Category Archives: Deepak bapu

भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस–हिन्दी हास्य कविताएँ/शायरी (bhrashtachar ek adrishya rakshas-hindi hasya kavitaen)


भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़ने को सभी तैयार हैं
पर उसके रहने की जगह तो कोई बताये,
पैसा देखकर
सभी की आंख बंद हो जाती है
चाहे जिस तरह घर में आये।
हर कोई उसे ईमानदारी से प्यार जताये।
———-
सभी को दुनियां में
भ्रष्ट लोग नज़र आते हैं,
अपने अंदर झांकने से
सभी ईमानदार घबड़ाते हैं।
भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस है
जिसे सभी गाली दे जाते हैं।

सुसज्जित बैठक कक्षों में
जमाने को चलाने वाले
भ्रष्टाचार पर फब्तियां कसते हुए
ईमानदारी पर खूब बहस करते है,
पर अपने गिरेबों में झांकने से सभी बचते हैं।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

नकली ट्राफी का असली खेल-व्यंग्य चिंत्तन (asali match nakli cup trofy ka khel-vyangya chittan)


             समझ में नहीं आ रहा है कि व्यंग्य लिखें कि गंभीर चिंत्तन। क्रिकेट को वैसे ही यकीनी खेल नहीं मानते। यहां तक कि जिसे लोग टीम इंडिया कहकर देश के लोग सिर पर उठाये रहते हैं उसके लिये भी हमने केवल एक क्लब बीसीसीआई की टीम मानते हैं। यह क्लब अपने क्रिकेट के व्यापार के लिये भारत के नाम, झंडे और गान का इस्तेमाल करता है इसलिये ही उसे भारत में दर्शक भारी मात्रा में मिलते हैं जिनकी जेब की दम पर पूरी दुनिया का क्रिकेट चल रहा है। बहरहाल हमारी टीम ने विश्व कप जीता खुशी की बात है-जीतने पर हम ऐसा ही करते हैं, हारने पर बीसीसीआई की टीम कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं-खिलाड़ियों के हाथ में ट्राफी या कप देखकर खुशी हुई।
            धोनी और गंभीर ने मन मोह लिया, मगर सारी प्रसन्नता चौबीस घंटे में हवा हो गयी। पता लगा कि उनको नकली कप या ट्राफी दी गयी है और असली भारतीय कस्टम विभाग के भंडार कक्ष की शोभा बढ़ा रही है। गनीमत है कि नागरिक सेवाओं से जुड़े कर्मचारी गोपनीयता के नियमों का पालन करते हैं वरना भंडार कक्ष में रखी ट्राफी का सरेआम दृश्य प्रसारित होता तब देश की इज्जत पर जो बट्टा लगता वह दुःखदायी होता।
            वैसे प्रचार माध्यम घुमाफिरा रहे हैं। बीसीसीआई के प्रवक्ता ने जब यह माना है कि ट्राफी नकली है तब उसमें शक की गुंजायश नहंी रहती। फिर भी आईसीसी कहती है कि असली ट्राफी यह कप है। वैसे प्रचार माध्यमों ने प्रमाणित कर दिया है कि वानखेड़े स्टेडियम में खेले गये विश्व कप 2011 के मैच के बाद भारत को दी गयी ट्राफी नकली है। उसमें विश्व कप का वह लोगो नहीं दिख रहा जिसे कोलंबो में अनावरण के समय देखा गया था। चूंकि यह ट्राफी अत्यंत महत्वपूर्ण है इसलिये यह संभव नहीं है कि उसे कहीं खुले में रखा गया हो जिससे उसका रंग उड़ जाये।
मतलब यह कि यह नकली ट्राफी है।
                  यह देश के साथ मजाक है और यकीनन बिना सोचे समझे नहीं किया गया। यह चिढ़कर किया गया है ताकि भारतीय लोग खुशी के बाद अवसाद के वातावरण का सामना करें। कोई है जो भारत की जीत से चिढ़ गया है। कौन हैं वह लोग? इसकी पड़ताल जरूरी है।
               इसमें कोई संदेह नहीं है कि सट्टेबाजों की ताकत जहां व्यापक है वहीं उनके हाथ लंबे हैं। कहा जाता है कि दुनियां के देशों के कानूनों से अलग आईसीसी तथा सट्टेबाजों का के नियम हैं। वह कई जगह कानून बनकर काम चलाते हैं वहां उनके हाथ भी लंबे हैं। भले ही कहा जाता है कि गोरे ईमानदार होते हैं पर जिस तरह अपराधियों के हाथ वह बिकते देखे गये हैं उससे यह भ्रम टूट गया है। ऐसा लगता है कि इस विश्व कप में कहीं न कहीं सट्टेबाजों को अपना काम सही तरह से करने का अवसर नहीं मिला। सेमीफायनल में पाकिस्तान और फायनल में श्रीलंका पर भारत की जीत तय मानी जा रही थी। ऐसे में सट्टेबाजों के लिये विपरीत परिणाम ही फायदेमंद हो सकता था पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि सट्टेबाजों ने अब स्पॉटफिक्सिंग का रास्ता निकाल लिया है पर लगता है कि वह अपनी कमाई से संतुष्ट नहीं है। फिर सेमीफायनल में पहुंची चार टीमों में-भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका तथा न्यूजीलैंड-से तीन गोरवर्ण का प्रतिनिधित्व नहीं करती। क्या गोरों के मन में यह मलाल रह गया था?
                  दूसरा सेमीफायनल और फायनल मैचों को भारत के अनेक संवैधानिक, राजनीतिक, आर्थिक, फिल्मी तथा अन्य विशिष्ट क्षेत्रों से जुड़े शिखर पुरुषों ने देखा। अपने कामकाज से फुरसत निकालकर वह कुछ देर आम इंसानों की तरह मैच देखने आये? उनकी मासुमियत तथा रुचियों को मजाक उड़ाने का कहीं यह इरादा तो नहीं है? क्या गोरे तथा भारत के विरोधियों को यह लगता है कि अमेरिका की लीबिया पर चल रही बमबारी को ही हम लोग देखते रहें और अपने क्रिकेट मैचों को देखना बंद कर देते।
क्रिकेट मैचों में हारने या जीतने पर भावुक नहीं होना चाहिए, यह हम हमेशा ही कहते रहे हैं पर नकली कप का मामला राष्ट्रवादियों को चिढ़ाने वाला है। भारत में आज नववर्ष विक्रम या विक्रमी संवत् 2068 के आगमन का स्वागत हो रहा है। ईसाई संवत् मानने वालों को यह बात समझ में नहीं आयेगी कि ऐसे अवसर इस तरह की अपमान जनक खबर बेहद दुःखदायी है। दो कौड़ी की आईसीसी-विश्व की क्रिकेट पर नियंत्रण करने वाली संस्था-और एक कोड़ी का फायनल मैच, पर देश का नाम अनमोल है। क्रिकेटर और उससे जुड़े संघों के लोग पैसे कमाने के चक्कर में चुप बैठ जायेंगे पर जिनको क्रिकेट से अधिक देश के प्रति प्रेम का भाव है वह इस व्यवहार से क्षुब्ध अवश्य होंगे।
          यह तो एक विचार है। इसका दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि यह समाचार ही फिक्स कर बनाया गया हो। विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता का फायनल देखने के बाद यहां के लोगों का क्रिकेट से मन भर सकता है। इधर एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता शुरु हो रही है और उसे दर्शक कम मिल सकते हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता और क्लब स्तरीय क्रिकेट मैचों में अंतर होता है। कहीं यह विश्व कप प्रतियोगिता का स्तर कमतर साबित करने का प्रयास तो नहीं है ताकि दर्शक इसे भूल जायें और क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की तरफ जायें।
इधर यह भी सुनने में आया था कि कुछ सट्टेबाज इधर उधर पकड़े गये। उनके साथ आस्ट्रेलिया के दो गोरे खिलाड़ियों की मिलीभगत की बात सामने आयी। शायद इससे गोरे लोगों को सदमा लगा हो।
                  कहने का अभिप्राय है कि यह घटना पूर्वनियोजित है। इससे दो उद्देश्य या दोनों में से एक प्राप्त करने का प्रयास हो सकता है।
        एक तो भारत को अपमानित करना या फिर विश्व कप प्रतियोगिता को कमतर साबित करना ताकि क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की तरफ जायें। लंबे समय तक विश्व कप की खुमारी उन पर न रहे क्योंकि छह अप्रैल से क्लब स्तरीय प्रतियोगिता प्रारंभ होने वाली है। शक की पूरी गुंजायश है कि इतनी बड़ी प्रतियोगिता में सब कुछ ठीकठाक रहा तो यह ट्राफी कस्टम का कर चुकाकर स्टेडियम में लायी क्यों न गयी? क्या वह इसे फ्री में लाना चाहते थे? करोड़ो रुपये की मालिक संस्थायें 20 लाख रुपये खर्च करने से मुकर क्यों गयीं? आखिरी बात दूसरी नकली ट्राफी अचानक कैसे बनकर आ गयी? मतलब जांच हो तो मामला कुछ का कुछ निकल सकता है।
—————
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
poet writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
५.दीपक भारतदीप का चिंत्तन
६.ईपत्रिका
७.दीपक बापू कहिन
८.जागरण पत्रिका
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

बाबा रामदेव क्या चमत्कार कर पायेंगे-हिन्दी आलेख (swami ramdev ka bhrashtacha ke viruddhi andolan-hindi lekh)


