Category Archives: सूचना

जलवायु परिवर्तन पर गंभीर नहीं हैं अमीर देश-हिंदी लेख


कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन को लेकर जोरदार सम्मेलन हो रहा है। इसमें गैस उत्सर्जन को लेकर अनेक तरह की बहसें तथा घोषणायें चर्चा में सामने आ रही हैं। ऐसा लगता है कि यह मुद्दा अब इतना राजनीतिक हो गया है कि सभी देश अपने अपने बयानों ने प्रचार में अपना शाब्दिक खेल अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। इधर भारत में भी तमाम तरह की बहस देखने को मिल रही है। यह सच है कि विकसित देशों ने ही पूरी दुनियां का कचड़ा किया है पर इससे विकासशील देश अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते क्योंकि वह भले ही विकास न कर पायें हों पर उनका प्रारूप विकसित देशों जैसा ही है। दूसरी बात यह है कि अपने देश के बुद्धिजीवी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार में अपनी देश की शाब्दिक बढ़त दिखाकर अमेरिका तथा चीन के मुकाबले अपने देश को कम गैस उत्सर्जन करने वाला बताकर एक कृत्रिम देश भक्ति का भाव प्रदर्शन कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन गैस के उत्सर्जन का मुद्दा महत्वपूर्ण हो सकता है पर प्रथ्वी के पर्यावरण से खिलवाड़ केवल इसी वजह से नहीं हो रहा। पर्यावरण से खिलवाड़ करने के लिये तो और भी अनेक कारण सामने उपस्थित हैं जिसमें पेड़ पौद्यों का कटना तथ वन्य जीवों की हत्या शामिल है। इसके अलावा कारखानों द्वारा जमीन के पानी का दोहन तथा उनकी गंदगी का जलाशयों में विसर्जन भी कम गंभीर मुद्दे नहीं है। गंगा और यमुना के पानी का हाल क्या है सभी जानते हैं।
उस दिन टीवी समाचारों में देखने को मिला जिनमें भारत के कुछ जागरुक लोग कोपेनहेगन में विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित करने का अभियान चलाये हुए हैं। अच्छी बात है पर क्या ऐसे जागरुक लोग भी दुनियां भर के विशिष्ट समुदाय द्वारा तय किये ऐजेंडे पर समर्थन या विरोध कर केवल आत्मप्रचार की अपनी भूख शांत करना चाहते हैं? क्या भारत में पर्यावरण संकट से निपटने के लिये कोई बड़ा जागरुकता अभियान नहीं चलाया जा सकता।
एक दो साल पहले दक्षिण भारत का ही एक प्रसंग आया था। वहां एक कोला कंपनी ने अपने कारखाने के लिये जमीन के पानी का इतना दोहन किया कि वहां के आसपास के मीलों दूर तक का भूजल स्तर नीचे चला गया। इसके लिये अमेरिका में प्रदर्शन हुए पर क्या इस देश के कथित जागरुक लोगों ने एक बार भी उस विषय का कहीं विस्तार किया? यह केवल दक्षिण का ही मामला नहीं है। देश के अनेक स्थानों में जलस्तर नीचे चला गया है। वैसे तो लोग यही कहते हैं कि यह निजी क्षेत्र के नागरिकों द्वारा अनेक बोरिंग खुदवाने के कारण ऐसा हुआ है पर इनमें से कुछ ऐसे कारखानेदार भी हैं जो जमकर पानी का दोहन कर पानी का जलस्तर नीचे पहुंचा रहा हैं। यह केवल एक प्रदेश या शहर की नहीं बल्कि देशव्यापी समस्या है। क्या जागरुक लेागों ने कभी इस पर काम किया?
रास्ते में आटो या टैम्पो से जब घासलेट का धुंआ छोड़ा जाता है तब वहां से गुजर रहे आदमी की क्या हालत होती है, यह भी एक चर्चा का विषय हो सकता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जलवायु और पर्यावरण को लेकर भारतीय जनमानस के सामने अन्य देशों को शाब्दिक प्रचार में खलनायक बनाकर शब्दिक बढ़त दिखाकर उसकी देशभक्ति का दोहन करना ठीक नहीं है। अगर गैस उत्सर्जन समझौता हो गया तो भारत पर आगे विकसित राष्ट्र गलत प्रकार से दबाव डालेंगे-ऐसा कहकर खाली पीली डराने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि जलवायु परिवर्तन या पर्यावरण प्रदूषण से अपना देश भी कम त्रस्त है-इसके लिये अंतर्राष्ट्रीय कारणों के साथ घरेलू परिस्थतियां भी जिम्मेदार हैं। सर्दी के मौसम में भ्ीा अनेक प्रकार की गर्मी पड़ रही है-यह गैस उत्सर्जन की वजह से हो सकता है। इसकी वजह से जलस्तर नीचे जायेगा यह भी सच है पर पानी के दोहन करने वाले बड़े कारखाने इसमें अधिक भूमिका अदा करें तो फिर सवाल अपने देश की व्यवस्था पर उठेंगे। यह आश्चर्य की बात है कि अनेक बुद्धिमान लोगों ने इस पर बयान देते हुए केवल विदेशी देशों पर ही सवाल उठाकर यह साबित करने का प्रयास किया कि इस देश की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है। यह सच है कि विकसित राष्ट्रों पर न केवल गैस उत्सर्जन को लेकर दबाव डालना चाहिये बल्कि उनके परमाणु प्रयोगों पर भी सवाल उठाना चाहिये, पर साथ ही अपने देश में आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य व्यवस्थायें हैं उनके दोष भी देखने हों्रगे। विषयों का विभाजन करने की पश्चिमी रणनीति है। वह एक से दूसरा विषय तब तक नहीं मिलाते जब तक उनका हित नहीं होता। वह पर्यावरण की चर्चा करते हुए गैरराजनीतिक होने का दिखावा करते हैं पर अगर बात उनके पाले में हो तो राजनीतिक दबाव डालने से बाज नहीं आते।
अगर विश्व समुदाय एक मंच पर एकत्रित होकर काम न भी करे तो भी देश के जागरुक तथा अनुभवी लोगों को भारत में पर्यावरण सुघार के लिये काम करना चाहिये। इसके लिये विश्व समुदाय या सुझाये गये कार्यक्रमों और दिनों पर औपचारिक बयानबाजी करने से कोई हल नहीं निकलने वाला।

काव्यात्मक पंक्तियां
———
मौन को
कोई कायरता तो
कोई ताकत का प्रतीक बताता है।
पर सच यही है कि
मौन ही जिंदगी में अमन लाता है।
———
कृत्रिम हरियाली की चाहत ने
शहरों को रेगिस्तान बना दिया
सांस के साथ
अंदर जाते विष का
अहसास इसलिये नहीं होता
हरे नोटों ने इतना संवेदनहीन बना दिया।

————–
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
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रौशनी करने का सदियों पुराना अभियान-व्यंग्य कविता (raushni ka abhiyan-vyangya kavita)



दीपावली पर घर में
आले में बने मंदिर से लेकर
गली के नुक्कड़ तक
प्रकाश पुंज सभी ने जला दिये।

अंतर्मन में छाया अंधेरा
सभी को डराता है
लोग बाहर ढूंढते हैं, रौशनी इसलिये।

ज्ञान दूर कर सकता है
अंदर छाये उस अंधेरे को
पर उसके लिये जानना जरूरी है
अपने साथ कड़वे सत्य को
जिससे दूर होकर लोग
हमेशा भाग लिये।

कौन कहता है कि
लोग खुशी में रौशनी के चिराग जला रहे है,ं
सच तो यह है कि लोग
बाहर से अंदर रौशनी अंदर लाने का
अभियान सदियों से चला रहे हैं
मगर आंखों से आगे सोच का दरवाजा बंद है
बाहर प्रकाश
और अंदर अंधेरा देख कर
घबड़ा जाते हैं लोग
धरती को रौशन करने वाला आफताब भी
इंसान के मन का
अंधेरा दूर न कर सका
तो क्या रौशन करेंगे यह तेल के दिये।

………………………..
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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हिंदी दिवस:व्यंग्य कवितायें व आलेख (Hindi divas-vyangya kavitaen aur lekh)


लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
……………………………
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
……………………….
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

सनसनीखेज ख़बर और रोटी-हास्य व्यंग्य कविता


बोरवेल का ढक्कन खुला देख कर
सनसनी खबर की तलाश में भटक रहे
संवाददाता ने कैमरामेन से कहा
^रुक जाओ यहाँ
लगता है अपनी सनसनीखेज खबर पक रही है
अपनी टांगें वैसे ही थक रही है.

पास से निकल रहा चाय की रेहडी वाला भी रुक गया
और बोला
^साहब अच्छा हुआ!
आज अतिक्रमण विरोधी अभियान कि वजह से
मैं दूसरी जगह ढूंढ रहा था
आपके शब्द कान में अमृत की तरह पड़े
अब रुक यही जाता हूँ
आपको छाया देने के लिए
प्लास्टिक की चादर लगाकर
बैठने के लिए बैंच बिछाता हूँ
भगवान् ने चाहा तो दोनों का
काम हो जाएगा
कोई बदकिस्मती से गिरा इस गड्ढे में
तो लोगों का हुजूम लग जाएगा
आपकी सनसनीखेज खबर के साथ
मेरी भी रोटी पक जायेगी
अगर आप बोहनी कराओ तो अच्छा
इसके लिए सुबह से मेरी आँखें तक रही हैं.
————————-
नोट-यह व्यंग्य कविता काल्पनिक है तथा किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है. कोई संयोग हो जाये तो यह महान हास्य कवि उसके लिए जिम्मेदार नहीं है.

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अभिनव बिंद्रा ही है असली इंडियन आइडियल-आलेख


ओलंपिक मेंं अभिनव बिंद्रा का स्वर्ण पदक जीतना बहुत खुशी की बात है इसका कारण यह है कि भारत में खेल जीवन का एक अभिन्न अंग माना जाता है और हर वर्ग का व्यक्ति इसमें रुचि लेता है पर कई कारणों वश भारत का नाम विश्व में चमक नहीं पाया।

पिछले कई वर्षों से क्रिकेट का आकर्षण लोगों पर ऐसा रहा है कि हर आयु वर्ग के लोग इसे खेलते और देखते रहे। अनेक जगह ऐसे प्रदर्शन मैच भी होते हैं जहां बड़ी आयु के लोग अपना खेल दिखाते हैं क्योंकि इसमें कम ऊर्जा से भी काम चल सकता है। कई जगह महिलाएं भी प्रदर्शन मैच खेलती रही हैं। मतलब इसका फिटनेस से अधिक संबंध नहीं माना जाता। वेसे भी अंग्रेज स्वयं ही इसे बहुत समय तक साहब लोगों का खेल मानते हैं और जहां उनका राज्य रहा है वहीं वह लोकप्रिय रहा है। यह अलग बात है कि प्रतियोगिता स्तर पर एकदम फिट होना जरूरी है पर भारतीय क्रिकेट टीम को देखें तो ऐसा लगता है कि सात खिलाड़ी चार बरस तक अनफिट हों तब भी टीम चल जाती है। भारत में शायद हाकी की जगह क्रिकेट को इसलिये ही बाजार में महत्व दिया गया कि कंपनियों के लिये माडलिंग करने वाले कुछ अनफिट खिलाड़ी भी अन्य खिलाडि़यों के सहारे अपना काम चला सकते हैं। हाकी,फुटबाल,व्हालीबाल,और बास्केटबाल भी टीम के खेल हैं पर उनमें दमखम लगता है। अधिक दमखम से खिलाड़ी अधिक से अधिक पांच बरस तक ही खेल सकता है, पर क्रिकेट में एसा कोई बंधन नहीं है। अब भारतीय क्रिकेट टीम की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। इसके बावजूद प्रचार माध्यम जबरन उसे खींचे जा रहे हैं।

