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धर्म और कमाई-हास्य साहित्य कविता


 

धर्म बन गयी है शय
बेचा जाता है इसे बाज़ार में,
सबसे बड़े सौदागर
पीर कहलाते हैं.
भूख, गरीबी, बेकारी और बीमारी को
सर्वशक्तिमान के  तोहफे बताकर
ज़माने को  भरमाते हैं.
मांगते हैं गरीब के  खाने के लिए पैसा
जिससे खुद खीर खाते हैं.
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धर्म का नाम लेते हुए
बढ़ता जा रहा है ज़माना,
मकसद है बस कमाना.
बेईमानी के राज में
ईमानदारी की सताती हैं याद
अपनी रूह करती है  फ़रियाद 
नहीं कर सकते दिल को साफ़ कभी 
हमाम में नंगे हैं सभी 
ओढ़ते हैं इसलिए धर्म का बाना.
फिर भी मुश्किल है अपने ही  पाप से बचाना..
 
 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
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हमदर्दी बेजान होकर जताते-हिन्दी व्यंग्य कविता (bezan hamdardi-hindi satire poem)


अक्सर सोचते हैं कि
कहीं कोई अपना मिल जाए
अपने से हमदर्दी दिखाए
मिलते भी हैं खूब लोग यहाँ
पर इंसान और शय में फर्क नहीं कर पाते.
हम अपने दर्द छिपाते
लोग उनको ही ढूंढ कर
ज़माने को दिखाने में जुट जाते
कोई व्यापार करता
कोई भीख की तरह दान में देता
दिल में नहीं होती पर
पर जुबान और आखों से दिखाते.
हमदर्दी होती एक जज़्बात
लोग बेजान होकर जताते.
दूसरे के जख्म देखकर मन ही मन मुस्कराते.
—————————

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

तीक्ष्ण बुद्धि-हास्य कविता (sharp mind-hasya kavita)


आज के बच्चे
अपने माता पिता के बाल्यकाल से
अधिक तीक्ष्ण बुद्धि के पाये जाते
यह सच कहा जाता है।
किस नायिका का किससे
चल रहा है प्रेम प्रसंग
अपने जन्मदिन पर नायक की
किस दूसरे नायक से हुई जंग
कौन गायक
किस होटल में मंदिर गया
कौन गीतकार आया नया
कौनसा फिल्मी परिवार
किस मंदिर में करने गया पूजा
कहां जायेगा दूजा
रेडियो और टीवी पर
इतनी बार सुनाया जाता है।
देश का हर बच्चा ज्ञान पा जाता है।

……………………………

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भले होने का प्रमाण पत्र कहाँ से लायें-हिंदी व्यंग्य कविता (certificat of good men-hindi vyangya kavita)


उसने पूछा
‘क्या तुम बुरे आदमी हो‘
जवाब मिला
‘कभी अपने काम से
कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला
इसलिये कहना मुश्किल है
कभी इस बारे में सोचा ही नहीं।’

फिर उसने पूछा
‘क्या तुम अच्छे आदमी हो?’
जवाब मिला
‘यह आजमाने का भी
अवसर नहीं आया
पूरा जीवन अपने स्वार्थ में बिताया
कभी किसी ने मदद के लिये
आगे हाथ नहीं बढ़ाया
कोई बढ़ाता हाथ
तो पता नहीं मदद करता कि नहीं!’’
………………………………..
अपने भले होने का प्रमाण
कहां से हम लाते
ऐसी कोई जगह नहीं है
जहां से जुटाते।
शक के दायरे में जमाना है
इसलिये हम भी उसमें आते।
सोचते हैं कि
हवा के रुख की तरफ ही चलते जायें
कोई तारीफ करे या नहीं
जहां कसीदे पढ़ेगा कोई हमारे लिये
वह कोई चिढ़ भी जायेगा
अपने ही अमन में खलल आयेगा
इसलिये खामोशी से चलते जाते।

………………………….

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सोचने से सच का सामना-व्यंग्य चिंतन (sachne se sach ka samna-hindi vyangya)


कोई काम सोचने से वह सच नहीं हो जाता। आदमी की सोच पता नहीं कहां कहां घूमती है। बड़े बड़े ऋषि और मुनि भी इस सोच के जाल से नहीं बच पाते। अगर यह देह है तो उसमें बुद्धि, अहंकार और मन उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। इस सोच पर किसी बुद्धिमान और ज्ञानी का भी नियंत्रण नहीं रहता।
मान लीजिये कोई अत्यंत मनुष्य अहिंसक है। वह सपने में भी किसी के विरुद्ध हिंसा तो कर ही नहीं सकता पर अगर वह रात में सोते समय अपने कान में मच्छर के भिनभिनाने की आवाज से दुःखी हो जाता है उस समय अगर सोचता है कि इस मच्छर को मार डाले पर फिर उसे याद आता है उसे तो अहिंसा धर्म का पालन करना है। उसने मच्छर को नहीं मारा पर उसके दिमाग में मारने का विचार तो आया-भले ही वह उससे जल्दी निवृत हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि सोच हमेशा सच नहीं होता।
मान लीजिये कोई दानी है। वह हमेशा दान कर अपने मन को शांति प्रदान करता है। उसके सामने कुछ दादा लोग किसी ठेले वाले का सामान लूट रहे रहे हैं तब वह उसे क्रोध आता है वह सोचता है कि इन दादाओं से वह सामान छीनना चाहिये फिर उसे अपनी बेबसी का विचार आता है और वह वहां से चला जाता है। यह छीनने का विचार किसी भी दान धर्म का पालन करने वाले के लिये अपराध जैसा ही है। उस दानी आदमी ने दादाओं सामान छीनकर उस ठेले वाले को वापस लौटाने का प्रयास नहीं किया पर यह ख्याल उसके मन में आया। यह छीनने का विचार भी बुरा है भले ही उसका संदर्भ उसकी इजाजत देता है।
पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियों का खेल ऐसा है कि इंसान को वह सब खेलने और देखने को विवश करती हैं जो उसके मूल स्वभाव के अनुकूल नहीं होता। क्रोध, लालच, अभद्र व्यवहार और मारपीट से परे रहना अच्छा है-यह बात सभी जानते हैं पर इसका विचार ही नहीं आये यह संभव नहीं है।
मुख्य बात यह है कि आदमी बाह्य व्यवहार कैसा करता है और वही उसका सच होता है। इधर पता नहीं कोई ‘सच का सामना’ नाम का कोई धारावाहिक प्रारंभ हुआ है और देश के बुद्धिमान लोगों ने हल्ला मचा दिया है।
पति द्वारा पत्नी की हत्या की सोचना या पत्नी द्वारा पति से बेवफाई करने के विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को बुद्धिमान लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। कई लोग तो बहुत शर्मिंदगी व्यक्त कर रहे हैं। इस लेखक ने सच का सामना धारावाहिक कार्यक्रम के कुछ अंश समाचार चैनलों में देखे हैं-इस तरह जबरन दिखाये जाते हैं तो उससे बचा नहीं जा सकता। उसके आधार वह तो यही लगा कि यह केवल सोच की अभिव्यक्ति है कोई सच नहीं है। सवाल यह है कि इसकी आलोचना भी कहीं प्रायोजित तो नहंी है? हम इसलिये इस कार्यक्रम की आलोचना नहीं कर पा रहे क्योंकि इसे देखा नहीं है पर इधर उधर देखकर बुद्धिजीवियों के विचारों से यह पता लग रहा है कि वह इसे देख रहे हैं। देखने के साथ ही अपना सिर पीट रहे हैं। इधर कुछ दिनों पहले सविता भाभी नाम की वेबसाईट पर ही ऐसा बावेला मचा था। तब हमें पता लगा कि कोई यौन सामग्री से संबंधित ऐसी कोई वेबसाईट भी है और अब जानकारी में आया कि सच का सामना भी कुछ ऐसे ही खतरनाक विचारों से भरा पड़ा है।
इस लेखक का उद्देश्य न तो सच का सामना का समर्थन करना है न ही विरोध पर जैसे देश का पूरा बुद्धिजीवी समाज इसके विरोध में खड़ा हुआ है वह सोचने को विवश तो करता है। बुद्धिजीवियों ने इस पर अनेक विचार व्यक्त किये पर किसी ने यह नहीं कहा कि इस कार्यक्रम का नाम सच का सामना होने की बजाय सोच का सामना करना होना चाहिये। दरअसल सच एक छोटा अक्षर है पर उसकी ताकत और प्रभाव अधिक इसलिये ही वह आम आदमी को आकर्षित करता है। लोग झूठ के इतने अभ्यस्त हो गये है कि कहीं सच शब्द ही सुन लें तो उसे ऐसे देखने लगेंगे कि जैसे कि कोई अनूठी चीज देख रहे हों।
पहले ऐसे ही सत्य या सच नामधारी पत्रिकायें निकलती थीं-जैसे ‘सत्य कहानियां, सत्य घटनायें, सच्ची कहानियां या सच्ची घटनायें। उनमें होता क्या था? अपराधिक या यौन कहानियां! उनको देखने पर तो यही सच लगता था कि दुनियां में अपराध और यौन संपर्क को छोड़कर सभी झूठ है। यही हाल अब अनेक कार्यक्रमों का है। फिर सच तो वह है जो वास्तव में कार्य किया गया हो। अगर कथित सच का सामना धारावाहिक की बात की जाये तो लगेगा कि उसमें सोचा गया है। वैसे इस तरह के कार्यक्रम प्रायोजित है। एक कार्यक्रम में पत्नी के सच पर पति की आंखों में पानी आ जाये तो समझ लीजिये कि वह प्रायोजित आंसू है। अगर सच के आंसू है तो वह कार्यक्रम के आयोजक से कह सकते हैं कि-‘भई, अपना यह कार्यक्रम प्रसारित मत करना हमारी बेइज्जती होगी।’
मगर कोई ऐसा कहेगा नहीं क्योंकि इसके लिये उनको पैसे दिये जाते होंगे।
लोग देख रहे हैं। इनके विज्ञापन दाताओं को बस अपने उत्पाद दिखाने हैं और कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी रेटिंग बढ़ानी है। सच शब्द तो केवल आदमी के जज्बातों को भुनाने के लिये है। इसका नाम होना चाहिये सोच का सामना। तब देखिये क्या होता है? सोच का नाम सुनते ही लोग इसे देखना बंद कर देंगे। सोचने के नाम से ही लोग घबड़ाते हैं। उनको तो बिना सोच ही सच के सामने जाना है-सोचने में आदमी को दिमागी तकलीफ होती है और न सोचे तो सच और झूठ में अंतर का पता ही नहीं लगता। यहां यह बता दें कि सोचना कानून के विरुद्ध नहीं है पर करना अपराध है। एक पुरुष यह सोच सकता है कि वह किसी दूसरे की स्त्री से संपर्क करे पर कानून की नजर में यह अपराध है। अतः वहां कोई अपने अपराध की स्वीकृति देने से तो रहा। वैसे यह कहना कठिन है कि वहां सभी लोग सच बोल रहे होंगे पर किसी ने अगर अपने अपराध की कहीं स्वीकृति दी तो उस भी बावेला मच सकता है।
निष्कर्ष यह है कि यह बाजार का एक खेल है और इससे सामाजिक नियमों और संस्कारों का कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता मध्यम वर्ग के बद्धिजीवी-सौभाग्य से जिनको प्रचार माध्यमों में जगह मिल जाती है-इन कार्यक्रमों की आलोचना कर उनको प्रचार दे रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि उच्च और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों पर इसका प्रभाव होता है और उसे वही देख पाते हैं जो खामोशी से सामाजिक हलचलों पर पैनी नजर रखते हैं। बहरहाल मुद्दा वहीं रह जाता है कि यह सोच का सामाना है या सच का सामना। सोच का सामना तो कभी भी किया जा सकता है पर उसके बाद का कदम सच का होता है जिसका सामना हर कोई नहीं कर सकता
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सर्वशक्तिमान नहीं पैसा बनाता है जोड़ी-हास्य कविता


