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चाणक्य नीति-पवित्र काम मन लगाकर पूरा करें (pavitra kaam-chankya niti in hindi)


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः।
विद्यारत्नेद यो हीनः स हीनः सर्ववस्तुष।।
हिंदी में भावार्थ-
धन से रहित व्यक्ति को
दीन हीन नहीं समझना चाहिये अगर वह विद्या ये युक्त है। जिस व्यक्ति के पास धन और अन्य वस्तुयें हैं पर अगर उसके पास विद्या नहीं है तो वह वास्तव में दीन हीन है।
दुष्टिपतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेजलम्।
शास्त्रपूतं वदेद् मनः पूतं समाचरेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
आंखों से देखकर जमीन पर पांव रखें। कपड़े से छान कर पानी पियो। शास्त्र से शुद्ध कर वाक्य बोलें और कोई भी पवित्र काम मन लगाकर संपन्न करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज में निर्धन आदमी को अयोग्य मान लेने की प्रवृत्ति है और यही कारण है कि उसमें वैमनस्य फैल रहा है। एक तरफ धनी मानी लोग यह अपेक्षा करते हैं कि कोई उनकी रक्षा करे दूसरी तरफ अपनी रक्षा के लिये शारीरिक सामथ्र्य रखने वाले निर्धन व्यक्ति का सम्मान करना उनका अपने धन का अपमान लगता है। संस्कार, संस्कृति और धर्म बचाने के लिये आर्तनाद करने वाले धनी लोग अपने देश के निर्धन लोगों का सम्मान नहीं करते और न ही उनके साथ समान व्यवहार उनको पसंद आता है। धनीमानी और बाहूबली लोग देश पर शासन तो करते हैं पर उसे हर पल प्रमाणिक करने के उनके शौक ने उनको निर्धन समाज की दृष्टि में घृणित बना दिया है।
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि युद्ध में कोई धनीमानी नहीं बल्कि गरीब परिवारों के बच्चे जाते हैं। अमीर तो उनकी बहादुरी और त्याग के वजह से सुरक्षित रहते हैं पर फिर भी उनके लिये गरीब और उसकी गरीबी समाज के लिये अभिशाप है। गरीब की गरीबी की बजाय उसे ही मिटा डालने के लिये उनकी प्रतिबद्धता ने निचले तबके का शत्रु बना दिया है। यह देश दो हजार वर्ष तक गुलाम रहा तो केवल इसलिये कि समाज के धनी और बाहूबली वर्ग ने अपना दायित्व नहीं निभाया।

आदमी को हमेशा ही सतर्क रहना चाहिये। कहीं भी जमीन पर पांव रखना हो तो उससे पहले अपनी आंखों की दृष्टि रखना चाहिये। आजकल जिस तरह सड़क पर हादसों की संख्या बढ़ रही है उससे तो यही लगता है कि लोग आंखों से कम अनुमान से अधिक चलते हैं। अधिकतर बीमारियां पानी के अशुद्ध होने से फैलती हैं और जितना स्वच्छ पानी का उपयोग किया जाये उतना ही बीमार पड़ने का खतरा कम हो जाता है। इसके अलावा निरर्थक चर्चाओं से अच्छा है आदमी धार्मिक ग्रंथों और सत्साहित्य की चर्चा करे ताकि मन में पवित्रता रहे। मन के पवित्र होने से अनेक काम स्वत: ही सिद्ध होते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