अभिनव बिंद्रा ने व्यक्तिगत स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता है। अपने आप में यह उनकी एतिहासिक जीत है। वह संभवत इस ओलंपिक के ऐसे स्वर्ण पदक विजेता होंगे जो लंबे समय तक अपने देश में सम्मान प्राप्त करेंगे। अन्य देशों के अनेक खिलाड़ी स्वर्ण पदक प्राप्त करेंगे तो उस देश के लोग किस किसका नाम याद रख पायेंगे आखिर सामान्य आदमी की स्मरण शक्ति की भी कोई सीमा होती है। सर्वाधिक बधाई प्राप्त करने वालों में भी उनका नाम शिखर पर होगा। उनकी इस उपलब्धि को व्यक्तिगत दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। देश के अधिकतर खेलप्रेमी लोग केवल टीम वाले खेलों पर ही अधिक ध्यान देते हैं जबकि विश्व में तमाम तरह के खेल होते हैं जिनमें व्यक्तिगत कौशल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है।
अभिनव बिंद्रा की इस उपलब्धि से देश में यह संदेश भी जायेगा कि व्यक्तिगत खेलों में भी आकर्षण है। अभी साइना बैटमिंटन में संघर्ष कर रही है। मुक्केबाज भी अभी मैदान संभाले हुए हैं। सभी चाहते हैं कि यह सभी जीत जायंे। ओलंपिक में जीत का मतलब केवल स्वर्ण पदक ही होता है। ओलंपिक ही क्या किसी भी विश्व स्तरीय मुकाबले में जीत का मतलब कप या स्वर्णपदक होता है। यह अलग बात है कि हमारे देश मेंे जिम्मेदारी लोग और प्रचार माध्यम देश को भरमाने के लिये दूसरे नंबर पर आयी टीम को भी सराहते हैंं। इसका कारण केवल उनकी व्यवसायिक मजबूरियां होती हैं। सानिया मिर्जा विश्व में महिला टेनिस की वरीयता सूची में प्रथम दस क्या पच्चीस में ं भी कभी शामिल नहीं हो पायी पर यहां के प्रचार माध्यम उसकी प्रशंसा करते हुए नहीं थकते। कम से कम अभिनव बिंद्रा ने सबकी आंखें खोली दी हैं। लोगों को यह समझ मेंं आ गया है कि किसी भी खेल में उसका सर्वोच्च शिखर ही छूना किसी खिलाड़ी की श्रेष्ठता का प्रमाण है।

भारतीय दल एशियाड,राष्ट्रमंडल या ओलंपिक मेें जाता है तो यहां के कुछ लोग कहते हैं कि ‘हमारा देश खेलने में विश्वास रखता है जीतने में नहीं। खेलना चाहिए हारे या जीतें।’
यह हास्यास्पद तक है। कुछ सामाजिक तथा आर्थिक विश्ेाषज्ञ किसी भी देश की प्रगति को उसकी खेल की उपलब्धियों के आधार पर ही आंकते हैं। जब तक भारत खेलों में नंबर एक पर नहीं आयेगा तब तक उसे कभी भी विश्व में आर्थिक या सामरिक रूप से नंबर एक का दर्जा नहीं मिल सकता। भारत में क्रिकेट लोकप्रिय है देश के अनेक लोग इसे गुलामी का प्रतीक मानते हैं। उनकी बात से पूरी तरह सहमत न भी हों पर इतना तय है कि अन्य खेलों में हमारे पास खिलाड़ी नहीं है और हैं तो उनको सुविधायें और प्रोत्साहन नहीं है। अभिनव बिंद्रा सच में असली इंडियन आइडियल है। अभी तक लोगों ने टीवी पर फिल्मी संगीत पर नाचते और गाते इंडियन आइडियल देखे थे उनको अभिनव की तरफ देख कर यह विचार करना चाहिए कि वह कोई नकली नहीं है। उन्होंने कोई कूल्हे मटकाते हुए कप नहीं जीता। ओलंपिक में स्वर्ण पदक हासिल करना कोई कम उपलब्धि नहीं होती। अपना अनुभव धीरज के साथ उपयोग करते हुए पूरे दमखम के साथ उन्होंने यह स्वर्ण पदक जीता है। वह भारत के अब तक के सबसे एतिहासिक खिलाड़ी हैं। अभी तक किसी भी भारतीय ने भी ऐसी व्यक्तिगत उपलब्धि प्राप्त नहीं की है। ध्यानचंद के नेतृत्व वाली हाकी टीम के बाद अब उनकी उपलब्धि ही एतिहासिक महत्व की है। जिस खेल में उन्होंने भाग लिया उसमें पूरे विश्व के खिलाड़ी खेलते हैं और वह क्रिकेट की तरह आठ देशों में नहीं खेला जाता। ऐसे अवसर पर अभिनव बिंद्रा को बधाई। वैसे उनका खेल निरंतर चर्चा में नही आता पर उनकी उपलब्धि हमेशा चर्चा में रहेगी।
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वर्डप्रेस का ब्लाग वेबसाइट वाले ब्लागरों की टिप्पणियां स्पैम में क्यों रख देता है-आलेख


कृपया वेबसाइट पर लिखने वाले ब्लाग लेखक इस बात का ध्यान रखें कि उनके द्वारा मेरे वर्डप्रेस के ब्लाग पर रखी गयी कमेंट स्पैम में चलीं जातीं हैं और मुझे उन्हें स्वयं माडरेट करना पड़ता है। यह अनुभव मुझे पिछले दिनों ही हुआ है। मैंने वर्डप्रेस के ब्लाग पर टिप्पणियां स्वीकार करने का कोई अधिकार नहीं रखा पर वह बिना वेबसाइट वाले ब्लाग लेखकों की ही टिप्पणियां सीधे प्रकाशित करता है। इसमें मेरी तरफ से कोई त्रुटि नहीं की गयी है और अगर कोई इस बारे में जानता हो तो कृपया बताये।

हालांकि पहले मैंने पहले स्पैम में कई ब्लाग लेखकों की टिप्पणियां देखी थीं तब मैंने सोचा था कि मेरी गलती से ही ऐसा हुआ होगा। यह सूचना मैंने इसलिये दी है कि कुछ ब्लाग लेखक माडरेशन का अधिकार रखने से नाराज होते हैं और अगर वह वेबसाइट पर लिख रहे हैं तो यह बात जान लें कि यह तकनीकी मसला है न कि मेरा कोई ऐसा इरादा है। ब्लाग स्पाट के ब्लाग पर ऐसी कोई रोक नहीं है और वहां वेबसाइट पर लिखने वालों की टिप्पणियां सीधे आ जातीं हैं। वेबसाइट पर लिखने वाले ब्लाग लेखकों की टिप्पणी सीधे प्रकाशित हो सके ऐसा कोई उपाय हो तो अवश्य बतायें।

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ब्लाग यानि अखबार और किताब-आलेख


अगर मुझसे कोई सवाल करता है कि अंतर्जाल पर क्या लिख रहे हो तो मेरा एक ही जवाब होता है कि‘ब्लाग पर लिखता हूं।’
फिर सवाल पूछा जाता है-‘ब्लाग यानि क्या?’
अब मेरे लिये बहुत मुश्किल होता है यह जवाब देना क्योंकि इसका कोई आधिकारिक हिंदी अनुवाद मेरे पास उपलब्ध नहीं है। तब मैं कहता हूं कि यह समझो कि‘जैसे अपनी समाचार पत्र या पत्रिका की तरह ही समझो।’
लोग आराम से मेरी बात समझ जाते हैं। हालांकि उनका अगला प्रश्न होता है कि-‘इसमें तुम्हें मिलता क्या है?’
तब मुझे बताना पड़ता है कि अभी ऐसी संभावना नहीं बनी है।’
उस दिन एक मित्र ने मुझसे कहा-‘यार, मेरी पत्नी एक स्कूल में टीचर है वहां निकलने वाली एक पत्रिका के लिये उसे एक निबंध चाहिये । कोई पुराना लिखा हो तो बता दो या फिर नया लिख दो।’
मैने उससे कहा-‘अलग से तो मैं कुछ लिखने से रहा पर अगर तुम मेरे घर आकर सभी ब्लाग देख लो और जो पसंद आ जाये तो उसे फ्लापी,सीडी, या पेन ड्राइव में ले जाओ।’
उसने कहा-‘ इंटरनेट तो उसी स्कूल में है तुम तो ब्लाग का पता दे दो।’

दो दिन बाद वह प्रिंट कर ले आया और बोला-‘यार, यह लेख मेरी पत्नी को पसंद आया पर इस पर थोड़ा कुछ और लिख दो मजा आ जाये। यह कुछ छोटा है।’

मैंने उस लेख को देखा और उस ब्लाग पर जाकर वहां से वह लेख ले आया और यूनिकोड से कृतिदेव में परिवर्तित कर विंडो में लाया और फिर उसमें जोड़कर उसे सीडी में दे दिया ताकि वह प्रिंट करा सके। चलते समय उसने कहा-‘यह ब्लाग तो वाकई काम की चीज है। यह एक अखबार की तरह भी है और किताब की तरह भी।
मैंने तुम्हारी कम से कम पांच लेखों की कापी निकलवाई थी और यह इसलिये ले आया कि इसमें संशोधन करा सकूं।’

यह बात आज से चार माह पुरानी है और मेरे से कई लोग कहते हैं कि अपनी रचनायें दो तो मैं उनसे कहता हूं कि तुम मेरे ब्लाग से उठा लो, पर कई लोग सुविधा होते हुए भी उसका लाभ नहीं उठा सकते। कारण यह है कि लोग यहां परंपरावादी हैंं। अभी भी लेखक को एक फालतू का आदमी समझा जाता है। ऐसा माना जाता है कि अगर वह मशहूर नहीं है तो किसी काम का नहीं है। अक्सर मैं सोचता था कि कोई प्रकाशक मिल जाये तो अपनी किताब छपवा लूं। मरे एक मित्र ने अपनी क्षणिकाओं की किताब छपवाई थी और वह चाहता था कि इस संबंध में वह किसी ई-पत्रिका से संपर्क कर इसे अंतर्जाल पर प्रचारित करे। उस समय मैंने नया कंप्यूटर केवल इस इरादे से लिया था कि उस पर आपन लेख टाईप करूंगा और बाहर का कोई काम आया तो उसे भी कर दूंगा। कंप्यूटर में सौ घंटे का इंटरनेट टाईम फ्री मिला। उससे पांच दस घंटे काम किया और वह फिर बंद हो गया। मेरे मित्र ने एक ई-पत्रिका का पता दिया और मैं उसे ढूंढने में लग गया पर वह नहीं मिली तो दूसरी हाथ लग गयी। उस पर लेख लिखा। उस समय सद्दाम को फांसी दी गयी थी और अंतर्जाल पर इस संबंध में मेरा आलेख वहां छपा। इधर यह विचार बना कि चलो अपना कनेक्शन लगा लेते हैंं।

ब्लाग पर काम करना शुरू किया तब पता लगी इसकी ताकत क्या है? आज एक जगह पढ़ा कि आस्+ट्रेलिया में टीवी चैनलों और अखबारों को इंटरनेट ने पीछे छोड़ दिया है। एक दिन यह यहां भी होना है। जैसे अंतर्जाल पर ब्लाग लेखन बढ़ता जायेगा वैसे पाठक भी इधर आयेगा। जैसे प्रिंटर मेरे पास है अगर उसकी स्याही सस्ती होती तो शायद मैं बहुत सारे प्रिंट निकालकर किताबें बांट चुका होता। यह प्रिंटर जितने का है उतने की तो स्याही है। एक तरह से मेरा प्रिंटर कबाड़ हो गया है।

समय बहुत बलवान है। जिस गति से पिछले दो सालों में जो बदलाव यहां मैने देखे हैं उससे लगता है कि वह समय भी आयेगा जब लोग ब्लाग को किताबों की तरह पढ़ेंगे। मुख्य समस्या यह है कि लेखक को क्या मिलेगा? हिंदी में मौलिक लेखकों के पाठों पर नजर सबकी है पर उनको कुछ मिले इसके लिये कोई प्रयासरत नहीं है। वैसे ही हिंदी लेखकों के साथ बहुत चालाकियां की जाती रहीं है और अंतर्जाल पर तो वह और भी अधिक होंगी इसमें संदेह नहीं है, पर यहां किसी से मनमानी से बचने का एक ही उपाय है कि अपने ब्लाग पर ही लिखते जायें। यहां किसी को आका बनाने की जरूरत नहीं है। जो मजा लेते हुए लिखेंगे वह कालांतर में बहुत नाम करेंगे। यह ब्लाग किताबों की तरह अंतर्जाल की लाइब्रेरी में बने रहेंगे। जब तक लिख रहे हैं तब तक अखबार की तरह लिखो।

लिखने के बारे में त्वरित टिप्पणियां का मोह त्यागे बिना अंतर्जाल पर बेहतर लिखना कठिन है। त्वरित टिप्पणियों से प्रेरणा मिलती है यह ठीक है पर उसमें मोह पालना अपने लेखन के लिए विष है तब केवल ब्लाग लेखकों को प्रसन्न करने के लिये ही लिखने का मन करता है और वह आम पाठकों के लिये किसी मतलब का नहीं रह जाता। कुल मिलाकर हिंदी ब्लाग जगत में अभी आम ब्लाग लेखक को आय अर्जित करने में समय लगेगा क्योंकि अभी किसी ने इतनी ख्याति अर्जित नहीं की है जिसे विज्ञापनदाता विज्ञापन दें। अभी तो जो लोग कमा रहे हैं उनके बारे में क्या लिखना?
वह सभी तो डोमेन लिये बैठे हैं ओर उनके लिये ब्लाग लेखक एक सहायक से अधिक नहीं है पर वह समय आयेगा जब ब्लाग लेखक कहीं लिंक करने के लिये भी पैसे मांगेंगे। शायद यही कारण है कि आम ब्लाग लेखकों को भटकाने की भी कोशिशें हो रहीं हैं। हमारे यहां लिख और दिख। कुछ लोगों को सम्मान आदि भी मिलेंगे पर जिनको अंतर्जाल पर प्रसिद्ध प्राप्त करना है उन्हें केवल अपने ब्लाग पर ही बने रहना बेहतर होगा क्योंकि यह अखबार भी है और किताब भी। उन्हें बेगारी से भी बचना होगा। यहां की चालाकियों पर शेष फिर कभी!

