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भारत में हिन्दीः आम और खास वर्ग की अलग अलग पहचान करती भाषा-हिन्दी लेख (comman and special class of hindi in india-hindi lekh)


भारत की खिल्ली उड़ाने वाले विदेशी लोग इसे ‘‘साधुओं और सपेरों का देश कहा करते थे। भारत के बाहर प्रचार माध्यम इसी पहचान को बहुत समय आगे बढ़ाते रहे पर जिन विदेशियों ने उस समय भी भारत देखा तो पाया कि यह केवल एक दुष्प्रचार मात्र था। हालांकि अब ऐसा नहीं है पर अतीत की छबि अभी कई जगह वर्तमान स्वरूप में विद्यमान दिखाई देती है। इससे एक बात तो मानी जा सकती कि आधुनिक प्रचार माध्यमों के -टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं- अधिकतर कार्यकर्ता जनमानस में अपनी बात स्थापित करने में बहुत सक्षम है। इसी क्षमता का लाभ उठाकर वह अनेक तरह के भ्रम मी सत्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अनेक लोग तो करते ही हैं। इस साधु और सपेरों की छबि से देश मुक्त हुआ कि पता नहीं पर वर्तमान में भी भारत की छबि को लेकर अनेक प्रकार के अन्य भ्रम यही प्रचार माध्यम फैलाते हैं और जिनका प्रतिकार करना आवश्यक है।
अगर हम इस पर बहस करेंगे तो पता नहीं कितना लंबा लिखना पड़ेगा फिर यह भी तय नहीं है कि बहस खत्म होगी कि नहीं। दूसरा प्रश्न यह भी है कि यह प्रचार माध्यम कार्यकर्ता कहीं स्वयं ही तो मुगालतों में नहीं रहते। पता नहीं बड़े शहरों में सक्रिय यह प्रचार माध्यम कर्मी इस देश की छबि अपने मन की आंखों से कैसी देखते हैं? मगर इतना तय है कि यह सब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न है और यहां की अध्यात्मिक ताकत को नहीं जानते इसलिये अध्यात्म की सबसे मज़बूत भाषा हिन्दी का एक तरह से मज़ाक बना रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि उनके पाठक, दर्शक तथा श्रोता केवल कान्वेंट पढ़े बच्चे ही हैं या फिर केवल वही उनके अभिव्यक्त साधनों के प्रयोक्ता हैं। मज़दूर गरीब, और ग्रामीण परिवेश के साथ ही शहर में हिन्दी में शिक्षित लोगों को तो केवल एक निर्जीव प्रयोक्ता मानकर उस पर अंग्रेजी शब्दों का बोझ लादा जा रहा है।
अनेक समाचार पत्र पत्रिकाऐं अंग्रेजी भाषा के शब्द देवनागरी लिपि के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं-कहीं तो कहीं तो शीर्षक के रूप में पूरा वाक्य ही लिख दिया जाता है। यह सब किसी योजना के तहत हो रहा है इसमें संशय नहीं है और यह भी इस तरह की योजना संभवत तीन साल पहले ही तैयार की गयी लगती है जिसे अब कार्यरूप में परिवर्तित होते देखा जा रहा है।
अंतर्जाल पर करीब तीन साल पहले एक लेख पढ़ने में आया था। जिसमें किसी संस्था द्वारा रोमन लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को लिखने के लिये प्रोत्साहन देने की बात कही गयी थी। उसका अनेक ब्लाग लेखकों ने विरोध किया था। उसके बाद हिन्दी भाषा में विदेशी शब्द जोड़ने की बात कही गयी थी तो कुछ ने समर्थन तो कुछ ने विरोध किया था। उस समय यह नहीं लगा था कि ऐसी योजनायें बनाने वाली संस्थायें हिन्दी में इतनी ताकत रखती हैं कि एक न एक दिन उनकी योजना ज़मीन पर रैंगती नज़र आती हैं। अब यह बात तो साफ नज़र आ रही है कि इन संस्थाओं में व्यवसायिक लोग रहते हैं जो कहीं न कहीं से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्राप्त कर ही आगे बढ़ते हैं। प्रत्यक्षः वह बनते तो हिन्दी के भाग्य विधाता हैं पर वह उनका इससे केवल इतना ही संबंध रहता है कि वह अपने प्रयोजको को सबसे अधिक कमा कर देने वाली इस भाषा में निरंतर सक्रिय बनाये रखें। यह उन लोगों के भगवान पिता या गॉड फादर बन जाते हैं जो हिन्दी से कमाने आते हैं। यह उनको सिफारिशें कर अपने प्रायोजकों के साथ जोड़ते हैं-आशय यह है कि टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में काम दिलाते होंगे। हिन्दी भाषा से उनका कोई लेना देना नहीं है अलबत्ता कान्वेंट मे शिक्षित  लोगों को वह हिन्दी में रोजगार तो दिला ही देते होंगे ऐसा लगता है। यही कारण है कि इतने विरोध के बावजूद देश के पूरे प्रचार माध्यम धड़ल्ले से इस कदर अंग्रेजी के शब्द जोड़ रहे हैं कि भाषा का कबाड़ा हुए जा रहा है। अब हिन्दी दो भागों में बंटती नज़र आ रही है एक आम आदमी की दूसरी खास लोगों की भाषा।
हिन्दी के अखबार पढ़ते हुए तो अपने ही भाषा ज्ञान पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषी होने का अपमान झेल रहे हैं। इससे भी ज्यादा इस बात की हैरानी कि आम आदमी के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव यह व्यवसायिक संस्थान कैसे रख रहे हैं। सीधी बात कहें तो देश का खास वर्ग और उसके वेतनभोगी लोग समाज से बहुत दूर हो गये हैं। यह तो उनका मुगालता ही है कि वह समाज या हिन्दी को अपने अनुरूप बना लेंगें क्योंकि इस देश का आधार अब भी गरीब, मज़दूर और आम व्यवसायी है जिसके सहारे हिन्दी भाषा जीवीत है। जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विश्व को दिखाने तक ही ठीक हैं। उस विकास को लेकर देश के प्रचार माध्यम झूम रहे हैं उसकी अनुभूति इस देश का आम आदमी कितनी करता है यह देखने की कोशिश नहंी करते। उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है क्योंकि उनकीभाषा आम आदमी के भाव से मेल नहीं खाती। वह साधु सपेरों वाले देश को दृष्टि तथा वाणी से हीन बनाना चाहते हैं। अपनी भाषा के विलुप्तीकरण में अपना हित तलाश रहे लोगों से अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह हिन्दी भाषा के सभ्य रूप को बने रहने देंगे।
हिन्दी के कथित विकास के लिये बनी संस्थाओं में सक्रिय बुद्धिजीवी भाषा की दृष्टि से कितने ज्ञाता हैं यह कहना कठिन है अलबत्ता कहीं न कहीं अंग्रेजी के समकक्ष लाने के दावे वह जरूर करते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी कई जगह सक्रिय हैं और हिन्दी भाषा के लिये गुरु की पदवी भी धारण कर लेते हैं। उनकी कीर्ति या संपन्नता से हमें कोई शिकायत नहीं है पर इतना तय है कि व्यवसायिक संस्थानों के प्रबंधक उनकी मौजूदगी इसलिये बनाये रखना चाहते हैं कि उनको अपने लिये हिन्दी कार्यकर्ता मिलते रहें। मतलब हिन्दी के भाग्य विधाता हिन्दी के व्यववायिक जगत और आम प्रयोक्ता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। इससे अधिक उनकी भूमिका नहीं है। ऐसे में नवीन हिन्दी कार्यकर्ता रोजगार की अपेक्षा में उनको अपना गुरु बना लेते हैं।
ऐसे प्रयासों से हिन्दी का रूप बिगड़ेगा पर उसका शुद्ध रूप भी बना रहेगा क्योंकि साधु और सपेरे तो वही हिन्दी बोलेंगे और लिखेंगे जो आम आदमी जानता हो। हिन्दी आध्यात्म या अध्यात्म की भाषा है। अनेक साधु और संत अपनी पत्रिकायें निकालते हैं। उनके आलेख पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसमें हिन्दी का साफ सुथरा रूप दिखाई देता है। अब तो ऐसा लगने लगा है हिन्द समाचार पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने से तो अच्छा है कि अध्यात्म पत्रिकायें पढ़कर ही अपने हिन्दी भाषी होने का गर्व महसूस किया जाये। अखबार में भी वही खबरें पढ़ने लायक दिखती हैं जो भाषा और वार्ता जैसी समाचार एजेंसियों से लेकर प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय समाचारों के लिये क्योंकि स्थानीय पत्रकार होते हैं इसलिये उनकी हिन्दी भी ठीक रहती है मगर आलेख तथा अन्य प्रस्तुतियां जो कि साहित्य का स्त्रोत होती हैं अब अंग्रेजीगामी हो रही हैं और ऐसे पृष्ठ देखने का भी अब मन नहीं करता। एक बात तो पता लग गयी है कि हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय एक समूह ऐसा भी है जो दावा तो हिन्दी के हितैषी होने का है पर वह मन ही मन झल्लाता भी है कि अंग्रेजी में छपकर भी वह आम आदमी से दूर है इसलिये वह हिन्दी भाषा प्रचार माध्यमों में छद्म रूप लेकर घुस आया है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का उसका इरादा केवल तात्कालिक आर्थिक हित प्राप्त करना ही है। वह हिन्दी का महत्व नहींजानता क्योकि आध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपने अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति के कारण ही बढ़ेगी न कि सतही साहित्य के सहारे। ऐसे में हिन्दी की चिंदी करने वालों को केवल इंटरनेट के लेखक ही चुनौती दे सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके पास आम पाठक का समर्थन नहीं है। 
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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आशिक खिलाड़ी-हिन्दी दिवस पर हास्य कविता (player and lover-comic poem on hindi diwas)