व्यंग्य के लिए धार्मिक पुस्तकों और देवों के नाम के उपयोग की जरूरत नहीं-आलेख


यह कोई आग्रह नहीं है यह कोई चेतावनी भी नहीं है। यह कोई फतवा भी नहीं है और न ही यह अपने विचार को किसी पर लादने का प्रयास है। यह एक सामान्य चर्चा है और इसे पढ़कर इतना चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर मस्तिष्क में अगर चिंतन के तंतु हों तो उनको सक्रिय किया जा सकता है। किसी भी लेखक को किसी धर्म से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिये पर उसे इस कारण यह छूट भी नहीं लेना चाहिये कि वह अपने ही धार्मिक पुस्तकों या प्रतीकों की आड़ में व्यंग्य सामग्री (गद्य,पद्य और रेखाचित्र) की रचना कर वाह वाही लूटने का विचार करे।
यह विचित्र बात है कि जो लोग अपनी संस्कृति और संस्कार से प्रतिबद्धता जताते हैंे वही ऐसी व्यंग्य सामग्रियों के साथ संबद्ध(अंतर्जाल पर लेखक और टिप्पणीकार के रूप में) हो जाते हैं जो उनके धार्मिक प्रतीकों के केंद्र बिंदु में होती है।
यह लेखक योगसाधक होने के साथ श्रीगीता का अध्ययनकर्ता भी है-इसका आशय कोई सिद्ध होना नहीं है। श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण की आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर हमें कोई पीड़ा नहीं हुई न मन विचलित हुआ। अगर अपनी इष्ट पुस्तक और देवता के आड़ लेकर रची गयी व्यंग्य सामग्री देखकर परेशानी नहीं हुई तो उसका श्रेय भी उनके संदेशों की प्रेरणा को ही जाता है।
यह कोई आक्षेप नहीं है। हम यहां यह चर्चा इसलिये कर रहे हैं कि कम से कम अंतर्जाल पर सक्रिय लेखक इससे बाहर चल रही पुरानी परंपरागत शैली से हटकर नहीं लिखेंगे तो यहां उनकी कोई पूछ परख नहीं होने वाली है। अंतर्जाल से पूर्व के लेखकों ने यही किया और प्रसिद्धि भी बहुत पायी पर आज भी उन्हें इस बात के लिये फिक्रमंद देखा जा सकता है कि वह कहीं गुमनामी के अंधेरे में न खो जायें।
स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के हिंदी लेखकों का एक वर्ग सक्रिय हो गया था जो भारतीय अध्यात्म की पुस्तकों को पढ़ न पाने के कारण उसमें स्थित संदेशों को नहीं समझ पाया इसलिये उसने विदेशों से विचारधारायें उधार ली और यह साबित करने का प्रयास किया कि वह आधुनिक भारत बनाना चाहते हैं। उन्होंने अपने को विकासवादी कहा तो उनके सामने खड़े हुए परंपरावादियों ने अपना मोर्चा जमाया यह कहकर कि वह अपनी संस्कृति और संस्कारों के पोषक हैं। यह लोग भी कर्मकांडों से आगे का ज्ञान नहीं जानते थे। बहरहाल इन्हीं दो वर्गों में प्रतिबद्ध ढंग से लिखकर ही लोगों ने नाम कमाया बाकी तो संघर्ष करते रहे। अब अंतर्जाल पर यह अवसर मिला है कि विचाराधाराओं से हटकर लिखें और अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचायें।
पर यह क्या? अगर विदेशी विचाराधाराओं के प्रवर्तक लेखक भगवान श्रीकृष्ण या श्रीगीता की आड़ में व्यंग्य लिखें तो समझा जा सकता है और उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है। निष्काम कर्म, निष्प्रयोजन दया और ज्ञान-विज्ञान में अभिरुचि रखने का संदेश देने वाली श्रीगीता का नितांत श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया जाये तो वह इतना दृढ़ बना देती है कि आप उसकी मजाक उड़ाने पर भी विचलित नहीं होंगे बल्कि ऐसा करने वाले पर तरस खायेंगे।
अगर श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण में विश्वास करने वाले होते तो कोई बात नहीं पर ऐसा करने वाले कुछ लेखक विकासवादी विचाराधारा के नहीं लगे इसलिये यह लिखना पड़ रहा है कि अगर ऐसे ही व्यंग्य कोई अन्य व्यक्ति करता तो क्या वह सहन कर जाते? नहीं! तब वह यही कहते कि हमारे प्रतीकों का मजाक उड़ाकर हमारा अपमान किया जा रहा है। यकीनन श्रीगीता में उनकी श्रद्धा होगी और कुछ सुना होगा तो कुछ ज्ञान भी होगा मगर उसे धारण किया कि पता नहीं। श्रीगीता का ज्ञान धारण करने वाला कभी उत्तेजित नहीं होता और न ही कभी अपनी साहित्य रचनाओं के लिये उनकी आड़ लेता है।
सच बात तो यह है कि पिछले कुछ दिनों से योगसाधना और श्रीगीता की आड़ लेकर अनेक जगह व्यंग्य सामग्री देखने,पढ़ने और सुनने को मिल रही है। एक पत्रिका में तो योगसाधना को लेकर ऐसा व्यंग्य किया गया था जिसमें केवल आशंकायें ही अधिक थी। ऐसी रचनायें देखकर तो यही कहा जा सकता है कि योगसाधना और व्यंग्य पर वही लोग लिख रहे हैं जिन्होंने स्वयं न तो अध्ययन किया है और न उसे समझा है। टीवी पर अनेक दृश्यों में योगसाधना पर व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति देखकर इस बात का आभास तो हो गया है कि यहां गंभीर लेखन की मांग नहीं बल्कि चाटुकारिता की चाहत है। लोगों को योग साधना करते हुए हादसे में हुई एक दो मौत की चर्चा करना तो याद रहता है पर अस्पतालों में रोज सैंकड़ों लोग इलाज के दौरान मरते हैं उसकी याद नहीं आती।
देह को स्वस्थ रखने के लिये योगसाधना करना आवश्यक है पर जीवन शांति और प्रसन्नता से गुजारने के लिये श्रीगीता का ज्ञान भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस धरती पर मनुष्य के चलने के लिये दो ही रास्ते हैं। मनुष्य को चलाता है उसका मन और वह श्रीगीता के सत्य मार्ग पर चलेगा या दूसरे माया के पथ पर। दोनों ही रास्तों का अपना महत्व है। मगर आजकल एक तीसरा पथ भी दिखता है वह दोनों से अलग है। माया के रास्ते पर चले रहे हैं पर वह उस विशाल रूप में साथ नहीं होती जो वह मायावी कहला सकें। तब बीच बीच में श्रीगीता या रामायण का गुणगान कर अनेक लोग अपने मन को तसल्ली देते हैं कि हम धर्म तो कर ही रहे हैं। यह स्थिति तीसरे मार्ग पर चलने वालों की है जिसे कहा जा सकता है कि न धन साथ है न धर्म।
अगर आप व्यंग्य सामग्री लिखने की मौलिक क्षमता रखते हैं तो फिर प्राचीन धर्म ग्रंथों या देवताओं की आड़ लेना कायरता है। अगर हमें किसी पर व्यंग्य रचना करनी है तो कोई भी पात्र गढ़ा जा सकता है उसके लिये पवित्र पुस्तकों और भगवान के स्वरूपों की आड़ लेने का आशय यह है कि आपकी सोच की सीमित क्षमतायें है। जो मौलिक लेखक हैं वह अध्यात्म पर भी खूब लिखते हैं तो साहित्य व्यंग्य रचनायें भी उनके हाथ से निकल कर आती हैं पर कभी भी वह इधर उधर से बात को नहीं मिलाते। अगर किसी अध्यात्म पुरुष पर लिखते हैं फिर उसे कभी अपने व्यंग्य में नहीं लाते।
अरे इतने सारे पात्र व्यंग्य के लिये बिखरे पड़े हैं। जरूरी नहीं है कि किसी का नाम दें। अगर आप चाहें तो रोज एक व्यंग्य लिख सकते हैं इसके लिये पवित्र पुस्तकों यह देवताओं के नाम की आड़ लेने की क्या आवश्यकता है? वैसे भी जब अब किसी का नाम लेकर रचना करते हैं और वह सीधे उसकी तरफ इंगित होती है तो वह व्यंजना विधा नहीं है इसलिये व्यंग्य तो हो ही नहीं सकती।
यह पाठ किसी प्रकार का विवाद करने के लिये नहीं लिखा गया है। हम तो यह कहते हैं कि दूसरा अगर हमारी पुस्तकों या देवताओं की मजाक उड़ाता है तो उस पर चर्चा ही नहीं करो। यहां यह भी बता दें कुछ लोग ऐसे है जो जानबूझकर अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित करने के लिये अपने ही देवताओं और पुस्तकों पर रची गयी विवादास्पद सामग्री को सामने लाते हैं ताकि अपने आपको धार्मिक प्रदर्शित कर सकें। उनकी उपेक्षा कर दो। ऐसा लगता है कि कुछ लोग वाकई सात्विक प्रवृत्ति के हैं पर अनजाने में या उत्साह में ऐसी रचनायें कर जाते हैं। उनका यह समझाना भर है कि जब हम अपनी पवित्र पुस्तकों या देवताओं की आड़ में कोई व्यंग्य सामग्री लिखेंगे- भले ही उसमें उनके लिये कोई बुरा या मजाकिया शब्द नहीं है-तो फिर किसी ऐसे व्यक्ति को समझाइश कैसे दे सकते हैं जो बुराई और मजाक दोनों ही करता है। याद रहे समझाईश! विरोध नहीं क्योंकि ज्ञानी लोग या तो समझाते हैं या उपेक्षा कर देते हैं। यह भी समझाया अपने को जाता है गैर की तो उपेक्षा ही की जानी चाहिये। हालांकि जिन सामग्रियों को देखकर यह पाठ लिखा गया है उनमें श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण के लिये कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं थी पर सवाल यह है कि वह व्यंग्यात्मक सामग्रियों में उनका नाम लिखने की आवश्यकता क्या है? साथ ही यह भी कि अगर कोई इस विचार से असहमत है तो भी उस पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिये। सबकी अपनी मर्जी है और अपने रास्ते पर चलने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, पर चर्चायें तो होती रहेंगी सो हमने भी कर ली।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र:अशुभ गुण वाले का कभी आश्रय न लें


१.चंपा के साथ  रहने पर तिलों में वैसे ही सुगन्ध आ जाती है, रस वैसे ही  नहीं खाया जाता है पर उसकी गंध  तिलों में आ जाती है इस कारण अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं। वह संक्रामक माने जाते हैं

अभिप्राय- किसी व्यक्ति में कोई अच्छा गुण है पर वह यदि बुरे लोगों की संगति में आ जाता है तो उनके दुर्गुणों का प्रभाव उस पर आ जाता है।  इसलिए अगर कोई व्यक्ति  अच्छा लगे तो यह भी देखना चाहिये कि वह किन लोगों के बीच रह रहा है और उसका उठाना बैठना किनके साथ है और उसका घर कैसा है।  यदि उसकी पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि ठीक नहीं है तो यह मानना चाहिए कि उसमें वह दुर्गुण भी होंगे।

जल का गंगाजल का प्रवाह जब सागर में बह जाता है तब वह पीने योग्य नहीं रहता, विद्वान के लिए यह उचित है कि अशुभ गुण वाले का आश्रय कभी न ले  अन्यथा वह भी समुद्र में मिल गए जल के समान होगा।
जिन लोगों के मन स्वच्छ हैं उन्हें ही ही अपना मित्र बनाएं.

अभिप्राय-इसका आशय यह है कि सदैव ही गुणवान व्यक्ति से अपन संपर्क रखना चाहिऐ. वैसे हमें देखा होगा कि कुछ लोग बोलने में बहुत मीठे होते हैं पर उनका आचरण अत्यंत खराब होता है. हो सकता है वह अपने स्वार्थों की वजह से हमसे अच्छी बात करते हों पर दूसरों के प्रति घृणा, विश्वासघात और बेईमानी का व्यवहार करते हैं और ऐसे दिखाते है कि हमारे हितैषी हैं पर यह समझ लेना चाहिऐ कि समय निकलते ही हमारे साथ भी वही  व्यवहार करेंगे यह मान लेना चाहिए.

ब्लाग पर त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाने वालों का आभार


कुछ ब्लोगों में शब्द और वर्तनी की गलतिया आ जाती हैं. मैं खुद कई गलतियां कर जाता हूँ, यह स्वीकार करते हुए कोई शर्म नहीं है कि यह गलतिया मेरी लापरवाही से होतीं हैं. जो लोग मेरा इनकी तरफ आकर्षित कराते हैं उनका आभारी हूं. वैसे कई ब्लोगर अनजाने में यह गलतियां कर जाते हैं और जल्दबाजी में उनको ठीक करना भूल जाते हैं.