बाबा रामदेव और किरणबेदी ने मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। कुछ लोग उनके प्रयासों पर निराश हैं तो कुछ आशंकित! इस समय देश के जो हालात हैं वह किसी से छिपे नहीं हैं क्योंकि भारत का आम आदमी अज़ीब किस्म की दुविधा में जी रहा है। स्थिति यह है कि लोग अपनी व्यथाऐं अभिव्यक्ति करने के लिये भी प्रयास नहीं कर पा रहे क्योंकि नित नये संघर्ष उनको अनवरत श्रम के लिये बाध्य कर देते हैं।
      बाबा रामदेव के आंदोलन में  चंदा लेने के अभियान पर उठेंगे सवाल-हिन्दी लेख (baba ramdev ka andolan aur chanda abhiyan-hindi lekh)
      अंततः बाबा रामदेव के निकटतम चेले ने अपनी हल्केपन का परिचय दे ही दिया जब वह दिल्ली में रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन के लिये पैसा उगाहने का काम करता सबके सामने दिखा। जब वह दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं तो न केवल उनको बल्कि उनके उस चेले को भी केवल आंदोलन के विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करते दिखना था। यह चेला उनका पुराना साथी है और कहना चाहिए कि पर्दे के पीछे उसका बहुत बड़ा खेल है।
    उसके पैसे उगाही का कार्यक्रम टीवी पर दिखा। मंच के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पोस्टर लटकाकर लाखों रुपये का चंदा देने वालों से पैसा ले रहा था। वह कह रहा था कि ‘हमें और पैसा चाहिए। वैसे जितना मिल गया उतना ही बहुत है। मैं तो यहां आया ही इसलिये था। अब मैं जाकर बाबा से कहता हूं कि आप अपना काम करते रहिये इधर मैं संभाल लूंगा।’’
          आस्थावान लोगों को हिलाने के यह दृश्य बहुत दर्दनाक था। वैसे वह चेला उनके आश्रम का व्यवसायिक कार्यक्रम ही देखता है और इधर दिल्ली में उसके आने से यह बात साफ लगी कि वह यहां भी प्रबंध करने आया है मगर उसके यह पैसा बटोरने का काम कहीं से भी इन हालातों में उपयुक्त नहीं लगता। उसके चेहरे और वाणी से ऐसा लगा कि उसे अभियान के विषयों से कम पैसे उगाहने में अधिक दिलचस्पी है।
            जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्न है तो वह योग शिक्षा के लिये जाने जाते हैं और अब तक उनका चेहरा ही टीवी पर दिखता रहा ठीक था पर जब ऐसे महत्वपूर्ण अभियान चलते हैं कि तब उनके साथ सहयोगियों का दिखना आवश्यक था। ऐसा लगने लगा कि कि बाबा रामदेव ने सारे अभियानों का ठेका अपने चेहरे के साथ ही चलाने का फैसला किया है ताकि उनके सहयोगी आसानी से पैसा बटोर सकें जबकि होना यह चाहिए कि इस समय उनके सहयोगियों को भी उनकी तरह प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी दिखना चाहिए था।
अब इस आंदोलन के दौरान पैसे की आवश्यकता और उसकी वसूली के औचित्य की की बात भी कर लें। बाबा रामदेव ने स्वयं बताया था कि उनको 10 करोड़ भक्तों ने 11 अरब रुपये प्रदान किये हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली आंदोलन में 18 करोड़ रुपये खर्च आयेगा। अगर बाबा रामदेव का अभियान एकदम नया होता या उनका संगठन उसको वहन करने की स्थिति में न होता तब इस तरह चंदा वसूली करना ठीक लगता पर जब बाबा स्वयं ही यह बता चुके है कि उनके पास भक्तों का धन है तब ऐसे समय में यह वसूली उनकी छवि खराब कर सकती है। राजा शांति के समय कर वसूलते हैं पर युद्ध के समय वह अपना पूरा ध्यान उधर ही लगाते हैं। इतने बड़े अभियान के दौरान बाबा रामदेव का एक महत्वपूर्ण और विश्वसीनय सहयोगी अगर आंदोलन छोड़कर चंदा बटोरने चला जाये और वहां चतुर मुनीम की भूमिका करता दिखे तो संभव है कि अनेक लोग अपने मन में संदेह पालने लगें।
            संभव है कि पैसे को लेकर उठ रहे बवाल को थामने के लिये इस तरह का आयोजन किया गया हो जैसे कि विरोधियों को लगे कि भक्त पैसा दे रहे हैं पर इसके आशय उल्टे भी लिये जा सकते हैं। यह चालाकी बाबा रामदेव के अभियान की छवि न खराब कर सकती है बल्कि धन की दृष्टि से कमजोर लोगों का उनसे दूर भी ले जा सकती है जबकि आंदोलनों और अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ही सफलता दिलाती है। बहरहाल बाबा रामदेव के आंदोलन पर शायद बहुत कुछ लिखना पड़े क्योंकि जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं वह इसके लिये प्रेरित करते हैं। हम न तो आंदोलन के समर्थक हैं न विरोधी पर योग साधक होने के कारण इसमें दिलचस्पी है क्योंकि अंततः बाबा रामदेव का भारतीय अध्यात्म जगत में एक योगी के रूप में दर्ज हो गया है जो माया के बंधन में नहीं बंधते।
बाबा स्वामी रामदेव के हम शिष्य नहीं है पर एक योग साधक के नाते उनके अंतर्मन में चल रही साधना के साथ ही विचारक्रम का कुछ आभास है जिसे अभी पूरी तरह से लिखना संभव नहीं है। यहां एक बात बता दें कि आम बुद्धिजीवी चाहे भले ही उनके समर्थक हों इस बात का आभास नहीं कर सकते कि रामदेव बाबा की क्षमता कितनी अधिक है। उनके कथन और दावे अन्य सामान्य कथित महान लोगों से अलग हैं। वही एक व्यक्ति है जो परिणामोन्मुख आंदोलन का नेतृत्व कर सकते हैं और वह भी ऐसा जिसका सदियों तक प्रभावी हो। इससे भी आगे एक बात कहें तो शायद कुछ लोग अतिश्योक्ति समझें कि अगर बाबा रामदेव इस पथ पर चले तो एक समय अपने अंदर भगवान कृष्ण के अस्तित्व का आभास करने लगेंगे जो कि एक पूर्ण योगी के लिये ही संभव है। ऐसा हम इसलिये कह रहे हैं कि परिणाममूलक अभियान का सीधा मतलब है कि हिंसा रहित एक आधुनिक महाभारत का युद्ध! जब वह सारथी की तरह अपने अर्जुनों-मतलब साथियों-के रथ का संचालन करेंगे तब अनेक तरह से वार भी होंगे। यह एक ऐसा युद्ध होगा जिसे कोई पूर्ण योगी ही जितवा सकता है।
हां, एक अध्यात्मिक लेखक के रूप में हमें यह पता है कि अनेक भारतीय विचाराधारा समर्थक भी बाबा रामदेव को एक योग शिक्षक से अधिक महत्व नहीं देते और इसके पीछे कारण यह कि वह स्वयं योग साधक नहीं है। हम भी बाबा रामदेव को योग शिक्षक ही मानते हैं पर यह भी जानते हैं कि योग माता की कृपा से कोई भी शिक्षक महायोगी और महायोद्धा बन सकता हैं।
जो लोग या योग साधक नित बाबा रामदेव को योग शिक्षा देते हुए देखते हैं हैं वह उनके चेहरे, हावभाव, आंखें तथा कपड़ों पर ही विचार कर सकते हैं पर जो उनके अंदर एक पूर्णयोग विद्यमान है उसका आभास नियमित योग साधक को ही हो सकता है।
अब आते हैं इस बात पर कि आखिर बाबा रामदेव जब भ्रष्टाचार के विरुद्ध हिंसा रहित नया महाभारत रचेंगे तब उन पर आक्रमण किस तरह का होगा? उनका बचाव वह किस तरह करेंगे?
हम बाबा रामदेव से बहुत दूर हैं और किसी प्रत्यक्ष सहयोग के नाम पर अगर कुछ धन देना पड़े तो देंगे। कुछ लिखना पड़ा तो लिख देंगे। भारत को महान भारत बनाने के प्रयासों का सदैव हृदय से समर्थन करेंगे पर उनके साथ मैदान में आने वाले कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को यह बता दें कि उनके विरोधियों के पास अधिक हथियार नहीं है-शक्ति तो नाम की भी नहीं है। कभी न बरसने पर हमेशा गरजने वाले बादल समूह हैं भ्रष्टाचार को सहजता से स्वीकार करने वाले लोग! मंचों पर सच्चाई की बात करते हैं पर कमरों में उनको अपना भ्रष्टाचार केवल अपनी आधिकारिक कमाई दिखती है।
अभी तो प्रचार माध्यम उनके आधार पर अपनी सामग्री बनाने के लिये प्रचार खूब कर रहे हैं पर समय आने पर यही बाबा रामदेव के विरुद्ध विष वमन करने वालों को निष्पक्षता के नाम पर स्थान देंगे।
इनमें सबसे पहला आरोप तो पैसा बनाने और योग बेचने का होगा। उनके आश्रम पर अनेक उंगलियां उठेंगी। दूसरा आरापे अपने शिष्यों के शोषण का होगा। चूंकि योगी हैं इसलिये हिन्दू धर्म के कुछ ठेकेदार भी सामने युद्ध लड़ने आयेंगे। पैसा बनाने और योग बेचने के आरोपों का तो बस एक ही जवाब है कि योगी समाज को बनाने और बचाने के लिये माया को भी अस्त्र शस्त्र की तरह उपयोग करते हैं। माया उनकी दासी होती है। समाज उनको अपना भगवान मानता है। जहां तक करों के भुगतान करने या न करने संबंधी विवाद है तो यहां यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह तो धर्म की सेवा कर रहे हैं। अस्वस्थ समाज को स्वस्थ बना रहे हैं जो कि अनेक सांसरिक बातों से ऊपर उठकर ही किया जा सकता-मतलब कि योगी को तो केवल चलना है इधर उधर देखना उसका काम नहीं है। लक्ष्मी तो उसकी दासी है, और फिर जो व्यक्ति, समाज या संस्थायें भ्रष्टाचार को संरक्षण दे रही है वह किस तरह नैतिकता और आदर्श की दुहाई एक योगी को दे सकती हैं?
आखिरी बात यह है कि सच में ही समाज का कल्याण करना है तो धर्म की आड़ लेना बुरा नहीं है। बुरा तो यह है कि अधर्म की बात धर्म की आड़ लेकर की जाये। चलते चलते एक बात कहें जो किसी योगी के आत्मविश्वास और ज्ञान का प्रमाण है वह यह कि बाबा रामदेव के अनुसार भ्रष्टाचार के विरुद्ध किसी एक मामले पर प्रतीक के रूप में काम करना शुरुआत है न कि लक्ष्य! अगर आप योग साधक नहीं हैं तो इस बात का अनुभव नहीं कर सकते कि योग माता की कृपा से ही कोई ऐसी दिव्य दृष्टि पा सकता है जो कि छोटे प्रयासों से संक्षिप्त अवधि में बृहद लक्ष्य की प्राप्ति की कल्पना न करे।
वैसे बाबा रामदेव को भी यह समझना चाहिए कि अगर कुछ जागरुक और सक्रिय लोग उनका समर्थन करने के लिये आगे आयें हैं तो वह उनका सही उपयोग करें। उनका आना वह योगमाता की कृपा का ही परिणाम है जो सभी योग साधकों को नहीं मिलती। योग से जुड़े भी दो प्रकार के लोग होते हैं-एक तो पूर्ण निष्काम योगी जो समाज के लिये कुछ करने का माद्दा रखते हैं दूसरे योग साधक जो केवल अपनी देह, मन तथा विचारों के विकारों के विसर्जन के अधिक कुछ नहीं करते। ऐसे में हम जैसा एक मामूली नियमित योग साधक केवल उनकी लक्ष्य प्राप्ति के लिये योग माता से अधिक कृपा की कामना ही कर सकता है। देखेंगे आगे आगे क्या होता है? बहरहाल उनके समर्थकों के साथ ही आलोचकों को भी बता दें कि एक योगी के प्रयास सामान्य लोगों से अधिक गंभीर और दूरगामी परिणाम देने वाले होते हैं। समर्थकों से कहेंगे कि वह योग साधना अवश्य शुरु करें और आलोचकों से कहेंगे कि पहले यह बताओ कि क्या तुम योग साधना करते हो। अगर नहीं तो यह अपने आप ही तय करो कि क्या तुम्हें उनकी आलोचना का हक है? भारत का नागरिक और योग साधक होने के नाते हमारी बाबा रामदेव के ंव्यक्तित्व और कृतित्व में हमेशा रुचि रही है और रहेगी।
————–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान,आंदोलन,bhrashtachar ke virddh andolan,abhiyan,prayas
बाबा रामदेव क्या नया महाभारत रच पायेंगे-हिन्दी लेख (baba ramdev aur naya mahabharat-hindi lekh)