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3.दीपक भारतदीप का शब्दज्ञान-पत्रिका

इसलिए आज हमने कोई व्यंग्य नहीं लिखा


कृतिदेव को यूनिकोड के बदलने वाला टूल आने पर मैंने सोचा था कि प्रतिदिन व्यंग्य लिखा करूंगा। जब यूनिकोड में लिखता था तो मुझे कुछ नहीं सूझता था और व्यंग्य कविता लिख कर काम चलाता था उससे जो नाम कमाया आज तक मेरे साथ चल रहा है। तब मन ही मन गुंस्सा भी होता था कि यार यह कहां फंस गये। लिखने का कुछ सोचते मगर लिख कुछ और जाते। अब तो कृतिदेव सीधे लिखने की सुविधा है तो लगता है कि बकवास अधिक लिख रहे हैं, व्यंग्य वगैरह तो गया तेल लेने। पहले फ्लाप थे और कृतिदेव को यूनिकोड में बदलने वाला टूल आया तो सोचा कि अब तो हिट होकर ही दम लेंगे। मगर आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत खराब होती है और भले ही सबको सलाह खूब देते हैं पर स्वयं उसका शिकार जरूर होते है। यह तो गनीमत है कि यूनिकोड मेंं मजबूर होकर लिखने की वजह से कुछ ऐसे पाठ लिख गये जो आज तक हमारा नाम चला रहे हैं।

आज हमने सोचा चलो पाठ लिखने को विराम देते है। कुछ आत्ममंथन करें। दूसरों के ब्लाग देखें और फिर शुरू करें। फोरम पर चलते हुऐ हम आशीष कुमार अंशु के ब्लाग पर पहुंच गये। उनके ब्लाग पर किसी टीवी चैनल की ब्रेकिंग न्यूज दिखाई जा रही थी। वह तो अपनी पोस्ट डाल कर बैठ गये और हम पढ़ते हुए चिंतन में आ गये। भई याह क्या है? कमिश्नर का कुत्ता मिला! वह कुता जो लापता हो गया था! हमने उल्टा पुल्टा विचार किया और सोचते रहे आखिर यह क्या हो रहा है? आखिर पोस्ट डालकर वह कहना क्या चाहते है? कुछ लिखा ही नहीं। मगर क्या लिखते ‘अंशु जी’। जब ऐसे व्यंग्य चित्रों के रूप में हास्य व्यंग्य के जीवंत दृश्य प्रकट होते हैं तो भला कौन अपने शब्द लिखकर हिट हो सकता है। बना बनाया हुआ व्यंग्य सामने आ जाये तो लिखा हुए व्यंग्य कौन पढ़ना चाहेगा?

हमारे व्यंग्यकार मित्र श्री शिवकुमार मिश्र ढेर सारे शब्द लिखकर कर व्यंग्य लिखते हैं। उनको देखकर ही मैं सोचता हूं कि अगर व्यंग्य लिखूं तो उन जैसा नहीं तो लिखना बेकार है-ऐसे ही अपनी छवि बनी हुई। अगर हम व्यंग्य लिखें तो उनसे लोग तुलना करेंगे और हम क्या उनका मुकाबला करेंगे। मगर आज पोस्ट देखकर मैं सोच रहा ं कि व्यंग्य लिखकर तो मैं तो क्या मेरे फरिश्ते भी हिट नहीं हो सकते। एक तो श्री शिवकुमार मिश्र की चुनौती का सामना करने में मैं संक्षम नहीं फिर अगर यह टीवी चैनल वाले ऐसी खबरें देते रहे और आशीष कुमार ‘अंशु’ जैसे लोग उनको लाकर यहां ब्लाग रखते रहे तो भला हम कहां लिख पायेंगे। इससे तो अच्छा है चिंतन लिखकर अपना रुतवा झाड़ते रहें। लोग सोचें कि कोई बड़ा भारी विद्वान है जिसका ब्लाग पढ़ रहे हैं।
कुछ दिनों बाद टीवी पर चैनलों पर ऐसी ही खबरे आयेंगीं कि अमुक हीरो का कुत्ता खो गया। चारों तरफ रेड अलर्ट घोषित किया गया है। तलाशा जारी है। कभी ऐसी खबरें आयेंगी कि अमुक हीरोइन की बिल्ली बीमार है उसके लिये पूरे देश में प्रार्थना की जा रही है। एक फिल्मी हस्ती के घर के बाहर एक चूहे को दौरा करते देखा गया। एक हीरो ने अपनी बिल्ली का आज नामकरण किया और जोरदार पार्टी रखी। आईये हम आपको सीधे वहां ले चलते हैं। वगैरह… वगैरह……..
लोग हंसते हुए कभी कभी रोने भी लगेंगे। हंसेगा कौन मैं, उड़न तश्तरी और श्री शिवकुमार मिश्र और अन्य व्यंग्यकार ब्लाग लेखक। रोएगा कौन? ताकतवर हस्तियों को देखकर उनमें अपने जजबात जोड़ने वालों की संख्या का अनुमान मेरे पास नहीं।

अभी हमारे हिंदी ब्लाग जगत के सबसे लोकप्रिय ब्लाग लेखक उड़न तश्तरी के समर्थकों ने एक सुपर स्टार का ब्लाग नहीं देखा। नहीं तो उनमें से कई उनसे मूंह फेर लेते और कहते कि अब यह ब्लाग जगत के सुपर स्टार नहीं है। उस सुपर स्टार के ब्लाग पर 294 टिप्पणियां तों मैंने देखी थी। उस समय मैं सोच रहा था कि हमारे हिंदी ब्लाग जगत में शायद अभी तो कोई ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता जो अपने ब्लाग लेखक मित्रों के अलावा कहीं से इतनी टिप्पणियां जुटा सके। मेरा दावा कि कई लोगों ने उस ब्लाग को पढ़ा ही नहीं होगा क्योंकि वह अंग्रेजी में था दूसरा उसका विवरण पहले ही अखबारों में छप चुका थां। आखिर मुझे उस समय उड़न तश्तरी जी की याद क्यों आयी? मैं उस अंग्रेजी में लिखने वाले सुपर स्टार के मुकाबले अपने ही मित्र और हिंदी भाषा के सेवक समीरलाल उड़न तश्तरी को कमतर क्यों बता रहा हूं? इसलिये कि उस ब्लाग को मैं हिंदी-अंग्रेजी टूल से पढ़ रहा था तो मेरे लिए तो हिंदी में ही हुआ न!सच तो यह है कि लोग आकर्षण का जबरदस्त शिकार हैं और वह ऐसे आनंद में खोना चाहते हैं जिसमें उनकी बुद्धि का व्यय न हो। यह मान लिया गया है कि कला और साहित्य में सृजन भी केवल प्रसिद्ध और शक्तिशाली लोगों से ही चमकता है। पढ़ना समझ में आये या नहीं पर पढ़ने का गौरव हर कोई चाहता है और इसलिय जरूरी है कि कोई बड़ा नाम लिखने वाले से जोड़ा जाये।

आम लोग शायद इसी तरह के खबरें पसंद करते हैं जिसमें कोई बड़ी हस्ती का नाम जुड़ा हो-मीडिया जगत में यही एक विचार है। विद्वान कहते है कि निजी क्षेत्र मांग और पूर्ति के आधार पर कार्य करता है। मुझे लगता है कि कई बार यह सिद्धांत नहीं करता बल्कि अपनी पूर्ति के लिये मांग बनाता है। अब कई ऐसे तत्व हैं जो हमारी नजर में नहीं आते। समाचार चैनलों पर समाचार तो हैं ही नहीं। मैं घर में सवा (सात, आठ और कभी कभी नौं) के टाईम पर आता हूं। दस पंद्रह मिनट शवासन और ध्यान कर जब टीवी खोलता हूं तो जबरन क्रिकेट की खबरें मेरे सामने होतीं हैं। मुझे नहीं लगता कि क्रिकेट प्रेमियों का टीवी की खबरों में रुचि होती है। हां हम भी तब ही देखते हैं जब अपना देश जीत जाता है। यहां कोई भी टीम इतनी लोकप्रिय नहीं है जिसके लिये इतना समय बर्बाद किया जाये। मगर निजी टीवी चैनल जबरन खबरें थोपे जा रहे हैं। सरकारी दूरदर्शन आज भी समाचारों की दृष्टि से सवौपरि है-हो सकता है मेरी यह बात कुछ लोगों का बुरी लगे पर जब खबरें देखनी हैं तो वही देखने में मजा आता है। मनोरंजक चैनल हों या समाचार चैनल लोगों को मूर्ख मानकर अपने कार्यक्रम पेश किये जा रहे है। 14 वर्ष की एक लड़की की हत्या और उसके आरोप में उसके पिता की गिरफ्तारी के मामले में इस मीडिया का रवैया संवेदनहीन रहा है। जिस तरह खबर को एक फिल्म की तरह प्रस्तुत किया गया उसके आगे तो कई कहानियां भी फ्लाप है और अगर ऐसे ही खबरे आईं तो फिल्म वालों की भी स्थिति खराब हो जायेंगी।

बहरहाल जब मैंने यह ब्लाग देखा तो तय किया कि आज तो कोई व्यंग्य नहीं लिखेंगे। इससे अधिक हिट तो मिल ही नहीं सकते। हां, अगर यह पाठ पढ़कर हमारे मित्र श्री शिवकुमार मिश्र वहां यह ब्लाग न पढ़ने न चले जायें हो सकता है कि वह भी कहीं ऐसा निर्णय न ले बैठें। तब हम कहां जायेंगे। ऐसी खबरों पर हंस सकते हैं पर अधिक देर तक नहीं और हमें मजबूर होकर उनका ब्लाग तो पढ़ना ही है। अब कुछ दिन तक देखकर ही व्यंग्य लिखेंगे। इतनी मेहनत से व्यंग्य लिखो और फ्लाप हो जाओं तो क्या फायदा? यकीन मानिए कुछ लोग इस खबर पर यह भी कह रहे होंगे कि ‘भगवान की कृपा हो तो आपका खोया कुत्ता भी वापस आ सकता है। इसलिए भगवान को भजना चाहिए।
नोट-यहां मैंने अपने कुछ मित्र ब्लाग लेखकों के नाम उनके प्रति सद्भावना के कारण लिखे है। उनको इंगित करते हुए जो मैंने शब्द लिखें हैं उसका अन्य कोई आशय नहीं है। उससे पाठकों को यह समझाना है कि उनकी बौद्धिक चेतना का हरण किया जाकर उन्हें मूर्ख बनाया जा रहा है।

अपनी मूल भाषा में लिखने से पाठ में आती है स्वाभाविक मौलिकता-आलेख(2)


किसी भी राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और और समाज की बौद्धिक शक्ति का केंद्र बिंदू सदैव ही मध्यम वर्ग रहा है। धनाढ्य वर्ग अपने धनार्जन और विपन्न वर्ग अपने अभावों क विरुद्ध संघर्ष से ही समय नहीं पाता और ऐसे में मध्यम वर्ग के लोग ही समय निकालकर समाज के लिये नये विचारों. सिद्धांतों और भौतिक अविष्कारों का सृजन करते हैं। अगर हम हिंदी के आधुनिक स्वरूप की बात करें तो इसी मध्यम वर्ग के लोगों के कारण ही हम उसे इस स्थिति में देख रहे हैं। कोई भी भाषा अपने लेखकों और विद्वानों की रचनाओं से ही विकास करती हैं-और वह आय की दृष्टि से मध्यम वर्ग के ही होते है हालांकि यह जरूरी भी नहीं क्योंकि निम्न आय वर्ग श्रेणी के भी लोग हैं जो मान सम्मान का मोह छोड़कर साहित्य सृजन करते है। आधुनिक हिंदी के जितने भी लेखक हैं वह इन्हीं मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग से हैं। एक समय था जब देश की आजादी और बाद में नये समाज की अभिलाषा से लेखकों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं। उनको शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में शामिल किया गया और विद्याार्थियों ने उसे पढ़कर हिंदी भाषा का आत्मसात कर लिया। शनैः हिंदी को वह स्परूप मिला जिसमें आज हम लिख रहे हैं।

