Category Archives: inglish

असली झगड़ा, नकली इंसाफ-हिन्दी व्यंग्य और कविता (asli jhagad aur nakli insaf-hindi vyangya aur kavita)


टीवी पर सुनने को को मिला कि इंसाफ नाम का कोई वास्तविक शो चल रहा है जिसमें शामिल हो चुके एक सामान्य आदमी का वहां हुए अपमान के कारण निराशा के कारण निधन हो गया। फिल्मों की एक अंशकालिक नर्तकी और गायिका इस कार्यक्रम का संचालन कर रही है। मूलतः टीवी और वीडियो में काम करने वाली वह कथित नायिका अपने बिंदास व्यवहार के कारण प्रचार माध्यमों की चहेती है और कुछ फिल्मों में आईटम रोल भी कर चुकी है। बोलती कम चिल्लाती ज्यादा है। अपना एक नाटकीय स्वयंवर भी रचा चुकी है। वहां मिले वर से बड़ी मुश्किल से अपना पीछा छुड़ाया। अब यह पता नहीं कि उसे विवाहित माना जाये, तलाकशुदा या अविवाहित! यह उसका निजी मामला है पर जब सामाजिक स्तर का प्रश्न आता है तो यह विचार भी आता है कि उस शादी का क्या हुआ?
बहरहाल इंसाफ नाम के धारावाहिक में वह अदालत के जज की तरह व्यवहार करती है। यह कार्यक्रम एक सेवानिवृत महिला पुलिस अधिकारी के कचहरी धारावाहिक की नकल पर बना लगता है पर बिंदास अभिनेत्री में भला वैसी तमीज़ कहां हो सकती है जो एक जिम्मेदार पद पर बैठी महिला में होती है। उसने पहले तो फिल्म लाईन से ही कथित अभिनय तथा अन्य काम करने वाले लोगों के प्रेम के झगड़े दिखाये। उनमें जूते चले, मारपीट हुई। गालियां तो ऐसी दी गयीं कि यहां लिखते शर्म आती है।
अब उसने आम लोगों में से कुछ लोग बुलवा लिये। एक गरीब महिला और पुरुष अपना झगड़ा लेकर पहुंच गये या बुलाये गये। दोनों का झगड़ा पारिवारिक था पर प्रचार का मोह ही दोनों को वहां ले गया होगा वरना कहां मुंबई और कहां उनका छोटा शहर। दोनों ने बिंदास अभिनेत्री को न्यायाधीश मान लिया क्योंकि करोड़ों लोगों को अपना चेहरा दिखाना था। इधर कार्यक्रम करने वालों को भी कुछ वास्तविक दृश्य चाहिये थे सो बुलवा लिया।
जब झगड़ा था तो नकारात्मक बातें तो होनी थी। आरोप-प्रत्यारोप तो लगने ही थे। ऐसे में बिंदास या बदतमीज अभिनेत्री ने आदमी से बोल दिया‘नामर्द’।
वह बिचारा झैंप गया। प्रचार पाने का सारा नशा काफूर हो गया। कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो सभी ने देखा। अड़ौस पड़ौस, मोहल्ले और शहर के लोग उस आदमी को हिकारत की नज़र से देखने लगे। वह सदमे से मरा या आत्महत्या की? यह महत्वपूर्ण नहंी है, मगर वह मरा इसी कारण से यह बात सत्य है। पति पत्नी दोनों साथ गये या अलग अलग! यह पता नहीं मगर दोनों गये। घसीटे नहीं गये। झगड़ा रहा अलग, मगर कहीं न कहीं प्रचार का मोह तो रहा होगा, वरना क्या सोचकर गये थे कि वहां से कोई दहेज लेकर दोबारा अपना घर बसायेंगे?
छोटे आदमी में बड़ा आदमी बनने का मोह होता है। छोटा आदमी जब तक छोटा है उसे समाज में बदनामी की चिंता बहुत अधिक होती है। बड़ा आदमी बेखौफ हो जाता है। उसमें दोष भी हो तो कहने की हिम्मत नहीं होती। कोई कहे भी तो बड़ा आदमी कुछ न कहे उसके चेले चपाटे ही धुलाई कर देते हैं। यही कारण है कि प्रचार के माध्यम से हर कोई बड़ा बनना या दिखना चाहता है। ऐसे में विवादास्पद बनकर भी कोई बड़ा बन जाये तो ठीक मगर न बना तो! ‘समरथ को नहीं दोष, मगर असमर्थ पर रोष’ तो समाज की स्वाभविक प्रवृत्ति है।
एक मामूली दंपत्ति को क्या पड़ी थी कि एक प्रचार के माध्यम से कमाई करने वाले कार्यक्रम में एक ऐसी महिला से न्याय मांगने पहुंचे जो खुद अभी समाज का मतलब भी नहीं जानती। इस घटना से प्रचार के लिये लालायित युवक युवतियों को सबक लेना चाहिए। इतना ही नहीं मस्ती में आनंद लूटने की इच्छा वाले लोग भी यह समझ लें कि यह दुनियां इतनी सहज नहीं है जितना वह समझते हैं।
प्रस्तुत है इस पर एक कविता
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घर की बात दिल ही में रहे
तो अच्छा है,
जमाने ने सुन ली तो
तबाही घर का दरवाज़ा खटखटायेगी,
कोई हवा ढूंढ रही हैं
लोगों की बरबादी का मंजर,
दर्द के इलाज करने के लिये
हमदर्दी का हाथ में है उसके खंजर,
जहां मिला अवसर
चमन उजाड़ कर जश्न मनायेगी।
——

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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घर की बात दिल में ही रहे-हिन्दी व्यंग्य और शायरी (ghar ki baat dil mein rah-hindi vyangya aur shayri)

आदर्श के नाम पर समाज सेवा-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविता (adrash ke nam par samaj seva-hindi hasya vyangya kavita)


आया फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू मेरे बेरोजगार भतीजे को
समाज सेवा करने का ख्याल आया है,
यह ज्ञान उसने जेल में बंद अपने गुरु से पाया है,
उसने बताया कि
वह एक सहायता समिति बनायेगा,
अब जनता में अपनी समाज सेवक की तरह छायेगा,
अभी दीपावली के अवसर पर
नकली खोये और
गंदी बनी मिठाईयां खाकर
बहुत लोग बीमार पड़ेंगे,
कुछ पटाखों से घायल होकर
अस्पताल का रुख करेंगे,
उनको वह सहायता प्रदान करेगा,
इसके लिये वह जनता से
पैसा लेकर
हताहतों के जख्म भरेगा,
बस,
समस्या यह है कि वह
उस संस्था का नाम क्या रखे
इसको लेकर विचार कर रहा है,
आया था मेरे पास पूछने
पर अपनी संस्था के काम का प्रचार कर रहा है,
आप ही बताओ कोई शुभ नाम,
कर दो बस, इतना काम,
मेरा भतीजा हमेशा आपका आभार जतायेगा।’’

सुनकर कहैं दीपक बापू
‘‘कमबख्त तुम्हारें कुनबे ने भी
कभी समाज सेवा की है,
जहां मिला वही मेवा की लूट की है,
जहां तक नाम का सवाल है,
उस पर यह कैसा बवाल है,
आदर्श या चरित्र निर्माण जैसा नाम रखकर,
मिठाई का टुकड़ा चखकर,
शुरु कर दो समाज सेवा का काम,
बस,
एक बात याद रखना,
सारा चंदा स्वयं ही चखना,
तुम्हारे कुनबे का भला क्या दोष,
ज़माना आदर्श के नाम पर लूट रहा
इसलिये आम इंसानों में है रोष,
बात जितनी आदर्श की बढ़ती जा रही है,
उतनी ही नैतिकता नीचे आ रही है,
बन गया है भ्रष्टाचार,
ताकतवार आदमी का शिष्टाचार,
आदर्श बनकर कर रहे हैं
वही समाज का चरित्र निर्माण,
जिनमें नहीं है पवित्रता का प्राण,
कोई फर्क नहीं पड़ेगा
अगर तुम्हारा भतीजा
आदर्श समाज सेवा समिति बनायेगा,
चलो एक बेरोगजार काम पर लग जायेगा,
जिनके पास दौलत है
वही आम इंसान को लूट रहे हैं,
अपराध से सराबोर हैं
वही निर्दोष कहलाकर छूट रहे हैं,
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
तुम्हारा भतीजा किसी घोटाले फंसकर
किसी बड़े पद पर चढ़ जायेगा।’’
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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भारत में हिन्दीः आम और खास वर्ग की अलग अलग पहचान करती भाषा-हिन्दी लेख (comman and special class of hindi in india-hindi lekh)