इन गलतियों के पीछे केवल एक ही कारण है कि हम जब इसे टंकित कर रहे हैं तो अंग्रेजी की बोर्ड का इस्तेमाल करते हैं. दूसरा यह कि कई शब्द ऐसे हैं जो बाद में बेक स्पेस से वापस आने पर सही होते हैं, और कई शब्द तो ऐसे हैं जो दो मिलाकर एक करने पड़ते हैं. ki से की भी आता है और कि भी. kam से काम भी आता है कम भी. एक बार शब्द का चयन करने के बाद दुबारा सही नहीं करना पड़ता है पर गूगल के हिन्दी टूल का अभ्यस्त होने के कारण कई बार इस तरफ ध्यान नहीं जाता और कुछ गलतिया अनजाने में चली जाती हैं. वैसे तो मैं कृतिदेव से करने का आदी हूँ और यह टूल इस्तेमाल करने में मुझे बहुत परेशानी है, पर मेरे पास फिलहाल इसके अलावा कोई चारा नहीं है. वैसे मैं अंतरजाल पर लिखने से पहले अपनी रचनाएं सीधी कंप्यूटर पर कृतिदेव में टायप करता था और हिन्दी टूल से अब भी यही करता हूँ और मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपने मूल स्वरूप के अनुरूप नहीं लिख पाता. ऐसा तभी होगा जब मैं हाथ से लिखकर यहाँ टाइप करूंगा. अभी यहाँ बड़ी रचनाएं लिखने का माहौल नहीं बन पाया है और जब हाथ से लिखूंगा तो बड़ी हो जायेंगी. इसलिए अभी जो तात्कालिक रूप से विचार आता है उसे तत्काल यहाँ लिखने लगता हूँ, उसके बाद पढ़ने पर जो गलती सामने आती है उसको सही करता हूँ फिर भी कुछ छूट जातीं हैं.

चूंकि अंग्रेजी की बोर्ड का टाईप सभी कर रहे हैं इसलिए गलती हो जाना स्वाभाविक है पर इसे मुद्दा बनाना ठीक नहीं है और अगर सब कमेन्ट लिखते समय एक दूसरे इस तरफ ध्यान दिलाएं तो अच्छी बात है-क्योंकि जब कोई रचना या पोस्ट चौपाल पर होती है तो उसका ठीक हो जाना अच्छी बात है, अन्य पाठकों के पास तो बाद में पहुँचती है और तब तक यही ठीक हो जाये तो अच्छी बात है. वैसे कुछ लिखने वाले वाकई कोई गलती नहीं करते पर कुछ हैं जिनसे गलतियां हो जातीं हैं. हाँ इस गलती आकर्षित करने पर किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए. अब बुध्दी हो या बुद्धि हम समझ सकते हैं कि कोई जानबूझकर गलती नहीं करता. इस पर किसी का मजाक नहीं बनाना चाहिऐ. मैंने बडे-बडे अख़बारों में ऐसी गलतियां देखीं हैं.

इस मामले में मैं उन लोगों का आभारी हूँ जिन्होंने मेरा ध्यान इस तरफ दिलाया है, और अब तय किया है कि अपने लिखे को कम से कम दो बार पढा करूंगा. इसके बावजूद कोई रह जाती है तो उसका ध्यान आकर्षित करने वालों का आभार व्यक्त करते हुए ठीक कर दूंगा.

मनुस्मृति-राजा का कर्तव्य है धर्म की रक्षा करना


१.धर्मज्ञ राजा को जातियों,  धर्मों, राज्य के धर्मों, श्रेणी धर्मों(व्यवसाय के प्रकार से नियत धर्मों) तथा कुल धर्मों को अच्छी तरह समझकर अपने धर्म का अनुसरण करना चाहिऐ.
२.जाति, देश और कुल धर्मानुसार अपने-अपने कामों को करने वाले तथा अपने-अपने कार्य में स्थित होकर दूर रहते हुए भी इस लोक में प्रिय हो जाते हैं.
३.राजपुरुष  को न तो स्वयं  झगडा करना चाहिए न ही किसी के झगडे को अनदेखा करना चाहिऐ.
४.राजपुरुष  को धर्म का अनुसरण करने वाले तथा सदाचरण करने वाले द्विजातियों द्वारा प्रमाणित  एवं  देश, कुल तथा जाति के अनुकूल ही झगडे का निर्णय करना चाहिऐ.
५.जिस सभा में अधर्म द्वारा धर्म को दबाया जाता है और वहाँ मौजूद सदस्य अन्याय को दूर नहीं करते वहाँ जिस कांटे से धर्म को दबाया जाता है वही बाद में सदस्यों को कष्ट पहुंचाता है.
६.ऐसी सभा में जहाँ सभासदों के सम्मुख ही झूठ जब सत्य को तथा अधर्म भी धर्म को दबाता तो उस पाप के कारण सभासद भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं.
७.राजपुरुष द्वारा उचित न्याय  नहीं होने पर अधर्म का पहला चौथाई भाग अधर्म करने वाले को, दूसरा चौथाई यह सब देखने वाले को, तीसरा चौथाई भाग राज्य की तरफ से नियुक्त सदस्यों को था चौथाई भाग राज्य  जो मिलता है. 

चाणक्य नीति:असंयमित जीवन से व्यक्ति अल्पायु


1.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

2.जो सुख चाहते है वह विद्या छोड़ दें। जो विद्या चाहते हैं वह सुख छोड़ दें। सुखार्थी को ज्ञान और ज्ञानार्थी को सुख कहाँ मिलता है। बिना सोचे-समझे खर्च करने वाला, अनाथ, झगडा करने वाला तथा असंयमित जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति अल्पायु होते हैं।धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या संग्रह में और वाद-विवाद में जो निर्लज्ज होता है, वही सुखी होता है।

3.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

मनुस्मृति:दुस्साहसी को क्षमा राज्य के लिए ख़तरा


१.अपनी क्षीण वृति, अर्थात आय की कमी से तंग होकर जो व्यक्ति रास्ते में पड़ने वाले खेत से कुछ कंद-मूल अथवा गन्ना ले लेता हैं उस पर दंड नहीं लगाना चाहिए.

२.जो व्यक्ति दुसरे के पशुओं को बांधता है, बंधे हुए पशुओं को खोल देता है तथा दासों, घोडों और रथों को हर लेता है, वह निश्चय ही दंडनीय है.

३.इस प्रकार जो राज्य प्रमुख चोरों को दण्डित कर चोरी का निग्रह करता है वह इस लोक में यश प्राप्त करता है तथा परलोक में दिव्य सुखों को भोगता है.

४.जो राज्य प्रमुख इस लोक में अक्षय यश व मृत्यु के बाद दिव्य लोक चाहता है उसे चोरों और डकैतों के अपराध को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए.

५. वह व्यक्ति जो अप्रिय वचन बोलता है, चोरी करता है और हिंसा में लिप्त होता है. उसे महापापी मानना चाहिए.

६.यदि राज्य दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा कर देता है या उसके कृत्य को अनदेखा कर देता है तो अतिशीघ्र उसका विनाश हो जाता है क्योंकि लोगों को उसके प्रति विद्वेष की भावना पैदा हो जाती है.

७.राज्य प्रमुख को चाहिए के वह स्नेह वश अथवा लालच वश भी प्रजाजन में डर उत्पन्न करने वाले अपराधियों को बन्धन मुक्त न करे.

८.यदि गुरु, बालक,वृद्ध व विद्वान भी किसी पर अत्याचार करता है तो उसे बिना विचार किये उपयुक्त दंड दिया जाना चाहिए.

९.अपने आत्म रक्षार्थ तथा किसी स्त्री और विद्वान पर संकट आने पर उसकी रक्षा के लिए जो व्यक्ति किसी दुष्ट व्यक्ति का संहार करता है उसे हत्या के पाप का भागीदार नहीं माना जाता.

नए समाज के निर्माण की पहल करें


भारत एक बृहद देश है और इसमें तमाम प्रकार के समुदाय और समाज के लोग रह्ते है और यह कोई नयी बात नही है। अगर कोई नयी बात है तो वह यह कि हम आधुनिक समय में एकता की बात अधिक करनें लगें है और यह इस बात का द्योतक है कि भारतीय समाज में अब धर्म, विचार और वैयक्तिक विषयों पर झगड़े पहले की बनस्बित बहुत बढ़ गये हैं. शायद यही वजह है कि हम सब जगह शांति और एकता के नारे लगा रहे हैं.

देश के हालत कैसे हैं यह सब जानते हैं और किस तरह समाज में वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं यह हम सभी देखते आ रहे हैं. फिर जब सब लोग शांति और एकता की बात करते हैं फिर भी हो क्यों नहीं पा रही है यह सोचने का विषय है. आखिर समाज में हम अपनी भूमिका किस रूप में निभा रहे हैं इस पर भी हमें आत्मंथन तो करना चाहिए. देश के सारे बुद्धिमान लोग एक भारतीय समाज बनाने की बात तो करते है पर उसकी कोई कल्पना उनके दिमाग में नहीं है और शांति और एकता केवल एक नारा बनकर रह गये हैं. फिर हम आ जाते हैं इस बात पर कि सब समाजों को एक होना चाहिए. सवाल यह है के समाज का कोई अपने आप में कोई भौतिक रूप नहीं होता और व्यक्ति की इकाई उसे यह संज्ञा प्रदान करती है तो क्यों न हमें व्यक्ति तक जाकर अपनी बात कहना चाहिए.

