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ख्यालों का दरिया-हिन्दी कविता


खत अब हम कहाँ लिखते हैं,
जज़्बातों को फोन पर
बस यूं ही फेंकते दिखते हैं।
कहें दीपक बापू
बोलने में बह गया
ख्यालों का दरिया
खाली खोपड़ी में
लफ्जों का पड़ गया है अकाल
आवाज़ों में टूटे बोल जोड़ते दिखते हैं।
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इस जहां में
लोगों से क्या बात करें
पहले अपनी रूह की तो सुन लें।

कहें दीपक बापू
बात का बतंगड़ बन जाता है
मज़े की महफिलों में
दूसरों की बातें सुनकर
हैरान या परेशान हों
बेहतर हैं लुत्फ उठाएँ
अपने दिल के अंदर ही
जिन्हें खुद सुन सकें
उन लफ्जों का जाल बुन लें।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
poet, Editor and writer-Deepak  ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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हादसों का प्रचार -त्रिपदम (hindi tripadam)


बड़े हादसे
प्रचार पा जाते हैं
बिना दाम के।

चमकते हैं
नकलची सितारे
बिना काम के।

कायरता में
ढूंढ रहे सुरक्षा
योद्धा काम के।

असलियत
छिपाते वार करें
छद्म नाम से।

भ्रष्टाचार
सम्मान पाता है
सीना तान के।

झूठी माया से
नकली मुद्रा भारी
खड़ी शान से ।

चाटुकारिता
सजती है गद्य में
तामझाम से।

असमंजित
पूरा ही समाज है
बिना ज्ञान के।

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चलने का अपना अपना अंदाज-व्यंग्य कविता


रीढ़हीन हो तो भी चलेगा।
चरित्र कैसा हो भी
पर चित्र में चमकदार दिखाई दे
ऐसा चेहरा ही नायक की तरह ढलेगा।

शब्द ज्ञान की उपाधि होते हुए भी
नहीं जानता हो दिमाग से सोचना
तब भी वह जमाने के लिये
लड़ता हुआ नायक बनेगा।
कोई और लिखेगा संवाद
बस वह जुबान से बोलेगा
तुतलाता हो तो भी कोई बात नहीं
कोई दूसरा उसकी आवाज भरेगा।

बाजार के सौदागर खेलते हैं
दौलत के सहारे
चंद सिक्के खर्च कर
नायक और खलनायक खरीद
रोज नाटक सजा लेते हैं
खुली आंख से देखते है लोग
पर अक्ल पर पड़ जाता है
उनकी अदाओं से ऐसा पर्दा पड़ जाता
कि ख्वाब को भी सच समझ पचा लेते हैं
धरती पर देखें तो
सौदागर नकली मोती के लिये लपका देते हैं
आकाश की तरफ नजर डालें
तो कोई फरिश्ता टपका देते हैं
अपनी नजरों की दायरे में कैद
इंसान सोच देखने बाहर नहीं आता
बाजार में इसलिये लुट जाता
ख्वाबों का सच
ख्यालों की हकीकत
और फकीरों की नसीहत के सहारे
जो नजरों के आगे भी देखता है
वही इंसान से ग्राहक होने से बचेगा।

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बादशाह बनने की चाहत-हिंदी शायरी
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हीरे जवाहरात और रत्नों से सजा सिंहासन
और संगमरमर का महल देखकर
बादशाह बनने की चाहत मन में चली ही आती है।
पर जमीन पर बिछी चटाई का आसन
कोई क्या कम होता है
जिस पर बैठकर चैन की बंसी
बजाई जाती है।

देखने का अपना नजरिया है

पसीने में नहाकर भी मजे लेते रहते कुछ लोग
वह बैचेनी की कैद में टहलते हैं
जिनको मिला है राज
संतोष सबसे बड़ा धन है
यह बात किसी किसी को समझ में आती है।
लोहे, पत्थर और रंगीन कागज की मुद्रा में
अपने अरमान ढूंढने निकले आदमी को
उसकी ख्वाहिश ही बेचैन बनाती है।

…………………

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तस्वीरों और शब्दों में दिखाते घाव-हिंदी शायरी


वह दिखाते अपनी तस्वीरों और शब्दों में लोगों के घाव।
प्रचार में चलता है इसलिये हमेशा चलता है उनका दाव।।
अपने दर्द से छिपते हैं दुनियां के सभी लोग
दूसरे के आंसू के दरिया में चलाते दिल की नाव।।
जज्बातों के सौदागर इसलिये कोई दवा नहीं बेचते
दर्द चाहे जब जितना खरीदो, एक किलो या पाव।।

…………………………..
जिसके लिये प्रेम होता दिल में पैदा
उसके पास जाने की
इच्छा मन में बढ़ जाती है
आंखें देखती हैं पर
बुद्धि अंधेरे में फंस जाती है
कुंद पड़ा दिमाग नहीं देख पाता सच
कहते हैं दूर के ढोल सुहावने
पर दूरी होने पर ही
किसी इंसान की असलियत समझ में आती है
इसलिये फासले पर रखो अपना विश्वास
किसी से टकराने पर
हादसों से जिंदगी घिर जाती है

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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

हिन्दी, हिन्दू और हिंदुत्व:नए सन्दर्भों में चर्चा (१)


हिन्दी,हिन्दू और हिंदुत्व शब्दों में जो आकर्षण है उसका कारण कोई उनकी कानों को सुनाई देने वाली ध्वनि नहीं बल्कि वह भाव जो उनके साथ जुड़ा है। यह भाव हिन्दी भाषा के अध्यात्मिक, हिन्दू व्यक्ति के ज्ञानी,और हिंदुत्व के दृढ़ आचरण होने से उत्पन्न होता है। हिन्दी भाषा के विकास, हिन्दू के उद्धार और हिंदुत्व के प्रचार का कीर्तन सुनते हुए बरसों हो गये और इनका प्रभाव बढ़ता भी जा रहा है पर यह उन व्यवसायिक कीर्तनकारों की वजह से नहीं बल्कि हिन्दी भाषा,हिन्दू व्यक्तित्व और हिंदुत्व के आचरण की प्रमाणिकता की वजह से है।