असली झगड़ा, नकली इंसाफ-हिन्दी व्यंग्य और कविता (asli jhagad aur nakli insaf-hindi vyangya aur kavita)


टीवी पर सुनने को को मिला कि इंसाफ नाम का कोई वास्तविक शो चल रहा है जिसमें शामिल हो चुके एक सामान्य आदमी का वहां हुए अपमान के कारण निराशा के कारण निधन हो गया। फिल्मों की एक अंशकालिक नर्तकी और गायिका इस कार्यक्रम का संचालन कर रही है। मूलतः टीवी और वीडियो में काम करने वाली वह कथित नायिका अपने बिंदास व्यवहार के कारण प्रचार माध्यमों की चहेती है और कुछ फिल्मों में आईटम रोल भी कर चुकी है। बोलती कम चिल्लाती ज्यादा है। अपना एक नाटकीय स्वयंवर भी रचा चुकी है। वहां मिले वर से बड़ी मुश्किल से अपना पीछा छुड़ाया। अब यह पता नहीं कि उसे विवाहित माना जाये, तलाकशुदा या अविवाहित! यह उसका निजी मामला है पर जब सामाजिक स्तर का प्रश्न आता है तो यह विचार भी आता है कि उस शादी का क्या हुआ?
बहरहाल इंसाफ नाम के धारावाहिक में वह अदालत के जज की तरह व्यवहार करती है। यह कार्यक्रम एक सेवानिवृत महिला पुलिस अधिकारी के कचहरी धारावाहिक की नकल पर बना लगता है पर बिंदास अभिनेत्री में भला वैसी तमीज़ कहां हो सकती है जो एक जिम्मेदार पद पर बैठी महिला में होती है। उसने पहले तो फिल्म लाईन से ही कथित अभिनय तथा अन्य काम करने वाले लोगों के प्रेम के झगड़े दिखाये। उनमें जूते चले, मारपीट हुई। गालियां तो ऐसी दी गयीं कि यहां लिखते शर्म आती है।
अब उसने आम लोगों में से कुछ लोग बुलवा लिये। एक गरीब महिला और पुरुष अपना झगड़ा लेकर पहुंच गये या बुलाये गये। दोनों का झगड़ा पारिवारिक था पर प्रचार का मोह ही दोनों को वहां ले गया होगा वरना कहां मुंबई और कहां उनका छोटा शहर। दोनों ने बिंदास अभिनेत्री को न्यायाधीश मान लिया क्योंकि करोड़ों लोगों को अपना चेहरा दिखाना था। इधर कार्यक्रम करने वालों को भी कुछ वास्तविक दृश्य चाहिये थे सो बुलवा लिया।
जब झगड़ा था तो नकारात्मक बातें तो होनी थी। आरोप-प्रत्यारोप तो लगने ही थे। ऐसे में बिंदास या बदतमीज अभिनेत्री ने आदमी से बोल दिया‘नामर्द’।
वह बिचारा झैंप गया। प्रचार पाने का सारा नशा काफूर हो गया। कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो सभी ने देखा। अड़ौस पड़ौस, मोहल्ले और शहर के लोग उस आदमी को हिकारत की नज़र से देखने लगे। वह सदमे से मरा या आत्महत्या की? यह महत्वपूर्ण नहंी है, मगर वह मरा इसी कारण से यह बात सत्य है। पति पत्नी दोनों साथ गये या अलग अलग! यह पता नहीं मगर दोनों गये। घसीटे नहीं गये। झगड़ा रहा अलग, मगर कहीं न कहीं प्रचार का मोह तो रहा होगा, वरना क्या सोचकर गये थे कि वहां से कोई दहेज लेकर दोबारा अपना घर बसायेंगे?
छोटे आदमी में बड़ा आदमी बनने का मोह होता है। छोटा आदमी जब तक छोटा है उसे समाज में बदनामी की चिंता बहुत अधिक होती है। बड़ा आदमी बेखौफ हो जाता है। उसमें दोष भी हो तो कहने की हिम्मत नहीं होती। कोई कहे भी तो बड़ा आदमी कुछ न कहे उसके चेले चपाटे ही धुलाई कर देते हैं। यही कारण है कि प्रचार के माध्यम से हर कोई बड़ा बनना या दिखना चाहता है। ऐसे में विवादास्पद बनकर भी कोई बड़ा बन जाये तो ठीक मगर न बना तो! ‘समरथ को नहीं दोष, मगर असमर्थ पर रोष’ तो समाज की स्वाभविक प्रवृत्ति है।
एक मामूली दंपत्ति को क्या पड़ी थी कि एक प्रचार के माध्यम से कमाई करने वाले कार्यक्रम में एक ऐसी महिला से न्याय मांगने पहुंचे जो खुद अभी समाज का मतलब भी नहीं जानती। इस घटना से प्रचार के लिये लालायित युवक युवतियों को सबक लेना चाहिए। इतना ही नहीं मस्ती में आनंद लूटने की इच्छा वाले लोग भी यह समझ लें कि यह दुनियां इतनी सहज नहीं है जितना वह समझते हैं।
प्रस्तुत है इस पर एक कविता
—————-
घर की बात दिल ही में रहे
तो अच्छा है,
जमाने ने सुन ली तो
तबाही घर का दरवाज़ा खटखटायेगी,
कोई हवा ढूंढ रही हैं
लोगों की बरबादी का मंजर,
दर्द के इलाज करने के लिये
हमदर्दी का हाथ में है उसके खंजर,
जहां मिला अवसर
चमन उजाड़ कर जश्न मनायेगी।
——

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

घर की बात दिल में ही रहे-हिन्दी व्यंग्य और शायरी (ghar ki baat dil mein rah-hindi vyangya aur shayri)

आदर्श के नाम पर समाज सेवा-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविता (adrash ke nam par samaj seva-hindi hasya vyangya kavita)


आया फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू मेरे बेरोजगार भतीजे को
समाज सेवा करने का ख्याल आया है,
यह ज्ञान उसने जेल में बंद अपने गुरु से पाया है,
उसने बताया कि
वह एक सहायता समिति बनायेगा,
अब जनता में अपनी समाज सेवक की तरह छायेगा,
अभी दीपावली के अवसर पर
नकली खोये और
गंदी बनी मिठाईयां खाकर
बहुत लोग बीमार पड़ेंगे,
कुछ पटाखों से घायल होकर
अस्पताल का रुख करेंगे,
उनको वह सहायता प्रदान करेगा,
इसके लिये वह जनता से
पैसा लेकर
हताहतों के जख्म भरेगा,
बस,
समस्या यह है कि वह
उस संस्था का नाम क्या रखे
इसको लेकर विचार कर रहा है,
आया था मेरे पास पूछने
पर अपनी संस्था के काम का प्रचार कर रहा है,
आप ही बताओ कोई शुभ नाम,
कर दो बस, इतना काम,
मेरा भतीजा हमेशा आपका आभार जतायेगा।’’

सुनकर कहैं दीपक बापू
‘‘कमबख्त तुम्हारें कुनबे ने भी
कभी समाज सेवा की है,
जहां मिला वही मेवा की लूट की है,
जहां तक नाम का सवाल है,
उस पर यह कैसा बवाल है,
आदर्श या चरित्र निर्माण जैसा नाम रखकर,
मिठाई का टुकड़ा चखकर,
शुरु कर दो समाज सेवा का काम,
बस,
एक बात याद रखना,
सारा चंदा स्वयं ही चखना,
तुम्हारे कुनबे का भला क्या दोष,
ज़माना आदर्श के नाम पर लूट रहा
इसलिये आम इंसानों में है रोष,
बात जितनी आदर्श की बढ़ती जा रही है,
उतनी ही नैतिकता नीचे आ रही है,
बन गया है भ्रष्टाचार,
ताकतवार आदमी का शिष्टाचार,
आदर्श बनकर कर रहे हैं
वही समाज का चरित्र निर्माण,
जिनमें नहीं है पवित्रता का प्राण,
कोई फर्क नहीं पड़ेगा
अगर तुम्हारा भतीजा
आदर्श समाज सेवा समिति बनायेगा,
चलो एक बेरोगजार काम पर लग जायेगा,
जिनके पास दौलत है
वही आम इंसान को लूट रहे हैं,
अपराध से सराबोर हैं
वही निर्दोष कहलाकर छूट रहे हैं,
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
तुम्हारा भतीजा किसी घोटाले फंसकर
किसी बड़े पद पर चढ़ जायेगा।’’
———-