अगर हम एक भारतीय समाज की बात कर रहे हैं जिसमें सब समाज उसकी इकाई है तो हमें उनके वर्त्तमान स्वरूप को भी समझना होगा. समय ने इन हमारे सभी समाजों को कितना खोखला कर दिया है इस पर दृष्टिपात किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते. पहले समाज के संगठन बहुत मजबूत होते थे और लोग अपने से बडे, प्रतिष्ठित था विद्वान लोगों की बात मानते थे तब आर्थिक स्वरूप भी एसा नहीं था और मध्यम वर्ग अपनी बौद्धिक प्रभाव से दोनों वर्ग पर अपना नियन्त्रण रखता चलता था. लोग अपने समाज के दबंग लोगों से हमेशा तकलीफ में राहत मिलने की उम्मीद होती थी. अगर देखा जाये तो समाज के सबसे अधिक आवश्यकता आदमी को बच्चों के विवाह के समय होती है और इसमें भी कोई अधिक पहले परेशानी नहीं होती थी. अब बढते भौतिकतावाद ने रिश्तों को लोहे-लंगर के सामान से बाँध दिया है-और आजकल तो हालात यह है कि लड़के को कार मिलनी है लडकी वाले को देनी है. रिश्तों की औकात अब आर्थिक आधार पर तय होने लगी है. पहले भी रिश्तेदारों में अमीर गरीब होते थे पर आज अन्तर पहले से बहुत ज्यादा हो गया है. समाज के शक्तिशाली लोगों से गरीब और कमजोर तबका अब कोई आशा नहीं कर सकता. अत उनकी पकड़ समाजों पर वैसी नहीं है जैसे पहले थी

कहने का तात्पर्य यह है कि समाज टूटे पडे हैं और कोई नया समाज बन ही नहीं रहा और चूंकि हम लोगों को नाम के लिए ही सही उनकी छात्र छाया में रहें की आदत हो गयी है इसलिये उनके नाम पर उसके भग्नावशेषों में रह रहे हैं. जो लोग समाजों में एकता और शांति की बात करते हैं वह सभी समाजों के खोखलेपन को जानते हुए भी चर्चा नहीं करते. अपने समाज की आलोचना की तो वह नाराज होंगे और दूसरे की करने पर तो वैसे ही झगड़े का अंदेशा है ऐसे में नारा लगाकर रहना ही सबको श्रेयस्कर लगता है. मेरा आशय यह कि एकता व्यक्ति की व्यक्ति से हो सकती है पर समाज की एकता तो वैसे भी एक नारा ही लगती है फिर खोखले और बिखर चुके समाज अपने अन्दर तो एकता कर लें फिर दूसरे समाज से करने की सोचें.

मैं देख रहा हूँ लोग अब नए समाज की स्थापना करना चाहते हैं पर उनके मार्गदर्शक बुद्धिजीवी अभी भी उन्हें पुरानी पहचान पर एक होने का संदेश दे रहे हैं जो कि अब आम आदमी कि दृष्टि से अव्यवहारिक हो चुके हैं. अब अगर इस देश के बुद्धिमान लोग चाहते हैं कि इस देश में एकता और शांति से लोग रहे तो उन्हें नए समाज के निर्माण के लिए कार्य करना चाहिए. यह प्रक्रिया कोई एक दिन में पूरे नहीं होगी पर उसको शुरू तो किया जा सकता है, और इसके परिणाम भी अभी से दिखना शुरू होंगे. हमें केवल इस बात पर विचार करना चाहिए कि आम आदमी की सामाजिक परेशानी किस तरह की है और वह क्या चाहता है? हमें कभी न कभी तो समाजों में आये खोखलेपन पर दृष्टिपात करना ही होगा, जिनको हम देखते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं. इन सब पर विचार करके ही यह तय करना होगा कि हम समाज का कोई नया रूप देखना चाहिते हैं या इन्हीं भग्नावशेषों से ही एकता और शांति करना चाहते हैं

असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो-हास्य कविता


असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
तुम्हारे लिए किये इतने सारे इंतजाम
हम सुनाते हैं तुम सुनो
हम दिखाते हैं तुम देखो
पर तुम अपने होंठ सिलकर रहो
जो हम करते हैं वह सहो
टीवी पर तुम्हारे लिए किया हैं इंतजाम
करना नहीं हैं तुमको कोई काम
गीत और नृत्य देखते रहो
मनोरंजन के कार्यक्रम जंग की तरह सजाये हैं
हम जानते हैं देव-दानवों के द्वन्द्वों के
दृश्य हमेशा तुम्हारे मन को भाये हैं
घर में ही मैदान का मजा दिलाने के लिए
एसएमएस का किया है इंतजाम

सवाल कोई नहीं उठाना
हमारा उद्देश्य है कमाना
जवाब देना नहीं है हमारा काम
सब कुछ अच्छा है
यही हम सब जगह दिखा रहे हैं
खोये रहो तुम ख्वावों में
भयावह सच इसलिये छिपा रहे हैं
हम भी डरते हैं
इसलिये नकली को असली बता रहे हैं
तुम पैसा निकाल सकते हो
इसलिये सब तुम्हारे लिए सजा रहे हैं
जिनके पास नही है
उन्हें तुमसे दूर भगा रहे हैं
तुम नहीं खर्च कर सकते तो
तुम्हारा भी नहीं यहाँ काम

बेकारी, भुखमरी, भय और भ्रष्टाचार पर
चर्चा मत करो
उनसे मत डरो
उसे तुमसे दूर भगा रहे हैं
इसलिये कहीं नहीं दिखा रहे हैं
असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
गीत और नृत्य के कार्यक्रम देखते रहो
हम किये जा रहे अपना काम
तुम करो अपना काम

शाश्वत प्रेम के कितने रुप


‘प्रेम’ शब्द मूलरूप से संस्कृत के ‘प्रेमन’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है-‘प्रिय का भाव’। ऐक अन्य प्रकार की व्युत्पत्ति दिखाई देती है, जहाँ प्रेम को ‘प्रीञ’ धातु से मनिन’ प्रत्यय करके सिद्ध किया गया है (प्रीञ+मनिन=प्रेमन)। इस द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार प्रेम का अर्थ है-प्रेम होना, तृप्त होना, आनन्दित होना या प्रेम, तृप्त और आनंदित करना।

निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अद्वैत मतावलंबियों ‘सच्चिदानंद’ कहा है। वह सत है क्योंकि उसका विनाश नही होता, वह चित है क्योंकि स्वयं प्रकाशमान और ज्ञानमय है तथा आनंद रुप है इसलिये कि वह प्रेममय है। यदि वह आनंदात्मक न हो तो उसके अस्तित्त्व और और चैतन्य की क्या सार्थकता रह जायेगी। सत-चित का भी प्रयोजन यह आनंद या प्रेम ही है। इसी प्रेम लक्षण के वशीभूत होकर वह परिपूर्ण, अखंड ब्रह्म सृष्टि के लिए विवश हो गया। वह न अकेले प्रेम कर सका , न तृप्त हो सका और न आनंद मना सका। तब उसके मन में एक से अनेक बन जाने की इच्छा हुई और वह सृष्टि कर्म में प्रवृत्त हुआ।

आनंद स्वरूप प्रेम से ही सभी भूतों की उत्पत्ति होती है, उसमें ही लोग जीते हैं और उसमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं। यही तथ्य तैत्तिरीयोपनिषद (३.६) की पंक्तियों में प्रतिपादित किया गया है।

प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड और उससे परे जो कुछ है- सब इसकी परिधि में आ जाते हैं। प्रेम संज्ञा भी है और क्रिया वाचक भी है। संज्ञा इसलिये कि सब में अंत:स्थ भाव रुप (मन का स्थायी भाव) है और यह भाव व्यक्त भी होता है अव्यक्त भी। क्रियात्मक इसलिये कि समस्त चराचर के व्यापारों का प्रेरक भी है व्यापारात्मक भी है। किन्तु मूल है अंत:स्थ का अव्यक्त भाव, जो अनादि और अनंत है, जो सर्वत्र और सब में व्याप्त है। यही अव्यक्त भाव रुप प्रेम सात्विक, राजस और तामस इन तीन गुणों के प्रभाव से विविध विकारों के रुप में बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है और व्यवहार में व्यक्त होता है ।