आशिक ने माशुका से कहा
‘तुम आज जाकर अपने माता पिता से
अपनी शादी की बात करना,
मेरी प्रशंसा का उनकी आंखों के सामने बहाना झरना,
उनको बताना
मेरा आशिक कई खेलों का खिलाड़ी है,
अपने प्रतिद्वंद्वियों की हालत उसने हमेशा बिगाड़ी है,
हॉकी में बहुत सारे गोल ठेलता है,
तो कुश्ती के लिये भी डंड पेलता है,
बहुत दूर तक भाला उछालता है,
तो बॉल भी उछल कर बॉस्केट में डालता है,
देखना वह खुश हो जायेंगे,
तब हम अपनी शादी बनायेंगे।’

जवाब में माशुका बोली
‘‘मैंने उनको यह सब बताया था,
पर उनको खुश नहीं पाया था,
उन्होनें मुझे समझाया कि
‘खिलाड़ी नहायेगा क्या
निचोड़ेगा क्या,
जो क्रिकेट नहीं खेले वह खिलाड़ी कैसा,
पैसा न कमाये वह होता अनाड़ी जैसा,
अगर खेल प्रतियोगिता का ठेकेदार होता
तो बात कुछ बनती,
कहीं मैदान बनवाता तो कहीं खरीदता खेल का सामान
तब कमीशन लेने पर ही जिंदगी उसकी छनती,
हमने तो बड़े बड़े खिलाड़ियों को सोने का पदक
पीतल के भाव बेचते देखा है,
कईयों को ठेला खींचते भी देखा है,
खेलने में मज़दूरी जितनी कमाई,
भला किसके काम आई,
अगर हो कोई खेल प्रबंधक तो ही
रिश्ता मंजूर है,
वरना उसके लिये दिल्ली अभी दूर है,’
इसलिये तुम खेलना बंद करो,
या मुझे भूल जाओ,
कहीं अपनी जुगाड़ लगाओ
इतने सारे संगठन हैं
कहीं सचिव या अध्यक्ष पद पर कब्जा कर
बढ़ाओ अपना सामाजिक सम्मान,
नामा और मिले और नाम,
वरना अपने सपने अधूरे रह जायेंगे।’’
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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तकदीर और चालाकियां-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (taqdir aur chalaki-hindi comic poems


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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अपने गम और दूसरे की खुशी पर मुस्कराकर

हमने अपनी दरियादिली नहीं दिखाई।

चालाकियां समझ गये जमाने की

कहना नहीं था, इसलिये छिपाई।

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अपनी तकदीर से ज्यादा नहीं मिलेगा

यह पहले ही हमें पता था।

बीच में दलाल कमीशन मांगेंगे

या अमीर हक मारेंगे

इसका आभास न था।

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रात के समय शराब  में बह जाते हैं

दिन में भी वह प्यासे नहीं रहते

हर पल दूसरों के हक पी जाते हैं।

अपने लिये जुटा लेते हैं समंदर

दूसरों के हिस्से में

एक बूंद पानी भी हो

यह नहीं सह पाते हैं।

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मुद्दा कथा चोरी का-व्यंग्य आलेख (mudda katha chori ka-hindi lekh)