स्वतंत्रता के तत्काल बाद अंग्रेजों के जाते ही उनके द्वारा ही निर्मित शिक्षा पद्धति से शिक्षित महानुभावों को इस देश के लोगों को वैसे ही भेड़ की तरह भीड़ में शामिल करने का भूत सवार हुआ जैसे अंग्रेज करते थे। बस! जिसको जैसा विचार मिला वही उसके नाम पर पत्थर लगाता गया। बाद में उनकी आगे की पीढियों ने उन्हीं पत्थरों को पुजवाते हुए इस समाज पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पत्थरों से आगे कुछ नहीं हो सकता था। वहां से कोई नए विचार की धारा प्रवाहित होकर नहीं आ सकती थी। नारे और वाद हमेशा लोगों को आकर्षित करने के लिए बनाए जाते हैं। उनमें कोई गहरा विचार या चिंत्तन ढूँढना अपने आप को धोखा देना है। फिर अंग्रेजों द्वारा ही बनायी गयी आदमी को गुलाम बनाने वाली शिक्षा से पढ़े हुए सभी लोगों से यह आशा भी नहीं की जा सकती कि वह अपने अन्दर कोई स्वतन्त्र विचार कर सकें। फिर भी जिन लोगों ने इस शिक्षा पद्धति को अक्षरज्ञान मानते हुए अपने प्राचीन धार्मिक तथा साहित्यक पुस्तकों को भक्ति और ज्ञान की दृष्टि से पढा वह ज्ञानी बने पर उन्होंने उसका व्यापार नहीं किया इसलिए लोगों तक उनकी बात पहुंची नहीं।
कुछ लोग तेजतर्रार थे उन्होंने इस ज्ञान को तोते की तरह रट कर उसे बेचना शुरू कर दिया। वह न तो अर्थ समझे न उनमें वह भाव आया पर चूंकि उन्होंने हिन्दी,हिन्दू और हिंदुत्व को उद्धार और प्रचार को अपना व्यवसाय बनाया तो फिर ऐसी सजावट भी की जिससे भक्त उनके यहाँ ग्राहक बन कर आये। यह हुआ भी! प्रकाशन और संचार माध्यमों में इन व्यापारियों की पकड़ हैं इसलिए वह भी इनके साथ हो जाते हैं। नित नयी परिभाषाएं और शब्द गढ़ जाते हैं।

कई किश्तों में समाप्त होने वाले इस आलेख में हिन्दी भाषा,हिन्दू व्यक्ति और हिंदुत्व के रूप में आचरण पर विचार किया जायेगा। इससे पहले यह तय कर लें कि आखिर उनकी संक्षिप्त परिभाषा या स्वरूप क्या है।

हिन्दी भाषा-संस्कृत के बाद विश्व की एकमात्र ऐसी भाषा है जो आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण है। दिलचस्प बात यह है कि यह एकमात्र ऐसी भाषा है जो आध्यात्म ज्ञान धारण करने में सहज भाव का अनुभव करा सकती है। भले ही संस्कृत से ज्ञान से किसी अन्य भाषा में अनुवाद कर उसे प्रस्तुत किया जाये पर वह प्रभावी नहीं हो सकता जब तक उसे हिन्दी में न पढा जाए। इसलिए जिन लोगों को अध्यात्म ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत करना है उनको यह भाषा पढ़नी ही होगी। इसमें जो भाव है वह सहज है और अध्यात्मिक ज्ञान के लिए वह आवश्यक है। जिस तरह विश्व में भौतिकता का प्रभाव बढा है वैसे ही लोगों में मानसिक संताप भी है। वह उससे बचने के लिए अध्यात्म में अपनी शांति ढूंढ रहे है और इसलिए धीरे धीरे हिन्दी का प्रचार स्वत: बढेगा। अंतर्जाल पर भी पूंजीपति प्रभावी हैं पर इसके बावजूद यहाँ स्वतंत्र लेखन की धारा बहती रहेगी। इसलिए स्वतन्त्र सोच वाले उस ज्ञान के साथ आगे बढ़ेंगे जो ज्ञान और कल्याण का व्यापार करने वालों की पास ही नहीं है तो दूसरे को बेचेंगे क्या? अत: कालांतर में अंतर्जाल पर हिन्दी अपने श्रेष्ठतम रूप में आगे आयेगी। हिंदी भाषा के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि यह किसी एक धर्म, प्रदेश या देश की भाषा नहीं है। इसका प्रचार पूरे विश्व में स्वत: हो रहा है। भारत में तो हर धर्म और प्रांत का आदमी इसे अपना चुका है।

हिन्दू व्यक्ति-मानसिक,आध्यात्मिक और आचरण की दृष्टि से परिपूर्ण,दूसरे पर निष्प्रयोजन दया करने वाला,भगवान की निष्काम भक्ति में तल्लीन,विज्ञान के नित नए रूपों में जीवन की सहजता को अनुभव करते हुए उसके साथ जुड़ा हुआ, अपने मन, बुद्धि और विचारों की विकारों को योगासन और ध्यान द्वारा प्रतिदिन बाहर विसर्जित करने में सक्षम,समय समय पर वातावरण और पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ हवन में संलिप्त, त्याग में ही प्रसन्न रहने वाला, लालच और लोभ रहित,तत्व ज्ञान धारी और हर स्थिति में सभी के प्रति समदर्शिता का भाव रखने वाला व्यक्ति सच्चा हिन्दू है। अहिंसा और ज्ञान हिंदू के ऐसे अस्त्र-शस्त्र हैं जिसस वह अपने विरोधियों को परास्त करता है।

हिंदुत्व-हिन्दू व्यक्ति के रूप में किये गए कार्य ही हिंदुत्व की पहचान होते हैं। हिंदुत्व की सबसे बड़ी पहचान यह है कि विरोधी या शत्रु को हिंसा से नहीं बल्कि बुद्धि और ज्ञान की शक्ति से परास्त किया जाए। इसके लिये उसे हिंसा करने की आव्श्यकता ही नहीं होती बल्कि वह हालातों पर बौद्धिक चातुर्य से विजय पा लेता है। देखिए कितने हमले इस देश पर हुए। इसे लूटा गया। यहाँ तमाम तरह के प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन कराये गए, पर उस ज्ञान को कोई नहीं मिटा पाया जिसके वजह से इस देश को आध्यात्म गुरु कहा जाता है। यही पहचान है हिंदुत्व की शक्ति की। हिंदुत्व का एक अर्थ आध्यात्मिक ज्ञान भी है जो सत्य रूप है। आगे पीछे इसे बढ़ना ही है।