कौन कहता है ऊपर वाला ही
बनाकर भेजता इस दुनियां में जोड़ी
पचास साल के आदमी के साथ कैसे
जम सकती है बाईस साल की छोरी
अय्याशी के बनाते हैं संदेश
जिस पर नाचे पूरा देश
पर्दे पर काल्पनिक दृश्यों में
अभिनेताओं के साथ नाचते हुए
कई अभिनेत्रियां बूढ़ी हो जाती हैं
फिर कोई नयी आती है
पैसे और व्यापार के लिये खुल है पूरा
कहते हैं फिर ‘रब ने बना दी जोड़ी’
उठायें दीपक बापू सवाल
सर्वशक्तिमान ने रची है दुनियां
इंसान को अक्ल भी दी है
उसी पर काबू पाने के लिये
कई रचे गये प्रपंच
बना दिया धरती को बेवकूफियों का मंच
कामयाब हो जाये तो अपनी तारीफ
नाकाम होते ही अपनी गलती की
जिम्मेदारी सर्वशक्तिमान पर छोड़ी

……………………
मुश्किल है इस बात पर
यकीन करना कि
बन कर आती है ऊपर से जोड़ी
फिर कैसे होता कहीं एक अंधा एक कौड़ी
जो बना लेता हैं अपनी जोड़ी
कहीं घरवाली को छोड़
बाहरवाली से आदमी बना लेता अपनी जोड़ी

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गूगल ने दो हिन्दी ब्लाग जब्त किये-आलेख


गूगल ने इस लेखक के दो ब्लाग को बिना किसी पूर्व चेतावनी और सूचना के हटा दिया है। यह दो ब्लाग हैं सिंधु केसरी पत्रिका http://anant-sindhu.blogspot.com और अमृत संदेश पत्रिका http://amrut-sandesh.blogspot.com। इस संबंध में गूगल ग्रुप के सहायता केंद्र पर सूचित किया गया पर अभी तक कोई सूचना नहीं मिली है।
अब यह कहना कठिन है कि यह गलती से हुआ या जानबूझकर किया गया है। जहां तक इस लेखक द्वारा आपत्तिजनक लिखने का प्रश्न है तो अधिकतर ब्लाग लेखक पाठ पढ़ते रहते हैं और कोई ऐसी बात अपने ब्लाग/पत्रिका पर नहीं लिखता जिसे किसी को परेशानी हो। फिर आखिर इन ब्लाग को बिना किसी पूर्व सूचना या चेतावनी के आखिर क्यों हटा दिया गया।
कल चिट्ठाकारों की चर्चा में एक अन्य ब्लाग लेखक ने भी इस तरह की कार्यवाही का जिक्र किया गया तब उसे एक वरिष्ठ ब्लाग लेखक ने बताया कि उसके ब्लाग पर तीसरे पक्ष की कार्यक्षमता में कोई ऐसा लिंक जुड़ गया होगा जो आपत्ति जनक होगा। साथ ही उसे यह भी कहा गया कि वह गूगल को लिखे तो उसे ब्लाग वापस मिल जायेगा। अब गूगल ग्रुप के सहायता केंद्र के अलावा भी कोई ऐसी जगह हो जहां लिखा जाना है तो कृपया सुधि ब्लाग लेखक बतायें। जहां तक लेखक की जानकारी है तो तीसरे पक्ष की कार्यक्षमता में इन दोनों ब्लाग पर जो लिंक हैं वह अन्य ब्लाग पर भी हैं तो इसका आशय यह है कि बाकी ब्लाग भी हटाये जा सकते हैं। वैसे कोई ऐसे लिंक नहीं हैं जो आपत्तिजनक हों पर अगर हैं तो वह बताया जाना चाहिए न कि इस तरह प्रतिबंध लगाया जाये।

जिस तरह इन ब्लाग को हटाया गया है और लिखने के सात घंटे बाद भी न तो उनकी वापसी नहीं हुई है और न कोई सूचना मिली है वह अनेक प्रकार की आशंकाओं को तो जन्म देने के साथ ही इन वेबसाईट की विश्वसनीयता पर भी संदेह पैदा करती है। आखिर कोई आदमी कितनी मेहनत से लिखता है और फिर उसका ब्लाग आप बिना किसी सूचना के जब्त करें तो इसे तो विश्वासघात ही कहा जायेगा। याद रखने वाली बात यह है कि उदारीकरण के इस युग में निजी वेबसाईटों को विश्वास के सहारे ही चलना है।
इससे पहले एक बार ऐसा हुआ था जब पूरा ब्लाग स्पाट ही गलती का शिकार हुआ था। तब यही संदेश आ रहा था कि यह वेबसाईट आपके कंप्यूटर के लिये खतरनाक है। अब यह केवल इन दो ब्लाग पर ही आ रहा है और बाकी काम कर रहे हैं। अभी तक तो यह मानकर ही चलना चाहिये कि यह किसी त्रुटि का परिणाम है पर अगर यह सोद्देश्य किया गया है तो इसकी खोजबीन की जायेगी। बहरहाल कुछ अन्य ब्लाग लेखक भी हो सकते हैं जो इसका शिकार हुए होंगे। ऐसे में तकनीकी जानकार ब्लाग लेखकों से यह अपेक्षा है कि वह इन ब्लाग के संबंध में कोई कार्यवाही हो सकती है तो बतायें। यह आग्रह भी है कि अगर स्वयं कहीं सूचना दे सकते हैं तो भेज दें-उनकी अति क्रृपा होगी।
जिन ब्लाग को हटाया गया है वह इस प्रकार हैं
सिंधु केसरी पत्रिका http://anant-sindhu.blogspot.com
अमृत संदेश पत्रिका http://amrut-sandesh.blgospot.com

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‘मेरे पास बस प्यार है’ -hasya kavita


प्रेमी अपनी प्रेमिका का हाथ
माँगने  उसकी  माँ के पास पहुँचा 
तब वह गुस्से में बोली
‘तुम्हारे पास क्या है 
गाड़ी, बंगला  या बैंक बेलेंस 
प्रेमी फिल्मी स्टाइल  में बोला
‘मेरे पास  बस प्यार है’
प्रेमिका की माँ भड़क गयी गयी
और चिल्लाकर बोली 
‘उसका क्या मेरी बेटी अचार डालेगी 
यह कमाकर  तुम्हें पालेगी 
यह हर महीने नया सूट खरीद कर लाती है 
तुम्हें जिस मोबाइल से करती है फोन
उसमे सिम बाप के पैसे से डलवाती है
तुम इसके खर्च उठा सकोगे
क्या है तुम्हारे पास  
प्रेमी बोला
‘मेरे पास बस प्यार है’
 
प्रेमिका अपनी माँ से नाराज होकर बोली 
‘मम्मी तुम मेरी इसके साथ 
शादी कराने पर राजी हो जाओ 
नहीं तो में अपनी जान दे दूँगी या
 इसके  साथ भाग जाऊंगी ‘
माँ खुश होकर बोली
‘बेटी इसमें पूछना क्या 
कल को भागती है
आज ही भाग जा 
बाकी मैं संभाल लूँगी’
वह अपने कमरे से 
अपना सामान उठाकर ले आई
और प्रेमी से बोली
‘चलो अब यहाँ से निकलते हैं
कहीं और बसते हैं’
‘ठीक है कुछ पैसे भी रख लेना
तुम्हारे प्यार में पिताजी के दिये 
सब पैसे तुम  पर खर्च का दिया
अब जो बचा
मेरे पास बस प्यार है’
 
 
पहले तो प्रेमिका हतप्रभ  रह गयी
और फिर सोचते हुए बोली
‘इससे काम नहीं चलेगा 
यह घर छोड़ा तो यहाँ भी फिर
यहाँ भी  नो एन्ट्री का बोर्ड लगेगा   
कुछ तो होगा तुम्हारे  पास
प्रेमी बोला
‘मेरे पास बस प्यार है’
 
प्रेमिका को  गुस्सा  आ गया और बोली 
‘तुम अब अकेले चले जाओ
इस तरह नहीं चल सकती जिन्दगी की गाड़ी
प्यार तो है चार दिन का 
फिर तो चाहिये मुझे गहने और साड़ी
फिर भी प्रेमी नहीं मान रहा था
आखिर माँ-बेटी ने धकेल कर
उसे  घर से बाहर निकाला    
वह बस ऐक ही रट   लगाये जा  रहा था
‘मेरे पास बस प्यार है’
 —————–
     

पूंजी बाजार के खेल में-आलेख


भारत की चौथी बड़ी कंपनी का अध्यक्ष अगर अपनी कंपनी के खातों में जालसाजी की बात स्वीकार करता है तो पूरे विश्व में उसकी प्रतिक्रिया होगी। सत्यम की साख पिछले कुछ वर्षों से इतनी अच्छी बनी हुई थी कि उसके शेयर और म्यूचल फंड खरीदने वालों को अपना विनिवेश फायदे का सौदा लगता था। अब हालत बदल गयी है और उसके शेयरों के भाव बुरी तरह नीचे आ गये हैं।