यह पेज

पता नहीं उस लेखक के उपन्यास पर फिल्म बनी हैं या नहीं-जैसा कि वह दावा कर रहा है। बहरहाल फिल्म के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्माता-कई जगह नायक का अभिनय करने वाले अभिनेता भी फिल्म में पैसा लगाते हैं पर जाहिर नहीं करते-इससे इंकार कर रहे हैं। फिल्म निर्माता ने तो एक पत्रकार को इस विषय पर प्रश्न करने पर कह दिया-‘शटअप’।
इस विवाद में एक बात निश्चित है कि मुंबईया फिल्म बनाने वालों के पास कल्पनाशक्ति का अभाव है और उससे देखकर यह मजाकिया निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर फिल्म की कहानी कुंभ मेले से बिछड़े भाईयो बहिनों के मिलन, किसी मजबूर आदमी के भईया से भाई या बहिन जी बनने या किसी विदेशी फिल्म की देशी नकल न हो तो यकीनन वह किसी देशी लेखक की नकल है।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे एक ग्वालियर मित्र लेखक का है जो शायद बीस वर्ष से अधिक पुराना है। उन्होंने एक कहानी संग्रह बड़ी मेहनत से पैसा खर्च कर प्रकाशित कराया था। कहानियां ठीकठाक थी। किताब कोई अधिक प्रसिद्ध नहीं थी पर उनमें से एक कहानी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कुछ दिन बाद बनी एक फिल्म की कथा देखकर उन्होंने दावा किया कि वह उनकी कहानी की नकल है। उन्होंने इसके बारे में तथ्य देकर एक लेख स्थानीय समाचार पत्रों में लिखा था। बाद मेें क्या हुआ पता नहीं पर वह मित्र आज भी हमसे अक्सर मिलते रहते हैं। हम इस बारे में कोई प्रश्न नहीं करते कहीं उनको यह न लगे कि यह व्यंग्यकार जरूर कुछ हमारे बारे में अंटसंट लिखेगा-वह उस पत्रिका के संपादक भी रहे हैं जिसमें हमारे व्यंग्य प्रकाशित होते रहे हैं। सच बात कहें तो उस समय उनकी यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगी थी कि कोई बड़ा कलात्मक फिल्मों का निर्माता-आम धारा से हटकर बनी फिल्मों को कलात्मक भी माना जाता है-ऐसी हरकत कर सकता है। व्यवसायिक फिल्मों में उस समय कहानी के नाम पर तो कुछ होता ही नहीं था इसलिये यह आरोप तो कोई उन पर लगाता ही नहीं था।
बहरहाल समय के साथ हमें लगने लगा कि चाहे व्यवसायिक फिल्मकार हों या कलात्मक उनके पास कहानियों का नितांत अकाल है। फिल्मी दृश्यों के तकनीकी पक्ष में उनकी कल्पना शक्ति कितनी भी जोरदार हो कहानी और पटकथा में वह अत्यंत कमजोर हैं।
यह सुंदर, चमकते और ठुमकते हुए चेहरे चिंतन से शून्य हैं और जब कहीं साक्षात्कार होते हैं तब इनकी असलियत वहां दिखाई दे जाती है। अंग्रेजी में बोलेंगे ताकि हिन्दी भाषा का दर्शक औकात न भांप लें और सवालों पर ऐसे भड़केंगे कि जैसे वह हर जगह नायक या निर्देशक हों।
इसलिये हमें उस लेखक की बात पर अधिक यकीन है कि उसके उपन्यास से कहानी चुराकर अपनी पटकथा के साथ फिल्म वालों ने अपनी प्रस्तुति की हो। हालांकि वह लेखक अंग्रेजी का है पर है तो भारतीय। भारतीय लेखकों की कल्पनाशीलता लाजवाब है इस बात को शायद अंग्रेजी के साथ अंग्रेजों के भक्त स्वीकार नहीं करेंगे। यही कारण है कि अंतर्जाल के कुछ लेखक वैश्विक काल में हिन्दी के उद्भव की कामना करते हैं क्योंकि इसमें नया लिखे जाने की पूरी संभावना है। बहरहाल उस लेखक ने अपनी बात टीवी पर हिन्दी में रखी और ऐसा लगा कि उसका कहना सच भी हो सकता है। वैसे वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का अंग्रेजी का लेखक है इसलिये उसकी बात सुनी जायेगी पर बात यहीं खत्म नहीं होती। इससे पहले भी देश के कुछ हिन्दी लेखकों ने ऐसी शिकायतें की यह अलग बात है कि वह छोटे शहरों के थे और देश के प्रचार माध्यम केवल बड़े शहरों के लेखकों की बातों को ही अधिक महत्व देते हैं। टीवी वालों से इसे महत्व भी इसलिये दिया क्योंकि लेखक एक तो अंग्रेजी का है फिर वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है और वह भारतीय प्रचार माध्यमों का मोहताज नहीं है-हिन्दी वाला होता तो शायद उसे वह महत्व नहीं देते क्योंकि उससे उसके प्रसिद्ध होने का भय पैदा हो जाता। यह काम प्रचार माध्यम कभी नहीं कर सकते कि वह किसी हिन्दी भाषी लेखक को स्वयं लेखक बनायें। बन जाये तो फिर उसका उपयोग वह कर सकते हैं।
मुद्दे की बात यह है कि मुंबईया फिल्म वाले हिन्दी के मूल लेखकों का महत्व नहीं समझते-हमने सुना है कि प्रेमचंद फिल्म क्षेत्र छोड़कर अपनी साहित्य दुनियां में लौट गये। कवि नीरज भी वहां के रवैये से संतुष्ट नहीं थे। सच तो यह है कि आजतक एक भी हिन्दी का स्थापित लेखक फिल्म से नहीं जुड़ा है। यह हिन्दी लेखकों की कमी नहीं बल्कि फिल्म वालों की कमजोरी का प्रमाण है। वह अपनी दुनियां को चमकदार बनाये रखना चाहते हैं पर कहानियों के पक्ष को समझते नहीं। कुंभ मेले में बिछड़े बच्चों के मिलन या मजबूरी से भाई बने कहानी में उनको अच्छे और आकर्षक सैट दिखाने का अवसर मिलता है और वह ऐसी कहानियां अपने लिपिक नुमा लेखकों से लिखा लेते हैं। जिसे कहानी कहा जाता है उसे कभी फाइव स्टार होटल में या किसी इमारत में बैठकर केवल कल्पना से नहीं लिखा जा सकता है। उसके लिये जरूरी है कि सत्यता के पुट के लिये आदमी सड़क पर स्वयं निकले। अंधेरी गलियों में घूमे और ऊबड़ खाबड़ सड़कों में धूल फांके। यह उनके व्यवसायिक लेखकों के बूते का नहीं है। अब देखना यह है कि उस अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध लेखक के साथ फिल्म वालों का विवाद किस जगह पहुंचता है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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विज्ञान और ज़माना-हिन्दी व्यंग्य शायरी (vigyan aur zamana)