यह कोई अंतिम परिभाषा नहीं। आलेख बढा न हों इसलिए यह तात्कालिक रूप से लिखीं गयीं हैं। आगे हम और भी चर्चा करेंगे। यह जानने का प्रयास करेंगे कि आखिर इसके नाम पर पाखण्ड कैसे बिक रहा है। यह बताने का प्रयास भी करेंगे कि इसे बदनाम करने वाले भी कैसे कैसे स्वांग रचते हैं।ऐसी एक नहीं कई घटनाएँ जब लोगों ने अपने हिसाब से अपने विचार बदले या कहें कि उन्होंने अपने नारे और वाद बदले। कभी धर्म के भले के नाम पर आन्दोलन चलाया तो कभी भाषा की रक्षा का ठेका लिया। कहते हैं अपने को हिंदुत्व का प्रचारक पर उनके आचरण उसके अनुसार बिलकुल नहीं है।
यह आलेख उनकी आलोचना पर नहीं लिखा जा रहा है बल्कि यह बताने के लिये लिखा जा रहा है कि एक हिंदी भाषी हिंदू के रूप में हमारा आचरण ही हिंदुत्व की पहचान होती है और उसे समझ लेना चाहिये। आने वाले समय में कई ऐसी घटनाएँ होनी वाली हैं जिससे सामान्य भक्त को मानसिक कष्ट हो सकता है। इसी कारण उनको अपने अध्यात्म ज्ञान को जाग्रत कर लेना चाहिए। आखिर इसकी आवश्यकता क्यों अनुभव हुई? देखा गया है कि सनातन धर्मी-हिन्दू धर्म-अपने धर्म की प्रशंसा तो करते हैं पर उसके समर्थन में उनके तर्क केवल विश्वास का सम्मान करने के आग्रह तक ही सीमित रहते हैं। उसी तरह जब कोई सनातन धर्म की आलोचना करता है तो लड़ने को दौड़ पड़ते हैं। यह अज्ञानता का परिणाम है।
इसका एक उदाहरण एक अन्य धर्मी चैनल पर देखने को मिला। वहां एक अन्य धर्म के विद्वान वेदों की उन ऋचाओं को वहां बैठे लोगों को सुनाकर सनातन धर्म की आलोचना कर रहे थे तब वहां बैठे कुछ लोग उन पर गुस्सा हो रहे थे। ऋचाएं भी वह जिनकी आलोचना सुनते हुए बरसों हो गये हैं। लोगों का गुस्सा देखकर वह विद्वान मुस्करा रहे थे। अगर वहां कोई ज्ञानी होता तो उनको छठी का दूध याद दिला देता, मगर जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि ज्ञान और कल्याण का व्यापार करने वाले समाज के शिखर पर जाकर बैठे हैं और समाज ने भी एक तरह से मौन स्वीकृति दे दी है। इसका कारण ज्ञान का अभाव है। ऐसे ही लोग अपने अल्पज्ञान को साथ लेकर बहस करने पहुंचते हैं और जब आलोचना होती है तो तर्क देने की बजाय क्रोध का प्रदर्शन कर अपने को धर्म का ठेकेदार साबित करते हैं। ज्ञानी की सबसे बड़ी पहचान है कि वह वाद विवाद में कभी उतेजित नहीं होता। उत्तेजित होना अज्ञानता का प्रमाण है। अपने अध्यात्म ज्ञान के मूल तत्वों के बारे में अधिक जानकारी न होने से वह न तो उसकी प्रशंसा कर पाते न आलोचना का प्रतिवाद कर पाते हैं।

इस आलेख का उद्देश्य किसी धर्म का प्रचार नहीं बल्कि धर्म की नाम फैलाए जा रहे भ्रम का प्रतिकार करने के साथ सत्संग की दृष्टि से सत्य का अन्वेषण करना है, जो लिखते लिखते ही प्राप्त होगा। इन पंक्तियों का लेखक कोई सिद्ध या ज्ञानी नहीं बल्कि एक सामान्य इंसान है जिसे भारतीय अध्यात्म में आस्था है। इसलिए अगर कहीं कोई त्रुटि हो जाए तो उसे अनदेखा करें। यहाँ किसी के विश्वास का खंडन नहीं करना बल्कि अपने विश्वास की चर्चा करना है। बिना किसी योजना के लिखे जा रहे इस लेख के लंबे चलने की संभावना है और यह विवादास्पद टिप्पणियाँ न रखें तो ही अच्छा होगा। ऐसी सार्थक टिप्पणियों का स्वागत है जिससे लेखक और पाठक दोनों को ज्ञान मिले। वह ज्ञान जो हमारे अक्षुणण अध्यात्म की सबसे बड़ी तात्कत है। शेष इसी ब्लॉग/पत्रिका पर जारी रहेगा। इस आलेख को प्रस्तावना ही समझें क्योंकि आगे इस पर व्यापक रूप से लिखना पर पढ़ना है।
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छोटी सफलता पर क्या इतराना-संपादकीय एवं कविता


यह ब्लाग 25 हजार की पाठक संख्या पार कर गया। यह कोई बड़ी सफलता नहीं है खासतौर से यह देखते हुए कि मेरे दो अन्य ब्लाग/पत्रिकाऐं यह संख्या पहले ही कर चुके हैं और इसके अलावा हिंदी ब्लाग जगत के अनेक ब्लाग इससे कई गुना अधिक संख्या पहले ही पार कर चुके हैं। फिर भी आजकल के प्रचार के युग में यह जरूरी है कि कभी कभी आत्म प्रचार भी किया जाये खासतौर से जब आप इसके लिये कोई व्यय करने की स्थिति में नहीं है। वैसे आजकल मौसम इतना खराब चल रहा है कि कहीं भी बैठना कठिन है और मेरे हालत ऐसे हैं कि बड़ी मुश्किल से लिख पा रहा हूं। इस अवसर पर एक कविता लिखने का मन है सो प्रस्तुत है।

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पास से गुजरते हुई हवा के झौंके से
गुलाब के पेड़ ने कहा
‘ओ हवा, बड़ी बहुत दूर से बहती हुई आई हो
कुछ देर मेरे पास ठहर जाना
मेरे ऊपर खड़े फूलों की
सुगंध को भी अपने साथ ले जाना
करो इनका स्पर्श
होगा तुम्हें भी बहुत हर्ष
इनका अस्तित्व मेरी है कामयाबी
इनकी कथा सभी जगह सुनाना
जहंा भी हो तुम्हारा जाना’

हवा के झौंके ने हंसते हुए कहा
‘बहुत अच्छे लगते हैं फूल
पर इनके साथ कांटे भी हैं
यह कैसे जायेंगे भूल
अगर फूलों का अस्तित्व तुम्हारी कामयाबी है
तो कांटों का यहां रहना नाकामी के
अलावा और क्या हो सकता है
तुम्हारे इन फूलों को सब तोड़ जाते हैं
पर कांटे चुभने से घबड़ाते हैं
पर यह कांटे ही
फूल का बनते हैं सहारा
वरना बन जाता यह बिचारा
इंसान भी वही जश्न मनाते हैं
जों अपनी नाकामी छिपाते हैं
तुमने भी फलों का किया बखान
पर कांटों का नहीं किया बयान
हम तो ठहरे हवा के झौंके
बहते चले जायेंगे
अच्छे बुरे हल हाल को
स्पर्श करते जायेंगे
पर रुकना नहीं काम हमारा
चलते रहकर इस संसार की नदी में
जीवन की धारा सदैव है बहाना
सुगंध और दुर्गंध
सुख और दुख
इसका मतलब हमने कभी नहीं जाना
तुम भी अपनी कामयाबी पर
इतना न इतराओ
कि नाकामी दिखाकर कोई तुम्हें
नीचा दिखाये
खड़े रहना अपनी ही जमीन पर
जिंदगी है जब तक तुम्हारी
इन कांटों को भी सहलाते रहना
यह भी तुम्हारे पहरेदार है
इनके बिना मुश्किल होगा तुम्हें अपने को बचाना

