठ नंबर 3013-विशेष संपादकीय


अगर चिट्ठाजगत पर दर्ज आंकड़ों को सही मान लिया जाये तो इस लेखक का अंतर्जाल पर यह 3013वां पाठ होना चाहिये। कुछ दिन पहले जब यह पता लगा कि अपने ब्लाग पर लिखे गये पाठों की संख्या पार होने वाली है तब आश्चर्य हुआ था। लिखते लिखते कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि कितने पाठ लिख रहा हूं। सच बात तो यह है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति के साधन के रूप में ब्लाग के मिल जाने से निरंतर लिखने की प्रवृत्ति जाग्रत नहीं हुई बल्कि यह पहले से ही थी। अंतर यह था कि पहले एक रजिस्टर पर लिखा करता था अब ब्लागस्पाट के ब्लाग को यही समझकर लिख देता हूं जैसे कि रजिस्टर हो। हां, पहले कहीं से टाईप कर अपनी रचना प्रकाशन के लिये भेजा करता था पर डाक टिकटों पर खर्च किया गया पैसा व्यर्थ जाता रहा। ऐसे में यह सोचा कि शायद ही हम अपना लिखा लोगों तक पहुंचा पायें। पर इंसान जैसा सोचे वैसे ही यह दुनियां नहीं चलती। मेरा अंतर्जाल पर लिखना तो शायद पच्चीस साल पहले ही तय हो गया था जब मैंने फोटो कंपोजिंग पर काम शुरु किया था। उस समय पता नहीं था कि अखबार के दफ्तर में एक प्रशिक्षु के रूप में जो कार्य कर रहा हूं वह कभी अंतर्जाल पर काम आयेगा। यहां आना भी आसान नहंीं था। आने से पहले भी कुछ एक के बाद एक संयोग बने जिसका मार्ग अंतर्जाल पर ले आया। सौ घंटे के फ्री कनेक्शन के साथ कंप्यूटर यह सोचकर खरीदा था कि इससे समाचार पत्र पत्रिकाओं को रचनायें भेजेंगे। इसी दौरान एक पुराने मित्र से परिचय हुआ जिन्होंनें अंतर्जाल पर अपनी रचनायें भेजने के लिये अभिव्यक्ति और अनुभूति पत्रिकाओं के डाक पते की जानकारी मांगी। हमने उसे खोलकर देखा तो पाया कि वह तो केवल ईमेल से ही रचनायें स्वीकार करते हैं। हमने अपने मित्र को बताया पर इसी बीच हमने अपनी रचनायें भेजी। उसी समय हमारी नजर में हिंदी नेस्ट कर एक पत्रिका भी आयी जिसमें हमने अपनी रचनाये भेजीं। अभिव्यक्ति पर नारद फोरम देखकर यह समझ में नहीं आता था कि यह लेखक लोग क्या और किस पर लिख रहे हैं। अक्षरग्राम पर ब्लाग बनाने का प्रयास भी नाकाम रहा। बहुत सारी स्मृतियां दिमाग में है पर यह याद नहीं कि आखिर यह ब्लाग हमारे हाथ आया कैसे?
इतना याद है कि जैसे ही आया था हमने इसे पत्रिका के रूप में उपयोग करने का निर्णय लिया।

