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क्रिकेट मैच में महाशतक गिनती का कौनसा आंकड़ा है-हिन्दी व्यंग्य रचना (cricket match aur great century or mahashatak-hindi vyangya


          कल 26 नवंबर है और मुंबई पर दो वर्ष पूर्व हमले की याद या शोक में अनेक शहरों में मोमबत्तियां जलाकर मृतकों के प्रति सहानुभूति की रस्म अदा की जायेगी। अपना अपना तरीका है और उस पर टिप्पणियां करना ठीक नहीं लगता। अमेरिका के न्यूयार्क शहर के विश्व व्यापार केंद्र की इमारतें ढहने के बाद वहां हर वर्ष शून्य तल पर मोमबत्तियां जलाकर शोक मनाया जाता है। उसी की तर्ज पर यहां के आधुनिक लोगों ने इसे प्रारंभ किया है। अब यह पता नहीं कि वह अपने अंदर अमेरिकी जैसे होने का भाव पालकर एक सुखद अनुभूति पालते हैं या फिर अमेरिकियों को यह संदेश भेजते हैं कि देखो हम भी अब तुम्हारी तरह ही हैं। यह भी संभव है कि वहां रह रहे प्रवासियों को भी संदेश भेजते हैं कि हम भी कितने संवेदनशील हैं। संभव है यह तीनों बातें न हों पर इतना तय है कि आधुनिक रूप से शोक मनाना उनके लिये एक फैशन हैं जिसमें संवेदनायें होती नहीं पर दिखाई जाती हैं।
          देखा जाये तो हममारे देश में हमले कई जगह हुए हैं पर बरसी किसी की मनाई नहीं जाती। दरअसल अगर आतंकवादियों ने मुंबई के छत्रपति शिवाजी रेल्वे टर्मिनल पर आक्रमण नहीं किया होता तो शायद हमले के प्रति इतना जनाक्रोश नहीं होता कि पाकिस्तान पर हमले की बात की जाती। दूसरा यह भी कि अगर यह हमला केवल शिवाजी टर्मिनल पर नहीं होता तो भी शायद ही कोई ऐसा शोक दिवस मनाता। आतंकवादियों ने ताज होटल पर हमला किया था जिसमें धनिक लोगों का आना जाना होता है। फिर व्यापारिक रूप से उसकी विश्व में प्रतिष्ठा है। शिवाजी टर्मिनल में मरने वाले आम लोग थे। भले ही वह अमीर हों या गरीब पर ताज में मरने वालों का खास होना वहां जाना ही प्रमाणित करता है। कहने को भले ही इस हमले में शिवाजी टर्मिनल का नाम लें पर सच यह है कि इस शोक दिवस को मनाने की पृष्ठभूमि में ताज होटल पर किया गया हमला है। वह अमेरिका के विश्व व्यापार केंद्र जैसा नहीं है पर अंततः उसका स्वामित्व अंततः भारत के सबसे बड़े औद्योगिक समूह का है और यही उसे विश्व व्यापार केंद्र के समक्ष खड़ा करता है।
      यह सब बाज़ार का खेल है। सौदागरों ने विश्व के अधिकांश आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक संगठनों पर नियंत्रण कर लिया है। संगठनों के मुखिया उनके मुखौटों की तरह हैं। जिन पर प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है उन पर भी अपने धन और प्रचार की शक्ति भी इस तरह नियंत्रण किये रहते हैं कि उनके सहयोग के बिना मुखिया बेबस होता है। ऐसे में आम आदमी का नाम केवल सहानुभूति के लिये भी तब लिया जाता है जब उसका आर्थिक दोहन किया जा सके।
         वैसे प्रचार माध्यम इस समय व्यापारिक रूप से शोक जता रहे हैं। उनके भगवान का महाशतक पूरा नहीं हो सका। यह महाशतक क्या बला है? एक दिवसीय और पांच दिवसीय मैचों में कुल मिलाकर एक सौ शतक। यह महाशतक गिनती का कौनसा आंकड़ा है पता नहीं! बाज़ार चाहे जो बोले वही ठीक! मुंबई में
