Category Archives: hindi poem

चमचागिरी का फन-हिन्दी शायरी


बाजार के खेल में चालाकियों के हुनर में
माहिर खिलाड़ी
आजकल फरिश्ते कहलाते हैं।
अब होनहार घुड़सवार होने का प्रमाण
दौड़ में जीत से नहीं मिलता,
दर्शकों की तालियों से अब
किसी का दिल नहीं खिलता,
दौलतमंदों के इशारे पर
अपनी चालाकी से
हार जीत तय करने के फन में माहिर
कलाकार ही हरफनमौला कहलाते हैं।
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काम करने के हुनर से ज्यादा
चमचागिरी के फन में उस्ताद होना अच्छा है,
अपनी पसीने से रोटी जुटाना कठिन लगे तो
दौलतमंदों के दोस्त बनकर
उनको ठगना भी अच्छा है।
अपनी रूह को मारना इतना आसान नहीं है
इसलिये उसकी आवाज को
अनसुना करना भी अच्छा है।
किस किस फन को सीख कर जिंदगी काटोगे
नाम का ‘हरफनमौला’ होना ही अच्छा है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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चेहरा बदल जाता है, चाल नहीं-व्यंग्य कविता (Face turns, not tricks – satirical hindi poem)


इंसान के चेहरे बदल जाते हैं
नहीं बदलती चाल।
खून खराबा करने वाले
हाथ बदल जाते हैं
वही रहती तलवार और ढाल।

इंसान से ही उगे इंसान
संभालते उसका खानदान
जमाने को काबू करने का मिला जिनको वरदान,
पांव हमेशा पेट की तरफ ही मुड़ता है,
दौलत से ही किस्मत का साथ जुड़ता है,
बड़े आदमी करते दिखावा
जमाने का भला करने का
मगर लूटते हैं गरीब का दान,
छोटे आदमी के हिस्से आता है अपमान,
थामे अपनी अगली पीढ़ी का झंडा
लुटेरे लूट रहे जमाने को
लगे हैं कमाने को
अपनी दौलत शौहरत देकर
अपनी औलाद में जिंदा
रहने की ख्वाहिश पाले
मौत की सोच पर लगा ताले
दौड़ जा रहे हैं इज्जतदार लोग,
लिये साथ पाप और रोग
वाह री कुदरत! तेरा कमाल।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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हिंदी दिवस:व्यंग्य कवितायें व आलेख (Hindi divas-vyangya kavitaen aur lekh)


लो आ गया हिन्दी दिवस
नारे लगाने वाले जुट गये हैं।
हिंदी गरीबों की भाषा है
यह सच लगता है क्योंकि
वह भी जैसे लुटता है
अंग्रेजी वालों के हाथ वैसे ही
हिंदी के काफिले भी लुट गये हैं।
पर्दे पर नाचती है हिंदी
पर पीछे अंगे्रजी की गुलाम हो जाती है
पैसे के लिये बोलते हैं जो लोग हिंदी
जेब भरते ही उनकी जुबां खो जाती हैं
भाषा से नहीं जिनका वास्ता
नहीं जानते जो इसके एक भी शब्द का रास्ता
पर गरीब हिंदी वालों की जेब पर
उनकी नजर है
उठा लाते हैं अपने अपने झोले
जैसे हिंदी बेचने की शय है
किसी के पीने के लिये जुटाती मय है
आओ! देखकर हंसें उनको देखकर
हिंदी के लिये जिनके जज्बात
हिंदी दिवस दिवस पर उठ गये हैं।
……………………………
हम तो सोचते, बोलते लिखते और
पढ़ते रहे हिंदी में
क्योंकि बन गयी हमारी आत्मा की भाषा
इसलिये हर दिवस
हर पल हमारे साथ ही आती है।
यह हिंदी दिवस करता है हैरान
सब लोग मनाते हैं
पर हमारा दिल क्यों है वीरान
शायद आत्मीयता में सम्मान की
बात कहां सोचने में आती है
शायद इसलिये हिंदी दिवस पर
बजते ढोल नगारे देखकर
हमें अपनी हिंदी आत्मीय
दूसरे की पराई नजर आती है।
……………………….
हिंदी दिवस पर अपने आत्मीय जनों-जिनमें ब्लाग लेखक तथा पाठक दोनों ही शामिल हैं-को शुभकामनायें। इस अवसर पर केवल हमें यही संकल्प लेना है कि स्वयं भी हिंदी में लिखने बोलने के साथ ही लोगों को भी इसकी प्रोत्साहित करें। एक बात याद रखिये हिंदी गरीबों की भाषा है या अमीरों की यह बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि हम लोग बराबर हिन्दी फिल्मों तथा टीवी चैनलों को लिये कहीं न कहीं भुगतान कर रहे हैं और इसके सहारे अनेक लोग करोड़ पति हो गये हैं। आप देखिये हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्रियों को जो हिंदी फिल्मों से करोड़ेा रुपये कमाते हैं पर अपने रेडिया और टीवी साक्षात्कार के समय उनको सांप सूंघ जाता है और वह अंग्रेजी बोलने लगते हैं। वह लोग हिंदी से पैदल हैं पर उनको शर्म नहीं आती। सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदी टीवी चैनल वाले हिंदी फिल्मों के इन्हीं अभिनता अभिनेत्रियों के अंग्रेजी साक्षात्कार इसलिये प्रसारित करते हैं क्योंकि वह हिंदी के हैं। कहने का तात्पर्य है कि हिंदी से कमा बहुत लोग रहे हैं और उनके लिये हिंदी एक शय है जिससे बाजार में बेचा जाये। इसके लिये दोषी भी हम ही हैं। सच देखा जाये तो हिंदी की फिल्मों और धारावाहिकों में आधे से अधिक तो अंग्रेजी के शब्द बोले जाते हैं। इनमें से कई तो हमारे समझ में नहीं आते। कई बार तो पूरा कार्यक्रम ही समझ में नहीं आता। बस अपने हिसाब से हम कल्पना करते हैं कि इसने ऐसा कहा होगा। अलबत्ता पात्रों के पहनावे की वजह से ही सभी कार्यक्रम देखकर हम मान लेते हैं कि हमाने हिंदी फिल्म या कार्यक्रम देखा।
ऐसे में हमें ऐसी प्रवृत्तियों को हतोत्तसाहित करना चाहिये। हिंदी से पैसा कमाने वाले सारे संस्थान हमारे ध्यान और मन को खींच रहे हैं उनसे विरक्त होकर ही हम उन्हें बाध्य कर सकते हैं कि वह हिंदी का शुद्ध रूप प्रस्तुत करें। अभी हम लोग अनुमान नहीं कर रहे कि आगे की पीढ़ी तो भाषा की दृष्टि से गूंगी हो जायेगी। अंग्रेजी के बिना इस दुनियां में चलना कठिन है यह तो सोचना ही मूर्खता है। हमारे पंजाब प्रांत के लोग जुझारु माने जाते हैं और उनमें से कई ऐसे हैं जो अंग्रेजी न आते हुए भी ब्रिटेन और फ्रंास में गये और अपने विशाल रोजगार स्थापित किये। कहने का तात्पर्य यह है कि रोजगार और व्यवहार में आदमी अपनी क्षमता के कारण ही विजय प्राप्त करता है न कि अपनी भाषा की वजह से! अलबत्ता उस विजय की गौरव तभी हृदय से अनुभव किया जाये पर उसके लिये अपनी भाषा शुद्ध रूप में अपने अंदर होना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि आपकी भाषा की वजह से आपको दूसरी जगह सम्मान मिलता है। प्रसंगवश यह भी बता दें कि अंतर्जाल पर अनुवाद टूल आने से भाषा और लिपि की दीवार का खत्म हो गयी है क्योंकि इस ब्लाग लेखक के अनेक ब्लाग दूसरी भाषा में पढ़े जा रहे हैं। अब भाषा का सवाल गौण होता जा रहा है। अब मुख्य बात यह है कि आप अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये कौनसा विषय लेते हैं और याद रखिये सहज भाव अभिव्यक्ति केवल अपनी भाषा में ही संभव है।