…………………………………………….
अभी निष्कर्ष और विश्लेषण प्रस्तुत करने का समय नहीं है, पर कुछ लोग हैं जो इनमें रुचि रखते हैं इसलिये ही इस विशेष अवसर पर यह संपादकीय एवं कविता प्रस्तुत है। मैं यह कभी नहीं भूल सकता कि अनेक ब्लाग लेखक मित्रों ने मुझे हमेशा लिखने की प्रेरणा दी है। कई बातें उनसे सीखकर ही आजकल मैं इतना लिख पाता हूं। बस एक ही इच्छा रहती है कि हिंदी अंतर्जाल पर पढ़ी जाये और सभी ब्लाग लेखक एक ऐसा मुकान हासिल करें जिससे उनकी विश्व में प्रतिष्ठा बढ़े।
वैसे यह ब्लाग अपने सहयोगी ब्लाग/पत्रिकाओं से पिछड़ रहा है पर उसका कारण मेरे द्वारा इस पर कम लिखना ही है। हालांकि यह मेरे द्वारा बनाया गया सबसे पहला ब्लाग है और उस समय पता ही नहीं था कि जाना कहां है? अब जो अनुभव और जानकारी प्राप्त हुई है वह सब सहृदय ब्लाग लेखकों के सहयोग से ही संभव है और कम से कम मैं अपने आपको इस दृष्टि से भाग्यशाली समझाता हूं।
ऐसे सफलताओं पर अधिक प्रसन्न होने की जरूरत इसलिये भी नहीं है कि क्योंकि लक्ष्य बहुत लंबा है। सबसे अच्छी बात जो लगती है कि मित्र ब्लाग लेखकों द्वारा निष्काम भाव से सहयोग और आलोचकों द्वारा अपनी आलोचना से अधिक अच्छा लिखने की प्रेरणा देना। इस अवसर अपने परिचित और अपरिचित ब्लाग लेखक मित्रों, पाठकों और आलोचकों का आभार प्रदर्शित करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है।

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ब्लाग पर त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाने वालों का आभार


कुछ ब्लोगों में शब्द और वर्तनी की गलतिया आ जाती हैं. मैं खुद कई गलतियां कर जाता हूँ, यह स्वीकार करते हुए कोई शर्म नहीं है कि यह गलतिया मेरी लापरवाही से होतीं हैं. जो लोग मेरा इनकी तरफ आकर्षित कराते हैं उनका आभारी हूं. वैसे कई ब्लोगर अनजाने में यह गलतियां कर जाते हैं और जल्दबाजी में उनको ठीक करना भूल जाते हैं.

इन गलतियों के पीछे केवल एक ही कारण है कि हम जब इसे टंकित कर रहे हैं तो अंग्रेजी की बोर्ड का इस्तेमाल करते हैं. दूसरा यह कि कई शब्द ऐसे हैं जो बाद में बेक स्पेस से वापस आने पर सही होते हैं, और कई शब्द तो ऐसे हैं जो दो मिलाकर एक करने पड़ते हैं. ki से की भी आता है और कि भी. kam से काम भी आता है कम भी. एक बार शब्द का चयन करने के बाद दुबारा सही नहीं करना पड़ता है पर गूगल के हिन्दी टूल का अभ्यस्त होने के कारण कई बार इस तरफ ध्यान नहीं जाता और कुछ गलतिया अनजाने में चली जाती हैं. वैसे तो मैं कृतिदेव से करने का आदी हूँ और यह टूल इस्तेमाल करने में मुझे बहुत परेशानी है, पर मेरे पास फिलहाल इसके अलावा कोई चारा नहीं है. वैसे मैं अंतरजाल पर लिखने से पहले अपनी रचनाएं सीधी कंप्यूटर पर कृतिदेव में टायप करता था और हिन्दी टूल से अब भी यही करता हूँ और मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपने मूल स्वरूप के अनुरूप नहीं लिख पाता. ऐसा तभी होगा जब मैं हाथ से लिखकर यहाँ टाइप करूंगा. अभी यहाँ बड़ी रचनाएं लिखने का माहौल नहीं बन पाया है और जब हाथ से लिखूंगा तो बड़ी हो जायेंगी. इसलिए अभी जो तात्कालिक रूप से विचार आता है उसे तत्काल यहाँ लिखने लगता हूँ, उसके बाद पढ़ने पर जो गलती सामने आती है उसको सही करता हूँ फिर भी कुछ छूट जातीं हैं.

चूंकि अंग्रेजी की बोर्ड का टाईप सभी कर रहे हैं इसलिए गलती हो जाना स्वाभाविक है पर इसे मुद्दा बनाना ठीक नहीं है और अगर सब कमेन्ट लिखते समय एक दूसरे इस तरफ ध्यान दिलाएं तो अच्छी बात है-क्योंकि जब कोई रचना या पोस्ट चौपाल पर होती है तो उसका ठीक हो जाना अच्छी बात है, अन्य पाठकों के पास तो बाद में पहुँचती है और तब तक यही ठीक हो जाये तो अच्छी बात है. वैसे कुछ लिखने वाले वाकई कोई गलती नहीं करते पर कुछ हैं जिनसे गलतियां हो जातीं हैं. हाँ इस गलती आकर्षित करने पर किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए. अब बुध्दी हो या बुद्धि हम समझ सकते हैं कि कोई जानबूझकर गलती नहीं करता. इस पर किसी का मजाक नहीं बनाना चाहिऐ. मैंने बडे-बडे अख़बारों में ऐसी गलतियां देखीं हैं.

इस मामले में मैं उन लोगों का आभारी हूँ जिन्होंने मेरा ध्यान इस तरफ दिलाया है, और अब तय किया है कि अपने लिखे को कम से कम दो बार पढा करूंगा. इसके बावजूद कोई रह जाती है तो उसका ध्यान आकर्षित करने वालों का आभार व्यक्त करते हुए ठीक कर दूंगा.

संत कबीर वाणी:जादू टोना सब झूठ है


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय

संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।

बोलै बोल विचारि के, बैठे ठौर संभारि
कहैं कबीर ता दास को, कबहु न आवै हारि

इसका आशय यह है कि जो आदमी वाणी के महत्त्व को जानता है,, समय देखकर उसके अनुसार सोच और विचार कर बोलता है और अपने लिए उचित स्थान देखकर बैठता है वह कभी भी कहीं भी पराजित नहीं हो सकता।

जंत्र मन्त्र सब झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जाने बिना, कागा हंस न होय

संत शिरोमणि कबीरदास जीं का यह आशय है कि यन्त्र-मन्त्र एवं टोना-टोटका आदि सब मिथ्या हैं। इनके भ्रम में मत कभे मत आओ। परम सत्य के ठोस शब्द-ज्ञान के बिना, कौवा कभी भी हंस नहीं हो सकता अर्थात दुर्गुनी-अज्ञानी लोग सदगुनी और ज्ञानवान नही हो सकते

मनुस्मृति-राजा का कर्तव्य है धर्म की रक्षा करना


१.धर्मज्ञ राजा को जातियों,  धर्मों, राज्य के धर्मों, श्रेणी धर्मों(व्यवसाय के प्रकार से नियत धर्मों) तथा कुल धर्मों को अच्छी तरह समझकर अपने धर्म का अनुसरण करना चाहिऐ.
२.जाति, देश और कुल धर्मानुसार अपने-अपने कामों को करने वाले तथा अपने-अपने कार्य में स्थित होकर दूर रहते हुए भी इस लोक में प्रिय हो जाते हैं.
३.राजपुरुष  को न तो स्वयं  झगडा करना चाहिए न ही किसी के झगडे को अनदेखा करना चाहिऐ.
४.राजपुरुष  को धर्म का अनुसरण करने वाले तथा सदाचरण करने वाले द्विजातियों द्वारा प्रमाणित  एवं  देश, कुल तथा जाति के अनुकूल ही झगडे का निर्णय करना चाहिऐ.
५.जिस सभा में अधर्म द्वारा धर्म को दबाया जाता है और वहाँ मौजूद सदस्य अन्याय को दूर नहीं करते वहाँ जिस कांटे से धर्म को दबाया जाता है वही बाद में सदस्यों को कष्ट पहुंचाता है.
६.ऐसी सभा में जहाँ सभासदों के सम्मुख ही झूठ जब सत्य को तथा अधर्म भी धर्म को दबाता तो उस पाप के कारण सभासद भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं.
७.राजपुरुष द्वारा उचित न्याय  नहीं होने पर अधर्म का पहला चौथाई भाग अधर्म करने वाले को, दूसरा चौथाई यह सब देखने वाले को, तीसरा चौथाई भाग राज्य की तरफ से नियुक्त सदस्यों को था चौथाई भाग राज्य  जो मिलता है. 

