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कंप्यूटर विज्ञान का ज्ञाता कैसा हो-हिन्दी व्यंग्य


अमेरिकन लोगों का विश्वास है कि अगला बिल गेट्स भारत या चीन में पैदा होगा। यह एक सर्वे करने वाली एक ऐजेंसी ने बताया है। जहां तक चीन का सवाल है उसकी वर्तमान व्यवस्था में यह संभव नहीं लगता कि कोई एकल प्रयासों से ऐसा कर लेगा। फिर यह भी पता नहीं कि वहां पूंजीवाद का इतना खुला स्वरूप है कि नहीं। अलबत्ता भारत में इसकी संभावनाओं में कुछ संदेह लगता है क्योंकि जो प्रबंध कौशल बिल गैट्स का रहा है वह भारतीयों में बाहर तो दिखाई देता है पर अपने देश में वह लापता हो जाता है। बिल गैट्स इसलिये बिल गेट्स बन पाये क्योंकि हजारों तकनीशियनों और कर्मचारियों का समर्थन उनको मिला जिसका कारण यह है कि अमेरिका में वेतन का भुगतान ठीक ठाक से होता है।
भारत में कोई आदमी पूंजीपति बनने की तरफ पहला कदम बढ़ाता है तो अपने अंतर्गत काम करने वालों का शोषण करना उसका पहला लक्ष्य होता है। दूसरे को प्रोत्साहित करने की बजाय उसे दुत्कार कर काम लेना ही यहां के सेठों की मानसिकता रही है और यही कुशल प्रबंध की पहचान मानी जाती है। यह अलग बात है कि इसी कारण भारतीयों की छवि बाहर बहुत खराब है।
भारत के इंजीनियर भले ही साफ्टवेयर में महारत हासिल कर चुके हैं पर बिल गेट्स के करीब कोई नहीं दिखता। अलबत्ता एक आदमी ने कंप्यूटर जगत में काम कर अपनी कंपनी को उच्च स्तर पर पहुंचाया पर उसने ऐसे घोटाले किये कि अब वह जेल में है। बहुत कम लोगों को याद होगा कि लोग उसकी तुलना बिल गेट्स से करते थे जो शून्य से शिखर पर पहुंचा। कुछ लोग तो उसे भारत का बिल गेट्स तक कहते थे। मुश्किल यह है कि भारत में बिना घोटाले के बिल गेट्स पैदा होना चाहिये जिसकी संभावना नगण्य हील लगती है।
अलबत्ता भारत में बिल गेट्स के पैदा होने या उन जैसी छवि बनाने की संभावनाऐं उसी व्यक्ति के लिये हो सकती हैं जो कंप्यूटर को लालटेन से चलाने में सक्षम बनायेगा।

पूरे देश में बिजली की कमी जिस तरह होती जा रही है उससे तो यह लगता है कि इंटरनेट और कंप्यूटर का प्रयोग भी कठिन होता जायेगा। ऐसे में कोई ऐसा व्यक्ति अविष्यकार करे जो लालटेन से ही कंप्यूटर से ऊर्जा प्रदाय करने का कोई साधन बनाये तो वह लोकप्रिय हो पायेगा। लालटेन से इसलिये कह रहे हैं कि उससे दो काम हो जायेंगे। लालटेन सामने रखने से पास ही रखी किताब या कागज से सामग्री टंकित तो की जा सकेगी और कंप्यूटर भी चलता रहेगा। क्या सुंदर अविष्कार होगा? फिर अपने देश में पैट्रोल की कमी नहीं है। खूब आयात होता है। उसमें कंपनियों को बढ़िया कमीशन मिलता है तो यह संभव नहीं है कि उसका कभी आयात बंद हो।
वैसे तो बैटरी और जनरेटर से भी वैकल्पिक लाईट से घरों में व्यवस्था कर इंटरनेट चलाया जा सकता है मगर सभी के लिये यह संभव नहीं है। छोटी बैटरी से कंप्यूटर चलता नहीं, जबकि बड़ी बैटरी जनरेटर की व्यवथा करना बहुत महंगा है फिर उसमें खर्चा अधिक है। अगर अपने कंप्यूटर और इंटरनेट का शौकिया उपयेाग करना है तो आदमी सस्ती चीज ही चाहेगा। लालटेन में भी कम ऊर्जा से कंप्यूटर चलाने की व्यवस्था होना चाहिये।
देश की आबादी बढ़ रही है और ऊर्जा के सारे परंपरागत स्त्रोत साथ छोड़ रहे हैं। कंप्यूटर तो बिना बिजली के चल ही नहीं सकता। जो बिजली की अपनी व्यवस्था कर सकते हैं वह कंप्यूटर चलाते होंगे पर यह आम आदमी के बूते का नहीं है।
इसलिये जो शख्स बहुआयामी लालटेन से कंप्यूटर चलाने का अविष्कार करेगा उसके लिये देश में सम्मान पाने की बहुत जगह है। कंप्यूटर में नये प्रयोगों की बहुत गुंजायश है पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि वह ऊर्जा के नये और सस्ते प्रयोग से वह चले। अब यह लालटेन मिट्टी के तेल और गैस से जले या डीजल से या पैट्रोल ये तो उसे ही तय करना है जिसे अविष्कार करना हो। अलबत्ता हमने यह बात लिख दी। अगर भारत में कोई बिल गेट्स जैसा अवतरित होने को तैयार हो तो पहले यह भी सोच ले। वैसे जब कारें गैस सिलैंडर से चल सकती हैं तो भला ऐसा गैस का लालटेन क्यों नही बन सकता जिससे कंप्यूटर भी चले। चाहे किसी भी तरह का अविष्कार हो उसका स्वरूप लालटेन की तरह सस्ता होना होना चाहिये।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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हिन्दी, हिन्दू और हिंदुत्व:नए सन्दर्भों में चर्चा (१)