भारत की खिल्ली उड़ाने वाले विदेशी लोग इसे ‘‘साधुओं और सपेरों का देश कहा करते थे। भारत के बाहर प्रचार माध्यम इसी पहचान को बहुत समय आगे बढ़ाते रहे पर जिन विदेशियों ने उस समय भी भारत देखा तो पाया कि यह केवल एक दुष्प्रचार मात्र था। हालांकि अब ऐसा नहीं है पर अतीत की छबि अभी कई जगह वर्तमान स्वरूप में विद्यमान दिखाई देती है। इससे एक बात तो मानी जा सकती कि आधुनिक प्रचार माध्यमों के -टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाऐं- अधिकतर कार्यकर्ता जनमानस में अपनी बात स्थापित करने में बहुत सक्षम है। इसी क्षमता का लाभ उठाकर वह अनेक तरह के भ्रम मी सत्य के रूप में स्थापित कर सकते हैं और अनेक लोग तो करते ही हैं। इस साधु और सपेरों की छबि से देश मुक्त हुआ कि पता नहीं पर वर्तमान में भी भारत की छबि को लेकर अनेक प्रकार के अन्य भ्रम यही प्रचार माध्यम फैलाते हैं और जिनका प्रतिकार करना आवश्यक है।
अगर हम इस पर बहस करेंगे तो पता नहीं कितना लंबा लिखना पड़ेगा फिर यह भी तय नहीं है कि बहस खत्म होगी कि नहीं। दूसरा प्रश्न यह भी है कि यह प्रचार माध्यम कार्यकर्ता कहीं स्वयं ही तो मुगालतों में नहीं रहते। पता नहीं बड़े शहरों में सक्रिय यह प्रचार माध्यम कर्मी इस देश की छबि अपने मन की आंखों से कैसी देखते हैं? मगर इतना तय है कि यह सब अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न है और यहां की अध्यात्मिक ताकत को नहीं जानते इसलिये अध्यात्म की सबसे मज़बूत भाषा हिन्दी का एक तरह से मज़ाक बना रहे हैं और यह मानकर चल रहे हैं कि उनके पाठक, दर्शक तथा श्रोता केवल कान्वेंट पढ़े बच्चे ही हैं या फिर केवल वही उनके अभिव्यक्त साधनों के प्रयोक्ता हैं। मज़दूर गरीब, और ग्रामीण परिवेश के साथ ही शहर में हिन्दी में शिक्षित लोगों को तो केवल एक निर्जीव प्रयोक्ता मानकर उस पर अंग्रेजी शब्दों का बोझ लादा जा रहा है।
अनेक समाचार पत्र पत्रिकाऐं अंग्रेजी भाषा के शब्द देवनागरी लिपि के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रहे हैं-कहीं तो कहीं तो शीर्षक के रूप में पूरा वाक्य ही लिख दिया जाता है। यह सब किसी योजना के तहत हो रहा है इसमें संशय नहीं है और यह भी इस तरह की योजना संभवत तीन साल पहले ही तैयार की गयी लगती है जिसे अब कार्यरूप में परिवर्तित होते देखा जा रहा है।
अंतर्जाल पर करीब तीन साल पहले एक लेख पढ़ने में आया था। जिसमें किसी संस्था द्वारा रोमन लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को लिखने के लिये प्रोत्साहन देने की बात कही गयी थी। उसका अनेक ब्लाग लेखकों ने विरोध किया था। उसके बाद हिन्दी भाषा में विदेशी शब्द जोड़ने की बात कही गयी थी तो कुछ ने समर्थन तो कुछ ने विरोध किया था। उस समय यह नहीं लगा था कि ऐसी योजनायें बनाने वाली संस्थायें हिन्दी में इतनी ताकत रखती हैं कि एक न एक दिन उनकी योजना ज़मीन पर रैंगती नज़र आती हैं। अब यह बात तो साफ नज़र आ रही है कि इन संस्थाओं में व्यवसायिक लोग रहते हैं जो कहीं न कहीं से आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्राप्त कर ही आगे बढ़ते हैं। प्रत्यक्षः वह बनते तो हिन्दी के भाग्य विधाता हैं पर वह उनका इससे केवल इतना ही संबंध रहता है कि वह अपने प्रयोजको को सबसे अधिक कमा कर देने वाली इस भाषा में निरंतर सक्रिय बनाये रखें। यह उन लोगों के भगवान पिता या गॉड फादर बन जाते हैं जो हिन्दी से कमाने आते हैं। यह उनको सिफारिशें कर अपने प्रायोजकों के साथ जोड़ते हैं-आशय यह है कि टीवी, समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा रेडियो में काम दिलाते होंगे। हिन्दी भाषा से उनका कोई लेना देना नहीं है अलबत्ता कान्वेंट मे शिक्षित  लोगों को वह हिन्दी में रोजगार तो दिला ही देते होंगे ऐसा लगता है। यही कारण है कि इतने विरोध के बावजूद देश के पूरे प्रचार माध्यम धड़ल्ले से इस कदर अंग्रेजी के शब्द जोड़ रहे हैं कि भाषा का कबाड़ा हुए जा रहा है। अब हिन्दी दो भागों में बंटती नज़र आ रही है एक आम आदमी की दूसरी खास लोगों की भाषा।
हिन्दी के अखबार पढ़ते हुए तो अपने ही भाषा ज्ञान पर रोना आता है। ऐसा लगता है कि हिन्दी भाषी होने का अपमान झेल रहे हैं। इससे भी ज्यादा इस बात की हैरानी कि आम आदमी के प्रति ऐसी उपेक्षा का भाव यह व्यवसायिक संस्थान कैसे रख रहे हैं। सीधी बात कहें तो देश का खास वर्ग और उसके वेतनभोगी लोग समाज से बहुत दूर हो गये हैं। यह तो उनका मुगालता ही है कि वह समाज या हिन्दी को अपने अनुरूप बना लेंगें क्योंकि इस देश का आधार अब भी गरीब, मज़दूर और आम व्यवसायी है जिसके सहारे हिन्दी भाषा जीवीत है। जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विश्व को दिखाने तक ही ठीक हैं। उस विकास को लेकर देश के प्रचार माध्यम झूम रहे हैं उसकी अनुभूति इस देश का आम आदमी कितनी करता है यह देखने की कोशिश नहंी करते। उनसे यह अपेक्षा करना भी बेकार है क्योंकि उनकीभाषा आम आदमी के भाव से मेल नहीं खाती। वह साधु सपेरों वाले देश को दृष्टि तथा वाणी से हीन बनाना चाहते हैं। अपनी भाषा के विलुप्तीकरण में अपना हित तलाश रहे लोगों से अपेक्षा करना ही बेकार है कि वह हिन्दी भाषा के सभ्य रूप को बने रहने देंगे।
हिन्दी के कथित विकास के लिये बनी संस्थाओं में सक्रिय बुद्धिजीवी भाषा की दृष्टि से कितने ज्ञाता हैं यह कहना कठिन है अलबत्ता कहीं न कहीं अंग्रेजी के समकक्ष लाने के दावे वह जरूर करते हैं। दरअसल ऐसे बुद्धिजीवी कई जगह सक्रिय हैं और हिन्दी भाषा के लिये गुरु की पदवी भी धारण कर लेते हैं। उनकी कीर्ति या संपन्नता से हमें कोई शिकायत नहीं है पर इतना तय है कि व्यवसायिक संस्थानों के प्रबंधक उनकी मौजूदगी इसलिये बनाये रखना चाहते हैं कि उनको अपने लिये हिन्दी कार्यकर्ता मिलते रहें। मतलब हिन्दी के भाग्य विधाता हिन्दी के व्यववायिक जगत और आम प्रयोक्ता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते हैं। इससे अधिक उनकी भूमिका नहीं है। ऐसे में नवीन हिन्दी कार्यकर्ता रोजगार की अपेक्षा में उनको अपना गुरु बना लेते हैं।
ऐसे प्रयासों से हिन्दी का रूप बिगड़ेगा पर उसका शुद्ध रूप भी बना रहेगा क्योंकि साधु और सपेरे तो वही हिन्दी बोलेंगे और लिखेंगे जो आम आदमी जानता हो। हिन्दी आध्यात्म या अध्यात्म की भाषा है। अनेक साधु और संत अपनी पत्रिकायें निकालते हैं। उनके आलेख पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है क्योंकि उसमें हिन्दी का साफ सुथरा रूप दिखाई देता है। अब तो ऐसा लगने लगा है हिन्द समाचार पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने से तो अच्छा है कि अध्यात्म पत्रिकायें पढ़कर ही अपने हिन्दी भाषी होने का गर्व महसूस किया जाये। अखबार में भी वही खबरें पढ़ने लायक दिखती हैं जो भाषा और वार्ता जैसी समाचार एजेंसियों से लेकर प्रस्तुत की जाती है। स्थानीय समाचारों के लिये क्योंकि स्थानीय पत्रकार होते हैं इसलिये उनकी हिन्दी भी ठीक रहती है मगर आलेख तथा अन्य प्रस्तुतियां जो कि साहित्य का स्त्रोत होती हैं अब अंग्रेजीगामी हो रही हैं और ऐसे पृष्ठ देखने का भी अब मन नहीं करता। एक बात तो पता लग गयी है कि हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय एक समूह ऐसा भी है जो दावा तो हिन्दी के हितैषी होने का है पर वह मन ही मन झल्लाता भी है कि अंग्रेजी में छपकर भी वह आम आदमी से दूर है इसलिये वह हिन्दी भाषा प्रचार माध्यमों में छद्म रूप लेकर घुस आया है। अंग्रेजी की तरह हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने का उसका इरादा केवल तात्कालिक आर्थिक हित प्राप्त करना ही है। वह हिन्दी का महत्व नहींजानता क्योकि आध्यात्मिक ज्ञान से परे हैं। हिन्दी वैश्विक स्तर पर अपने अध्यात्मिक ज्ञान शक्ति के कारण ही बढ़ेगी न कि सतही साहित्य के सहारे। ऐसे में हिन्दी की चिंदी करने वालों को केवल इंटरनेट के लेखक ही चुनौती दे सकते हैं पर मुश्किल यह है कि उनके पास आम पाठक का समर्थन नहीं है। 
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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नीयत में भ्रष्टाचार-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (neeyat men bhrashtachar-hindi satire poem’s)


