Category Archives: अभिव्यक्ति

अण्णा हजारे (अन्ना हजारे)के आंदोलन की वजह से भ्रष्टाचार विरोधी सामग्री की इंटरनेट पर खोज बढ़ी-हिन्दी लेख (anna hazare’s anti corruption movement and internet-hindi article)


        अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जनलोकपाल की स्थापना के अभियान को प्रचार माध्यमों ने देश में चर्चा का विषय बना दिया है। यह तो पता नहीं कि इस आंदोलन की चरम परिणति किस तरह होगी पर इतना तय है कि इससे देश के लोगों पर इतना प्रभाव हुआ है कि इसकी चर्चा हर कहीं चल रही है। टीवी चैनलों पर भारी भरकम पेशेवर विद्वान निरंतर अपने विचार प्रकट कर रहे हैं तो समाचार पत्रों में उनके ही लेख छाये हैं। हमारी दिलचस्पी भी इस आंदोलन के भ्रष्टाचार विरोधी विषय में है पर इतर गतिविधियों पर भी बराबर नज़र रहती है। इसके आधार पर कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार विरोध एक नारा बन गया है जिससे इंटरनेटर पर संभवत सबसे अधिक खोजा जा रहा है। भ्रष्टाचार विरोध शब्द अन्ना हजारे से अधिक सर्च इंजिनों में ढूंढा जा रहा है।
        इसका आभास अपने ब्लाग दीपक बापू कहिन पर लगातार दो दिन एक हजार से अधिक पाठक/पाठ पठन संख्या होने पर हुआ। हालांकि अन्य ब्लाग हिन्दी पत्रिका को भी यह श्रेय हिन्दी दिवस के अवसर पर मिल चुका है। आज भी ऐसा लग रहा है कि दीपक बापू कहिन एक हजार से अधिक का आंकड़ा पार करेगा। ऐसे नहीं है कि भ्रष्टाचार पर लिखी गयी हास्य कवितायें या लेख पहले पाठक नहीं जुटा रहे थे। दरअसल उस समय वह पाठ अन्य शब्दों से सर्च इंजिनों पर पढ़े जा रहे थे। भ्रष्टाचार शब्द से भी पढ़े गये पर उनकी संख्या इतनी नहंी थी जितनी आजकल दिख रही है।
       इसका अभिप्राय यह है कि अन्ना हजारे साहब का अनशन, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग से कहीं न कहीं टीवी चैनलों तथा समाचार पत्रों के अपने विज्ञापन के साथ प्रसारण तथा प्रकाशन के लिये एक महत्वपूर्ण रुचिकर सामग्री मिल रही है। इतना ही नहीं पिछले दिनों ऐसा लग रहा था कि इंटरनेट का प्रभाव कम हो सकता है क्योंकि इस पर परंपरागत प्रचार माध्यमों जैसी सामग्री प्रस्तुत हो रही है। इधर भारत ही नहीं बल्कि इंटरनेट को सामूहिक अभियानों और आंदोलनों के लिये प्रभावी बताकर यह साबित किया जा रहा है कि उससे जुड़ा रहना बेहतर है। लगता है कि कहीं न कहीं टेलीफोन कंपनियां अपने ग्राहक बनाये लगने के लिये ऐसे अभियानों को प्रोत्साहित कर रही हैं। संभव है प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष विनिवेश भी करती हों। तय बात है कि इससे टेलीफोन कंपनियों को ही सहारा मिलना है। पहले ब्लाग, फिर ट्विटर और अब फेसबुक जनचर्चा के लिये महान कार्य करते दिखाये जा रहे हैं। पहले फिल्मी अभिनेताओं, अभिनेत्रियों तथा अन्य अन्य प्रतिष्ठित लोगों के ब्लाग चर्चित कर इंटरनेट की महिमा बतायी जाती थी आजकल ट्विटर और फेसबुक पर उनके जारी संदेश टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में प्रचारित किये जाते हैं। तय बात है कि किसी खास आदमी की आम बात को जोरदार प्रचार होता है पर आम आदमी की खास बात को भी छोड़ दिया जाता है। अन्ना हजारे के आंदोलन से अंततः कहीं न कहीं आजकल के प्रचार माध्यमों के साथ ही टेलीफोन कंपनियों को भी लाभ हो रहा है। लोगों से एसएमएस भी कराये जा रहे हैं और भावुक लोग ऐसा कर भी रहे हैं। हमें इन चीजों से कोई लेना देना नहीं है पर इतना जरूर कह सकते हैं कि प्रचार माध्यमों के स्वामी इस आंदोलन से लाभ उठा रहे हैं शायद यही कारण है कि इस आंदोलन के विरोधी इससे जुड़े आर्थिक स्तोत्रों पर संदेह करते हैं क्योंकि अंतत उनके माध्यम से एक बहुत बड़ी राशि समाज सेवकों के पास चाहे वह आंदोलनकारी हों या उनके प्रबंधक-जाती है।
            अन्ना साहेब बुजुर्ग हैं और इस गैस विकार पैदा करने वाले मौसम में उनका इस तरह अनशन पर बैठना चिंता का विषय है। एक बात साफ है कि उन्होंने देश के जनमानस को आंदोलित किया है पर भ्रष्टाचार ऐसी बीमारी है जिसका हल लोगों को स्वयं भी ढूंढना चाहिए। भ्रष्टाचार का कारण लालच और लोभ है। एक लालची अधिक चाहता है इसलिये वह दूसरे लालची को इसलिये पैसा देता है ताकि वह उसकी सहायता करे। फिर जिस तरह आज के प्रचार माध्यमों का रवैया है वह उपभोग संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं और खास लोगों की  अभिव्यक्ति को ही आवाज देते हैं और आम आदमी उनके लिये अत्यंत निरीह है। यही कारण है कि हर आम खास बनना चाहता है। इस लोभ के चलते कोई भी किसी मार्ग पर चला जाता है यह जाने कि वह अच्छा है कि नहीं। अपनी जरूरतें बढ़ा दी गयी हैं जिससे लोग धन पाने के अलावा कोई अन्य लक्ष्य जीवन में रखना तो दूर सोचते तक भी नहीं है। दीपक बापू कहिन ही नहीं अन्य ब्लाग पर भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लिखी सामग्री इंटरनेट पर ढूंढती दिखी। तब यह लिखने का विचार आया कि अन्ना हजारे के आंदोलन से ‘भ्रष्टाचार का विषय’ कितना चर्चित हुआ है यह अनुभव पाठकों तथा ब्लाग मित्रों से बांटा जाये। आखिरी बात यह है कि व्यंजना विधा में भ्रष्टाचार को लक्ष्य कर लिखी गयी हमारी एक कविता का उपयोग कहीं न कहीं अन्ना साहेब के प्रचार में दिखा। व्यंजना विधा में लिखी गयी बात बहुत कम समझ में आती है पर अन्ना साहेब के अंादोलन में विलक्षण प्रतिभाशाली लोग भी हैं यह आज प्रचार माध्यम बता रहे थे। इसका मतलब है कि उनमें से किसी एक ने पढ़ा है और उसका उपयोग अपने ढंग से किया है। यह अलग बात है कि हमें वह कविता पुनः देखने के लिये बीस ब्लागों का अवलोकन करना पड़ेगा। हमने यह कविता तब लिखी थी जब यह अनशन होने की बात भी नहीं थी।

दीपक बापू कहिन में पढ़े गये पाठों का विवरण इस प्रकार है
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व्यंग्य के लिए धार्मिक पुस्तकों और देवों के नाम के उपयोग की जरूरत नहीं-आलेख     More stats    1
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दशहराःरावण के नये रूप महंगाई, भ्रष्टाचार, और बेईमानी से लड़ना आवश्यक-हिन्दी लेख (ravan ke naye roop-hindi lekh     More stats    1
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आदर्श के नाम पर समाज सेवा-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविता (adrash ke nam par samaj seva-hindi hasya vyangya kavita)     More stats    1
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बाबा रामदेव क्या चमत्कार कर पायेंगे-हिन्दी आलेख (swami ramdev ka bhrashtacha ke viruddhi andolan-hindi lekh)     More stats    2
हास्य कविताएं और गंभीर चिंतन है पाठकों की पसंद-संपादकीय     More stats    2
भारत में भूत-हिन्दी हास्य कविता (bharat men bhoot-hindi hasya kavita)     More stats    2
विज्ञान और ज़माना-हिन्दी व्यंग्य शायरी (vigyan aur zamana)     More stats    2
दिखावटी और मिलावटी-हिन्दी व्यंग्य कविता     More stats    1
रिश्ता और सवाल जवाब-हास्य कविता (rishta aur sawal jawab-hasya kavita     More stats    1
भाषा और अखबार-लघु हास्य व्यंग्य (bhasha aur akhabar-hindi short comic satire article)     More stats    1
ऑपरेशन में ध्यान की विधा का उपयोग-हिन्दी लेख(opretion and dhyan yoga-hindi lekh)     More stats    1
कभी ख्वाब तो कभी हकीक़त-व्यंग्य शायरी     More stats    1
बहस और बाजार-व्यंग्य कविता (bahas aur bazar-hindi vyangya kavita)     More stats    1
कमीशन-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ     More stats    1
असली झगड़ा, नकली इंसाफ-हिन्दी व्यंग्य और कविता (asli jhagad aur nakli insaf-hindi vyangya aur kavita)     More stats    1
ज़िन्दगी के बदलते रंग     More stats    1
चांद और समंदर-हिन्दी कविता (chand aur samandar-hindi poem)     More stats    1
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बेपैंदी का लोटा-हिंदी व्यंग्य कविताएँ     More stats    1
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आत्मसम्मान से जीता है मजदूर     More stats    1
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बुत सम्मलेन में एक सवाल-लघु कथा     More stats    1
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छोटा आदमी, बड़ा आदमी-लघुकथा     More stats    1
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इन्टरनेट हैकर्स-आलेख (internet hecker-hindi lekh)     More stats    1
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
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४.दीपकबापू कहिन
5.हिन्दी पत्रिका 
६.ईपत्रिका 
७.जागरण पत्रिका 
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९.शब्द पत्रिका

ऑपरेशन में ध्यान की विधा का उपयोग-हिन्दी लेख(opretion and dhyan yoga-hindi lekh)