अध्यात्म का विषय तो बचपन से रुचिकर रहा है पर विभिन्न विषयों पर कहानियां, व्यंग्य, कवितायें, और लेख लिखना सबसे अच्छा लगा। अंतर्जाल पर आने से पहले चिंतन लिखने पर लोगों में बहुत लोकप्रियता मिली। इससे एक बार व्यंग्य और कहानियां लिखना बंद हो गया था। अंतर्जाल पर आने के बाद मन में दबी सारी भावनाओं को बाहर निकालने का अवसर मिला जिसे गंवाना न ठीक था न संभव क्योंकि लिखने का इतना सहज अभ्यास है कि कहीं भी बैठ जाऊं लिखने का मन होता है। पहले भी कहींं समय या सुविधा नहीं होती तो अपने विचार क्षणिकाओं के रूप में लिख लेता था अब यही काम ब्लाग पर करने लगता हूं। सच बात तो यह है कि फोरमों पर मेरे पाठों की गिनती होती है इसलिये कम कवितायें लिखता हूं। मैंने कुछ नये ब्लाग इसी उद्देश्य से बनाये थे कि उन पर चुपचाप बैठकर लिखूंगा पर चिट्ठाजगत वाले सारे ब्लाग लिंक कर लेते हैं फिर उन पर लिखो तो मित्र लोग पाठों की संख्या देखकर नजर लगा देते हैं कि इतना सारा कैसे लिखते हो। अब यह उनको कैसे समझायें कि क्षणिकाऐं या छोटी कविताऐं लिखने में मुझे अधिक समय नहीं लगता। अगर कृतिदेव को यूनिकोड मेंं बदलने वाला टूल नहीं होता तो सीधे ही ब्लाग स्पाट पर क्षणिका या छोटी कविताये टाईप कर प्रकाशित करते जाते तब शायद उनकी संख्या अधिक होती। अब अपने ही कंप्यूटर पर टाईप कर बाद में टूल से यूनिकोड में अपना पाठ ले जाते हैं जिसमें समय अधिक लग जाता है और इसी कारण कम ही पाठ रह जाते हैं। क्षणिकाओं और कविताओं के बारे में अगर यह कहें कि समय गुजारने के लिये उनका उपयोग बहुत अच्छा है पर उनसे पाठों की संख्या बढ़ने से लोग बाग टोकाटोकी करते हैं।
चिंतन और हास्य व्यंग्य लिखना पसंद है पर उसके लिये समयाभाव लगता है। इसलिये सुबह महापुरुषों के संदेश लिखना शुरु किया था। उसके पीछे मेरा कोर्ई उद्देश्य नहीं था पर 28 मार्च 2008 को कृतिदेव का यूनिकोड टूल मिल जाने के बाद उनके साथ अपनी व्याख्या जोड़ने का विचार भी किया। जिस समय सुबह लिखता हूं तब मेरा दिमाग एक निर्लिप्त रहता है। दरअसल अध्यात्म विषयों पर लिखने की इच्छा अवश्य होती है पर उससे प्रशंसा पाने की कोई आकांक्षा मेरे हृदय में नहीं होती। न ही इस बात की परवाह होती है कि उसे कितने लोगों ने पढ़ा। अन्य विषयों पर लिखे गये पाठों में इस बात की दिलचस्पी रहती है कि कि उसे कितने लोगों ने पढ़ा या कौनसे विषय लोगों को पंसद हैं।
अब जब आंकलन करता हूं तो लगता है कि अध्यात्मिक संदेशों की वजह से कुछ अधिक पहचान बन गयी है जिसके बारे में कभी सोचा नहीं था। मैं अन्य विषयों पर प्रशंसा और आलोचना पर विचार करता हूं पर अध्यात्मिक विषय पर आलोचनायें मेरी समझ में नहीं आती। मैने किसी को जबरदस्ती तो कहा नहीं है कि इसे पढ़ो पर यह ताज्जुब का विषय है कि मेरे अध्यात्मिक पाठों पर प्रतिकूल और अपमानजनकर टिप्पणियां अधिक मिली हैं। एक तो ऐसा करने वाले अनाम होते हैं इसलिये उनको समझाना मुश्किल है दूसरे मेरी अध्यात्मिक विषयों पर अधिक बहस में दिलचस्पी बिल्कुल नहीं है । अपने ब्लाग पर महापुरुषों के संदेश वाले दो पाठ और तीन कवितायें लिखने का मतलब तो यही समझना चाहिये कि मैंने उस दिन कुछ नहीं लिखा।

आखिरी बात यह है कि मेरा लक्ष्य अपनी बात लिखना है और पढ़ने वाले की उसमें रुचि है या नहीं इस पर विचार करना दिमाग पर अनावश्यक बोझ उठाना लगता है। मैंने इसलिये अपने वर्डप्रेस के ब्लाग ब्लागवाणी से हटवा लिये कि ब्लाग लेखकों के समक्ष पाठों को दोहराव सामने न आये। ब्लाग स्पाट के ब्लाग डायरी और वर्डप्रेस के पत्रिका की तरह लगते हैं। इसलिये अपने पाठ वहां दोबारा रखता हूं। प्रसंगवश मेरा यह ब्लाग दीपकबापू कहिन जो मेर सबसे पहला ब्लाग है तीस हजार की संख्या पार कर गया है और इस पर यह लिखा गया यह विशेष संपादकीय ब्लागवाणी पर दिखाई नहीं देगा क्योंकि यह ब्लाग वहां नहीं दिखता। हां इधर यह भी सोच रहा हूं कि क्यों न वर्डप्रेस भी अब मूल रचनायें लिखना प्रारंभ की जायें क्योंकि ब्लाग स्पाट से यहां लाने से अच्छा है कि यहीं लिखा जाये क्योंकि जितना समय लिखने में लगता है उतना ही लाने में भी लग जाता है। इस अवसर पर बस इतना ही।