यही प्रेम बडों के प्रति आदर, छोटों के लिए स्नेह, समान उम्र वालों के लिए प्यार, बच्चों के लिए वात्सल्य, भगवान् के प्रति भक्ति , आदरणीय लोगों के लिए श्रद्धा, जरूरतमंदों के प्रति दया एवं उदारता से युक्त होकर सेवा, विषय-सुखों के संबध में राग और उससे उदासीनता के कारण विराग, स्व से (अपने से) जुडे रहने से मोह और प्रदर्शन से युक्त होकर अहंकार, यथार्थ में आग्रह के कारण सत्य, जीव मात्र के अहित से विरत होने में अहिंसा, अप्रिय के प्रति अनुचित प्रतिक्रिया के कारण घृणा और न जाने किन-किन नामों से संबोधित होता है। प्रेम तो वह भाव है जो ईश्वर और सामान्य जीव के अंतर तक को मिटा देता है। जब अपने में और विश्व में ऐक-जैसा ही भाव आ जाय, और बना रहे तो वह तीनों गुणों से परे शुद्ध प्रेम है।

यह प्रेम साध्य भी है प्रेम पाने का साधन भी है। साधारण प्राणी सर्वत्र ऐक साथ प्रेम नहीं कर सकता-इस तथ्य को देखते हुए ही हमारे देश के पूज्य महर्षियों ने भक्ति का मार्ग दिखाया जिससे मनुष्य अदृश्य ईश्वर से प्रेम कर सके। इन्द्रियों के वशीभूत दुर्बल प्राणियों के लिए ईश्वर से प्रेम की साधना निरापद है जबकि लौकिक प्रेम में भटकाव का भय पग-पग पर बना रहता है। ईश्वरीय प्रेम को सर्वोच्च प्रतिपादित करने के पीछे यही रहस्य छिपा है और ईश्वरीय प्रेम का अभ्यास सिद्ध होने के पश्चात प्राणी ‘तादात्म्य भाव’ की स्थिति में आरूढ़ हो जाता है और तब शुद्ध प्रेम की स्थिति उसे स्वयंसिद्ध हो जाती है। प्रेम की इस दशा में पहुंचकर साधक को अपने ही अन्दर सारा विश्व दृष्टिगोचर होने लगता है और संपूर्ण विश्व में उसे अपने ही स्वरूप के दर्शन होने लगते है। समस्त चराचर जगत में जब अपने प्रियतम इष्ट के दर्शन होने लगें तो समझ लेना चाहिऐ कि हमें अनन्य और शाश्वत प्रेम की प्राप्ति हो गयी।

(कल्याण से साभार)

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हिंदी टूल आते रहेंगे तुम लिखते रहो


हिंदी के नए और मेरे जैसे फ्लॉप ब्लॉगरों के के पास यूनीकोड के रास्ते पर चलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. इधर फिर सादा हिंदी फॉण्ट के यूनीकोड मे परिवर्तन के टूलों की चर्चा जो चलती दिख रही है उसमें कोई दम नहीं है-मैने उसके इस्तेमाल करने का प्रयास किया पर वह सफल नहीं हुआ. अगर देखा जाये तो मैं अंतर्जाल पर आने से पहले यूनीकोड के बारे में नहीं जानता और सादा हिंदी फॉण्ट में ही लिख रहा था और सच तो यह है कि जितना अपने अनुभय से जो बात मेरी समझ में आयी है कि अब इस पर बहस नहीं होना चाहिए कि हम किसमें लिखे रहे हैं, बल्कि यह देखना चाहिए कि हम लिख क्या रहे हैं.

कभी-कभी सादा हिंदी फॉण्ट की चर्चा होती है तो मेरा मन डोळ जाता है और सोचता हूँ कि आगे ऐसा टूल मिल जाये जिससे मैं अपने कृति देव फॉण्ट को अंतर्जाल पर स्थापित कर सकूं पर जब टूलों को आजमाता हूँ तो एक तो वह सफल नहीं होते और दूसरे उनके सफल होने या न होने से हिंदी के अंतर्जाल पर स्थापित करने में कोई मदद मिलेगी ऎसी मैं आशा नहीं करता-क्योंकि जब तक लोगों में लिखने का उत्साह नहीं होगा तब तक यह काम नहीं हो सकता . हिंदी के यूनीकोड से मुझे कोई परायापन नहीं लगता क्योंकि यह बनाया तो भारत के लोगों ने ही है. कृति देव क्योंकि हिंदी का शब्द है पर केवल इसलिये तो हिंदी टूल का समर्थन नहीं किया जा सकता. टूल को लेकर भाषाप्रेम जैसी बात सोचना भी गलत है क्योंकि मुख्य सवाल तो लिपि का है और वह देवनागरी में ही हम लिख और पढ़ रहे हैं. अगर हम इस बात पर अड़ंगा लगाएंगे कि नहीं यूनीकोड के विदेशी होने की अनुभूति है तो फिर कंप्यूटर और अंतरजाल भी तो विदेशी लोगों की ईजाद किये हुए है और हम इस्तेमाल कर ही रहे हैं और फिर यूनीकोड एक टूल है कोई भाषा नहीं है. अब रहा सवाल कि जो लोग केवल कृति देव में टाइप करते हैं वह कैसे ब्लोगिन्ग करें, तो सीधा सा जवाब है कि वर्ड में लिखकर उसे पिक्चर में पेस्ट कर उसे जे पी जी फ़ाइल में स्केन कर उसे ब्लोग पर लायें. हाँ उसका शीर्षक और शुरू की चार लाइनें यूनीकोड में टाइप करें ताकि उससे अंतर्जाल पर देखा जा सके और चौपाल वालों को भी समस्या न आये. वर्डप्रैस में मैने यह प्रयोग किया है और वह सफल भी रहे हैं और इसी कारण सादा हिंदी फॉण्ट के परिवर्तित टूल में में दिलचस्पी कम ही रह गयी है-ब्लागस्पाट के ब्लोग पर साइज बड़ा रखना पड़ता है और इस कारण मेहनत बहुत हो जाती है. हो सकता है कि कंप्यूटर का ज्ञान कम होने से मुझे ढंग से स्केन न करना आता हो.

मैं लगातार चिट्ठा चर्चा देखता हूँ और एसा लगता है कि अभी भी रेमिंगटन के कीबोर्ड पर टाइप करने वाले लोग बहुत हैं जबकि मैने बहुत समय से गोदरेज के कीबोर्ड को ही प्रचलन में देखा है. इन सबके बावजूद मैं मानता हूँ कि हमें यूनीकोड का इस्तेमाल करते हुए ही आगे बढ़ना चाहिए क्यों कि हमारे पास जो भी साधन हैं प्रयाप्त हैं . अभी गूगल का ट्रांसलेटर टूल मुझे बहुत अच्छा लगा-इस टूल की जानकारी मेरे एक एसे ब्लोगर मित्र ने दीं जिसकी कोई सलाह मेरे काम नहीं आयी. इस टूल के लिए मैं उसका आभारी हूँ . जिस तरह गूगल के हिंदी टूलों की किस्म देखी है उससे तो यही लगता है कि सादा हिंदी फॉण्ट को अंतर्जाल पर लाने वाला कोई फॉण्ट उनके पास कभी न कभी जरूर आयेगा. फिलहाल तो मैं स्वयं ही गूगल के ब्लोग के टूल पर निर्भर था पर यह नया टूल मुझे बहुत अच्छा लगा. मैने कई टूल देखें और उन्हें लोड करने का प्रयास किया पर कोई काम नहीं आया. इस चक्कर में दो बार कंप्यूटर ख़राब हो गया. इसलिये मैने तय किया है कि अब इसी टूल से काम चलाऊंगा. अपने साथियों के साथ अपने पाठकों को भी मेरी सलाह है अभी यूनीकोड टूल या स्कैन कर काम चलाएँ. मैं खुद कृति देव और देव में लिखने का आदी हूँ पर फिर भी बेधड़क इस यूनीकोड में लिख रहा हूँ और हो सकता है कि सादा हिंदी फॉण्ट को यूनीकोड में परिवर्तित करने वाला टूल आ जाये तब भी मैं इसे अपनाए रहूँ. आखरी बात यह ब्लोग (जिसे मैं अपनी पत्रिका कहता हूँ) भी अपने मन को खुश रखने का तरीका है. बस एक ही बात मेरे समझ में नहीं आती कि जब मैं कृति देव में लिखने वाला आदमी यूनीकोड में लिख सकता हूँ तो मेरे जैसे अन्य लोग इतने व्याकुल क्यों हैं और अपने रचना कर्म में और जोश खरोश से जुट जाते?