                ईरान के डाक्टर का एक किस्सा प्रचार माध्यमों में देखने को मिला जिसे चमत्कार या कोई विशेष बात मानकर चला जाये तो शायद बहस ही समाप्त हो जाये। दरअसल इसमें ध्यान की वह शक्ति छिपी हुई है जिसे विरले ही समझ पाते हैं। साथ ही यह भी कि भारतीय अध्यात्म के दो महान ग्रंथों ‘श्रीमद््भागवत गीता’ तथा ‘पतंजलि योग साहित्य’ को भारतीय शिक्षा प्रणाली में न पढ़ाये जाने से हमारे देश में से जो हानि हो रही है उसका अब शिक्षाविदों को अंांकलन करना चाहिए। यह भी तय करना चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर इन दो ग्रंथों का शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शामिल न कर कहीं हम अपने देश के लोगों के अपनी पुरानी विरासत से परे तो नहीं कर रहे हैं।
           पहले हम ईरान के डाक्टर हुसैन की चर्चा कर लें। ईरान के हुसैन नाम के चिकित्सक अपने मरीजों को बेहोशी का इंजेक्शन दिये बिना ही उनकी सर्जरी यानि आपरेशन करते हैं। अपने कार्य से पहले वह मरीज को आंखें बंद कर अपनी तरफ घ्यान केंद्रित करते हैं। उसके बाद अपने मुख से वह कुछ शब्द उच्चारण करते हैं जिससे मरीज का ध्यान धीरे धीरे अपने अंगों से हट जाता है और आपरेशन के दौरान उसे कोई पीड़ा अनुभव नहीं होती। इसे कुछ लोग हिप्टोनिज्म विधा से जोड़ रहे हैं तो कुछ डाक्टर साहब की कला मान रहे हैं। हमें यहां डाक्टर हुसैन साहब की प्रशंसा करने में कोई संकोच नहीं है। उनके प्रयासों में कोई दिखावा नहीं है और न ही वह कोई ऐसा काम कर रहे हैं जिससे अंधविश्वास को बढ़ावा मिले। ऐसे लोग विरले ही होते हैं जो अपने ज्ञान का दंभ भरते हुए दिखावा करते हैं। सच कहें तो डाक्टर हुसैन संभवत उन नगण्य लोगों में हैं जो जान अनजाने चाहे अनचाहे ध्यान की विधा का उपयोग अपने तरीक से करना सीख जाते हैं या कहें उनको प्रकृत्ति स्वयं उपहार के रूप में ध्यान की शक्ति प्रदान करती है । उनको पतंजलि योग साहित्य या श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं होती। ध्यान की शक्ति उनको प्रकृति इस तरह प्रदान करती है कि वह समाधि आदि का ज्ञान प्राप्त किये बिना उसका लाभ लेने के साथ ही दूसरों की सहायता भी करते हैं।
           हुसैन साहब के प्रयासों से मरीज का ध्यान अपनी देह से परे हो जाता है और जो अवस्था वह प्राप्त करता है उसे हम समाधि भी कह सकते हैं। उस समय उनका पूरा ध्यान भृकुटि पर केद्रित हो जाता है। शरीर से उनका नाता न के बराबर रहता है। इतना ही नहीं उनके हृदय में डाक्टर साहब का प्रभाव इतना हो जाता है कि वह उनकी हर कही बात मानते है। स्पष्टतः ध्यान के समय वह हुसैन साहब को केंद्र बिन्दु बनाते हैं जो अंततः सर्वशक्मिान के रूप में उनके हृदय क्षेत्र पर काबिज हो जाते हैं। वहां चिक्त्सिक उनके लिये मनुष्य नहीं शक्तिमान का आंतरिक रूप हो जाता है। ऐसी स्थिति में उनकी देह के विकार वैसे भी स्वतः बाहर निकलने होते है ऐसे में हुसैन जैसे चिकित्सक के प्रयास हों तो फिर लाभ दुगुना ही होता है। देखा जाये तो ध्यान में वह शक्ति है कि वह देह को इतना आत्मनिंयत्रित और स्वच्छ रखता है उसमें विकार अपना स्थान नहीं बना पाते।
         इतिहास में ईरान का भारत से अच्छा नाता रहा है। राजनीतिक रूप से विरोध और समर्थन के इतिहास से परे होकर देखें तो अनेक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि ईरान की संस्कृति हमारे भारत के समान ही है। कुछ तो यह मानते हैं कि हमारी संस्कृति वहीं से आकर यहां परिष्कृत हुई पर मूलतत्व करीब करीब एक जैसे हैं।
         ध्यान कहने को एक शब्द है पर जैसे जैसे इसके अभ्यस्त होते हैं वैसे ही इस प्रक्रिया से लगाव बढ़ जाता है। वैसे देखा जाये तो हम दिन भर काम करते हैं और रात को नींद अच्छी आती है। ऐसे में हम सोचते हैं कि सब ठीक है पर यह सामान्य स्थिति है इसमें मानसिक तनाव से होने वाली हानि का शनैः शनै प्रकोप होता है। हम दिन में काम करते है और रात को सोते हैं इसलिये मन और देह की शिथिलता से होने वाले सुख की अनुभूति नहीं कर पाते। जब कोई सामान्य आदमी ध्यान लगाना प्रारंभ करता है तब उसे पता लगता है कि उससे पूर्व तो कभी उसका मन और देह कभी विश्राम कर ही नहीं सकी थी। सोये तो एक दिमाग ने काम कर दिया और दूसरा काम करने लगा और जागे तो पहले वाली दिमाग में वही तनाव फिर प्रारंभ हो गया। इसके बीच में उसे विश्राम देने की स्थिति का नाम ही ध्यान है और जिसे जाग्रत अवस्था में लगाकर ही अनुभव किया जो सकता है।
ध्यान के विषय में यह लेख अवश्य पढ़ें
पतंजलि योग विज्ञान-योग साधना की चरम सीमा है समाधि (patanjali yog vigyan-yaga sadhana ki charam seema samadhi)
        भारतीय योग विधा में वही पारंगत समझा जाता है जो समाधि का चरम पद प्राप्त कर लेता है। आमतौर से अनेक योग शिक्षक योगासन और प्राणायाम तक की शिक्षा देकर यह समझते हैं कि उन्होंने अपना काम पूरा कर लिया। दरसअल ऐसे पेशेवर शिक्षक पतंजलि योग साहित्य का कखग भी नहीं जानते। चूंकि प्राणायाम तथा योगासन में दैहिक क्रियाओं का आभास होता है इसलिये लोग उसे सहजता से कर लेते हैं। इससे उनको परिश्रम से आने वाली थकावट सुख प्रदान करती है पर वह क्षणिक ही होता है । वैसे सच बात तो यह है कि अगर ध्यान न लगाया जाये तो योगासन और प्राणायाम सामान्य व्यायाम से अधिक लाभ नहीं देते। योगासन और प्राणायाम के बाद ध्यान देह और मन में विषयों की निवृत्ति कर विचारों को शुद्ध करता है यह जानना भी जरूरी है।
    पतंजलि योग साहित्य में बताया गया है कि 
           ——————————
      देशबंधश्चित्तस्य धारण।।
    ‘‘किसी एक स्थान पर चित्त को ठहराना धारणा है।’’
     तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम्।।
       ‘‘उसी में चित्त का एकग्रतापूर्वक चलना ध्यान है।’’
        तर्दवार्थमात्रनिर्भासयं स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।
        ‘‘जब ध्यान में केवल ध्येय की पूर्ति होती है और चित्त का स्वरूप शून्य हो जाता है वही ध्यान समाधि हो जाती है।’’
        त्रयमेकत्र संयम्।।
          ‘‘किसी एक विषय में तीनों का होना संयम् है।’’
           आमतौर से लोग धारणा, ध्यान और समाधि का अर्थ, ध्येय और लाभ नहीं समझते जबकि इनके बिना योग साधना में पूर्णता नहीं होती। धारणा से आशय यह है कि किसी एक वस्तु, विषय या व्यक्ति पर अपना चित्त स्थिर करना। यह क्रिया धारणा है। चित्त स्थिर होने के बाद जब वहां निरंतर बना रहता है उसे ध्यान कहा जाता है। इसके पश्चात जब चित्त वहां से हटकर शून्यता में आता है तब वह स्थिति समाधि की है। समाधि होने पर हम उस विषय, विचार, वस्तु और व्यक्ति के चिंत्तन से निवृत्त हो जाते हैं और उससे जब पुनः संपर्क होता है तो नवीनता का आभास होता है। इन क्रियाओं से हम अपने अंदर मानसिक संतापों से होने वाली होनी को खत्म कर सकते हैं। मान लीजिये किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति को लेकर हमारे अंदर तनाव है और हम उससे निवृत्त होना चाहते हैं तो धारणा, ध्यान, और समाधि की प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। संभव है कि वस्तु,, व्यक्ति और विषय से संबंधित समस्या का समाधाना त्वरित न हो पर उससे होने वाले संताप से होने वाली दैहिक तथा मानसिक हानि से तो बचा ही जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

भरोसे के नाम पर तोहफा धोखे का-हिन्दी व्यंग्य कविता (bharose ka naam par tohfe dhokhe ka-hindi vyangya akvita)


तख्त के लिये मची है चारों तरफ जंग,
इंसानों के मुंह खुले पर दिमाग हैं तंग।
सजे हुए सब चेहरे, ओढ़े चमकीले कपड़े
मगर सभी की नीयत का काला है रंग।
भरोसा का नाम, मिलता तोहफा धोखे का
सच की लय को भ्रम ने किया है भंग।
कहें दीपक बापू अंधों के आगे क्या रोना
समाज बड़ा है, पर बंधे है उसके सारे अंग।
संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक   ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस–हिन्दी हास्य कविताएँ/शायरी (bhrashtachar ek adrishya rakshas-hindi hasya kavitaen)


भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़ने को सभी तैयार हैं
पर उसके रहने की जगह तो कोई बताये,
पैसा देखकर
सभी की आंख बंद हो जाती है
चाहे जिस तरह घर में आये।
हर कोई उसे ईमानदारी से प्यार जताये।
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सभी को दुनियां में
भ्रष्ट लोग नज़र आते हैं,
अपने अंदर झांकने से
सभी ईमानदार घबड़ाते हैं।
भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस है
जिसे सभी गाली दे जाते हैं।