मध्यम वर्ग के अनेक निवेशकों को इससे जो आघात लगेगा उसकी कल्पना वही कर सकते हैं जिन्होंने उसके शेयर और म्यूचल फंड खरीदे हैं। पिछले कुछ समय से मंदी को जो दौर शुरु हुआ है उसमें कई कंपनियों के पांव लड़खड़ाते हुए नजर आ रहा हैं। यह एक कंप्यूटर कंपनी की जालसाजी तक ही सीमित मुद्दा नहीं है बल्कि अब दुनियां में भारतीयों की विश्वसनीयता पर सवाल उठना प्रारंभ होंगे। जिन लोगों ने जन्म से ही अपने घर में व्यापार के रंग ढंग देखे हैं वह जानते हैं कि किसी एक बड़े व्यवसायिक संस्थान के दिवालिया या बंद होने से उसके साथ जुड़े अन्य छोटे संस्थान भी विकट स्थिति में पहुंच जाते हैं। उसमें विनिवेश करने वाले छोटे और बड़े लोग-जिन्होंने दूसरों से उधार लिया होता है-अपने दायित्वों से भागते हैं।

आप जानते हैं कि आज भी कई महिलायें और पुरुष अपनी बचतें सरकारी बैंकों में ही कम ब्याज पर रखना पसंद करते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि निजी क्षेत्र विश्वसनीय नहीं होते हैं। यहां यह भी याद रखने वाली है कि उनकी बचतें ही इन सार्वजनिक बैंकों के संजीवनी का काम करती हैं। जो लोग देश में सरकारीकरण के विरोधी है वह भी निजीकरण की विश्वसनीयता को संदेह से ही देखते हैं।

बहुत समय पहले एक बिस्कुट कंपनी दिवालिया हुई थी। यह बिस्कुट कंपनी अपना एक बैंक भी चलाती थी और उसमें शहर भर के लोगों के छोटे और बड़े निविशकों ने अधिक ब्याज की लालच में अपना पैसा जमा करा रखा था। वह बिस्कुट कंपनी और उसका बैंक दोनो ही दिवालिया हो गये। उससे अनेक छोटे निवेशकों को रोना तक आ गया। उसमें कुछ औरतों के भी पैसे थे जो अपने परिवार वालों से छिपा कर इस आशा के साथ विनिवेश करती थी कि समय या विपत्ति आने पर वह उस पैसे से अपने आश्रितों की सहायता कर गौरवान्वित अनुभव करेंगी पर बैंक के धोखे ने उनका मन बुझा दिया। बिस्कुट कंपनी की बैंक में कई सेठों ने भी हुंडियों पर पैसा लेकर विनिवेश किया था। जब वह कंपनी फेल हुई तो अनेक सेठ भी शहर छोड़कर भागे। अर्थात उन्होंने अपने विनिवेशकों से मूंह फेर लिया। एक बात याद रखिये जिस तरह भारत की अर्थव्यवस्था का आधार कृषक हैं उद्योगपति नहीं वैसे ही बाजार का मुख्य आधार आम उपभोक्ता और विनिवेशक मध्यम और निम्न वर्ग हैं सेठ नहीं। बड़े और सेठ लोग तो केवल दोहन करते है।

इन पंक्तियों ने ऐसे लोगों को देखा है जो उस बिस्कुट कंपनी के धोखे से अभी तक नहीं उबर पाये क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी भर की बचतें उसमें गंवा दी थी। कुछ महिलायें जिन्होंने उसमें अपना पैसा गंवाया था अब उम्रदराज हो गयी हैं और वह आज भी डाकघर और सार्वजनिक बैंकों में अपना थोड़ा पैसा रखती हैं। कितना भी लालच दिया जाये वह निजी बैंक पर यकीन नहीं करती। सच बात तो यह है कि जिन्होंने बाजारों में जीवन गुजारते हुए बड़े बड़े सेठों को दिवालिया होते भागते देखा है वह कभी भी निजी क्षेत्र पर विश्वास नहीं करते। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में कृषि या दुग्ध व्यवसाय तथा व्यापार से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं कि किस तरह आदमी दिवालिया होकर भाग जाता है और उनकी मेहनत की कमाई से बाद में भी अपना जीवन शान से गुजारते हैं।

सीधे शब्दों में कहें तो आत्मनिर्भर कृषकों और व्यवसायियों के लिये बड़े सेठ कभी विश्वसनीय नहीं होते। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय पूंजीपतियों की विदेशों में प्रतिष्ठा का यहां के प्रचार माध्यम अक्सर जिक्र करते हैं मगर भारत के लोग उससे प्रभावित नहीं होते। वजह साफ है कि भारतीय पूंजीपतियों ने समाज से मूंह फेर लिया है और वह विदेशों में अपनी छबि बनाने में लगे हैं क्योंकि वह जानते है कि यहां उनकी विश्वसनीयता हमेशा संदेहास्पद रहेगी। अनेक भारतीय पूंजीपतियों ने विदेशों में नाम कमाया है पर अब एक प्रतिष्ठित कंप्यूटर कंपनी की इस जालसाजी से पर उन सभी की विश्वसनीयता पर पूरे विश्व में सवाल उठेंगे इसमें संदेह नहीं है।

सबसे बड़ी बात यह है कि अमेरिका से आयातित इस कपंनी रूपी व्यवसायिक ढांचा यहां के सेठों को बहुत पंसद आया है। कहने को वह पदासीन अधिकारी की तरह होते हैं पर वास्तव में वह होते तो वैसे ही सेठ हैं। उनके आचार, विचार और रहन सहन से कभी यह नहीं लगता कि वह वेतनभोगी हैं जैसा कि वह प्रचारित करते हैं। उनके मातहत उनको उच्च पदाधिकारी नहीं बल्कि मालिक के रूप में वैसे ही देखते हैं जैसे सेठ को देखा जाता है। इससे उनको फायदा यह होता है जब तक कंपनी हिट है वह सेठ की तरह मजे लेते हैं और जो फ्लाप हुई वैसे ही उससे पीछा छुड़ा लेते हैं। लोग यह नहीं कहते कि अमुक सेठ डूबा बल्कि यही कहते हैं कि ‘वह कंपनी फेल हो गयी।’

हमेशा की तरह यह जुमला लिखना ठीक लगता है कि ‘यह तो तस्वीर वह दिखा रहे हैं पर पीछे क्या है जो वह छिपा रहे हैं’। इन अध्यक्ष महोदय ने जो जालसाजी का बयान दिया है उसके पीछे अन्य बहुत सारे सच भी होंगे पर वह बतायेंगे क्योंकि कोई भी आदमी तस्वीर का वही रूप सामने दिखाता है जो लोगों को अच्छा लगे-न लगे तो कम से बुरा भी अनुभव न हो। वह कहते हैं कि उन्होंने अस्सी हजार करोड़ का धन जाली रूप से दिखाया था। यह तो वह कह रहे हैं कि पर वास्तविकता क्या है? यह तो कोई वही व्यक्ति जान सकता है जो उसकी तह में जाकर जांच करे। वैसे हिंदी या भारतीय आकर्षक नाम देखकर हम बहुत प्रभावित होते हैं जब तक सब ठीक चलता है तब तक हम उसे गाते हैं और जब कोई गड़बड़झाला होता है तो विपरीत शब्द लगाने में नहीं चूकते। यहां यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि अनेक कंपनियों ने अनेक आकर्षक शब्दों से अपने नाम सजा रखे है पर जिस तरह की मंदी चल रही है वह उनके अर्थ के प्रभाव को कितना मंद कर देगी कोइ नहीं कह सकता है। एक बात तय रही कि तेजी एक तूफानी अमृत है जो कई लोगों को न बल्कि जीवन देती है बल्कि उसे चमक भी देती है यह मंदी एक धीमा जहर है जो धीरे धीरे पतन के गर्त में ले जाती है। तेजी में धनाढ्य होते लोग बड़े सज्जन लगते हैं पर मंदी में उनकी पोल खुल जाती है।
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यह बाजार के विज्ञापन का खेल-हास्य कविता


नववर्ष की पूर्व संध्या पर
फंदेबाज अग्रिम बधाई देने
घर आया और बोला
‘‘दीपक बापू, इधर कई बरसों से
सांताक्लाज का नाम बहुत सुनने में आया
हालत यह हो गयी सभी
हिंदी के सारे टीवी चैनल और
पत्र-पत्रिकाओं में यह नाम छाया
सुना है बच्चों को तोहफे देता है
हम बच्चे थे तो कभी वह नहीं आया
यह कहां का देवता है
जिसकी कृपा दृष्टि में यह देश अभी आया’

सुनकर पहले चौंके फिर
अपनी टोपी घुमाकर
कंप्यूटर पर उंगलियां नचाते हुए
बोले दीपक बापू
‘हम भी ज्यादा नहीं जानते
पहले अपने देवताओं के बारे में
पूरा जान लें, जिनको खुद मानते
मगर यह बाजार के विज्ञापन का खेल है
जो कहीं से लेता डालर
कहीं से खरीदता तेल है
इस देश के सौदागर जिससे माल कमाते हैं
उसके आगे सिर नवाते हैं
साथ में वहां के देवता की भी
जय जयकार गाते हैं
अपने देश के पुराने देवताओं की
कथायें सुना सुनाकर
ढोंगी संत अपना माल बनाते हैं
बाजार भी मौका नहीं चूकता पर
सभी दिन तो देश के देवताओं के
नाम पर नहीं लिखे जाते हैं
पर सौदागरों को चाहिऐ रोज नया देवता
इसलिये विदेश से उनका नाम ले आते हैं
अपने देश का उपभोक्ता और
विदेशी सेठ दोनों को करते खुश
एक तीर से दो शिकार कर जाते है
वैसे देवता भला कहां आते जाते
हृदय से याद करो देवता को
तो उनकी कृपा के फूल ऐसे ही बरस जाते
हम तो हैं संवेदनशील
जीते हैं अपने विश्वास के साथ
नहीं जानना कि कौन देवता कहां से आया
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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धार्मिक ज्ञान के साथ यौन शिक्षा-हास्य व्यंग्य