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शांति पर कोई शांति से नहीं लिखता-हिंदी व्यंग्य कविता (peace writting-hindi vyangya)


विध्वंस कानों में शोर करते हुए
आंखों को चमत्कार की तरह दिखता है।
इसलिये हर कोई उसी पर लिखता है।

अथक परिश्रम से
पसीने में नहाई रचना
शांति के साथ पड़ी रहती हैं एक कोने में
कोई अंतर नहीं होता उसके होने, न होने में।
आवाज देकर वह नहीं जुटाती भीड़
इसलिये कोई उस पर नहीं लिखता है।
…………………….
किसी के मन में हिलौरें
नहीं उठाओगे।
तो कोई दाम नहीं पाओगे।
हर किसी में सामथर्य नहीं होता
कि जिंदगी की गहराई में उतरकर
शब्दों के मोती ढूंढ सके
तुम सतह पर ही डुबकी लगाकर
अपनी सक्रियता दिखाओ
चारों तरफ वाह वाह पाओगे।

सच्चे मोती लाकर क्या पाओगे।
उसके पारखी बहुत कम है
नकली के ग्राहक बहुत मिल जायेंगे
पर तुम्हारे दिल को सच से
तसल्ली मिल सकती है
पर इससे पहले की गयी
अपनी मेहनत पर पछताओगे।

……………………

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अंधेरे से रौशनी पैदा नहीं हो सकती-व्यंग्य कविता


धरती की रौशनी बचाने के लिये
उन्होंने अपने घर और शहर में
अंधेरा कर लिया
फिर उजाले में कहीं वह लोग खो गये।
दिन की धूप में धरती खिलती रही
रात में चंद्रमा की रौशनी में भी
उसे चमक मिलती रही
इंसान के नारों से बेखबर सुरज और चंद्रमा
अपनी ऊर्जा को संजोते रहे
एक घंटे के अंधेरे से
सोच में रौशनी पैदा नहीं हो सकती
अपनी अग्नि लेकर ही जलती
सूरज की उष्मा से ही पलती
और चंद्रमा की शीतलता पर यह धरती मचलती
उसके नये खैरख्वाह पैदा हो गये।
नारों से बनी खबर चमकी आकाश में
लगाने वाले चादर तानकर सो गये।

………………..

दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप

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रंगबिरंगे चेहरों के पीछे हैं काले चरित्र-व्यंग्य कविता


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मेहरबानी कर तोहफे में जल्दी दो जुदाई-हास्य हिंदी शायरी


माशुका ने शायर से कहा
‘बहुत बुरा समय था जब मैंने
अपनी सहेलियों के सामने
किसी शायर से शादी करने की कसम खाई
तुमने मेरे इश्क में कितने शेर लिखे
पर किसी मुशायरे में तुम्हारे शामिल होने की
खबर अखबार में नहीं आई
सब सहेलियां शादी कर मां बन गयीं
पर मैं उदास बैठी देखती हूं
अब तो कोई मशहूर शायर
देखकर शादी करनी होगी
नहीं झेल सकती ज्यादा जगहंसाई’

शायर खुश होकर बोला
‘लिखता बहुत हूं
पर सुनने वाले कहते हैं कि
उसमें दर्द नहीं दिखता
भला ऐसा कैसे हो
जब मैं तुम्हारे प्यार में
श्रृंगार रस में डुबोकर शेर लिखता
अब तो मेरे शेरों में दर्द की
नदिया बहती दिखेगी
जब शराब मेरे सिर पर चढ़कर लिखेगी
अपने प्यार से तुम नहीं कर सकी मुझे रौशन
मेहरबानी कर तोहफे में जल्दी दो जुदाई’

कुछ इधर की, कुछ उधर की-व्यंग्य आलेख


मैं जैसे ही स्कूटर से उतरा तो मेरे मित्र ने मुझे देखते ही कहा-‘पिटवा दी भद्द। टोक दिया न उडन तश्तरी ने कि आजकल तो दनादन कवितायें लिखते जा रहे हो। क्या बचा अब? मना करता हूं कि इतनी सारी कवितायें मत लिखो।’

मैं उसकी बात सुन रहा था। कल मैंने अपने ब्लाग/पत्रिका पर छहः कवितायें प्रकाशित की थीं और मेरे ब्लाग लेखक मित्र समीर लाल ‘उडन तश्तरी’ ने एक जगह सहज भाव से लिख दिया कि ‘आजकल तो दनादन कवितायें लिखी जा रही हैं। मेरा मित्र उसका ही हथियार बना मेरी मजाक बना रहा था।

मैंने भी बनते हुए गंभीरता से कहा-‘हां यार! मेरी एक कविता तैयारी पड़ी थी वह इसलिये ही मैंने पोस्ट नहीं की कि कहीं अपनी छबि खराब न हो जाये। बाकी लोग तो इतना नहीं देखते जितना समीरलाल की दृष्टिपथ में आता है। वैसे तुमने कब देखी उनकी टिप्पणी?’
वह बोला-‘कल रात ही देखी।’वह ऐसे बोल रहा था जैसे कि कोई नया राज बता रहा हो-‘ कल मेरा टीवी खराब हो गया था तो सोचा चलो तुम्हारे ब्लाग ही पढ़ डालें। हमने सारे ब्लाग देख मारे। तुमने कल छहःकवितायें लिख मारीं। यार, हमें तो किसी को यह बताते हुए भी शर्म आये कि हमारा कोई ब्लागर दोस्त छह कवितायें लिख सकता है। ऐसे ब्लागर से दोस्ती रखने पर तो हमारी दूसरी मित्र मंडलियां हमें बिरादरी से बाहर भी निकाल सकती हैं।’
मेरा एक अन्य मित्र हंसते हुंए इस संवाद को सुन रहा था वह बोला-‘‘यार, तुम कवितायें कम लिखा करो। यह हमेशा रोता रहता है कि वह लेख या व्यंग्य नहीं लिखता।’
मैंने अपने पहले मित्र से कहा-‘‘वैसे कल तुम्हारा टीवी खराब था इसलिये तुमने यह सब देखा। अगर टीवी खराब नहीं होता तो तुम क्या करते?’

वह बोला-‘वही देखते। हां, तुम्हारे इतने सारे ब्लाग एक साथ नहीं देखते और यह पता नहीं चलता कि तुमने कितनी कवितायें लिखीं हैं। हम तुम्हारे ब्लाग से यह तो पढ़ ही लेते है कि तुमने कौनसी तारीख को लिखा था। अगर पुरानी तारीख का होता है तो मैं नहीं पढ़ता। तुम यार कोई व्यंग्य, कहानी या चिंतन लिखा करो। यह कवितायें हमेंं पसंद नहीं है।’

मैंने कहा-‘पुरानी तारीखों से तुम्हारा क्या आशय है? अरे भई, मै। लिख रहा हूं डेढ़ बरस से और तुम पढ़ रहे हो तीन महीने से। पहले बहुत सारे व्यंग्य और कहानियां लिखे हुए हैं। तुम उनको पढ़ा करो। वह सम सामयिक तो हैं नहीं कि उनका प्रभाव नहीं पड़ता हो।