जब हिंदी के सादे फॉण्ट को यूनीकोड में परिवर्तन के लिए कोई वैज्ञानिक और प्रमाणित टूल आ जाये तभी सादा हिंदी फॉण्ट में रचना लिखकर पोस्ट करने का मन हो सकता है. मेरे विचार से अभी एसा कोई टूल अभी दिख नहीं रहा.

कौटिल्य अर्थशास्त्र:दुष्ट के साथ संधि न करें


  • 1. दूर्भिक्ष और आपत्तिग्रस्त स्वयं ही नष्ट होता है और सेना का व्यसन को प्राप्त हुआ राज प्रमुख युद्ध की शक्ति नहीं रखता।
    2. विदेश में स्थित राज प्रमुख छोटे शत्रु से भी परास्त हो जाता है। थोड़े जल में स्थित ग्राह हाथी को खींचकर चला जाता है।
    3. बहुत शत्रुओं से भयभीत हुआ राजा गिद्धों के मध्य में कबूतर के समान जिस मार्ग में गमन करता है, उसी में वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।
    4.सत्य धर्म से रहित व्यक्ति के साथ कभी संधि न करें। दुष्ट व्यक्ति संधि करने पर भी अपनी प्रवृति के कारण हमला करता ही है।
    5.डरपोक युद्ध के त्याग से स्वयं ही नष्ट होता है। वीर पुरुष भी कायर पुरुषों के साथ हौं तो संग्राम मैं वह भी उनके समान हो जाता है।अत: वीर पुरुषों को कायरों की संगत नहीं करना चाहिऐ।
    6.धर्मात्मा राजप्रमुख पर आपत्ति आने पर सभी उसके लिए युद्ध करते हैं। जिसे प्रजा प्यार करती है वह राजप्रमुख बहुत मुश्किल से परास्त होता है।
    7.संधि कर भी बुद्धिमान किसी का विश्वास न करे। ‘मैं वैर नहीं करूंगा’ यह कहकर भी इंद्र ने वृत्रासुर को मार डाला।
    8.समय आने पर पराक्रम प्रकट करने वाले तथा नम्र होने वाले बलवान पुरुष की संपत्ति कभी नहीं जाती। जैसे ढलान के ओर बहने वाली नदियां कभी नीचे जाना नहीं छोडती।
  • हिंदी भाषा की आत्मा है देवनागरी लिपि


    कुछ लोगों ने अगर यह तय कर लिया है कि वह हिंदी सहित देश की अन्य भाषाओं को रोमन में लिपि में लिखेंगे तो उसकी वजह उनका भाषा प्रेम तो हो ही नहीं सकता-भले ही वह उसका दावा करते हौं। भारत की अधिकांश भाषाओं की लिपि देवनागरी है और आम आदमी उसमें सहजता पूर्वक अध्ययन और लिखने का काम करता है। पर कुछ लोगों को अपने विद्वान होने का प्रदर्शन करने के लिए देवनागरी लिपि पर आपत्ति करना अच्छा लगता है और वह कर रहे हैं। मुझे इसकी संभावना चार वर्ष पूर्व ही लग गयी थी जब यह लगने लगा कि भारत विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा है।

    एक समय था कि लोग कहते थे कि हिंदी में पढने-लिखने का कोई मतलब नहीं है क्यों कि उससे रोजगार नहीं मिल सकता। सबने विदेशों में जाकर रोजगार पाने के ख़्वाब संजोते हुए अंग्रेजी की तरफ दौड़ लगाई। तब हिंदी के एक सिरे से खारिज करने वालों को उसकी लिपि में दोष देखने का समय ही कहॉ था क्यों कि हिंदी गरीबों की भाषा थी। मैं जानता हूँ कि भाषा का जितना संबंध भाव से है उतना ही रोजी-रोटी से भी है। उस समय भी मुझे यह नहीं लगता था कि हिंदी भाषा या देवनागरी लिपि कोई अवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है और न आज लगता है। यह दुनियां कि इकलौती ऎसी भाषा है जो जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। जब विश्व में भारत एक आर्थिक महाशक्ति बनने के तरफ अग्रसर है और उसके गरीब भी अब थोडा-बहुत पैसा रखने लगे हैं तब उसकी भाषा पर कब्जे की होड़ तो लगनी ही थी और जो लोग इसकी लिपि रोमन में देखना चाहते हैं उनके दो ही उद्देश्य हो सकते हैं ऐक तो उनको लगता है कि इससे उनको अच्छा व्यवसाय मिलने वाला है या फिर उनके मन में और हिंदी लेखकों को लिखते देखकर यह कुंठा हो रही है और वह सोचते हैं कि एक बार रोमन लिपि का मुद्दा उठा कर लोकप्रियता हासिल कर लें और फिर अपनी दूकान चाहे जिसमें चलाएँ।

    मैं उनको रोकना नहीं चाहता पर इतना जरूर का सकता हूँ कि हिंदी को रोमन लिपि में पढने वालों की संख्या है पर ज्यादा नहीं है-कुछ ब्लोग लेखकों अगर यह लगता है कि उनके ब्लोग रोमन लिपि में पढते हैं तो दूर कर लें। खासतौर से इस संबंध में विदेशी लोगों का हवाला दिया जाता है-पर वहाँ ऐसे बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें हिंदी देवनागरी लिपि में पढ़ना नहीं आता होगा और वह इसमें दिलचस्पी लेते होंगे। उनकी मानसिकता में ही हिंदी होगी इसमें भी शक है। रोमन में हिंदी पढ़ना अपने आप में बिचारगी की स्थिति है। अभी मैने अपना चिट्ठा एक जगह रोमन लिपि में देखा था और मैं यह सोचकर खुश हुआ कि चलो जो इसे रोमन में पढने की चाहत रखने वाले भी पढ़ सकेंगे-क्यों कि उस पर मेरी कोई मेहनत नहीं थी और अगर कोई ऐक दो लोग पढ़ लेते हैं तो बुराई क्या है, पर मैं वहां से ज्यादा पाठक मिलने की आशा नहीं कर सकता।

    ऐसा नहीं है कि रोमन लिपि में हिंदी पढने वाले नहीं मिल सकेंगे क्यों कि हमारे पडोसी देशों में फिल्मों की वजह से हिंदी समझने वालों की संख्या बहुत है और उनमें कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिंदी में लिखे को पढने में दिलचस्पी लें और इसमें खास तौर से पाकिस्तान और बंगलादेश के लोग हो सकते हैं, उसी तरह क्षेत्रीय भाषाओं के भी उनके सीमावर्ती देशों के लोगों को रोमन लिपि में पढ़ना अच्छ लग सकता है। पर अगर हम इसी मद्दे नजर अपने देश के पाठकों को नजर अंदाज करेंगे तो गलती करेंगे। हम यह मानकर भी गलती कर रहे हैं कि देश का पाठक तो केवल चौपालों पर ही आकर पढता है और बाहर जो पढ़ रहे हैं वह सब विदेशों के रहने वाले भारतीय है। इन चौपालों के बारे में देश के लोग बहुत कम जानते है और कंप्यूटर में इन्टरनेट पह हिंदी पढने वाले अपने रास्ते से हिंदी का लिखा पढते हैं। जिन्हें हिंदी में लिखने का मोह है और वह देव नागरी लिपि का ज्ञान नहीं रखते या असुविधा महसूस करते हैं उनके लिए रोमन लिखना स्वीकार्य हो सकता है पर वह कोई बड़ा तीर मार लेंगे यह गलत फ़हमी उन्हें नहीं पालना चाहिए, क्यों कि अंतत: हिंदी की लिपि देवनागरी है और वही आम पाठक तक आपको पहुंचा सकती है, एक बात और कि विदेशों में हिंदी का आकर्षण वहाँ की भारतीयों की वजह से कम इस देश की अर्थव्यवस्था के कारण है। इसलिये रोमन लिपि वाले अगर अपने लिखे से पैसा कमाने की ताक़त रखते हैं तो ख़ूब लिखें पर देश की भाषाओं का उद्धार करने की बात न ही करें तो अच्छा है। उसी तरह ब्लोगर भी यह भूल जाये कि उनको रोमन लिपि से कोई आर्थिक या सामाजिक लाभ होने वाला है। हिंदी को जो भी उर्जा मिलेगी वह इस देश के पाठक से ही मिलेगी-और यह नहीं भूलना चाहिए की हिंदी भाषा की आत्मा देवनागरी लिपि ही है।