         वेस्टइंडीज के साथ बीसीसीआई की टीम का पांच दिवसीय मैच चल रहा था। क्रिकेट का भगवान 94 रन पर है यह हमें भी पता लगा। सारे समाचार चैनल इस खबर को लेकर बैठ गये। उनके पास विज्ञापनों का टाईम पास करने के लिये एक ऐसा मसाला मिल गया जिसे वह छोड़ नहीं सकते। आम आदमी को क्या कहें हम जैसा ज्ञानी ध्यानी भी चैनल बदलकर उस जगह पहुंचा जहां यह मैच दिखाया जा रहा था। भगवान का साथी खेल रहा था। जब हम बैठकर देखने लगे क्योंकि भगवान दूसरे सिरे पर था। हमने देखा है कि क्रिकेट के भगवान को 90 और सौ के बीच खरगोश से कछुआ बन जाता है। फिर भी तय किया कि बाज़ार के इस महानायक का खेल आज देख तो लें भले ही इसमें अब दिलचस्पी न के बराबर रह गयी है। मगर यह क्या खेलने के सिरे पर आते ही क्रिकेट का भगवान आउट हो गया।’
       स्टेडियम में सन्नाटा छाया था तो चैनलों के पास ब्रेकिंग खबर बन गयी थी। तमाम तरह के जुमले ‘पूरा देश हताश हो गया है’, सचिन के प्रशंसक दंग रह गये हैं’, ‘अभी क्रिकेट के भगवान का महाशतक पूरा होने के लिये और इंतजार करना होगा’ और ‘हो सकता है कि एकदिवसीय मैचों में यह महाशतक पूरा हो’।
         हम फिर मैच देखने लगे। मैदान पर हमने यह आवाज सुनी कि ‘वी वांट फालोआन’। पता नहीं यह संदेश वेस्ट इंडीज के खिलाड़ियों के लिये था या बीसीसीआई के कप्तान के लिये जो उस समय खेलने आया था। फालोआन का मतलब यह था कि वेस्टइंडीज की पहली पारी के 590 रन के जवाब में भगवान की टीम 390 पर यानि 200 रन पहले आउट हो जाये तो उसे फालोआन पर अपनी दूसरी पारी इंडीज टीम से की दूसरी पारी ने पहले खेलने को मजबूर किया जाये। देखा जाये तो बीसीसीआई टीम के साथ भारत शब्द जुड़ा है इसलिये भारतीय दर्शकों से ऐसी दर्दनाक दुआ की आशा तो की ही नहीं जा सकती। मगर यह हुआ।
        हालांकि पूरे स्टेडियम में यह आवाज नहीं थी इसलिये सभी दर्शकों पर कोई आक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। मगर यह हुआ। स्पष्टतः बाज़ार ने ऐसे कच्चे संस्कार देश के लोगों में बो दिये हैं कि वह चाहे उसे जब देशभक्ति की तरफ मोड़ ले या व्यक्तिपूजा की तरफ ले जाये। देश से बड़ा क्रिकेट का भगवान हो गया।
         बहरहाल बाज़ार ने क्रिकेट को अपना सबसे बढ़िया सौदा बना लिया है। अभी तक बाज़ार खुशी के माहौल का इंतजार करता था कि उसे ग्राहक मिलेगा पर अब सौदागरों ने अपने प्रचार समूहों की मदद से ऐसे अवसर बना लिये हैं जो उसे खुशी के साथ शोक भी क्रय विक्रय के लिये उपलब्ध कराते हैं। क्रिकेट का भगवान शतक नहीं बना सका इस पर शोक चैनल भुना रहे हैं तो प्रचार प्रबंधक प्रसन्न हो रहे होंगे कि चलो अभी और कमाने का मौका है। जब तक शोक बिकता है बेचते रहेंगे। हो सकता है कि प्रचार प्रबंधक इस बात का अनुमान भी लगा रहे हों कि अगली बार नब्बे के बाद भी यह महाशतक पूरा नहीं हुआ तो शोक बिक पायेगा कि नहीं। एक बार कथित महाशतक पूरा हो गया तो फिर क्रिकेट के भगवान की किस अदा को दिखाकर कमाया जायेगा।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
poet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 
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अंधेरे से रौशनी पैदा नहीं हो सकती-व्यंग्य कविता