अधिकतर पुराने लोग बताते हैं कि आजादी के बाद तो यह स्थिति यह हो गयी थी कि पांचवीं से आठवीं पास लोगों को नौकरी लग गयी। ऐसे में लोगों का रुझान शिक्षा की तरफ बढ़ना स्वाभाविक था-आराम और अधिकार से रोटी कमाने का मोह लोगों में बढ़ा। इसी कारण अनेक ऐसे लोग जो रूढिवादी थे उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना शुरू किया। फिर शुरू हुआ बेरोजगारी का अनंतकाल तक चलने वाला दौर जिसने धीरे-धीरे ऐसे भ्रामक विषयों का प्रतिपादन किया किया जिनका तर्कों से प्रतिवाद तो किया ही नहीं जा सकता। अंग्रेजों के समय चूंकि अंग्रेजी वालों को ही बड़े ओहदे मिले थे और सरकारी कामकाज में हिंदी को धीरे-धीरे ही स्थान मिला उसकी वजह से लोगों का अंग्रेजी की तरफ झुकाव भी हुआ। समय के साथ हिंदी में सरकारी कामकाज अधिक होता गया पर भ्रम का निराकरण करना फिर भी कठिन था।
फिर हिंदी केवल नारा भी रहा है। अंग्रेजी जानने वाले लोग 2 प्रतिशत भी नहीं रहे पर फिर भी उससे विकास की संभावना रखने वाले लोगों की संख्या अधिक है। मैं कभी भी रूढिवादिता से काम नहीं लेता। मैं तो लोगों से यही कहता हूं कि अगर अंग्रेजी से तुम्हें विकास का मार्ग मिलता है तो हिंदी पढ़ो ही नहीं। उस दिन मेरे एक मित्र ने कहा कि ‘वह अपनी लड़की के लिये अंग्रेजी माध्यम का विद्यालय ढूंढ रहा है अगर कोई हो तो बताओ’।‘

मैंने उससे कहा कि-‘बच्चे में सीखने की क्षमता बहुत होती है। उसे केवल अंग्रेजी में ही पढ़ने के लिये प्रेरित मत करो। आने वाला समय ऐसा भी हो सकता है कि हिंदी न आने की वजह से ही उसे कहीं शर्मिंदा होना पड़े। चूंकि हिंदी हमारी मात्भाषा है इसलिये उसको पढ़ने के साथ अंग्रेजी ज्ञान तो प्राप्त किया जा सकता है पर अंग्रेजी को मुख्य भाषा मानकर फिर हिंदी में विशेषज्ञता कठिन होती है।’

उसने सिर हिलाकर एकदम मेरी बात को खारिज कर दिया। जिस हिंदी को मध्यम वर्ग ने ऊपर उठाया वही आज उससे महत्वहीन समझ रहा है शायद यही कारण है कि हिंदी राजभाषा होते हुए भी तिरस्कृत है। भाषा का विवाद मध्यम वर्ग में ही अधिक है। एक पक्ष उसका पक्षधर है तो दूसरा विरोधी भी हैं। हिंदी भाषा में अंतर्जाल पर लिख रहे लोगों में आत्मविश्वास बढ़ रहा है तो उसका कारण यह है कि उनको लग रहा है कि अब उनके दिन भी आ सकते हैं। वजह है अनुवाद टूल! जिसको लेकर अनेक ऐसे लोगों के चेहरे इस कारण उतरे हुए हैं क्योंकि वह अंग्रेजी से हिंदी में सही अनुवाद नहीं कर रहा है। अंतर्जाल के हिंदी लेखकों में आत्मविश्वास बढ़ने का कारण यह है कि हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद कुछ अच्छे ढंग से हो रहा है और उनको लगता है कि उनको अब विदेशी पाठक भी पढ़ सकेेंगे। विश्व में सबसे अधिक ब्लाग अंग्रेजी और चीनी में हैं और भाषा की दीवार के ढहने का आशय यह है कि हिंदी भी अब विश्व के मानचित्र पर वैसे ही होने वाली है जैसी अन्य भाषायें हैं।

मध्यम वर्ग में भी अंग्रेजी के प्रति वैसा ही आकर्षण है जैसा पहले था। सभी को लगता है कि अंग्रेजी से ही कहीं नौकरी आदि पायी जा सकती है या विदेश जाने का अवसर भी आ सकता है। सभी को न नौकरी मिलती है न विदेश जाने का अवसर आता है-ख्याली पुलाव में रहने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी के स्कूल में पढ़ाना शुरू कर यह मान लेते हैं कि अब सारा बोझ अंग्रेजी ही उठायेगी। लोग अंग्रेजी पढ़ लेते हैं पर नियमित अभ्यास न होने की वजह से उसे फिर भूल भी जाते हैं या याद रखते हैं तो अंग्रेजी में कुछ शब्द लिखना भी उनके बूते का नहीं रहता। अगर सारा ही बोझ अंग्रेजी उठाती तो फिर इस देश में बेरोजगारी नहीं फैलती। मैंने की हिंदी टाइपिंग की चर्चा की थी और कहा था कि लोगों को अब हिंदी टाईप अधिक सीखना चाहिए। इसे शायद ही लोग गंभीरता से लें क्योंेकि भ्रम का कोई इलाज नहीं होता। इस पर इस देश मध्यम वर्ग जितना बुद्धि से तीक्ष्ण है उतना ही भ्रमित हुआ भी लगता है। लोग भाषा के महत्व को नहीं समझते बल्कि रोटी वाली भाषा तलाशते हैं। ऐसे में वह दोनों तरफ के नहीं रहते। हम अंतर्जाल पर हिंदी में लिखने वाले लोगों की संख्या को देखकर कहते हैं कि बहुत लोग लिख रहे हैं पर अगर आप जमीन पर उतर कर देखें तो पायेंगे कि सभी अपने अपने इलाकों में उंगली पर गिनने लायक होंगे-हम यहां इस विषय पर चर्चा नहीं कर सकते कि उनके लिखने की सार्थकता कितना है।
मुख्य बात यह है कि मध्यम वर्ग इस समय अभी निरर्थक रूप से अंग्रेजी के मोह पाश में जकड़ा हुआ है जिसका परिणाम यह है कि उसके लोग न तो हिंदी में अच्छी तरह लिख पाते हैं और अंग्रेजी में लिखें तो उसे पढ़ेगा कौन?
फिर संवाद के तीव्र साधनों ने लिखकर अपनी बात कहने की परंपरा को समाप्त ही कर दिया है। मोबाइल पर घंटों बात हो जाती है पर एस.एम.एस तीन चार लाईन का ही होता है। उसमें भी कई बार कहीं से कापी किये गये अंग्रेजी में शुभकामना संदेश मिलते है। लिखने वाले का हिंदी और अंग्रेजी के अल्पज्ञान का अहसास होने के कारण उस टिप्पणी करने को भी मन नहीं करता।

किसी ने एक ब्लाग पर टिप्पणी की थी कि ‘हिंदी नयी भाषा है और वह एक दिन पूरे विश्व में परचम फहराएगी क्योंकि यह प्रकृति का भी नियम है।’ मैं उस टिप्पणीकर्ता का नाम भूल गया पर यह बात मेरे ध्यान में थी और उनकी बात से मैं सहमत था। जो लोग इस बात को समझेंगे वही आग लाभ दायक स्थिति में रहने वाले हैं। हिंदी केवल भारत में भारतीय बोलेंगे, पढ़ेंगे और समझेंगे अब यह कोई अनिवार्य बात नहीं रही! यह बात समझनी होगी और इस बात का ध्यान रखना होगा कि आने वाली पीढ़ी को हिंदी का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए। संभव है कि आगे ज्ञान की पुस्तकें पहले हिंदी में आये और बाद में उनका अन्य भाषाओं में उसका अनुवाद हो। देश की प्रतिभाओं पर अविश्वास करने कोई कारण नहीं है। ऐसे में अंग्रेजी मोह पालने वालों को हिंदी के भविष्य पर विचार करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए-जिसके बारे में अनेक लोग लिखते आ रहे है।।

अपनी मूल भाषा में लिखने से पाठ में आती है स्वाभाविक मौलिकता-आलेख


मेरे विचार से अब हमें यह तय करना चाहिए कि हम अपनी भाषा के साथ अपना मौलिक जीवन जीना चाहते है या अंग्रेजी के साथ बनावटी रूप रखकर अपने आपको धोखा देना चाहते हैं। मैं हिंदी में कई बरसों से लिखता आया हूं । बीच बीच में मेरे मस्तिष्क में यह विचार आता था कि अंग्रेजी में लिखूं। मैंने शैक्षणिक जीवन मेंे तीन माह तक अंग्रेजी की शिक्षा निजी रूप से एक शिक्षक से प्राप्त की थी। इस कारण अंग्रेजी के व्याकरण का ज्ञान है इसलिये अगर कठिन शब्द न हों तो मैं अंग्रेजी भी पढ़ लेता हूं। सीखने के बाद ऐसे हालात नहीं मिले कि मैं अंग्रेजी का अभ्यास करता और फिर हिंदी में ही पढ़ने को बहुत था तो अंग्रेजी के अभ्यास के लिये उससे परे रहने का विचार तक नहीं किया। हां, अंग्रेजी के कई मशहूर उपन्यास हिंदी में अनुवाद होकर छपते थे तो उनको पढ़ लेता था। हिंदी के साथ अंग्रेजी टाइप का ज्ञान मेरे काम आया और मुझे एक अखबार में तब फोटो कंपोजिंग के रूप में कार्य करने का अवसर मिला।
जी हां, जो कंप्यूटर घर घर में पहुंच रहा है उसे मैंने आत्म निर्भरता के लिये उठाये कदम के रूप में 1982 में कार्य किया था। उस समय विंडो नहीं था। अगर इस पाठ को पढ़ने वाला कोई व्यक्ति इससे पुराना इस पर काम करने वाला हो तो इस पाठ पर टिप्पणी जरूर लिखे।

उस समय अक्सर लोग कहते थे कि सारा तकनीकी ज्ञान अंग्रेजी में है इसलिये उसका ज्ञान जरूरी है। उस समय जब कंप्यूटर की किताब हमें पढ़ने के लिऐ दी गयी वह मेरी समझ में नहीं आयी फिर भी मैं कंप्यूटर सीखा। उस समय मैं कंप्यूटर पर काम करने वाली लड़कियो या लड़कों के पास बैठा रहता। मेरे साथ तीन अन्य लोग भी थे और वह भी वहां ऐसे ही प्रशिक्षण ले रहे थे। मैं उनको की बोर्ड पर अक्षरों के अलावा अन्य बटन दबाकर देखता था कि वह उसका क्या उपयोग कर रहे हैं। अक्षरों के साइज, बनावट और अन्य विशेष काम एफ-1 से एफ-300 तक होता था। मतलब सारा काम कीबोर्ड से होता था। हम चारों दूसरों का कम देख नोट बनाते और फिर रात को कमरे पर उसे आपस में बांटते। मात्र एक माह में हम वहां कार्य करने योग्य हो गये थे। मतलब किसी ज्ञान के लिये भाषा नहीं बल्कि आदमी में लगन होना बहुत आवश्यक है।

उसके बाद जब दोबारा कंप्यूटर पर आया तो हिंदी में एक किताब खरीद लाया। मतलब आज तक मुझे अंग्रेजी का पूरा ज्ञान न होने के बावजूद कंप्यूटर पर काम करते देख कोई भी कह सकता है कि अंग्रेजी का महत्व है पर उतना नहीं कि आप आदमी उसके बिना विकास न कर सके। मुझे याद है जब मैं हिंदी टाईप सीख रहा था तब लोग मुझ पर हंसते थे कि देखो सारी दुनियां अंग्रेजी की तरफ जा रही है और यह हिंदी की तरफ जा रहा है। मैंने पहले हिंदी में टाईप मध्यप्रदेश बोर्ड से पास की और फिर अंग्रेजी टाईप सीखी। बेरोजगारी के दिनों में मुझे यह लगता था कि इसका ज्ञान भी होना चाहिए। हालांकि उसमें अधिक प्रवीणता कभी नहीं रही पर कई बार उसकी अभ्यास कर लेता। जब मैंने अंतर्जाल पर लिखना शुरू किया तो मुझे आज भी वह दिन याद आते हैं जब मैंने अपने आपको उन दिनों हिंदी और अंग्रेजी को लेकर अपने को मानसिक अंतद्वंद्व में अनुभव किया था। उस समय कई बार लगता था कि बेकार ही हिंदी में उपन्यास आदि पढ़ने में नष्ट किया इससे अंग्रेजी ही पढ़ लेता। समय के साथ धीरे-धीरे यह भी लगने लगा कि मुख्य बात है अपनी लगन और परिश्रम। हिंदी में लिखने पर जब लोगों से प्रशंसा मिलने लगी तो भी मुझे यही लगता था कि भला इससे क्या होने वाला है?