    पहले इसी ब्लोग पर प्रकाशित कविता
    अभी लिखा क्या है कि लिपि पर झगडने लगे
    ————————————————

    स्कूल से घर लौटे बच्चे आपस में
    रोमन और देवनागरी लिपि को
    लेकर लड़ने लगे
    ‘मैं तो रोमन में हिंदी लिखूंगा
    तुझे देवनागरी में लिखना है लिख
    दूसरा कहता है
    ‘मैं तो हिंदी में ही हिंदी जैसा दिखूंगा
    तुझे अंग्रेजी जैसा दिखना है तो दिख’
    माँ हैरान है और पूछती है
    ‘बेटा अभी तो शब्द ज्ञान आया है
    लिखोगे तुम तो पढेगा कौन
    तुम चिल्ला रहे हो
    कौन सुने और कौन पढे
    शब्द तो तभी पढा और सुना जाता है
    जब आदमी होता है मौन
    तुम क्या लिखोगे और क्या पढोगे
    प्रेमचंद, निराला, प्रसाद और कबीर को
    नहीं पढा लडाई झगडा करते हुए
    अपनी ज़िन्दगी गुजारोगे
    अभी तो बोलना शुरू किया है
    अब तक लिखा क्या है जो
    लिपि को लेकर लड़ने लगे हो
    हिंदी का जो होना है सो हॊगा
    पहले पढ़ना सीखो और फिर सोचो
    लोगों चाव से पढ़ें एसा नहीं लिखा तो
    तुम्हारा नाम भी अनाम होगा
    यह अभी से ही लग रहा है दिख
    जब यूनिकोड है तो काहेका झगडा
    रोमन में लिख देवनागरी में पढ
    रोमन में भी पढ देवनागरी में लिख’

    ——————————

    संत कबीर वाणी:जहां गुणों की कद्र न हो वहां न जायें


    कबीर क्षुधा कूकरी, करत भजन में भंग
    वाकूं टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग

    संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि भूख कुतिया के समान है। इसके होते हुए भजन साधना में विध्न-बाधा होती है। अत: इसे शांत करने के लिक समय पर रोटी का टुकडा दे दो फिर संतोष और शांति के साथ ईश्वर की भक्ति और स्मरण कर सकते हो ।

    जहाँ न जाको गुन लहै , तहां न ताको ठांव
    धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गाँव

    इसका आशय यह है कि जहाँ पर जिसकी योग्यता या गुण का प्रयोग नहीं होता, वहाँ उसका रहना बेकार है। धोबी वहां रहकर क्या करेगा जहां ऐसे लोग रहते हैं जिनके पास पहनने को कपडे नहीं हैं या वह पहनते नहीं है। अत: अपनी संगति और स्वभाव के अनुकूल वातावरण में रहना चाहिए। भावार्थ यह है कि जहां गुण की कद्र न हो वहां नहीं जायें.

    डाक्टर और अस्पताल की छाया-हास्य कविता


    एक आदमी ने सुबह-सुबह
    दौड़ लगाने का कार्यक्रम बनाया
    और अगले दिन ही घर से बाहर आया
    उसने अपने घर से ही
    दौड़ लगाना शुरू की
    आसपास के लड़के बडे हैरान हुए
    वह भी उसके पीछे भागे
    और भागने का कारण पूछा
    तो वह बोला
    ‘मैने कल टीवी पर सुना
    मोटापा बहुत खतरनाक है
    कई बिमारियों का बाप है
    आजकल अस्पताल और डाक्टरों के हाल
    देखकर डर लगता है
    जाओ इलाज कराने और
    लाश बनकर लौटो
    इसलिये मैने दौड़ने का मन बनाया’

    लड़कों ने हैरान होकर पूछा
    ‘पर आप इस उम्र में दौडैंगे कैसे
    आपकी हालत देखकर हमें डर समाया’
    उसने जवाब दिया
    ‘जब मेरी उम्र पर आओगे तो सब समझ जाओगे
    लोग भगवान् का ध्यान करते हुए
    योग साधना करते हैं
    मैं यही ध्यान कर दौड़ता हूँ कि
    जैसे कोई मुझे डाक्टर पकड़ने आया
    अपनी स्पीड बढाता हूँ ताकि
    उसकी न पडे मुझ पर छाया

    रहीम के दोहे:मेंढक टर्राये,कोयल होती मौन



    पावस देखि रहीम मन, कोइल साथै मौन
    अब दादुर बकता भए, हमको पूछत कौन

    कविवर रहीम कहते हैं कि जब वर्षा ऋतू आती है तो कोयल मौन धारण कर लेती है, यह सोचकर कि अब तो मेंढक टर्राने लगे हैं तो उनकी कौन सुनेगा।
    अगर हम इसका भाव इस रूप में लेते हैं जम समाज में धन का प्रवाह सहृदय कलाकारों, रसिक हृदय कवियों kee ओर होने लगता है तब अनेक कलाकार और कवि मैदान में आ जाते हैं और मेंढकों की तरह टराने लगते हैं और उनको देखकर श्रेष्ठ और विद्वान, कलाकरौर कवि चुपचाप अपने को समेटकर अपने घर बैठ जाते हैं।

    रहिमन प्रीति सराही, मिली होत रंग दून
    ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी दून

    उसी प्रेम के प्रशंसा करना चाहिए जिसमें दोनों प्रेमियों का प्रेम मिलकर दुगुना हो जाता है, जैसे जल्दी पीली होती है और चूना सफ़ेद, परंतु दोनों मिलकर एक नया लाल रंग बना देता है। हल्दी अपने पीले रंग को और चूना अपने सफ़ेद रंग को छोड देता है।
    इसका आशय यह है कि प्रेम करने वालों को अपना पहले का रूप त्याग देना चाहिऐ और एक नए रूप में आना चाहिऐ।

    अभी लिखा क्या है जो लिपि पर झगड़ने लगे-हास्य कविता


    स्कूल से घर लौटे बच्चे आपस में
    रोमन और देवनागरी लिपि को
    लेकर लड़ने लगे
    ‘मैं तो रोमन में हिंदी लिखूंगा
    तुझे देवनागरी में लिखना है लिख
    दूसरा कहता है
    ‘मैं तो हिंदी में ही हिंदी जैसा दिखूंगा
    तुझे अंग्रेजी जैसा दिखना है तो दिख’
    माँ हैरान है और पूछती है
    ‘बेटा अभी तो शब्द ज्ञान आया है
    लिखोगे तुम तो पढेगा कौन
    तुम चिल्ला रहे हो
    कौन सुने और कौन पढे
    शब्द तो तभी पढा और सुना जाता है
    जब आदमी होता है मौन
    तुम क्या लिखोगे और क्या पढोगे
    प्रेमचंद, निराला, प्रसाद और कबीर को
    नहीं पढा लडाई झगडा करते हुए
    अपनी ज़िन्दगी गुजारोगे
    अभी तो बोलना शुरू किया है
    अब तक लिखा क्या है जो
    लिपि को लेकर लड़ने लगे हो
    हिंदी का जो होना है सो हॊगा
    पहले पढ़ना सीखो और फिर सोचो
    लोगों चाव से पढ़ें एसा नहीं लिखा तो
    तुम्हारा नाम भी अनाम होगा
    यह अभी से ही लग रहा है दिख
    जब यूनिकोड है तो काहेका झगडा
    रोमन में लिख देवनागरी में पढ
    रोमन में भी पढ देवनागरी में लिख’

    सदैव हंसते रहो


    blogvani
    चिट्ठाजगतHindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

    मनुष्य के मुख पर मुसकान सौभाग्य का चिह्न है। हंसना मनुष्य की स्वाभाविक क्रिया है। विधाता के सृष्टि का कोइ दूसरा प्राणी हंसता हुआ नहीं दिखता। प्रसिद्ध चिंत्तक वायर ने ठीक लिखा है-‘जब भी संभव हो हंसो, यह ऐक सस्ती दवा है, हंसना मानव-जीवन का ऐक उज्जवल पहलू है।’

    पाश्चात्य तत्ववेत्ता स्टर्नने तो यहाँ तक कहा है कि-‘मुझे विश्वास है हर बार जब कोई व्यक्ति हंसता या मुसकराता है वह उसके साथ ही अपने जीवन में वृद्धि करता है।’