सुसज्जित बैठक कक्षों में
जमाने को चलाने वाले
भ्रष्टाचार पर फब्तियां कसते हुए
ईमानदारी पर खूब बहस करते है,
पर अपने गिरेबों में झांकने से सभी बचते हैं।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नकली ट्राफी का असली खेल-व्यंग्य चिंत्तन (asali match nakli cup trofy ka khel-vyangya chittan)


             समझ में नहीं आ रहा है कि व्यंग्य लिखें कि गंभीर चिंत्तन। क्रिकेट को वैसे ही यकीनी खेल नहीं मानते। यहां तक कि जिसे लोग टीम इंडिया कहकर देश के लोग सिर पर उठाये रहते हैं उसके लिये भी हमने केवल एक क्लब बीसीसीआई की टीम मानते हैं। यह क्लब अपने क्रिकेट के व्यापार के लिये भारत के नाम, झंडे और गान का इस्तेमाल करता है इसलिये ही उसे भारत में दर्शक भारी मात्रा में मिलते हैं जिनकी जेब की दम पर पूरी दुनिया का क्रिकेट चल रहा है। बहरहाल हमारी टीम ने विश्व कप जीता खुशी की बात है-जीतने पर हम ऐसा ही करते हैं, हारने पर बीसीसीआई की टीम कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं-खिलाड़ियों के हाथ में ट्राफी या कप देखकर खुशी हुई।
            धोनी और गंभीर ने मन मोह लिया, मगर सारी प्रसन्नता चौबीस घंटे में हवा हो गयी। पता लगा कि उनको नकली कप या ट्राफी दी गयी है और असली भारतीय कस्टम विभाग के भंडार कक्ष की शोभा बढ़ा रही है। गनीमत है कि नागरिक सेवाओं से जुड़े कर्मचारी गोपनीयता के नियमों का पालन करते हैं वरना भंडार कक्ष में रखी ट्राफी का सरेआम दृश्य प्रसारित होता तब देश की इज्जत पर जो बट्टा लगता वह दुःखदायी होता।
            वैसे प्रचार माध्यम घुमाफिरा रहे हैं। बीसीसीआई के प्रवक्ता ने जब यह माना है कि ट्राफी नकली है तब उसमें शक की गुंजायश नहंी रहती। फिर भी आईसीसी कहती है कि असली ट्राफी यह कप है। वैसे प्रचार माध्यमों ने प्रमाणित कर दिया है कि वानखेड़े स्टेडियम में खेले गये विश्व कप 2011 के मैच के बाद भारत को दी गयी ट्राफी नकली है। उसमें विश्व कप का वह लोगो नहीं दिख रहा जिसे कोलंबो में अनावरण के समय देखा गया था। चूंकि यह ट्राफी अत्यंत महत्वपूर्ण है इसलिये यह संभव नहीं है कि उसे कहीं खुले में रखा गया हो जिससे उसका रंग उड़ जाये।
मतलब यह कि यह नकली ट्राफी है।
                  यह देश के साथ मजाक है और यकीनन बिना सोचे समझे नहीं किया गया। यह चिढ़कर किया गया है ताकि भारतीय लोग खुशी के बाद अवसाद के वातावरण का सामना करें। कोई है जो भारत की जीत से चिढ़ गया है। कौन हैं वह लोग? इसकी पड़ताल जरूरी है।
               इसमें कोई संदेह नहीं है कि सट्टेबाजों की ताकत जहां व्यापक है वहीं उनके हाथ लंबे हैं। कहा जाता है कि दुनियां के देशों के कानूनों से अलग आईसीसी तथा सट्टेबाजों का के नियम हैं। वह कई जगह कानून बनकर काम चलाते हैं वहां उनके हाथ भी लंबे हैं। भले ही कहा जाता है कि गोरे ईमानदार होते हैं पर जिस तरह अपराधियों के हाथ वह बिकते देखे गये हैं उससे यह भ्रम टूट गया है। ऐसा लगता है कि इस विश्व कप में कहीं न कहीं सट्टेबाजों को अपना काम सही तरह से करने का अवसर नहीं मिला। सेमीफायनल में पाकिस्तान और फायनल में श्रीलंका पर भारत की जीत तय मानी जा रही थी। ऐसे में सट्टेबाजों के लिये विपरीत परिणाम ही फायदेमंद हो सकता था पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि सट्टेबाजों ने अब स्पॉटफिक्सिंग का रास्ता निकाल लिया है पर लगता है कि वह अपनी कमाई से संतुष्ट नहीं है। फिर सेमीफायनल में पहुंची चार टीमों में-भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका तथा न्यूजीलैंड-से तीन गोरवर्ण का प्रतिनिधित्व नहीं करती। क्या गोरों के मन में यह मलाल रह गया था?
                  दूसरा सेमीफायनल और फायनल मैचों को भारत के अनेक संवैधानिक, राजनीतिक, आर्थिक, फिल्मी तथा अन्य विशिष्ट क्षेत्रों से जुड़े शिखर पुरुषों ने देखा। अपने कामकाज से फुरसत निकालकर वह कुछ देर आम इंसानों की तरह मैच देखने आये? उनकी मासुमियत तथा रुचियों को मजाक उड़ाने का कहीं यह इरादा तो नहीं है? क्या गोरे तथा भारत के विरोधियों को यह लगता है कि अमेरिका की लीबिया पर चल रही बमबारी को ही हम लोग देखते रहें और अपने क्रिकेट मैचों को देखना बंद कर देते।
क्रिकेट मैचों में हारने या जीतने पर भावुक नहीं होना चाहिए, यह हम हमेशा ही कहते रहे हैं पर नकली कप का मामला राष्ट्रवादियों को चिढ़ाने वाला है। भारत में आज नववर्ष विक्रम या विक्रमी संवत् 2068 के आगमन का स्वागत हो रहा है। ईसाई संवत् मानने वालों को यह बात समझ में नहीं आयेगी कि ऐसे अवसर इस तरह की अपमान जनक खबर बेहद दुःखदायी है। दो कौड़ी की आईसीसी-विश्व की क्रिकेट पर नियंत्रण करने वाली संस्था-और एक कोड़ी का फायनल मैच, पर देश का नाम अनमोल है। क्रिकेटर और उससे जुड़े संघों के लोग पैसे कमाने के चक्कर में चुप बैठ जायेंगे पर जिनको क्रिकेट से अधिक देश के प्रति प्रेम का भाव है वह इस व्यवहार से क्षुब्ध अवश्य होंगे।
          यह तो एक विचार है। इसका दूसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि यह समाचार ही फिक्स कर बनाया गया हो। विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता का फायनल देखने के बाद यहां के लोगों का क्रिकेट से मन भर सकता है। इधर एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता शुरु हो रही है और उसे दर्शक कम मिल सकते हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता और क्लब स्तरीय क्रिकेट मैचों में अंतर होता है। कहीं यह विश्व कप प्रतियोगिता का स्तर कमतर साबित करने का प्रयास तो नहीं है ताकि दर्शक इसे भूल जायें और क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की तरफ जायें।
इधर यह भी सुनने में आया था कि कुछ सट्टेबाज इधर उधर पकड़े गये। उनके साथ आस्ट्रेलिया के दो गोरे खिलाड़ियों की मिलीभगत की बात सामने आयी। शायद इससे गोरे लोगों को सदमा लगा हो।
                  कहने का अभिप्राय है कि यह घटना पूर्वनियोजित है। इससे दो उद्देश्य या दोनों में से एक प्राप्त करने का प्रयास हो सकता है।
        एक तो भारत को अपमानित करना या फिर विश्व कप प्रतियोगिता को कमतर साबित करना ताकि क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की तरफ जायें। लंबे समय तक विश्व कप की खुमारी उन पर न रहे क्योंकि छह अप्रैल से क्लब स्तरीय प्रतियोगिता प्रारंभ होने वाली है। शक की पूरी गुंजायश है कि इतनी बड़ी प्रतियोगिता में सब कुछ ठीकठाक रहा तो यह ट्राफी कस्टम का कर चुकाकर स्टेडियम में लायी क्यों न गयी? क्या वह इसे फ्री में लाना चाहते थे? करोड़ो रुपये की मालिक संस्थायें 20 लाख रुपये खर्च करने से मुकर क्यों गयीं? आखिरी बात दूसरी नकली ट्राफी अचानक कैसे बनकर आ गयी? मतलब जांच हो तो मामला कुछ का कुछ निकल सकता है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
poet writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
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असली झगड़ा, नकली इंसाफ-हिन्दी व्यंग्य और कविता (asli jhagad aur nakli insaf-hindi vyangya aur kavita)