मैं पिछले दो वर्ष से अंतर्जाल पर लिख रहा हूं। ब्लाग बनाने में मुझे परेशानी आयी पर इसका कारण अंग्रेजी के अज्ञान का अभाव नहीं बल्कि उतावलापन था। जब मैं ब्लाग बना रहा था तब भी यह आत्मविश्वास था कि जब मैं इस पर लिखना शूरू करूंगा तो अपने लिये मित्रों और पाठकों की संख्या बहुत अंिधक संख्या में जुटा लूंगा। जिस दिन गूगल पर हिंदी में शीर्षक के रूप में टंकित शब्द मुझे हिंदी में कुछ दूसरा नजर आया और फिर उसके हिंदी टूल पर पहला अक्षर टाईप किया तो मैंने अनुभव किया कि हिंदी पूरे विश्व पर भी छा सकती है। आज रोमन से हिंदी में शब्द कर रहा है कल हिंदी को भी अंग्रेजी अनुवाद करने वाला टूल भी आ सकता है। तब हो सकता है कि मेरा हिंदी में लिखा अंग्रेजी में पढ़ा भी जा सके।

उस समय यह केवल एक विचार था पर आज उसे इतनी जल्दी साकार होते देख मुझे आश्चर्य होता है। एक लेखक के रूप में मेरी सफलता या असफलता का मूल्यांकन करने का कोई आधार मेरे पास नहीं है पर इतना तय है कि मुझे अपने हिंदी लेखक होने को लेकर कोई ग्लानि नहीं है। मेरे सारी अंतर्जाल पर हिंदी को लेकर लगाये अनुमार एक के बाद एक साकार होते गये। मेरे से पुराने ब्लाग लेखक यह बता सकते हैं कि मेरा कृतिदेव या देव में लिखे गये हिंदी लेख उनको समझ में न आने पर मुझे किस तरह रोमन लिपि में यूनिकोड टूल से हिंदी लिखने का प्रेरित किया। इन्हीं ब्लाग लेखक मित्रों से ही फिर वापस अपने रास्ते पर आ गया।

अगर मेरे ब्लाग की कुल पोस्टें देखें तो अभी भी नब्बे प्रतिशत के आसपास रोमन लिपि से टूल के द्वारा हिंदी में परिवर्तित हैं। अभी शायद एक या डेढ़ महीने से ही देव और कृतिदेव का उपयोग कर रहा हूं। यह कथा तो मैं कई बार लिख चुका हूं पर अपनी यह बात बताने के लिये लोगो को यह समझाना जरूरी है कि दोनों के बीच में अंतर क्या है?
सीधे यूनिकोड में लिखने वाले लेखक मेरे बात को अन्यथा न लें और अगर उनको हिंदी टाईप नहीं आती तो वह रास्त भी न बदलें पर यह वास्तविकता है कि कृतिदेव में लिखते हुए जितनी सहयता लगती है उतनी यूनिकोड मेंे नहीं होती। भाषा का भाव से गहरा संबंध हैं। अगर मुझे क लिखना है तो मेरे दिमाग में शूरू से क होना चाहिए। यूनिकोड में पाठ लिखते हुए मस्तिष्क से निकलने वाले विचार में कहीं न कहीं अवरोध अनुभव होता है। मैंने कई बार कई सुधार इसलिये नहीं किये क्योंकि मुझे लगता कि दोबारा मेहनत हो जायेगी। कई बार विचारों का क्रम टूटकर कहीं अन्यत्र जाता दिखा। आज जब कृतिदेव से लिखता हूं तो इतना सहज होकर लिखता हूं कि लगता है कि ब्लाग पर लिखना अभी कुछ दिनों से ही शूरु किया है।

मैं यह नहीं कह रहा कि अंग्रेजी के दिन लद गये हैं बल्कि कहता हूं कि हिंदी के ऐसे दिन आ रहे है जब उसका लिखा बिना किसी मध्यस्थ के दूसरी भाषाओं को पाठकों द्वारा पढ़ा जायेगा और हिंदी का लेखक जिसे अपने ही लोग सस्ता समझते हैं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर सकता है। भाषा केवल भाव संप्रेक्षण के लिये होती है और उसका उपयोग अन्य व्यक्ति से संपर्क करने के लिए है। रोटी के लिए कोई भाषा सीखने का कोई अर्थ नहीं है रोटी अपने आप वह भाषा सिखा देती है जहां से वह आती है। ऐसे एक नहीं सैंकड़ों उदाहरण है जो इस देश से कम पढ़े लिखे लोग विदेश गये और आज फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहे हैं। देश के अंग्रेजी जानने वालों को गुस्सा आ सकता है और मैं भी अपने सौ प्रतिशत सही होने का दावा नहीं करता पर मुझे अपने देश और विदेश के अंग्रेजी लेखकों में कुछ गड़बड़ लगती है। मैंने अंग्रेजी के ब्लाग लेखकों के पाठ अनुवाद टूल से हिंदी में किये तो उनको थोड़ी कम कठिनाई से पढ़ा जबकि भारत के अंग्रेजी ब्लाग लेखकों को पाठ पढ़ने और समझने में उससे कहीं अधिक कठिनाई आती है। इसका मतलब यह है कि कहीं न कहीं भारत के अंग्रेजी लेखकों की भाषा में अस्वाभाविकता है।
यह जरूरी नहीं कि सब मेरी बात मानें पर अब अंग्रेजी कोई रोटी दिलाने की गारंटी नहीं देती। अंग्रेजी ब्लाग किस हालत में यह तो उसके ब्लाग लेखक मेरे ब्लाग पर टिप्पणी बता गये हैं। हां, हो सकता है कि हिंदी से रोजी रोटी कमाने की सुविधा पहले से कहीं अधिक मिल सकती है। आजकल हिंदी शुद्ध लिखने और टाईप करने वालों की कमी है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोजी रोटी कमाने की अनिवार्यता भी समाप्त हो रही है। दूरियां कम हो रहीं है ऐसे में हो सकता है कि विदेशों में लोग भारत के लोगों पर इस बात पर हंसें कि उनकी अंग्रेजी शुद्ध नहीं है। वैसे मैने अपने कुछ पाठ-जिनको सभी शब्द अंग्रेजी टूल से सही कर प्रस्तुत किया था-अंग्रेजी के जानकार मित्र को पढ़ाये उसने कहा कि‘ हां, इसे वैसे ही समझा जा सकता है जैसे तुम चाहते हो।’

मतलब यह कि मेरा हिंदी में लिखा अंग्रेजी का कोई पाठक पढ़ सकता है जबकि मैं अंग्रेजी में लिख नहीं पाता। भाषा की दीवारों के ढहने के साथ ही लोगों का यह बात समझ लेना चाहिए कि वह अपने पहले नयी पीढ़ी को अपनी भाषा में पारंगत करने पर जोर दें। वैसे अंग्रेजी तो सभी को सीखना चाहिए पर प्राथमिकता हिंदी और हिंदी टाईप को दें। मेरे विचार से अब लोगों के हिंदी टाईप भी सीखने पर जोर देना चाहिए। भाषा संप्रेषण का प्रभाव तभी संभव है जब अपनी मूल भाषा में व्यक्त करें। टंकण में हिंदी टाईप हो तो पाठ में स्वाभाविकता आयेगी। कितना भी दक्ष क्यों न हो क की बजाय के कल कल्पना से टंकित करना शूरू करेगा तो उसके विचार प्रवाह में व्यवधार आएगा ही। इतना ही अपनी भाषा के बिना विचारों में मौलिकता भी नहीं आतीं जिसकी आने वाले समय में सर्वाधिक महत्व रहने वाला है। इस विषय पर अपना शेष विचार फिर कभी।

साहित्य कुंजःअंतर्जाल पर हिंदी की श्रेष्ठ साहित्यक पत्रिका-समीक्षा


इस समय अंतर्जाल पर जो हिंदी भाषा की पत्रिकाएं निकल रहीं है उसमें मुझे साहित्य कुंज बहुत प्रभावित करती है। इसके संपादक श्री सुमन घई इसका स्वयं ही संपादन कर जिस तरह प्रस्तुत कर रहे हैं वह सराहनीय है।
बिना किसी प्रचार के अपना काम करने की उनकी प्रवृत्ति ने मुझे प्रभावित किया है। पत्रिका देखने के बाद यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि उसमें सामग्री में पाठकों से व्यापक वर्ग का ध्यान रखा जाता है।

आमतौर से लोग संपादन के कौशल को महत्व नहीं देते और उनको लगता है कि कुछ रचनाएं या समाचार आ गये और उनको प्रस्तुत कर दोए जो समझ में न आये उसे उठाकर कूड़ेदान में फैंक दो.यह बात नहीं हैं। हालांकि आजकल अनेक जगह संपादक ऐसी ही प्रवृत्ति के है। मैं स्वयं संपादक रह चुका हूं और मुझे पता है कि एक संपादक के रूप में आप अपने दायित्व का निर्वाह उचित ढंग से नहीं करते तो आपको हर जगह आलोचना का शिकार होना पड़ता है। आजकल भारत के अधिकतर पत्र और पत्रिकाएं इसलिये भी लोगों की दृष्टि में सम्मान खाते जा रहे हैं क्योंकि संपादन कला को पेशेवर दृष्टि से अपनाने वाले बहुत हैं पर उसकी कला को समझने वाले कम है। कई जगह तो संपादक अपने लेखन से ही लोगों का स्वयं बताते हैं कि हम संपादक हैं वरना उनकी पत्र और पत्रिकाओं की सामग्री लोगों में इस बात की दिलचस्पी नही उत्पन्न करती कि वह जानना चाहे कि ‘इसका संपादक कौन है.’
हिंदी में अंतर्जाल हो या बाहर.दोनों जगह पत्रिकाओं की बाढ़ आयी हुई है। जिस तरह फिल्मों में किसी हीरो को काम मिलना बंद हो जाता है तो वह निर्माता बनकर अपनी फिल्में बनाने लगता है। यही हल पत्र पत्रिकाओं के संपादकों का है। जिसे कहीं छपने का अवसर नहीं मिलता या उनको लगता है कि अब वह अधिक नहीं लिख सकते वही आदमी संपादक बनने का प्रयास करता है। संपादक बन जाने के दो फायदे हैं.एक तो नहीं भी लिखा तो नाम पत्रिका पर आ ही जाता है और आज भी लेखक को कम संपादक को लोग अधिक मानते हैं इसलिये लोग इस तरफ अधिक आकर्षित नहीं होते। कई लोग तो जो थोड़ा बहुत लिखना जानते हैं और उनको लगता है कि उनका लिख लोकप्रियता या तो बहुत जल्दी नहीं दिला सकता या फिर कभी नहीं दिला सकता वही संपादक बन जाते हैं और फिर कहीं सम्मान तो कही पुरस्कार लेकर उसका आनंद उठाते हैं। आप अगर अपने आसपास हिंदी के सम्मान और पुरस्कार कार्यक्रमों के स्वरूप को शायद ही कभी ऐसे व्यक्ति को सम्मानित होते देखेंगे कि जो लेखन के अलावा उससे संबंधित क्रिया से संबंध न रखता हो या जिसने पैसा खर्च कर अपनी किताब न छपवाई हो।