भ्रष्टाचार के विरुद्ध
अब कभी ज़ंग नहीं हो सकती,
अलबत्ता हिस्सा बांटने पर
हो सकता है झगड़ा
मगर मुफ्त में मिले पैसे को
हक की तरह वसूल करने में
किसी की नीयत तंग नहीं हो सकती।
————

मर गयी है लोगों की चेतना इस कदर कि
सपने देखने के लिये भी
सोच उधार लेते हैं,
अपनी मंज़िल क्या पायेंगे वह लोग
जो हमराह के रूप में कच्चे यार लेते हैं,
अपने ख्वाबों में चाहे कितने भी देखे सपने
आकाश में उड़ने के
पर इंसान को पंख नहीं मिले
फिर भी कुछ लोग उड़ने के अरमान पाल लेते हैं।
———-
लोगों में चेतना लाने का काम
भी अब ठेके पर होने लगा है,
जिसने लिया वह सोने लगा है,
मर गये लोगों के जज़्बात
मुर्दा दिलों में हवस के कीड़ों का निवास होने लगा है।
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आतंक और युद्ध में फर्क होता है-हिन्दी लेख (diffarence between terarrism and war-hindi aticle)


फर्जी मुठभेड़ों की चर्चा कुछ
इस तरह सरेआम हो जाती कि
अपराधियों की छबि भी
समाज सेवकों जैसी बन जाती है।
कई कत्ल करने पर भी
पहरेदारों की गोली से मरे हुए
पाते शहीदों जैसा मान,
बचकर निकल गये
जाकर परदेस में बनाते अपनी शान
उनकी कहानियां चलती हैं नायकों की तरह
जिससे गर्दन उनकी तन जाती है।
——–
टीवी चैनल के बॉस ने
अपने संवाददाता से कहा
‘आजकल फर्जी मुठभेड़ों की चल रही चर्चा,
तुम भी कोई ढूंढ लो, इसमें नहीं होगा खर्चा।
एक बात ध्यान रखना
पहरेदारों की गोली से मरे इंसान ने
चाहे कितने भी अपराध किये हों
उनको मत दिखाना,
शहीद के रूप में उसका नाम लिखाना,
जनता में जज़्बात उठाना है,
हमदर्दी का करना है व्यापार
इसलिये उसकी हर बात को भुलाना है,
मत करना उनके संगीन कारनामों की चर्चा।
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अब अंधेरों से डरने लगे हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता


रौशनी के आदी हो गये, अब अंधेरों से डरने लगे हैं।
आराम ने कर दिया बेसुध, लोग बीमारियों से ठगे हैं।।
पहले दिखाया सपना विकास का, भलाई के ठेकेदारों ने
अब हर काम और शय की कीमत मांगने लगे हैं।।
खिलाड़ी बिके इस तरह कि अदा में अभिनेता भी न टिके
सौदागर सर्वशक्तिमान को भी सरेराह बेचने लगे हैं।
अपनी हालातों के लिये, एक दूसरे पर लगा रहे इल्ज़ाम,
अपना दामन सभी साफ दिखाने की कोशिश में लगे हैं।।
टुकुर टुकुर आसमान में देखें दीपक बापू, रौशनी के लिए,
खुली आंखें है सभी की, पता नहीं लोग सो रहे कि जगे हैं।।
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चमकती चीजों का वजूद–हिन्दी व्यंग्य कविता


चमकता पत्थर हो या हीरा
देखने में एक जैसा नज़र आता है।
चमकती चीजों का वजूद
वैसे भी आंखों से आगे कहां जाता है।
पेट की भूख बुझाता अन्न,
गले की प्यास को हराता जल,
सर्वशक्तिमान का तोहफा है
मिलता है आसानी से इंसान को
शायद इसलिये अनमोल नहीं कहलाता है।
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तूफान जैसा क्यों
भागना चाहते हो,
हवा की तरह बहने में भी मजा आता है।
उम्र कम है तेजी से दोड़ने वालों की
बढ़ती गति के साथ
डोर टूट जाती है ख्यालों की
आसमान छूने की चाहत बुरी नहीं है
पर तारे हाथ आयें या चंद्रमा
पत्थर के टुुकड़ों या मिट्टी के
ढेर के अलावा हाथ क्या आता है।
——–

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बेईमान चढ़े हैं हर शिखर पर-हिन्दी शायरी (beiman shikhar par-hindi shayri)


उनके दिखाये सपनों का पीछा करते कई घर तबाह हो गये,
अंधेरे को भगाने के लिये जलाई आग में अंधे स्वाह हो गये।
जंग भड़काई थी जमाने में, ईमान और इंसाफ लाने के लिये
हार गये तो अपने ही दोस्तों के खिलाफ एक गवाह हो गये।
मुखौटा लगाया पहरेदार का, सब का भरोसा जीतने के लिये,
लुट गया सामान, भरोसा करने वालों के चेहरे स्याह हों गये।
जिंदगी बनाने का दावा करने वालों पर नहीं करना भरोसा,
बेईमान चढ़े हैं हर शिखर पर, ईमानदार अब तबाह हो गये।
———–

हंसना और रोना भी व्यापार है-हिन्दी शायरी (hansha aur rone ka vyapar-hindi shayri)
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दौलत कमाने से अधिक वह
उसे छिपाने के लिये वह जूझ रहे हैं,
उनके अमीर होने पर किसी को शक नहीं
लोग तो बस उनके
काले ठिकानों की पहेली बूझ रहे हैं।
——–
इतनी दौलत कमा ली कि
उसे छिपाने के लिये वह परेशान है,
खौफ के साये में जी रहा खुद
फिर भी जमाने को लूटने से उसको फुरसत नहीं
उसकी अदाओं पर जमाना हैरान हैं।
———-
यूं तो दुनियां को वह
ईमान का रास्ता बताते है,
पर मामला अगर दौलत का हो तो
वह उसे खुद ही भटक जाते हैं।
——-
उनका हंसना और रोना भी व्यापार है,
पैसा देखकर मुस्कराते है,
कहो तो रोकर भी दिखाते हैं,
अकेले में देखो उनका चेहरा
लोग क्या, वह स्वयं ही डर जाते हैं।
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हवस और तकदीर-हिंदी शायरी


रोटी के भूखे को एक टुकड़ा भी
खुश कर जायेगा,
आधा पेट भरने पर भी
वह खुश हो जायेगा।
मगर अपनी हवस में ढूंढते हैं तकदीर
वह हमेशा रहेगा भूखा
जब तक सामने से आकर कोई
आंख में नश्तर न चुभा जायेगा।
———-
अपनी तबाही खुद करने पर
जब आमादा होता है इंसान,
हवस में ढूंढता है अमृत
चंद लफ्ज हमदर्दी के जताने वाले को
फरिश्ता समझ लेता है।
पेट की भूख तो मिटा देती है रोटी
पर हवस में अंधा इंसान
अपनी तकदीर अपने हाथ से बिगाड़ लेता है।
——–

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इस ब्लाग ने पार की एक लाख पाठक संख्या-विशेष संपादकीय