टीवी पर सुनने को को मिला कि इंसाफ नाम का कोई वास्तविक शो चल रहा है जिसमें शामिल हो चुके एक सामान्य आदमी का वहां हुए अपमान के कारण निराशा के कारण निधन हो गया। फिल्मों की एक अंशकालिक नर्तकी और गायिका इस कार्यक्रम का संचालन कर रही है। मूलतः टीवी और वीडियो में काम करने वाली वह कथित नायिका अपने बिंदास व्यवहार के कारण प्रचार माध्यमों की चहेती है और कुछ फिल्मों में आईटम रोल भी कर चुकी है। बोलती कम चिल्लाती ज्यादा है। अपना एक नाटकीय स्वयंवर भी रचा चुकी है। वहां मिले वर से बड़ी मुश्किल से अपना पीछा छुड़ाया। अब यह पता नहीं कि उसे विवाहित माना जाये, तलाकशुदा या अविवाहित! यह उसका निजी मामला है पर जब सामाजिक स्तर का प्रश्न आता है तो यह विचार भी आता है कि उस शादी का क्या हुआ?
बहरहाल इंसाफ नाम के धारावाहिक में वह अदालत के जज की तरह व्यवहार करती है। यह कार्यक्रम एक सेवानिवृत महिला पुलिस अधिकारी के कचहरी धारावाहिक की नकल पर बना लगता है पर बिंदास अभिनेत्री में भला वैसी तमीज़ कहां हो सकती है जो एक जिम्मेदार पद पर बैठी महिला में होती है। उसने पहले तो फिल्म लाईन से ही कथित अभिनय तथा अन्य काम करने वाले लोगों के प्रेम के झगड़े दिखाये। उनमें जूते चले, मारपीट हुई। गालियां तो ऐसी दी गयीं कि यहां लिखते शर्म आती है।
अब उसने आम लोगों में से कुछ लोग बुलवा लिये। एक गरीब महिला और पुरुष अपना झगड़ा लेकर पहुंच गये या बुलाये गये। दोनों का झगड़ा पारिवारिक था पर प्रचार का मोह ही दोनों को वहां ले गया होगा वरना कहां मुंबई और कहां उनका छोटा शहर। दोनों ने बिंदास अभिनेत्री को न्यायाधीश मान लिया क्योंकि करोड़ों लोगों को अपना चेहरा दिखाना था। इधर कार्यक्रम करने वालों को भी कुछ वास्तविक दृश्य चाहिये थे सो बुलवा लिया।
जब झगड़ा था तो नकारात्मक बातें तो होनी थी। आरोप-प्रत्यारोप तो लगने ही थे। ऐसे में बिंदास या बदतमीज अभिनेत्री ने आदमी से बोल दिया‘नामर्द’।
वह बिचारा झैंप गया। प्रचार पाने का सारा नशा काफूर हो गया। कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो सभी ने देखा। अड़ौस पड़ौस, मोहल्ले और शहर के लोग उस आदमी को हिकारत की नज़र से देखने लगे। वह सदमे से मरा या आत्महत्या की? यह महत्वपूर्ण नहंी है, मगर वह मरा इसी कारण से यह बात सत्य है। पति पत्नी दोनों साथ गये या अलग अलग! यह पता नहीं मगर दोनों गये। घसीटे नहीं गये। झगड़ा रहा अलग, मगर कहीं न कहीं प्रचार का मोह तो रहा होगा, वरना क्या सोचकर गये थे कि वहां से कोई दहेज लेकर दोबारा अपना घर बसायेंगे?
छोटे आदमी में बड़ा आदमी बनने का मोह होता है। छोटा आदमी जब तक छोटा है उसे समाज में बदनामी की चिंता बहुत अधिक होती है। बड़ा आदमी बेखौफ हो जाता है। उसमें दोष भी हो तो कहने की हिम्मत नहीं होती। कोई कहे भी तो बड़ा आदमी कुछ न कहे उसके चेले चपाटे ही धुलाई कर देते हैं। यही कारण है कि प्रचार के माध्यम से हर कोई बड़ा बनना या दिखना चाहता है। ऐसे में विवादास्पद बनकर भी कोई बड़ा बन जाये तो ठीक मगर न बना तो! ‘समरथ को नहीं दोष, मगर असमर्थ पर रोष’ तो समाज की स्वाभविक प्रवृत्ति है।
एक मामूली दंपत्ति को क्या पड़ी थी कि एक प्रचार के माध्यम से कमाई करने वाले कार्यक्रम में एक ऐसी महिला से न्याय मांगने पहुंचे जो खुद अभी समाज का मतलब भी नहीं जानती। इस घटना से प्रचार के लिये लालायित युवक युवतियों को सबक लेना चाहिए। इतना ही नहीं मस्ती में आनंद लूटने की इच्छा वाले लोग भी यह समझ लें कि यह दुनियां इतनी सहज नहीं है जितना वह समझते हैं।
प्रस्तुत है इस पर एक कविता
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घर की बात दिल ही में रहे
तो अच्छा है,
जमाने ने सुन ली तो
तबाही घर का दरवाज़ा खटखटायेगी,
कोई हवा ढूंढ रही हैं
लोगों की बरबादी का मंजर,
दर्द के इलाज करने के लिये
हमदर्दी का हाथ में है उसके खंजर,
जहां मिला अवसर
चमन उजाड़ कर जश्न मनायेगी।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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घर की बात दिल में ही रहे-हिन्दी व्यंग्य और शायरी (ghar ki baat dil mein rah-hindi vyangya aur shayri)

आदर्श के नाम पर समाज सेवा-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविता (adrash ke nam par samaj seva-hindi hasya vyangya kavita)


आया फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू मेरे बेरोजगार भतीजे को
समाज सेवा करने का ख्याल आया है,
यह ज्ञान उसने जेल में बंद अपने गुरु से पाया है,
उसने बताया कि
वह एक सहायता समिति बनायेगा,
अब जनता में अपनी समाज सेवक की तरह छायेगा,
अभी दीपावली के अवसर पर
नकली खोये और
गंदी बनी मिठाईयां खाकर
बहुत लोग बीमार पड़ेंगे,
कुछ पटाखों से घायल होकर
अस्पताल का रुख करेंगे,
उनको वह सहायता प्रदान करेगा,
इसके लिये वह जनता से
पैसा लेकर
हताहतों के जख्म भरेगा,
बस,
समस्या यह है कि वह
उस संस्था का नाम क्या रखे
इसको लेकर विचार कर रहा है,
आया था मेरे पास पूछने
पर अपनी संस्था के काम का प्रचार कर रहा है,
आप ही बताओ कोई शुभ नाम,
कर दो बस, इतना काम,
मेरा भतीजा हमेशा आपका आभार जतायेगा।’’

सुनकर कहैं दीपक बापू
‘‘कमबख्त तुम्हारें कुनबे ने भी
कभी समाज सेवा की है,
जहां मिला वही मेवा की लूट की है,
जहां तक नाम का सवाल है,
उस पर यह कैसा बवाल है,
आदर्श या चरित्र निर्माण जैसा नाम रखकर,
मिठाई का टुकड़ा चखकर,
शुरु कर दो समाज सेवा का काम,
बस,
एक बात याद रखना,
सारा चंदा स्वयं ही चखना,
तुम्हारे कुनबे का भला क्या दोष,
ज़माना आदर्श के नाम पर लूट रहा
इसलिये आम इंसानों में है रोष,
बात जितनी आदर्श की बढ़ती जा रही है,
उतनी ही नैतिकता नीचे आ रही है,
बन गया है भ्रष्टाचार,
ताकतवार आदमी का शिष्टाचार,
आदर्श बनकर कर रहे हैं
वही समाज का चरित्र निर्माण,
जिनमें नहीं है पवित्रता का प्राण,
कोई फर्क नहीं पड़ेगा
अगर तुम्हारा भतीजा
आदर्श समाज सेवा समिति बनायेगा,
चलो एक बेरोगजार काम पर लग जायेगा,
जिनके पास दौलत है
वही आम इंसान को लूट रहे हैं,
अपराध से सराबोर हैं
वही निर्दोष कहलाकर छूट रहे हैं,
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
तुम्हारा भतीजा किसी घोटाले फंसकर
किसी बड़े पद पर चढ़ जायेगा।’’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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भारत में हिन्दीः आम और खास वर्ग की अलग अलग पहचान करती भाषा-हिन्दी लेख (comman and special class of hindi in india-hindi lekh)