अगर विश्व में निर्मित सभी धार्मिक समाजों और समूहों का यही हाल रहा तो आगे चलकर कथित रूप से सभी धर्मों के कथित गुरु और ठेकेदार सामान्य लोगों को धार्मिक ग्रंथों की बजाय यौन शिक्षा देने लगेंगे। जैसे जैसे विश्व में लोग सभ्य और शिक्षित हो रहे हैं वह छोटे परिवारों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों में आधुनिक शिक्षा का बोलबाला है उनकी जनसंख्या कम हो रही है जिनमें नहीं है उनकी बढ़ रही है। हालांकि इसके पीछे स्थानीय सामाजिक कारण अधिक हैं पर धार्मिक गुरु जनसंख्या की नापतौल में अपने समाज को पिछड़ता देख लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने की सलाहें दे रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों की संख्या बढ़ रही है वह भी अपने लोगों को बच्चे का प्रजनन रोकना धर्म विरोधी बताकर रोकने का प्रयास कर रहे हैं। कायदे से सभी धर्म गुरुओं को केवल व्यक्ति में सर्वशक्तिमान की आराधना और समाज के लिये काम करने की प्रेरणा देने का काम करना चाहिये पर वह ऐसे बोलते हैं जैसे कि सामने मनुष्य नहीं बल्कि चार पाये वाला एक जीव बैठा हो।

उस दिन अखबार में पढ़ा विदेश में धर्म प्रचारक अपने समाज के युवा जोड़ों से सप्ताह में सात दिन ही यौन संपर्क करने का आग्रह कर डाला। उसके अनुसार यह सर्वशक्तिमान का उपहार है और इसका इस्तेमाल करते हुए उसे धन्यवाद देना चाहिये। हर होती है हर चीज की। इस तरह के आग्रह करना अपने आप में एक हास्याप्रद बात लगती है। शरीर के समस्त इंद्रियां आदमी क्या पशु तक को स्वतः ही संचालित करती हैं और उसमें कोई किसी को क्या सलाह और प्रेरणा देगा? मगर धर्मगुरुओं और ठेकेदारों की चिंता इस बात की है कि अगर उनके समाज की जनसंख्या कम हो गयी तो फिर उनके बाद आने वाली गुरु पीढ़ी का क्या होगा? वह उनको ही कोसेगी कि पुराने लोगों ने ध्यान नहीं दिया

अपने ही देश में एक कथित धार्मिक विद्वान ने सलाह दे डाली कि जो धनी और संपन्न लोग हैं वह अधिक बच्चे पैदा करें। एक तरह से उनका आशय यह है कि अमीर लोगों को ही अधिक ब्रच्चे पैदा करने का अधिकार है। जब अपने देश में हो उल्टा रहा है। जहां शिक्षा और संपन्नता है वहां लोग सीमित परिवार अपना रहे हैं-हालांकि उसमें भी कुछ अपवाद स्वरूप अधिक बच्चे पैदा करते हैं। जहां अशिक्षा, गरीबी और भुखमरी है वहां अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैं। कई बार जब गरीबी और भुखमरी वाली रिपोर्ट टीवी चैनलों में देखने और अखबार पढ़ने का अवसर मिलता है तो वहां उन परिवारों में एक दो बच्चे की तो बात ही नहीं होती। पूरे पांच छह कहीं आठ बच्चे मां के साथ खड़े दिखाई दे जाते हैं जो कुपोषण के कारण अनेक तरह की बीमारियों के ग्रसित रहते हैं। ऐसा दृश्य देखने वाले शहरों के अनेक संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की हाय निकल जाती है। वह कहतीं हैं कि कमाल है इनको बिना किसी आधुनिक चिकित्सा के यह बच्चे आसानी से हो जाते हैं यहां तो बिना आपरेशन के नहीं होते।’

तय बात है कि ऐसा कहने वाली उन महिलायें उन परिवारों की होती हैं जहां बर्तन से चैके तक का काम बाहर की महिलाओं के द्वारा पैसा लेकर किया जाता है।

हालांकि समस्या केवल यही नहीं है। लड़कियों के भ्रुण की हत्या के बारे में सभी जानते हैं। इसके कारण समाज में जो असंतुलन स्थापित हो रहा है। मगर इस पर धार्मिक गुरुओं और सामाजिक विद्वानों का सोच एकदम सतही है।

कम जनसंख्या होना या लडकियों का अनुपात में कम होना समस्यायें नहीं बल्कि उन सामाजिक बीमारियों का परिणाम है जिनको कथित धार्मिक ठेकेदार अनदेखा कर रहे हैं। हमारे देश में आदमी पढ़ा लिखा तो हो गया है पर ज्ञानी नहीं हुआ है। जिन लोगों ने अर्थशास्त्र पढा है उसमें भारत के पिछड़े होने का कारण यहांं की साामजिक कुरीतियां भी मानी जाती है। कहने को तो तमाम बातें की जा रही हैं पर समाज की वास्तविकताओं को अनदेखा किया जा रहा है। दहेज प्रथा का संकट कितना गहरा है यह समझने की नहीं अनुभव करने की आवश्यकता है।

लड़की वाले हो तो सिर झुकाओ। इसके लिये भी सब तैयार हैं। लड़के वाले जो कहें मानो और लोग मानते हैं। लड़की के माता पिता होने का स्वाभिमान कहां सीखा इस समाज ने क्योंकि उन्हीं माता पिता को पुत्र का माता पिता होने का कभी अहंकार भी तो दिखाना है!

यह एक कटु सत्य है कि अगर किसी को दो बच्चे हैं तो यह मत समझिये कि वहां परिवार नियोजन अपनाया गया होगा। अगर पहले लड़की है और उसके बाद लड़का हुआ है और दोनों की उमर में अंतराल अधिक है तो इसमें बहुत कुछ संभावना इस बात की भी अधिक लगती है कि वहां अल्ट्रा साउंड से परीक्षण कराया गया होगा। अनेक ऐसी महिलायें देखने को मिल सकती हैं जिन्होंने बच्चे दो ही पैदा किये पर उन्होंने अपने गर्भपात के द्वारा अपने शरीर से खिलवाड़ कितनी बार अपनी इच्छा से या दबाव में होने दिया यह कहना कठिन है।

एक धार्मिक विद्वान ने अपने समाज के लोगों को सलाह दी कि कम से कम चार बच्चे पैदा करो। दूसरे समाज के लोगों की बढ़ती जनसंख्या का मुकाबला करने के लिये उनको यही सुझाव बेहतर लगां।
अपने देश की शिक्षा पाश्चात्य ढंग पर ही आधारित है और जो अपने यहां शिक्षितों की हालत है वैसी ही शायद बाहर भी होगी। धार्मिक शोषण का शिकार अगर शिक्षित होता है तो यह समझना चाहिये कि उसकी शिक्षा में ही कहीं कमी है पर पूरे विश्व में हो यही रहा है। ऐसा लगता है कि पश्चिम में धार्मिक शिक्षा शायद इसलिये ही पाठ्यक्रम से ही अलग रखी ताकि धार्मिक गुरुओं का धंधा चलता रहे। हो सकता है कि धार्मिक गुरु भी ऐसा ही चाहते हों।

वैसे इसमें एक मजेदार बात जो किसी के समझ में नही आती। वह यह कि जनंसख्या बढ़ाने के यह समर्थक समाज में अधिक बच्चे पैदा करने की बात पर ही क्यों अड़े रहते हैं? कोई अन्य उपाय क्यों नहीं सुझाते ?
पश्चिम में एक विद्वान ने सलाह दे डाली थी कि अगर किसी समाज की जनंसख्या बढ़ानी है और समाज बचाना है तो समाज पर एक विवाह का बंधन हटा लो। उसने यह सलाह भी दी कि विवाहों का बंधन तो कानून में रहना ही नहीं चाहिये। चाहे जिसे जितनी शादी करना है। जब किसी को अपना जीवन साथी छोड़ना है छोड़ दे। उसने यह भी कहा कि अगर अव्यवस्था का खतरा लग रहा हो तो उपराधिकार कानून को बनाये रखो। जिसका बच्चा है उसका अपनी पैतृक संपत्ति पर अधिकार का कानून बनाये रखो। उसका मानना था कि संपन्न परिवारों की महिलायें अधिक बच्चे नहीं चाहतीं और अगर उनके पुरुष दूसरों से विवाह कर बच्चे पैदा करें तो ठीक रहेगा। संपन्न परिवार का पुरुष अपने अधिक बच्चों का पालन पोषण भी अच्छी तरह करेगा। कानून की वजह से उनको संपत्ति भी मिलेगी और इससे समाज में स्वाभाविक रूप से आर्थिक और सामाजिक संतुलन बना रहेगां।

उसके इस प्रस्ताव का जमकर विरोध हुआ। उसने यह सुझाव अपने समाज की कम होती जनसंख्या की समस्या से निपटने के परिप्रेक्ष्य में ही दिया था पर भारत में ऐसा कहना भी कठिन है। कम से कम कथित धार्मिक विद्वान तो ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि उनकी भक्ति की दुकान स्त्रियों की धार्मिक भावनाओं पर ही चल रही हैं। ऐसा नियम आने से समाज में अफरातफरी फैलेगी और फिर इन कथित धर्मगुरुओं के लिये ‘‘सौदे की शय’ के रूप में बना यह समाज कहां टिक पायेगा? सभी लोग ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जिन समाजों में अधिक विवाह की छूट है उसमें सभी ऐसा नहीं करते। यह बात निश्चित है पर जो अपने रिश्तों के व्यवहार के कारण चुपचाप मानसिक कष्ट झेलते हैं वह उससे मुक्त हो जायेंगे और फिर तनाव मुक्त भला कहां इन गुरुओं के पास जाता है? ऐसा करने से उनके यहां जाने वाले मानसिक रोगियों की संख्या कम हो जायेगी यह निश्चित है। अगर तनाव में फंसे लोग जब अपने जीवन साथी बदलते रहेंगे तो फिर उनको तनाव के लिये अध्यात्म शिक्षा की आवश्यकता ही कहां रह जायेगी?