इस ब्लाग ने आज एक लाख की पाठक संख्या को पार किया।  एक लाख पार करने वाला यह इस लेखक का तीसरा ब्लाग है।  इसकी यह यात्रा बहुत सुस्त इस मायने में रही कि इसके बाद बने दो ब्लाग इस संख्या को पहले ही पार चुके हैं।  दिलचस्प बात यह कि इस लेखक ने अपने जीवन में अंतर्जाल जगत के हिन्दी लेखन के क्षेत्र में पदार्पण इसी ब्लाग से किया था।  इसके पिछडने का मुख्य कारण यह है कि इसका पता बहुत लंबा है और इसे बिना सोचे समझे बनाया गया था।  तब यह तकनीकी ज्ञान नहीं  था कि यह इसका पता है और इसे बदलना अब कठिन होगा।
बहरहाल सुस्त रफ्तार के बावजूद यह ब्लाग इस लेखक की पहचान तो है ही साथ ही गूगल की चार रैंक प्राप्त यह पांचवा ब्लाग है।  अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की यात्रा बिना किसी आर्थिक समर्थन तथा भावनात्मक प्रेरणा के बिना तय करना मुश्किल लगता है पर अगर स्वातं सुखाय लेखन हो तो यह कठिन नहीं रहता।
अक्सर लोग सवाल करते हैं कि आप इतने सारे ब्लाग का प्रबंध कैसे करते हो? दरअसल इसका कारण इस लेखक की स्वप्रेरणा और लापरवाही है। इतने सारे ब्लाग बनाये तब यह सोचा ही नहीं था कि इनका प्रबंध रैंक के बनाये रखने के लिये करना जरूरी होगा-यह लापरवाही थी। चूंकि इस लेखक को हर विद्या में लिखने का शौक है इसलिये इस बात के प्रति आश्वस्त था कि स्वप्रेरणा के स्त्रोत इतनी आसानी से नहीं सूखने वाले।  इतना क्यों लिखते हैं? सीधा सा जवाब है कि मनोरंजन के नाम पर लिखने से अधिक कोई अच्छा साधन नहंी दिखता।  खासतौर से गुरुजनों की कृपा था माता सरस्वती का आशीर्वाद इस स्वप्रेरणा में सहायक है। टीवी देखना, अखबार पढ़ना या रेडियो सुनना कोई बुरा साधन नहीं है बशर्ते कि आपके चिंतन के तत्व सुप्तावस्था में हों।  बाजार और उसका बंधुआ प्रचार माध्यम-जो स्वतंत्र होने का दावा भर करते हैं-अपना धार्मिक, शैक्षिक तथा उपभोग का ऐजेंडा सामने रखकर दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं को बंधुआ बनाये हुए हैं। उसमें वह सफल  भी हुए हैं।  अगर आप लेखक हैं तो अभिव्यक्त होने के लिये आपके पास इन्हीं माध्यमों के पास जाने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। दूसरा रास्ता यह है कि आप अपनी लेखन और चिंतन को सुप्तावस्था में रखकर बाजार और प्रचार माध्यमों के ऐजेंडे पर चलते जायें।
ऐसे में आप ब्लाग लिखकर अपनी अभिव्यक्ति को स्वतंत्र दिशा दे सकते हैं। मुश्किल यह है कि आपको तकनीकी ज्ञान होने के साथ हिन्दी या अंग्रेजी का टाईप का ज्ञान होना चाहिये। अगर आप ऐसा नहीं करते तो लिखकर किसी को यह काम सौंपे पर आपको यह अफसोस तो रहेगा कि आप स्वयं ऐसा नहंी कर पार  रहे। बाजार ने मोबाइल और  माउस हाथ में पकड़ाकर एक उंगली  के इशारे पर काम करना सिखाया है इसलिये अब कोई दसों उंगलियां चलाने वाला काम करना ही नहीं चाहता-टाईप सीखना लोगों को बोझिल लगता है। फिर इंटरनेट पर नये टाईप का मनोरंजन ढूंढने के लिये माउस जो है।  ऐसे में वह भाग्यशाली हैं जो स्वयं टाईप कर सकते हैं और यह लेखक उनमें शामिल है।  तब क्यों न परमात्मा को धन्यवाद देते हुए लिखते रहना चाहिये।
यह सच है कि अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने से कोई प्रसिद्धि नहीं मिलती पर यह भी तय है कि भविष्य का हिन्दी लेखन यहीं से होकर गुजरेगा।  इसके दो कारण है कि इस पर अव्यवसायिक लोगों का जमावड़ा होगा जो कि बिना किसी दबाव के लिखेंगे। दूसरा यह कि परंपरागत विद्याओं से अलग यहां पर संक्षिप्तीकरण का अधिक महत्व रहेगा। अगर हम यहां देखें तो गद्य और पद्य की दृष्टि से विषय सामग्री महत्वपूर्ण नहीं  जितना कि उसका भाव है।  सामान्य तौर से समाचार पत्र पत्रिकाओं में कवितायें देखकर मुंह बिचकाते हैं पर यहां ऐसा नहीं है। इसका कारण यह है कि कथ्य और तथ्य की रोचकता होने पर उसकी विद्या का महत्व अंतर्जाल पर अधिक नहीं
रहता।  कम से कम वर्डप्रेस के ब्लाग पर कविताओं को मिलने वाले समर्थन को देखकर तो यही लगता है।
जो लोग स्वतंत्र और मौलिक रूप से अंतर्जाल पर लिख रहे हैं वह लिखने के बाद इस बात में रुचि कम लें कि उनका लिखा कितना लोग पढ़े रहे हैं क्योंकि इससे वह कुंठा का शिकार हो जायेंगे।  दूसरी बात यह भी कि उनके पाठ दूसरे लोग नहीं  पढ़ते बल्कि उनके पाठ भी अपने पाठकों  को पढ़ते हैं। यह बात टिप्पणियों से तो पता लगती ही है। जब किसी पाठ को अधिक और निरंतर पढ़ा जा रहा है। दूसरे उसे लिंक दे रहे हैं तो समझ लीजिये कि आपकी लिखी बात आगे बढ़ रही है।  अपने लिखे का पीछा न कर दूसरों को भी पढ़ें।  सबसे बड़ी बात यह है कि लिखकर अपने लेखक होने का गुमान न पालकर एक पाठक हो जायें तब आप देखेंगे कि आपकी रचनायें कैसे स्वाभाविक रूप से बाहर आती है। जहां आपने सफलता की सोचा वहां लड़खड़ाने लगेंगे।  चित्रों को लगाकर परंपरागत प्रचार माध्यमों की बराबरी न करें क्योंकि शब्दों के खेल के सामने कोई भी तस्वीर टिक नहीं सकती।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि टीवी, रेडियो या अखबार से जुड़े रहने पर आप स्वयं अभिव्यक्त नहीं होते। किसी बात पर कुड़ते हैं तो कहें या लिखें कहां? ब्लाग इसके लिये बढ़िया साधन है।  किसी का नाम न लिखकर व्यंजना विधा में लिखें। इससे दो लाभ कि आप अपनी बात भी कह गये और दूसरे को मुफ्त में प्रचार भी नहंी दिया। इस अवसर ब्लाग लेखक मित्रों को उनके सहयोग के लिये धन्यवाद तथा पाठकों का आभार जिन्होंने इसे यहां तक पहुंचने में सहायता की।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर

बंटवारा-हास्य व्यंग्य कवितायें


<b>पहले जाति में बांटा
भाषा में छांटा
और धर्म में काटा
फिर समाज में एकता की कोशिश
अमन के ठेकेदार करने लगे।
नारी की तरक्की देखकर
हक के नाम पर लड़ाने के लिये
उसे भी अब बांटने, छांटने तथा काटने  के लिये जगे।
……………………………….
क्या पता नारियां आगे बढ़कर
कहीं दुनियां में एकता न स्थापित कर दें
इस खौफ से
जमाने की फूट पर रोटियां सैंकने वाले
कंपने लगे हैं।
इसलिये ही जाति, भाषा और धर्म के
अलग अलग खंडों में नारियों को भी बांटने लगे हैं।
————-
मां है
बहिन है
पत्नी है
और बेटी है
नारी हर रिश्ता ईमानदारी से निभाती है।
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
लड़ने वाले पुरुषों की जननी जरूर है
पर फिर भी अपनी निर्मलता पर नहीं उसे गरुर है
इज्जत के अहंकार में लड़ने वाले  पुरुष
जब उसके  हकों में पुराने जमाने के तर्क देने लगे
समझ लो उन्हें स्त्री सत्ता की आशंकायें सताती हैं।
—————-
जमाना बदल रहा है
महिलाओं के हकों के लिये
पुरुष भी लड़ने लगे हैं।
इसे चालाकी कहें या सादगी कि
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
महिलाओं को आगे लाने की बात कर
अपने समूहों के भले का नारा देने वाले ठेकेदार
अपनी रोटी सैंकने के लिये भी तत्काल जगे हैं। </b>
———
<b>लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com</b&gt;
————————————-
<blockquote>
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चमचागिरी का फन-हिन्दी शायरी