वह तुनक कर बोला‘-यार, हम कहीं में जाते हैं तो पुरानी पत्रिका या समाचार पत्र देख कर उसे पढ़ने का मन नहीं करता। अगर मजबूरी में कहीं पढ़ना पड़ता है तो यह बात मन में बराबर बनी रहती है कि हम पुराना पढ़ रहे है। मैं तुम्हारे ब्लाग को भी इसी तरह पढ़ता हूं फिर तुमने अपने ब्लाग पर अपने नाम के साथ पत्रिका शब्द जोड़ रखा हैं। जिस ब्लाग को मैं खोलता हूं उसमें अगर तुम्हारे लिखे पर पुरानी तारीख होती है तो तुम्हारे दूसरे ब्लाग और वहीं अन्य ब्लागर मित्रों के ब्लाग खोलकर पढ़ता हूं। उनके पढ़ने पर भी यही हाल रहता है।’
मैंने हंसकर पूछा-‘तो जो पुराना लिखा है उसका क्या करें? वैसे अंतर्जाल पर नया पुराना क्या होता है यह मेरी समझ से परे है। वहां हमारा हर पाठ स्वतंत्र ढंग से खुलता है। वह तो मेरी वजह से तुम्हें मेरे और मेरे मित्रों के ब्लाग इतनी आराम से मिल रहे हैं वरना अगर तुम स्वयं प्रयास करते तो तुम्हे सभी ब्लाग के पाठ तुम्हारें सर्च के हिसाब से मिलेंगे। वहां तुम्हारे लिये नये पुराने के नखरे नहीं चल सकते।’

अन्य मित्र ने बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा-‘यार, तुम इसके लिए अपने पुराने लेखों को ही दोबारा प्रकाशित कर दो । कंप्यूटर पर तुम सब करना जानते हो। कापी कर फिर पेस्ट कर दो। इसको क्या पता लगेगा कि पुराना लिखा हुआ है। वहां तो नयी तारीख आ जाती होगी।’

मेरा पहला मित्र बोला‘-हां, यह ठीक है। मुझे क्या पता लगेगा?नये पुराने का टैंशन नहीं होगा तो फिर आराम से पढ़ लूंगा।’

मैंने हंसते हुए कहा-‘क्या खाक ठीक होगा? एक बार समीरलाल ‘उडन तश्तरी’ ने ब्लाग स्पाट के ब्लाग से वर्डप्रेस पर रखी गयी ऐसी ही पोस्ट के बारे में लिखा था कि‘यह पोस्ट पढ़ी हुई लग रही है। अब किसी और ने ऐसा लिख दिया तो तुम्हीं फिर रोते फिरोगे कि ‘मेरे दोस्त की भद्द पिट गयी।’
पहला दोस्त आश्चर्य चकित होकर पूछने लगा-‘यार, तुम्हारे साथ ऐसा भी हो चुका है।’
मैंने कहा-‘मैंने कहा उड़न तश्तरी की टिप्पणियां तो बहुत सहज हैं जबकि अपने ब्लाग/पत्रिकाओं पर मुझे अब कटुतापूर्ण टिप्पणियों का सामना करना पड़ रहा है। मैं ही नहीं स्वयं उड़न तश्तरी को भी ऐसी हालतों से गुजरता पड़ रहा है। वैसे तुम कविताओं का रोना करो बंद और अपना टीवी सुधरवा लो ताकि मैं बेफिक्री से लिख सकूं।
दूसरा दोस्त अब मेरे पक्ष में आ गया और बोला-‘वैसे टीवी देखकर दिमाग से खराब करने की बजाय तो कविता लिखना और पढ़ना ही सही है। वैसे जैसा यह लिखता है तो कवितायें भी दमदार होती होंगी।’
पहला मित्र बोला-‘बहुत दिलचस्प और दमदार! पर यह ऊपर शीर्षक पर ही कविता या शायरी मत लिखा करो। आगे पढ़ने का मन ही नहीं करता।’
आखिर मुझे कहना पड़ा-‘जिनका नहीं पढ़ना हो वह न बाध्य न हों इसलिये लिखता हूं। आखिरी बात यही है कि टीवी देखना मैंने कर दिया है बंद। इसलिये मेरे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि कवितायें लिखकर ही मन बहलाऊं। तुम जिन टीवी और अखबार वालों से हमारी तुलना कर रहे हो वह तुम्हारी परवाह भी नहीं करते। सब लोग रोते हैं कि यार कहीं कुछ ढंग का पढ़ने या देखने को नहीं मिलता।’
पहला मित्र बोला-‘हां, यह बात सही है। सच तो यह है कि तुम्हारे ब्लाग पर आने के बाद जब दूसरे ब्लाग और फोरम पर जाता हूं तो मुझे पढ़ना अच्छा लगता है। बस, हम तुम अच्छा लिखो यही चाहते हैं। जहां तक टीवी देखने का सवाल है अब वाकई बोरियत भरे कार्यक्रम आने लगे हैं। तुम्हारे ब्लाग खुलने का मतलब है कि हमारे पूरे दो घंटे अच्छा पढ़ लेते हैं।‘

मैं चलने को हुआ और उससे कहा-‘एक बात समझ लो। मैं ब्लाग या पत्रिका पर लिख रहा हूं कोई अखबार नहीं निकालता। अखबार तो दो घंटे में पुराने हो जाते हैं, पर अंतर्जाल पर ब्लाग हमेशा बने रहेंगे। वह किसी अल्मारी में बंद नहीं होंगे न कबाड़ में बिकेंगे

मुझे बाद में इस संवाद पर स्वयं हंसी आ रही थी। सबसे बड़ी बात यह है कि ब्लाग लेखक और व्यक्तिगत मित्रों के बीच खड़े एक पुल की तरह मुझे रोमांच अनुभव हो रहा था। मेरे ब्लाग लेखक मित्र हो या निजी मित्र उनकी आलोचनाओं और प्रशंसाओं से सीखता हूं। यही कारण है कि मैं नित नया लिखने के लिये प्रेरित होता हूं।

शब्द हमेशा हवाओं में लहराते हैं-कविता


हर शब्द अपना अर्थ लेकर ही
जुबान से बाहर आता है
जो मनभावन हो तो
वक्ता बनता श्रोताओं का चहेता
नहीं तो खलनायक कहलाता है
संस्कृत हो या हिंदी
या हो अंग्रेजी
भाव से शब्द पहचाना जाता है
ताव से अभद्र हो जाता है

बोलते तो सभी है
तोल कर बोलें ऐसे लोगों की कमी है
डंडा लेकर सिर पर खड़ा हो
दाम लेकर खरीदने पर अड़ा हो
ऐसे सभी लोग साहब शब्द से पुकारे जाते हैं
पर जो मजदूरी मांगें
चाकरी कर हो जायें जिनकी लाचार टांगें
‘अबे’ कर बुलाये जाते हैं
वातानुकूलित कमरों में बैठे तो हो जायें ‘सर‘
बहाता है जो पसीना उसका नहीं किसी पर असर
साहब के कटू शब्द करते हैं शासन
जो मजदूर प्यार से बोले
बैठने को भी नहीं देते लोग उसे आसन
शब्द का मोल समझे जों
बोलने वाले की औकात देखकर
उनके समझ में सच्चा अर्थ कभी नहीं आता है

शब्द फिर भी अपनी अस्मिता नहीं खोते
चाहे जहां लिखें और बोले जायें
अपने अर्थ के साथ ही आते हैं
जुबान से बोलने के बाद वापस नहीं आते
पर सुनने और पढ़ने वाले
उस समय चाहे जैसा समझें
समय के अनुसार उनके अर्थ सबके सामने आते हैं
ओ! बिना सोचे समझे बोलने और समझने वालों
शब्द ही हैं यहां अमर
बोलने और लिखने वाले
सुनने और पढ़ने वाले मिट जाते हैं
पर शब्द अपने सच्चे अर्थों के साथ
हमेशा हवाओं में लहराते हैं
……………………….
दीपक भारतदीप

आवश्यकता ही अपमान की जननी हैःहास्य व्यंग्य


पैट्रोल के भाव आज बढ़ेंगे यह मुझे एक जगह टीवी पर समाचार देखने के बाद पता चल गया था। इसके बावजूद हमने उस पर ध्यान नहीं दिया। अचानक चलते-चलते रास्ते में स्कूटर रिजर्व में आ गया। हमने अपनी आदत के अनुसार पैट्रोल पंप का रुख किया तो देखा वहां भारी भीड़ है। दूसरे पर गये तो वहां भी भीड़ देखकर हमने तय कि किया अपने घर के पास वाले पैट्रोल पंप से भरवायेंगे क्योंकि वह शहर से दूर होने की वजह से वहां भीड़ कम होने की संभावना थी।
मैं अपना स्कूटर लेकर वहां पहुंचा और वहां खड़े लड़के से कहा-‘सौ रुपये का पैट्रोल डाल दो।