हिन्दी,हिन्दू और हिंदुत्व शब्दों में जो आकर्षण है उसका कारण कोई उनकी कानों को सुनाई देने वाली ध्वनि नहीं बल्कि वह भाव जो उनके साथ जुड़ा है। यह भाव हिन्दी भाषा के अध्यात्मिक, हिन्दू व्यक्ति के ज्ञानी,और हिंदुत्व के दृढ़ आचरण होने से उत्पन्न होता है। हिन्दी भाषा के विकास, हिन्दू के उद्धार और हिंदुत्व के प्रचार का कीर्तन सुनते हुए बरसों हो गये और इनका प्रभाव बढ़ता भी जा रहा है पर यह उन व्यवसायिक कीर्तनकारों की वजह से नहीं बल्कि हिन्दी भाषा,हिन्दू व्यक्तित्व और हिंदुत्व के आचरण की प्रमाणिकता की वजह से है।

स्वतंत्रता के तत्काल बाद अंग्रेजों के जाते ही उनके द्वारा ही निर्मित शिक्षा पद्धति से शिक्षित महानुभावों को इस देश के लोगों को वैसे ही भेड़ की तरह भीड़ में शामिल करने का भूत सवार हुआ जैसे अंग्रेज करते थे। बस! जिसको जैसा विचार मिला वही उसके नाम पर पत्थर लगाता गया। बाद में उनकी आगे की पीढियों ने उन्हीं पत्थरों को पुजवाते हुए इस समाज पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पत्थरों से आगे कुछ नहीं हो सकता था। वहां से कोई नए विचार की धारा प्रवाहित होकर नहीं आ सकती थी। नारे और वाद हमेशा लोगों को आकर्षित करने के लिए बनाए जाते हैं। उनमें कोई गहरा विचार या चिंत्तन ढूँढना अपने आप को धोखा देना है। फिर अंग्रेजों द्वारा ही बनायी गयी आदमी को गुलाम बनाने वाली शिक्षा से पढ़े हुए सभी लोगों से यह आशा भी नहीं की जा सकती कि वह अपने अन्दर कोई स्वतन्त्र विचार कर सकें। फिर भी जिन लोगों ने इस शिक्षा पद्धति को अक्षरज्ञान मानते हुए अपने प्राचीन धार्मिक तथा साहित्यक पुस्तकों को भक्ति और ज्ञान की दृष्टि से पढा वह ज्ञानी बने पर उन्होंने उसका व्यापार नहीं किया इसलिए लोगों तक उनकी बात पहुंची नहीं।
कुछ लोग तेजतर्रार थे उन्होंने इस ज्ञान को तोते की तरह रट कर उसे बेचना शुरू कर दिया। वह न तो अर्थ समझे न उनमें वह भाव आया पर चूंकि उन्होंने हिन्दी,हिन्दू और हिंदुत्व को उद्धार और प्रचार को अपना व्यवसाय बनाया तो फिर ऐसी सजावट भी की जिससे भक्त उनके यहाँ ग्राहक बन कर आये। यह हुआ भी! प्रकाशन और संचार माध्यमों में इन व्यापारियों की पकड़ हैं इसलिए वह भी इनके साथ हो जाते हैं। नित नयी परिभाषाएं और शब्द गढ़ जाते हैं।

कई किश्तों में समाप्त होने वाले इस आलेख में हिन्दी भाषा,हिन्दू व्यक्ति और हिंदुत्व के रूप में आचरण पर विचार किया जायेगा। इससे पहले यह तय कर लें कि आखिर उनकी संक्षिप्त परिभाषा या स्वरूप क्या है।