चाणक्य नीति:असंयमित जीवन से व्यक्ति अल्पायु


1.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

2.जो सुख चाहते है वह विद्या छोड़ दें। जो विद्या चाहते हैं वह सुख छोड़ दें। सुखार्थी को ज्ञान और ज्ञानार्थी को सुख कहाँ मिलता है। बिना सोचे-समझे खर्च करने वाला, अनाथ, झगडा करने वाला तथा असंयमित जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति अल्पायु होते हैं।धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या संग्रह में और वाद-विवाद में जो निर्लज्ज होता है, वही सुखी होता है।

3.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

काहेका भला आदमी!


वह सुबह जाने की लिए घर से निकले, तो कालोनी में रहने वाले एक सज्जन उनके पास आ गए और बोले-”मेरी बेटी कालिज में एडमिशन लेना चाहती है उसे कालेज में प्रवेश का लिए फार्म चाहिये. आपका उस रास्ते से रोज का आना-जाना है. आप तो भले आदमी हैं इसलिए आपसे अनुरोध है कि वहाँ से उसका फार्म ले आयें तो बहुत कृपा होगी.”

वह बोले-”इसमें कृपा की क्या बात है? आपकी बेटी तो मेरी भी तो बेटी है. मैं कालिज से उसका फार्म ले आऊँगा.”

समय मिलने पर वह उस कालिज गए तो वहाँ फार्म के लिए लाइन लगी थी. वह फार्म लेने के लिए उस लाइन में लगे और एक घंटे बाद उनको फार्म मिल पाया. वह बहुत प्रसन्न हुए और घर आकर अपना स्कूटर बाहर खडा ही रखा और फिर थोडा पैदल चलकर उन सज्जन के घर गए और बाहर से आवाज दी वह बैठक से बाहर आये तो उन्होने उनका फार्म देते हुए कहा-“लीजिये फार्म”
सज्जन बोले-“अन्दर तो आईये. चाय-पानी तो लीजिये.”
वह बोले-“नहीं, मैं जल्दी में हूँ. बिलकुल अभी आया हूँ. फिर कभी आऊँगा.”

सज्जन फार्म लेकर अन्दर चले गए और यह अपनी घर की तरफ. अचानक उन्हें याद आया कि’फार्म भरने की आखरी तारीख परसों है यह बताना भूल गए’.
वह तुरंत लौट गए तो अन्दर से उन्होने सुना कोई कह रहा था-‘आदमी तो भला है तभी तो फार्म ले आया .’
फिर उन्होने उन सज्जन को यह कहते हुए सुना-”कहेका भला आदमी है. फार्म ले आया तो कौनसी बड़ी बात है. नहीं ले आता तो मैं क्या खुद ही ले आता. जरा सा फार्म ले आने पर क्या कोई भला आदमी हो जाता है.”
वह हतप्रभ रह गए और सोचने लगे-‘क्या यह सज्जन अगर कह देते कि भला आदमी है तो क्या बिगड़ जाता. सुबह खुद ही तो कह रहा था कि आप भले आदमी हो.’

फिर मुस्कराते हुए उन सज्जन को आवाज दी तो वह बाहर आये उनके साथ दूसरे सज्जन भी थे. वह बोले-”मैं आपको बताना भूल गया था कि फार्म भरने की परसों अन्तिम तारीख है.”

वह सज्जन बोले-‘अच्छा किया जो आपने बता दिया है. हम कल ही यह फार्म भर देंगे.”-फिर वह अपने पास खडे सज्जन से बोले”यह भले आदमी हैं. देखो अपनी बिटिया के लिए फार्म ले आये.

वह मुस्कराये. उनके चेहरे के पर विद्रूपता के भाव थे. वह सज्जन फिर दूसरे सज्जन से मिलवाते हुए बोले-”यह मेरा छोटा भाई है. बाहर रहता है कल ही आया है.”

वह मुस्कराये और उसे नमस्ते की और बाहर निकल गए और बाहर आकर बुदबुदाये-” काहेका भला आदमी!

शायद कभी छपे अच्छी खबर


हर सुबह अपने घर के
दरवाजे पर रखा उठाता हूँ
अखबार ताजा समझकर
पर पढने पर लगती है
बासी हर खबर

अखबार के हर पृष्ठ पर
नजरें दौडाता हूँ उसके चारों और
रंग-बिरंगे और छोटे और बडे
अक्षरों को निहारता हूँ
इस यकीन के साथ कि
शायद कुछ नया पढने को मिल जाये
ऐसा कुछ हो
जो मन पर छा जाये
पर आता नहीं कुछ नया नजर

ह्त्या, डकैती, और लूट की खबरें
काले मोटे अक्षरों में सुर्ख़ियों में
छपी होती हैं
पात्र और नाम बदले रहते हैं
ऐसा लगता है मैंने पढी है
पहले भी कहीं यह खबर

बडे नाम वालों के बडे बयान
कुछ छोटे नाम वालों को
बडे बनाते बयान
समाज सेवा और जन कल्याण के
दावों की लंबी-चौड़ी सूची
सोचता हूँ कि कितनी मनगढ़त
और कितनी सत्य के निकट होगी खबर

मन को ललचाते, बहलाते और फुसलाते
विज्ञापनों का झुंड
सामने आ ही जाता है
चाहे बचाओ जितनी नज़र
विज्ञापन में वर्णित वस्तुओं के
बेचने के लिए
समर्थन देती छपती है एक खबर

सोचता हूँ कि अखबार न पढूं
पर बरसों पुरानी आदतें
ऐसे ही नहीं जातीं
भले ही मजा नहीं आता
फिर भी दौडा ही लेता हूँ
सरसरी नज़र
शायद कभी छपे अच्छी खबर

खोटी और खरी नीयत


असली सांप पालते तो
शायद अकारण डसने का ख़तरा
नही नजर नहीं आता
पर सांप जैसे मन वाले इंसानों को
पालने वाला कभी भी उनके दंश का
शिकार हो जाता
असली बिच्छू को पालने से
भी कोई भय नजर नहीं आता
क्योंकि उस पर ध्यान हमेशा जाता
पर बिच्छु जैसी नीयत वाले
इंसान से साथ निभाने वाला
कभी भी उनका शिकार हो जाता
कहैं दीपक बापू जो दिखता है
उसकी पहचान बहुत आसान है
पर नीयत का पता लगाना भी जरूरी है
जो बात करें साफ और भाषा हो खरी
समझो उनका दिल और नीयत है साफ
जो करें चिकनी-चुपडी बातें
वादे करें लुभावने
सपने दिखाएँ सुहावने
उनकी नियत में खोट साफ नजर आता