धरती  का खुदा

नहीं है बंदों से जुदा।

फिर भी धरती को बचाने के लिये

चंद लोग एकत्रित हो जाते हैं

कभी कोपेनहेगन तो कभी

रियो-डि-जेनेरियों में

महंगी महफिलें सजाते हैं

बिगाड़ दिया है दुनियां का नक्शा

अब फिर तय करने लगे है नया चेहरा

बन रहे  नये खुदा

सोचते ऐसे हैं जैसे

दुनियां के बंदों से हैं जुदा।

———

गोरों का राज्य मिट गया

पर फिर भी संसार पर हुक्म चलता है।

उसे बजाने के लिये हर

काला और सांवला मचलता है।

कुछ चेहरा है उनका गजब,

तो चालें भी कम नहीं अजब,

काला अंधेरा कर दिया

अपने विज्ञान से,

बीमार बना दिया सारा जमाना

अपने ज्ञान से,

बिछा दी चहुं ओर अपनी शिक्षा,

पढ़लिखकर साहुकार भी मांगे भिक्षा,

बिगाड़ दी हवा सारी दुनियां की

अब ताजी हवा को गोरे तरस रहे हैं,

सारे संसार पर अपने शब्दों से बरस रहे हैं,

विष  लिये पहुंचते हैं सभी जगह

अमृत की तलाश में

फिर भी दान नहीं मांगते

लूट का अंदाज है

फिर भी लोग उन्हें देखकर बहलते हैं।

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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धर्म और कमाई-हास्य साहित्य कविता


 

धर्म बन गयी है शय
बेचा जाता है इसे बाज़ार में,
सबसे बड़े सौदागर
पीर कहलाते हैं.
भूख, गरीबी, बेकारी और बीमारी को
सर्वशक्तिमान के  तोहफे बताकर
ज़माने को  भरमाते हैं.
मांगते हैं गरीब के  खाने के लिए पैसा
जिससे खुद खीर खाते हैं.
————————
धर्म का नाम लेते हुए
बढ़ता जा रहा है ज़माना,
मकसद है बस कमाना.
बेईमानी के राज में
ईमानदारी की सताती हैं याद
अपनी रूह करती है  फ़रियाद 
नहीं कर सकते दिल को साफ़ कभी 
हमाम में नंगे हैं सभी 
ओढ़ते हैं इसलिए धर्म का बाना.
फिर भी मुश्किल है अपने ही  पाप से बचाना..
 
 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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ज़िंदगी और परदे का सच-हिंदी व्यंग्य कविताएँ (zindagi aur parde ka sach-hindi vyangya kavitaen)


 इस देश का आदमी
उड़ना चाहता है ऊंची उड़ान
अपने पांवों में पुरानी ज़जीरों को बांधकर.
अपनी आँखों से परदे पर
देखकर आकाश का सुनहरा दृश्य
बहलता है  सपनों के साथ
फड़कते  हैं  उसके  हाथ
नकली नायकों की कामयाबी
देखकर ही  चल पड़ता है
अंधेरी राहों पर
उसे पाने का ठानकर..
——————————-
 
परदे पर जो तुम देख रहे हो
उसे मत समझना
झूठ को सच  की तरह
वहां सजाया जाता है..
दुनिया में जो हो सके
वही वहां दिखाया जाता है..
तुम्हारा सच ही तुमसे छिपाया जाता है
झूठ के रास्ते चलो
इसलिए तुमकों बहलाया जाता है..
 
 

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वादा और इंतजार-व्यंग्य कविता (vada aur intzar-hindi vyangya kavita)


गिला शिकवा खूब किया
दिन भर पूरे जमाने का
फिर भी दिल साफ हुआ नहीं।
इतने अल्फाज मुफ्त में खर्च किये
फिर भी चैन न मिला
दिल के गुब्बारों का बोझ कम हुआ नहीं।
इंसान समझता है
पर कुदरत का खेल कोई जुआ नहीं।
—————–
उन्होंने चमन सजाने का वादा किया
नये फूलों से सजाने का
पता नहीं कब पूरा करेंगे।
अभी तो उजाड़ कर
बना दिया है कचड़े का ढेर
उसे भी हटाने का वादा
करते जा रहै हैं
पता नहीं कब पूरा करेंगे।
इंतजार तो रहेगा
उनके घर का पेट अभी खाली है
पहले उसे जरूर भरेंगे।
तभी शायद कुछ करेंगे।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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तीक्ष्ण बुद्धि-हास्य कविता (sharp mind-hasya kavita)


आज के बच्चे
अपने माता पिता के बाल्यकाल से
अधिक तीक्ष्ण बुद्धि के पाये जाते
यह सच कहा जाता है।
किस नायिका का किससे
चल रहा है प्रेम प्रसंग
अपने जन्मदिन पर नायक की
किस दूसरे नायक से हुई जंग
कौन गायक
किस होटल में मंदिर गया
कौन गीतकार आया नया
कौनसा फिल्मी परिवार
किस मंदिर में करने गया पूजा
कहां जायेगा दूजा
रेडियो और टीवी पर
इतनी बार सुनाया जाता है।
देश का हर बच्चा ज्ञान पा जाता है।

……………………………

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हिंदी दिवस:व्यंग्य कवितायें व आलेख (Hindi divas-vyangya kavitaen aur lekh)


लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
……………………………
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
……………………….
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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शांति पर कोई शांति से नहीं लिखता-हिंदी व्यंग्य कविता (peace writting-hindi vyangya)


विध्वंस कानों में शोर करते हुए
आंखों को चमत्कार की तरह दिखता है।
इसलिये हर कोई उसी पर लिखता है।

अथक परिश्रम से
पसीने में नहाई रचना
शांति के साथ पड़ी रहती हैं एक कोने में
कोई अंतर नहीं होता उसके होने, न होने में।
आवाज देकर वह नहीं जुटाती भीड़
इसलिये कोई उस पर नहीं लिखता है।
…………………….
किसी के मन में हिलौरें
नहीं उठाओगे।
तो कोई दाम नहीं पाओगे।
हर किसी में सामथर्य नहीं होता
कि जिंदगी की गहराई में उतरकर
शब्दों के मोती ढूंढ सके
तुम सतह पर ही डुबकी लगाकर
अपनी सक्रियता दिखाओ
चारों तरफ वाह वाह पाओगे।

सच्चे मोती लाकर क्या पाओगे।
उसके पारखी बहुत कम है
नकली के ग्राहक बहुत मिल जायेंगे
पर तुम्हारे दिल को सच से
तसल्ली मिल सकती है
पर इससे पहले की गयी
अपनी मेहनत पर पछताओगे।

……………………

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बाजार में सजा स्वयंवर-हास्य व्यंग्य (bazar men swyanbar-hindi hasya vyangya)