अंतर्जाल पर कई ऐसी पत्रिकायें हैं पर श्री सुमन घई की की साहित्य कुंज मुझे सबसे अधिक प्रभावित करती है। वह जिस तरह कहानियां, हास्य व्यंग्य, कविताएं, शायरी, पुस्तक चर्चा बाल साहित्य, लोक साहित्य और ई पुस्तकालय जैसे स्तंभ प्रस्तुत कर रहे है वह बहुत प्रभावित करते है। मेरे विचार से कोई भी अन्य अंतर्जाल पत्रिका इतनी सारी सामग्री और कुशलता से प्रस्तुत नहीं कर पा रही है।
उनकी पत्रिका देखकर यही कहा जा सकता है कि उनसे अंतर्जाल पर संपादकीय कौशल सीखा जाना चाहिए। मैं उनका हर हर अंक पढ़ता हूं। चूंकि मैं भी अपने ब्लाग/पत्रिका लिखता हूं और अपने पाठकों को यह पत्रिका पढ़ने को मिले इसलिये उसे आज लिंक प्रदान कर रहा हूं। मैं चाहता हूं कि लोग इसको पढ़ें। इतनी अधिक सामग्री इस पर है कि लोग उसे पढ़ना चाहेंगे। मेरी रचनाएं इस पर प्रकाशित होती रहतीं हैं पर यह महत्वपूर्ण नहीं बल्कि लोग इस पत्रिका को पढ़कर अंतर्जाल पर हिंदी पढ़ने को उत्सुक हो यही मेरा प्रयास है। श्री सुमन घई को मेरी शुभकामनाएं हैं और विश्वास है कि वह अंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करने के लिये ऐसे ही संपादकीय कौशल का परिचय देते रहेंगे।

यह तो है हिंदी का अंतर्जाल युग -आलेख


हिंदी की विकास यात्रा का चार खंडों में बांटा जाता है और इसमें हमारे यहां सबसे अधिक भक्ति काल महत्वपूर्ण रहा है। आजकल आधुनिक काल के दौर से हिंदी गुजर रही है। मैं सोचता हूं कि अंतर्जाल पर लिखी जा रही हिंदी को आखिर किस स्वरूप में देखा जाय। हिंदी की अंतर्जाल यात्रा को अभी तक कोई अधिक समय नहीं हुआ है और देखा जाय तो इस पर पुरानी पुस्तकों से उठाकर भी बहुत लिखा जा रहा है। आधुनिक काल के अनेक लेखकों के नाम यहां बार-बार आते हैं उनकी रचनाओं की चर्चा भी यहां पढ़ने को मिलती है। अगर पुराने आध्यात्म ग्रंथों और स्वर्णकाल (भक्ति काल) की उल्लिखित रचनाओं का छोड़ दिया जाये तो आधुनिक काल के रचनाकारों की रचनायें यहां अधिक लोकप्रिय नहीं हो पा रहीं हैं-मुझे ऐसा आभास हो रहा है।

स्वर्णकाल या भक्ति काल की रचनायें अधिकतर काव्यात्मक हैं और उनके रचनाकारों मीरा, तुलसी, सूर, कबीर और रहीम आदि कवियों ने अपनी रचनाओं में बहुत संक्षिप्त में जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर करने के साथ भक्ति और ज्ञान का प्रकाश फैलाया। उन्होंने गागर में सागर भरा जो कि अंतर्जाल पर लिखकर लोकप्रियता प्राप्त करने की प्रथम शर्त है। आधुनिक काल में भी ऐसी रचनाएं होती रहीं हैं पर वह उनकी चर्चा बहुत कम होती हैं। यहां बड़े उपन्यास और कहानियों को पढ़ना कठिन है। हां, आगे चलकर जब इस पर घर में प्रिंट निकालना सस्ता होगा तभी ऐसी संभावना बनती है कि बड़ी रचनाओं को लोकप्रियता मिलने लगे। अभी तो कंप्यूटर के साथ जो प्रिंटर मिल रहा है उसकी स्याही बहुत महंगी है और इस कारण उस पर प्रिंट निकालना महंगा है।

मैं मानता हूं कि अंतर्जाल पर हिंदी के स्वरूप के समझने के लिए इसे हिंदी का अंतर्जाल युग भी कह सकते हैं और जो लोग लिख रहे हैं उनको इस बात को समझना चाहिए कि वह हिंदी का एक युग अपने कंधे पर लेकर चल रहे हैं। मैं अनेक नये लेखकों को पढ़ता हूं तो लगता है कि उनमें नवीन शैली से लिखने का अभ्यास अब अच्छा होता जा रहा है। आधुनिक काल तक हिंदी कागज पर चली थी पर अंतर्जाल पर कागज का स्वरूप फोटो के रूप में है। यहां गागर में सागर भरने की शर्त वैसी है जैसे स्वर्ण काल के रचनाकारों ने निभाई। अपनी कहानियों के साथ प्रकृति या दृश्यव्य वस्तुओं का वर्णन पढ़ने से पाठकों में उकताहट आ सकती है। बहुत संक्षिप्त और सीधें बात कहने से भाषा का सौंदर्य ढूंढने वालों को भी निराशा का अनुभव हो सकता है। ऐसे में संक्षिप्त रूप के साथ भाषा का सौंदर्य जो रचनाकार अपने पाठ में देंगे वह यहां पर बहुत लोकप्रिय होंगे।

अक्सर लोग एक दूसरे पर फब्तियां कसते हैं-‘अरे, कविता लिखते हो तो क्या तुलसी या सूर हो जाओगे, या ‘कहानी लिखते हो तो क्या अमुक विख्यात लेखक जैसे हो जाओगे’। मेरा मानना है कि तुलसी,मीरा,सूर,रहीम और कबीर जैसा संत बनना तो एक अलग विषय है पर यहां कई कहानीकारों के लिए हिंदी मे लिखते हुए ‘अंतर्जाल के कहानीकार, व्यंग्यकार और कवि’ के रूप में प्रसिद्ध होने की संभावनाएं बहुत है।
हिंदी के आधुनिक काल के रचनाकारों की एक लंबी फेहस्ति बहुत लंबी है। आधुनिक काल के लेखकों और कवियों ने हिंदी के विकास के लिये तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टिगत बहुत सारी रचनाएं लिखीं पर उनमे बदलाव के कारण उनका पढ़ना कम होता गया है। स्वर्णकाल के कवियों ने मानव के मूल स्वभाव के दृष्टिगत अपनी बात लिखी जिसमें बदलाव कभी नहीं आता पर परिस्थितियों को घ्यान में रखकर लिखीं गयी आधुनिक काल की रचनाएं इसलिये पुरानी होने के कारण लोकप्रिय नहीं रह पातीं और धीरे-धीरे नयी परिस्थितियों में लिखने वाले लेखकों रचनाऐं लोगों के मस्तिष्क मेंे स्थान बनाती जातीं हैं।
अनेक लेखक अब भी अपनी किताबें छपवाने के लिए लालायित रहते हैं। मेरा अंतर्जाल पर पर्दापण ही मेरे एक ऐसे मित्र लेखक के कारण हुआ जिसने अपनी किताब छपवाई थी और वह मुझसे अंतर्जाल की एक पत्रिका का पता मांग रहा था। मैंने इंटरनेट लगवाया इसलिये था कि इससे देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं त्वरित गति से भेज सकूंगा। जब उस मित्र ने मुझे उस पत्रिका का पता ढूंढने के लिये कहा तो मैं हिंदी शब्द डालकर उसे ढूंढ रहा था पर वह नहीं मिली। आज वही शब्द डालता हूं तो बहुत कुछ आ जाता है। धीरे-धीरे मैंने अपने ब्लाग को ही पत्रिका मानकर इस पर लिखना शुरू किया।

मुझे लगता है कि लोगों में हिंदी में अच्छा पढ़ने की बहुत ललक है पर अभी पाठक और लेखक के बीच के संबंध व्यापक आधार पर स्थापित नहीं हो पा रहे पर यह आगे जरूर बनेंगे। हालांकि इसमें सबसे सबसे बड़ा सवाल पहचान का है कि जिसने हमकों लिखा है वह असली नाम से है या छद्म वाला। मैरे पास कई टिप्पणी आती हैं और उससे यह समझना कठिन लगता है कि आम पाठक की है या किसी मित्र ब्लाग लेखक की-हालांकि मुझे लगता है कि आगे चलकर पाठक भी अपनी टिप्पणियों लिखेंगे और वह अपने पंसदीदा लेखकों के बारे में विचार व्यक्त करेंगे। वजह हिंदी में पढ़ने वाले लोग यह जानते हैं कि अच्छा लिखने वालों की इस देश में कमी नहीं है पर पत्र-पत्रिकाओं में उनके सामने वही लेखक आते हैं जो लिखने के अलावा छपवाने में भी माहिर होते हैं। इसमें छिपा हुआ कुछ नहीं है। अधिकतर कालम लिखने वालों के परिचय में उनका लेखक के रूप मेंे कम दूसरा प्रसिद्ध परिचय अधिक छपा रहता है। फिल्म, साहित्य, कला, चित्रकला, संगीत, पत्रकारिता और आकर्षक व्यवसायों में वही पुराने लोग हैं या उनकी संतानें अब अपना काम कर रहीं हैं। लोग नया चाहते हैं और उनको पता है कि यह स्वतंत्र रूप से केवल अंतर्जाल पर ही संभव है।
कुछ लोग पुराने साहित्यकारों के नामों के सहारे यहां अपना प्रचार कर रहे हैं पर उनको अधिक सफलता नहीं मिलने वाली। पाठक लोग नया चाहते हैं और पुरानी रचना और रचनाकार जिनको वह जानते हैं अब यहां पढ़ना नहीं चाहते। मैं ब्लाग जगत पर निरंतर सजगता से देखता हूं। मै ढूंढता हूं कि मौलिक लेखक कौन है? हां, अब यह देखकर खुशी हो रही है कि मौलिक लेखक अब यहां खूब लिख रहे है।
मेरी मौलिक लेखकों को सलाह है कि वह पीछे न देखें। चलते चले जायें। अगर कोई उनसे कहता है कि तुम क्या अमुक लेखक जैसे बड़े बन सकते हो? तो उसका जवाब न दो क्योंकि तुम उससे भी बडे बन सकते हो। तुम्हारी रचनाऐं तो अनंतकाल तक यहां रहने वाली हैं जबकि पुराने रचनाकारों की रचनाऐं और किताबें अल्मारी में बंद पड़ी रहती हैं जब तक कोई उसे न खोले पढ़ी नहीं जातीं। जबकि अंतर्जाल लेखकों की रचनाएं तो चाहे जहां पहुंच सकतीं हैं और बिना किसी मेहनत के कोई इसका अनुवाद कर भी पढ़ सकता है। हिंदी के अंतर्जाल युग में वही लेखक अपना मुकाम लोगों के हृदय में बनायेंगे तो मौलिक रूप से लिखेंगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई लेखक तो इसलिए नाम कमा सके कि येनकेन प्रकरेण उन्होंने संपर्क बनाकर शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में अपनी रचनाएं छपवायीं। अंतर्जाल तो एक खुला मैदान है जहां कोई किसी के आगे लाचार या मजबूर नहीं है। इसलिये मैं मानता हूं कि हिंदी के अंतर्जाल युग का सूत्रपात हो चुका है। आधुनिक काल के कई समर्थक इसका विरोध कर सकते हैं पर उसका जवाब भी मैं कभी दूंगा हालांकि उस पर विवाद खड़ा होगा और वैसे भी सब तरफ फ्लाप होते ब्लाग को देखते हुए यह समय ठीक नहीं है।

नकली जिंदगी की खातिर-हास्य कविता


फिल्मों में ही होता है चक दे इंडिया
सच में तो सब जगह है
एक ही नारा गूंजता है भग दे इंडिया
फिल्म में हाकी की काल्पनिका कहानी ने
देश में खूब नाम कमाया
ओलम्पिक से हाकी टीम का
‘नो एंट्री’ संदेश आया
कहें दीपक बापू
‘फिल्मों में नकली हीरो और
नकली कहानी पर फिदा होकर लोग
उसी राह पर चल रहे हैं
ख्वाबों ही देख रहे हैं तरक्की की सपना
पर सबका कर्म और भाग्य होता अपना
आखें से देखते नजर आते हैं
पर देख कहां पाते हैं
कानों से सुनते तो दिखते
पर कितना सुन पाते हैं
अपनी अक्ल रख दी है
नकली ख्वाबों की अलमारी में बंद
गुलामों की तरह दूसरे के
इशारे पर चले जाते हैं
पर्दे पर देखते जो जिंदगी
उसे ही सच करने के कोशिश में
बुझा देते हैं अपनी जिंदगी का दिया
……………………….