हिन्दी भाषा-संस्कृत के बाद विश्व की एकमात्र ऐसी भाषा है जो आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है। दिलचस्प बात यह है कि यह एकमात्र ऐसी भाषा है जो आध्यात्म ज्ञान धारण करने में सहज भाव का अनुभव करा सकती है। भले ही संस्कृत से ज्ञान से किसी अन्य भाषा में अनुवाद कर उसे प्रस्तुत किया जाये पर वह प्रभावी नहीं हो सकता जब तक उसे हिन्दी में न पढा जाए। इसलिए जिन लोगों को अध्यात्म ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत करना है उनको यह भाषा पढ़नी ही होगी। इसमें जो भाव है वह सहज है और अध्यात्मिक ज्ञान के लिए वह आवश्यक है। जिस तरह विश्व में भौतिकता का प्रभाव बढा है वैसे ही लोगों में मानसिक संताप भी है। वह उससे बचने के लिए अध्यात्म में अपनी शांति ढूंढ रहे है और इसलिए धीरे धीरे हिन्दी का प्रचार स्वत: बढेगा। अंतर्जाल पर भी पूंजीपति प्रभावी हैं पर इसके बावजूद यहाँ स्वतंत्र लेखन की धारा बहती रहेगी। इसलिए स्वतन्त्र सोच वाले उस ज्ञान के साथ आगे बढ़ेंगे जो ज्ञान और कल्याण का व्यापार करने वालों की पास ही नहीं है तो दूसरे को बेचेंगे क्या? अत: कालांतर में अंतर्जाल पर हिन्दी अपने श्रेष्ठतम रूप में आगे आयेगी। हिंदी भाषा के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि यह किसी एक धर्म, प्रदेश या देश की भाषा नहीं है। इसका प्रचार पूरे विश्व में स्वत: हो रहा है। भारत में तो हर धर्म और प्रांत का आदमी इसे अपना चुका है।

हिन्दू व्यक्ति-मानसिक,आध्यात्मिक और आचरण की दृष्टि से परिपूर्ण,दूसरे पर निष्प्रयोजन दया करने वाला,भगवान की निष्काम भक्ति में तल्लीन,विज्ञान के नित नए रूपों में जीवन की सहजता को अनुभव करते हुए उसके साथ जुड़ा हुआ, अपने मन, बुद्धि और विचारों की विकारों को योगासन और ध्यान द्वारा प्रतिदिन बाहर विसर्जित करने में सक्षम,समय समय पर वातावरण और पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ हवन में संलिप्त, त्याग में ही प्रसन्न रहने वाला, लालच और लोभ रहित,तत्व ज्ञान धारी और हर स्थिति में सभी के प्रति समदर्शिता का भाव रखने वाला व्यक्ति सच्चा हिन्दू है। अहिंसा और ज्ञान हिंदू के ऐसे अस्त्र-शस्त्र हैं जिसस वह अपने विरोधियों को परास्त करता है।

हिंदुत्व-हिन्दू व्यक्ति के रूप में किये गए कार्य ही हिंदुत्व की पहचान होते हैं। हिंदुत्व की सबसे बड़ी पहचान यह है कि विरोधी या शत्रु को हिंसा से नहीं बल्कि बुद्धि और ज्ञान की शक्ति से परास्त किया जाए। इसके लिये उसे हिंसा करने की आव्श्यकता ही नहीं होती बल्कि वह हालातों पर बौद्धिक चातुर्य से विजय पा लेता है। देखिए कितने हमले इस देश पर हुए। इसे लूटा गया। यहाँ तमाम तरह के प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन कराये गए, पर उस ज्ञान को कोई नहीं मिटा पाया जिसके वजह से इस देश को आध्यात्म गुरु कहा जाता है। यही पहचान है हिंदुत्व की शक्ति की। हिंदुत्व का एक अर्थ आध्यात्मिक ज्ञान भी है जो सत्य रूप है। आगे पीछे इसे बढ़ना ही है।