वैसे तो भारतीय संस्कृति और संस्कारों में लोगों को ढेर सारे दोष दिखाई देते हैं पर फिर भी वह उसमें तमाम कथ्यों और तथ्यों की पुनरावृत्ति करते वही दिखाई देते हैं। भारतीय ग्रंथों में वर्णित हैं स्वयंवर की प्रथा। इसमें लड़की स्वेच्छा से वर का चुनाव करती है। भारतीय समाज में स्त्री को समान स्थान देने का दावा करने वाले इसी प्रथा का उदाहरण देते हैं।
सच बात तो यह है कि प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मनुष्य मन को मोह लेने वाले सारे तत्व हैं। इससे आगे यह कहें कि जैसे जिसकी दृष्टि है वैसे ही वह उसे दिखाई देते हैं। हम अपने इन्हीं ग्रंथों को देखें तो उनका यह संदेश साफ है कि जिस दृष्टि से इस दुनियां को देखोगे वैसे ही दिखाई देगी। भारतीय ग्रंथों से आगे अन्य कोई सत्य ढूंढ नहीं सकता। भारत पर हमला करने वालों ने सबसे पहले उन स्थानों को जलाया और नष्ट किया जहां से पूरे देश में ज्ञान पहुंचता था। उन स्थानों पर योगी, योद्धा और युग का निर्माण होता था।
यही हमलावर अपने साथ आधे अधूरे कचड़ा बुद्धि वाल ज्ञानी भी ले आये जिन्होंने चमत्कारों और लोभ के सहारे यहां अपने ज्ञान का प्रचार किया। उन्होंने समाज में भेद स्थापित किये और यहां अपना परचम फहराया।

वह और उनके चेले माया की चमक में उस गहरे ज्ञान को क्या समझते? उन्होंने तो बस हाथ ऊपर उठाकर सर्वशक्तिमान से धन ,सुख और दिल की शांति मांगना ही सिखाया। इसे हम सकाम भक्ति का भी सबसे विकृत रूप कह सकते हैं। जीवन का अंतिम सत्य मौत है, पर उन्होंने अपने को जिंदा दिखाने के लिये मुर्दों को पूजना सिखाया।
सुना है आजकल एक अभिनेत्री का स्वयंवर का प्रत्यक्ष प्रसारण किसी टीवी चैनल पर दिखाया जा रहा है। स्वयंवर भारतीय समाज की एक आकर्षक और मन लुभावनी परंपरा रही है पर यह सभी लड़कियों के लिये नहीं है। स्वयंवर अधिकतर धनी मानी और राजसी युवतियों के भी इस आशा के साथ होते थे क्योंकि उसमें योद्धा, बुद्धिमान और सुयोग्य वर आने की संभावना अधिक होती थी। सामान्य लड़कियों के लिये स्वयंवर कभी आयोजित किये गये हों इसकी जानकारी नहीं है। भारतीय महापुरुषों तथा परंपराओं को सही ढंग से लोग नहीं इसलिये इन स्वयंवरों का इतिहास भी जानना जरूरी है। जिन आधुनिक लड़कियों के मन में उस अभिनेत्री को देखकर स्वयंवर की इच्छा जागे वह जरा यह भी समझ लें कि इन स्वयंवरों के बाद का इतिहास उन महान महिलाओं के लिये तकलीफदेह रहा है जो इन स्वयंवरों की नायिकायें थी।
सबसे पहले श्रीसीता जी के स्वयंवर का इतिहास देख लें। उनके पिता को अपनी असाधारण पुत्री-याद रहे वह राजा जनक को हल जोतते हुए मिली थी-के लिये असाधारण वर की आवश्यकता थी। श्रीराम के रूप में वह मिला भी। श्रीराम जी और श्रीसीता जी की यह जोड़ी पति पत्नी के रूप में आदर्श मानी जाती है पर दोनों ने कितने कष्ट उठाये सभी जानते हैं।
दूसरा स्वयंवर द्रोपदीजी का प्रसिद्ध है। उसके बाद जो महाभारत हुआ तो उससे श्रीगीता के संदेश इस विश्व में स्थापित हुआ। द्रोपदी को जीवन में कितना कष्ट हुआ सभी जानते हैं।
तीसरा स्वयंवर भी हुआ है जिसमें नारद जी ने भगवान विष्णु से श्रीहरि जैसा चेहरा मांग लिया तो उन्होंने वानर जैसा दे दिया। अपमानित होकर लौटे नारद ने भगवान श्री विष्णु को शाप दिया कि कभी न कभी आपको वानर की सहायता लेनी पड़ेगी। श्रीरामावतार के रूप में यह शाप उन्होंने भोगा। जिसमें वानरों की सहायता लेनी पड़ी और उसमें भी श्रीहनुमान तो सेवक होते हुए भी श्रीहरि जैसे ही प्रसिद्ध हुए।
च ौथा स्वयंवर संयोगिता का है जिसमें से श्री प्रथ्वीराज उनका अपहरण कर ले गये। इतिहासकार मानते हैं कि वहां से जो इस देश में आंतरिक संघर्ष प्रारंभ हुआ तो वह गुलामी पर ही खत्म हुआ।
स्वयंवर एक अच्छी परंपरा हो सकती है पर सामान्य लोगों द्वारा इसे कभी अपनाया नहीं गया। वजह साफ है कि राजा या धनी आदमी के लिये तो कोई भी दामाद चुनकर उसको संरक्षण दिया जा सकता है पर सामान्य आदमी को देखदाख कर ही अपनी पुत्री का विवाह करना पड़ता है। विवाह का मतलब होता है गृहस्थी बसाना। विवाह एक दिन का होता है पर गृहस्थी तो पूरे जीवन की है। इसमें आर्थिक और सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है।
वैसे एक बात समझ में नहीं आती कि आधुनिक समय में जो लोग आजादी से जीना चाहते हैं वह किसलिये विवाह के बंधन में फंसना चाहते हैं। अब तो अपने देश में बिना विवाह साथ रहने की छूट मिल गयी है। यहां याद रखने वाली है कि विवाह एक सामाजिक बंधन हैं। जो समाज आदि को नहीं मानते हुए इश्क के चक्कर में पड़ते हैं फिर इस सामाजिक बंधन के ंमें फिर उसी समाज को मान्यता क्यों देते हैं। कहीं धर्म बदलकर तो कहीं जाति बदलकर विवाह करते हैं। एक तरफ प्यार की आजादी की मांग उधर फिर यह विवाह जैसा सामाजिक बंधन! कभी कभी यह बातें हास्य ही पैदा करती हैं।
टीवी पर आता है कि प्यार पर समाज का हमला। अरे, भई जब आप अपने प्यार को एक समाज की विवाह प्रथा छोड़कर दूसरे की अपनाओगे तो हारने वाले समाज को तो गुस्सा आयेगा। यह स्वयंवर भी इसी तरह की परंपरा है। हिन्दू धर्म के आधार ग्रंथों की रचना के पीछे ऐसे ही स्वयंवर है पर फिर भी लोग इसे अब नहीं अपनाते।
आखिर में जाति और लिंग के आधार पर भेद करने वाली जिन ऋचाओं, श्लोकों और दोहों को हमारा हिन्दू समाज आज भले ही नहीं मानता पर उन्हीं की आड़ में उनकी आलोचना होती है पर जिसे पूरे समाज ने कभी नहीं अपनाया उसी स्वयंवर प्रथा का बाजारीकरण कर दिया। भई, यह बाजार है। आजकल इसमें स्वयंवर सज रहा है क्योंकि उससे बाजार पैसा कमा सकता है।
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जो सभी को पसंद हो वही कहो -हास्य कविता