बाजार के खेल में चालाकियों के हुनर में
माहिर खिलाड़ी
आजकल फरिश्ते कहलाते हैं।
अब होनहार घुड़सवार होने का प्रमाण
दौड़ में जीत से नहीं मिलता,
दर्शकों की तालियों से अब
किसी का दिल नहीं खिलता,
दौलतमंदों के इशारे पर
अपनी चालाकी से
हार जीत तय करने के फन में माहिर
कलाकार ही हरफनमौला कहलाते हैं।
———-
काम करने के हुनर से ज्यादा
चमचागिरी के फन में उस्ताद होना अच्छा है,
अपनी पसीने से रोटी जुटाना कठिन लगे तो
दौलतमंदों के दोस्त बनकर
उनको ठगना भी अच्छा है।
अपनी रूह को मारना इतना आसान नहीं है
इसलिये उसकी आवाज को
अनसुना करना भी अच्छा है।
किस किस फन को सीख कर जिंदगी काटोगे
नाम का ‘हरफनमौला’ होना ही अच्छा है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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अमीर का पीछा नहीं छोड़ता ज़मीर-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविताएँ


आदर्श पुरुषों ने अपनी दरबार में
देशभक्ति का नारा बड़े तामझाम के साथ सजाया।
बाजार को बेचनी थी मोमबत्तियों
शहीदों के नाम पर,
इसलिये प्रचारकों से नारे को संगीत देने के लिये
शोक संगीत भी बजवाया।
भेजे आदर्श पुरुषों के नाम से
रुपयों से भरे लिफाफे
जिनकी समाज सेवा से आम इंसान हमेशा कांपे
दिल में न था भाव फिर भी
आदर्श पुरुषों के खौफ से
सभी ने देशभक्ति का गीत गाया।
———
उनकी देशभक्ति की दुहाई,
कभी नहीं सुहाई,
मुखौटे हैं वह बाजार के सौदागरों के
जो जज़्बात बेचने आते हैं,
उनकी जुबां कभी बोलती नहीं
पर पर्दे के पीछे
वही संवाद लिखकर लाते हैं,

खरीदे देशभक्तों ने बस, उनको दोहराया ।
——————–
इंसान की हर अदा पर मिलते हैं

पर सच बोलने पर कोई इनाम नहीं होता।

कितना भी हो जाये कोई अमीर,

पीछा नहीं छोड़ता उसका जमीर,

कैसे दे सकते हैं इनाम, उस शख्स को

बोलता है हमेशा सच जो,

खड़ी है दौलत की इमारत उनकी झूठ पर

चाटुकारों को लेते हैं, अपनी बाहों में भर

क्योंकि सच बोलने वालो से उनका काम नहीं होता।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
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होली के अवसर पर विशेष लेख (special article on holi festival)


होली हमारे देश का एक परंपरागत त्यौहार है जो उल्लास से मनाया जाता रहा है। यह अलग बात है कि इसे मनाने का ढंग अब लोगों का अलग अलग हो गया है। कोई रंग खेलने मित्रों के घर पर जाता है तो कोई घर पर ही बैठकर खापीकर मनोरंजन करते हुए समय बिताता है। इसका मुख्य कारण यह है कि जब तक हमारे देश में संचार और प्रचार क्रांति नहीं हुई थी तब तक इस त्यौहार को मस्ती के भाव से मनाया जरूर जाता था पर अनेक लोगों ने इस अवसर पर दूसरे को अपमानित और बदनाम करने के लिये भी अपना प्रयास कर दिखाया। केवल शब्दिक नहीं बल्कि सचमुच में नाली से कीचड़ उठाकर फैंकने की भी घटनायें हुईं। अनेक लोगों ने तो इस अवसर पर अपने दुश्मन पर तेजाब वगैरह डालकर उनको इतनी हानि पहुंचाई कि उसे देख सुनकर लोगों का मन ही इस त्यौहार से वितृष्णा से भर गया। तब होली उल्लास कम चिंता का विषय बनती जा रही थी।
शराब पीकर हुड़दंग करने वालों ने लंबे समय तक शहरों में आतंक का वातावरण भी निर्मित किया। समय के साथ सरकारें भी चेतीं और जब कानून का डंडा चला तो फिर हुडदंगबाजों की हालत भी खराब हुई। हर बरस सरकारें और प्रशासन होली पर बहुत सतर्कता बरतता है। इस बीच हुआ यह कि शहरी क्षेत्रों में अनेक लोग होली से बाहर निकलने से कतराने लगे। एक तरह से यह उनकी आदत बन गयी। अब तो ऐसे अनेक लोग हैं जो इस त्यौहार को घर पर बैठकर ही बिताते हैं।
जब सरकारों का ध्यान इस तरफ ध्यान नहीं था और पुलिस प्रशासन इसे सामान्य त्यौहारों की तरह ही लेता था तब हुड़दंगी राह चलते हुए किसी भी आदमी को नाली में पटक देते। उस पर कीचड़ उछालते। शहरों में तो यह संभव ही नहीं था कि कोई पुरुष अपने घर की स्त्री को साथ ले जाने की सोचे। जब पूरे देश में होली के अवसर पर सुरक्षा व्यवस्था का प्रचनल शुरु हुआ तब ऐसी घटनायें कम हो गयी हैं। इधर टीवी, वीडियो, कंप्यूटर तथा अन्य भौतिक साधनों की प्रचुरता ने लोगों को दायरे में कैद कर दिया और अब घर से बाहर जाकर होली खेलने वालों की संख्या कम ही हो गयी है। अब तो यह स्थिति है कि कोई भी आदमी शायद ही अनजाने आदमी पर रंग डालता हो। फिर महंगाई और रंगों की मिलावट ने भी इसका मजा बिगाड़ा।
महंगाई की बात पर याद आया। आज सुबह एक मित्र के घर जाना हुआ। उसी समय उसके मोहल्ले में होली जलाने के चंदा मांगने वाले कुछ युवक आये। हमने मित्र से हाथ मिलाया और अंदर चले गये। उधर उनकी पत्नी पचास रुपये लेकर आयी और लड़कों को सौंपते हुए बोली-‘इससे ज्यादा मत मांगना।’
एक युवक ने कहा-‘नहीं, हमें अब सौ रुपये चाहिये। महंगाई बढ़ गयी है।’
मित्र की पत्नी ने कहा-‘अरे वाह! तुम्हारे लिये महंगाई बढ़ी है और हमारे लिये क्या कम हो गयी? इससे ज्यादा नहीं दूंगी।’
लड़के धनिया, चीनी, आलू, और प्याज के भाव बताकर चंदे की राशि बढ़ाकर देने की मांग करने लगे।
मित्र ने अपनी पत्नी से कहा-‘दे दो सौ रुपया, नहीं तो यह बहुत सारी चीजों के दाम बताने लगेंगे। उनको सुनने से अच्छा है इनकी बात मान लो।’
गृहस्वामिनी ने सौ रुपये दे दिये। युवकों ने जाते हुए कहा-‘अंकल और अंाटी, आप रात को जरूर आईये। यह मोहल्ले की होली है, चंदा देने से ही काम नहीं चलेगा। आना भी जरूर है।’
मित्र ने बताया कि किसी समय उन्होंने ही स्वयं इस होली की शुरुआत की थी। उस समय लड़कों के बाप स्वयं चंदा देकर होली का आयोजन करते थे अब यह जिम्मेदारी लड़कों पर है।’
कहने का अभिप्राय यह है कि इस सामूहिक त्यौहार को सामूहिकता से मनाने की एक बेहतर परंपरा जारी है। जबकि पहले जोर जबरदस्ती सामान उठाकर ले जाकर या चंदा ऐंठकर होली मनाने का गंदा प्रचलन अब बिदा हो गया है। जहां नहीं हुआ वह उसे रोकना चाहिये। सच बात तो यह है कि अनेक बेवकूफ लोगों ने अपने कुकृत्यों से इसे बदनाम कर दिया। यह खुशी की बात है कि समय के साथ अब उल्लास और शांति से यह त्यौहार मनाया जाता है।