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

भारत में हिन्दीः आम और खास वर्ग की अलग अलग पहचान करती भाषा-हिन्दी लेख (comman and special class of hindi in india-hindi lekh)


भारत की खिल्ली उड़ाने वाले विदेशी लोग इसे ‘‘साधुओं और सपेरों का देश कहा करते थे। भारत के बाहर प्रचार माध्यम इसी पहचान को बहुत समय आगे बढ़ाते रहे पर जिन विदेशियों ने उस समय भी भारत देखा तो पाया कि यह केवल एक दुष्प्रचार मात्र था। हालांकि अब ऐसा नहीं है पर अतीत की छबि अभी कई जगह वर्तमान स्वरूप में विद्यमान दिखाई देती है। इससे एक बात तो मानी जा सकती कि आधुनिक प्रचार माध्यमों के -टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं- अधिकतर कार्यकर्ता जनमानस में अपनी बात स्थापित करने में बहुत सक्षम है। इसी क्षमता का लाभ उठाकर वह अनेक तरह के भ्रम मी सत्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अनेक लोग तो करते ही हैं। इस साधु और सपेरों की छबि से देश मुक्त हुआ कि पता नहीं पर वर्तमान में भी भारत की छबि को लेकर अनेक प्रकार के अन्य भ्रम यही प्रचार माध्यम फैलाते हैं और जिनका प्रतिकार करना आवश्यक है।
अगर हम इस पर बहस करेंगे तो पता नहीं कितना लंबा लिखना पड़ेगा फिर यह भी तय नहीं है कि बहस खत्म होगी कि नहीं। दूसरा प्रश्न यह भी है कि यह प्रचार माध्यम कार्यकर्ता कहीं स्वयं ही तो मुगालतों में नहीं रहते। पता नहीं बड़े शहरों में सक्रिय यह प्रचार माध्यम कर्मी इस देश की छबि अपने मन की आंखों से कैसी देखते हैं? मगर इतना तय है कि यह सब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न है और यहां की अध्यात्मिक ताकत को नहीं जानते इसलिये अध्यात्म की सबसे मज़बूत भाषा हिन्दी का एक तरह से मज़ाक बना रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि उनके पाठक, दर्शक तथा श्रोता केवल कान्वेंट पढ़े बच्चे ही हैं या फिर केवल वही उनके अभिव्यक्त साधनों के प्रयोक्ता हैं। मज़दूर गरीब, और ग्रामीण परिवेश के साथ ही शहर में हिन्दी में शिक्षित लोगों को तो केवल एक निर्जीव प्रयोक्ता मानकर उस पर अंग्रेजी शब्दों का बोझ लादा जा रहा है।
अनेक समाचार पत्र पत्रिकाऐं अंग्रेजी भाषा के शब्द देवनागरी लिपि के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं-कहीं तो कहीं तो शीर्षक के रूप में पूरा वाक्य ही लिख दिया जाता है। यह सब किसी योजना के तहत हो रहा है इसमें संशय नहीं है और यह भी इस तरह की योजना संभवत तीन साल पहले ही तैयार की गयी लगती है जिसे अब कार्यरूप में परिवर्तित होते देखा जा रहा है।
अंतर्जाल पर करीब तीन साल पहले एक लेख पढ़ने में आया था। जिसमें किसी संस्था द्वारा रोमन लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को लिखने के लिये प्रोत्साहन देने की बात कही गयी थी। उसका अनेक ब्लाग लेखकों ने विरोध किया था। उसके बाद हिन्दी भाषा में विदेशी शब्द जोड़ने की बात कही गयी थी तो कुछ ने समर्थन तो कुछ ने विरोध किया था। उस समय यह नहीं लगा था कि ऐसी योजनायें बनाने वाली संस्थायें हिन्दी में इतनी ताकत रखती हैं कि एक न एक दिन उनकी योजना ज़मीन पर रैंगती नज़र आती हैं। अब यह बात तो साफ नज़र आ रही है कि इन संस्थाओं में व्यवसायिक लोग रहते हैं जो कहीं न कहीं से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्राप्त कर ही आगे बढ़ते हैं। प्रत्यक्षः वह बनते तो हिन्दी के भाग्य विधाता हैं पर वह उनका इससे केवल इतना ही संबंध रहता है कि वह अपने प्रयोजको को सबसे अधिक कमा कर देने वाली इस भाषा में निरंतर सक्रिय बनाये रखें। यह उन लोगों के भगवान पिता या गॉड फादर बन जाते हैं जो हिन्दी से कमाने आते हैं। यह उनको सिफारिशें कर अपने प्रायोजकों के साथ जोड़ते हैं-आशय यह है कि टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में काम दिलाते होंगे। हिन्दी भाषा से उनका कोई लेना देना नहीं है अलबत्ता कान्वेंट मे शिक्षित  लोगों को वह हिन्दी में रोजगार तो दिला ही देते होंगे ऐसा लगता है। यही कारण है कि इतने विरोध के बावजूद देश के पूरे प्रचार माध्यम धड़ल्ले से इस कदर अंग्रेजी के शब्द जोड़ रहे हैं कि भाषा का कबाड़ा हुए जा रहा है। अब हिन्दी दो भागों में बंटती नज़र आ रही है एक आम आदमी की दूसरी खास लोगों की भाषा।
हिन्दी के अखबार पढ़ते हुए तो अपने ही भाषा ज्ञान पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषी होने का अपमान झेल रहे हैं। इससे भी ज्यादा इस बात की हैरानी कि आम आदमी के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव यह व्यवसायिक संस्थान कैसे रख रहे हैं। सीधी बात कहें तो देश का खास वर्ग और उसके वेतनभोगी लोग समाज से बहुत दूर हो गये हैं। यह तो उनका मुगालता ही है कि वह समाज या हिन्दी को अपने अनुरूप बना लेंगें क्योंकि इस देश का आधार अब भी गरीब, मज़दूर और आम व्यवसायी है जिसके सहारे हिन्दी भाषा जीवीत है। जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विश्व को दिखाने तक ही ठीक हैं। उस विकास को लेकर देश के प्रचार माध्यम झूम रहे हैं उसकी अनुभूति इस देश का आम आदमी कितनी करता है यह देखने की कोशिश नहंी करते। उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है क्योंकि उनकीभाषा आम आदमी के भाव से मेल नहीं खाती। वह साधु सपेरों वाले देश को दृष्टि तथा वाणी से हीन बनाना चाहते हैं। अपनी भाषा के विलुप्तीकरण में अपना हित तलाश रहे लोगों से अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह हिन्दी भाषा के सभ्य रूप को बने रहने देंगे।
हिन्दी के कथित विकास के लिये बनी संस्थाओं में सक्रिय बुद्धिजीवी भाषा की दृष्टि से कितने ज्ञाता हैं यह कहना कठिन है अलबत्ता कहीं न कहीं अंग्रेजी के समकक्ष लाने के दावे वह जरूर करते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी कई जगह सक्रिय हैं और हिन्दी भाषा के लिये गुरु की पदवी भी धारण कर लेते हैं। उनकी कीर्ति या संपन्नता से हमें कोई शिकायत नहीं है पर इतना तय है कि व्यवसायिक संस्थानों के प्रबंधक उनकी मौजूदगी इसलिये बनाये रखना चाहते हैं कि उनको अपने लिये हिन्दी कार्यकर्ता मिलते रहें। मतलब हिन्दी के भाग्य विधाता हिन्दी के व्यववायिक जगत और आम प्रयोक्ता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। इससे अधिक उनकी भूमिका नहीं है। ऐसे में नवीन हिन्दी कार्यकर्ता रोजगार की अपेक्षा में उनको अपना गुरु बना लेते हैं।
ऐसे प्रयासों से हिन्दी का रूप बिगड़ेगा पर उसका शुद्ध रूप भी बना रहेगा क्योंकि साधु और सपेरे तो वही हिन्दी बोलेंगे और लिखेंगे जो आम आदमी जानता हो। हिन्दी आध्यात्म या अध्यात्म की भाषा है। अनेक साधु और संत अपनी पत्रिकायें निकालते हैं। उनके आलेख पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसमें हिन्दी का साफ सुथरा रूप दिखाई देता है। अब तो ऐसा लगने लगा है हिन्द समाचार पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने से तो अच्छा है कि अध्यात्म पत्रिकायें पढ़कर ही अपने हिन्दी भाषी होने का गर्व महसूस किया जाये। अखबार में भी वही खबरें पढ़ने लायक दिखती हैं जो भाषा और वार्ता जैसी समाचार एजेंसियों से लेकर प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय समाचारों के लिये क्योंकि स्थानीय पत्रकार होते हैं इसलिये उनकी हिन्दी भी ठीक रहती है मगर आलेख तथा अन्य प्रस्तुतियां जो कि साहित्य का स्त्रोत होती हैं अब अंग्रेजीगामी हो रही हैं और ऐसे पृष्ठ देखने का भी अब मन नहीं करता। एक बात तो पता लग गयी है कि हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय एक समूह ऐसा भी है जो दावा तो हिन्दी के हितैषी होने का है पर वह मन ही मन झल्लाता भी है कि अंग्रेजी में छपकर भी वह आम आदमी से दूर है इसलिये वह हिन्दी भाषा प्रचार माध्यमों में छद्म रूप लेकर घुस आया है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का उसका इरादा केवल तात्कालिक आर्थिक हित प्राप्त करना ही है। वह हिन्दी का महत्व नहींजानता क्योकि आध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपने अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति के कारण ही बढ़ेगी न कि सतही साहित्य के सहारे। ऐसे में हिन्दी की चिंदी करने वालों को केवल इंटरनेट के लेखक ही चुनौती दे सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके पास आम पाठक का समर्थन नहीं है। 
———–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

राम मंदिर पर अदालत का फैसला स्वागत योग्य-हिन्दी लेख (ayodhya ke ram mandir par adalat ka faisla-hindi lekh)