उसने रूखे स्वर में कहा-‘‘साहब, पैट्रोल सौ का नहीं मिलेगा। केवल पचास का मिलेगा। हमारे सेठजी का हुक्म है।’
मैं दंग रह गया। उसके उत्तर ने मुझे गुस्सा दिलवा दिया। उसने मेरे सामने ही कई लोगों का एसा जवाब दिया। मुझे ध्यान आया कि यह आज मूल्य बढ़ने की खबर का परिणाम है।
बहरहाल मैंने वहां से पचास रुपये का पेट्रोल भरवाने के बाद उससे कहा-‘यह तो मूल्य बढ़ने की संभावना की वजह से ऐसा कर रहे हो।’
उसने कहा-‘हम तो फिर भी भर रहे हैं। अन्य पैट्रोल पंप वाले तो भर भी नहीं रहे।’
मैंने उससे कहा-‘तुमसे किसने कह दिया कि नहीं भर रहे। मैं अभी तीन पैट्रोल पंपों से हो होकर आया हूं। वहां भीड़ थी इसलिये नहीं रुका। तुम ऐसे लोगों का बहलाओ नहीं।’
हमारे देश के व्यापारिक दर्शन के अनुसार ग्राहक देवता का रूप होता है। यह दर्शन तब तक ही ठीक है जब तक ऊपर वाले देवता की नजरें इनायत नहीं हों। अगर ऊपर वाले देवता खुश हों तो फिर इंसान रूपी देवता को मानने की क्या जरूरत है। पैट्रोल पंप का मालिक आजकल कोई बन सकता है तो वह ऊपर वाले देवता की कृपा से ही हो सकता है। ऐसे में तो वैसे भी नीचे वाले ग्राहक देवता की कोई जरूरत नहीं रह जाती। वह तो भिखारियोें की तरह पैट्रोल भरवाने आता है-उसके पांव नहीं चल सकते। अपने आपको लाचार बना दिया है तो उसे पैट्रोल पंप पर जाना ही पड़ेगा। अरे, प्यासा ही कुऐं के पास जाता है कोई कुआं उसके पास थोड़े ही आता है।
सरकारीकरण की समाप्ति के बाद निजीकरण की वकालत बहुत लोग करते हैं पर क्या यह पूंजीवाद का दानव भी क्या इंसान को चैन से रहने देगा?

एक आदमी के रूप में अपमान के घूंट पीने का मैं इतना अभ्यस्त हो चुका हूं कि मुझे लोगों की कथित वाद और नारों पर यकीन ही नहीं रहा है। लोग कहते हैं इस देश में सरकारी नियंत्रण की वजह से अव्यवस्था है पर क्या निजी नियंत्रण होने पर शक्तिशाली लोग अपनी ताकत आम आदमी को क्या नहीं दिखायेंग? केवल पैट्रोल की बात नहीं है। बहुत सारे ऐसे विषय है जिसमें सरकार का नियंत्रण पूरी तरह समाप्त या कम होने से परेशानी बढ़ती जा रही है। मैं पिछले पांच सालों में बसों में सफर करते हुए जो झेल रहा हूं उससे तो यह लगता है कि निजीकरण भी उतना ही भ्रम होता जा रहा है। बसों में कहीं सरकारी बसें हैं तो कहीं प्राइवेट, कहीं ड्रायवर सरकारी है तो कंडक्टर प्राइवेट-पर सभी जगह निजी हाथों का हस्तक्षेप देखा जा सकता है। बसों में यात्री ठूंसकर भरे जाते हैं, उनके साथ व्यवहार खराब किया जाता है। पिछली बार जब वृंदावन से वापस अपने घर लौट रहा था तब जो मेरी हालत हुई थी उसे भूला नहीं। कहीं बस सरकारी, ड्राइवर सरकारी पर कंडक्टर प्राइवेट होता है और दस तरह झगड़े होते हैं जैसे गली मोहल्लों में होते हैं। यात्री घूप में परेशान हो रहे हैं पर उनको एक इंसान नहीं बल्कि बकरी या भेड़ समझकर उपेक्षा कर दी जाती है। पहले सरकार बसों में पैसे जरूर अधिक लगते थे पर आराम से आदमी सफर कर सकता था जो अब नहीं। जब तक सरकारी बसें थीं मैं प्राइवेट में जाना पसंद ही नहीं करता था पर आज कोई चारा नहीं है।
लोग भी हद से आगे बढ़ते जा रहे हैं। उन्हें शायद आत्मसम्मान से अधिक सुविधायें और विलसिता को शौक है। मैं आज भी मानता हूं कि अधिकतर लोग अनावश्यक रूप से पैट्रोल बर्बाद करते हैं। आंकड़ों का मायाजाल मेरे पास नहीं है पर इतना जरूर कह सकता हूं कि इस देश के लोग अगर तय कर लें कि कहीं भी बिजली, पानी, पैट्रोल या रसोई गैस का अनावश्यक व्यय नहीं करेंगे तो वह मरने के बाद स्वर्ग भोगने के लिये प्रयास करने की बजाय जीते जी स्वर्ग भोग सकते हैं।
कल एक मित्र के घर गया तो पता चला कि अब वह पानी का ड्रम खरीद कर काम चला रहे हैं। उनके इलाके में पानी अब नहीं आता। पूरी कालोनी का यही हाल है। कई कालोनियों में मकानों और फ्लेटों के भाव इसलिये कम हो गये हैं कि वहां पानी की किल्लत है। मित्र की कालोनी में मोटर सायकिलों और कारों का झुंड खड़ा था तो मैंने उससे कहा-‘अच्छी कालोनी है।’
मेरे दोस्त ने कहा-‘हां, पर पानी की परेशानी ने मन को दुःखी कर दिया है। सोच रहे हैं कि अब ऐसी जगह जाकर मकान लें जहां पानी मिलता हो। यह मकान बेचने की सोच रहे हैं, पर अब तो यहां रेट गिर गये हैं।
जल ही जीवन है-सब जानते हैं, पर जिनको मिल रहा है उनको आभास तक नहीं है इसलिये फैलाये जा रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्या है असमान वितरण और उसका हल करता कोई नजर नहीं आता। पूंजीपतियों के आगमन का स्वागत सभी कर रहे हैं पर उपभोक्ता संरक्षण के लिए कहीं कोई सोचता नहीं है। वह तो झक मारकर आयेगा। फिर वह किसी का दानदाता तो होता नहीं है। उसे तो पैट्रोल भी खरीदना है और पानी में। कहीं से लाकर पैसा देगा और जो उससे कमायेंगे वही सारा देश चला रहे हैं तो उनकी सुनी जायेगी न कि उपभोक्ता की। पूंजीपति ही पानी और पैट्रोल बेचते हैं। दस रुपये पानी की बोतल जहां बिकेगी वहां का प्याऊ सूखा ही होगा। अगर उसमें पानी भरा जायेगा तो फिर बोलत कौन खरीदेगा। अधिकतर पानी के प्याऊ बंद देखे जा सकते हैं। मतलब यह कि आम आदमी तो गूंगा बहरा और अंधा बनकर चलता रहेगा उसकी क्या परवाह करना। अगर आम आदमी चाहता है कि उसका सम्मान हो तो वह अपनी आवश्यकतायें कम करे क्योंकि उनकी पूर्ति के लिए वह जो व्यय करता हैं वही उस पर अन्याय करने वाले की ताकत बढ़ाता है। सच तो यह है कि कभी कभी तो यह लगता है कि आवश्यकता अविष्कार की नहीं बल्कि अपमान की जननी है।

भीड़ से अलग पहचान के लिए अकेले हो जाते- व्यंग्य कविता



अपनी अलग पहचान के लिये
भीड़ से अलग होना ही पड़ता है
जब चुनते हैं अपनी अलग राह
छोड़नी पड़ती है साथी की चाह
तब हो जाते हैं अकेले
यहां हर कोई यहां ढूंढ रहा है अपनी पहचान
कोई न एक न बने सरताज
इसलिए हर कोई एक दूसरे से लड़ता है