प्रतियोगिता से कहीं अधिक वजन जंग में आता है-लघु व्यंग्य


अपने वाद्ययंत्रों के साथ सजधजकर वह घर से बाहर निकला और अपनी मां से बोला-‘‘मां, आशीर्वाद दो जंग पर जा रहा हूं।’
मां घबड़ा गयी और बोली-‘बेटा, मैंने तुम्हें तो बड़ा आदमी बनने का सपना देखा था । भला तुम फौज में कब भर्ती हो गये? मुझे बताया ही नहीं। हाय! यह तूने क्या किया? बेटा जंग में अपना ख्याल रखना!’
बेटे ने कहा-‘तुम क्या बात करती हो? मैं तो सुरों की जंग में जा रहा हूं। अंग्रेजी में उसे कांपटीनशन कहते हैं।’
मां खुश हो गयी और बोली-‘विजयी भव! पर भला सुरों की जंग होती है या प्रतियोगिता?’
बेटे ने कहा-‘मां अपने प्रोग्राम को प्रचार में वजन देने के लिये वह प्रतियोगिता को जंग ही कहते हैं और फिर आपस में लड़ाई झगड़ा भी वहां करना पड़ता है। वहां जाना अब खेल नहीं जंग जैसा हो गया है।’
वह घर से निकला और फिर अपनी माशुका से मिलने गया और उससे बोला-‘मैं जंग पर जा रहा हूं। मेरे लौटने तक मेरा इंतजार करना। किसी और के चक्कर में मत पड़ना! यहां मेरे कई दुश्मन इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कब मैं इस शहर से निकलूं तो मेरे प्रेम पर डाका डालें।’

माशुका घबड़ा गयी और बोली-‘देखो शहीद मत हो जाना। बचते बचाते लड़ना। मेरे को तुम्हारी चिंता लगी रहेगी। अगर तुम शहीद हो गये तो तुम्हारे दुश्मन अपने प्रेम पत्र लेकर हाल ही चले आयेंगे। उनका मुकाबला मुझसे नहीं होगा और मुझे भी यह शहर छोड़कर अपने शहर वापस जाना पड़ेगा। वैसे तुम फौज में भर्ती हो गये यह बात मेरे माता पिता को शायद पसंद नहीं आयेगी। जब उनको पता लगेगा तो मुझे यहां से वापस ले जायेंगे। इसलिये कह नहीं सकती कि तुम्हारे आने पर मैं मिलूंगी नहीं।’
उसने कहा-‘मैं सीमा पर होने वाली जंग में नहीं बल्कि सुरों की जंग मे जा रहा हूं। अगर जीतता रहा तो कुछ दिन लग जायेंगे।’

माशुका खुश हो गयी और बोली-अरे यह कहो न कि सिंगिंग कांपटीशन में जा रहा हूं। अरे, तुुम प्रोगाम का नाम बताना तो अपने परिवार वालों को बताऊंगी तो वह भी देखेंगे। हां, पर किसी प्रसिद्ध चैनल पर आना चाहिये। हल्के फुल्के चैनल पर होगा तो फिर बेकार है। हां, पर देखो यह जंग का नाम मत लिया करो। मुझे डर लगता है।’
उसने कहा-‘अरे, आजकल तो गीत संगीत प्रतियोगिता को जंग कहा जाने लगा है। लोग समझते हैं यही जंग है। अगर किसी से कहूं कि प्रतियोगिता में जा रहा हूंे तो बात में वजन नहीं आता इसलिये ‘जंग’ शब्द लगाता हूं। प्रतियोगिता तो ऐसा लगता है जैसे कि कोई पांच वर्ष का बच्चा चित्रकला प्रतियागिता में जा रहा हो। ‘जंग’ से प्रचार में वजन आता है।’
माशुका ने कहा-‘हां, यह बात ठीक लगती है। तुम यह कांपटीशन से जीतकर लौटोगे तो मैं तुम्हारा स्वागत ऐसा ही करूंगी कि जैसे कि जंग से लौटे बहादूरों का होता है। विजयी भव!
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