अंततः अयोध्या में राम जन्मभूमि पर चल रहे मुकदमे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला बहुप्रतीक्षित फैसला आ ही गया। तीन जजों की खण्डपीठ ने जो फैसला दिया वह आठ हज़ार पृष्ठों का है। इसका मतलब यह है कि इस फैसले में लिये हर तरह के पहलू पर विचार करने के साथ ही हर साक्ष्य का परीक्षण भी किया गया होगा। तीनों माननीय न्यायाधीशों ने निर्णय लिखने में बहुत परिश्रम करने के साथ ही अपने विवेक का पूरा उपयोग किया इस बात में कोई संदेह नहीं है। फैसले से प्रभावित संबंधित पक्ष अपने अपने हिसाब से इसके अच्छे और बुरे होने पर विचार कर आगे की कार्यवाही करेंगे क्योंकि अभी सवौच्च न्यायालय का भी दरवाजा बाकी है। यह अलग बात है कि सभी अगर इस फैसले से संतुष्ट हो गये तो उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार ही काम करेंगे।
इस फैसले से पहले जिस तरह देश में शांति की अपीलें हुईं और बाद में भी उनका दौर जारी है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि धार्मिक संवेदशीलता के मामले में हमारा देश शायद पूरे विश्व में एक उदाहरण है। सुनने में तो यह भी आया है कि इस ज़मीन पर विवाद चार सौ वर्ष से अधिक पुराना है। साठ साल से अब अदालत में यह मामला चल रहा था। पता नहंी इस दौरान कितने जज़ बदले तो कई रिटायर हो चुके होंगे। प्रकृति का नियम कहें या सर्वशक्तिमान की लीला जिसके हाथ से जो काम होना नियत है उसी के हाथ से होता है।
टीवी चैनलों के अनुसार तीनों जजों ने एक स्वर में कहा-‘रामलला की मूर्तियां यथा स्थान पर ही रहेंगी।’
अलबत्ता विवादित जमीन को संबंधित पक्षों  में तीन भागों में बांटने का निर्णय दिया गया है। इस निर्णय के साथ ही कुछ अन्य विषयों पर भी माननीय न्यायाधीशों के निर्णय बहुमत से हुए हैं पर मूर्तियां न हटाने का फैसला सर्वसम्मत होना अत्यंत महत्वपूर्ण तो है ही, इस विवाद को पटाक्षेप करने में भी सहायक होगा।
चूंकि यह फैसला सर्वसम्मत है इसलिये अगर सवौच्च न्यायालय में यह मामला जाता है तो वहां भी यकीनन न्यायाधीश इस पर गौर जरूर फरमायेंगे.ऐसा पिछले मामलों में देखा गया है यह बात कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं। वैसे ऐसे मामलों पर कानूनी विशेषज्ञ ही अधिक बता सकते हैं पर इतना तय है कि अब अगर दोनों पक्ष न्यायालयों का इशारा समझ कर आपस में समझ से एकमत होकर देशहित में कोई निर्णय लें तो बहुत अच्छा होगा।
निर्मोही अखाड़ा एक निजी धार्मिक संस्था है और उसका इस मामले में शामिल होना इस बात का प्रमाण है कि अंततः यह विवाद निजी व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच था जिसे भगवान श्रीराम के नाम पर संवदेनशील बनाकर पूरे देश में प्रचारित किया गया। बरसों से कुछ लोग दावा करते हैं कि भगवान श्री राम के बारे में कहा जा रहा है कि वह हम भारतीयों के लिये आस्था का विषय है। ऐसा लगता है कि जैसे भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र को मंदिरों के इर्दगिर्द समेटा जा रहा है। सच बात तो यह है कि भगवान श्रीराम हमारे न केवल आराध्य देव हैं बल्कि अध्यात्मिक पुरुष भी हैं जिनका चरित्र मर्यादा के साथ जीवन जीना सिखाता है। यह कला बिना अध्यात्मिक ज्ञान के नहीं आती। इसके लिये दो मार्ग हैं-एक तो यह कि योग्य गुरु मिल जाये या फिर ऐसे इष्ट का स्मरण किया जाये जिसमें योग्य गुरु जैसे गुण हों। उनके स्मरण से भी अपने अंदर वह गुण आने लगते हैं। एकलव्य ने गुरु द्रोण की प्रतिमा को ही गुरु मान लिया और धनुर्विद्या में महारथ हासिल की। इसलिये भगवान श्री राम का हृदय से स्मरण कर उन जैसे सभी नहीं तो आंशिक रूप से कुछ गुण अपने अंदर लाये जा सकते हैं। बाहरी रूप से नाम लेकर या दिखाने की पूजा करने से आस्था एक ढोंग बनकर रह जाती है। हम जब धर्म की बात करते हैं तो याद रखना चाहिये कि उसका आधार कर्मकांड नहीं  बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान है और भगवान श्री राम उसके एक आधार स्तंभ है। हम जब उनमें आस्था का दावा करते हुए वैचारिक रूप संकुचित होते हैं तब वास्तव में हम कहीं न कहीं अपने हृदय को ही धोखा देते हैं।
मंदिरों में जाना कुछ लोगों को फालतू बात लगती है पर वहां जाकर अगर अपने अंदर शांति का अनुभव किया जाये तब इस बात का लगता है कि
मन की मलिनता को निकालना भी आवश्यक है। दरअसल इससे ध्यान के लाभ होता है। अगर कोई व्यक्ति घर में ही ध्यान लगाने लगे तो उससे बहुत लाभ होता है पर निरंकार के प्रति अपना भाव एकदम लगाना आसान नहीं होता इसलिये ही मूर्तियों के माध्यम से यह काम किया जा सकता है। यही ध्यान अध्यात्मिक ज्ञान सुनने और समझने में सहायक होता है और तब जीवन के प्रति नज़रिया ही बदल जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मंदिर और मूर्तियों का महत्व भी तब है जब उनसे अध्यात्मिक शांति मिले। बहरहाल इस फैसले से देश में राहत अनुभव की गयी यह खुशी की बात है।

——————————

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

हिन्दू अध्यात्म, हिन्दू धर्म,अयोध्या में रामलला, अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद कोर्ट का फैसला, हिन्दी साहित्य, समाज,अयोध्या में राम मंदिर, अयोध्या में राम जन्मभूमि, ayodhya mein ram mandir, ayodhya men ram mandir, ayodhya men ram janmabhoomi, ayodhya mein ram janmabhoomi, ram mandir par adalat ka faisla, ayodhya men ram janambhoomi, ayodhya mein ram janambhoomi, court vardict on ram mandir, court vardict on ram janama bhoomi, ayodhya mein ramlala, ayodhya mein ramlala

नीयत में भ्रष्टाचार-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (neeyat men bhrashtachar-hindi satire poem’s)


भ्रष्टाचार के विरुद्ध
अब कभी ज़ंग नहीं हो सकती,
अलबत्ता हिस्सा बांटने पर
हो सकता है झगड़ा
मगर मुफ्त में मिले पैसे को
हक की तरह वसूल करने में
किसी की नीयत तंग नहीं हो सकती।
————

मर गयी है लोगों की चेतना इस कदर कि
सपने देखने के लिये भी
सोच उधार लेते हैं,
अपनी मंज़िल क्या पायेंगे वह लोग
जो हमराह के रूप में कच्चे यार लेते हैं,
अपने ख्वाबों में चाहे कितने भी देखे सपने
आकाश में उड़ने के
पर इंसान को पंख नहीं मिले
फिर भी कुछ लोग उड़ने के अरमान पाल लेते हैं।
———-
लोगों में चेतना लाने का काम
भी अब ठेके पर होने लगा है,
जिसने लिया वह सोने लगा है,
मर गये लोगों के जज़्बात
मुर्दा दिलों में हवस के कीड़ों का निवास होने लगा है।
——-

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

आशिक खिलाड़ी-हिन्दी दिवस पर हास्य कविता (player and lover-comic poem on hindi diwas)


आशिक ने माशुका से कहा
‘तुम आज जाकर अपने माता पिता से
अपनी शादी की बात करना,
मेरी प्रशंसा का उनकी आंखों के सामने बहाना झरना,
उनको बताना
मेरा आशिक कई खेलों का खिलाड़ी है,
अपने प्रतिद्वंद्वियों की हालत उसने हमेशा बिगाड़ी है,
हॉकी में बहुत सारे गोल ठेलता है,
तो कुश्ती के लिये भी डंड पेलता है,
बहुत दूर तक भाला उछालता है,
तो बॉल भी उछल कर बॉस्केट में डालता है,
देखना वह खुश हो जायेंगे,
तब हम अपनी शादी बनायेंगे।’

जवाब में माशुका बोली
‘‘मैंने उनको यह सब बताया था,
पर उनको खुश नहीं पाया था,
उन्होनें मुझे समझाया कि
‘खिलाड़ी नहायेगा क्या
निचोड़ेगा क्या,
जो क्रिकेट नहीं खेले वह खिलाड़ी कैसा,
पैसा न कमाये वह होता अनाड़ी जैसा,
अगर खेल प्रतियोगिता का ठेकेदार होता
तो बात कुछ बनती,
कहीं मैदान बनवाता तो कहीं खरीदता खेल का सामान
तब कमीशन लेने पर ही जिंदगी उसकी छनती,
हमने तो बड़े बड़े खिलाड़ियों को सोने का पदक
पीतल के भाव बेचते देखा है,
कईयों को ठेला खींचते भी देखा है,
खेलने में मज़दूरी जितनी कमाई,
भला किसके काम आई,
अगर हो कोई खेल प्रबंधक तो ही
रिश्ता मंजूर है,
वरना उसके लिये दिल्ली अभी दूर है,’
इसलिये तुम खेलना बंद करो,
या मुझे भूल जाओ,
कहीं अपनी जुगाड़ लगाओ
इतने सारे संगठन हैं
कहीं सचिव या अध्यक्ष पद पर कब्जा कर
बढ़ाओ अपना सामाजिक सम्मान,
नामा और मिले और नाम,
वरना अपने सपने अधूरे रह जायेंगे।’’
———–

कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

आतंक और युद्ध में फर्क होता है-हिन्दी लेख (diffarence between terarrism and war-hindi aticle)