भीड़ मे बाहर से सभी एक लगते हैं
अंदर से सभी एक दूसरे से जलते हैं
बन जाती है भीड भी कभी भेड़ों का समूह
किसी का इशारा मिलता है कहीं
ताज मिलने का
वहीं पूरा समूह भ्रम में उमड़ता है
जो होता हैं भीड़ से अलग
उससे मूंह फेरते लगते हैं लोग
नाम से अनजान होते दिखते
पर फिर भी उस अकेले के शिखर छू लेने का
खौफ उनके दिमाग में घुमड़ता है
…………………………………

पसीना ही कविता लिखवाता है


बदलते मौसम के साथ
मन भी यूं बदल जाता है
जैसे उसके साथ बंधे हों हाथ
ग्रीष्म के जलती दोपहर में
व्यग्रता इतनी बढ़ जाती है
नरक लगता हो जीवन
शाम होते बहती ठंडी हवा का
एक झौंका भी शीतल कर देता है
मौसम और मन के पहिये
घूमते देख कौन कह सकता है
हमारा मन भी होता है कभी हमारे साथ
……………………..

गर्मी की दोपहर में
साइकिल पर चलते हुए
पसीने में नहाए मैंने उसे देखा है
लिखता है कविता वह हसंते हुए
कभी उसे रोते नहीं देखा है
पूछने पर बताता है
उसके दोपहर का पसीना ही
रात में शीतलता देकर उससे कविता लिखवाता है
मैं उसे केवल आईने में ही देख पाता हूं
क्योंकि वह चेहरा
केवल उसी में नजर आता है

नकली जिंदगी की खातिर-हास्य कविता


फिल्मों में ही होता है चक दे इंडिया
सच में तो सब जगह है
एक ही नारा गूंजता है भग दे इंडिया
फिल्म में हाकी की काल्पनिका कहानी ने
देश में खूब नाम कमाया
ओलम्पिक से हाकी टीम का
‘नो एंट्री’ संदेश आया
कहें दीपक बापू
‘फिल्मों में नकली हीरो और
नकली कहानी पर फिदा होकर लोग
उसी राह पर चल रहे हैं
ख्वाबों ही देख रहे हैं तरक्की की सपना
पर सबका कर्म और भाग्य होता अपना
आखें से देखते नजर आते हैं
पर देख कहां पाते हैं
कानों से सुनते तो दिखते
पर कितना सुन पाते हैं
अपनी अक्ल रख दी है
नकली ख्वाबों की अलमारी में बंद
गुलामों की तरह दूसरे के
इशारे पर चले जाते हैं
पर्दे पर देखते जो जिंदगी
उसे ही सच करने के कोशिश में
बुझा देते हैं अपनी जिंदगी का दिया
……………………….


आशा ही नहीं रखते तो निराशा भी नहीं होती-आलेख


ब्लागस्पाट के ब्लाग एक आकर्षक कूड़ेदान की तरह लगते है। उस दिन मैं अपने टेलिफोन और इंटरनेट कनेक्शन का बिल भरने  गया तो वहां पानी पीने के लिये प्लास्टिक का ग्लास उठाया और पीने के बाद  वहीं पड़े फाइबर प्लास्टिक के कूड़ेदान में डाल दिया। वह दिखने में बहुत अच्छा लग रहा था तब मुझे ब्लागस्पाट के ब्लाग की याद आयी।
इसके ब्लागों पर मैंने भी बहुत लिखा है पर लगता है कि गई भैंस पानी में। जब मैंने शुरू में इस पर ब्लाग बनाये तब विज्ञापन वर्गैरह का विचार नहीं था। फिर जब दूसरे ब्लागरोंं के ब्लाग पर विज्ञापन देखें तो हमने भी लगा लिये। उस समय अधिक जानकारी नहीं  थी, सो  थोड़ी जगह पर ही विज्ञापन लगाये। फिर हमने एक वरिष्ठ ब्लागर की पोस्ट पर पढ़ा कि गूगल का हिंदी में आर्थिक योगदान नगण्य है। तब हमने इसके विज्ञापन हटा दिये। फिर एक ब्लाग पर पढ़ा कि अगर गूगल के विज्ञापनों को अधिक जगह दी जायें तो उससे आय हो सकती हैं। वह किया तो एक ब्लागर के ब्लाग पर पढ़ा कि यह अंग्रेजी ब्लाग के मुकाबले कमीशन कम देता है। मतलब वह भी हिंदी के प्रकाशकों की तरह है।

अब हमने जब अपने गूगल एकाउंट को चेक किया तो इसमें तो 100 डालर में दस से पाचं वर्ष से क्या कम समय लगेगा-यह अनुमान मेरा अपने ब्लाग के बारे में दूसरों का मुझे पता नहीं है। मतलब साफ है कि गूगल के एडस एकाउंट का प्रदर्शन हिंदी में अत्यंत खराब है और इसलिये ही गूगल को भारत में अधिक लोकप्रियता भी नहीं मिली। मैंने देखा है जो हमारे निजी जानकार मित्र हैं अधिकतर लोग याहू पर अपना ईमेल बनाते है। सच तो यह है कि हिंदी के ब्लागर अगर ब्लागस्पाट के ब्लाग नहीं बनाते तो शायद उसके जीमेल को कोई भी नहीं पूछता। मैने भी शुरूआत मंे याहू पर ही ईमेल बनाया और वर्डप्रेस के दो ब्लाग मैंने उसी पर ही बनाये। वहां समझ में नही आया (उसकी वजह यह थी कि मैं यूनिकोड में नही लिख रहा था) तब ब्लागस्पाट पर ब्लाग बनाने के लिये जीमेल बनाया। 

मैने वर्डप्रेस और ब्लागस्पाट पर बराबर लिखा है। हां पहले सोचा था कि देखें
ब्लागस्पाट के ब्लाग से शायद कोई आय हो जाये पर अब तो लगता है कि सारी मेहनत पानी में गयी। असल में इसके पीछे एक कारण और भी है। वर्डप्रेस पर हम चाहें अपनी पोस्ट पर जितनी श्रेणी रख दें वह लेता है जबकि ब्लागस्पाट पर अंग्रेजी के 200 वर्ण से अधिक नहीं लेता। यही श्रेणियां पाठक तक हमारे ब्लाग को ले जातीं है। इसलिये वर्डपेस के ब्लाग अधिक पाठक जुटा लेते हैं और चहलकदमी करते हैं और वहां के ब्लागर उनको देखकर अपना दिल भी बहलाते हैं। उसका डेशबोर्ड ब्लागरों के आपस में मिलाने का काम भी करता है। जबकि ब्लागस्पाट के ब्लाग के लिये पूरी तरह हिंदी के एग्रीगेटरों पर ही निर्भर रहता पड़ता है। ब्लागस्पाट पर अपनी पोस्टें रखने का मतलब है कि साठ फीसदी पाठकों से अपनी पोस्ट दूर रखना। आज दोपहर तक ब्लागस्पाट के सात   ब्लाग पर केवल आठ व्यूज हैं जबकि  वर्डप्रेस के पांच ब्लाग पर  पचास व्यूज हैं। शाम तक वर्डप्रेस के ब्लाग करीब डेढ़ सौ के आसपास व्यूज जुटा लेंगे और  ब्लागस्पाट पर अगर कोई नई पोस्ट नहीं लिखी तो वहां अधिक से अधिक दस और व्यूज आएंगे।