यह कोई अंतिम परिभाषा नहीं। आलेख बढा न हों इसलिए यह तात्कालिक रूप से लिखीं गयीं हैं। आगे हम और भी चर्चा करेंगे। यह जानने का प्रयास करेंगे कि आखिर इसके नाम पर पाखण्ड कैसे बिक रहा है। यह बताने का प्रयास भी करेंगे कि इसे बदनाम करने वाले भी कैसे कैसे स्वांग रचते हैं।ऐसी एक नहीं कई घटनाएँ जब लोगों ने अपने हिसाब से अपने विचार बदले या कहें कि उन्होंने अपने नारे और वाद बदले। कभी धर्म के भले के नाम पर आन्दोलन चलाया तो कभी भाषा की रक्षा का ठेका लिया। कहते हैं अपने को हिंदुत्व का प्रचारक पर उनके आचरण उसके अनुसार बिलकुल नहीं है।
यह आलेख उनकी आलोचना पर नहीं लिखा जा रहा है बल्कि यह बताने के लिये लिखा जा रहा है कि एक हिंदी भाषी हिंदू के रूप में हमारा आचरण ही हिंदुत्व की पहचान होती है और उसे समझ लेना चाहिये। आने वाले समय में कई ऐसी घटनाएँ होनी वाली हैं जिससे सामान्य भक्त को मानसिक कष्ट हो सकता है। इसी कारण उनको अपने अध्यात्म ज्ञान को जाग्रत कर लेना चाहिए। आखिर इसकी आवश्यकता क्यों अनुभव हुई? देखा गया है कि सनातन धर्मी-हिन्दू धर्म-अपने धर्म की प्रशंसा तो करते हैं पर उसके समर्थन में उनके तर्क केवल विश्वास का सम्मान करने के आग्रह तक ही सीमित रहते हैं। उसी तरह जब कोई सनातन धर्म की आलोचना करता है तो लड़ने को दौड़ पड़ते हैं। यह अज्ञानता का परिणाम है।
इसका एक उदाहरण एक अन्य धर्मी चैनल पर देखने को मिला। वहां एक अन्य धर्म के विद्वान वेदों की उन ऋचाओं को वहां बैठे लोगों को सुनाकर सनातन धर्म की आलोचना कर रहे थे तब वहां बैठे कुछ लोग उन पर गुस्सा हो रहे थे। ऋचाएं भी वह जिनकी आलोचना सुनते हुए बरसों हो गये हैं। लोगों का गुस्सा देखकर वह विद्वान मुस्करा रहे थे। अगर वहां कोई ज्ञानी होता तो उनको छठी का दूध याद दिला देता, मगर जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि ज्ञान और कल्याण का व्यापार करने वाले समाज के शिखर पर जाकर बैठे हैं और समाज ने भी एक तरह से मौन स्वीकृति दे दी है। इसका कारण ज्ञान का अभाव है। ऐसे ही लोग अपने अल्पज्ञान को साथ लेकर बहस करने पहुंचते हैं और जब आलोचना होती है तो तर्क देने की बजाय क्रोध का प्रदर्शन कर अपने को धर्म का ठेकेदार साबित करते हैं। ज्ञानी की सबसे बड़ी पहचान है कि वह वाद विवाद में कभी उतेजित नहीं होता। उत्तेजित होना अज्ञानता का प्रमाण है। अपने अध्यात्म ज्ञान के मूल तत्वों के बारे में अधिक जानकारी न होने से वह न तो उसकी प्रशंसा कर पाते न आलोचना का प्रतिवाद कर पाते हैं।

इस आलेख का उद्देश्य किसी धर्म का प्रचार नहीं बल्कि धर्म की नाम फैलाए जा रहे भ्रम का प्रतिकार करने के साथ सत्संग की दृष्टि से सत्य का अन्वेषण करना है, जो लिखते लिखते ही प्राप्त होगा। इन पंक्तियों का लेखक कोई सिद्ध या ज्ञानी नहीं बल्कि एक सामान्य इंसान है जिसे भारतीय अध्यात्म में आस्था है। इसलिए अगर कहीं कोई त्रुटि हो जाए तो उसे अनदेखा करें। यहाँ किसी के विश्वास का खंडन नहीं करना बल्कि अपने विश्वास की चर्चा करना है। बिना किसी योजना के लिखे जा रहे इस लेख के लंबे चलने की संभावना है और यह विवादास्पद टिप्पणियाँ न रखें तो ही अच्छा होगा। ऐसी सार्थक टिप्पणियों का स्वागत है जिससे लेखक और पाठक दोनों को ज्ञान मिले। वह ज्ञान जो हमारे अक्षुणण अध्यात्म की सबसे बड़ी तात्कत है। शेष इसी ब्लॉग/पत्रिका पर जारी रहेगा। इस आलेख को प्रस्तावना ही समझें क्योंकि आगे इस पर व्यापक रूप से लिखना पर पढ़ना है।
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ब्लागस्पाट का लेबल, वर्डप्रेस की श्रेणियां और टैग-जानकारी के लिये आलेख


यह आलेख मैं एक प्रयोक्ता की तरह लिख रहा हूं और मुझे अपने तकनीकी ज्ञान को लेकर कोई खुशफहमी नहीं है। कल कुछ ब्लाग लेखक ने टैगों को लेकर सवाल किये। अधिकतर लोग ब्लागस्पाट पर काम करते हैं और उनका यही कहना था कि उनके यहां टैग(लेबल)कम लग पाता है। कई लोग के मन में वर्डप्रेस के ब्लाग को लेकर भी हैरानी है। यह आलेख मैं ऐसे ही नये ब्लाग लेखकों के दृष्टिकोण से लिख रहा हूं जिन्हें शायर मुझसे कम जानकारी हो।