बहरहाल अपनी जनसंख्या घटती देख विश्व के अनेक धर्म प्रचारक जिस तरह अब यौन संपर्क वगैरह पर बोलने लगे हैं उससे काम बनता नजर नहीं आ रहा हैं। अब तो ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनियां में धार्मिक प्रचारक यौन संपर्क का ज्ञान बांटेंगे। वह पुरुषों को बतायेंगे कि किसी स्त्री को कैसे आकर्षित किया जाता है। लंबे हो या नाटे, मोटे हो या पतले और काले हो या गोरे तरह अपने को यौन संपर्क के लिये तैयार करो। अपनी शिष्याओं से वह ऐसी ही शिक्षा महिलाओं को भी दिलवायेंगे।’
वह कंडोम आदि के इस्तमाल का यह कहकर विरोध करेंगे कि सब कुछ सर्वशक्तिमान पर छोड़ दो। जो करेगा वही करेगा तुम तो अपना अभियान जारी रखो। बच्चे पैदा करना ही सर्वशक्तिमान की सेवा करना है।

इससे भी काम न बना तो? फिर तो एक ही खतरा है कि धर्म प्रचारक और उनके चेले सरेआम अपने सैक्स स्कैण्डल करेंगे और कहेंगे कि सर्वशक्तिमान की आराधना का यही अब एक सर्वश्रेष्इ रूप है।

यह एक अंतिम सत्य है कि पांच तत्वों से बनी मनुष्य देह में तीन प्रकृतियां-अहंकार,बुद्धि और मन- ऐसी हैं जो उससे संचालित करती हैं और सभी धर्म ग्रंथ शायद उस पर नियंत्रण करने के लिये बने हैं पर उनको पढ़ने वाले चंद लोग अपने समाजों और समूहों पर अपना वर्चस्प बनाये रखने के लिये उनमें से उपदेश देते है।ं यह अलग बात है कि उनका मतलब वह भी नहीं जानते। पहले संचार माध्यम सीमित थे उनकी खूब चल गयी पर अब वह तीव्रतर हो गये हैं और सभी धर्म गुरुओं को यह पता है कि आदमी आजकल अधिक शिक्षित है और उस पर नियंत्रण करने के लिये अनेक नये भ्रम पैदा करेंगे तभी काम चलेगा। मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है और इसलिये समाज या समूह के विखंडन का भय उसे सबसे अधिक परेशान करता है और कथित धार्मिक गुरु और ठेकेदार उसका ही लाभ उठाते हैं। यह अलग बात है कि जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र े आधार पर समाजों और समूहों का बनना बिगड़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस पर किसी का बस नहीं। जिस सर्वशक्तिमान ने इसे बनाया है उसके लिये सभी बराबर हैं। कोई समाज बिगड़े या बने उसमें उसका हस्तक्षेप शाायद ही कभी होता हो। मनुष्य सहज रहे तो उसके लिये पूरी दुनियां ही मजेदार है पर समाज और समूहों के ठेकेदार ऐसा होने नहीं देते क्योंकि भय से आदमी को असहज बनाकर ही वह अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
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आदमी को गुलाम बनाने के लिए-हिन्दी शायरी


रखें हैं उन्होंने जमाने भर का हिसाब
पर अपने पापों का बहता घडा
सब की नज़र से छिपाने के लिए
लोगों के दिल में खौफ करते हैं पैदा
ताकि वह उनका लोहा मानते रहे
दूसरे के जुल्म का भय का शैतान
एक बुत बनाकर रख देते हैं
जिससे डरे लोग
उनकी दगाओं को प्यार समझते रहें

लोगों के जज़्बातों के सहारे चलते हैं
जिनके व्यापार
उनके दिल में कोई जज़्बा नहीं होता
दौलत और शौहरत कमाने वालों के
लिए इन्सान एक शय भर होता
मर जाए या जिन्दा बचे
उनके लिए बीच बाज़ार बिकता रहे
छोटा हो या बड़ा हो इंसान
आँखें हों पर देखे नहीं
कान है पर सुने नहीं
जुबान हैं पर एक शब्द भी बोले नहीं
हाड़मांस का बुत बनकर चलता रहे
इन सौदागरों के ख़ुद के ईमान का पता नहीं
दूसरे का खरीद लेते हैं
जो न बेचे जान उसकी छीन लेते हैं
उन सौदागरों के पेट हैं मोटे
जुबान पर है वफ़ा का नाम
पर नीयत के हैं खोटे
हर आदमी को गुलाम बनाने के लिए
हर तरह के हथियार जमा कर लेते हैं
ज़माने की भलाई का तो नाम है बस
अपने जुर्म को अपनी जुबान से वह इन्साफ कहें
भले लोग उन्हें बताते जो
उनके जुर्म बड़े प्यार से सहें

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जहां बेचने वाला खरीददार की फिक्र करता नहीं-हिंदी शायरी


किसी इमारत में लगी आग
कहीं रास्ते में बिखरा खून
किर्सी जगह हथियारों की आवाज से गूंजता आकाश
दिल और दिमाग को डरा देता है
पर कहीं अमन है
खिलता है फूलों से ऐसे भी चमन हैं
गीत और संगीत का मधुर स्वर
कानों के रास्ते अंदर जाकर
दिल को बाग बाग कर देता है
दुनियां में दृश्य तो आते जातें
देखने वाले पर निर्भर है
वह अपनी आंखों की नजरें
कहां टिका देता है
कहां से फेर लेता है

………………………………………..
नायक बेचने के लिये
उनको खलनायक भी चाहिए
अपने सुर अच्छे साबित करने के लिये
उनको बेसुरे लोग भी चाहिए
यह बाजार है
जहां बेचने वाला
खरीददार की फिक्र करता नहीं
उसकी जेब का कद्रदान होता है
सौदा बेचने के लिये
बेकद्री भी होना चाहिए
ओ बाजार में अपने लिये
चैन ढूंढने वालों
जेब में पैसा हो तो
खर्च करने के लिये अक्ल भी चाहिए
………………………….
बाजार में भीड़
पर भीड़ में अक्ल नहीं होती
बिकती अक्ल बाजार में
तो भला भीड़ कहां से होती
इसलिये सौदागर चाहे जो चीज
बाजार में बेच जाते हैं
जो ठगे गये खरीददार
शर्म के मारे कहां शिकायत लेकर आते हैं
भीड़ में अपनी कमअक्ल की
पहचान हो जाने की चिंता सभी में होती

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दीपावली(दीवाली) पर जलाओ ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक-संपादकीय


सामने दिये जलता हुआ हो और आंखों से न दिखे तो फिर उसकी रोशनी किस काम की? प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर लोग अपने घरों में दीपक जलाते हैं।  अब तो रौशनी करने के अनेक नये सामान आ गये हैं पर फिर भी लोग तेल के दीपक जलाते हैं।  अगर वह दीपक न भी जलायें तो भी अन्य सामानों से बहुत रौशनी होती है-इतनी के तेल का दीपक जलाने पर उससे हुई रौशनी में वृद्धि की अनुभूति ही नहीं होती। इसके बावजूद लोग परंपरा के निर्वाह के लिये जलाते हैं।  नयेपन और पुरानेपन के बीच फंसा समाज अपने आपको भंवर में फंसा तो पाता है पर उससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूंढता। बाहर रौशनी के फैले बड़े बल्ब हैं और उसकी चकाचैंध ने आदमी के अंदर के ज्ञान के दीपक को प्रज्जवलित होने से रोक लिया है। जिसे देखो वह अपने जीवन को पद, वैभव और शक्ति की ऊर्जा से चमकते हुए देखना चाहता है। 
जब केवल प्राक्रृतिक मिट्टी से बना तेल का दीपक रौशनी करता था तो लोगों की लालसायें और आकांक्षायें इतनी अधिक नहीं थी।  जैसे रौशनी के लिये कृत्रिम सामान बनते गये वैसे वह उसकी आकांक्षायें और लालसायें बढाती गयीं।

बस आदमी को रौशनी चाहिये। पद,पैसा और प्रतिष्ठा में ही अपने जीवन की रौशनी ढूंढने वाला आदमी उनको पाकर भी संतुष्ट नहीं रह पाता।  उसके मन में अंधेरा ही रहता है क्योंकि वह ज्ञान के दीपक नहीं जलाता।  पहले यह चाहिये! वह मिल गया तो वह चाहिये। बस चाहिये। किसी को कुछ देना नहीं है।  आदमी का सोच बस एक ही है कि ‘मुझे को खुश करे’ पर वह स्वयं किसी को खुश न तो करता और न देख पाता है।  ज्ञान प्राप्त करने वालों ने तेल से जलते हुए दीपक में  अपना काम चलाया और जिनको केवल माया प्राप्त करनी  है उनका मन तेज रौशनी की ट्यूबलाईट में भी बुझा रहता है।  जितना धन उतनी उसकी रक्षा की चिंता, जितना बड़ा पद वहां से नीचे गिरने का भय और जितनी अधिक प्रतिष्ठा उतनी अधिक बदनामी की आशंका आदमी को अंधेरे में डाल देती है।  वह घबड़ाता हुआ रौशनी की तरफ भागता है।  कभी टीवी देखता है कभी शराब पीता है तो कभी अन्य व्यसनों के सहारे अपने लिये खुशी जुटाना चाहता है। वह बढ़ता जाता है अंधेरे की तरफ।
पश्चिम की मायावी संस्कृति में अपनी सत्य संस्कृति मिलाकर जीवन बिताने वाले इस देश के लोगों के लिये दीपावली अब केवल रौशनी करने और मिठाई खाने तक ही सीमित रह गयी है।  अंधेरे में डूबा आदमी रौशनी कर रहा है-वह आंखों से दिखती है पर उसका अहसास नहीं कर पाता।  पर्यावरण प्रदूषण,मिलावटी सामान और चिंताओं से जर्जर होते जा रहे शरीर वाला  आदमी अपनी आंखों से रौशनी लेकर अंदर कहां ले जा पाता है।  अपने हाथों से आदमी ने काटा है अपने स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का सामान।
मनुष्य के अपने मन के भटकाव को नहीं समझ पाता।  वह उस आध्यात्म ज्ञान से घबड़ाता है जिसकी वजह से पश्चिम आज भी भारत को अध्यात्मक गुरु मानता है।  इतनी संपन्नता के बाद भी वह अपने मन से नहीं भागता तो इस देश में व्यवसायी साधु,संतों,फकीरों और सिद्धों के दरवाजे पर भीड़ नहीं लगती।  स्वयं ज्ञान से रहित लोग उनके गुरू बनकर उनका दोहन नहीं करते।  अपने पुराने ग्रंथों में लिखी हर बात को पौंगापंथी कहने वाले लोग नहीं जानते कि इस प्रकृति के अपने नियम हैं।  वह यहां हर जीव को पालती है।  हर जीव अपने जीवन में विकास कर फिर दुनियां से विदा हो जाता है। 

यहां के आदमी को  सुना दिये गये हैं कुछ ऐसे श्लोक और दोहे जो अपने समय में प्रासंगिक थे पर अब नहीं। यह योजनापूर्वक किया गया ताकि वह आज भी प्रासंगिक ज्ञान से वंचित रहे।  उसके सामने रख दी गयी हैं विदेशों से आयातित कुछ पंक्तियां जिन पर लिखी जा रही है आधुनिकता और विकास की नयी कहानियां।  जीवन के सत्य नहीं बदलते पर उन्हें समझता कौन है? पूरा का पूरा समाज अव्यवस्था की चपेट में हैं। कहते हैं कि यह समाज पहले बंटा हुआ था इसलिये गुलाम रहा पर आज तो उसे और अधिक बांट दिया गया है। परिवारों में महिला,पुरुष,बालक और वृद्ध के विभाजन करते हुए उनकी रक्षा के लिये नियम बनाये गये।  समाज को नियंत्रित करने के लिये राज्य से अपेक्षा की जा रही है-मान लिया गया है कि इस देश में अब  भले लोग नहीं हैंं। इतना बड़ा विश्वास लोग स्वीकार कर रहे हैं।  डंडे के जोर पर आदमी को अपने परिवार से निर्वाह करने के प्रयास दर्शाते हैं कि देश के आदमी पर भरोसा नहीं रहा। 

