धरती का खुदा
नहीं है बंदों से जुदा।
फिर भी धरती को बचाने के लिये
चंद लोग एकत्रित हो जाते हैं
कभी कोपेनहेगन तो कभी
रियो-डि-जेनेरियों में
महंगी महफिलें सजाते हैं
बिगाड़ दिया है दुनियां का नक्शा
अब फिर तय करने लगे है नया चेहरा
बन रहे नये खुदा
सोचते ऐसे हैं जैसे
दुनियां के बंदों से हैं जुदा।
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गोरों का राज्य मिट गया
पर फिर भी संसार पर हुक्म चलता है।
उसे बजाने के लिये हर
काला और सांवला मचलता है।
कुछ चेहरा है उनका गजब,
तो चालें भी कम नहीं अजब,
काला अंधेरा कर दिया
अपने विज्ञान से,
बीमार बना दिया सारा जमाना
अपने ज्ञान से,
बिछा दी चहुं ओर अपनी शिक्षा,
पढ़लिखकर साहुकार भी मांगे भिक्षा,
बिगाड़ दी हवा सारी दुनियां की
अब ताजी हवा को गोरे तरस रहे हैं,
सारे संसार पर अपने शब्दों से बरस रहे हैं,
विष लिये पहुंचते हैं सभी जगह
अमृत की तलाश में
फिर भी दान नहीं मांगते
लूट का अंदाज है
फिर भी लोग उन्हें देखकर बहलते हैं।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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