भारत की खिल्ली उड़ाने वाले विदेशी लोग इसे ‘‘साधुओं और सपेरों का देश कहा करते थे। भारत के बाहर प्रचार माध्यम इसी पहचान को बहुत समय आगे बढ़ाते रहे पर जिन विदेशियों ने उस समय भी भारत देखा तो पाया कि यह केवल एक दुष्प्रचार मात्र था। हालांकि अब ऐसा नहीं है पर अतीत की छबि अभी कई जगह वर्तमान स्वरूप में विद्यमान दिखाई देती है। इससे एक बात तो मानी जा सकती कि आधुनिक प्रचार माध्यमों के -टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं- अधिकतर कार्यकर्ता जनमानस में अपनी बात स्थापित करने में बहुत सक्षम है। इसी क्षमता का लाभ उठाकर वह अनेक तरह के भ्रम मी सत्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अनेक लोग तो करते ही हैं। इस साधु और सपेरों की छबि से देश मुक्त हुआ कि पता नहीं पर वर्तमान में भी भारत की छबि को लेकर अनेक प्रकार के अन्य भ्रम यही प्रचार माध्यम फैलाते हैं और जिनका प्रतिकार करना आवश्यक है।
अगर हम इस पर बहस करेंगे तो पता नहीं कितना लंबा लिखना पड़ेगा फिर यह भी तय नहीं है कि बहस खत्म होगी कि नहीं। दूसरा प्रश्न यह भी है कि यह प्रचार माध्यम कार्यकर्ता कहीं स्वयं ही तो मुगालतों में नहीं रहते। पता नहीं बड़े शहरों में सक्रिय यह प्रचार माध्यम कर्मी इस देश की छबि अपने मन की आंखों से कैसी देखते हैं? मगर इतना तय है कि यह सब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न है और यहां की अध्यात्मिक ताकत को नहीं जानते इसलिये अध्यात्म की सबसे मज़बूत भाषा हिन्दी का एक तरह से मज़ाक बना रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि उनके पाठक, दर्शक तथा श्रोता केवल कान्वेंट पढ़े बच्चे ही हैं या फिर केवल वही उनके अभिव्यक्त साधनों के प्रयोक्ता हैं। मज़दूर गरीब, और ग्रामीण परिवेश के साथ ही शहर में हिन्दी में शिक्षित लोगों को तो केवल एक निर्जीव प्रयोक्ता मानकर उस पर अंग्रेजी शब्दों का बोझ लादा जा रहा है।
अनेक समाचार पत्र पत्रिकाऐं अंग्रेजी भाषा के शब्द देवनागरी लिपि के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं-कहीं तो कहीं तो शीर्षक के रूप में पूरा वाक्य ही लिख दिया जाता है। यह सब किसी योजना के तहत हो रहा है इसमें संशय नहीं है और यह भी इस तरह की योजना संभवत तीन साल पहले ही तैयार की गयी लगती है जिसे अब कार्यरूप में परिवर्तित होते देखा जा रहा है।
अंतर्जाल पर करीब तीन साल पहले एक लेख पढ़ने में आया था। जिसमें किसी संस्था द्वारा रोमन लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को लिखने के लिये प्रोत्साहन देने की बात कही गयी थी। उसका अनेक ब्लाग लेखकों ने विरोध किया था। उसके बाद हिन्दी भाषा में विदेशी शब्द जोड़ने की बात कही गयी थी तो कुछ ने समर्थन तो कुछ ने विरोध किया था। उस समय यह नहीं लगा था कि ऐसी योजनायें बनाने वाली संस्थायें हिन्दी में इतनी ताकत रखती हैं कि एक न एक दिन उनकी योजना ज़मीन पर रैंगती नज़र आती हैं। अब यह बात तो साफ नज़र आ रही है कि इन संस्थाओं में व्यवसायिक लोग रहते हैं जो कहीं न कहीं से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्राप्त कर ही आगे बढ़ते हैं। प्रत्यक्षः वह बनते तो हिन्दी के भाग्य विधाता हैं पर वह उनका इससे केवल इतना ही संबंध रहता है कि वह अपने प्रयोजको को सबसे अधिक कमा कर देने वाली इस भाषा में निरंतर सक्रिय बनाये रखें। यह उन लोगों के भगवान पिता या गॉड फादर बन जाते हैं जो हिन्दी से कमाने आते हैं। यह उनको सिफारिशें कर अपने प्रायोजकों के साथ जोड़ते हैं-आशय यह है कि टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में काम दिलाते होंगे। हिन्दी भाषा से उनका कोई लेना देना नहीं है अलबत्ता कान्वेंट मे शिक्षित  लोगों को वह हिन्दी में रोजगार तो दिला ही देते होंगे ऐसा लगता है। यही कारण है कि इतने विरोध के बावजूद देश के पूरे प्रचार माध्यम धड़ल्ले से इस कदर अंग्रेजी के शब्द जोड़ रहे हैं कि भाषा का कबाड़ा हुए जा रहा है। अब हिन्दी दो भागों में बंटती नज़र आ रही है एक आम आदमी की दूसरी खास लोगों की भाषा।
हिन्दी के अखबार पढ़ते हुए तो अपने ही भाषा ज्ञान पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषी होने का अपमान झेल रहे हैं। इससे भी ज्यादा इस बात की हैरानी कि आम आदमी के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव यह व्यवसायिक संस्थान कैसे रख रहे हैं। सीधी बात कहें तो देश का खास वर्ग और उसके वेतनभोगी लोग समाज से बहुत दूर हो गये हैं। यह तो उनका मुगालता ही है कि वह समाज या हिन्दी को अपने अनुरूप बना लेंगें क्योंकि इस देश का आधार अब भी गरीब, मज़दूर और आम व्यवसायी है जिसके सहारे हिन्दी भाषा जीवीत है। जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विश्व को दिखाने तक ही ठीक हैं। उस विकास को लेकर देश के प्रचार माध्यम झूम रहे हैं उसकी अनुभूति इस देश का आम आदमी कितनी करता है यह देखने की कोशिश नहंी करते। उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है क्योंकि उनकीभाषा आम आदमी के भाव से मेल नहीं खाती। वह साधु सपेरों वाले देश को दृष्टि तथा वाणी से हीन बनाना चाहते हैं। अपनी भाषा के विलुप्तीकरण में अपना हित तलाश रहे लोगों से अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह हिन्दी भाषा के सभ्य रूप को बने रहने देंगे।
हिन्दी के कथित विकास के लिये बनी संस्थाओं में सक्रिय बुद्धिजीवी भाषा की दृष्टि से कितने ज्ञाता हैं यह कहना कठिन है अलबत्ता कहीं न कहीं अंग्रेजी के समकक्ष लाने के दावे वह जरूर करते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी कई जगह सक्रिय हैं और हिन्दी भाषा के लिये गुरु की पदवी भी धारण कर लेते हैं। उनकी कीर्ति या संपन्नता से हमें कोई शिकायत नहीं है पर इतना तय है कि व्यवसायिक संस्थानों के प्रबंधक उनकी मौजूदगी इसलिये बनाये रखना चाहते हैं कि उनको अपने लिये हिन्दी कार्यकर्ता मिलते रहें। मतलब हिन्दी के भाग्य विधाता हिन्दी के व्यववायिक जगत और आम प्रयोक्ता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। इससे अधिक उनकी भूमिका नहीं है। ऐसे में नवीन हिन्दी कार्यकर्ता रोजगार की अपेक्षा में उनको अपना गुरु बना लेते हैं।
ऐसे प्रयासों से हिन्दी का रूप बिगड़ेगा पर उसका शुद्ध रूप भी बना रहेगा क्योंकि साधु और सपेरे तो वही हिन्दी बोलेंगे और लिखेंगे जो आम आदमी जानता हो। हिन्दी आध्यात्म या अध्यात्म की भाषा है। अनेक साधु और संत अपनी पत्रिकायें निकालते हैं। उनके आलेख पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसमें हिन्दी का साफ सुथरा रूप दिखाई देता है। अब तो ऐसा लगने लगा है हिन्द समाचार पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने से तो अच्छा है कि अध्यात्म पत्रिकायें पढ़कर ही अपने हिन्दी भाषी होने का गर्व महसूस किया जाये। अखबार में भी वही खबरें पढ़ने लायक दिखती हैं जो भाषा और वार्ता जैसी समाचार एजेंसियों से लेकर प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय समाचारों के लिये क्योंकि स्थानीय पत्रकार होते हैं इसलिये उनकी हिन्दी भी ठीक रहती है मगर आलेख तथा अन्य प्रस्तुतियां जो कि साहित्य का स्त्रोत होती हैं अब अंग्रेजीगामी हो रही हैं और ऐसे पृष्ठ देखने का भी अब मन नहीं करता। एक बात तो पता लग गयी है कि हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय एक समूह ऐसा भी है जो दावा तो हिन्दी के हितैषी होने का है पर वह मन ही मन झल्लाता भी है कि अंग्रेजी में छपकर भी वह आम आदमी से दूर है इसलिये वह हिन्दी भाषा प्रचार माध्यमों में छद्म रूप लेकर घुस आया है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का उसका इरादा केवल तात्कालिक आर्थिक हित प्राप्त करना ही है। वह हिन्दी का महत्व नहींजानता क्योकि आध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपने अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति के कारण ही बढ़ेगी न कि सतही साहित्य के सहारे। ऐसे में हिन्दी की चिंदी करने वालों को केवल इंटरनेट के लेखक ही चुनौती दे सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके पास आम पाठक का समर्थन नहीं है। 
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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दशहराःरावण के नये रूप महंगाई, भ्रष्टाचार, और बेईमानी से लड़ना आवश्यक-हिन्दी लेख (ravan ke naye roop-hindi lekh