फर्जी मुठभेड़ों की चर्चा कुछ
इस तरह सरेआम हो जाती कि
अपराधियों की छबि भी
समाज सेवकों जैसी बन जाती है।
कई कत्ल करने पर भी
पहरेदारों की गोली से मरे हुए
पाते शहीदों जैसा मान,
बचकर निकल गये
जाकर परदेस में बनाते अपनी शान
उनकी कहानियां चलती हैं नायकों की तरह
जिससे गर्दन उनकी तन जाती है।
——–
टीवी चैनल के बॉस ने
अपने संवाददाता से कहा
‘आजकल फर्जी मुठभेड़ों की चल रही चर्चा,
तुम भी कोई ढूंढ लो, इसमें नहीं होगा खर्चा।
एक बात ध्यान रखना
पहरेदारों की गोली से मरे इंसान ने
चाहे कितने भी अपराध किये हों
उनको मत दिखाना,
शहीद के रूप में उसका नाम लिखाना,
जनता में जज़्बात उठाना है,
हमदर्दी का करना है व्यापार
इसलिये उसकी हर बात को भुलाना है,
मत करना उनके संगीन कारनामों की चर्चा।
———–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

भारत में भूत-हिन्दी हास्य कविता (bharat men bhoot-hindi hasya kavita)


पोते ने दादा से पूछा
‘‘अमेरिका और ब्रिटेन में
कोई इतनी भूतों की चर्चा नहीं करता,
क्या वहां सारी मनोकामनाऐं पूरी कर
इंसान करके मरता है,
जो कोई भूत नहीं बनता है।
हमारे यहां तो कहते हैं कि
जो आदमी निराश मरते हैं,
वही भूत बनते हैं,
इसलिये जहां तहां ओझा भूत भगाते नज़र आते हैं।’’

दादा ने कहा-
‘‘वहां का हमें पता नहीं,
पर अपने देश की बात तुम्हें बताते हैं,
अपना देश कहलाता है ‘विश्व गुरु’
इसलिये भूत की बात में जरा दम पाते हैं,
यहां इंसान ही क्या
नये बनी सड़कें, कुऐं और हैंडपम्प
लापता हो जाते हैं,
कई पुल तो ऐसे बने हैं
जिनके अवशेष केवल काग़ज पर ही नज़र आते हैं,
यकीनन वह सब भूत बन जाते हैं।’’
——–

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

कमीशन-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ


गरजने वाले बरसते नहीं,
काम करने वाले कहते नहीं,
फिर क्यों यकीन करते हैं वादा करने वालों का
को कभी उनको पूरा करते नहीं।
———
जिनकी दौलत की भूख को
सर्वशक्तिमान भी नहीं मिटा सकता,
लोगों के भले का जिम्मा
वही लोग लेते हैं,
भूखे की रोटी पके कहां से
वह पहले ही आटा और आग को
कमीशन में बदल लेते हैं।
——–

कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

अब अंधेरों से डरने लगे हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता


रौशनी के आदी हो गये, अब अंधेरों से डरने लगे हैं।
आराम ने कर दिया बेसुध, लोग बीमारियों से ठगे हैं।।
पहले दिखाया सपना विकास का, भलाई के ठेकेदारों ने
अब हर काम और शय की कीमत मांगने लगे हैं।।
खिलाड़ी बिके इस तरह कि अदा में अभिनेता भी न टिके
सौदागर सर्वशक्तिमान को भी सरेराह बेचने लगे हैं।
अपनी हालातों के लिये, एक दूसरे पर लगा रहे इल्ज़ाम,
अपना दामन सभी साफ दिखाने की कोशिश में लगे हैं।।
टुकुर टुकुर आसमान में देखें दीपक बापू, रौशनी के लिए,
खुली आंखें है सभी की, पता नहीं लोग सो रहे कि जगे हैं।।
————-

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका

बेईमान चढ़े हैं हर शिखर पर-हिन्दी शायरी (beiman shikhar par-hindi shayri)


उनके दिखाये सपनों का पीछा करते कई घर तबाह हो गये,
अंधेरे को भगाने के लिये जलाई आग में अंधे स्वाह हो गये।
जंग भड़काई थी जमाने में, ईमान और इंसाफ लाने के लिये
हार गये तो अपने ही दोस्तों के खिलाफ एक गवाह हो गये।
मुखौटा लगाया पहरेदार का, सब का भरोसा जीतने के लिये,
लुट गया सामान, भरोसा करने वालों के चेहरे स्याह हों गये।
जिंदगी बनाने का दावा करने वालों पर नहीं करना भरोसा,
बेईमान चढ़े हैं हर शिखर पर, ईमानदार अब तबाह हो गये।
———–

हंसना और रोना भी व्यापार है-हिन्दी शायरी (hansha aur rone ka vyapar-hindi shayri)
—————–
दौलत कमाने से अधिक वह
उसे छिपाने के लिये वह जूझ रहे हैं,
उनके अमीर होने पर किसी को शक नहीं
लोग तो बस उनके
काले ठिकानों की पहेली बूझ रहे हैं।
——–
इतनी दौलत कमा ली कि
उसे छिपाने के लिये वह परेशान है,
खौफ के साये में जी रहा खुद
फिर भी जमाने को लूटने से उसको फुरसत नहीं
उसकी अदाओं पर जमाना हैरान हैं।
———-
यूं तो दुनियां को वह
ईमान का रास्ता बताते है,
पर मामला अगर दौलत का हो तो
वह उसे खुद ही भटक जाते हैं।
——-
उनका हंसना और रोना भी व्यापार है,
पैसा देखकर मुस्कराते है,
कहो तो रोकर भी दिखाते हैं,
अकेले में देखो उनका चेहरा
लोग क्या, वह स्वयं ही डर जाते हैं।
———–

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

हवस और तकदीर-हिंदी शायरी


रोटी के भूखे को एक टुकड़ा भी
खुश कर जायेगा,
आधा पेट भरने पर भी
वह खुश हो जायेगा।
मगर अपनी हवस में ढूंढते हैं तकदीर
वह हमेशा रहेगा भूखा
जब तक सामने से आकर कोई
आंख में नश्तर न चुभा जायेगा।
———-
अपनी तबाही खुद करने पर
जब आमादा होता है इंसान,
हवस में ढूंढता है अमृत
चंद लफ्ज हमदर्दी के जताने वाले को
फरिश्ता समझ लेता है।
पेट की भूख तो मिटा देती है रोटी
पर हवस में अंधा इंसान
अपनी तकदीर अपने हाथ से बिगाड़ लेता है।
——–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

मनुष्य कभी बंदर नहीं रहा होगा-हिन्दी लेख (manushya kabhi bandar nahin tha-hindi lekh)