लिखते हैं संजीदा पर नाम बताते अफलातून-समीक्षा


ब्लोग जगत में कुछ ऐसे ब्लोगर हैं जो बहुत संजीदगी के साथ लिखते हैं और उनमें मैं बिना झिझक अफलातून जी का नाम लेता हूँ। मैं वर्डप्रेस पर उनके ब्लोग जरूर देखता हूँ और इसका कारण यह है कि उनके ब्लोग से ही मुझे कुछ ऐसे विषय मिलते हैं जिन पर मुझे भी लिखने में मजा आता हैं। अपने विषय से दूसरे को प्रेरित कर सके ऐसा तभी लिखा जा सकता है जब लेखक संजीदगी से लिखे और यह गुण उनके लेखन में साफ दिखाई देता है।

मुझे याद नहीं आता कितने आलेख और कवितायेँ मैंने उनकी पोस्ट से प्रेरित हो कर लिखीं हैं। अभी उन्होने बौद्धिक साम्राज्यवाद पर अपने लेख लिखे हैं और मैं उन पर लिखने वाला हूँ। देश में स्वतंत्रता के बाद विभिन्न विचारधाराओं के आधार पर समाज चला तो लेखन भी उसी रास्ते पर चला-आखिर साहित्य तो समाज का ही दर्पण होता है। अफलातून जी के एक ब्लोग का नाम ही इस बात का प्रमाण है कि वह प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित हैं। अपनी पोस्टों में वह आम आदमी की पीडा को जिस तरह प्रभावी ढंग से रखते हैं वह रुचिकर एवं प्रेरणादायक होता है। मूलत: लेखकों में कोई मतभेद नहीं होता पर चिंतन और अभिव्यक्ति की शैलियों में विभिन्नता से ऐसा प्रतीत होता है कि वह अलग-अलग हैं। कई बार मैंने उनके विषय के प्रतिवाद में अपनी बात रखी है पर इसका कारण यह नहीं कि वह विरोध का प्रतीक है। होता यह है कि कई बार आदमी अपने विचारों के अनुसार किसी विषय का एक पक्ष रखता है और दूसरे को अनदेखा कर देता है कोई दूसरा लेखक प्रतिवाद स्वरूप अपना विषय रखता है तो वह विरोध नहीं बल्कि पूर्णता का प्रतीक है। अफलातून ने अभी बौद्धिक साम्राज्यवाद के आलेख पश्चिमी विचारधाराओं की पोल खोली थी। उस लेख से बहुत अच्छी जानकारी थी पर कुछ लोग पश्चिम के साथ अन्य दिशाओं से देश में आयी विचारधारा पर भी सवाल उठाते हैं और आज तो सभी विचारधाराओं से प्रतिबद्ध लेखक आजकल निराशा के दौर में हैं क्योंकि हम भारतीयों का चाल चलन और रहन सहन ही इस तरह का किसी लीक पर न चलकर स्वतन्त्र रूप से विचरण करने की आदत है और इसलिए अपने लिखे से समाज में बदलाब की आशा करने वालों को निराशा ही हाथ लगती हैं। आज के संदर्भों में अगर देखें तो देश का हिन्दी लेखक भले ही पुरानी विचारधाराओं के खंडहर संभाले बैठें पर आप जानते हैं बाजार के बहाव ने सबके किले ध्वस्त किये हैं। इसके बावजूद कुछ लेखक उनके साथ जुडे हैं तो केवल इसलिए कि विचारधाराओं के रथ को आगे ले जाने वाले लोगों की कथनी और करनी में अपने स्वार्थों के चलते अंतर रख सकते हैं पर लेखक अपनी प्रतिबद्धताओं के कारण ऐसा नहीं कर पाते। अफलातून जी अपने लेखों में जिस तरह अपनी स्वतन्त्र सोच रखते हैं वह प्रभावित करती है.

अफलातून जी और मैंने लगभग एक ही साथ ब्लोग जगत में कदम रखा और शुरूआती दौर में ही मुझे लगा कि वह एक विचारधारा से प्रभावित हैं और उनकी रचनाओं के प्रति मेरा दृष्टिकोण भी अधिक संजीदा नहीं था। नारद पर चले विवाद के दौरान उनके लेखों को पढ़कर मुझे लगता था कि वह एक सुलझे हुए बुद्धिजीवी हैं पर शायद ब्लोग जगत को अधिक नहीं समझ पाए इसलिए अपने असली स्वरूप में नहीं लिख पा रहे थे। धीरे-धीरे अब वह उस प्रबुद्ध लेखन की तरफ वह बढ़ गए जिसकी उनसे अपेक्षा थी। मैं उनके आलेखों में बहुत दिलचस्पी लेता हूँ। हालांकि अन्य विषयों में हमारे दृष्टिकोण में भिन्नता हो सकती है पर क्रिकेट के बारे में हमारे विचार एक जैसे हैं। ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में भारत की विश्व कप की जीत के बाद जब आस्ट्रेलिया की टीम भारत आ रही थी तो मैंने उस पर लेख लिखा था तो उन्होने कमेन्ट दी कि जिस तरह १९८३ में विश्व कप जीतने के बाद भारत को अपने ही देश में वेस्ट इंडीज ने बुरी तरह हराया था उसी तरह आस्ट्रेलिया भी करेगा. यह लाइन मैंने अपने लेख में लिखने की सोची थी फिर विचार बदल दिया और जब उनकी कमेन्ट आयी तो लगा जैसे अब मेरा लेख पूरा हो गया. उनको भी मेरी तरह दुष्यंत की गजलें पसंद हैं. मतलब यह कि हम वैचारिक धरातल पर एक समान ही सोचते हैं.
लेखन के प्रति उनकी संजीदगी की उनकी भाषा शैली और विषय चयन भी हमेशा उनकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार रहता है. एक बात में हमेशा कहता हूँ कि बिना अध्ययन, चिंतन और मनन के दूसरों को प्रभावित करने वाला लिख ही नहीं सकते और अफलातून जी का लेखन प्रभावित करता है-यह अलग बात कि कुछ विषयों में राय भिन्न हो पर मूल विचार एक ही होता है..आम आदमी की चिंताएं के साथ जुडे रहकर उन पर लिखने के लिए अफलातून की सराहना करता हूँ. मैं उनसे आगे भी ऐसी ही आशा करता हूँ कि वह अपने लिखना को इसी तरह जारी रखेंगे. हाँ जैसा कि हर समीक्षा के बाद मैं लिखता हूँ और अब भी लिख रहा हूँ कि अगर मैंने अगर अफलातून जी के बारे में कम या गलत लिख दिया तो उनके प्रशंसकों से और अधिक लिख दिया हो तो उनके आलोचकों से क्षमाप्रार्थी हूँ. अफलातून जी के उज्जवल जीवन की शुभकामनाओं सहित यह आलेख उन्हीं को समर्पित इस सूचना के साथ आगे मेरे व्यंग्यों में कभी अफलातून पात्र भी आ सकता है उसे उनका प्रतीक न समझा जाये.
उनके ब्लोग हैं-समाजवादी परिषद, शैशव और यही है वह जगह

कुछ देर आत्ममुग्ध हो जाएं, ब्लोग पर लिख आयें-हास्य कविता


आओ कुछ पल के लिए आत्ममुग्ध हो जाएं
चलो अपने ब्लोग पर लिख आयें
हमारे लिखने से ज़माना नहीं बदल जायेगा
पर दिल का गुबार तो निकल जायेगा
वैसे भी किसी के लिखे से
जमाना क्या बदलेगा
पहले तो हम ही बदल जाएं

कुछ लिखेंगे नहीं तो कुछ पढ़ने लगेंगे
किसने क्या लिखा उसके जाल में फंसेंगे
ढेर सारी किताबे लिखी गयी हैं
कुछ पडी हैं रद्दी की तरह अलमारी में
तो कुछ मशहूर हुईं हैं जंग करवाने के लिए
पूजने के लिए आलों में रखीं है
पर नहीं है वह भी पढ़ने के लिए
आओ अपना ही लिखा पढ़ते जाएं

वाद और नारों पर चलता रहा है समाज
नहीं उसके विचारों में गहराई आज
भेड़ की तरह हांके जाते लोग
जागते हुए खुली आंखों से नींद में
चलने का हो गया सबको रोग
आओ कुछ अपना ही लिखा पढ़ते जाएं

मन को बहना है इधर या उधर
जाना है वहीं ले जायेगा वह जिधर
कोई हमें पहले हांके कोई कथा सुनाकर
रच डालें कई कहानी और कवितायेँ
कोई हमें मन्त्र-मुग्ध कर
बाँध कर अपनी दरबार में सजाए
आओ कुछ पल के लिए आत्ममुग्ध हो जाएं
चलो अपने ब्लोग पर लिख आयें
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चलते-चलते अरसा हो गया-कविता साहित्य


चलते-चलते अपने शिखर बनाता गया
कभी खुद चढ़ने की चाहत नहीं रही
पर जहाँ कहीं पाँव रखा गड्ढे में भी
शिखर बनकर खडा हो गया
चलते-चलते अरसा हो गया

अपने ही शिखरों से नीचे आकर
चला जाता हूँ जहाँ भीड़ होती 
शिखर पर खडे बुत को देखने के लिए
मैं  भी कल्पना करता हूँ कि
कैसे मैं  नीचे दिखता होऊंगा
उन शिखरों  पर खडा होकर
फिर चला जाता हूँ
जहा शिखर होता है, मेरे लिए खडा होकर
मैं जाकर देखता हूँ
होती नहीं भीड़ मुझे देखने के लिए
ऐसा होते अरसा हो गया

भीड़ में भेड़ कभी नहीं मैं  बनता
शिखरों पर खडे लोगों के डर को
मैं जानता हूँ
क्योंकि वह मेरी तरह
इस शिखर से उस शिखर  तक का
रास्ता वह  नहीं तय कर सकते
उतरना जानते तो ही
किसी दूसरे शिखर पर चढ़ सकते
ऊंचाई पर खडे लोगों को
नीचे गिरने से डरते देख
आती हैं मुझे हंसी
जीवन की इस जंग में लड़ते हुए
गिरते-उठते मुझे बहुत अरसा हो गया
——————————————-  

बेनजीर की हत्या:पाकिस्तान का भविष्य भी दाव पर


आखिर आतंकवादियों ने बेनजीर को मौत की नींद सुला दिया। एक मासूम औरत जो अपने देश के लोगों के लिए लोकतंत्र की रौशनी जलाना चाहती थी उसे मार डाला। आखिर एक मासूम औरत को मारकर क्या पाया? एक शिक्षित और सुन्दर जिस्म की मालिक औरत को मारकर चंद दिनों के लिए सुर्खियों में रहेंगे और अपने आकाओं से कुछ तोहफे पाकर फिर और हत्याओं में जुट जायेंगे।

क्या बात इतनी है? नहीं! वह एक ऐसी औरत है जो मर्दों के चंगुल में फंसी इस दुनिया में उनकी राजनीति का शिकार बनी। वह अगर देश की प्रधानमंत्री बनतीं तो उससे किसको ख़तरा था- और जिसे था वही उनका दुश्मन है। कुछ तत्काल विचार ख्याल आते हैं।

क्या पश्चिमी देश वाकई पाकिस्तान में लोकतंत्र चाहते हैं?

उत्तर-नहीं! पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं जिसे वहाँ के लोकतांत्रिक नेता संभाल पायेंगे इसका उन देशों को यकीन नहीं है। मुशर्रफ अभी भी उनकी जरूरत है। और बेनजीर प्रधानमंत्री बनतीं तो अधिकारों को लेकर उनसे संघर्ष होता। विश्व का तमाम तरह से दबाव था और इसलिए पश्चिमी देशों ने वहाँ लोकतंत्र की बहाली के नाटक के लिए बेनजीर को वहाँ भेजा तो मुस्लिम राष्ट्र भी पीछे नहीं रहे उन्होने अपने समर्थक नवाज शरीफ को वहाँ भेजा-बेनजीर एक महिला थी और उसका पाकिस्तान का प्रधानमंत्री इतनी आसानी से बनना स्वीकार्य नहीं था और चाहते थे कोई उनका बड़ा समर्थक भी वहाँ की राजनीति में बना रहे।

पश्चिमी राष्ट्रों की हमदर्दी केवल अपने हितों से होती है और एशिया में तो महिला और या पुरुष उनको किसी से कोई सहानुभूति नहीं होती। बेनजीर अब नहीं रही तो हो सकता है कि चुनाव ही न हों और हों तो परिणाम ऐसे आयें कि मुशर्रफ की ताकत जस की तस ही रहे। यही पश्चिमी राष्ट्र चाहते हैं। अगर बेनजीर बाहर रहतीं और चुनाव होते तो उनको विश्व में इतनी मान्यता नहीं मिल पाती जितना उनके पाकिस्तान में रहते मिलती और अब तो नहीं रहीं तो फिर भी मान्यता तो रहेगी। बेनजीर के बाहर जीवित रहते हुए चुनाव केवल नाटक माने जाते पर पाकिस्तान आयीं तो लोकतंत्र की वापसी होती लगी। उनका काम बस यहीं तक ही था। अब फिर वही होने वाला है। पाकिस्तान में सरकार का सुप्रीमो अब वही होगा जो मुशर्रफ का रबड़ स्टांप होगा। अगर बेनजीर नहीं है तो नवाज शरीफ की भी स्थिति कोई अच्छी नहीं रहने वाली है। इस तरह सब के हित पूरे हो गए। मुशर्रफ का खेल अभी और चलेगा। पश्चिमी राष्ट्रों की मुख्य चिंता पाकिस्तान के परमाणु अस्त्र हैं। भारत के सामने एक ताकतवर शत्रु रहे अपनी इसे नीयत के चलते वह उसका परमाणु भण्डार नष्ट भी नहीं करवा सकते।