धरती की रौशनी बचाने के लिये
उन्होंने अपने घर और शहर में
अंधेरा कर लिया
फिर उजाले में कहीं वह लोग खो गये।
दिन की धूप में धरती खिलती रही
रात में चंद्रमा की रौशनी में भी
उसे चमक मिलती रही
इंसान के नारों से बेखबर सुरज और चंद्रमा
अपनी ऊर्जा को संजोते रहे
एक घंटे के अंधेरे से
सोच में रौशनी पैदा नहीं हो सकती
अपनी अग्नि लेकर ही जलती
सूरज की उष्मा से ही पलती
और चंद्रमा की शीतलता पर यह धरती मचलती
उसके नये खैरख्वाह पैदा हो गये।
नारों से बनी खबर चमकी आकाश में
लगाने वाले चादर तानकर सो गये।

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कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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बुद्धिजीवियों की होली अब वैलेंटाईन डे पर मनती है -हास्य व्यंग्य


वैलेंटाईन डे के मायने अब वह नहीं रहे जो पहले बताये गये थे। अपना अपना नजरिया है। कुछ लोगों ने संस्कृति विरोधी दिवस कहा तो किसी ने नारी स्वातंत्र्य दिवस के रूप में मनाया। टीवी चैनलों और अखबारों के साथ अंतर्जाल पर हिंदी अंग्रेजी ब्लाग पर जोरदास बहस सुनने और देखने को मिली। तय बात है कि बहस हमेशा बुद्धिजीवियों के बीच होती है। वैलेंटाईन डे पर यह बहस जमकर चली और जिनकां इनसे कुछ लेना देना नहीं था उन्होंने फोकट में अपने रंग (शब्द) खर्च किये मजे लिये। यह लोग चालाक थे और उन्होंने इससे भी कहा बढि़या और उससे भी कहा बढि़या-मजा भी लिया और सुरक्षित भी रहे। समझ में नहीं आया कि प्रशंसा कर रहे हैं कि मजाक बना रहे हैं। एक तरह से कहा जाये तो वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों ने होली की तरह मनाया। साल में एक दिन होली मनाना जरूरी है और होली पर रंग गुलाल से परहेज करने वाले बुद्धिजीवियों ने वैलेंटाईन डे पर शब्दों का रंगों की तरह इस्तेमाल कर इसे नया रूप दे दिया। अब यह कहना कठिन है कि अगले साल वह इसी तरह मनायेंगे या नहीं।

वैलंटाईन नाम एक ऋषि पश्चिम में हुए हैं। कहा जाता है कि उनके समय में एक राजा ने अपने राज्य की रक्षा के लिये सैनिक जुटाने के लिये युवकों के विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया और महर्षि वैलेंटाईन ने उसके विरोध स्वरूप ही एक आंदोलन चलाया जिसमें युवक युवतियों का विवाह कराना शामिल था। उनकी स्मृति में मनाये जाने वाले इस त्यौहार पर कुछ कथित समाज सुधारक बिना विवाह के घूमने वाले युवक युवतियों का विवाह कराने की धमकी दे रहे थे। बस हो गया विवाद शुरु। नारी स्वातंत्र्य के समर्थकों ने पुरुष सत्ता को चुनौती देते हुए लड़कियों को खुले में घूमने के लिये ललकारा-यकीनन वह युवकों के साथ ही जो कि पुरुष ही होते हैं। स्त्री को प्यार करने की स्वतंत्रता होना चाहिये-यकीनन पुरुष के साथ ही। समाज को विभाजित कर उसे एक करने वाले बुद्धिजीवियों ने जमकर रंग (शब्द) बरसाये। नारी के पब में जाने से संस्कृति को खतरा बताने वाले भी अपने अपने रंग लेकर आये। एक तरह से वैलेंटाईन डे ऐसा हो जैसे कि कुछ लोग होली पर अपने बैरी से बदला लेने के लिये उस पर पक्का रंग फैंकते हैं ताकि वह उतरे नहीं। कुछ होते है तो वह कीचड़ का ही रंग की तरह उपयोग करते हैं।