हमारे ब्लाग लेखक मित्र उन्मुक्त अपने आप में एक रहस्यमय व्यक्त्तिव के स्वामी हैं। उनके निज व्यक्त्तिव को लेकर कयास लगाते हुए अनेक ब्लाग लेखकों ने कुछ पाठ भी लिखें हैं। कुछ ब्लाग लेखक ऐसे हैं जो अब उनके बारे में कोई कयास नहीं लगाते। इसका कारण यह है कि उनके निज रहस्यों पर अनुमान करने की बजाय उनके लेखन के आधार पर बहुत कुछ समझ गये हैं। कोई आदमी अपना नाम गुप्त रखते हुए निवास अदृश्य स्थान पर बना सकता है पर अगर वह अपने हाथों से लिखकर बाहर शब्द भेजेगा तो वह उसकी पूरी कहानी बयान कर देंगे। इसके लिये यह जरूरी है कि उसका लिखा कोई पढ़े और फिर समझे। यकीनन उन्मुक्त अपने नाम के अनुरूप उन्मुक्त भाव से लिखते हैं और सच्चाई यह है कि उन जैसे पचास या सौ लेखक अगर इस इंटरनेट पर हिन्दी लिखने आ जायें तो भले ही हमारी भाषा के पाठों की संख्या कम हो पर उसका प्रभाव बहुत दूर तक रहेगा।
उनका ‘डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत’ की अवधारणाओं को भारत के प्राचीन हिन्दू धर्मग्रथों में ढूंढने का प्रयास एकदम नया है। सृष्टि के संबंध में इस लेखक द्वारा लिखे गये एक पाठ का उन्मुक्त जी ने उल्लेख करते हुए ‘डार्विन के विकासवाद’ के सिद्धांत को पतंजलि योग दर्शन में देखने का आग्रह करने के साथ ही एक पाठ लिख डाला।
यहां उन्मुक्त जी के उस पाठ की एक बात का उल्लेख करना जरूरी लगता है जिसमें उन्होंने भगवान विष्णु के चौदह अवतारों में मानव विकास के सिद्धांत को स्थापित करने का प्रयास किया है। उनके इस प्रयास ने हैरान कर दिया। पतंजलि योग दर्शन में विकास वाद के सिद्धांत को ढूंढने का उनका आग्रह अभी तक इस लेखक को समझ में नहीं आया पर यह अकारण या अतार्किक नहीं हो सकता जिस पर कभी विचार अवश्य करेंगे।
यह लेखक कभी विज्ञान का विधार्थी नहीं रहा पर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के वर्णनों को नये संदर्भों में देखने का प्रयास किया-वह भी इसलिये क्योंकि अंतर्जाल पर उस पर लिखने में मजा आने लगा। उन्मुक्त संभवतः आयु में इस लेखक से छोटे होंगे पर अंतर्जाल पर वरिष्ठ हैं और कहना चाहिए कि उनका विशद अध्ययन पहले ही प्रारंभ हो गया होगा। उन्मुक्त जी के डार्विन के विकासवाद बहुत सारे लेख देखने को मिले। भारत के प्राचीन ग्रंथों को नये संदर्भों में देखने की इच्छा के विषय में इस लेखक और उन्मुक्त जी की दिलचस्पी समान हो सकती है पर जहां पाश्चात्य विज्ञानियों के सिद्धांतों की तुलना की बात आयेगी वहां उन्मुक्त जी की बात का जवाब देना बहुत कठिन है क्योंकि उसके लिये आधुनिक विज्ञान का व्यापक अध्ययन होना आवश्यक है।
इस लेखक ने पश्चिमी वैज्ञानिक के विकासवाद के सिद्धांत के बारे में यह पढ़ा है कि ‘मानव पहले एक बंदर या उस जैसा जीव था। जिसकी पूंछ धीरे धीरे लुप्त होती गयी।’
उनके इसी सिद्धांत के कारण पूरा विश्व मानता है कि मनुष्य के पूर्वज बंदर थे।
यह लेखक उनके सिद्धांतों से असहमत होता है। वैसे इस लेखक ने एक पाश्चात्य विज्ञानी का ही एक लेख पढ़ा था जिसमें सभ्यता के विकास का वर्णन दिलचस्प था। उसमें बताया गया था कि मनुष्य अफ्रीका (शायद दक्षिण अफ्रीका) में प्रकट हुआ पर वहां उसे सभ्यता का ज्ञान नहीं था। वहां से वह भारत गया जहां उसका बौद्धिक परिष्कृतीकरण हुआ। फिर भारत से फिर वह मध्य एशिया गया जहां उसे अधिक ज्ञान मिला-एक तरह से कहें तो इस मायावी संसार की जानकारी। वह फिर भारत लौटा तथा धीमे धीमे बौद्धिक रूप से समृद्ध होकर पूरे विश्व में फैला। हम इन दोनों सिद्धांतों के बीच में खड़े होकर विचार करते हैं। इस लेखक का मानना है कि किसी भी सर्वमान्य सिद्धांत का अगर अवलोकन करना हो तो उसके साथ बहने की बजाय उसे बाहर निकलते हुए दृष्टा की तरह बहते हुए देखना चाहिये। हम किसी वैज्ञानिक के सिद्धांतों के प्रतिपादन के समर्थन में दिये तथ्यों के साथ बहते जायें अच्छी बात है, पर एक बार अपनी जगह पर मस्तिष्क स्थिर कर उसे सामने से आते देखें और फिर निष्कर्ष निकालें। जब डार्विन का सिद्धांत देखते है और आज का मनुष्य पर दृष्टिपात करते हैं तो लगता है कि अगर यह सही है कि मनुष्य कभी बंदर था पर सभी जगह उसका रूप बदल गया यह सही नहीं लगता। आखिर मनुष्य में दैहिक आधार पर अभी भी गोरे, काले, नाटे, लंबे, मोटे और पतले के आधार पर विभाजन दिखाई देता है वह क्यों नहीं समाप्त हुआ। मनुष्य देह तथा पांच तत्वों से बनी है-यह भारतीय अध्यात्म कहता है जबकि पाश्चात्य विज्ञान का यह मानना है कि अनेक प्रकार के छोटे अणु मिलकर इस संसार को बनाते हैं। हम पाश्चात्य ज्ञान को आधुनिक मानते हैं पर कभी पंच तत्वों का अवालोकन किया है! प्रथ्वी, आकाश, अग्नि, वायु तथा जल छोटे अणुओं या बूंदों के समूह से बनते हैं इसके लिये किसी विस्तार की आवश्यकता नहीं है। भारतीय दर्शन में इसका उल्लेख नहीं हुआ तो इसका कारण यह है कि इसकी जरूरत नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय ज्ञान परंपरा सभ्यता प्रारंभ होते ही निर्मित हो गयी थी। भारत में बौद्धिक रूप से समृद्ध होकर मनुष्य पूरे विश्व में फैला क्योंकि यहां ज्ञान की धारा में वह नहा चुका था। इधर जब पाश्चात्य समाज की शक्ति बढ़ी तो उसने अपने ढंग से सोचना प्रारंभ किया। जब वहां रहे मनुष्यों की स्मृति पीढ़ियों के साथ शनैः शनैः विलुप्त होती गयी तब वहां आधुनिक विज्ञान का प्रारंभ हुआ। उन्होंने खोज शुरु की पर यह सभ्यता प्रारंभ होने तथा आधुनिकता के चरम के बीच की थी। जबकि भारत में वेद जैसे महाग्रंथों की रचना तो मनुष्य जीवन के साथ ही प्रारंभ हो गयी थी। इसलिये ही जब भी कोई पाश्चात्य सिद्धांत सर्वमान्य होता है तो उसके तत्व भारतीय धर्मग्रंथों में मिलते हैं। विश्व सभ्यता के विकास का दूसरा सिद्धांत हम देखें तो इससे इस बात की पुष्टि होती है। भारतीय खोज प्राचीन है जबकि पाश्चात्य खोज नवीनतम है पर इससे मूल तत्व नहीं बदलते। हां, भाषा, भाव तथा संप्र्रेषण के तरीके में थोड़ी भिन्नता हो सकती है। खासतौर से तब जब भारतीय ग्रंथों की रचना के समय उसमें साहित्य का पुट देने का प्रयास किया गया तो उसमें व्यंजना विद्या के साथ अनेक प्रकार के शाब्दिक अलंकरण भी सजायें गये जिसमें चमत्कार होने का आभास भी होता है।
अब आते हैं उक्त पश्चिमी वैज्ञानिक के विकासवाद के सिद्धांत के सिद्धांत पर। उसमें दम नज़र नहीं  आता। मनुष्य यानि कोई एक नहीं बल्कि पुरा समुदाय। यह संभव नहीं है कि पूरे विश्व के मनुष्यों की पूंछ लापता हो जाये। अगर हम उनकी यह बात मान लें तो फिर यह सवाल भी आता है कि पूरे विश्व के मनुष्यों का रंग या कद काठी एक जैसी क्यों नहीं है! एक ही परिवार में रहने वाले व्यक्तियों के रंग, कद तथा चाल में अंतर कैसे होता है? अगर बंदर के रूप से मनुष्य का स्वरूप बदला तो फिर देह के अन्य हिस्सों में समानता क्यों नहीं  आयी?
कहने का अभिप्राय यह है कि यह सिद्धांत कल्पित लगता है। उन्मुक्त जी ने अवतारों की बात मानव विकास के सिद्धांतों से जोड़ने का प्रयास किया है। अच्छा और भावपूर्ण लगा। पर यहां भी याद रखने लायक यह बात है कि मत्स्यावतारहो या नरसिंह अवतार, जिस काल में हुए उस समय वर्तमान काल जैसी ही देहवाले ही मनुष्य थे। इसका आशय यह है कि उस समय तक मनुष्य का विकास हो चुका था। ऐसे में चाहे मत्स्यावतार हो या नरसिंह अवतार वह उस समय के समूचे मनुष्य समुदाय की दैहिक स्थिति का प्रतिबिम्ब नहीं कहे जा सकते।
मनुष्य के पूर्वज अगर बंदर होते तो पूरे विश्व में उनकी पूंछ लुप्त नहीं हो सकती थी। रीढ़ के हड्डी एकदम नीचे बने उभरे ठोस तत्व को देखकर वहां पूंछ होने की बात बेमानी है क्योंकि दरअसल पूरी देह का आधार स्तंभ है और हम यह मानते हैं कि सृष्टि ने हर चीज सोच समझकर बनायी है ताकि जीवन की धारा यहां बह सके। दूसरा यह भी कह सकते हैं कि बनी तो ढेर सारी चीजें होंगी पर जिनका वैज्ञानिक आधार मजबूत रहा वही आगे जीवन यात्रा जारी रख पायीं जैसे कि मनुष्य की रीढ़ की हड्डी का वह मूलाधार चक्र जहां पूंछ होने की कल्पना की जाती है।
आखिरी बात अगर मनुष्य बंदर था तो अभी भी इस धरती पर इतने सारे बंदर क्यों है? एक बदंर ने इस लेखक से हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद इस तरह छीन ले गया था कि जैसे कि उसका उस पर अधिकार हो, यह सरासर लूट थी पर बंदर तो कानून के दायरे से बाहर हैं। उस समय यह लेखक सोच रहा था कि क्या पूरी धरती पर जब मनुष्य धीरे धीरे अपनी पूंछ की लंबाई खो रहा था-कहा जाता है कि कुछ बंदर कपड़े पहनने लगे थे और इसके कारण उनकी पीढ़ियों का शनै शनै परिवर्तन हो रहा था-तब क्या बंदरों का एक समुदाय मनुष्य होने से बचने के लिये प्रयास कर रहा था ताकि भविष्य में सभ्य कानून उस पर लागू न हों और वह चाहे जैसी लूट करे कहलायेगा बंदर ही और बच जायेगा। शुरुआती दौर में मनुष्य और बंदरों मे अंतर अधिक नहीं रहा होगा पर धीरे धीरे संवाद की कमी के कारण ऐसा भी हो गया कि दोनों का संपर्क टूट गया। इस सिद्धांत पर यकीन न करने का कारण यह भी है कि इस धरती पर ऐसा कहीं सुनने को नहीं मिलता कि कोई मनुष्य कपड़े सिलवाने के लिये किसी दर्जी के पास गया हो और पूंछ वाली जगह पर छेद रखने का आग्रह करता हो। अगर बंदर से मनुष्य बना है तो एक नहीं ऐसे लाखों उदाहरण होते। जैसे मनुष्य अब काले, गोरे, नाटे, लंबे, मोटे, पतले तथा आदिवासी और आधुनिक वर्ग में बंटा हुआ, वैसे ही यहां पूंछ वाले और बिना पूंछ वाले दोनों प्रकार के मनुष्य होते। इतना ही नहीं विवाहों के अवसर पर यह तो देखा ही जाता कि हर दंपति पुंछ या बिना पूंछ वाला ही होना चाहिये वरना दोनों एक दूसरे की मजाक उड़ायेंगे। पूंछ की लंबाई भी देखी जाती। दूसरी बात यह कि अगर मनुष्य पूंछ वाले होते तो एक दूसरे की पूंछ खींचकर लड़ मर गये होते। उनकी इतनी बड़ी संख्या नहीं होती। चाहे कोई कितना भी कहें मानवीय स्वभाव जैसा आज है वैसा पहले भी था। यह बदल नहीं सकता। कुछ बातें व्यंग्य में लिखी है कुछ गंभीर हैं पर सच यह है कि यह सब इस लेखक के मन में बहुत समय से चलता रहा है। सो लिख दिया। इस विषय पर आगे भी लिखेंगे पर फिलहाल इतना ही।