धार्मिक ज्ञान के साथ यौन शिक्षा-हास्य व्यंग्य


अगर विश्व में निर्मित सभी धार्मिक समाजों और समूहों का यही हाल रहा तो आगे चलकर कथित रूप से सभी धर्मों के कथित गुरु और ठेकेदार सामान्य लोगों को धार्मिक ग्रंथों की बजाय यौन शिक्षा देने लगेंगे। जैसे जैसे विश्व में लोग सभ्य और शिक्षित हो रहे हैं वह छोटे परिवारों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों में आधुनिक शिक्षा का बोलबाला है उनकी जनसंख्या कम हो रही है जिनमें नहीं है उनकी बढ़ रही है। हालांकि इसके पीछे स्थानीय सामाजिक कारण अधिक हैं पर धार्मिक गुरु जनसंख्या की नापतौल में अपने समाज को पिछड़ता देख लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने की सलाहें दे रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों की संख्या बढ़ रही है वह भी अपने लोगों को बच्चे का प्रजनन रोकना धर्म विरोधी बताकर रोकने का प्रयास कर रहे हैं। कायदे से सभी धर्म गुरुओं को केवल व्यक्ति में सर्वशक्तिमान की आराधना और समाज के लिये काम करने की प्रेरणा देने का काम करना चाहिये पर वह ऐसे बोलते हैं जैसे कि सामने मनुष्य नहीं बल्कि चार पाये वाला एक जीव बैठा हो।

उस दिन अखबार में पढ़ा विदेश में धर्म प्रचारक अपने समाज के युवा जोड़ों से सप्ताह में सात दिन ही यौन संपर्क करने का आग्रह कर डाला। उसके अनुसार यह सर्वशक्तिमान का उपहार है और इसका इस्तेमाल करते हुए उसे धन्यवाद देना चाहिये। हर होती है हर चीज की। इस तरह के आग्रह करना अपने आप में एक हास्याप्रद बात लगती है। शरीर के समस्त इंद्रियां आदमी क्या पशु तक को स्वतः ही संचालित करती हैं और उसमें कोई किसी को क्या सलाह और प्रेरणा देगा? मगर धर्मगुरुओं और ठेकेदारों की चिंता इस बात की है कि अगर उनके समाज की जनसंख्या कम हो गयी तो फिर उनके बाद आने वाली गुरु पीढ़ी का क्या होगा? वह उनको ही कोसेगी कि पुराने लोगों ने ध्यान नहीं दिया

अपने ही देश में एक कथित धार्मिक विद्वान ने सलाह दे डाली कि जो धनी और संपन्न लोग हैं वह अधिक बच्चे पैदा करें। एक तरह से उनका आशय यह है कि अमीर लोगों को ही अधिक ब्रच्चे पैदा करने का अधिकार है। जब अपने देश में हो उल्टा रहा है। जहां शिक्षा और संपन्नता है वहां लोग सीमित परिवार अपना रहे हैं-हालांकि उसमें भी कुछ अपवाद स्वरूप अधिक बच्चे पैदा करते हैं। जहां अशिक्षा, गरीबी और भुखमरी है वहां अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैं। कई बार जब गरीबी और भुखमरी वाली रिपोर्ट टीवी चैनलों में देखने और अखबार पढ़ने का अवसर मिलता है तो वहां उन परिवारों में एक दो बच्चे की तो बात ही नहीं होती। पूरे पांच छह कहीं आठ बच्चे मां के साथ खड़े दिखाई दे जाते हैं जो कुपोषण के कारण अनेक तरह की बीमारियों के ग्रसित रहते हैं। ऐसा दृश्य देखने वाले शहरों के अनेक संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की हाय निकल जाती है। वह कहतीं हैं कि कमाल है इनको बिना किसी आधुनिक चिकित्सा के यह बच्चे आसानी से हो जाते हैं यहां तो बिना आपरेशन के नहीं होते।’

तय बात है कि ऐसा कहने वाली उन महिलायें उन परिवारों की होती हैं जहां बर्तन से चैके तक का काम बाहर की महिलाओं के द्वारा पैसा लेकर किया जाता है।

हालांकि समस्या केवल यही नहीं है। लड़कियों के भ्रुण की हत्या के बारे में सभी जानते हैं। इसके कारण समाज में जो असंतुलन स्थापित हो रहा है। मगर इस पर धार्मिक गुरुओं और सामाजिक विद्वानों का सोच एकदम सतही है।