    स्वेट मार्डन प्रसन्नता को धन मानते हुए कहते हैं-‘ऐक ऐसा धन है, जिसे सब लोग इकट्ठा कर सकते हैं, वह धन है प्रसन्नता का धन। तुम पर कितनी ही मुसीबतें रहें, तुम कितने कठिनाईयों मैं हो, तुम्हारे सामने अन्धकार ही क्यों न हो, यदि तुम प्रसन्नता को अपनाए रहो तो तुम धनी हो। यह प्रसन्नता तुम्हारे जीवन को उच्च बनाएगी।’

    प्रसिद्ध विचारक कार्नेगी का कथन है-‘मुसकराहट थके हुए व्यक्ति के लिए विश्राम है, हतोत्साहित के लिए दिन का प्रकाश, सर्दी में ठिठुरते के लिए धुप है और कष्ट के लिए प्रकृति का सर्वोत्तम प्रतिकार है।’

    जबकि होमर के शब्दों में-‘मुस्कान प्रेम की भाषा है।’

    विलियम शेक्सपियर के कथानुसार-‘मुसकान के बल पर जो तुम चाहो पा सकते हो। तलवार से इच्छित वस्तु नष्ट हो जाती है।’
    प्रसन्नता वास्तव में चन्दन के समान है, उसे दुसरे के मस्तक पर लगाईये, उंगलिया अपने-आप ही सुगन्धित हो जायेंगी। जीन पोल प्रसन्नता को वसंत की तरह हृदय की सबा कलियाँ खिला देने वाली मानते हैं। तभी तो गेट ने प्रसन्नता हो सभी सदगुणों की माँ कहा है।

    इसलिये जीवन में सदैव हंसने और प्रसन्न रहने का प्रयास करो, और ऐसे लोगों से संपर्क मत रखो जो तुम्हें दुःख या अप्रसन्नता देकर तुम्हारी हंसी छीनने का प्रयास करते हैं।

    धोनी की कप्तानी का अब परीक्षण होगा


    blogvani
    चिट्ठाजगतHindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा

    आस्ट्रेलिया की टीम  भारत दौरे पर आ गयी है और कल उसके साथ भारतीय टीम अपना  पहला एक दिवसीय मैच  खेलने  वाली है। बीस  ओवरीय विश्व कप में अपनी टीम  की जीत से हर्षित भारतीय दर्शकों की एक बार फ़िर क्रिकेट में रुचि जागी है पर उनको इन मैचों में वैसा खेल नहीं देखने को मिलेगा जैसा कि वह अपेक्षा कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि इसके नियम वैसे ही जैसे कि पहले थे। बीस ओवरों में नियम कुछ्ह अलग  है और जिसमें बल्लेबाजों को ज्यादा लाभ होता है और वह तेजी से बल्लेबाजी कर   रन बनाते हुए दर्शकों का मनोरंजन कर  सकते हैं जबकि एक दिवसीय  और  पांच दिवसीय टेस्ट मैचों के नियम गेंदबाज और बल्लेबाज दोनों के लिये समान रूप से  लाभदायक हैं।

                             अगर हम एक दिवसीय मैचों की दृष्टि से देखें तो भारतीय टीम की स्थिति उतनी ही दयनीय है जिस तरह पहले थी और विश्व की वरीयता सूची में उसका नबंर चर्चा लायक भी नहीं है। इसके अलावा पुराने खिलाडियों की वापसी भी कोई टीम के मनोबल बढने में सहायक सिद्ध नहीं होने वाली। जो दर्शक इन मैचों में बीस ओवरों वाले दृश्य देखने चाहेंगे उनको निराशा ही हाथ लगेगी। हालंकि एक दिवसीय मैचों के खेल में दक्षता के साथ रणनीतिक कौशल की भी आवश्यकता भी होती है और इस मामले भी भारतीय टीम बहुत् कमजोर है और कभी यह नहीं लगा कि उसका कप्तान कभी कोई रणनीति बनाकर   मैदान में उतरता है। अब धोनी को  नया कप्तान बनाया गया है और यह श्रंखला उसके लिये यह वास्तविक परीक्षा का समय है। उसके सामने सबसे बडी समस्या यह आने वाली है कि अब उसके साथ वह वरिष्ठ खिलाडी भी हैं जिन पर टीम में वैमनस्य की भावना उत्पंन करने की आरोप लगे हैं। एक संदेह यह भी है कि अपने से जूनियर खिलाडी जो अब उनका कप्तान भी है उसके लिये वह वैसा खेलेंगे भी के नहीं जैसा वह चाह्ता है।

                  वैसे तो इन खिलाडियों को टीम में शामिल  करने पर भी लोग सवाल उठा रहे हैं पर भारतीय टीम के चयन में कई बातें एसी होतीं हैं जिसकी वजह से समझोते किये जाते हैं। अगर किसी को यह पता होता कि बीस ओवर में भारतीय टीम जीत भी सकती है तो यकीन मानिये इन वरिष्ठ खिलाडियों को वहां भी ले जाया जाता। यदि भारतीय दर्शकों की रती भर भी दिल्चस्पी उस प्रतियोगिता में होती तो भी इन खिलाडियो को वहां झेलना पडता। इस प्रतियोगिता को भारतीय मीडिया ने भी अधिक महत्व नहीं दिया था वर्ना वह पहले ही इन खिलाडियों का टीम में शामिल करने के लिये दबाव बना देता। विश्व कप में विजय के बाद भारत पहुंचने पर ही धोनी और उसके साथियों को पता लगा कि वह कोई भारी सफ़लता प्राप्त कर लौटे है-यह बात धोनी ने खुद कही है। धोनी इस मामले में किस्मत के घनी रहे कि उनको इन खिलाडियों का सानिध्य   वहां नहीं मिला वरना वह भी असफ़ल कप्तानों की सूची में शामिल होते। इसमें कोई शक नहीं यह सब सीनियर महान हैं पर देश को विश्व विजयी बनाने कि उनमें कुब्बत  नहीं है और इनको ऐक नहीं पांच-पांच अवसर दिये जा चुके हैं। अब धौनी को ऐसी  हालतों से जूझना होगा जिसकी कल्पना भी उनहोने पहले नहीं की होगी। अगर वह इन वरिष्ठ खिलाडियों को साध पाये तो ही वह आगे भी सफ़लता का दौर जारी रख सकते हैं।

            अगर भारतीय टीम इस श्रंखला में अच्छा प्रदर्शन करती है तो भी उसकी विश्व वरीयता में थोडा सुधार हो सकता है इससे अधिक आकर्षण इसमे और अधिक नहीं है। हां नये  कप्तान और विश्व कप जीतने के तत्काल  बाद हो रही इस श्रंखला में लोग पहले से अधिक दिलचस्पी लेंगे इसमें कोई संदेह नहीं है। बीस ओवरीय  विश्व कप प्रतियोगिता में धोनी के लिये कप्तान की रूप में करने के लिये ज्यादा के लिये कुछ था भी नहीं पर यहां एक कप्तान के रूप में अपनी क्षमता का परिचय देना होगा।
     

    मनु स्मृति: भोजन प्रसन्नता से ग्रहण करें


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    1. मनुष्य हो या पशु पानी सभी की मूलभूत आवश्यकता होती है। जिस प्रकार पानी के अभाव में प्राणी व्याकुल हो जाते हैं यहां तक कि उनके प्राण भी निकल जाते हैं, उसी प्रकार पानी न मिलने से वृक्ष भी भारी कष्ट का अनुभव करते हैं। पानी की कमी से वृक्षों-वनस्पतियों का सूखना तो ऊपर से दिखाई देता है लेकिन उनका कष्ट प्राणी को ऊपर से दिखाई नहीं देता।
    2. मनुष्य को जैसा भोजन प्राप्त हो उसे देखकर प्रसन्नता का अनुभव करना चाहिऐ। प्राप्त भोजन में गुण-दोष निकाले बिना उसे ईश्वर का प्रसाद समझ कर प्रसन्नता से ग्रहण करें, जूठन न छोड़ें। यह अन्न सदैव मुझे प्राप्त हो यह भावना रखने चाहिए।
    3. प्रसन्नता से ग्रहण किया भोजन बल-वीर्य की वृद्धि करता है, जबकि निंदा और निराशा से किया भोजन सामर्थ्य और वीर्य को नष्ट करता है।
    4. भूख से बैचैन होने पर भी विवेकशील व्यक्ति प्रतिग्रह को धर्म और न्याय के विरुद्ध जानकर तथा प्रतिग्रह से मिलने वाली वस्तुओं के लाभ का ज्ञान होते हुए भी उसे ग्रहण नहीं करते।