प्रवचन करते समय
गुरुजी ने भक्तों को समझाया।
‘‘भ्रष्टाचार करना होता बहुत बड़ा शाप
दहेज समाज के लिये है एक शाप
इसी कारण देश और समाज
कभी आगे बढ़ न पाया।’‘

फिर गौर किया सामने तो
पूरा पंडाल खाली पाया
उन्होंने पूछा अपने शिष्य से
तो वहां से भी बड़ा दर्दनाक उत्तर आया।

‘महाराज, बोलने के लिये
बस क्या दो ही विषय थे
ध्यान, योग, और भक्ति पर
चाहे कुछ बोल देते
इस तरह लोगों की नाराजी तो न मोल लेते
भ्रष्टाचार का मायने भी जानते हैं आप
अपनी जेब में पैसा जाये तो कमाई
दूसरे करे तो पाप
मिट रहा है समाज पर
दहेज विरोध की बात नहीं करता आत्मसात
कन्या भ्रुण को गर्भ में मिटाकर
करने पर उतारू है आत्मघात
रग रग मेे जो पहुंचे गये रोग
अब बने व्यसन, जिसके नशे में जी रहे लोग
आपने शायद गुरु जी से
शिक्षा सही ढंग से नहीं पायी
‘लोगों को जो पसंद है वही बोलो’
यही नीति उन्होंने हमेशा अपनाई
इसलिये इतनी लोकप्रियता पाई
आपने उत्तराधिकार में जो गद्दी
उनसे पाई
समझो वह गंवाई
इस दहेज और भ्रष्टाचार पर बोलकर
आपने हमें भी संकट में पहुंचाया।’’
………………………..

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हारने पर इनाम-हास्य व्यंग्य (hasya vyangya)


आठवीं कक्षा ‘अ’ के छात्रों को उनके शिक्षक ने बताया कि उनका उसी विद्यालय की आठवीं की अन्य कक्षा ‘ब’ से एक दस ओवरीय मैच होगा और जीतने वाली टीम के सभी सदस्यों को प्लास्टिक का चीन में निर्मित एक खिलौना, पेन, और कापी के साथ एक स्टील का कप भी मिलेगा।
एक छात्र ने पूछ लिया कि ‘सर, आप हमें जीतने वाला नहीं हारने वाला इनाम बताईये। हमने सुना है कभी कभी हारने वाले को अधिक पुरस्कार मिलता है।’
शिक्षक ने समझा कि वह मजाक कर रहा है इसलिये कह दिया कि-‘कप को छोड़कर बाकी सब चौगुना मिलेगा।’
अगले दिन मैच हुआ और ‘अ’ वाले हार गये। जीतने वाली टीम को सभी के सामने बकायदा इनाम से नवाजा गया। पुरस्कार बांटे जाते समय हारने वाले छात्र भी तालियां बजा रहे थे। यह देखकर सातवीं कक्षा के एक छात्र-जो हारी टीम के सदस्यों के ठीक पीछे ही खड़ा हुआ था- को गुस्सा आ गया पर उसने प्रेम से बोलना सिखाने वाली एक गोली खाकर हारी हुई टीम के खिलाड़ी से कहा-‘तुम लोगों को शर्म नहीं आती। एक तो हार गये फिर जीतने वालों को पुरस्कार मिलने पर तालियां बजा रहे हो।’
उस मासूम परास्त योद्धा ने कहना चाहा-‘जीतने वाले से चौगुना…..’’
इससे पहले ही उसके साथी खिलाड़ी ने उसे कुहनी मारते हुए कहा-‘‘चुप! अपनी असलियत सभी को मत बता। यह अंदर की बात है। ऐसे तो तुम कभी तरक्की नहीं कर पाओगे।’’
परास्त योद्धा की बात पूरी नहीं हो पायी। इनाम वितरण कार्यक्रम समाप्त हो गया। थोड़ी देर बाद परास्त टीम के छात्र अपना गुप्त इनाम लेने कक्षा शिक्षक के पास पहुंचे और बोले-‘सर, हम बड़ी ईमानदारी से हारे। किसी को हवा तक नहीं लगने दी कि हारने के लिये खेल रहे हैं। अब लाईये हमारा चौगुना इनाम!’
कक्षा शिक्षक की आंखें फटी रह गयी और वह बोले-‘पागल हो गये हो!’ हारने वाली टीम को भी भला कभी इनाम मिलता है। अगर इसी तरह खेलों में हारने वाले को भी पुरस्कार मिलने लगे तो जीतने के लिये खेलेगा कौन?’
एक छात्र ने मासूमियत से जवाब दिया-‘जिसे चौगुना इनाम नहीं मिलेगा। वह जरूर खेलेगा। हमारे बाबा क्रिकेट के पुराने और पापा नये प्रेमी हैं। उन्होंने बताया था कि एक मैच ऐसा भी हुआ था जिसमें दोनों टीमें हारना चाहती थीं क्योंकि तब हारने पर अधिक इनाम मिलना था।’
कक्षा शिक्षक ने उनको झिड़क दिया। यह सोचकर कि बच्चे इस तरह मान जायेंगे। मगर ऐसा हुआ नहीं। उनमें से कुछ बच्चे अगले दिन अपने पालकों को ले आये। पालकों ने आकर कक्षा शिक्षक को घेर लिया।
एक पालक ने कहा-‘‘मेरा लड़का तूफानी बालर है। उसकी गेंद के आगे कोई नहीं टिक सकता। कल उसने चौगुने इनाम की लालच में ढीली और धीमी गेंद डाली। अपनी भद्द पिटवायी। अब उसका इनाम दो नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं।’
दूसरे पालक ने कहा-‘‘मेरा लड़का क्रिकेट की गेंद को ऐसा मारता है जैसे कि वह उसको फुटबाल दिख रही हो। कल दो रन बनाकर आउट हो गया। उसके मन में चौगुना इनाम पाने का सपना था। अब तुम चाहे जैसे भी उसका इनाम भरो।’
कक्षा शिक्षक की हवाईयां उड़ रही थी। मामला प्रिंसिपल तक जा पहुंचा। वह भी घबड़ा गये। एक बार तो उनके मन में आया कि चौगुना इनाम देकर अपने विद्यालय की लाज बचायें पर दूसरे शिक्षक ने उनको बताया कि उससे तो वह और बर्बाद हो जायेगी।
तब एक बूढ़ा चपरासी उनकी मदद को आगे आया। उसने हारने वाले छात्रों से जिरह की।
चपरासी ने पूछा-‘क्या तुमने कक्षा ‘ब’ के छात्रों से पहले इस बारे में चर्चा की थी ताकि वह भी हारने का प्रयास करें?’
छात्रों ने कहा-‘नहीं।’
चपरासी ने कहा-‘क्या तुममें से कोई अनफिट था जो मैदान में उतर गया हो।’
छात्रों ने कहा-‘नहीं।’
चपरासी ने फिर पूछा-‘तुममें से किसी ने लंगड़ाते हुए गेंद डाली। क्या कोई रनआउट या हिट विकेट हुआ? क्या किसी ने रनआउट या कैच का अवसर मिलने पर उसे छोड़ा? जिससे लगे कि तुम हारने के लिये खेल रहे हो!
छात्रों ने एक स्वर से कहा-‘नहीं! हम बहुत सफाई से हारे हैं।’
चपरासी ने कहा-‘एक भी तो सबूत तुम्हारे पास नहीं है। कैसे मान लिया जाये कि तुम हारने के लिये खेले? बेईमानी के भी कुछ उसूल होते हैं। तुम्हारे शिक्षक ने मजाक किया तो तुमने सच मान लिया। यह भी तो सोचो कि इस विद्यालय के लिये दोनों कक्षायें एक समान हैं इसलिये यह कैसे हो सकता है कि तुम्हारी कक्षा को तो यह बताया जाये कि हारने पर चौगुना इनाम मिलेगा पर दूसरी टीम के छात्रों को अंधेरे में रखा जाये। इसलिये अब भूल जाओ।’
पालकों के बात समझ में आ गयी। छात्र भी कोई सबूत छोड़ने में विफल रहे थे इसलिये चुप्पी साधने में ही अपनी भलाई समझी। सभी चले गये। कक्षा शिक्षक ने चैन की सांस ली और चपरासी ने कहा-‘बच गया।’
चपरासी ने कहा-‘महाशय बच कैसे गये। मेरा हिस्सा भी तो दो। हारने पर ग्यारह छात्रों को जो इनाम दिया जाना था वह क्या पूरा डकार जाओगे। मेरा कमीशन भी तो दो।’
कक्षा शिक्षक ने कहा-‘अरे यार, तुम भी बच्चों जैसे बातें करने लगे। अरे, भई यह तो प्रिंसिपल साहब जानते हैं कि ऐसा कोई इनाम नहीं दिया जाने वाला था। अगर मुझ पर विश्वास न हो तो उनसे जाकर पूछ लो।’
चपरासी ने कहा-‘अब क्या आपसे जिरह करूं! मुझे मालुम होता तो कभी उन लोगों से आपको नहीं बचाता। मैंने सोचा कि कुछ मिल जायेगा। अब सब माल आप और प्रिंसिपल साहब हड़पना चाहते हो तो अलग बात है।’