अंतर्जाल पर ब्लाग लिखने कुछ हिंदी अंग्रेजी ब्लाग लेखक तो ऐसे ही रहे जैसे होली पर कुछ अधिक रंग खेलने वाले लगते हैं। जैसे कोई सामान्य व्यक्ति होली पर कई मित्रों के घर जाता है और सभी जगह रंग खेलता है तो उसके रोम रोम में रंग छा जाता है। ऐसे ही कुछ हिंदी और अंग्रेजी के ब्लाग अनुकूल प्रतिकूल टिप्पणियों से रंगे हुए थे। इस तरह भी हुआ कि कुछ लोगों ने अपनी टिप्पणियां उन पर नहीं लगायीं कि वह तो पहले से ही अधिक हैं-ठीक ऐसे ही जैसे होली पर ऐसे व्यक्ति को रंग लगाने की इच्छा नहीं होती जो पहले ही रंगा हुआ होता है।
अब टीवी चैनलों, अखबारों और अंतर्जाल पर एकदम खामोशी हो गयी है। ऐसे ही जैसे होली के दो बजे के बाद सड़कों पर सन्नाटा छा जाता है। कोई बहस नहीं। ऐसे में अब कुछ लोग फिर भी सक्रिय हैं जो उस दौरान खामोश थे-लगभग ऐसे ही जैसे रंगों से चिढ़ने वाले दोपहर बाद सड़क पर निकलते हैं। कहने को तो सभी लिखने पढ़ने वाले बुद्धिजीवी हैं पर यह होली-वैलेंटाईन डे-सभी ने नहीं मनायी। केवल देखते रहे कि कौन किस तरह के रंग उपयोग कर रहा है। सच कहा जाये तो यह वैलेंटाईन डे बुद्धिजीवियों की होली की तरह लगा। जिन लोगों ने इस होली का मजा लिया उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो भारतीय होली भी नहीं खेलते भले ही उस पर व्यंग्य कवितायें लिखकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। पब में नारियों के जाने पर खतरा और जाने पर स्वतंत्रता का आभास दिलाना अपने आप में हास्यास्पद है। मजाक की बातें कहकर दूसरों का मनोरंजन करना भी एक तरह से होली का ही भाग है और वैलंटाईन डे के अवसर पर चली बहस से इसका आभास कुछ लोगों को हुंआ तो उसे गलत तो नहीं कहा जा सकता है। हालांकि इस अवसर पर कुछ लोगों ने गंभीर और मर्यादा के साथ इस बहस में भाग लिया पर बहुत लोग हैं जो होली भी ऐसे ही मनाते हैं।
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रंगबिरंगे चेहरों के पीछे हैं काले चरित्र-व्यंग्य कविता


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काहेका भला आदमी!


वह सुबह जाने की लिए घर से निकले, तो कालोनी में रहने वाले एक सज्जन उनके पास आ गए और बोले-”मेरी बेटी कालिज में एडमिशन लेना चाहती है उसे कालेज में प्रवेश का लिए फार्म चाहिये. आपका उस रास्ते से रोज का आना-जाना है. आप तो भले आदमी हैं इसलिए आपसे अनुरोध है कि वहाँ से उसका फार्म ले आयें तो बहुत कृपा होगी.”

वह बोले-”इसमें कृपा की क्या बात है? आपकी बेटी तो मेरी भी तो बेटी है. मैं कालिज से उसका फार्म ले आऊँगा.”