पहले ब्लाग स्पाट के लेबल या टैग के बारे में बात कर लें। वहां लेबल में 200 से अंग्रेजी वर्ण नहीं आते यह सही बात है पर उसका उपयोग अगर इस तरह किया जाये जिससे स्पेस कम हो तो उसमें अंग्रेजी के अधिकतक शब्द हम शामिल कर सकते हैं। अगर हिंदी के शब्द भी लिखने हैं तो पहले हिंदी में शब्द फिर उसके साथ अंग्रेजी के शब्द लिखकर वहां से कापी लाकर लेबल पर पेस्ट करें। उसका तरीका यह है। हिंदी,कविता,शायरी,साहित्य,हास्य,व्यंग्य,hindi,kavita,shayri,sahitya,hasya,
कोमा के बाद स्पेस न दें। इससे दोनों मिलाकर अट्ठारह से बीस टैग या लेबल आ सकते हैं।
वैसे तो वर्ड प्रेस के किसी ब्लाग लेखक ने कोई सवाल नहीं किया पर फिर भी उसकी जानकारी दे देता हूं। वहां कैटेगरी और टैग दो तरह से सुविधा मिली है। कैटेगरी में अगर आप ऐसे शब्द भर दें जो आप हमेशा ही अपने पाठों के साथ कर सकते है। जैसे हिंदी,कविता,साहित्य,आलेख,व्यंग्य,hindi,kavita,sahitya,vyangya,hasya vyangya। वहां अपने ब्लाग में सैटिंग में जाकर अपने ब्लाग ओर पाठ की सैटिंग में हिंदी शब्द ही लिखें। इससे आपका ब्लाग हिंदी के डेशबोर्ड पर दिखता रहेगा। मुझे तो अपने ब्लाग की सैटिंग ही दो महीने बाद समझ में आयी थी। वैसे मेरे वहां इस समय आठ ब्लाग हैं जिनमें से दो अन्य श्रेणी में कर रखे हैं क्योंकि वह भी बिना किसी फोरम के इतने पाठक जुटा लेते हैं कि डेशबोर्ड पर दिखने लगते हैं। उस पर मैं अभी तक दूसरे ब्लाग से पाठ उठाकर रखता हूं और डेशबोर्ड पर हिंदी के नियमित ब्लाग लेखक भ्रमित न हों मैंने उसे अन्य श्रेणी में कर रखा है। यह अलग बात है कि चिट्ठाजगत वालों की उस पर नजर पड़ गयी और अपने यहां उसे लिंक किये हुए हैं। वर्डप्रेस में वर्णों की संख्या का कोई बंधन नहीं हैं। मैंने शुरू में एक ब्लाग लेखक को इतनी श्रेणियां उपयोग करते देखा था कि डेशबोर्ड पर उससे हमारे ब्लाग पर दूर ही दिख रहे थे। जब वह नंबर वन पर था तो हमें बड़ी मेहनत से अपने ब्लाग देखने पड़ रहे थे। वर्डप्रेस पर वर्ण या शब्द की कोई सीमा नहीं है

अब आ जाये टैग की किस्म पर जो शायद इस समय सबसे अधिक विवादास्पद है। मुझे अनुमान नहीं था कि यह इतना तीव्र हो जायेगा कि मुझे यह सब लिखना पड़ेगा।
मैने ब्लाग के बारे में लेख पढ़ा था अपने ब्लाग बनाने के छह महीने पहले यानि सवा दो साल पहले। उसके निष्कर्ष मुझे याद थे और आज भी हैं और मैं उन्हीं पर ही चलता हूं।
1.नियमित रूप से अपने ब्लाग पर कुछ न कुछ लिखते रहें। इस बात की परवाह मत करें कि सभी पाठ आपके पाठको अच्छे लगें पर नियमित होने से वह वहां आते हैं और उनकी आमद बनी रहे।
2.ब्लाग पर जमकर टैग लगायें। टैग लगाते समय आपको यह ध्यान रखना चाहिये कि आप अपना ब्लाग कहां और किन पाठकों को पढ़ाना चाहते हैं। उसमें अपने विषय से संबंधित टैग तो लगाना ही चाहिए बल्कि ऐसे लोकप्रिय टैग भी इस तरह लगाना चाहिए कि कोई उन पर आपत्ति न कर सके। याद रहे टैग पाठक को पढ़ाने के लिये नहीं बल्कि अपना ब्लाग वहां तक पहुंचाने के लिये है।
3.अखबारों में आप छपते हैं तो वह अगले दिन ही कबाड़ में चला जाता है। किताबें अल्मारी में बंद हो जाती हैं पर यह आपका ब्लाग अंतर्जाल पर हमेशा ही सक्रिय बना रहेगा।