मूर्ति पूजा से भी होता है ध्यान जैसा लाभ


इस देश में आध्यात्म को लेकर दो धाराएं सदैव रहीं हैं. एक तो निर्गुण और निराकार ईश्वर की आराधना की प्रवर्तक रही हैं दूसरी सगुण और साकार की उपासक. मतलब यह कि इतिहास इस विषय सा जुडे विवाद पर पहले भी बहुत बहस हो चुकी है पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका-और कभी निकलना भी नहीं है. सगुण और साकार भक्ति के उपासक भगवान की मूर्तियों बनाकर उसकी पूजा करते हैं और निर्गुण और निराकार ध्यान, ज्ञान और नाम की चर्चा कर भक्ति भाव का प्रदर्शन करते रहे हैं. देखा जाये तो भारतीय आध्यात्म की यही विशेषता रही हैं उसने दोनों धाराओं को अपने अन्दर समेटा है. श्रीगीता पढने वाले इसे तरह की बहस में नहीं पड़ते क्योंकि उसमें सब कुछ स्पष्ट कर दिया है और निर्गुण और सगुण दोनों प्रकार की भक्ति को मान्यता देते हुए हृदय में शुद्ध भावना स्थापित करने का संदेश दिया गया है. विगत समय में दोनों विचारधाराओं के विद्वानों के मध्य तीव्र मतभेद रहे हैं पर समय के साथ इस देश के आध्यात्म ने दोनों को आत्मसात कर लिया. अब योग और ध्यान से निर्गुण और निराकार की उपासना करने वाले भी मंदिरों मे जाते हैं क्योंकि मूतियों के सामने जाकर प्रार्थना और ध्यान करने से भी मन को शांति मिलती है. मूर्तियों का स्वरूप हमारे अन्दर ऐसी तरंगें उत्पन्न करता है जिससे मन में सुख का अनुभव होता है.

कुछ विद्वानों का मत है कि मूर्तियों की पूजा भी एक तरह से ध्यान का ही रूप है क्योंकि उनको देखने से कुछ देर के लिए हमारा ध्यान सांसरिक वस्तुओं से हट जाता है और इससे मन को शांति मिलती है. आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अगर शुद्ध हृदय से पूजा की जाये तो प्रतिमा में भी भगवान् है. होता यह है कि कुछ लोग केवल मूर्ति की पूजा करते हैं पर ध्यान कहीं होता है और मूंह में मन्त्र और मन में दुनिया का तंत्र होता है और इसलिये वह अपने मन में शांति का अनुभव नहीं कर पाते. देखा जाये तो सभी देवी देवताओं की तस्वीरे इसलिये आकर्षक बनाईं जातीं हैं ताकि वह आदमी जिसे निरंकार का ध्यान लगाने में सहजता का अनुभव नहीं होता वह पहले साकार को अपने मन में धारण कर ध्यान लगाएं. हमारे देश में सहिष्णुता का भाव हमेशा रहा है इसलिये कभी मूर्तियों के स्वरूप को लेकर विवाद नहीं रहा है पर विश्व के जिन भागों में यह पहले हुआ करती थी वहां लोग अपने देवी-देवताओं की मूर्तियों को लेकर झगड़ते थे और इसी कारण उन जगहों पर मूर्ति पूजाओं को वर्जित करने वाली विचारधाराओं को बढावा मिला. भारत में कभी इस तरह भक्त आपस में नहीं लड़े कि हम अमुक भगवान् की मूर्ति को मानेंगे और अमुक को नहीं. सभी मूर्तियों की पूजा को साकार से निराकार की उपासना करने का एक जरिया माना गया. यही कारण है कि यहां कभी मूर्तियों को लेकर झगड़े नहीं हुए. हालांकि अब तमाम तरह के ढोंग और पाखंड हो गये हैं और कई लोगों ने मूर्ति पूजाओं की आड़ मे अपने व्यवसाय बना लिए हैं, और अपने देश के अधिकतर भक्तजन जो इन स्थानों पर जाते हैं और निष्काम भक्ति भाव से दर्शन कर लौट जाते हैं और इन पाखंडों में रूचि नहीं लेते पर जिनके स्वार्थ हैं और जिन्हें अपनी भक्ति का पाखण्ड करना है वही मूर्तियों को लेकर तमाम तरह के प्रचार करते हैं पर उनके लिए ज्यादा समर्थन नहीं होता.

जो लोग निरंकार ईश्वर की उपासना नहीं कर पाते उन्हें श्रद्धा भाव से भगवान् की मूर्तियों पर ही शुद्ध भाव से नमन करना चाहिए क्योंकि उससे भी मन को संतोष मिलता है उन्हें इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि वह मूर्ति किसी धातु या पत्थर की बनी है. उसके आकर्षण को अपने मन में धारण करना चाहिऐ, ऐसा करने से भी मन में प्रफुलता का भाव पैदा होता है. मूर्ति पूजा साकार से निराकार की तरफ जाने का मार्ग है और जो लोग निरंकार की उपासना करने में असहज अनुभव करते हैं और जीवन में तनाव अधिक महसूस करते हैं उन्हें किसी इष्ट की मूर्ति के समक्ष नमन करना चाहिए और हो सके तो आरती भी करना चाहिए. यह उपाय भी ध्यान जैसा लाभ प्रदान करता है अगर शुद्ध हृदय से किया जाये.

मनुस्मृति:दुस्साहसी को क्षमा राज्य के लिए ख़तरा


१.अपनी क्षीण वृति, अर्थात आय की कमी से तंग होकर जो व्यक्ति रास्ते में पड़ने वाले खेत से कुछ कंद-मूल अथवा गन्ना ले लेता हैं उस पर दंड नहीं लगाना चाहिए.

२.जो व्यक्ति दुसरे के पशुओं को बांधता है, बंधे हुए पशुओं को खोल देता है तथा दासों, घोडों और रथों को हर लेता है, वह निश्चय ही दंडनीय है.

३.इस प्रकार जो राज्य प्रमुख चोरों को दण्डित कर चोरी का निग्रह करता है वह इस लोक में यश प्राप्त करता है तथा परलोक में दिव्य सुखों को भोगता है.

४.जो राज्य प्रमुख इस लोक में अक्षय यश व मृत्यु के बाद दिव्य लोक चाहता है उसे चोरों और डकैतों के अपराध को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए.

५. वह व्यक्ति जो अप्रिय वचन बोलता है, चोरी करता है और हिंसा में लिप्त होता है. उसे महापापी मानना चाहिए.

६.यदि राज्य दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा कर देता है या उसके कृत्य को अनदेखा कर देता है तो अतिशीघ्र उसका विनाश हो जाता है क्योंकि लोगों को उसके प्रति विद्वेष की भावना पैदा हो जाती है.

७.राज्य प्रमुख को चाहिए के वह स्नेह वश अथवा लालच वश भी प्रजाजन में डर उत्पन्न करने वाले अपराधियों को बन्धन मुक्त न करे.

८.यदि गुरु, बालक,वृद्ध व विद्वान भी किसी पर अत्याचार करता है तो उसे बिना विचार किये उपयुक्त दंड दिया जाना चाहिए.