कम जनसंख्या होना या लडकियों का अनुपात में कम होना समस्यायें नहीं बल्कि उन सामाजिक बीमारियों का परिणाम है जिनको कथित धार्मिक ठेकेदार अनदेखा कर रहे हैं। हमारे देश में आदमी पढ़ा लिखा तो हो गया है पर ज्ञानी नहीं हुआ है। जिन लोगों ने अर्थशास्त्र पढा है उसमें भारत के पिछड़े होने का कारण यहांं की साामजिक कुरीतियां भी मानी जाती है। कहने को तो तमाम बातें की जा रही हैं पर समाज की वास्तविकताओं को अनदेखा किया जा रहा है। दहेज प्रथा का संकट कितना गहरा है यह समझने की नहीं अनुभव करने की आवश्यकता है।

लड़की वाले हो तो सिर झुकाओ। इसके लिये भी सब तैयार हैं। लड़के वाले जो कहें मानो और लोग मानते हैं। लड़की के माता पिता होने का स्वाभिमान कहां सीखा इस समाज ने क्योंकि उन्हीं माता पिता को पुत्र का माता पिता होने का कभी अहंकार भी तो दिखाना है!

यह एक कटु सत्य है कि अगर किसी को दो बच्चे हैं तो यह मत समझिये कि वहां परिवार नियोजन अपनाया गया होगा। अगर पहले लड़की है और उसके बाद लड़का हुआ है और दोनों की उमर में अंतराल अधिक है तो इसमें बहुत कुछ संभावना इस बात की भी अधिक लगती है कि वहां अल्ट्रा साउंड से परीक्षण कराया गया होगा। अनेक ऐसी महिलायें देखने को मिल सकती हैं जिन्होंने बच्चे दो ही पैदा किये पर उन्होंने अपने गर्भपात के द्वारा अपने शरीर से खिलवाड़ कितनी बार अपनी इच्छा से या दबाव में होने दिया यह कहना कठिन है।

एक धार्मिक विद्वान ने अपने समाज के लोगों को सलाह दी कि कम से कम चार बच्चे पैदा करो। दूसरे समाज के लोगों की बढ़ती जनसंख्या का मुकाबला करने के लिये उनको यही सुझाव बेहतर लगां।
अपने देश की शिक्षा पाश्चात्य ढंग पर ही आधारित है और जो अपने यहां शिक्षितों की हालत है वैसी ही शायद बाहर भी होगी। धार्मिक शोषण का शिकार अगर शिक्षित होता है तो यह समझना चाहिये कि उसकी शिक्षा में ही कहीं कमी है पर पूरे विश्व में हो यही रहा है। ऐसा लगता है कि पश्चिम में धार्मिक शिक्षा शायद इसलिये ही पाठ्यक्रम से ही अलग रखी ताकि धार्मिक गुरुओं का धंधा चलता रहे। हो सकता है कि धार्मिक गुरु भी ऐसा ही चाहते हों।

वैसे इसमें एक मजेदार बात जो किसी के समझ में नही आती। वह यह कि जनंसख्या बढ़ाने के यह समर्थक समाज में अधिक बच्चे पैदा करने की बात पर ही क्यों अड़े रहते हैं? कोई अन्य उपाय क्यों नहीं सुझाते ?
पश्चिम में एक विद्वान ने सलाह दे डाली थी कि अगर किसी समाज की जनंसख्या बढ़ानी है और समाज बचाना है तो समाज पर एक विवाह का बंधन हटा लो। उसने यह सलाह भी दी कि विवाहों का बंधन तो कानून में रहना ही नहीं चाहिये। चाहे जिसे जितनी शादी करना है। जब किसी को अपना जीवन साथी छोड़ना है छोड़ दे। उसने यह भी कहा कि अगर अव्यवस्था का खतरा लग रहा हो तो उपराधिकार कानून को बनाये रखो। जिसका बच्चा है उसका अपनी पैतृक संपत्ति पर अधिकार का कानून बनाये रखो। उसका मानना था कि संपन्न परिवारों की महिलायें अधिक बच्चे नहीं चाहतीं और अगर उनके पुरुष दूसरों से विवाह कर बच्चे पैदा करें तो ठीक रहेगा। संपन्न परिवार का पुरुष अपने अधिक बच्चों का पालन पोषण भी अच्छी तरह करेगा। कानून की वजह से उनको संपत्ति भी मिलेगी और इससे समाज में स्वाभाविक रूप से आर्थिक और सामाजिक संतुलन बना रहेगां।