विज्ञान में प्रगति आवश्यक है यह बात तो हमारा अध्यात्म मानता है पर जीवन ज्ञान के बिना मनुष्य प्रसन्न नहीं रह सकता यह बात भी कही गयी है।  जीवन का ज्ञान न तो  बड़ा है न गुढ़ जैसा कि इस देश के कथित महापुरुष और विद्वान कहते हैं।  वह सरल और संक्षिप्त है पर बात है उसे धारण करने की।  अगर उनको धारण कर लो तो ज्ञान का ऐसा अक्षुण्ण और दिव्य दीपक प्रकाशित हो उठेगा जिसका प्रकाश न केवल इस देह के धारण करते हुए बल्कि उससे विदा होती आत्मा के साथ भी जायेगा।  इस दिव्य दीपक की रौशनी से प्रतिदिन दीपावली की अनुभूति होगी फिर देख सकते हो कि किस तरह वर्ष में केवल एक दिन लोग दीपावली मनाते हुए भी उसकी अनुभूति नहीं कर पाते।  फिर जाकर देखो वहां जहां सफेद और गेहुंऐ वस्त्र पहने उन ज्ञान के व्यापरियों को जो स्वयं अंधेरे में हैं और लोग उनसे रौशनी खरीद रहे हैं।  देखो उनके सत्संग के उपक्रम को जो ऐसे स्वर्ग को दिलवाता है जो कहीं बना ही नहीं।

देखो जाकर सन्यासियों को्! इस धरा पर सन्यास लेना संभव है ही नहीं। हां, भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में इसको एक तरह से खारिज कर दिया है क्योंकि यह संभव नहीं है कि इस धरती पर रहते हुए आदमी अपनी इंद्रियों से काम न ले।  सन्यास का अर्थ है कि आदमी अपनी सभी इंद्रियों को शिथिल कर केवल भगवान के नाम का स्मरण कर जीवन गुजार दे। मगर आजकल के सन्यासी कहते हैं कि आजकल यह संभव नहीं हैं कि केवल भगवान का स्मरण करने के लिये पूरा जीवन कंदराओं में गुजार दे क्योंकि समाज को मार्ग दिखाने का भी तो उनका जिम्मा है।  वह झूठ बोलते हैं कंदराओं में केवल बुढ़ापे में जाया जाता है और उसे सन्यास नहीं बल्कि वानप्रस्थ कहा जाता है क्योंकि उसमें वन में आदमी अपनी इंद्रियों से कार्य करता है। 
ज्ञान और ध्यान बेचने वाले व्यापारी  ढोंग करते हैं। उनसे दीक्षा लेने से अच्छा है तो बिना गुरु के रहा जाये या फिर एकलव्य बनकर किसी गुरू की तस्वीर रखकर ज्ञान का अभ्यास किया जाये।  गलत गुरु की दीक्षा अधिक संकटदायक होती है।  यह गुरु मोह और मायाजाल के भंवर में ऐसा फंसे कि वहां से स्वयं नहीं निकल सकते तो किसी अन्य को क्या निकालेंगे। वहां जाकर देखो कि किस तरह शारीरिक और मानसिक विकारों से ग्रस्त लोग किस तरह वहां अपने लिये औषधि ढूंढ रहे हैं।

निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ही वह शक्ति जो आदमी के अंदर प्रज्जवलित ज्ञान के दिव्य दीपक की रौशनी के रूप में बाहर फैलती दिखाई देती है। ज्ञान खरीदा नहीं जा सकता जबकि गुरु उसे बेच रहे हैं। कहते हैं कि हम कुछ देर के लिये आदमी के लिये आदमी का संताप कम कर देते हैं पर देखा जाये तो अगर थोड़ी देर के लिये ध्यान बंट जाये तो कुछ स्फूर्ति अनुभव होती है पर अगर यह ध्यान किसी प्रस्तर की प्रतिमा के सामने बैठकर स्वयं प्रतिदिन लगाया जाये तो वह पूरा दिन ऊर्जा देती है। जब भी कहीं मानसिक संताप हो तो भृकुटि पर दृष्टि कर बंद आखों से ध्यान किया जाये तो एकदम राहत अनुभव होती है।  इसके लिये ज्ञान और ध्यान बेचने वालों के पास जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वहां आप प्रतिदिन नहीं जा सकते। अगर गये तो वह अपनी फीस मांगेंगे या फिर उनके खास चेले आपत्ति करेंगे।

यह लेखक कोई सिद्ध नहीं है पर अपने अनुभव सुनाते हुए अच्छा लगता हैं।  दीपावली पर ढेर सारे बधाई संदेश मिले।  उनका यह जवाब है।  यह लेखक देखना चाहता है ज्ञानी के दिव्य दीपक की रौशनी से ओतप्रोत लोगों का एक समूह जिससे पूरा समाज प्रकाशित हो।  दिखावा कर तो एक दिन भी प्रसन्नता नहीं मिल सकती। अपने अंदर जला लो ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक तो जीवन पर दीपावली की अनुभूति होगी।  किसी एक दिन किसी की शुभकामनाओं की प्रतीक्षा नहीं रहेगी। बल्कि बाकी दिनों में मिलने वाला हर शुभकामना संदेश वैसा ही लगेगा जिससे दिल प्रसन्न हो उठेगा। अपने अंतर्मन में ज्ञान और ध्यान के जलते दीपक की रौशनी में देख सकते हो और खुलकर हंस भी सकते हो और सुख की अनुभूति ऐसी होगी जो अंदर तक स्फूर्ति प्रदान करेगी।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप</strong></blockquote>
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इससे तो उनकी यादें ही बेहतर थीं-हिंदी शायरी


उनके साथ गुजरे दिनों की
याद पल पल सताती रही
ख्वाबों में कई बार चेहरा
आता और जाता रहा
जब वह सामने आये तो
हम भूल गये उनकी यादों को
सच में उनको सामने देखकर
यूं लगा कि
उनके दिल में
हमारे लिये जज्बात ऐसे नहीं
जैसे सोचते थे
ऐसा लगने लगा कि
इससे तो उनकी यादें ही बेहतर थीं
ख्वाब से कहीं सच्चाई कड़वी रही

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दिल से हमने कहा-हिंदी शायरी


दिल दिवस पर पूछा हमने
अपने दिल से
‘बता आज तू क्या खायेगा
आज तेरा दिन है
बाकी तो फिर तू अपनी ड्यूटी बजायेगा’

खून की पंपिंग में जुटे दिल ने
अपने हाथ में पकड़े लेजम को
देखते हुए कहा-
‘पहले अपने दिमाग की
रक्तवाहिनी शिराओं को साफ कर ले
जहां जमाने भर का कचड़ा जमा है
आज अखबार पढ़कर याद मेरी आयी है
कल भूल जायेगी
तेरी अक्ल दिमाग में
जमे कूड़े में फंस जायेगी
ऊपर से लेकर नीचे तक
मन तेरा है लालची
बुद्धि है खोटी और
अहंकार आसमान में उड़ रहा है
यह जिंदगी तेरी समझ में नहीं आयेगी
एक मजदूर की तरह
तेरी रक्तवाहिनयों में भेजता हूं अमृत
पर कचड़ा उनको विष बना देता है
भोगने से भला तुझे कौन रोकता है
पर योग में भी कौन टोकता है
सुबह उठकर प्राणायाम से
ताजी हवा देते रहना
तभी होता है दिन भर दर्द आसानी से सहना
तेरी नहीं मेरी भी यह दूसरी पारी है
बिखेरता रहा निष्काम भाव से शब्द
यही अब इच्छा अब हमारी
चलता जा पूरी जिंदगी
फिक्र न कर आगे कौनसा समय आयेगा
अपनी पूरी कर फिर कोई और यह ड्यूटी निभायेगा
दुनियां में तो लोग एक दिन मनाते हैं
पर तू योग और प्राणायम से
जब तक जिंदा है तू
दिल दिवस मनायेगा
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

ब्लाग लिखने में शेयर बाजार जैसा ही मजा-व्यंग्य आलेख


ब्लाग/पत्रिका लिखने का मजा तभी है जब उसके साथ पाठकों के आने की सूचना देने वाला काउंटर हो। अगर बहुत सारे ब्लाग हों तो लिखने वाला कुछ अधिक ही मजा ले सकता है। कम से कम मुझे तो इसमें शेयर बाजार जैसा आनंद आता है। हालांकि अधिक ब्लाग संभालना भी कठिन है पर बन जायें तो क्या किया जाये?

ब्लाग स्पाट पर लिखने वाले अगर अपने ब्लाग पर काउंटर सैट कर लें तो प्रतिदिन अपने ब्लाग की आवाजाही का अवलोकन कर सकते हैं। वर्डप्रेस के ब्लाग पर तो वैसे भी सैट किया हुआ ब्लोग स्टेटस मिल जाता है। इनमें उतर-चढ़ाव वैसे ही आते है जैसे शेयर बाजार में आते हैं। हां, पर शेयर बाजार में मूल्यों के उतार चढ़ाव का आंकलन किया जा सकता है कि उनका मूल्य क्यों बढ़ा और कैसे कम हुआ? यहां ऐसा कोई पैमाना नहीं है पर ऐसा लगता है कि कभी कभी क्रिकेट मैच या कोई अन्य सनसनीखेज खबर टीवी पर होने का प्रभाव यहंा भी पढ़ता है। उस समय लोगों का ध्यान उस तरफ चला जाता है और पाठक संख्या एकदम कम हो जाती है। एक बात दिलचस्प है कि शनिवार और रविवार को पाठक संख्या एकदम कम हो जाती है इससे पता लगता है कि लोग काम की जगहों पर ही इसे अधिक देखते हैं। हो सकता है कि उनके पास घर पर इंटरनेट हो पर उनके लिये उसे देखने का समय केवल अपने कार्यस्थल पर ही मिल जाता है। शायद यही कारण है कि अवकाश के दिनों में संख्या एकदम आधी रह जाती है।