९.अपने आत्म रक्षार्थ तथा किसी स्त्री और विद्वान पर संकट आने पर उसकी रक्षा के लिए जो व्यक्ति किसी दुष्ट व्यक्ति का संहार करता है उसे हत्या के पाप का भागीदार नहीं माना जाता.

सच को बैसाखियों की जरूरत नहीं-हास्य कविता


पत्थरों पर लिखी इबारत भी
इतिहास का सच बयान नहीं करती
जिसे लिखना आता है
वह कुछ भी लिख सकता है
लिखने पर चलती है उसीकी मर्जी
पुराने समय से चलती कथाओं को भी
इतिहास मानना होगा गलती
क्या हम नहीं देखते
अपने सामने ही कैसे रचे जाते हैं स्वांग
कितने झूठ गढ़कर एक सच बनाया जाता है
ईमान की लाशों पर बेईमानी को
शिखर पर पहुंचाया जाता है
झूठ का दरिया बहता था पहले भी
और अब भी
सच तब भी किनारे खडा रहता था
और अब भी मुस्कराता है
झूठ तब भी इतिहास के रूप में
रचा गया हो सकता है
जैसे अब रचा जाता है
और सच को तो कभी
बैसाखियों की जरूरत नहीं हुआ करती
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नए समाज के निर्माण की पहल करें


भारत एक बृहद देश है और इसमें तमाम प्रकार के समुदाय और समाज के लोग रह्ते है और यह कोई नयी बात नही है। अगर कोई नयी बात है तो वह यह कि हम आधुनिक समय में एकता की बात अधिक करनें लगें है और यह इस बात का द्योतक है कि भारतीय समाज में अब धर्म, विचार और वैयक्तिक विषयों पर झगड़े पहले की बनस्बित बहुत बढ़ गये हैं. शायद यही वजह है कि हम सब जगह शांति और एकता के नारे लगा रहे हैं.

देश के हालत कैसे हैं यह सब जानते हैं और किस तरह समाज में वैमनस्य के बीज बोए जा रहे हैं यह हम सभी देखते आ रहे हैं. फिर जब सब लोग शांति और एकता की बात करते हैं फिर भी हो क्यों नहीं पा रही है यह सोचने का विषय है. आखिर समाज में हम अपनी भूमिका किस रूप में निभा रहे हैं इस पर भी हमें आत्मंथन तो करना चाहिए. देश के सारे बुद्धिमान लोग एक भारतीय समाज बनाने की बात तो करते है पर उसकी कोई कल्पना उनके दिमाग में नहीं है और शांति और एकता केवल एक नारा बनकर रह गये हैं. फिर हम आ जाते हैं इस बात पर कि सब समाजों को एक होना चाहिए. सवाल यह है के समाज का कोई अपने आप में कोई भौतिक रूप नहीं होता और व्यक्ति की इकाई उसे यह संज्ञा प्रदान करती है तो क्यों न हमें व्यक्ति तक जाकर अपनी बात कहना चाहिए.

अगर हम एक भारतीय समाज की बात कर रहे हैं जिसमें सब समाज उसकी इकाई है तो हमें उनके वर्त्तमान स्वरूप को भी समझना होगा. समय ने इन हमारे सभी समाजों को कितना खोखला कर दिया है इस पर दृष्टिपात किये बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते. पहले समाज के संगठन बहुत मजबूत होते थे और लोग अपने से बडे, प्रतिष्ठित था विद्वान लोगों की बात मानते थे तब आर्थिक स्वरूप भी एसा नहीं था और मध्यम वर्ग अपनी बौद्धिक प्रभाव से दोनों वर्ग पर अपना नियन्त्रण रखता चलता था. लोग अपने समाज के दबंग लोगों से हमेशा तकलीफ में राहत मिलने की उम्मीद होती थी. अगर देखा जाये तो समाज के सबसे अधिक आवश्यकता आदमी को बच्चों के विवाह के समय होती है और इसमें भी कोई अधिक पहले परेशानी नहीं होती थी. अब बढते भौतिकतावाद ने रिश्तों को लोहे-लंगर के सामान से बाँध दिया है-और आजकल तो हालात यह है कि लड़के को कार मिलनी है लडकी वाले को देनी है. रिश्तों की औकात अब आर्थिक आधार पर तय होने लगी है. पहले भी रिश्तेदारों में अमीर गरीब होते थे पर आज अन्तर पहले से बहुत ज्यादा हो गया है. समाज के शक्तिशाली लोगों से गरीब और कमजोर तबका अब कोई आशा नहीं कर सकता. अत उनकी पकड़ समाजों पर वैसी नहीं है जैसे पहले थी

कहने का तात्पर्य यह है कि समाज टूटे पडे हैं और कोई नया समाज बन ही नहीं रहा और चूंकि हम लोगों को नाम के लिए ही सही उनकी छात्र छाया में रहें की आदत हो गयी है इसलिये उनके नाम पर उसके भग्नावशेषों में रह रहे हैं. जो लोग समाजों में एकता और शांति की बात करते हैं वह सभी समाजों के खोखलेपन को जानते हुए भी चर्चा नहीं करते. अपने समाज की आलोचना की तो वह नाराज होंगे और दूसरे की करने पर तो वैसे ही झगड़े का अंदेशा है ऐसे में नारा लगाकर रहना ही सबको श्रेयस्कर लगता है. मेरा आशय यह कि एकता व्यक्ति की व्यक्ति से हो सकती है पर समाज की एकता तो वैसे भी एक नारा ही लगती है फिर खोखले और बिखर चुके समाज अपने अन्दर तो एकता कर लें फिर दूसरे समाज से करने की सोचें.

मैं देख रहा हूँ लोग अब नए समाज की स्थापना करना चाहते हैं पर उनके मार्गदर्शक बुद्धिजीवी अभी भी उन्हें पुरानी पहचान पर एक होने का संदेश दे रहे हैं जो कि अब आम आदमी कि दृष्टि से अव्यवहारिक हो चुके हैं. अब अगर इस देश के बुद्धिमान लोग चाहते हैं कि इस देश में एकता और शांति से लोग रहे तो उन्हें नए समाज के निर्माण के लिए कार्य करना चाहिए. यह प्रक्रिया कोई एक दिन में पूरे नहीं होगी पर उसको शुरू तो किया जा सकता है, और इसके परिणाम भी अभी से दिखना शुरू होंगे. हमें केवल इस बात पर विचार करना चाहिए कि आम आदमी की सामाजिक परेशानी किस तरह की है और वह क्या चाहता है? हमें कभी न कभी तो समाजों में आये खोखलेपन पर दृष्टिपात करना ही होगा, जिनको हम देखते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं. इन सब पर विचार करके ही यह तय करना होगा कि हम समाज का कोई नया रूप देखना चाहिते हैं या इन्हीं भग्नावशेषों से ही एकता और शांति करना चाहते हैं

असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो-हास्य कविता


असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
तुम्हारे लिए किये इतने सारे इंतजाम
हम सुनाते हैं तुम सुनो
हम दिखाते हैं तुम देखो
पर तुम अपने होंठ सिलकर रहो
जो हम करते हैं वह सहो
टीवी पर तुम्हारे लिए किया हैं इंतजाम
करना नहीं हैं तुमको कोई काम
गीत और नृत्य देखते रहो
मनोरंजन के कार्यक्रम जंग की तरह सजाये हैं
हम जानते हैं देव-दानवों के द्वन्द्वों के
दृश्य हमेशा तुम्हारे मन को भाये हैं
घर में ही मैदान का मजा दिलाने के लिए
एसएमएस का किया है इंतजाम