इस अवसर पर कुछ क्षणिकायें 
————————————–
रंगों में मिलावट
खोऐ में मिलावट
व्यवहार में दिखावट
होली कैसे मनायें।
कच्चे रंग नहीं चढ़ता
अब इस बेरंग मन पर
दिखावटी प्यार कैसे जतायें।
———
रंगों के संग
खेलते हुए उन्होंने होली
कुछ इस तरह मनाई,
नोटों के झूंड में बैठकर
इठलाते रहे
इसलिये उनकी पूरी काया
रंगीन नज़र आयी।
———
अगर रुपयों का रंग चढ़ा गया तो
फिर कौनसे रंग में
बेरंग इंसान नहायेगा,
आंख पर कोई रंग असर नहीं करता
होली हो या दिवाली
उसे बस मुद्रा में ही रंग नज़र आयेगा।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
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तकदीर और चालाकियां-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (taqdir aur chalaki-hindi comic poems


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

————————————
अपने गम और दूसरे की खुशी पर मुस्कराकर

हमने अपनी दरियादिली नहीं दिखाई।

चालाकियां समझ गये जमाने की

कहना नहीं था, इसलिये छिपाई।

——–

अपनी तकदीर से ज्यादा नहीं मिलेगा

यह पहले ही हमें पता था।

बीच में दलाल कमीशन मांगेंगे

या अमीर हक मारेंगे

इसका आभास न था।

———-

रात के समय शराब  में बह जाते हैं

दिन में भी वह प्यासे नहीं रहते

हर पल दूसरों के हक पी जाते हैं।

अपने लिये जुटा लेते हैं समंदर

दूसरों के हिस्से में

एक बूंद पानी भी हो

यह नहीं सह पाते हैं।

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कंप्यूटर विज्ञान का ज्ञाता कैसा हो-हिन्दी व्यंग्य


अमेरिकन लोगों का विश्वास है कि अगला बिल गेट्स भारत या चीन में पैदा होगा। यह एक सर्वे करने वाली एक ऐजेंसी ने बताया है। जहां तक चीन का सवाल है उसकी वर्तमान व्यवस्था में यह संभव नहीं लगता कि कोई एकल प्रयासों से ऐसा कर लेगा। फिर यह भी पता नहीं कि वहां पूंजीवाद का इतना खुला स्वरूप है कि नहीं। अलबत्ता भारत में इसकी संभावनाओं में कुछ संदेह लगता है क्योंकि जो प्रबंध कौशल बिल गैट्स का रहा है वह भारतीयों में बाहर तो दिखाई देता है पर अपने देश में वह लापता हो जाता है। बिल गैट्स इसलिये बिल गेट्स बन पाये क्योंकि हजारों तकनीशियनों और कर्मचारियों का समर्थन उनको मिला जिसका कारण यह है कि अमेरिका में वेतन का भुगतान ठीक ठाक से होता है।
भारत में कोई आदमी पूंजीपति बनने की तरफ पहला कदम बढ़ाता है तो अपने अंतर्गत काम करने वालों का शोषण करना उसका पहला लक्ष्य होता है। दूसरे को प्रोत्साहित करने की बजाय उसे दुत्कार कर काम लेना ही यहां के सेठों की मानसिकता रही है और यही कुशल प्रबंध की पहचान मानी जाती है। यह अलग बात है कि इसी कारण भारतीयों की छवि बाहर बहुत खराब है।
भारत के इंजीनियर भले ही साफ्टवेयर में महारत हासिल कर चुके हैं पर बिल गेट्स के करीब कोई नहीं दिखता। अलबत्ता एक आदमी ने कंप्यूटर जगत में काम कर अपनी कंपनी को उच्च स्तर पर पहुंचाया पर उसने ऐसे घोटाले किये कि अब वह जेल में है। बहुत कम लोगों को याद होगा कि लोग उसकी तुलना बिल गेट्स से करते थे जो शून्य से शिखर पर पहुंचा। कुछ लोग तो उसे भारत का बिल गेट्स तक कहते थे। मुश्किल यह है कि भारत में बिना घोटाले के बिल गेट्स पैदा होना चाहिये जिसकी संभावना नगण्य हील लगती है।
अलबत्ता भारत में बिल गेट्स के पैदा होने या उन जैसी छवि बनाने की संभावनाऐं उसी व्यक्ति के लिये हो सकती हैं जो कंप्यूटर को लालटेन से चलाने में सक्षम बनायेगा।

पूरे देश में बिजली की कमी जिस तरह होती जा रही है उससे तो यह लगता है कि इंटरनेट और कंप्यूटर का प्रयोग भी कठिन होता जायेगा। ऐसे में कोई ऐसा व्यक्ति अविष्यकार करे जो लालटेन से ही कंप्यूटर से ऊर्जा प्रदाय करने का कोई साधन बनाये तो वह लोकप्रिय हो पायेगा। लालटेन से इसलिये कह रहे हैं कि उससे दो काम हो जायेंगे। लालटेन सामने रखने से पास ही रखी किताब या कागज से सामग्री टंकित तो की जा सकेगी और कंप्यूटर भी चलता रहेगा। क्या सुंदर अविष्कार होगा? फिर अपने देश में पैट्रोल की कमी नहीं है। खूब आयात होता है। उसमें कंपनियों को बढ़िया कमीशन मिलता है तो यह संभव नहीं है कि उसका कभी आयात बंद हो।
वैसे तो बैटरी और जनरेटर से भी वैकल्पिक लाईट से घरों में व्यवस्था कर इंटरनेट चलाया जा सकता है मगर सभी के लिये यह संभव नहीं है। छोटी बैटरी से कंप्यूटर चलता नहीं, जबकि बड़ी बैटरी जनरेटर की व्यवथा करना बहुत महंगा है फिर उसमें खर्चा अधिक है। अगर अपने कंप्यूटर और इंटरनेट का शौकिया उपयेाग करना है तो आदमी सस्ती चीज ही चाहेगा। लालटेन में भी कम ऊर्जा से कंप्यूटर चलाने की व्यवस्था होना चाहिये।
देश की आबादी बढ़ रही है और ऊर्जा के सारे परंपरागत स्त्रोत साथ छोड़ रहे हैं। कंप्यूटर तो बिना बिजली के चल ही नहीं सकता। जो बिजली की अपनी व्यवस्था कर सकते हैं वह कंप्यूटर चलाते होंगे पर यह आम आदमी के बूते का नहीं है।
इसलिये जो शख्स बहुआयामी लालटेन से कंप्यूटर चलाने का अविष्कार करेगा उसके लिये देश में सम्मान पाने की बहुत जगह है। कंप्यूटर में नये प्रयोगों की बहुत गुंजायश है पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि वह ऊर्जा के नये और सस्ते प्रयोग से वह चले। अब यह लालटेन मिट्टी के तेल और गैस से जले या डीजल से या पैट्रोल ये तो उसे ही तय करना है जिसे अविष्कार करना हो। अलबत्ता हमने यह बात लिख दी। अगर भारत में कोई बिल गेट्स जैसा अवतरित होने को तैयार हो तो पहले यह भी सोच ले। वैसे जब कारें गैस सिलैंडर से चल सकती हैं तो भला ऐसा गैस का लालटेन क्यों नही बन सकता जिससे कंप्यूटर भी चले। चाहे किसी भी तरह का अविष्कार हो उसका स्वरूप लालटेन की तरह सस्ता होना होना चाहिये।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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यकीन बेचने वाले फरिश्ते-व्यंग्य कविता


गरीब और भूखे के लिये

रोटी एक सपना होती है,

मगर भरे हैं जिनके पेट

भूख भी भूत बनकर

उनके पीछे होती है।

इंसान की जिंदगी

कुछ सपने देखती

कुछ डरों के साथ बीत रही होती है।

…………………..