कभी कोई ब्लाग/पत्रिका पर अचानक ही पाठक संख्या अधिक दिखाती है और अगले दिन उसकी हालत शोचनीय हो जाती है। ऐसे में जब पाठक का लिंक का मिलता है तो पता लगता है कि किसने कहां क्यों और कब खोला और क्या पढ़ा। कभी कभी लिंक नहीं मिलता तब थोड़ा अजीब लगता है। इस तरह उनके अध्ययने से अपनी अनेक प्रकार की जिज्ञासा भी शांत होती है।

पाठक सूचकांक का अध्ययन करना कभी दिलचस्प रहता है। इस विषय पर मैं अनेक बार लिखता हूं। निष्कर्ष निकालना कठिन है पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि आम पाठक की पसंद साहित्य में बहुत है पर उसे अभी उसे टिप्पणी के बारे में अधिक नहीं मालुम। अखबारों में ब्लाग का प्रचार खूब हुआ है पर टिप्पणियों का नहीं। ऐसे में उसका खामोश समर्थन कभी कभार हास्य कविता, व्यंग्य,कहानी और चिंतन लिखने की प्रेरणा ही दे पाता है। उसमें निरंतरता तभी संभव है जब पाठक न केवल स्वयं टिप्पणी दे बल्कि अपने पंसदीदा ब्लाग की चर्चा अपने मित्रों में कर अन्य पाठक भी जुटाये। सच तो यह है कि आम ब्लाग लेखक को आम पाठक का सीधा समर्थन ही प्रेरित कर सकता है। आम ब्लाग लेखक को आम पाठक का समर्थन ही हिंदी को तेजी से अंतर्जाल पर बढ़ायेगा।

यहां यह भी स्पष्ट है कि साहित्य लिखने वाले तकनीकी के मामले में पैदल होते हैं फिर उनको लिखने के अलावा कुछ नहीं सूझता। ऐसे में डोमेन लेकर वह शायद ही लिखें और जो डोमेन लेकर वेबसाइट बनायेंगे वह शायद ही अधिक लिखना चाहें। ऐसे में ब्लाग लेखक ही हिंदी के ध्वज वाहक होंगे। वैसे अभी तक कमाऊ विज्ञापन डोमेन वालों के पास ही हैं क्योंकि उनका उद्देश्य कुछ और ही लगता है, पर लिखने वाले अपनी दम तो ब्लाग पर ही दिखायेंगे। मगर यहां मामला अभी लोग समझ नहीं रहे। उनको लगता है कि ब्लाग लेखक तो केवल एक मजदूर की तरह है। यह उनका वहम है। जब आम पाठक और आम ब्लाग लेखक सीधे संपर्क में आयेंगे तभी उनका भ्रम टूटेगा। अभी डोमेन वाले ही कमा रहे हैं या फिर वह ब्लाग लेखक जिनसे लिखवाया जा रहा है। शौकिया ब्लाग लेखकों के लिये आय का अर्जन अभी दूर की कौड़ी है।
मैं अपने ब्लाग/पत्रिकाओं के पाठकों के उतार-चढ़ाव का सूचकांक प्रतिदिन देखता हूं। उसमें छिपे संदेशों को पढ़ता हूं। अनेक टिप्पणियां मुझे इशारों में बहुत कुछ कह जाती हैं। पाठकों के सूचकांक में गिरावट से कभी दुखी और उठने से खुश नहीं होता क्योंकि मुझे पता है कि रास्ता अभी लंबा है। पाठकों तब पहुंचने के मार्ग और उनकी पसंद का अनुमान करते हुए ही मैंने इतने ब्लाग@पत्रिका बनाये हैं। अनुमान करें तो पौने दो लाख से अधिक पाठक मेरे ब्लाग@पत्रिकाओं पर आ चुके हैं। सबसे अधिक पाठक संख्या वर्डप्रेस पर है पर ब्लाग स्पाट पर भी अब धीरे धीरे बढ़ रहे हैं। बहरहाल अब तो पाठक सूचकांक देखकर भी मजे लेता हूं और यह जानने का प्रयास करता हूं कि उनकी दिलचस्पी किन विषयों पर है। वैसे कभी मुझे अपने ब्लाग से आय होगी यह आशा मैं तो नहीं करता पर हां एक समय ऐसा अवश्य आयेगा कि जब लिखने वालों की यह इज्जत बढ़ेगी और उन्हें अच्छी आय होगी यह आशा करता हूं भले ही उनमें मेरा नाम न शामिल हो। दूसरी बात यह है कि जो अपनी स्वतंत्रता के साथ लिखना चाहते हैं उनको बहुत धीरज रखना होगा। एक बार अगर गुलामों की तरह लिखना प्रारंभ किया तो फिर स्वतंत्रता पूर्वक लिखना कठिन है। इसलिये अपने स्वतंत्र रूप से लिखने की आदत बनाये रखना आवश्यक है भले ही प्रारंभ में पाठक संख्या अधिक न हो।
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संत कबीर वाणी दूसरे से उम्मीद करने पर होता है अपमान


आस आस घर घर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै,ज्यों चैसर की गोट

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि अपने हृदय मं आशा कर मनुष्य घर घर भटकता है पर पर उसे दूसरे के मुख से अपने लिये अपमान के वचन सुनने पड़ते हैं। केवल आशा पूरी होने के लिये अपनी अज्ञानता के कारण मनुष्य चैसर के गोट की तरह कष्ट उठाता है।
आशा तृस्ना सिंधु गति, तहां न मन ठहराय
जो कोइ आसा में फंसा, लहर तमाचा खाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आशा और तृष्णा और समुद्र की लहरों के समान है हो उठती और गिरती हैं जो मनुष्य इसके चक्कर में फंसता है वह इसके तमाचा खाता रहता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अपना हर कार्य अपने ऊपर ही रखना चाहिए। इस सांसरिक जीवन में सारे कार्य अपने नियत समय पर होते हैं और मनुष्य को केवल निष्काम भाव से कार्य करते हुए ही सुख की प्राप्त हो सकती हैं। श्रीगीता में निष्काम भाव से कार्य करने का उपदेश इसलिये दिया गया है। यह संसार अपनी गति से चल रहा है और उसमें सब कर्मों का फल समय पर प्रकट होता। मनुष्य सोचता है कि मैं इसे चला रहा हूं इसलिये वह अपने ऐसे कार्यों के लिये दूसरों से आशा करता है जो स्वतः होने हैं और अगर मनुष्य उसके लिये अपने कर्म करते हुए परिणाम की परवाह न करे तो भी फलीभूत होंगे। जब अपने आशा पूर्ति के लिये आदमी किसी दूसरे घर की तरफ ताकता है तो उसे उसे अपना आत्मसम्मान भी गिरवी रखना पड़ता है। वैसे अपना कर्म करते जाना चाहिये क्योंकि फल तो प्रकट होगा ही आखिर वह भी इस संसार का एक ही भाग है। आशा और कामना का त्याग कर इसलिये ही निष्काम भाव से कार्य करने का संदेश दिया गया है।

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भृतहरि शतकः बड़े लोगों से क्यों आशा करते हो ?


किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रघ्वस्ता तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।
वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रस्भमपगतप्रश्रयाणां खलानां
दुःखाप्तसवल्पवित्तस्मय पवनवशान्नर्तितभ्रुलतानि ।।

हिंदी में भावार्थ- वन और पर्वतों पर क्या फल और अन्य खाद्य सामग्री नष्ट हो गयी है या पहाड़ों से निकलने वाले पानी के झरने बहना बंद हो गये हैं? क्या वृक्षों से रस वाले फलों की शाखायें नहीं रहीं हैं। उनसे तो तन ढंकने के लिये वल्कल वस्त्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसा क्या कारण है कि गरीब लोग उन अहंकारी और दुष्ट लोगों की और मुख ताकते हैं जिन्होंनें थोड़ा धन अर्जित कर लिया हैं।

वर्तमान संदर्भ में संक्षिप्त संपादकीय व्याख्या-यह तो प्रकृति का ही कुछ रहस्य है कि माया सभी के पास समान नहीं रहती। जन्म तो सभी एक तरह से लेते हैं पर माया के आधार पर ही गरीब और अमीर का श्रेणी तय होती है। वैसे प्रकृति ने इतना सभी कुछ बनाया है कि आदमी अगर आग न भी जलाये तो भी उसक पेट भरने का काम चल जाये। तमाम तरह के रसीले फल पेड़ पर लगते हैं पहाड़ों से निकलने वाले झरने पानी देते हैं पर मनुष्य का मन भटकता है केवल उन भौतिक पदार्थों में जो न खाने के काम आते हैं न पीने के। सोना चांदी रुपया और तमाम तरह के अन्य पदार्थ वह संग्रह करता है जो केवल मन के तात्कालिक संतोष के लिये होते हैं। जिनके पास थोड़ा धन आ जाता है गरीब आदमी उसकी तरफ ही ताकता है कि काश इतना धन मुझे भी प्राप्त होता। या वह इस प्रयास में रहता है कि उस धनी से उसका संपर्क बना जाये ताकि समाज में उसका सम्मान बने भले ही उससे कोई आर्थिक लाभ न हो-जरूरत पड़ने पर सहायता की भी आशा वह करता है।
ऐसे विचार हमारे अज्ञान का परिचायक होते हैं। हमें इस प्रकृति की तरफ देखना चाहिये जिसने इतना सब बनाया है कि कोई आदमी दूसरे की सहायता न करे तो भी उसका काम चल जाये। ऐसे में धनिक लोगों की तरफ मूंह ताक कर अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये।
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क्या आतंकी हिंसा अपराध शास्त्र से बाहर का विषय है-संपादकीय


एक शवयात्रा में दो आदमी पीछे जा रहे थे
एक ने कहा-‘बेकार आदमी था। किसी के काम का नहीं था’
दूसरे ने कहा-‘नहीं कैसी बात करते हो। वह दरियादिल आदमी थी। मेरे तो दस काम किये। कभी काम के लिये मना नहीं किया।
दूसरे ने कहा-‘मेरे भी उसने दस काम किये पर एक काम के लिये मना लिया। इसलिये ही तो कहता हूं कि वह ठीक आदमी नहीं था। अगर होता तो एक काम के लिये मना क्यों करता?’