समय मिलने पर वह उस कालिज गए तो वहाँ फार्म के लिए लाइन लगी थी. वह फार्म लेने के लिए उस लाइन में लगे और एक घंटे बाद उनको फार्म मिल पाया. वह बहुत प्रसन्न हुए और घर आकर अपना स्कूटर बाहर खडा ही रखा और फिर थोडा पैदल चलकर उन सज्जन के घर गए और बाहर से आवाज दी वह बैठक से बाहर आये तो उन्होने उनका फार्म देते हुए कहा-“लीजिये फार्म”
सज्जन बोले-“अन्दर तो आईये. चाय-पानी तो लीजिये.”
वह बोले-“नहीं, मैं जल्दी में हूँ. बिलकुल अभी आया हूँ. फिर कभी आऊँगा.”

सज्जन फार्म लेकर अन्दर चले गए और यह अपनी घर की तरफ. अचानक उन्हें याद आया कि’फार्म भरने की आखरी तारीख परसों है यह बताना भूल गए’.
वह तुरंत लौट गए तो अन्दर से उन्होने सुना कोई कह रहा था-‘आदमी तो भला है तभी तो फार्म ले आया .’
फिर उन्होने उन सज्जन को यह कहते हुए सुना-”कहेका भला आदमी है. फार्म ले आया तो कौनसी बड़ी बात है. नहीं ले आता तो मैं क्या खुद ही ले आता. जरा सा फार्म ले आने पर क्या कोई भला आदमी हो जाता है.”
वह हतप्रभ रह गए और सोचने लगे-‘क्या यह सज्जन अगर कह देते कि भला आदमी है तो क्या बिगड़ जाता. सुबह खुद ही तो कह रहा था कि आप भले आदमी हो.’

फिर मुस्कराते हुए उन सज्जन को आवाज दी तो वह बाहर आये उनके साथ दूसरे सज्जन भी थे. वह बोले-”मैं आपको बताना भूल गया था कि फार्म भरने की परसों अन्तिम तारीख है.”

वह सज्जन बोले-‘अच्छा किया जो आपने बता दिया है. हम कल ही यह फार्म भर देंगे.”-फिर वह अपने पास खडे सज्जन से बोले”यह भले आदमी हैं. देखो अपनी बिटिया के लिए फार्म ले आये.

वह मुस्कराये. उनके चेहरे के पर विद्रूपता के भाव थे. वह सज्जन फिर दूसरे सज्जन से मिलवाते हुए बोले-”यह मेरा छोटा भाई है. बाहर रहता है कल ही आया है.”

वह मुस्कराये और उसे नमस्ते की और बाहर निकल गए और बाहर आकर बुदबुदाये-” काहेका भला आदमी!

खोटी और खरी नीयत


असली सांप पालते तो
शायद अकारण डसने का ख़तरा
नही नजर नहीं आता
पर सांप जैसे मन वाले इंसानों को
पालने वाला कभी भी उनके दंश का
शिकार हो जाता
असली बिच्छू को पालने से
भी कोई भय नजर नहीं आता
क्योंकि उस पर ध्यान हमेशा जाता
पर बिच्छु जैसी नीयत वाले
इंसान से साथ निभाने वाला
कभी भी उनका शिकार हो जाता
कहैं दीपक बापू जो दिखता है
उसकी पहचान बहुत आसान है
पर नीयत का पता लगाना भी जरूरी है
जो बात करें साफ और भाषा हो खरी
समझो उनका दिल और नीयत है साफ
जो करें चिकनी-चुपडी बातें
वादे करें लुभावने
सपने दिखाएँ सुहावने
उनकी नियत में खोट साफ नजर आता

असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो-हास्य कविता


असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
तुम्हारे लिए किये इतने सारे इंतजाम
हम सुनाते हैं तुम सुनो
हम दिखाते हैं तुम देखो
पर तुम अपने होंठ सिलकर रहो
जो हम करते हैं वह सहो
टीवी पर तुम्हारे लिए किया हैं इंतजाम
करना नहीं हैं तुमको कोई काम
गीत और नृत्य देखते रहो
मनोरंजन के कार्यक्रम जंग की तरह सजाये हैं
हम जानते हैं देव-दानवों के द्वन्द्वों के
दृश्य हमेशा तुम्हारे मन को भाये हैं
घर में ही मैदान का मजा दिलाने के लिए
एसएमएस का किया है इंतजाम

सवाल कोई नहीं उठाना
हमारा उद्देश्य है कमाना
जवाब देना नहीं है हमारा काम
सब कुछ अच्छा है
यही हम सब जगह दिखा रहे हैं
खोये रहो तुम ख्वावों में
भयावह सच इसलिये छिपा रहे हैं
हम भी डरते हैं
इसलिये नकली को असली बता रहे हैं
तुम पैसा निकाल सकते हो
इसलिये सब तुम्हारे लिए सजा रहे हैं
जिनके पास नही है
उन्हें तुमसे दूर भगा रहे हैं
तुम नहीं खर्च कर सकते तो
तुम्हारा भी नहीं यहाँ काम

बेकारी, भुखमरी, भय और भ्रष्टाचार पर
चर्चा मत करो
उनसे मत डरो
उसे तुमसे दूर भगा रहे हैं
इसलिये कहीं नहीं दिखा रहे हैं
असंतोष के सिंह तुम मांद में रहो
गीत और नृत्य के कार्यक्रम देखते रहो
हम किये जा रहे अपना काम
तुम करो अपना काम

क्रिकेट देखने से अच्छा है ब्लोग पर लिखें


यूँ तो हारने के हजार बहाने हैं
पर घर में ही हार पर कितनी सफाई दो
यहां कौन माने हैं
बाहर जीत कर आये
तो शेर की तरह घर आये
कंगारुओं ने किया पलटवार
दो दिन में तारे नजर आये
नाम बडे हैं जिनके
दर्शन उनके छोटे तो हो जाने हैं

कहैं दीपक बापू
जीत का नशा इतनी जल्दी
उतर जायेगा किसे पता
स्कोर का कोई नाम लेवा नहीं था
फिर अब भीड़ जुटने लगी थी
लगता नही ज्यादा समय तक
चलेगा यह फिर खेल
अपने देश के क्रिकेट में पिटते देख कर
दुखी होने से ज्यादा अच्छा तो यह है कि
लोग अपने ब्लोग पर ही
शब्दों से खेलने लगें
अब तो इन्टरनेट पर ब्लोग
लिखने-पढने के दिन भी जरूर आने हैं
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डाक्टर और अस्पताल की छाया-हास्य कविता


एक आदमी ने सुबह-सुबह
दौड़ लगाने का कार्यक्रम बनाया
और अगले दिन ही घर से बाहर आया
उसने अपने घर से ही
दौड़ लगाना शुरू की
आसपास के लड़के बडे हैरान हुए
वह भी उसके पीछे भागे
और भागने का कारण पूछा
तो वह बोला
‘मैने कल टीवी पर सुना
मोटापा बहुत खतरनाक है
कई बिमारियों का बाप है
आजकल अस्पताल और डाक्टरों के हाल
देखकर डर लगता है
जाओ इलाज कराने और
लाश बनकर लौटो
इसलिये मैने दौड़ने का मन बनाया’

लड़कों ने हैरान होकर पूछा
‘पर आप इस उम्र में दौडैंगे कैसे
आपकी हालत देखकर हमें डर समाया’
उसने जवाब दिया
‘जब मेरी उम्र पर आओगे तो सब समझ जाओगे
लोग भगवान् का ध्यान करते हुए
योग साधना करते हैं
मैं यही ध्यान कर दौड़ता हूँ कि
जैसे कोई मुझे डाक्टर पकड़ने आया
अपनी स्पीड बढाता हूँ ताकि
उसकी न पडे मुझ पर छाया