यह मूलमंत्र मुझे याद है। टैग गलत लगाकर पाठकों को धोखा देना नहीं है-ऐसे तर्क मेरे जैसे लेखक के आगे रखना ही अपनी अज्ञानता का प्रमाण देना है। हम टैग लगा रहे हैं शीर्षक नहीं। कहा यह जाता है कि हमारे पाठ के अनुरूप शीर्षक होना चाहिये। यह टैग वैसी होने की बात किस हिंदी की साहित्य की किताब में कहा गया है। टैग कभी शीर्षक नहीं होते, जैसे पूंछ कभी मूंछ नहीं होती। पैर का इलाज सिर पर नहीं चलता। शीर्षक सिर है और टैग पांव है। आपने देखा होगा पत्र-पत्रिकाओं में होली के अवसर किसी प्रतिष्ठत हस्ती का चेहरा लिया जाता है और किसी दूसरे का निचला हिस्सा लेकर उसका कार्टून बनाया जाता है। मतलब शीर्षक ही पहचान है पाठ की।
टैग तो एक हाकर की तरह है जो उसे लेकर चलता है। अब कहानी है तो वह संस्मरण भी हो सकती है और अभिव्यक्ति या अनुभूति भी। केवल यही नहीं आप ऐसे लोकप्रिय शब्द ले सकते हैं जिनका आम लोग सर्च इंजिन खोलने के लिये उपयोग करते हैं। हां इसमें केवल अमूर्त वस्तुओं, शहरों, या नदियों का नाम लिख सकते हैं जिससे आपको अपना ट्रेफिक बढता हुआ लगे। प्रसिद्ध व्यक्तियों या संस्थाओं का नाम कभी नहीं लिखें क्योंकि इससे आपकी कमजोरी ही जाहिर होगी और उनके प्रशंसकों द्वारा उसका प्रतिवाद भी संभव है। संभव है आम पाठक आप में दिलचस्पी न लें क्यों िउनसे संबंधित सामग्री वैसे ही अंतर्जाल पर होती है।

कुछ शब्द हैं जैसे अल्हड़,मस्तराम,मनमौजी और भोला शब्द अगर वह आपके प्यार का नाम है तो उपयोग कर सकते हैं। जैसे मुझे मेरी नानी कहती थी ‘मस्तराम’। मुझे उनका यह दिया गया नाम बहुत प्यारा है। मैंने पहले इसे अपने नाम के साथ ब्लाग में जोड़ा पर चिट्ठाजगत वालों ने उसे पकड़कर लिंक कर लिया तो मैंने सोचा कि इसका टैग ही बना देते हैं। फिर अब उसे टैग बना लिया। टैगों में संबंद्ध विषय से संबंधित जानकारी होना चाहिए यह बात ठीक है पर हम उसे विस्तार देकर अपने पाठक तक पहुंचने का प्रयास न करें यह कोई नियम नहीं है। इस पर फिर कभी।

कुल मिलाकर टैग वह मार्ग है जो आपको पाठकों तक पहुंचा सकता है। ब्लागस्पाट का मुझे पता नहीं पर वर्डप्रेस में मैंने यही अनुभव किया है। आखिरी बात यह कि मैंने यह आलेख एक प्रयोक्ता की तरह लिखा है और हो सकता है मेरा और आपका अनुभव मेल न खाये। फिर ब्लाग स्पाट के ब्लाग अभी वैसे परिणाम नहीं दे पाये जैसे अपेक्षित थे। कुल मिलाकर यह मेरा अनुभव है जिसे मैंने प्रयोक्ता के रूप में पाया और इससे अधिक तो मुझ कुछ आता भी नहीं। कुछ खोजबीन चल रही है और यही टैग उसके लिये काम कर रहे हैं। शेष फिर कभी।
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ब्लाग पर त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाने वालों का आभार


कुछ ब्लोगों में शब्द और वर्तनी की गलतिया आ जाती हैं. मैं खुद कई गलतियां कर जाता हूँ, यह स्वीकार करते हुए कोई शर्म नहीं है कि यह गलतिया मेरी लापरवाही से होतीं हैं. जो लोग मेरा इनकी तरफ आकर्षित कराते हैं उनका आभारी हूं. वैसे कई ब्लोगर अनजाने में यह गलतियां कर जाते हैं और जल्दबाजी में उनको ठीक करना भूल जाते हैं.

इन गलतियों के पीछे केवल एक ही कारण है कि हम जब इसे टंकित कर रहे हैं तो अंग्रेजी की बोर्ड का इस्तेमाल करते हैं. दूसरा यह कि कई शब्द ऐसे हैं जो बाद में बेक स्पेस से वापस आने पर सही होते हैं, और कई शब्द तो ऐसे हैं जो दो मिलाकर एक करने पड़ते हैं. ki से की भी आता है और कि भी. kam से काम भी आता है कम भी. एक बार शब्द का चयन करने के बाद दुबारा सही नहीं करना पड़ता है पर गूगल के हिन्दी टूल का अभ्यस्त होने के कारण कई बार इस तरफ ध्यान नहीं जाता और कुछ गलतिया अनजाने में चली जाती हैं. वैसे तो मैं कृतिदेव से करने का आदी हूँ और यह टूल इस्तेमाल करने में मुझे बहुत परेशानी है, पर मेरे पास फिलहाल इसके अलावा कोई चारा नहीं है. वैसे मैं अंतरजाल पर लिखने से पहले अपनी रचनाएं सीधी कंप्यूटर पर कृतिदेव में टायप करता था और हिन्दी टूल से अब भी यही करता हूँ और मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपने मूल स्वरूप के अनुरूप नहीं लिख पाता. ऐसा तभी होगा जब मैं हाथ से लिखकर यहाँ टाइप करूंगा. अभी यहाँ बड़ी रचनाएं लिखने का माहौल नहीं बन पाया है और जब हाथ से लिखूंगा तो बड़ी हो जायेंगी. इसलिए अभी जो तात्कालिक रूप से विचार आता है उसे तत्काल यहाँ लिखने लगता हूँ, उसके बाद पढ़ने पर जो गलती सामने आती है उसको सही करता हूँ फिर भी कुछ छूट जातीं हैं.