उनके पीछे एक आदमी चल रहा था। उसने पूछा‘-आप यहा तो बताओ। उसका देहावसान कैसे हुआ। क्या बीमार थे? क्या बीमारी थी?’
दोनों ने कहा‘-हमें इससे क्या मतलब हमें तो शवयात्रा में दिखावे के लिये शामिल हुए हैं।’
वह तीसरा आदमी चुपचाप उनके पीछे चलता रहा।’
उसने देखा कि दोनों के साथ उनके समर्थक भी जुड़ते जा रहे थे। कोई मृतक की बुराई करता कोई प्रशंसा। तीसरा आदमी सबसे मृत्यु की वजह पूछता पर कोई नहीं बताता। एक ने तो कह दिया कि अगर हमारी चर्चा में शामिल नहीं होना तो आगे जाकर मुर्दे को कंधा दे। देख नहीं रहा हमारे उस्ताद लोग बहस में उलझे हैं।’
यह कहानी एक तरह देश में चल रही अनेक बहसों के परिणामों का प्रतीक है। देश में बढ़ती कथित आंतकी हिंसा घटनाओं के बाद प्रचार माध्यमों में अनेक तरह की सामग्री देखने को मिलती है। बस वही रुटीन है। ऐसी घटनाओं के बाद सभी प्रचार माध्यम रटी रटाई बातों पर चल पड़ते हैं। अखबारों में तमाम तरह के लेख प्रकाशित होते हैं। इन घटनाओं के पीछे ऐसी कौनसी बात है जो किसी की समझ में नहीं आ रही और इनकी संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।
अभी दिल्ली में हुए हादसे के बाद अगर प्रचार माध्यमों-जिनमें अंतर्जाल पर ब्लाग भी शामिल हैं-में आये आलेखों को देखा जाये तो एक बात साफ हो जाती है कि लोगों की सोच वहीं तक ही सीमित है जहां तक वह देख पाते हैं या जो उनको बताया जाता है। न तो उनमें मौलिक चिंतन करने की क्षमता है और न ही कल्पना शक्ति।

वैसे तो तमाम तरह की खोजबीन का दावा अनेक लोग करते हैं पर इन आतंकी हिंसक घटनाओं के पीछे का राजफाश कोई नहीं कर पाता। नारों और वाद पर चलते बुद्धिजीवी भी गोल गोल घूमते हुए रटी रटाई बातें लिखते हैं। लार्ड मैकाले ने ऐसी शिक्षा पद्धति का निर्माण किया कि जिसमें भारतीय पढ़ खूब लेते हैं पर फिर भूल जाते हैं।
आतंकी हिंसा अपराध है और अपराध शास्त्र के अनुसार तीन कारणों से लोग गलत काम करते हैं-जड़ (धन), जोरु (स्त्री) और जमीन। वैसे तो अपराध शास्त्र के विद्वान बहुत होंगे पर हर आम आदमी को उसका मूल सिद्धांत पता है कि इन तीन कारणों से ही अपराध होते हैं।’

अब सवाल यह है कि आतंकी हिंसा क्या अपराध शास्त्र से बाहर हैं और लोग मानकर चले रहे हैं कि यह अपराध से अलग कोई घटना है। देखा जाये तो आतंकी हिंसा के विरुद्ध सब हैं पर बहसें हो रही हैं धर्म,भाषा और जाति के लेकर। इतिहास सुनाया जा रहा है और वाद और नारे लग रहे हैं। देश के बुद्धिजीवियों पर तरस आता है। आतंकी हिंसा में सबसे अधिक कष्ट उन लोगों का होता है जिनका नजदीकी मारा जाता है। उनसे हमदर्दी दिखाने की बजाय लोग ऐसी बहसें करते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं है। और तो छोडि़ये लोगों ने इस आतंकी हिंसा को भी सभ्य शब्द दे दिया‘आतंकवाद’। फिर वह किसी दूसरे वाद को लेकर फिकरे कस रहे हैं?

ऐसी चर्चायें दो चार दिन चलतीं हैं फिर बंद हो जातीं हैं। जिनके परिवार का सदस्य मारा गया उनकी पीड़ा की तो बाद में कोई खबर नहीं लेता। इसी बीच कोई अन्य घटना हो जाती है और फिर शुरू हो जाती है बहस। कोई इस बात में दिलचस्पी नहीं लेता कि आख्रि इस हिंसा में किसका फायदा है? यकीनन यह फायदा आर्थिक ही है। सच तो यह है कि यह एक तरह का व्यवसाय बन गया लगता है। अगर नहीं तो इस सवाल का जवाब क्या है कि कोई इन घटनाओं के लिये कैसे पैसे उपलब्ध कराता है। जो लोग इन कामों में लिप्त हैं वह कोई अमीर नहीं होते बल्कि चंद रुपयों के लिये वह यह सब करते हैं। तय बात है कि यह धन ऐसे लोग देते हैं जिनको इस हिंसा से प्रत्यक्ष रूप से लाभ होता है। यह फायदा उनको ऐसे व्यवसायों से होता है जो समाज के लिये बुरे माने जाते हैं और उसे निरंतर बनाये रखने के लिये समाज और प्रशासन का ध्यान बंटाये रखना उनके लिये जरूरी है और यह आतंकी हिंसा उनके लिये मददगार हो।
कुछ जानकार लोगों ने दबी जबान से ही सही यह बात लिखी थी कि जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था तब वहां से भारत और पाकिस्तान के बीच दो नंबर का व्यापार दोगुना बढ़ गया। कभी इस पर अधिक बहस नहीं हुई। कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों और सरकारों का ध्यान बंटाने के लिये इस तरह की घटनायें करवायीं जाती हों।
जहां तक किसी समूह विशेष से जोड़ने का सवाल है तो ऐसी हिंसा कई जगह हो रही है और उसमें जाति, धर्म, भाषा ओर वर्ण के आधार पर बने समूह लिप्त हैं। यह सच है कि जब कहीं ऐसी घटना होती है तो उसकी जांच स्थानीय स्तर पर होती है पर राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय अपराध विशेषज्ञों को अब इस बात पर दृष्टिपात करना चाहिये कि इसके लिये धन कौन दे रहा है और उसका फायदा क्या है?’

धर्म, जाति, और भाषा के नाम पर समूह बने भ्रम की राह पर चले रहे हैं और तय बात है कि इसी का लाभ उठाकर आर्थिक लाभ उठाने का प्रयास कई तरह से हो रहा है-यह अलग से चर्चा का विषय है पर ऐसे मामलों में हम उनका नाम लेकर अपराधियों का ही महिमा मंडल करते हैं। अगर इनके आर्थिक स्त्रोतो पर नजर रखते हुए काम किया जाये तभी इन पर नियंत्रण किया जा सकता है।
धर्म,जाति,भाषा और वर्ण के आधार पर कौन कितना अपने समूह का है सब जानते हैं। अमरीका ने पहले इस बात के प्रयास किये कि इनके इस प्रकार के हिंसातंत्र को प्रायोजित करने वाले आर्थिक स्त्रोतों पर ही वह हमला करेगा पर लगता है कि वह इराक युद्ध में उलझकर स्वयं भी भूल गया। यह धन अपने हाथ से कौन दे रहा है उसका पता लग जाये तो फिर यह पता लगाना भी जरूरी है कि उसके पास पैसा कहां से आया? इनके पास पैसा उन्हीं व्यवसायों से जुड़ लोगों से आता होगा जिनमें धर्म के दूने जैसा लाभ है। यह हो सकता है कि ऐसा व्यवसाय करने वाले सीधे आतंकी हिंसा करने वालों को पैसा न दें पर उनसे पैसा लेने वाले कुछ लोग इसलिये भी ऐसी हिंसा करा सकते हैं कि इससे एक तो उनको धन देन वाले चुपचाप धन देते रहें और दूसरा दो नंबर का काम करने वालों का धंधा भी चलता रहे।

जड़,जोरू और जमीन से अलग कोई अपराध नहीं होता। चाहे देशभर के बुद्धिजीवी शीर्षासन कर कहें तब भी वह बात जंचती नहीं। विचारधाराओं और कार्यशैली पर विभिन्न समूहों में मतभेद हो सकते हैं पर किसी में ऐसी ताकत नहीं है जो बिना पैसे कोई लड़ने निकल पड़े और पैसा वही देगा जिसका कोई आर्थिक फायदा होगा। कहीं कहीं आदमी डर के कारण चंदा या हफ्ता देता है पर वह इसलिये क्योंकि तब वह अपने अंदर शारीरिक सुरक्षा का भाव उत्पन्न होने के साथ उसका व्यापार भी चलता है। इधर यह भी हो रहा है कि अपराधियों का महिमा मंडन भी कम नहीं हो रहा। यही कारण है कि लोग प्रचार के लिये भी ऐसा करते हैं जो अंततः उनके आर्थिक लाभ के रूप में ही परिवर्तित होता है। जो अपराधी पकड़े जाते हैं उनके प्रचारकों को प्रचार माध्यम उनकी तरफ से सफाई देते हुए दिखाते हैं। सच तो यह है कि आतंकी हिंसा की आड़ में अनेक लोगों ने नाम और नामा कमाया है और यह सब पैसा कहीं न कहीं देश के लोगों की जेब से ही गया है। हालांकि इनके आर्थिक स्त्रोतों का पता स्थानीय स्तर पर नहीं लग सकता। इसके लिये आवश्यक है कि राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय लोग इसके लिये सक्रिय हों। इसके लिये जरूरी है कि देश में चल रहे दो नंबर के व्यवसायियों में कौन किस किस को धन देते हैं और उसका उनको क्या लाभ है यह देखा जाना जरूरी है। अनेक अपराधी पकड़ जाते हैं पर असली तत्व दृष्टिगोचर नहीं होते। हो सकता है कि हिंसा करने वाले कंपनियों के रूप में सक्रिय हों पर उनके कर्ताधर्ता का पता लगाना जरूरी है।

बुद्धिजीवी लोग इन हिंसक घटनाओं से उत्पन्न बिना मतलब के विषयों पर चर्चा के इस पर बहस क्यों नहीं करते कि आखिर इसका लाभ किसको कैसे हो सकता है। अगर यही बहसों का हाल रहा तो एक दिन देश को आतंकवाद के मसले पर विश्व में मिल रही सहानुभूति समाप्त हो जायेगी ओर यह यहां का आंतरिक मामला मान लिया जायेगा और विदेशों में देश के अपराधियों को शरण मिलती रहेगी। अगर कोई अपराध विशेषज्ञ इसे अलग प्रकार का अपराध मानता है तो फिर कुछ कहना बेकार है पर ऐसा कहने वाले बहुत कम मिलेंगे अगर मिल जाये तो लार्ड मैकाले की प्रशंसा अवश्य करें जिसने इस देश के लोगों की बुद्धि कोई हमेशा के लिये कुंठित कर दिया। ऐसे विषयों पर अपराध विज्ञानियों को चर्चा करना चाहिये पर यहां केवल विचारधाराओं के आधार चलने वाले बुद्धिजीवी बहस करते हैं तब यही लगता है कि वह केवल तयशुदा वाद और नारों पर ही चलते हैं।
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