उसके इस प्रस्ताव का जमकर विरोध हुआ। उसने यह सुझाव अपने समाज की कम होती जनसंख्या की समस्या से निपटने के परिप्रेक्ष्य में ही दिया था पर भारत में ऐसा कहना भी कठिन है। कम से कम कथित धार्मिक विद्वान तो ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि उनकी भक्ति की दुकान स्त्रियों की धार्मिक भावनाओं पर ही चल रही हैं। ऐसा नियम आने से समाज में अफरातफरी फैलेगी और फिर इन कथित धर्मगुरुओं के लिये ‘‘सौदे की शय’ के रूप में बना यह समाज कहां टिक पायेगा? सभी लोग ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जिन समाजों में अधिक विवाह की छूट है उसमें सभी ऐसा नहीं करते। यह बात निश्चित है पर जो अपने रिश्तों के व्यवहार के कारण चुपचाप मानसिक कष्ट झेलते हैं वह उससे मुक्त हो जायेंगे और फिर तनाव मुक्त भला कहां इन गुरुओं के पास जाता है? ऐसा करने से उनके यहां जाने वाले मानसिक रोगियों की संख्या कम हो जायेगी यह निश्चित है। अगर तनाव में फंसे लोग जब अपने जीवन साथी बदलते रहेंगे तो फिर उनको तनाव के लिये अध्यात्म शिक्षा की आवश्यकता ही कहां रह जायेगी?

बहरहाल अपनी जनसंख्या घटती देख विश्व के अनेक धर्म प्रचारक जिस तरह अब यौन संपर्क वगैरह पर बोलने लगे हैं उससे काम बनता नजर नहीं आ रहा हैं। अब तो ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनियां में धार्मिक प्रचारक यौन संपर्क का ज्ञान बांटेंगे। वह पुरुषों को बतायेंगे कि किसी स्त्री को कैसे आकर्षित किया जाता है। लंबे हो या नाटे, मोटे हो या पतले और काले हो या गोरे तरह अपने को यौन संपर्क के लिये तैयार करो। अपनी शिष्याओं से वह ऐसी ही शिक्षा महिलाओं को भी दिलवायेंगे।’
वह कंडोम आदि के इस्तमाल का यह कहकर विरोध करेंगे कि सब कुछ सर्वशक्तिमान पर छोड़ दो। जो करेगा वही करेगा तुम तो अपना अभियान जारी रखो। बच्चे पैदा करना ही सर्वशक्तिमान की सेवा करना है।

इससे भी काम न बना तो? फिर तो एक ही खतरा है कि धर्म प्रचारक और उनके चेले सरेआम अपने सैक्स स्कैण्डल करेंगे और कहेंगे कि सर्वशक्तिमान की आराधना का यही अब एक सर्वश्रेष्इ रूप है।

यह एक अंतिम सत्य है कि पांच तत्वों से बनी मनुष्य देह में तीन प्रकृतियां-अहंकार,बुद्धि और मन- ऐसी हैं जो उससे संचालित करती हैं और सभी धर्म ग्रंथ शायद उस पर नियंत्रण करने के लिये बने हैं पर उनको पढ़ने वाले चंद लोग अपने समाजों और समूहों पर अपना वर्चस्प बनाये रखने के लिये उनमें से उपदेश देते है।ं यह अलग बात है कि उनका मतलब वह भी नहीं जानते। पहले संचार माध्यम सीमित थे उनकी खूब चल गयी पर अब वह तीव्रतर हो गये हैं और सभी धर्म गुरुओं को यह पता है कि आदमी आजकल अधिक शिक्षित है और उस पर नियंत्रण करने के लिये अनेक नये भ्रम पैदा करेंगे तभी काम चलेगा। मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है और इसलिये समाज या समूह के विखंडन का भय उसे सबसे अधिक परेशान करता है और कथित धार्मिक गुरु और ठेकेदार उसका ही लाभ उठाते हैं। यह अलग बात है कि जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र े आधार पर समाजों और समूहों का बनना बिगड़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस पर किसी का बस नहीं। जिस सर्वशक्तिमान ने इसे बनाया है उसके लिये सभी बराबर हैं। कोई समाज बिगड़े या बने उसमें उसका हस्तक्षेप शाायद ही कभी होता हो। मनुष्य सहज रहे तो उसके लिये पूरी दुनियां ही मजेदार है पर समाज और समूहों के ठेकेदार ऐसा होने नहीं देते क्योंकि भय से आदमी को असहज बनाकर ही वह अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
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