चूंकि अंग्रेजी की बोर्ड का टाईप सभी कर रहे हैं इसलिए गलती हो जाना स्वाभाविक है पर इसे मुद्दा बनाना ठीक नहीं है और अगर सब कमेन्ट लिखते समय एक दूसरे इस तरफ ध्यान दिलाएं तो अच्छी बात है-क्योंकि जब कोई रचना या पोस्ट चौपाल पर होती है तो उसका ठीक हो जाना अच्छी बात है, अन्य पाठकों के पास तो बाद में पहुँचती है और तब तक यही ठीक हो जाये तो अच्छी बात है. वैसे कुछ लिखने वाले वाकई कोई गलती नहीं करते पर कुछ हैं जिनसे गलतियां हो जातीं हैं. हाँ इस गलती आकर्षित करने पर किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए. अब बुध्दी हो या बुद्धि हम समझ सकते हैं कि कोई जानबूझकर गलती नहीं करता. इस पर किसी का मजाक नहीं बनाना चाहिऐ. मैंने बडे-बडे अख़बारों में ऐसी गलतियां देखीं हैं.

इस मामले में मैं उन लोगों का आभारी हूँ जिन्होंने मेरा ध्यान इस तरफ दिलाया है, और अब तय किया है कि अपने लिखे को कम से कम दो बार पढा करूंगा. इसके बावजूद कोई रह जाती है तो उसका ध्यान आकर्षित करने वालों का आभार व्यक्त करते हुए ठीक कर दूंगा.

कौटिल्य का अर्थशास्त्र:व्यसनी राजा संकट का कारण


1.विशेष ज्ञान से संपन्न सत्त्वगुण और दैव की अनुकूलता लिए उधोग और सत असत का विचार का शत्रु पर उपाय का प्रयोग करे। चतुरंगिनी सेना को छोड़कर जहाँ कोष और मन्त्र से ही युद्ध होता वही श्रेष्ठ मन्त्र है, जिसमें कोष और मंत्री से ही शत्रु को जीता जा सकता है। * यहाँ आशय यह है कि अगर कहीं शत्रु के की सेनाओं के साथ सीधे युद्ध नहीं हो रहा पर उसकी गतिविधियां ऎसी हैं जिससे देश को क्षति हो रही हो तो वहां धन और अपने चतुर सहयोगियों की चालाकी(मन्त्र) से भी शत्रु को हराया जा सकता है३.साम, दाम, दण्ड, भेद, माया, उपेक्षा, इन्द्रजाल यह सात उपाय विजय के हैं।*यहाँ कौटिल्य का आशय यह है साम, दाम, दण्ड और भेद के अलावा माया(छल-कपट और चालाकी) उपेक्षा का भाव दिखाकर और इन्द्रजाल (हाथ की सफाई) द्वारा भी शत्रु को हराया जा सकता है।

2.मंत्री और मित्र राज्य के सहायक हैं पर राज्य के व्यसन से अधिक भारी राजा का व्यसन है।जो राजा स्वयं व्यसन से ग्रस्त न हो वही राज्य के व्यसन दूर कर सकता है। वाणी का दण्ड, कठोरता, अर्थ दूषण यह तीन व्यसन क्रोध से उत्पन्न बताये हैं।जो पुरुष वाणी की कठोरता करता है उससे लोग उतेजित होते हैं, वह अनर्थकारी है, इस कारण ऎसी वाणी न बोले। मधुर वाणी से जगत को अपने वश में करेजो अकस्मात ही क्रोध से बहुत कुछ कहने लगता है उससे लोग विपरीत हो जाते हैं जैसे चिंगारी उड़ाने वाली से अग्नि से लोग उतेजित हो जाते हैं।

आध्यात्मिक ज्ञान के बिना विकास अधूरा


देश को विकास की ओर ले जाने की बात सभी करते है और करना चाहिऐ, पर आज तक कोई भी स्पष्ट नहीं का सका कि उसका स्वरूप क्या? क्या भौतिक साधनों के उपलब्धि ही विकास है? क्या आदमी के मानसिक विकास को कोई मतलब नही है?