सवाल कोई नहीं उठाना
हमारा उद्देश्य है कमाना
जवाब देना नहीं है हमारा काम
सब कुछ अच्छा है
यही हम सब जगह दिखा रहे हैं
खोये रहो तुम ख्वावों में
भयावह सच इसलिये छिपा रहे हैं
हम भी डरते हैं
इसलिये नकली को असली बता रहे हैं
तुम पैसा निकाल सकते हो
इसलिये सब तुम्हारे लिए सजा रहे हैं
जिनके पास नही है
उन्हें तुमसे दूर भगा रहे हैं
तुम नहीं खर्च कर सकते तो
तुम्हारा भी नहीं यहाँ काम

बेकारी, भुखमरी, भय और भ्रष्टाचार पर
चर्चा मत करो
उनसे मत डरो
उसे तुमसे दूर भगा रहे हैं
इसलिये कहीं नहीं दिखा रहे हैं
असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
गीत और नृत्य के कार्यक्रम देखते रहो
हम किये जा रहे अपना काम
तुम करो अपना काम

शाश्वत प्रेम के कितने रुप


‘प्रेम’ शब्द मूलरूप से संस्कृत के ‘प्रेमन’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है-‘प्रिय का भाव’। ऐक अन्य प्रकार की व्युत्पत्ति दिखाई देती है, जहाँ प्रेम को ‘प्रीञ’ धातु से मनिन’ प्रत्यय करके सिद्ध किया गया है (प्रीञ+मनिन=प्रेमन)। इस द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार प्रेम का अर्थ है-प्रेम होना, तृप्त होना, आनन्दित होना या प्रेम, तृप्त और आनंदित करना।

निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अद्वैत मतावलंबियों ‘सच्चिदानंद’ कहा है। वह सत है क्योंकि उसका विनाश नही होता, वह चित है क्योंकि स्वयं प्रकाशमान और ज्ञानमय है तथा आनंद रुप है इसलिये कि वह प्रेममय है। यदि वह आनंदात्मक न हो तो उसके अस्तित्त्व और और चैतन्य की क्या सार्थकता रह जायेगी। सत-चित का भी प्रयोजन यह आनंद या प्रेम ही है। इसी प्रेम लक्षण के वशीभूत होकर वह परिपूर्ण, अखंड ब्रह्म सृष्टि के लिए विवश हो गया। वह न अकेले प्रेम कर सका , न तृप्त हो सका और न आनंद मना सका। तब उसके मन में एक से अनेक बन जाने की इच्छा हुई और वह सृष्टि कर्म में प्रवृत्त हुआ।

आनंद स्वरूप प्रेम से ही सभी भूतों की उत्पत्ति होती है, उसमें ही लोग जीते हैं और उसमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं। यही तथ्य तैत्तिरीयोपनिषद (३.६) की पंक्तियों में प्रतिपादित किया गया है।

प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड और उससे परे जो कुछ है- सब इसकी परिधि में आ जाते हैं। प्रेम संज्ञा भी है और क्रिया वाचक भी है। संज्ञा इसलिये कि सब में अंत:स्थ भाव रुप (मन का स्थायी भाव) है और यह भाव व्यक्त भी होता है अव्यक्त भी। क्रियात्मक इसलिये कि समस्त चराचर के व्यापारों का प्रेरक भी है व्यापारात्मक भी है। किन्तु मूल है अंत:स्थ का अव्यक्त भाव, जो अनादि और अनंत है, जो सर्वत्र और सब में व्याप्त है। यही अव्यक्त भाव रुप प्रेम सात्विक, राजस और तामस इन तीन गुणों के प्रभाव से विविध विकारों के रुप में बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है और व्यवहार में व्यक्त होता है ।

यही प्रेम बडों के प्रति आदर, छोटों के लिए स्नेह, समान उम्र वालों के लिए प्यार, बच्चों के लिए वात्सल्य, भगवान् के प्रति भक्ति , आदरणीय लोगों के लिए श्रद्धा, जरूरतमंदों के प्रति दया एवं उदारता से युक्त होकर सेवा, विषय-सुखों के संबध में राग और उससे उदासीनता के कारण विराग, स्व से (अपने से) जुडे रहने से मोह और प्रदर्शन से युक्त होकर अहंकार, यथार्थ में आग्रह के कारण सत्य, जीव मात्र के अहित से विरत होने में अहिंसा, अप्रिय के प्रति अनुचित प्रतिक्रिया के कारण घृणा और न जाने किन-किन नामों से संबोधित होता है। प्रेम तो वह भाव है जो ईश्वर और सामान्य जीव के अंतर तक को मिटा देता है। जब अपने में और विश्व में ऐक-जैसा ही भाव आ जाय, और बना रहे तो वह तीनों गुणों से परे शुद्ध प्रेम है।

यह प्रेम साध्य भी है प्रेम पाने का साधन भी है। साधारण प्राणी सर्वत्र ऐक साथ प्रेम नहीं कर सकता-इस तथ्य को देखते हुए ही हमारे देश के पूज्य महर्षियों ने भक्ति का मार्ग दिखाया जिससे मनुष्य अदृश्य ईश्वर से प्रेम कर सके। इन्द्रियों के वशीभूत दुर्बल प्राणियों के लिए ईश्वर से प्रेम की साधना निरापद है जबकि लौकिक प्रेम में भटकाव का भय पग-पग पर बना रहता है। ईश्वरीय प्रेम को सर्वोच्च प्रतिपादित करने के पीछे यही रहस्य छिपा है और ईश्वरीय प्रेम का अभ्यास सिद्ध होने के पश्चात प्राणी ‘तादात्म्य भाव’ की स्थिति में आरूढ़ हो जाता है और तब शुद्ध प्रेम की स्थिति उसे स्वयंसिद्ध हो जाती है। प्रेम की इस दशा में पहुंचकर साधक को अपने ही अन्दर सारा विश्व दृष्टिगोचर होने लगता है और संपूर्ण विश्व में उसे अपने ही स्वरूप के दर्शन होने लगते है। समस्त चराचर जगत में जब अपने प्रियतम इष्ट के दर्शन होने लगें तो समझ लेना चाहिऐ कि हमें अनन्य और शाश्वत प्रेम की प्राप्ति हो गयी।

(कल्याण से साभार)

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रहीम के दोहे: जागते हुए सोये उसे क्या शिक्षा देना



जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोई।
ताहि सिखाई जगाईबो, उचित न होई ॥

अर्थ-समझ-बूझकर भी जो व्यक्ति अन्याय करता है वह तो जागते हुए भी सोता है, ऐसे व्यक्ति को जाग्रत रहने के शिक्षा देना भी उचित नहीं है।
कविवर रहीम का आशय यह कई जो लोग ऐसा करते हैं उनके मन में दुर्भावना होती है और वह अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझते हैं अत: उन्हें समझना कठिन है और उन्हें सुधारने का प्रयास करना भी व्यर्थ है।