मगर पश्चिमी देशों की गलतफहमी है कि पाकिस्तान अभी भी भारत को रोकने के लिए उनका हथियार है। ऐसा लगता है कि उसका सही आंकलन नहीं कर रहा। जिस तरह वहाँ आत्मघाती हमलावरों की बाढ़ आयी हुई है उससे नहीं लगता कि पाकिस्तान बच पाएगा। रावलपिंडी में पाकिस्तान का मुख्यालय है और कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि सबसे अधिक आतंकवादी ताक़तवर वहीं है। बाहर के लोग नहीं पाकिस्तान के लोग ही आतंकवादियों और प्रशासन में मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं। पाकिस्तान एक देश है यह गलतफहमी भी नहीं पालना चाहिए क्योंकि पंजाब के अलावा और बाकी सूबों में उसके लिए कोई सदभावना नहीं है। वह भारत नहीं है जिसके हर प्रांत में देशभक्ति की भावना है, बल्कि भाषा और अन्य आधारों पर वहाँ जितने विभाजन हैं उनको पाटने की वहाँ के नेताओं ने कभी कोशिश नहीं की। बेनजीर की हत्या के परिणाम क्या होंगे यह तो वक्त बताएगा पर अब एक बात तय हो गई है कि पाकिस्तान में मुशर्रफ के बाद उसका कोई भविष्य नहीं है। अब तो पाकिस्तान और आतंकवाद सहअस्तित्व के सिद्धांत पा टिके हुए हैं. एक नहीं दोनों साथ जायेंगे. अब पश्चिमी राष्ट्र को अपनी रणनीति पर फिर विचार करना होगा, नहीं तो यह मुसीबत उन पर ही आने वाली है.

समाज सेवा यानि एक दिखावा


आखिर समाज सेवा है क्या? उसका स्वरूप क्या है? यह आज तक कोई नहीं समझ पाया। हमें तो अपने धर्म ग्रंथों से यही सन्देश पाया है की सहृदय, दयालु, परोपकारी और दानशील बनो-अब यह पता नहीं है की इससे समाजसेवा होती है की नहीं।

आए दिन कहीं न कहीं सुंदरी प्रतियोगिता होती है तो कहीं नाच-गाने के कार्यक्रमों को ही प्रतियोगिता के रूप में पेश किया जाता है जिसके विजेता अपना अगला कार्यक्रम ‘समाज सेवा” बताते हैं। कई बडे लोग अपने नाम के आगे समाज सेवी का परिचय लगवाते हैं तो कुछ बुद्धिजीवी भी और कुछ नहीं तो अपने नाम के आगे ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ शब्द लगवाकर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। कहा जाता है जो कुछ नहीं कर सकता वह राजनीति में चला जाता है और जो नहीं कर सकता वह समाज सेवा में चला जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह हो गई है की अब समाज सेवा के लिए धन जुटाने हेतु प्रतिष्ठित खेलों के मैच और नाच-गाने के कार्यक्रम भी आयोजित किये जाने लगे हैं-उनसे कितनी सेवा होती है कभी पता ही नहीं चलता।

वैसे किसी गरीब की आर्थिक सहायता करना, असहाय बीमार की सेवा सुश्रुपा करना और जिन्हें विद्या की आवश्यकता है पर वह प्राप्त करने में असमर्थ हैं उनका मार्ग प्रशस्त करना ऐसे कार्य हैं जो हर समर्थ व्यक्ति को करना चाहिए। इसे दान की श्रेणी में रखा जाता है और यह समर्थ व्यक्ति का दायित्व है कि वह करे। इतना ही नहीं करने के बाद उसका प्रचार न करे क्योंकि यह अहंकार की श्रेणी में आ जायेगा और उस दान का महत्व समाप्त हो जायेगा। कहते भी हैं कि नेकी कर और दरिया में डाल। अगर हम अपनी बात को साफ ढंग से कहें तो उसका आशय यही है कि व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है पर समाज सेवा एक ऐसा शब्द है जो कतिपय उन कार्यों से जोडा जाता है वह किये तो दूसरों के जाते हैं पर उसमें कार्यकर्ता की अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढाने में सहायक होते है- और कहीं न कहीं तो इसके लिए उनको आर्थिक फायदा भी होता है।

आजकल टीवी और अखबारों में तथाकथित समाज सेवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम आते रहते हैं। अगर उनकी कुल गणना की जाये तो शायद हमारे समाज को विश्व का सबसे ताक़तवर समाज होना चाहिऐ पर ऐसा है नहीं क्योंकि उनसे कोई व्यक्ति लाभान्वित नहीं होता जो समाज की एक भौतिक और वास्तविक इकाई होता है। समाज सेवा बिना पैसे के तो संभव नहीं है और समाज सेवा के नाम पर कई लोगों ने इसलिए अपनी दुकाने खोल रखीं है ताकि धनाढ्य वर्ग के लोगों की धार्मिक और दान की प्रवृति का दोहन किया जा सके। कई लोग समाज सेवा को राजनीति की सीढियां चढ़ने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। आजकल समाज सेवा की नाम पर जो चल था है उसे देखते हुए तो अब लोग अपने आपको समाज सेवक कहलाने में भी झिझकने लगे हैं। समाज सेवा एक फैशन हो गया है।

एक आदमी उस दिन बता रहा था कि सर्दी के दिनों में एक दिन वह एक जगह से गुजर रहा था तो देखा एक कार से औरत आयी और उसने सड़क के किनारे सो रहे गरीब लोगों में कंबल बांटे और फुर्र से चली गयी। वहाँ कंबल ले रहे एक गरीब ने पूछा’आप कौन हैं, जो इतनी दया कर रहीं है?’

उसने हंसकर कहा-‘मैं कोई दया नहीं कर रहीं हूँ। ईश्वर ने जो दिया है उसे ही बाँट रही हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। यह सब भगवान की रची हुई माया है।’

उस आदमी ने वहाँ खडे होकर यह घटना देखी थी। उसका कहना था कि ‘कंबल भी कोई हलके नहीं रहे होंगे।’
ऐसे अनेक लोग है जो सच में समाज सेवा करते हैं पर प्रचार से दूर रहते हैं. कुछ धनी लोग दान करना चाहते हैं पर नाम नहीं देना चाहते इसलिए वह बिचोलियों का इस्तेमाल करते हैं जो समाजसेवा की आड़ में उनके पास पहुच जाते हैं, और चूंकि उनका मन साफ होता है इसलिए कोई सवाल जवाब नहीं करते-पर इससे तथाकथित समाज सेवियों की बन आती है।

उस दिन अखबार में पढा कि एक गरीब लड़की के इलाज के लिए पैसे देने की पेशकश लेकर एक आदमी उनके दफ्तर में पहुंच गया पर उसने शर्त रखी कि वह उसका नाम नहीं बताएँगे। उस अखबार ने भी उसकी बताई राशि तो छाप दी पर नाम नहीं लिखा। अब चूंकि वह एक प्रतिष्ठित अखबार है तो वह रकम वहाँ तक पहुंच जायेगी पर कोई तथाकथित समाज सेवी संस्था होती तो हो सकता है उसके लोग उसमें अपनी भी जुगाड़ लगाते। मैंने पहले ही यह बात साफ कर दी थी की व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है समाज सेवा थोडा भ्रम पैदा करती है। व्यक्ति की अपनी जरूरतें होती हैं और उसको समाज से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।

अब तो कई बार समाज सेवा शब्द भी मजाक लगने लगता है जब उसके नाम पर संगठन बनाए जाते हैं और कहीं तो आन्दोलन भी चलते हैं। आन्दोलन शब्द ही राजनीति से जुडा है पर उसमें विवाद होते हैं उसकी वजह से सामाजिक आन्दोलन के नेता अपने को सामाजिक कार्यकर्ता ही कहते हैं। यह अलग बात है की सुविधानुसार वह करते तो किसी न किसी तरह वह सुर्खियों में बने रहते हैं। सच तो यह है समाज सेवा अभी तक साफ सुथरा शब्द है इसलिए कई लोग इसकी आड़ में अपनी छबि चमकाते हैं। ऐसा नहीं है की देश में गरीबों और निराश्रितों की सेवा करने वाले संगठन नहीं है पर वह इस प्रचार से दूर रहते हुए अपने काम करते हैं और जो प्रचार करते हैं वह व्यक्ति की सेवा कम अपने नाम के लिए ज्यादा काम करते हैं। उनका लक्ष्य समाज सेवा यानि आत्म प्रचार और विज्ञापन है।

अगर देखा जाये तो समाज सेवा अब दाम देने और लेने वाले की बीच दलाली का काम हो गया है जिसमें उससे जुडे लोग कमीशन के रूप में कहीं थोडी तो कहीं पूरी की पूरी रकम डकार लेते हैं.

संत कबीर वाणी:जिसने दर्शन पा लिया वह गाता नहीं


कबीर जब हम गावते, तब जाना गुरु नाहीं
अब गुरु दिल में देखिया, गावन को कछु नाहिं

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक हम गाते रहे, तब तक हम गुरु को जान ही नहीं पाए, परन्तु अब हृदय में दर्शन पा लिया, तो गाने को कुछ नहीं रहा.

भावार्थ- संत कबीरदास जी के दोहों में बहुत बड़ा महत्वपूर्ण  दर्शन मिलता है. समाज में कई  ऐसे लोग हैं जो किन्हीं गुरु के पास  या किसी मंदिर या किसी अन्य धार्मिक स्थान  पर जाते है और फिर लोगों से वहाँ  के महत्त्व का दर्शन बखान करते हैं. यह उनका ढोंग होता है. इसके अलावा कई गुरु ऐसे भी  हैं जो धर्म ग्रंथों का बखान कर अपने  ज्ञान तो बघारते हैं पर उस पर चलना तो दूर उस सत्य के मार्ग की तरफ झांकते  तक नहीं है. ऐसे लोग भक्त नहीं होते बल्कि एक गायक की तरह होते हैं. जिसने भगवान् की भक्ति हृदय में धारण कर ली है तो उसे तत्वज्ञान मिल जाता है और वह इस तरह नहीं गाता. वह तो अपनी मस्ती में मस्त रहता है किसी के सामने अपने भक्ति का बखान नहीं करता.  

कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अशुभ गुण वाले का कभी आश्रय न लें


१.चंपा के साथ  रहने पर तिलों में वैसे ही सुगन्ध आ जाती है, रस वैसे ही  नहीं खाया जाता है पर उसकी गंध  तिलों में आ जाती है इस कारण अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं। वह संक्रामक माने जाते हैं

अभिप्राय- किसी व्यक्ति में कोई अच्छा गुण है पर वह यदि बुरे लोगों की संगति में आ जाता है तो उनके दुर्गुणों का प्रभाव उस पर आ जाता है।  इसलिए अगर कोई व्यक्ति  अच्छा लगे तो यह भी देखना चाहिये कि वह किन लोगों के बीच रह रहा है और उसका उठाना बैठना किनके साथ है और उसका घर कैसा है।  यदि उसकी पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि ठीक नहीं है तो यह मानना चाहिए कि उसमें वह दुर्गुण भी होंगे।

जल का गंगाजल का प्रवाह जब सागर में बह जाता है तब वह पीने योग्य नहीं रहता, विद्वान के लिए यह उचित है कि अशुभ गुण वाले का आश्रय कभी न ले  अन्यथा वह भी समुद्र में मिल गए जल के समान होगा।
जिन लोगों के मन स्वच्छ हैं उन्हें ही ही अपना मित्र बनाएं.

अभिप्राय-इसका आशय यह है कि सदैव ही गुणवान व्यक्ति से अपन संपर्क रखना चाहिऐ. वैसे हमें देखा होगा कि कुछ लोग बोलने में बहुत मीठे होते हैं पर उनका आचरण अत्यंत खराब होता है. हो सकता है वह अपने स्वार्थों की वजह से हमसे अच्छी बात करते हों पर दूसरों के प्रति घृणा, विश्वासघात और बेईमानी का व्यवहार करते हैं और ऐसे दिखाते है कि हमारे हितैषी हैं पर यह समझ लेना चाहिऐ कि समय निकलते ही हमारे साथ भी वही  व्यवहार करेंगे यह मान लेना चाहिए.