चाहे इंसान कितने भी

बड़े हो जायें

फरिश्ते नहीं बन पाते हैं।

यकीन बेचने वाले

अपने अंदाज-ए-बयां से

चाहे दिलासा दिलायें

यकीन नहीं करना

सर्वशक्तिमान बनने के लिये

सभी मुखौटा लगाकर आते हैं।

काला हो या गोरा

जो चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े हैं

वही वफा और यकीन बेचने आते हैं।


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हिन्दी के ब्लाग क्रिकेट मैच से पिट जाते हैं-व्यंग्य चिंत्तन


वह हमारा मित्र है बचपन का! कल हम पति पत्नी उसे घर देखने गये। कहीं से पता लगा कि वह बहुत बीमार है और डेढ़ माह से घर पर ही पड़ा हुआ है।
घर के बाहर दरवाजे पर दस्तक दी तो उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला और देखते ही उलाहना दी कि ‘आप डेढ़ महीने बाद इनको देखने आये हैं।’
मैने कहा-‘पर उसने मुझे कभी फोन कर बताया भी नहीं। फिर उसका मोबाइल बंद है।’
वह बोली-‘नहीं, हमारा मोबाइल चालू है।’
मैंने कहा-‘अभी आपको बजाकर बताता हूं।’
वह कुछ सोचते हुए बोलीं-‘हां, शायद जो नंबर आपके पास है उसकी सिम काम नहीं कर रही होगी। उनके पास दो नंबर की सिम वाला मोबाइल है।’

दोस्त ने भी उलाहना दी और वही उसे जवाब मिला। उसकी रीढ़ में भारी तकलीफ है और वह बैठ नहीं सकता। पत्थरी की भी शिकायत है।
हमने उससे यह तो कहा कि उसका मोबाइल न लगने के कारण संशय हो रहा था कि कहीं अपनी बीमारी के इलाज के लिये बाहर तो नहीं गया, मगर सच यह है कि यह एक अनुमान ही था। वैसे हमें भी हमें पंद्रह दिन पहले पता लगा था कि वह बीमार है यानि एक माह बाद।

हमें मालुम था कि बातचीत में ब्लागिंग का विषय आयेगा। दोनों की गृहस्वामिनियों के बीच हम पर यह ताना कसा जायेगा कि ब्लागिंग की वजह से हमारी सामाजिक गतिविधियां कम हो रही हैं। हालांकि यह जबरन आरोप है। जहां जहां भी सामाजिक कार्यक्रमों में उपस्थिति आवश्यक समझी हमने दी है। शादियों और गमियों पर अनेक बार दूसरे शहरों में गये हैं। वहां भी हमने कहीं साइबर कैफे में जाकर अपने ईमेल चेक करने का प्रयास नहीं किया। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि जिस घर में गये वहां पर इंटरनेट सामने था पर हमने उसे अनदेखा कर दिया। बालक लोग इंटरनेट की चर्चा करते रहे पर हमने खामोशी ओढ़ ली। इसका कारण यह था कि हमने जरा सा प्रयास किया नहीं कि हम पर ब्लाग दीवाना होने की लेबल लगने का खतरा था। बसों में तकलीफ झेली और ट्रेनों में रात काटी। कभी अपने ब्लाग की किसी से चर्चा नहीं की। अलबत्ता घर पर आये तो सबसे पहला काम ईमेल चेक करने का किया क्योंकि यह हमारा अपना समय होता है।
लगभग दो घंटे तक मित्र और उनकी पत्नी से वार्तालाप हुआ। हमने उससे यह नहीं पूछा कि ‘आखिर उसके खुद के ब्लाग का क्या हुआ?’
उसने इंटरनेट कनेक्शन लगाने के बाद अपन ब्लाग बनाया था। उसने उस पर एक कविता लिखी और हमने पढ़ी थी। उससे वादा किया था कि वह आगे भी लिखेगा पर शर्त यह रखी थी कि हम उसे घर आकर ब्लाग की तकनीकी की पूरी जानकारी देंगे। इस बात को छह महीने हो गये। अब बीमारी की हालत में उससे यह पूछना सही नहीं था कि उसके ब्लाग का क्या हुआ।
उसे हमने अपने गूगल का इंडिक का टूल भी भेजा था ताकि हिन्दी लिखने में उसे आसानी हो पर पता नहीं उसका उसने क्या किया?
उसकी बीमारी पर चर्चा होती रही। उसका मनोबल गिरा हुआ था। आखिरी उसकी पत्नी ने कह ही दिया कि ‘यह इंटरनेट पर रात को दो दो बजे तक काम करते थे भला क्यों न होनी थी यह बीमारी?’
हमने पूछ लिया कि ‘क्या तुम ब्लाग लिखते थे।’
इसी बीच श्रीमती जी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा कि ‘यह भी बाहर से आते ही थोड़ी देर में ही इंटरनेट से चिपक जाते हैं, और रात के दस बजे तक उस पर बैठते हैं।’
मित्र पत्नी ने कहा-‘पर यह तो रात को दो दो बजे तक कभी कभी तो तीन बजे तक वहां बैठे रहते हैं।’
श्रीमतीजी ने कहा-‘पर यह दस बजे नहीं तो 11 बजे के बाद बंद कर देते हैं। सुबह अगर बिजली होती है तो बैठते हैं नहीं तो चले जाते हैं।’
इधर हमने मित्र से पूछा-‘तुम इंटरनेट पर करते क्या हो? वह मैंने तुम्हें हिन्दी टूल भेजा था। उसका क्या हुआ? वैसे तुमसे जब भी ब्लाग के बारे में पूछा तो कहते हो कि समय ही नहीं मिलता पर यहां तो पता लगा कि तुम रात को दो बजे तक बैठते हो। क्या करते हो?’
वह बोला-‘मैं बहुत चीजें देखता हूं गूगल से अपना घर देखा। रेल्वे टाईम टेबल देखता हूं। अंग्रेजी-हिन्दी और हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी देखता हूं। अंग्रेजी में लिखना है। बहुत सारी वेबसाईटें देखता हूं। अखबार देखता हूं। स्वाईल फ्लू जब फैला था उसके बारे में पूरा पढ़ा। हां, मैं अंग्रेजी वाली वेबसाईटें पढ़ता हूं। मैं अंग्रेजी में लिखना चाहता हूं। हिन्दी तो ऐसे ही है।’
‘कैसे?’हमने पूछा
‘कौन पढ़ता है?’वह बोला।
‘‘हमने पूछा तुम अखबार कौनसे पढ़ते हो?’
वह बोला-‘हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही पढ़ता हूं। हां, अपना लेखन अंग्रेजी में करना चाहता हूं। जब मैं ठीक हो जाऊं तो आकर ब्लाग की तकनीकी की विस्तार से जानकारी दे जाना। हिन्दी बहुत कम लोग पढ़ते हैं जबकि अंग्रेजी से अच्छा रिस्पांस मिल जायेगा।’
हम वहां से विदा हुए। कुछ लोग तय कर लेते हैं कि वह बहुत कुछ जानते हैं। इसके अलावा अपने समान व्यक्ति से कुछ सीखना उनको छोटापन लगता है। हमारा वह मित्र इसी तरह का है। जब उसने ब्लाग बनाया था तो मैं उसे कुछ जानकारी देना चाहता था पर वह समझना नहीं चाहता था। उसने उस समय मुझसे ब्लाग के संबंध में जानकारी ऐसे मांगी जैसे कि वह कोई महान चिंतक हो ओर मैदान में उतरते ही चमकने लगेगा-‘मेरे दिमाग में बहुत सारे विचार आते हैं उन्हें लिखूंगा’, ‘एक से एक कहानी ध्यान में आती है’ और ऐसी बातें आती हैं कि जब उन पर लिखूंगा तो लोग हैरान रह जायेंगे’।
उसने मेरे से हिन्दी टूल मांगा था। किसलिये! उसके कंप्यूटर में हिन्दी फोंट था पर उसकी श्रीमती जी को अंग्रेजी टाईप आती थी। वह कहीं शिक्षिका हैं। अपने कक्षा के छात्रों के प्रश्नपत्र कंप्यूटर पर हिन्दी में बनाने थे और हिन्दी टाईप उनको आती नहीं थी। उस टूल से उनको हिन्दी लिखनी थी।
उसने उस टूल के लिये धन्यवाद भी दिया। जब भी उसके ब्लाग के बारे में पूछता तो यही कहता कि समय नहीं मिल रहा। अब जब उसकी इंटरनेट पर सक्रियता की पोल खुली तो कहने लगा कि अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ा रहा है। हमने सब खामोशी से सुना। हिन्दी लेखकों की यही स्थिति है कि वह डींगें नहीं हांक सकते क्योंकि उसमें कुछ न तो मिलता है न मिलने की संभावना रहती है। अंतर्जाल पर अंग्रेजी में कमाने वाले बहुत होंगे पर न कमाने वाले उनसे कहीं अधिक हैं। हमारे सामने अंग्रेजी ब्लाग की भी स्थिति आने लगी है। अगर सभी अंग्रेजी ब्लाग हिट हैं तो शिनी वेबसाईट पर हिन्दी ब्लाग उन पर कैसे बढ़त बनाये हुए हैं? अंग्रेजी में अंधेरे में तीर चलाते हुए भी आदमी वीर लगता है तो क्या कहें? एक हिन्दी ब्लाग लेखक के लिये दावे करना मुश्किल है। हो सकता है कि हमारे हिन्दी ब्लाग हिट पाते हों पर कम से कम एक विषय है जिसके सामने उनकी हालत पतली हो जाती है। वह है क्रिकेट मैच! उस दिन हमारे हिन्दी ब्लाग दयनीय स्थिति में होते हैं। ऐसे में लगता है कि ‘हम किसी को क्या हिन्दी में ब्लाग लिखने के लिये उकसायें जब खुद की हालत पतली हो।’ फिर दिमाग में विचार, कहानी या कविताओं का आना अलग बात है और उनको लिखना अलग। जब ख्याल आते हैं तो उस समय किसी से बात भी कर सकते हैं और उसे बुरा नहीं लगा पर जब लिखते हैं तो फिर संसार से अलग होकर लिखना पड़ता है। ऐसे में एकांत पाना मुश्किल काम होता है। मिल भी जाये तो लिखना कठिन होता है। जो लेखक हैं वही जानते हैं कि कैसे लिखा जाये? यही कारण है कि दावे चाहे जो भी करे लेखक हर कोई नहीं बन जाता। उस पर हिन्दी का लेखक! क्या जबरदस्त संघर्ष करता हुआ लिखता है? लिखो तो जानो!
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मुद्दा कथा चोरी का-व्यंग्य आलेख (mudda katha chori ka-hindi lekh)