अगर हम विकास का अर्थ केवल भौतिक विकास से करते हैं तो वह स्वाभाविक रुप से आता ही है, और साथ में विनाश भी होता है। जो आज है उसका स्वरूप भी बदलेगा-इसी बदलाव को हम विकास कहते हैं और फिर एक दिन उसका विनाश भी होता है। इतने सारे भौतिक साधन होते हुए भी पूरे विश्व में अमन चैन नहीं है। एक तरफ सरकारें विकास का ढिंढोरा पीटती हैं दूसरी तरफ आतंकवादी उन्हीं साधनों का इस्तेमाल गलत उद्देश्यों के लिए करते है उनके पास धन और अन्य साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और जैसे जैसे संचार के क्षेत्र में नये नए साधन आ रहे आम आदमी के पास इस्तेमाल के लिए बाद में पहुंचते है आतंकवादी उसे शुरू कर चुके होते हैं। इसका सीधा आशय यही है उनके पास धन और साधनों की उपलब्धता है पर विचार शक्ति नहीं है। यह विचार शक्ति तभी आदमी में आती है जब वह अपने अध्यात्म को पहचानता है। आजकल आदमी को भौतिक शिक्षा तो दीं जाती है पर अध्यात्म का ज्ञान नहीं दिया जाता और वह दूसरों के लिए उपयोग की वस्तु बनकर रह जाता है।

हमारा देश विश्व में अध्यात्म गुरू की छबि रखता है और यहां के अध्यात्म आदमी में सर्वांगीण विकास कि प्रवृति उत्पन्न करता है। हमारे महर्षियों और संतों ने अपनी तपस्या और तेज से यहाँ ऐसे बीज बो दिए हैं जो आज तक हमारे देश की छबि उज्जवल है पर अपने धर्म ग्रंथो को असांसारिक और भक्ति से ओतप्रोत मानकर उन्हें नियमित शिक्षा से दूर कर दिया गया है, यही कारण है हमारे देश के प्रतिभाशाली लोग भौतिक शिक्षा ग्रहण कर विदेश में तो ख़ूब नाम कमा रहे हैं पर देश को उसका लाभ नहीं मिल पाया वजह हर जगह अज्ञान का बोलबाला है। वह विदेशों में नाम कमा रहे हैं और यहाँ हम खुश होते हैं पर कभी यह सोचा है कि हमारे देश में रहकर वह लोग कम क्यों नहीं कर पाये?

केवल भौतिक शिक्षा से सुख-समृद्धि तो आ सकती है पर शांति का केवल एक ही जरिया है और वह है अध्यात्म का विकास। इसका आशय यह है कि आदमी समय के अनुसार बड़ा होता है और अपने प्रयासों से भौतिक साधनों का निर्माण और संचय स्वाभाविक रुप से करेगा ही पर वह तब तक अध्यात्मिक विकास नहीं कर सकते जब तक उसे कोई गुरू नहीं मिलेगा। अगर हम विश्व में फैले आतंकवाद को देखें तो अधिकतर आतंकवादी भौतिक शिक्षा से परिपूर्ण है वह हवाई जहाज उड़ाने, कंप्युटर चलाने और बम बनने में भी माहिर है और कुछ तो चिकित्सा और विज्ञान में ऊंची उपाधिया प्राप्त हैं, इसके बावजूद आतंकवाद की तरफ अग्रसर हो जाते हैं उसमें उनका दोष यही होता है कि धन और धर्म के नाम पर भ्रम में डालकर उन्हें इस रास्ते पर आने को बाध्य कर दिया जाता है ।
इस तरह यह जाहिर होता है कि भौतिक साधनों के विकास के साथ अध्यात्म का विकास भी जरूरी है।

असफल लेखकों की मनमानी


आपस में मिले दो असफल लेखक
पहले पाठकों पर भंडास निकाली
फिर अपना नाम किसी भी कीमत
पर पत्र-पत्रिकाओं में चमकाने की ठानी

पहले बांधे एक-दूसरे की तारीफों के पुल
एक ने लिखा दूसरे के लिए ‘कवि सम्राट’
दूसरे ने लिखा पहले के लिए
‘व्यंग्य का राजा विराट’
न उसने कविता लिखी थी
न इसने लिखा था व्यंग्य
लेखक के नाम पर थे भाट
कभी किसी पैसा लेकर
प्रसिद्ध कवियों की कवितायेँ
उनकी प्रशंसा में चिपकायीं थीं
तो कहीं सम्मान पाने के लिए
देने वाले की चरणगाथा गाईं थीं
अब बंद होगयी थी दुकान
साहित्य की याद तो उनको थी आनी

दोनों ने बहुत की एक-दूसरे की तारीफ
पर पाठक फिर भी नहीं रीझा
तब उनक मन और खीझा
और सोची कुछ और करने की कारिस्तानी
अब तय किया कि
अब एक दूसरे पर जमकर करेंगे
अपनी लेखनी से वार
इतने लिखेंगे साहित्यक अभद्र शब्द कि
लोग भी हिल जायेंगे
और पढने लग जायेंगे
फिर सिलसिला हुआ आक्षेपों का
पर हुआ असर इसका यह कि
उनको छापने वाला अखबार ही
बंद होने के कगार पर पहुंच गया
संपादक ने हाथ जोड़कर कहा
‘अब नहीं छापूंगा आपकी रचनाएं
आहत हुईं है लोगों की भावनाएं
कलम जिनके हाथ में हो
अक्ल भी होना चाहिए
अपने से बाहर निकल कर भी सोचना चाहिऐ
नहीं चलती लिखने में मनमानी’