————————–
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
————————

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

इस ब्लाग ने पार की एक लाख पाठक संख्या-विशेष संपादकीय


इस ब्लाग ने आज एक लाख की पाठक संख्या को पार किया।  एक लाख पार करने वाला यह इस लेखक का तीसरा ब्लाग है।  इसकी यह यात्रा बहुत सुस्त इस मायने में रही कि इसके बाद बने दो ब्लाग इस संख्या को पहले ही पार चुके हैं।  दिलचस्प बात यह कि इस लेखक ने अपने जीवन में अंतर्जाल जगत के हिन्दी लेखन के क्षेत्र में पदार्पण इसी ब्लाग से किया था।  इसके पिछडने का मुख्य कारण यह है कि इसका पता बहुत लंबा है और इसे बिना सोचे समझे बनाया गया था।  तब यह तकनीकी ज्ञान नहीं  था कि यह इसका पता है और इसे बदलना अब कठिन होगा।
बहरहाल सुस्त रफ्तार के बावजूद यह ब्लाग इस लेखक की पहचान तो है ही साथ ही गूगल की चार रैंक प्राप्त यह पांचवा ब्लाग है।  अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की यात्रा बिना किसी आर्थिक समर्थन तथा भावनात्मक प्रेरणा के बिना तय करना मुश्किल लगता है पर अगर स्वातं सुखाय लेखन हो तो यह कठिन नहीं रहता।
अक्सर लोग सवाल करते हैं कि आप इतने सारे ब्लाग का प्रबंध कैसे करते हो? दरअसल इसका कारण इस लेखक की स्वप्रेरणा और लापरवाही है। इतने सारे ब्लाग बनाये तब यह सोचा ही नहीं था कि इनका प्रबंध रैंक के बनाये रखने के लिये करना जरूरी होगा-यह लापरवाही थी। चूंकि इस लेखक को हर विद्या में लिखने का शौक है इसलिये इस बात के प्रति आश्वस्त था कि स्वप्रेरणा के स्त्रोत इतनी आसानी से नहीं सूखने वाले।  इतना क्यों लिखते हैं? सीधा सा जवाब है कि मनोरंजन के नाम पर लिखने से अधिक कोई अच्छा साधन नहंी दिखता।  खासतौर से गुरुजनों की कृपा था माता सरस्वती का आशीर्वाद इस स्वप्रेरणा में सहायक है। टीवी देखना, अखबार पढ़ना या रेडियो सुनना कोई बुरा साधन नहीं है बशर्ते कि आपके चिंतन के तत्व सुप्तावस्था में हों।  बाजार और उसका बंधुआ प्रचार माध्यम-जो स्वतंत्र होने का दावा भर करते हैं-अपना धार्मिक, शैक्षिक तथा उपभोग का ऐजेंडा सामने रखकर दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं को बंधुआ बनाये हुए हैं। उसमें वह सफल  भी हुए हैं।  अगर आप लेखक हैं तो अभिव्यक्त होने के लिये आपके पास इन्हीं माध्यमों के पास जाने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। दूसरा रास्ता यह है कि आप अपनी लेखन और चिंतन को सुप्तावस्था में रखकर बाजार और प्रचार माध्यमों के ऐजेंडे पर चलते जायें।
ऐसे में आप ब्लाग लिखकर अपनी अभिव्यक्ति को स्वतंत्र दिशा दे सकते हैं। मुश्किल यह है कि आपको तकनीकी ज्ञान होने के साथ हिन्दी या अंग्रेजी का टाईप का ज्ञान होना चाहिये। अगर आप ऐसा नहीं करते तो लिखकर किसी को यह काम सौंपे पर आपको यह अफसोस तो रहेगा कि आप स्वयं ऐसा नहंी कर पार  रहे। बाजार ने मोबाइल और  माउस हाथ में पकड़ाकर एक उंगली  के इशारे पर काम करना सिखाया है इसलिये अब कोई दसों उंगलियां चलाने वाला काम करना ही नहीं चाहता-टाईप सीखना लोगों को बोझिल लगता है। फिर इंटरनेट पर नये टाईप का मनोरंजन ढूंढने के लिये माउस जो है।  ऐसे में वह भाग्यशाली हैं जो स्वयं टाईप कर सकते हैं और यह लेखक उनमें शामिल है।  तब क्यों न परमात्मा को धन्यवाद देते हुए लिखते रहना चाहिये।
यह सच है कि अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने से कोई प्रसिद्धि नहीं मिलती पर यह भी तय है कि भविष्य का हिन्दी लेखन यहीं से होकर गुजरेगा।  इसके दो कारण है कि इस पर अव्यवसायिक लोगों का जमावड़ा होगा जो कि बिना किसी दबाव के लिखेंगे। दूसरा यह कि परंपरागत विद्याओं से अलग यहां पर संक्षिप्तीकरण का अधिक महत्व रहेगा। अगर हम यहां देखें तो गद्य और पद्य की दृष्टि से विषय सामग्री महत्वपूर्ण नहीं  जितना कि उसका भाव है।  सामान्य तौर से समाचार पत्र पत्रिकाओं में कवितायें देखकर मुंह बिचकाते हैं पर यहां ऐसा नहीं है। इसका कारण यह है कि कथ्य और तथ्य की रोचकता होने पर उसकी विद्या का महत्व अंतर्जाल पर अधिक नहीं
रहता।  कम से कम वर्डप्रेस के ब्लाग पर कविताओं को मिलने वाले समर्थन को देखकर तो यही लगता है।
जो लोग स्वतंत्र और मौलिक रूप से अंतर्जाल पर लिख रहे हैं वह लिखने के बाद इस बात में रुचि कम लें कि उनका लिखा कितना लोग पढ़े रहे हैं क्योंकि इससे वह कुंठा का शिकार हो जायेंगे।  दूसरी बात यह भी कि उनके पाठ दूसरे लोग नहीं  पढ़ते बल्कि उनके पाठ भी अपने पाठकों  को पढ़ते हैं। यह बात टिप्पणियों से तो पता लगती ही है। जब किसी पाठ को अधिक और निरंतर पढ़ा जा रहा है। दूसरे उसे लिंक दे रहे हैं तो समझ लीजिये कि आपकी लिखी बात आगे बढ़ रही है।  अपने लिखे का पीछा न कर दूसरों को भी पढ़ें।  सबसे बड़ी बात यह है कि लिखकर अपने लेखक होने का गुमान न पालकर एक पाठक हो जायें तब आप देखेंगे कि आपकी रचनायें कैसे स्वाभाविक रूप से बाहर आती है। जहां आपने सफलता की सोचा वहां लड़खड़ाने लगेंगे।  चित्रों को लगाकर परंपरागत प्रचार माध्यमों की बराबरी न करें क्योंकि शब्दों के खेल के सामने कोई भी तस्वीर टिक नहीं सकती।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि टीवी, रेडियो या अखबार से जुड़े रहने पर आप स्वयं अभिव्यक्त नहीं होते। किसी बात पर कुड़ते हैं तो कहें या लिखें कहां? ब्लाग इसके लिये बढ़िया साधन है।  किसी का नाम न लिखकर व्यंजना विधा में लिखें। इससे दो लाभ कि आप अपनी बात भी कह गये और दूसरे को मुफ्त में प्रचार भी नहंी दिया। इस अवसर ब्लाग लेखक मित्रों को उनके सहयोग के लिये धन्यवाद तथा पाठकों का आभार जिन्होंने इसे यहां तक पहुंचने में सहायता की।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर

जल संकट और हमदर्द-हिन्दी हास्य कविता (jal sakat aur hamdard-hindi hasya kavita)


लोगों के जल संकट से
हमदर्दी जताने के लिये उन्होंने
पूरा एक दिन सड़क पर
अनशन कर बिताया।
भले ही तंबू को चारों तरफ से ढंककर
गर्मी से बचने के लिये ऐसी भी लगवाया,
समय अच्छा बीते इसलिये टीवी भी चलवाया,
चेलों ने मजे लेकर नारे लगाये
उनको लोगों का सबसे बड़ा हमदर्द दिखाया।
———-

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.अनंत शब्दयोग

किताब और हादसे-हिन्दी हास्य कवितायें


दिन भर वह दोनों ज्ञानी

अपने शब्दों की प्रेरणा से

लोगों को लड़ाने के लिये

झुंडों में बांट रहे थे,

रात को ईमानदारी से

लूट में मिले सामान में

अपना अपना हिस्सा

ईमानदारी से छांट रहे थे।

——-

शब्द रट लेते हैं किताबों से,

सुनाते हैं उनको हादसों के हिसाबों से,

पर अक्लमंद कभी खुद जंग नहीं लड़ते।

नतीजों पर पहुंचना

उनका मकसद नहीं

पर महफिलों में शोरशराबा करते हुए

अमन की राह में उनके कदम

बहुत  मजबूती से बढ़ते।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का  चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका

बंटवारा-हास्य व्यंग्य कवितायें


<b>पहले जाति में बांटा
भाषा में छांटा
और धर्म में काटा
फिर समाज में एकता की कोशिश
अमन के ठेकेदार करने लगे।
नारी की तरक्की देखकर
हक के नाम पर लड़ाने के लिये
उसे भी अब बांटने, छांटने तथा काटने  के लिये जगे।
……………………………….
क्या पता नारियां आगे बढ़कर
कहीं दुनियां में एकता न स्थापित कर दें
इस खौफ से
जमाने की फूट पर रोटियां सैंकने वाले
कंपने लगे हैं।
इसलिये ही जाति, भाषा और धर्म के
अलग अलग खंडों में नारियों को भी बांटने लगे हैं।
————-
मां है
बहिन है
पत्नी है
और बेटी है
नारी हर रिश्ता ईमानदारी से निभाती है।
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
लड़ने वाले पुरुषों की जननी जरूर है
पर फिर भी अपनी निर्मलता पर नहीं उसे गरुर है
इज्जत के अहंकार में लड़ने वाले  पुरुष
जब उसके  हकों में पुराने जमाने के तर्क देने लगे
समझ लो उन्हें स्त्री सत्ता की आशंकायें सताती हैं।
—————-
जमाना बदल रहा है
महिलाओं के हकों के लिये
पुरुष भी लड़ने लगे हैं।
इसे चालाकी कहें या सादगी कि
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
महिलाओं को आगे लाने की बात कर
अपने समूहों के भले का नारा देने वाले ठेकेदार
अपनी रोटी सैंकने के लिये भी तत्काल जगे हैं। </b>
———
<b>लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com</b&gt;
————————————-
<blockquote>
<b>यह आलेख इस ब्लाग <a href=”http://rajlekh-patrika.com/”>‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’</a> पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
<a href=”http://rajlekh.wordpress.com/”>1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका</a>
<a href=”http://dpkraj.blogspot.com/”>2.दीपक भारतदीप का चिंतन</a>
<a href=”http://zeedipak.blogspot.com/”>3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका</a>लेखक संपादक-दीपक भारतदीप</b></blockquote>