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पता नहीं उस लेखक के उपन्यास पर फिल्म बनी हैं या नहीं-जैसा कि वह दावा कर रहा है। बहरहाल फिल्म के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्माता-कई जगह नायक का अभिनय करने वाले अभिनेता भी फिल्म में पैसा लगाते हैं पर जाहिर नहीं करते-इससे इंकार कर रहे हैं। फिल्म निर्माता ने तो एक पत्रकार को इस विषय पर प्रश्न करने पर कह दिया-‘शटअप’।
इस विवाद में एक बात निश्चित है कि मुंबईया फिल्म बनाने वालों के पास कल्पनाशक्ति का अभाव है और उससे देखकर यह मजाकिया निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर फिल्म की कहानी कुंभ मेले से बिछड़े भाईयो बहिनों के मिलन, किसी मजबूर आदमी के भईया से भाई या बहिन जी बनने या किसी विदेशी फिल्म की देशी नकल न हो तो यकीनन वह किसी देशी लेखक की नकल है।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे एक ग्वालियर मित्र लेखक का है जो शायद बीस वर्ष से अधिक पुराना है। उन्होंने एक कहानी संग्रह बड़ी मेहनत से पैसा खर्च कर प्रकाशित कराया था। कहानियां ठीकठाक थी। किताब कोई अधिक प्रसिद्ध नहीं थी पर उनमें से एक कहानी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कुछ दिन बाद बनी एक फिल्म की कथा देखकर उन्होंने दावा किया कि वह उनकी कहानी की नकल है। उन्होंने इसके बारे में तथ्य देकर एक लेख स्थानीय समाचार पत्रों में लिखा था। बाद मेें क्या हुआ पता नहीं पर वह मित्र आज भी हमसे अक्सर मिलते रहते हैं। हम इस बारे में कोई प्रश्न नहीं करते कहीं उनको यह न लगे कि यह व्यंग्यकार जरूर कुछ हमारे बारे में अंटसंट लिखेगा-वह उस पत्रिका के संपादक भी रहे हैं जिसमें हमारे व्यंग्य प्रकाशित होते रहे हैं। सच बात कहें तो उस समय उनकी यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगी थी कि कोई बड़ा कलात्मक फिल्मों का निर्माता-आम धारा से हटकर बनी फिल्मों को कलात्मक भी माना जाता है-ऐसी हरकत कर सकता है। व्यवसायिक फिल्मों में उस समय कहानी के नाम पर तो कुछ होता ही नहीं था इसलिये यह आरोप तो कोई उन पर लगाता ही नहीं था।
बहरहाल समय के साथ हमें लगने लगा कि चाहे व्यवसायिक फिल्मकार हों या कलात्मक उनके पास कहानियों का नितांत अकाल है। फिल्मी दृश्यों के तकनीकी पक्ष में उनकी कल्पना शक्ति कितनी भी जोरदार हो कहानी और पटकथा में वह अत्यंत कमजोर हैं।
यह सुंदर, चमकते और ठुमकते हुए चेहरे चिंतन से शून्य हैं और जब कहीं साक्षात्कार होते हैं तब इनकी असलियत वहां दिखाई दे जाती है। अंग्रेजी में बोलेंगे ताकि हिन्दी भाषा का दर्शक औकात न भांप लें और सवालों पर ऐसे भड़केंगे कि जैसे वह हर जगह नायक या निर्देशक हों।
इसलिये हमें उस लेखक की बात पर अधिक यकीन है कि उसके उपन्यास से कहानी चुराकर अपनी पटकथा के साथ फिल्म वालों ने अपनी प्रस्तुति की हो। हालांकि वह लेखक अंग्रेजी का है पर है तो भारतीय। भारतीय लेखकों की कल्पनाशीलता लाजवाब है इस बात को शायद अंग्रेजी के साथ अंग्रेजों के भक्त स्वीकार नहीं करेंगे। यही कारण है कि अंतर्जाल के कुछ लेखक वैश्विक काल में हिन्दी के उद्भव की कामना करते हैं क्योंकि इसमें नया लिखे जाने की पूरी संभावना है। बहरहाल उस लेखक ने अपनी बात टीवी पर हिन्दी में रखी और ऐसा लगा कि उसका कहना सच भी हो सकता है। वैसे वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का अंग्रेजी का लेखक है इसलिये उसकी बात सुनी जायेगी पर बात यहीं खत्म नहीं होती। इससे पहले भी देश के कुछ हिन्दी लेखकों ने ऐसी शिकायतें की यह अलग बात है कि वह छोटे शहरों के थे और देश के प्रचार माध्यम केवल बड़े शहरों के लेखकों की बातों को ही अधिक महत्व देते हैं। टीवी वालों से इसे महत्व भी इसलिये दिया क्योंकि लेखक एक तो अंग्रेजी का है फिर वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है और वह भारतीय प्रचार माध्यमों का मोहताज नहीं है-हिन्दी वाला होता तो शायद उसे वह महत्व नहीं देते क्योंकि उससे उसके प्रसिद्ध होने का भय पैदा हो जाता। यह काम प्रचार माध्यम कभी नहीं कर सकते कि वह किसी हिन्दी भाषी लेखक को स्वयं लेखक बनायें। बन जाये तो फिर उसका उपयोग वह कर सकते हैं।
मुद्दे की बात यह है कि मुंबईया फिल्म वाले हिन्दी के मूल लेखकों का महत्व नहीं समझते-हमने सुना है कि प्रेमचंद फिल्म क्षेत्र छोड़कर अपनी साहित्य दुनियां में लौट गये। कवि नीरज भी वहां के रवैये से संतुष्ट नहीं थे। सच तो यह है कि आजतक एक भी हिन्दी का स्थापित लेखक फिल्म से नहीं जुड़ा है। यह हिन्दी लेखकों की कमी नहीं बल्कि फिल्म वालों की कमजोरी का प्रमाण है। वह अपनी दुनियां को चमकदार बनाये रखना चाहते हैं पर कहानियों के पक्ष को समझते नहीं। कुंभ मेले में बिछड़े बच्चों के मिलन या मजबूरी से भाई बने कहानी में उनको अच्छे और आकर्षक सैट दिखाने का अवसर मिलता है और वह ऐसी कहानियां अपने लिपिक नुमा लेखकों से लिखा लेते हैं। जिसे कहानी कहा जाता है उसे कभी फाइव स्टार होटल में या किसी इमारत में बैठकर केवल कल्पना से नहीं लिखा जा सकता है। उसके लिये जरूरी है कि सत्यता के पुट के लिये आदमी सड़क पर स्वयं निकले। अंधेरी गलियों में घूमे और ऊबड़ खाबड़ सड़कों में धूल फांके। यह उनके व्यवसायिक लेखकों के बूते का नहीं है। अब देखना यह है कि उस अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध लेखक के साथ फिल्म वालों का विवाद किस जगह पहुंचता है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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कामयाबी का खिताब-हिन्दी व्यंग्य कविता


 दिन भर अपने लिए साहब शब्द सुनकर

वह रोज फूल जाते हैं।

मगर उनके ऊपर भी साहब हैं

जिनकी झिड़की पर वह झूल जाते हैं।
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नयी दुनियां में पुजने का रोग

सभी के सिर पर चढ़ा है।

कामयाबी का खिताब

नीचे से ऊपर जाता साहब की तरफ

नाकामी की लानत का आरोप

ऊपर से उतरकर नीचे खड़ा है,

भले ही सभी जगह साहब हैं

बच जाये दंड से, वही बड़ा है

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साहबी संस्कृति में डूबे लोग

आम आदमी का दर्द कब समझेंगे।

जब छोटे साहब से बड़े बनने की सीढ़ी

जिंदगी में पूरी तरह चढ़ लेंगे।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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