आज पूरे देश में त्रेतायुग में श्री राम की रावण पर युद्ध के समय हुई विजय के रूप में मनाये जाने वाले दशहरा पर्व की धूम मची हुई है। एक दिन के लिये खुशी से मनाये जाने वाले इस पर्व के मायने बहुत हैं यह अलग बात है कि लोग इसे समझना नहीं चाहते। दरअसल भगवान श्री राम और रावण दो ऐसे व्यक्तित्व थे जो अपने समय में सर्वाधिक शक्तिशाली और पराक्रमी माने जाते थे पर इसके बावजूद भगवान श्रीराम को अच्छाई तथा रावण को बुराई का प्रतीक माना जाता है। रावण के बारे तो कहा जाता है कि उसमें विद्वता कूट कूट कर भरी हुई थी। जहां तक उसकी धार्मिक प्रवृत्ति का सवाल है तो उसने भगवान शिव की तपस्या कर ही अमरत्व का वरदान प्राप्त किया था। इसका मतलब यह है कि कम से कम वह भगवान शिव का महान भक्त था और वह उसके आराध्य देव थे जिनको आज भी भारतीय समाज बहुत मानता है। आखिर रावण में क्या दुर्गुण थे इस पर अवश्य विचार करना चाहिये क्योंकि कहीं न कहीं हम उनकी समाज में उपस्थिति देखते हैं और तब अनेक लोग रावण तुल्य लगते हैं।
अमरत्व के वरदान ने रावण के मन में अहंकार का भाव स्थापित कर दिया था। वह अपने अलावा अन्य सभी पूजा पद्धतियों का विरोधी था। उसे लगता था कि केवल तपस्या के अलावा अन्य सब पूजा पद्धतियां व्यर्थ है और वह यज्ञ और हवन का विरोधी था। दूसरा वह यह भी कि वह नहीं चाहता था कोई दूसरा तप या स्वाध्याय कर उस जैसा शक्तिशाली हो जाये। इसलिये ही उसने वनों में रहने वाले ऋषियों, मुनियों तथा तपस्वियों के साथ उस समय के अनेक समृद्ध राजाओं को भी सताया था। देवराज इंद्र तक उससे आतंकित थे। वह यज्ञ और हवन करने वाले स्थानों पर उत्पात मचाने के लिये अपने अनुचर नियुक्त करता था जिनमें सुबाहु और मारीचि के साथ भगवान श्रीराम की मुठभेड़ ऋषि विश्वमित्र के आश्रम पर हुई थी। दरअसल यहीं से ही भगवान श्रीराम की शक्ति का परिचय तत्कालीन रावण विरोधी रणनीतिकारों को मिला जिससे वह भगवान श्री राम का रावण से युद्ध कराने के लिये जुट गये तो साथ ही रावण को भी यह संदेश गया कि अब उसका पतन सन्निकट है। जो लोग सीताहरण को ही भगवान श्रीराम और रावण का कारण मानते हैं वह अन्य घटनाओं पर विचार नहंीं करते। रावण ने श्रीसीता का हरण केवल भगवान श्रीराम को अपने राज्य में लाकर उनको मारने के लिये किया था। सूपर्णखा का नाक कान कटना भी भगवान श्रीराम के द्वारा रावण को चुनौती भेजने जैसा ही था।
एक भारतीय उपन्यासकार कैकयी को खलनायिका मानने की बजाय तत्कालीन कुशल रणनीतिकारों में एक मानते हैं। इसका कारण यह है कि वह स्वयं एक युद्ध विशारद होने के साथ ही कुशल सारथी थी। उसे एक युद्ध में राजा दशरथ के घायल होने पर उनका रथ स्वयं दूर ले जाकर उनको बचाया था जिसके एवज में तीन वरदान देने का वादा पति से प्राप्त किया जो अंततः भगवान श्रीराम के वनवास तथा भरत का राज्य मांगने के रूप में प्रकट हुए। रावण के समय में देवराज इंद्र उसके पतन के लिये बहुत उत्सुक थे। कैकयी को राम के वनवास के लिये उकसाने वाली मंथरा भी शायद इसलिये अयोध्या आयी थी। संभवत उसे देवताओं ने ही कैकयी को भड़काने या संदेश देने के लिये भेजा था जबकि प्रकटतः बताया जाता है कि सरस्वती देवी ने मंथरा की बुद्धि हर ली थी। कहा जाता है कि श्रीराम कके वनवास के बाद मंथरा फिर अयोध्या में नहीं दिखी जो इस बात का प्रमाण है कि वह केवल इसी काम के लिये आयी थी और कहीं न कहीं उस समय के धार्मिक रणनीतिकारों के दूत या गुप्तचर के रूप में उसने काम किया था। कैकयी स्वयं एक युद्ध और रणनीतिकविशारद थी इसलिये जानती थी कि ऋषि विश्वमित्र के आश्रम पर सुबाहु के वध और मारीचि के भाग जाने के परिणाम से रावण नाखुश होगा और वह भगवान श्रीराम से कभी न कभी लड़ेगा। ऐसे में अयोध्या में संकट न आये और भगवान श्रीराम सामर्थ्यवान होने के कारण राजधानी से दूर जाकर उसका वध करें इसी प्रयोजन से उसने भगवान श्रीराम को वन भेजने का वर मांगा होगा। रावण के विद्वान और आदर्शवादी होने की बात कैकयी जानती होंगी पर उनको यह अंदाज बिल्कुल नहीं रहा होगा कि वह श्रीसीता का हरण जैसा जघन्य कार्य करेगा। जब कैकयी भगवान श्री राम को वनवास का संदेश दे रही थीं तब वह मुस्करा रहे थे। इससे ऐसा लगता है वह सारी बातें समझ गये थे। इतना ही नहीं भगवान श्रीराम ने हमेशा ही अपने भाईयों को कैकयी का सम्मान करने का आदेश दिया जो इस बात को समझते थे कि वह अयोध्या के हितार्थ एक रणनीति के तहत स्वयं काम रही हैं या उनको प्रेरित किया जा रहा है। जब कैकयी ने भगवान श्रीराम और श्री लक्ष्मण के साथ श्रीसीता को भी वल्कल वस्त्र पहनने को लिये दिये तब वहां उपस्थिति पूरा जनसमुदाय हाहाकार कर उठा। दशरथ गुस्से में आ गये पर कैकयी का दिल नहीं पसीजा। इस घटना से पूर्व तक कैकयी को एक सहृदय महिला माना जाता था। उसकी क्रूरता का एक भी उदाहरण नहीं मिलता। तब यकायक क्या हो गया? कैकयी क समर्थन करने वाले यह भी सवाल उठाते हैं कि उसने 14 वर्ष की बजाय जीवन भर का वनवास क्यों नहीं मांगा क्योंकि भगवान श्रीराम 14 वर्ष बाद तो और अधिक बलशाली होने वाले थे। वनवास जाते समय तो नवयुवक थे और बाद में भी उनके बाहुबल और पराक्रम के साथ ही अनुभव में वृद्धि की संभावना थी। ऐसे में कैकयी जैसी बुद्धिमान महिला यह सोच भी नहीं सकती थी कि 14 वर्ष बाद राम अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त करने लायक नहीं रहेंगें।
कैकयी जानती थी कि देवता, ऋषि गण, तथा मुनि लोग भगवान श्रीराम और रावण के बीच युद्ध की संभावनाऐं ढूंढ रहे हैं। उन सभी के रणनीतिकार रावण के पतन के लिये भगवान श्रीराम की तरफ आंख लगाये बैठे हैं। ऐसे में भगवान श्रीराम अगर अयोध्या में राज सिंहासन पर बैठेंगे तो चैन से नहीं रह पायेंगे और इससे प्रजा पर भी कष्ट आयेगा। फिर रावण वध उस समय के सभी राजाओं की सबसे बड़ी प्राथमिकता थी और प्रमुख होने के कारण अयोध्या पर ही इसका दारोमदार था।
जब वनवास में भगवान श्री राम अपने भ्राता लक्ष्मण और सीता के साथ अगस्त्य ऋषि के आश्रम पर आये तो देवराज इंद्र उनको देखकर चले गये जो संभावित राम रावण युद्ध पर ही विचार करने वहां आये थे। वहीं अगस्त्य ऋषि ने उनको अलौकिक धनुष दिया जिससे रावण का वध हुआ।
अपने यज्ञ की रक्षा करने के लिये जब ऋषि विश्वमित्र भगवान श्रीराम का हाथ मांगने दशरथ की दरबार में पहुंचे तो उनका पिता हृदय सौंपने को तैयार नहीं हुआ। तब गुरु वशिष्ठ ने उनको समझाया तब कहीं दशरथ ने भगवान श्रीराम को ऋषि विश्व मित्र के साथ भेजा। यहां यह भी याद रखना चाहिए कि गुरु वशिष्ट ने विश्वमित्र ने अपनी पुरानी शत्रुता को इसलिये भुला दिया था क्योंकि उस समय समाज में रावण का संकट विद्यमान था जिसका निवारण आवश्यक था। इस तरह भगवान शिव की तपस्या से अवध्य हो चुके रावण की भूमिका तैयार हुई थी।
इससे एक संदेश मिलता है कि राज्य और समाज के उत्थान और रक्षा के लिये दूरगामी अभियान बनाने पड़ते हैं जिनके परिणाम में बरसो लग जाते हैं। केवल नारों और धर्म की रक्षा के लिये हिंसक संघर्ष का भाव रखने से काम नहीं चलता। दूसरी बात यह भी कि ऋषि विश्वमित्र, अगस्त्य, वशिष्ठ, भारद्वाज मुनि तथा अन्य अपने तपबल से रावण का अस्त्र शस्त्रों के साथ ही शाप देकर भी संहार करने में समर्थ थे पर तपस्या के कारण अहिंसक प्रवृत्ति के चलते उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनको रावण वध या पतन से मिलने वाली प्रतिष्ठा का लोभ नहीं था और उन्होंने उस समय के महान धनुर्धर भगवान श्रीराम को इस कार्य के लिये चुनकर समाज के लिये एक आदर्श के रूप में प्रतिष्ठत करने का रावण वध के साथ ही दूसरा अभियान प्रारंभ कर उसे पूरा किया जिसमें उस समय के देवराज इंद्र जैसे समृद्ध और पराक्रमी पुरुषों का भी सहयोग मिला। सीधी बात यह है कि ऐसे अभियानों के लिये नेता के रूप में एक शीर्षक मिल जाता है पर आवश्यक यह है कि उसके लिये सामूहिक प्रयास हों।
दशहरे पर रावण का पुतला जलाना अब कोई खुशी की बात नहीं रही। भ्रष्टाचार, बेईमानी, मिलावट, तथा महंगाई के रूप में यह रावण अब अनेक सिर लेकर विचर रहा है। इनसे लड़ने के लिये हर भारतीय में विवेक, संतोष, तथा सहकारिता के भाव का होना जरूरी है। अब बुद्धि को धनुष, विचार को तीर तथा संकल्प को गदा की तरह साथ रखना होगा तभी अब अदृश्य रूप से विचर रहे रावण के रूपों का संहार किया जा सकता है।
इस दशहरे के अवसर इसी पाठ के साथ इस ब्लाग लेखक के मित्र ब्लाग लेखकों तथा पाठकों इस पर्व की ढेर सारी बधाई। उनका भविष्य मंगलमय हो यही हमारी कामना है।
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लेखक संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior, madhyapradesh
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याद्दाश्त और ज़िंदगी-हिन्दी कविता (yaddashta aur zindagi-hindi poem)


अवसाद के क्षण भी बीत जाते हैं,
जब मन में उठती हैं खुशी की लहरें
तब भी वह पल कहां ठहर पाते हैं,
अफसोस रहता है कि
नहीं संजो कर रख पाये
अपने गुजरे हुए वक्त के सभी दृश्य
अपनी आंखों में
हर पल नये चेहरे और हालत
सामने आते हैं,
छोटी सी यह जिंदगी
याद्दाश्त के आगे बड़ी लगती है
कितनी बार हारे, कितनी बार जीते
इसका पूरा हिसाब कहां रख पाते हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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प्रजांतत्र का चौथा खंभा-हिन्दी हास्य कविता (prajatantra ka chautha khanbha-hindi hasya kavita)


समाज सेवक ने कहा प्रचारक से
‘यार, तुम भी अज़ीब हो,
अक्ल से गरीब हो,
हम चला रहे गरीबों के साथ तुमको भी
करके अपनी मेहनत से समाज सेवा,
वरना नहीं होता कोई तुम्हारा भी नाम लेवा,
हमारी दम पर टिका है देश,
हमारी सुरक्षा व्यवस्था की वजह से
कोई नहीं आता तुमसे बदतमीजी से पेश,
फिर भी तुम हमारे भ्रष्टाचार के किस्से
क्यों सरेराह उछालते हो,
अरे, आज की अर्थव्यवस्था में
कुछ ऊंच नीच हो ही जाता है,
तुम क्यों हमसे बैर पालते हो,
बताओ हमारा तुम्हारा याराना कैसे चल पायेगा।’

सुनकर प्रचारक हंसा और बोला
‘क्या आज कहीं से लड़कर आये हो
या कहीं किसी भले के सौदे से कमीशन नहीं पाये हो,
हम प्रचारकों को आज के समाज का
चौथा स्तंभ कहा जाता है,
हमारा दोस्ताना समर्थन
तुम्हारा विरोध बहा ले जाता है,
फिर यह घोटाले भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिये नहीं
हिस्से के बंटवारा न होने पर
उजागर किये जाते हैं,
मिल जाये ठीक ठाक तो
जिंदा मामले दफनाये भी जाते हैं
तुम्हारे चमचों ने नहीं किया होगा
कहीं हिस्से का बंटवारा
चढ़ गया हो गया मेरे चेलों का इसलिये पारा,
इतना याराना मैंने तुमसे निभा दिया
कि ऐसी धौंस सहकर दिखा दिया,
बांध में पानी भर जाने पर
उसे छोड़ने की तरह
हिस्सा आगे बढ़ाते रहो
शहर डूब जाये पानी में
पर हम उसे हंसता दिखायेंगे
लोगों को भी सहनशीलता सिखायेंगे
पैसे की बाढ़ में बह जाने का
खतरा हमें नहीं सतायेगा,
वह तो रूप बदलकर आंकड़ों में
बैंक में चला जायेगा,
रुक गया तो
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ
टूटकर तुम पर गिर जायेगा।’’
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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राम मंदिर पर अदालत का फैसला स्वागत योग्य-हिन्दी लेख (ayodhya ke ram mandir par adalat ka faisla-hindi lekh)