कक्षा शिक्षक अपने बाल नौचते हुए बोले-‘अरे, तुम क्या बात कर रहे हो? भला हारने पर भी किसी खेल में इनाम मिलता है?’
चपरासी कंधे उचकाते हुए बोला-‘मुझे नहीं पता? पर सुना तो है। इस दुनियां में सब चलता है साहब!’
चपरासी कुटिलता से कक्षा शिक्षक की तरफ देखता हुआ चला गया। कक्षा शिक्षक आकाश की तरफ देखते हुए बोला-‘हे, सर्वशक्तिमान! क्या ऐसा भी होता है?’

नोट यह एक काल्पनिक हास्य व्यंग्य है और इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है पर अगर किसी की कारिस्तानी इससे मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

——————————

यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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समाज और खानदान की छबि -दो व्यंग्य क्षणिकायें


जिन कहानियों में हर पल
क्लेशी पात्र सजाये जाते
उसी पर बने नाटक
सामाजिक श्रेणी के कहलाते
सच है समाज के नाम पर
लोग भी खुशी कहां पाते।
………………..
जिनकी बेइज्जती
सरेआम नहीं की जाती
बड़े खानदान की छबि उनकी बन जाती।
फिर भी बड़े खानदान पर
यकीन नहीं करना
उनकी बेईमानी भी
ईमानदारी की श्रेणी में आती।

……………………….

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बिना मेकअप के अभिनय-हास्य व्यंग्य कविता


फिल्म का नाम था
‘नौकरानी ने बनी रानी’
जोरदार थी कहानी।
निर्देशक ने अभिनेत्री से कहा
‘आधी फिल्म में मेकअप बिना
आपको काम करना होगा
फटी हुई साड़ियों को ओढ़ना होगा
फिल्म जोरदार हिट होगी
अभिनय जगत में आपकी ख्याति का
नहीं होगा कोई सानी।’
अभिनेत्री ने कहा-‘
नये नये निर्देशक हो
इसलिये नहीं मुझे जानते हो
बिना मेकअप के चाहे कोई भी पात्र हो
उसका अभिनय नहीं करूंगी
सारी दुनियां में मुझे सुंदरी कहा जाता है
मेकअप के बिना तो मैं
अपना चेहरा आईने में खुद ही नहीं देखती
बिना मेकअप के तो कई बार
मैंने अपनी सूरत भी नहीं पहचानी।
अपने शयनकक्ष से ही बाहर
मैं मेकअप लगाकर आती हूं
अपनी मां को शक्ल ऐसे ही दिखाती हूं
ढेर सारे मेरे चाहने वाले
जब मेरी असल शक्ल देख लेंगे
तो आत्महत्या कर लेंगे
पड़ौस के लड़के जो
पल्के बिछाये मुझे देखते हैं
वह भी मूंह फेर लेंगे
जहां तक साड़ियों की बात है
तो आजकल काम वाली बाईयां भी
बन ठन कर घूमती हैं
ढेर सारी फिल्में ऐसी बनी हैं
जिनमें वह नई साड़ी में अपने
सजेधजे बच्चों को चूमती हैं
इसलिये अगर फिल्म में
मुझसे अभिनय कराना हो तो
महंगी साड़ियां ही मंगवाना
मेकअप का सामान हर हालत में जुटाना
चाहे बनाओ नौकरानी या रानी।’

…………………………

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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कबीर दास के दोहे: अंधों के आगे रोना, अपनी आँखें बेकार में खोना