मुझे हमेशा वर्डप्रेस पर  अपनी सक्रियता देखकर खुशी होती है जबकि ब्लागस्पाट के ब्लाग बोर कर देते हैं। न इसमें नाम है और न नामा। गूगल का एड एकाउंट जितनी आय दिखा रहा है उससे कई गुना तो वह जगह घेर रहा है हालांकि यह भी सही है कि उस पर एग्रीगेटर के बाहर पाठक नगण्य हैं। अन्य ब्लाग पर  भी जब गूगल के विज्ञापन देखता हूं तो मुझे अपने पर हंसी आती है। यह सोचकर कि देखो हम  दूसरों पर  भ्रम में पड़ जाने वाली बात कहते है और हम  भी इसमें पड़ गये। बहरहाल उनकी चमक की वजह से ही लोग उस पर अधिक आकर्षित हैं पर जैसा कि नाचने के बाद मोर रोता है वैसे ही वहां से ब्लागर जब उकता जाते हैं तो निराशा की बातें भी करते हैं जबकि वर्डप्रेस वाले क्योंकि कोई आशा ही नहीं रखते तो निराश भी नहीं होते।

कमरे के अंदर-बाहर की राजनीति होती हैं अलग-अलग-हास्य कविता


सभाकक्ष से बाहर निकलते ही
फंदेबाज जोर से चिल्लाया
‘‘दीपक बापू, तुम्हें तो
मैं बहुत भला आदमी समझा था
पर तुम तो निकले एकदम चालू
अपने मजदूरों के वेतन और बोनस
बढ़ाने के लिये प्रबंधकों का पास तुम्हें लाया
मै उनका अध्यक्ष हूं और तुम मित्र
ढंग से हमारी बात कहोगे
यही सोच तुम्हें बुलाया
पर तुमने कंपनी से अपने ठेके के रेट बढ़ाये
मेरे लिये भी कुछ लाभ जुटाये
पर जिन मजदूरों की बात करने गये थे
उस पर तो हम बोल ही न पाये
बताओं अब क्या मूंह लेकर
साथियों के पास जाऊं
यह तुमने केसा हमको फंसाया ’’

गला खंखार कर मुस्कराते हुए बोले
‘‘चलो चलते हैं पहले वहां होटल में
जहां खाने की पर्ची  तुम्हारे प्रबंधन ने दी है
फिर समझाते हैं तुम्हें माजरा
राजनीति करने चले हो या
खरीदने ज्वार बाजरा
हम न तीन में  न तेरह में
न अटे में न फटे में
हम तो तुम्हारे वफादार हैं
मजदूरों के हिमायती है हम भी
पर राजनीति तो तुम्हारी चमकानी है
कमरे के अंदर
बाहर होती है राजनीति अलग-अलग
एक समझना बात बचकानी है
हमार ठेके के रेट तो वैसे ही बढ़ते
पर तुम कभी राजनीति की सीढ़ी नहीं चढ़ते
अरे, जाकर मजदूरों को
आश्वासन मिलने की बात बता देना
वहां कर रहे थे हम दोनों हुजूर-हुजूर प्रबंधन की
पर मजदूरों में हाय-हाय करा देना
कुछ तालियां हमारे नाम की बजवा देना
अपने दो-चार चमचों को भी
प्रमोशन दिलवा देना
पर असली हक की लड़ाई कभी न लड़ना
तुम्हारे बूते का नहीं है यह सब
निकल गया हाथ से मामला तो
फिर मुश्किल होगा पकड़ना
वाद और नारों पर चलना सालों साल
भरना अपने घर में माल
हमारी तरह गहरा चिंतन न करना
हम तो हैं सब जगह फ्लाप
और अब तो हिट की फिक्र छोड़ दी है
पर राजनीति में तुम्हें हिट होने के लिये
ऐसा ही मायाजाल है रचना
कमरे के बाहर हाय-हाय
अंदर उनको हुजूर-हुजूर करना
अब सब जगह ऐसा ही वक्त आया
कोई तुम्हें कुछ नहीं कहेगा
पूरा जमाना इसी रास्त चलता आया
………………………………………..

सूचना-यह काल्पनिक हास्य व्यंग्य रचना है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई मेल नहीं है अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही उसके लिये जिम्मेदार होगा।

‘मेरा परिचय’ में क्या रखा है-आलेख


आज वर्डप्रेस के नवीनीकृत डेशबोर्ड पर दिख रही अपनी टाप पोस्टों को अवलोकन इस दृष्टि से कर रहा था कि देखें आखिर पाठकों का क्या रुझान है। इसमे एक ब्लाग पर मेरा परिचय दूसरे नंबर पर चमक रहा था। चूंकि उसमें केवल शूरू की तीन पोस्टों के व्यूज ही बताता है इसलिये अन्य पर मेरा परिचय को कितनी बार क्लिक किया गया होगा यह पता नहीं पर वह बाकी चार ब्लाग पर शूरू के तीन नंबरों में नहीं है
जब मैं शुरू मे अपने ब्लाग बना रहा था तब मैने अपना परिचय बिना किसी विचार के रख दिया। अगर मुझे सबसे अधिक कठिन कोई बात लगती है तो वह अपना परिचय लिखना। फिर यूनिकोड में सीधे लिखना तो पहाड़ जैसा। अब तो शूरू में हिंदी टाइप के फोंट कृतिदेव में लिखने में बहुत सहुलियत हो रही है पर फिर भी दोबारा परिचय लिखना तो कठिन लगता है। अब सोचा है कि किसी दिन फुरसत में बैठकर आत्ममुग्ध होकर लिखेंगे। उसमें अपनी खूब डींगें हांकेंगे। अब कोई ब्लागर तो हमारा परिचय पढ़ेंगे नहीं जो कोई आक्षेप ढूंढ पायेंगे।

मुझे सबसे अधिक इस बात का आश्चर्य है कि आखिर मेरा परिचय लोग क्योंे पढ़ते हैं? अभी तक जो मेरी सीधी यूनिकोड में लिखी गयी रचनाओं में ढेर सारी गल्तियां हैं और क्या यह देखने के लिये लोग पढ़ते हैं कि आखिर इतनी गल्तियां करने वाला कौन है? अपनी रचनाओं को लेकर मेरे अंदर कोई खुशफहमी नहीं है। हो सकता है कि बेसिर-पैर की रचनाएं देखकर सोचते हों कि हो कोई आसपास का तो उसे डांट आयें कि क्या लिखता है, समझ में नहीं आता। वगैरह…………….वगैरह।

लिखने को लेकर मेरे मन में कभी आत्ममुग्धता का भाव नहीं रहा तो यह भी कि मैने कभी कुंठा भी नहीं पाली। जैसा मैं पढ़ना चाहता हूं वैसा ही लिखता हूं। कलम मेरे लिये एक मित्र की तरह रही है और मै जानता हूं कि वह मेरे मित्रों की संख्या बढ़ाने वाली है। मगर यह परिचय…………………….जितना दिया है उतना ही ठीक है। इसमें जोड़ने के लिये अब मेरे पास कुछ नहीं है। जैसा लिखता हूं वैसा हूं भी। बचपन से ही लेखक बन जाने के कारण अंतर्मुखी तो हूं पर भीड़ में भी घबड़ाता नहीं हूं क्योंकि लिखने की सामग्र्री तो वहीं से मिलती है। भीड़ में एक आदमी के रूप में ही जाना मुझे पसंद है। सामने मंच पर बुत हों और नीचे बैठे बुत उन्हें देख रहे हो यह भी देखता हूं-दोनों में ही कुछ कहानियां और विचार ढूंढता हूं। न आम हूं न खास हूं बस एक लेखक हूं। कुछ चिंतन और कुछ मनन चलता रहता है। उसका जिक्र किसी से नहीं करता पर अगर कहीं वार्तालाप चलता है और उसमें जब बोलता हूं तो लोग प्रभावित होते हैं और लिखे की तारीफ तो खैर बहुत होती है। अपने लिखे से लाभ की भावना कभी नहीं रही क्योंकि एक रचना करने के बाद मैं दूसरी के पीछे लग जाता हूं तो पहली वाली का फायदा उठाने की फुरसत ही कहां रहती है? हजारों रचनाएं छपी हुई पड़ी है पर अब उनमें मुझे कोई सार नजर नहीं आता।
पहले कवि सम्मेलनों में जाता था पर तब भी श्रोताओं के बीच में जाकर बैठ जाता था। गोष्ठियों में गया तो बस एक-दो कविता सुनाई या फिर सुनकर ही संतोष कर लिया। आकाशवाणी पर एक बार व्यंग्य और कविताएं पढ़कर आया और उसके बाद फिर अपने रोजगार में लग गया। दूसरों का लिखा पढ़ता हूं पर उनके परिचय में भी मेरी दिलचस्पी नहीं रहती। एक मजेदार बात यह है कि मेरे घनिष्ठ लेखक मित्रों के घर कभी नहीं गया और न मेरे पास आये-इसका कारण यह भी हो सकता है कि शहर छोटा होने के कारण हमारी मुलाकातें कुछ निश्चित स्थानों पर हो जातीं है। । इनमें से ही एक मित्र ने मुझे अभिव्यक्ति का पता दिया जो इधर ब्लाग जगत में ले आया। यहां भी ढेर सारे मित्र बन गये हैं। वक्त आने पर उनके मिलूंगा।