अंततः अयोध्या में राम जन्मभूमि पर चल रहे मुकदमे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला बहुप्रतीक्षित फैसला आ ही गया। तीन जजों की खण्डपीठ ने जो फैसला दिया वह आठ हज़ार पृष्ठों का है। इसका मतलब यह है कि इस फैसले में लिये हर तरह के पहलू पर विचार करने के साथ ही हर साक्ष्य का परीक्षण भी किया गया होगा। तीनों माननीय न्यायाधीशों ने निर्णय लिखने में बहुत परिश्रम करने के साथ ही अपने विवेक का पूरा उपयोग किया इस बात में कोई संदेह नहीं है। फैसले से प्रभावित संबंधित पक्ष अपने अपने हिसाब से इसके अच्छे और बुरे होने पर विचार कर आगे की कार्यवाही करेंगे क्योंकि अभी सवौच्च न्यायालय का भी दरवाजा बाकी है। यह अलग बात है कि सभी अगर इस फैसले से संतुष्ट हो गये तो उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार ही काम करेंगे।
इस फैसले से पहले जिस तरह देश में शांति की अपीलें हुईं और बाद में भी उनका दौर जारी है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि धार्मिक संवेदशीलता के मामले में हमारा देश शायद पूरे विश्व में एक उदाहरण है। सुनने में तो यह भी आया है कि इस ज़मीन पर विवाद चार सौ वर्ष से अधिक पुराना है। साठ साल से अब अदालत में यह मामला चल रहा था। पता नहंी इस दौरान कितने जज़ बदले तो कई रिटायर हो चुके होंगे। प्रकृति का नियम कहें या सर्वशक्तिमान की लीला जिसके हाथ से जो काम होना नियत है उसी के हाथ से होता है।
टीवी चैनलों के अनुसार तीनों जजों ने एक स्वर में कहा-‘रामलला की मूर्तियां यथा स्थान पर ही रहेंगी।’
अलबत्ता विवादित जमीन को संबंधित पक्षों  में तीन भागों में बांटने का निर्णय दिया गया है। इस निर्णय के साथ ही कुछ अन्य विषयों पर भी माननीय न्यायाधीशों के निर्णय बहुमत से हुए हैं पर मूर्तियां न हटाने का फैसला सर्वसम्मत होना अत्यंत महत्वपूर्ण तो है ही, इस विवाद को पटाक्षेप करने में भी सहायक होगा।
चूंकि यह फैसला सर्वसम्मत है इसलिये अगर सवौच्च न्यायालय में यह मामला जाता है तो वहां भी यकीनन न्यायाधीश इस पर गौर जरूर फरमायेंगे.ऐसा पिछले मामलों में देखा गया है यह बात कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं। वैसे ऐसे मामलों पर कानूनी विशेषज्ञ ही अधिक बता सकते हैं पर इतना तय है कि अब अगर दोनों पक्ष न्यायालयों का इशारा समझ कर आपस में समझ से एकमत होकर देशहित में कोई निर्णय लें तो बहुत अच्छा होगा।
निर्मोही अखाड़ा एक निजी धार्मिक संस्था है और उसका इस मामले में शामिल होना इस बात का प्रमाण है कि अंततः यह विवाद निजी व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच था जिसे भगवान श्रीराम के नाम पर संवदेनशील बनाकर पूरे देश में प्रचारित किया गया। बरसों से कुछ लोग दावा करते हैं कि भगवान श्री राम के बारे में कहा जा रहा है कि वह हम भारतीयों के लिये आस्था का विषय है। ऐसा लगता है कि जैसे भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र को मंदिरों के इर्दगिर्द समेटा जा रहा है। सच बात तो यह है कि भगवान श्रीराम हमारे न केवल आराध्य देव हैं बल्कि अध्यात्मिक पुरुष भी हैं जिनका चरित्र मर्यादा के साथ जीवन जीना सिखाता है। यह कला बिना अध्यात्मिक ज्ञान के नहीं आती। इसके लिये दो मार्ग हैं-एक तो यह कि योग्य गुरु मिल जाये या फिर ऐसे इष्ट का स्मरण किया जाये जिसमें योग्य गुरु जैसे गुण हों। उनके स्मरण से भी अपने अंदर वह गुण आने लगते हैं। एकलव्य ने गुरु द्रोण की प्रतिमा को ही गुरु मान लिया और धनुर्विद्या में महारथ हासिल की। इसलिये भगवान श्री राम का हृदय से स्मरण कर उन जैसे सभी नहीं तो आंशिक रूप से कुछ गुण अपने अंदर लाये जा सकते हैं। बाहरी रूप से नाम लेकर या दिखाने की पूजा करने से आस्था एक ढोंग बनकर रह जाती है। हम जब धर्म की बात करते हैं तो याद रखना चाहिये कि उसका आधार कर्मकांड नहीं  बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान है और भगवान श्री राम उसके एक आधार स्तंभ है। हम जब उनमें आस्था का दावा करते हुए वैचारिक रूप संकुचित होते हैं तब वास्तव में हम कहीं न कहीं अपने हृदय को ही धोखा देते हैं।
मंदिरों में जाना कुछ लोगों को फालतू बात लगती है पर वहां जाकर अगर अपने अंदर शांति का अनुभव किया जाये तब इस बात का लगता है कि
मन की मलिनता को निकालना भी आवश्यक है। दरअसल इससे ध्यान के लाभ होता है। अगर कोई व्यक्ति घर में ही ध्यान लगाने लगे तो उससे बहुत लाभ होता है पर निरंकार के प्रति अपना भाव एकदम लगाना आसान नहीं होता इसलिये ही मूर्तियों के माध्यम से यह काम किया जा सकता है। यही ध्यान अध्यात्मिक ज्ञान सुनने और समझने में सहायक होता है और तब जीवन के प्रति नज़रिया ही बदल जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मंदिर और मूर्तियों का महत्व भी तब है जब उनसे अध्यात्मिक शांति मिले। बहरहाल इस फैसले से देश में राहत अनुभव की गयी यह खुशी की बात है।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नीयत में भ्रष्टाचार-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (neeyat men bhrashtachar-hindi satire poem’s)


भ्रष्टाचार के विरुद्ध
अब कभी ज़ंग नहीं हो सकती,
अलबत्ता हिस्सा बांटने पर
हो सकता है झगड़ा
मगर मुफ्त में मिले पैसे को
हक की तरह वसूल करने में
किसी की नीयत तंग नहीं हो सकती।
————

मर गयी है लोगों की चेतना इस कदर कि
सपने देखने के लिये भी
सोच उधार लेते हैं,
अपनी मंज़िल क्या पायेंगे वह लोग
जो हमराह के रूप में कच्चे यार लेते हैं,
अपने ख्वाबों में चाहे कितने भी देखे सपने
आकाश में उड़ने के
पर इंसान को पंख नहीं मिले
फिर भी कुछ लोग उड़ने के अरमान पाल लेते हैं।
———-
लोगों में चेतना लाने का काम
भी अब ठेके पर होने लगा है,
जिसने लिया वह सोने लगा है,
मर गये लोगों के जज़्बात
मुर्दा दिलों में हवस के कीड़ों का निवास होने लगा है।
——-

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आतंक और युद्ध में फर्क होता है-हिन्दी लेख (diffarence between terarrism and war-hindi aticle)


फर्जी मुठभेड़ों की चर्चा कुछ
इस तरह सरेआम हो जाती कि
अपराधियों की छबि भी
समाज सेवकों जैसी बन जाती है।
कई कत्ल करने पर भी
पहरेदारों की गोली से मरे हुए
पाते शहीदों जैसा मान,
बचकर निकल गये
जाकर परदेस में बनाते अपनी शान
उनकी कहानियां चलती हैं नायकों की तरह
जिससे गर्दन उनकी तन जाती है।
——–
टीवी चैनल के बॉस ने
अपने संवाददाता से कहा
‘आजकल फर्जी मुठभेड़ों की चल रही चर्चा,
तुम भी कोई ढूंढ लो, इसमें नहीं होगा खर्चा।
एक बात ध्यान रखना
पहरेदारों की गोली से मरे इंसान ने
चाहे कितने भी अपराध किये हों
उनको मत दिखाना,
शहीद के रूप में उसका नाम लिखाना,
जनता में जज़्बात उठाना है,
हमदर्दी का करना है व्यापार
इसलिये उसकी हर बात को भुलाना है,
मत करना उनके संगीन कारनामों की चर्चा।
———–

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भारत में भूत-हिन्दी हास्य कविता (bharat men bhoot-hindi hasya kavita)


पोते ने दादा से पूछा
‘‘अमेरिका और ब्रिटेन में
कोई इतनी भूतों की चर्चा नहीं करता,
क्या वहां सारी मनोकामनाऐं पूरी कर
इंसान करके मरता है,
जो कोई भूत नहीं बनता है।
हमारे यहां तो कहते हैं कि
जो आदमी निराश मरते हैं,
वही भूत बनते हैं,
इसलिये जहां तहां ओझा भूत भगाते नज़र आते हैं।’’

दादा ने कहा-
‘‘वहां का हमें पता नहीं,
पर अपने देश की बात तुम्हें बताते हैं,
अपना देश कहलाता है ‘विश्व गुरु’
इसलिये भूत की बात में जरा दम पाते हैं,
यहां इंसान ही क्या
नये बनी सड़कें, कुऐं और हैंडपम्प
लापता हो जाते हैं,
कई पुल तो ऐसे बने हैं
जिनके अवशेष केवल काग़ज पर ही नज़र आते हैं,
यकीनन वह सब भूत बन जाते हैं।’’
——–