संत कबीरदास जी का कहना है
———————

गाहक मिलै तो कुछ कहूं, न तर झगड़ा होय
अन्धों आगे रोइये अपना दीदा खोय

कि कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो अपनी बात समझता हो तो उससे कुछ कहें पर जो बुद्धि से अंधे हैं उनके आगे कुछ कहना बेकार अपने शब्द व्यर्थ करना है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल हर कोई बस अपनी बात कहने के लिये उतावला हो रहा है। किसी की कोई सुनना नहीं चाहता। दो व्यक्ति आपस में मिलते हैं। एक कहता है कि ‘मेरे लड़के की नौकरी नहीं लगी रही’ तो दूसरा तत्काल कहता है कि ‘मैं भी अपने लड़के लिये लिये दुकान ढूंढ रहा हूं’। एक कहता है कि ‘मेरी लड़की की शादी तय हो गयी है’ तो दूसरा तत्काल कहता है कि ‘मेरी लड़की की शादी पिछले माह हुई थी, वह घर आयी है‘। तात्पर्य यह है कि किसी की बात सुनकर उसमें मुख्य विषय के शीर्षक-जैसे लड़का,लड़की,माता पिता,भाई बहिन और चाचा चाची-एक शब्द पर ही आदमी बोलने लगता है। अनेक बार वार्तालाप में शामिल होकर मौन रहे और देखें कि कौन किसकी कितनी सुना है। तब इस बात की अनुभूति होगी कि सभी अपनी बात कहने के लिये उतावले हो रहे हैं। तब ऐसा लगता है कि उनके बीच में अपने शब्द बोलकर समय और ऊर्जा व्यर्थ करना ही है। कई बार तो ऐसा होता है कि ऐसे वार्तालाप में लोग सकारात्मक शब्द तो भूल जाते हैं पर नकारात्मक भाव के आशय दूसरों को सुनाकर बदनाम भी करते हैं। इसलिये अपनी बात ऐसे लोगोंे से ही कहनी चाहिये जो अच्छी तरह सुनते और समझते हों।
……………………….

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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खाली जुबान से कैसे जीतोगे-हिन्दी शायरी


वहम और दिखावे से कैसे जंग लड़ोगे
इंसानी दिमाग की फितरत है
अच्छी हो या बुरी
किसी सोच की गुलामी करना
तुम खाली जुबां से कैसे जीतोगे
उस अंधेरे से
जब तक अल्फाजों की नई रौशनी नहीं भरोगे।

आदमी का दिल कितना भी दरिया हो
ख्यालों के दायरे उसके बहुत तंग हैं
चलते हैं उधार की सोच पर सभी
अपने अल्फाज़ नहीं तय करते वह कभी
दोस्त हो या दुश्मन
जो दिखाये सपने, होते उसी के संग हैं
रौशनी के चिराग बुझ जाते हैं
कितना भी बचो, अंधेरे फिर भी आते हैं
मंजिल का पता नहीं
रास्ते सभी भटके हैं
फिर भी उम्मीद पर
किताबी कीड़ों के घर पर लटके हैं
शायद वह कोई अल्फाज़ों से निकालकर
मंजिल का पता बता दे
कैसे बताओगे उनको
सही मंजिल और रास्ते का पता
जब तक तुम अपनी सोच को
खुद ही रौशन नहीं करोगे

…………………………..

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‘मेरे पास बस प्यार है’ -hasya kavita


प्रेमी अपनी प्रेमिका का हाथ
माँगने  उसकी  माँ के पास पहुँचा 
तब वह गुस्से में बोली
‘तुम्हारे पास क्या है 
गाड़ी, बंगला  या बैंक बेलेंस 
प्रेमी फिल्मी स्टाइल  में बोला
‘मेरे पास  बस प्यार है’
प्रेमिका की माँ भड़क गयी गयी
और चिल्लाकर बोली 
‘उसका क्या मेरी बेटी अचार डालेगी 
यह कमाकर  तुम्हें पालेगी 
यह हर महीने नया सूट खरीद कर लाती है 
तुम्हें जिस मोबाइल से करती है फोन
उसमे सिम बाप के पैसे से डलवाती है
तुम इसके खर्च उठा सकोगे
क्या है तुम्हारे पास  
प्रेमी बोला
‘मेरे पास बस प्यार है’
 
प्रेमिका अपनी माँ से नाराज होकर बोली 
‘मम्मी तुम मेरी इसके साथ 
शादी कराने पर राजी हो जाओ 
नहीं तो में अपनी जान दे दूँगी या
 इसके  साथ भाग जाऊंगी ‘
माँ खुश होकर बोली
‘बेटी इसमें पूछना क्या 
कल को भागती है
आज ही भाग जा 
बाकी मैं संभाल लूँगी’
वह अपने कमरे से 
अपना सामान उठाकर ले आई
और प्रेमी से बोली
‘चलो अब यहाँ से निकलते हैं
कहीं और बसते हैं’
‘ठीक है कुछ पैसे भी रख लेना
तुम्हारे प्यार में पिताजी के दिये 
सब पैसे तुम  पर खर्च का दिया
अब जो बचा
मेरे पास बस प्यार है’
 
 
पहले तो प्रेमिका हतप्रभ  रह गयी
और फिर सोचते हुए बोली
‘इससे काम नहीं चलेगा 
यह घर छोड़ा तो यहाँ भी फिर
यहाँ भी  नो एन्ट्री का बोर्ड लगेगा   
कुछ तो होगा तुम्हारे  पास
प्रेमी बोला
‘मेरे पास बस प्यार है’
 
प्रेमिका को  गुस्सा  आ गया और बोली 
‘तुम अब अकेले चले जाओ
इस तरह नहीं चल सकती जिन्दगी की गाड़ी
प्यार तो है चार दिन का 
फिर तो चाहिये मुझे गहने और साड़ी
फिर भी प्रेमी नहीं मान रहा था
आखिर माँ-बेटी ने धकेल कर
उसे  घर से बाहर निकाला    
वह बस ऐक ही रट   लगाये जा  रहा था
‘मेरे पास बस प्यार है’
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बहस करने का फैशन-हास्य व्यंग्य कविताएँ


नारी की आज़ादी विषय पर
उन्होने महफ़िल सजाई
दर्शक दीर्घा में पुरुषों के लिए भी
कुर्सी सजाई
पूछने पर बोलीं
“नारी और पुरुष को
प्राकृतिक रूप से अलग करना कठिन है
ऐसे ही जैसे समय का आधार रात और दिन है
बहस करने का फैशन हो गया है
नहीं करेंगे तो लगेगा महिलाओं का
दिमाग़ कहीं सो गया है
महिलाएँ तो बहस करेंगी
पर तालियों के लिए तरसेंगी
पुरुष इस काम को करेंगे खुशी से
इसलिए यह कुर्सियाँ सजाईं”
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नारियों के विषय पर हुए सम्मेलन से
लौटते हुए एक दर्शक ने दूसरे से कहा
“यार अपने को तो दर्शक दीर्घा में बैठाकर
महिलाओं ने खूब भाषण सुनाए
हमारी आलोचना में खूब बुरे विचार बताए
मेरे तो कोई बात समझ में नहीं आई
फिर भी हमेशा ताली बजाई”

दूसरे ने कहा
“मैं तो अपने सुनने की मशीन
घर पर ही छोड़ आया
जब तुमने ठोके हाथ
तब मैने भी ताली बजाई
समझने समझाने की बात भूल जाओ
हम तो मेकअप और चैहरे देखने आए थे
अपनी पॉल न खुले
इसलिए ही मैने भी ताली बजाई

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