मैं क्या लिखता हूं इस पर बात करता हूं। मेरे क्या विचार हैं यह भी सुनाता हूं। अगर किसी का काम पड़ जाये तो वह करने में खुशी होती है। मैं कहां रहता हूं, क्या करता हूं? उनमें भी छिपाने लायक कुछ नहीं है पर कोई पूछता है तो मैं असहज होता हूं। जरूरत समझता हूं तो बता देता हूं पर कोई पूछता है तो टालने की करता हूं। तब सोचता हूं कि क्या मेरा लिखे शब्द कुछ नहीं बतातंे? क्या वह निरर्थक है? एक लेखक की सबसे बड़ा परिचय तो उसके शब्द होते हैं जिनके साथ वह जी रहा होता है। वह उसके अंतर्मन को खोल देते हैं। फिर उसके बारे में क्या जानना? आदमी हजारों नाटक करता है और लेखक को भी अपने देह पालन के लिये वह सब करना पड़ता है पर वह अपने लिखे के प्रति प्रतिबद्ध अपनी आत्मा के साथ होता है तो?

आप सवाल करेंगे कि क्या ऐसे लेखक भी है जो अपनी आत्मा से प्रतिबद्ध नहीं होते? मैं किसी पर आक्षेप नहीं करता पर यह जरूर कहता हूं कि कई लोग ऐसी कोशिश करते हैं और जीवन भर करते ही रहते हैं पर हालत उनको ऐसा नहीं करने देते। मैं इसलिये प्रतिबद्ध रह पाया हूं कि मेरे शब्द ही इस जीवन में मेरे सच्चे मित्र रहे हैं और अगर मै उनसे वफादारी नहीं निभाता तो चलता कैसै? शेष फिर कभी

वर्डप्रेस के डेशबोर्ड की अब नये ढंग से प्रस्तुति-आलेख


वर्डप्रेस के ब्लाग का  डेशबोर्ड अब नई और आकर्षक साजसज्जा के साथ प्रस्तुत हुआ है। इस समय हिंदी के अधिकतर ब्लागर ब्लागस्पाट और वर्डप्रेस पर ही लिखते हैं। वर्डप्रेस के ब्लाग की थीम से अधिक आकर्षक तथा विज्ञापन की सुविधा होने के कारण अधिकतर ब्लागर ब्लागस्पाट पर लिखते हैं। एक वर्ष पूर्व तक अनेक प्रसिद्ध ब्लागर वर्डप्रेस  के ब्लाग छोड़कर ब्लागस्पाट पर पहुंच गये। मेरे तो कुछ समझ में ही नही आ रहा था क्योंकि उस समय तक मेरा कोई भी ब्लाग नारद पर नहीं था इसलिये दोनो पर बराबर लिखता रहा।
ब्लागस्पाट के विज्ञापन पहले लगाये फिर हटाये और पुनः यह सोचकर कि देखें कुछ फायदा होता है उनका जोड दिया। इधर विज्ञापन डाले तो उधर  कुछ वरिष्ठ ब्लागरों की गूगल के विज्ञापन खाते के संबंध मेंं निराशजनक जानकारी  भी पढ़ी। तब मैने सोचा कि फिलहाल उन्हें बना रहने दो। असली बात यह है कि हिंदी के सामान्य ब्लागर के पास इस समय केवल उसी से ही आय का आसरा हो सकता है शायद इसलिये अनेक लोग उससे जुड़े।

इसके बावजूद कई एसे ब्लागर है जिनका वर्डप्रेस से मोह खत्म नहीं हुआ। इसके कुछ कारण हैं। ब्लागस्पाट में किसी भी पोस्ट पर लेबल के रूप में अंग्रेजी  के 200 वर्ण से अधिक नहीं लिख सकते और अगर हिंदी में कुछ लेबल लगायें तो वह फिर अधिक से अधिक अंग्रेजी वर्ण होने के कारण वह सीमित संख्या में ही लग पाते हैं। वर्डप्रेस में इसकी कोई सीमा नहीं है। वहां चाहे जितनी श्रेणियां और टैग लगाये जा सकते हैं। इससे कोई भी पोस्ट अधिक से अधिक शब्दों के साथ सर्च इंजिन में आ जाती है। हालांकि यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि ब्लागस्पाट के शीर्षक भी सर्च इंजिन में आ जाते हैं पर अंग्रेजी में अधिक शब्दों के साथ उन्हें पकड़ा जा सकता है। यह बात सही है कि हम हिंदी में लिख रहे हैं पर देश के आम पाठक के दिमाग में अभी अंग्रेजी शब्दों  से सर्च इंजिन में ढूंढने की प्रवृत्ति है और इसलिये वर्डप्रेस पर उनका इस्तेमाल व्यापक रूप से किया जा सकता है। इस कारण वहां पर पाठक अधिक आते दिखते हैं। मैं अंतर्जाल पर कोई दावा पक्के ढंग से नहीं करता क्योंकि हो सकता है कि मेरे से समझने में कहीं चूक हो रही हो इसकी संभावना को हमेशा मानता हूं। वर्डप्रैस पर पाठकों की लगातार आमद देख कर एक विश्वास बना रहता है कि आगे इनकी संख्या बढ़ सकती है। कई बार तो ऐसा होता है कि पोस्ट न लिखने के बावजूद  भी डेशबोर्ड ब्लाग रेटिंग में ऊपर बना रहता है। इसलिये वहां लिखने वालों का मन लगा रहता है। यही कारण है कि वर्डप्रैस  पर लिखने वाले कभी निराशाजनक बातें करते हुए नहीं दिखते। ब्लागस्पाट के ब्लाग पर भी पाठक आते दिखते हैं पर उनकी संख्या वहां के मुकाबले बहुत कम है और अगर पोस्ट न लिखने पा फोरमों से पाठक नहीं मिल पाते तब एक निराशा घर कर जाती है। यही कारण है कि ब्लागस्पाट के ब्लागर कभी-कभी निराशाजनक बातें कर जाते हैं।

वर्डप्रेस ने आज मेरे ब्लाग पर ही तमाम तरह के नवीन दृश्य रखना शुरू कर दिये। सबसे अधिक हिट और सक्रिय पोस्ट के पाठकों की संख्या के साथ पाठकों की संख्या का विवरण भी दिखाना शुरू कर दिया और अब उसके लिये अब कहीं नहीं जाना। कमेंट भी अब सामने पढ़ी जा सकतीं है। पहले कमेंट पढ़ने के लिये उसके कमेंट कालम को क्लिक करना पड़ता था और शायद इसलिये कई ब्लागर उसे अपने पास रखे हुए थे। जिन लोगों ने माडरेशन का अधिकार नहीं रखा उनका तो देखना पड़ता था कि कोई कमेंट तो नहीं आया।