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निगाहों ने खो दी है अच्छे बुरे की पहचान-हिन्दी शायरी (nanigah ne kho di pahchan-hindi shayari)


लोगों की संवेदनाऐं मर गयी हैं
इसलिये किसी को दूसरे का दर्द
तड़पने के लिये मजबूर नहीं कर पाता है।

निगाहों ने खो दी है अच्छे बुरे की पहचान
अपने दुष्कर्म पर भी हर कोई
खुद को साफ सुथरा नज़र आता है।

उदारता हाथ ने खो दी है इसलिये
किसी के पीठ में खंजर घौंपते हुए नहीं कांपता,
ढेर सारे कत्ल करता कोई
पर खुद को कातिल नहीं पाता है।

जीभ ने खो दिया है पवित्र स्वाद,
इसलिये बेईमानी के विषैले स्वाद में भी
लोगों में अमृत का अहसास आता है।

किससे किसकी शिकायत करें
अपने से ही अज़नबी हो गया है आदमी
हाथों से कसूर करते हुए
खुद को ही गैर पाता है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नागपंचमी पर्व का आधुनिक युग में महत्व-हिन्दी लेख


पूरे देश में नागपंचमी का पर्व बड़े धूमधाम से बनाया जाता है। दरअसल इसका धार्मिक महत्व सभी जानते हैं पर शायद ही कोई इसका अध्यात्मिक महत्व समझता हो क्योंकि उसका संबंध आंतरिक अनुभूतियों से है जो अव्यक्त होती हैं जबकि लोग व्यक्त भाव से मंदिरों में पूजा अर्चना कर ही इतिश्री कर लेते हैं। अध्यात्मिक विषय आंतरिक क्रियाओं से जुड़ा है उनका ज्ञान होने पर हम हमने कर्मों का दृश्यव्य के साथ अदृश्यव्य परिणामों का भी अध्ययन कर सकते हैं।
नागपंचमी मनाते हुए इस देश को बरसों हो गये पर आज भी नाग और सांप के नाम पर इतने भ्रम फैले हैं कि देखकर आश्चर्य होता है। मजे की बात यह है कि शिक्षित तबका भी उस भ्रम के साथ जी रहा है जबकि सच उसने अपनी किताबों में पढ़ा है।
जो भ्रम इस देश में फैले हैं वह यह है कि
-सारे सांप और नाग जहरीले होते हैं।
-सांप और नाग दूध पीते हैं।
-नाग बीन की आवाज पर नाचता है।
इनका सच यह है कि
-नब्बे फीसदी से अधिक सांप और नाग जहरीले नहीं होते।
-सांप और नाग दूध पी नहीं सकते क्योंकि उनके मुख में अंदर चीज ले जाने की क्षमता नहीं होती। वह निगलते हैं इसलिये चूहे या मैंढक को सीधे मुंह में लेकर पेट में निगल जाते हैं। ?
-सपेरा बीन बजाते हुए स्वयं भी नृत्य करता है जिसे देखकर उसका पालतू सांप या नाग नृत्य करता है। सांप या नाग को कान नहीं होते वह शरीर की धमनियों में जमीन पर होने वाले स्वर की अनुभूति कर अपना मार्ग चलता है।
अध्यात्मिक और आधुनिक ज्ञान के अभाव के कारण शिक्षित लोग जो कि आधुनिक कालोनी में बसते हैं वहां सांप या नाग के अपने घर में आने पर घबड़ा जाते हैं। वह कहते हैं कि सांप हमारे घर में आ गया जबकि सच यह है कि सांप या नाग के घर पर उन्होंने अपना निवास बनाया होता है। उनके घरों में सांप आने पर किसी को बुलाकर मरवा कर जलवा दिया जाता है। सांप को जीव शास्त्री वन संपदा मानते हैं क्योंकि वह फसलों को हानि पहुंचाने वाले कीड़ों को अपना भोजन बनाते हैं जिसमें चूहा भी शामिल है। अनेक लोग तो सांप और नाग को मनुष्य का बिना पाला हुआ वफादार जीव मानते हैं।
हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में सांपों और नागों की मनुष्य की तरह ही सक्रियता का वर्णन है। सबसे बड़ी बात यह है कि शेषनाग को प्रथ्वी धारण करने वाला माना गया है। इसे हम प्रतीकात्मक भी माने तो यह तो सच है कि सांप और नाग लंबे समय तक इस संसार के विनाशकारी कीड़ों को अपना भोजन बनाकर मनुष्य और पशुओं के जीवन का मार्ग ही प्रशस्त करते रहे हैं। जब कीटनाशक नहीं  रहे होंगे तब उनसे बचाने का काम इन्हीं जीवों ने किया होगा।
कालांतर में हम देखें तो सांप और नागों की संख्या कम होती गयी है और मनुष्य को अब अपनी फसलों के लिये कीटनाशक रसायनों का बड़े पैमाने पर उपयोग करना पड़ रहा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि अब विशेषज्ञ फलों और सब्जियों को इन कीटनाशकों के कारण विषैले होने की बात भी कह रहे हैं। किसी समय लोग केवल फलाहार कर जीवन गुजारते थे क्योंकि उनके लिये पका हुआ भोजन बीमारियों का कारण था। अनेक लोग तो मटर तथा अन्य सब्जियां बिना पकाये हुए खाते थे क्योंकि वह पौष्टिक मानी जाती थीं। अब हालत यह है कि बिना पकाये ग्रहण करना एक जोखिम भरा काम होता जा रहा है क्योंकि उनमें मिले कीटनाशकों को धोना जरूरी है। इनमें से कुछ कीटनाशक धोने में तो कुछ पकाने में अपना प्रभाव खो देते हैं पर उसके बावजूद भी सब्जियों की पौष्टिकता कम हो रही है।
अगर सांपों और नागों को पूज्यनीय बताया गया तो उसका कारण उनकी मनुष्य के लिए उपयोगिता से था। मगर आज हालत क्या है? वन क्षेत्र कम होने के साथ ही पशु पक्षियों और अन्य उपयोगी जीवों का जीना दुश्वार हो गया है। बरसात के समय जब सांप या नाग जमीन से बाहर निकलते हैं तो उनका जीवन एक खतरे की तरफ बढ़ता है। अनेक सांप और नाग वाहनों से कुचल जाते हैं तो अनेक दूसरों के घर में घुसने की सजा पाते हैं।
पेड़ पौद्यों की पर्यावरण की रक्षा के लिये आवश्यकता है और सांप और नाग इन्हीं पेड़ पौद्यों को नष्ट करने वाले कीड़ों को समाप्त करते हैं। जहां तक उनके द्वारा काटे जाने की घटनाओं की बात है वह नगण्य होती हैं और समय पर चिकित्सा मिल जाये तो आदमी बच भी जाता है-मगर देश की व्यवस्था ऐसी है कि कोई काम सहजता से नहीं होता, कहीं चिकित्सक है तो दवा नहीं मिलती। ऐसे में सांप और नाग की हत्या क्रेवल लोग भय के कारण ही करते हैं। सांप या नाग के काटे जाने का भय इस कदर लोगों में है कि शिक्षित से शिक्षित आदमी को भी समझाना कठिन है।
इसके बावजूद यह एक मान्य तथ्य है कि अन्य जीवों के अस्तित्व के कारण ही मनुष्य का अस्तित्व है और अगर वह उनको नहीं बचायेगा तो खुद मिट जायेगा। नागपंचमी में नाग या सांप की पूजा करने से ही केवल इतिश्री नहीं समझनी चाहिए बल्कि इन जीवों की रक्षा के प्रयास भी किये जाने चाहिये। इस नागपंचमी पर पाठकों तथा ब्लाग लेखक मित्रों को बधाई। इस अवसर पर यह संकल्प लेना चाहिए कि वन्य जीवों की रक्षा हर संभव प्रयास से करेंगे।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कमीशन-हिन्दी व्यंग्य कविताएँ


गरजने वाले बरसते नहीं,
काम करने वाले कहते नहीं,
फिर क्यों यकीन करते हैं वादा करने वालों का
को कभी उनको पूरा करते नहीं।
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जिनकी दौलत की भूख को
सर्वशक्तिमान भी नहीं मिटा सकता,
लोगों के भले का जिम्मा
वही लोग लेते हैं,
भूखे की रोटी पके कहां से
वह पहले ही आटा और आग को
कमीशन में बदल लेते हैं।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अब अंधेरों से डरने लगे हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता


रौशनी के आदी हो गये, अब अंधेरों से डरने लगे हैं।
आराम ने कर दिया बेसुध, लोग बीमारियों से ठगे हैं।।
पहले दिखाया सपना विकास का, भलाई के ठेकेदारों ने
अब हर काम और शय की कीमत मांगने लगे हैं।।
खिलाड़ी बिके इस तरह कि अदा में अभिनेता भी न टिके
सौदागर सर्वशक्तिमान को भी सरेराह बेचने लगे हैं।
अपनी हालातों के लिये, एक दूसरे पर लगा रहे इल्ज़ाम,
अपना दामन सभी साफ दिखाने की कोशिश में लगे हैं।।
टुकुर टुकुर आसमान में देखें दीपक बापू, रौशनी के लिए,
खुली आंखें है सभी की, पता नहीं लोग सो रहे कि जगे हैं।।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चमकती चीजों का वजूद–हिन्दी व्यंग्य कविता


चमकता पत्थर हो या हीरा
देखने में एक जैसा नज़र आता है।
चमकती चीजों का वजूद
वैसे भी आंखों से आगे कहां जाता है।
पेट की भूख बुझाता अन्न,
गले की प्यास को हराता जल,
सर्वशक्तिमान का तोहफा है
मिलता है आसानी से इंसान को
शायद इसलिये अनमोल नहीं कहलाता है।
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तूफान जैसा क्यों
भागना चाहते हो,
हवा की तरह बहने में भी मजा आता है।
उम्र कम है तेजी से दोड़ने वालों की
बढ़ती गति के साथ
डोर टूट जाती है ख्यालों की
आसमान छूने की चाहत बुरी नहीं है
पर तारे हाथ आयें या चंद्रमा
पत्थर के टुुकड़ों या मिट्टी के
ढेर के अलावा हाथ क्या आता है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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