अब डेशबोर्ड आकर्षक और अधिक जानकारी प्रदान करने वाला हो गया है। इधर कुछ नये ब्लागर भी वहां अच्छा और जोरदार लिखने वाले आ गये हैं। कुछ पुराने और जोरदार ब्लागर अभी भी वहंा लिख रहे हैं। हम वर्डप्रैस  के ब्लागर एक दूसरे को फोरमों पर ही पढ़ लेते हैं। सच तो यह है कि ब्लागस्पाट पर जब कोई पोस्ट रखता हूं तो मुझे ऐसा लगता है कि वह पाठकों की सीमित संख्या में पढ़ी जायेगी। बीच में वर्डप्रैस के ब्लाग और गूगल के विज्ञापन खाते को जोड़कर ब्लोग इन काम के बनाये  ब्लोग की चर्चा मैंने की थी पर उस पर लिखने का विचार अभी तक नहीं बन पाया क्योंकि उसका खाता जब ब्लागस्पाट से ब्लाग पर ही अधिक उपयोगी नहीं है तो फिर दूसरी जगह कैसे रहेगा? ऐसे में ख्वामख्वाह में बदनामी लेते फिरो कि पैसे के लिये लिख रहा है।

बहरहाल वर्डप्रैस भी जिस तरह नित बदलाव कर रहा है उससे लग रहा है कि हो सकता है कि वह आगे कोई विज्ञापन का भी इंतजाम करे। आज ही मैंने एक ब्लाग में पढ़ा तो उससे पता लगा कि उन्हीं विज्ञापनों में फायदा है जो आनलाइन खरीददारी के लिये उपयोगी हों। इसका मतलब यह है कि अभी कुछ समय लगेगा। बहरहाल वर्डप्रैस वालों को इन नवीन परिवर्तनों के लिये बधाई। इस पर मिलने वाली दिलचस्प जानकारी है इसमें कोई संदेह नहीं है।
 ……………………………………………………………

शब्द ही हमारे मित्र और गुरु-हास्य कविता


कलम और दवात लेकर
जब निकले थे घर से तो
नहीं जानते थे सम्मान क्या होता है
लिखने बैठे बचपन से
अपने गुजारे लम्हों की कहानी
अपने जजबात बयान किये अपनी जुबानी
भूल गए रोना क्या होता है
देखा है बस एक ही सच
काटता है वही आदमी जो उसने बोया होता है

कहैं दीपक बापू
मांगें तो सम्मान भी मिल जाता
पर इसके लिए कोई काबिल भी तो नजर आता
जो बेचते हैं सम्मान
उनको लिखना नहीं आता
जो पाते हैं चंद शब्द लिखकर
उनका लिखा भी हमारे समझ में नहीं आता
ऐसा लगता है कि
पहले सम्मान की सोचते हैं
बाद में लिखा होता है
हम तो अपने लिखे को कभी
सम्मान के योग्य नहीं पाते
तो सम्मान कहाँ से जुटाते
फिर मिलता तो जाकर लेना पड़ता
होता समय नष्ट
फिर हम दूसरों का लिखा कहाँ पढ़ पाते
और बिना पढे भला क्या लिख पाते
जो पढ़ते बिलकुल नहीं लिखते हैं जरूर
उनमें आ जाता है गुरुर
दूसरों के लिखे से ही लिखते हैं
इसलिए अपने को सर्वश्रेष्ठ
कहलवाने में हम वैसे भी शर्माते
अपनी कमअक्ली का पता था
इसलिए लिखना किया शुरू
शब्द ही हैं हमारे मित्र और गुरु
लिखने का मतलब उनसे मिलन भर होता है
——————————————–

दिल से सम्मान करे वही है सच्चा वीर-हास्य कविता


फटे हुए कपडे पहने
चक्षुओं से अश्रु प्रवाहित करता हुआ
फंदेबाज आ पहुंचा और  बोला
”दीपक बापू आज हमारी बात मान लो
हम पत्नी पीडितों का दर्द भी जान लो
लिखो  महिला दिवस पर हास्य कविता
करो हमारे दर्द का हरण
नहीं तो हम मर  जायेंगे”

घर के बाहर पहुंचे थे उसी समय
धूप में सायकल चलाकर
पोंछ रहे थे पसीना बीडी जलाकर 
और धुआं छोड़ते  हुए बोले दीपक बापू
”अभी तो घर में घुसे और तुम आ गए
कहते हो हास्य कविता लिखो
भूल गए कितने उस पर व्यंग्यबाण चला गए
फिर भी बताओ माजरा क्या है
लिखने की सोचेंगे अगर समझ जायेंगे”

बोला फंदेबाज
”दीपक बापू
आज है महिला दिवस
हमने रास्ते  में दी अपनी
एक पढी-लिखी  पडोसन को उसकी बधाई
बीबी तो कम पढी लिखी है
क्या जानती है इस बारे में
इसलिए हमने इस बारे में
कोई बात नहीं बताई
पडोसन ने जाकर  बता दिया घर पर
सास भी थी वहीं
हुआ घमासान
हमारी हो गयी  पिटाई
आज है तुम्हारी हास्य कविता का सहारा
तुम लिखो तभी हम घर जायेंगे
नहीं तो कही भाग जायेंगे”

पहले ही थे पसीना और निकलने लगा
अपनी धोती कसते  और टोपी संभालते
और हँसते हुए बोले-
”तुम भी हो नालायक
भला क्या जरूरत थी जो दी बधाई
शैतान भी दस घर छोड़  देता है
मूर्ख ही है वह जो  पड़ोस में पंगा लेता है   
वैसे तुम्हारी पत्नी कम पढी-लिखी है
पर समझदार है
मेरी तरफ से उनको देना बधाई
हम उनको मानते हैं
तुम्हारी  नालायकी को भी हम जानते हैं
इसलिए पुरुष दिवस की बात तुमको नहीं बताई 
तुम्हें पडी  मार भी असरदार है
 जिन हास्य कविताओं पर हँसते थे
उसी की शरण में आये हो
मगर गलत समय पर आये हो
हम हास्य कविता नहीं लिख पायेंगे
समझदार महिलाओं पर हम क्या लिख पायेंगे

सुना है कहीं
पत्नी पीड़ित अपना दर्द सुनाने के लिए
महिलाओं को बाँट रहे हैं फूल
हम नहीं बरसा सकते शब्द रूपी शूल
वैसे भी क्या गम जमाने में
जो बैठे बिठाए मुसीबत बुलाएं
महिला दिवस पर कविता आजमाने में
हमारे घर पर ऐसे लफड़े नहीं होते
कि  तुम्हारी तरह रोते
इधर-उधर मुहँ से कहने की बजाय
लिखकर ही कविता में सजाते हैं बधाई
यही है हमारी कमाई
अब तुम निकल लो यहाँ से 
घर पर सुन लिया कि  तुम
हास्य कविता लिखवाने आये हो
तुम्हारे साथ हम भी फंस जायेंगे 
 यहाँ से भी कट जायेगा तुम्हारा  पता
फिर हम तुम्हें चाय भी नहीं पिला पायेंगे
वैसे ही है महिलाओं के अधिकार का प्रश्न गंभीर
महिलाओं का स्वभाव होता है कोमल और  धीर
कह गए हैं बडे-बडे विद्वान
महिला का  दिल से सम्मान करे
वही  है सच्चा  वीर
जो अब तक संसार  नहीं समझ पाया  
तुम और हम क्या समझ पायेंगे
हम इस पर हास्य  कविता नहीं लिख पायेंगे
——————————————
 नोट-यह हास्य कविता एक काल्पनिक रचना है और इसका किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है.

अपना नाम भी होगा-हास्य कविता


अंतर्जाल पर लिखने वाले एक
कविनुमा ब्लोगर को भी
आयोजकों ने कविसम्मेलन में बुलाया
जब वह भी पहुंचा मंच पर तो
कवियों को बहुत गुस्सा आया
एक बोला
”इसे उतारों यहाँ से
यह यहाँ क्यों आया
यह जमीनी कवियों का सम्मेलन में
अंतर्जाल पर लिखने वाला क्यों बुलाया”

आयोजक ने कहा
”अब साहित्य अंतर्जाल पर छा जायेगा
आप लोगों की रचनाएं यही वहाँ पहुंचा पाएगा
एक-दो कविता सुना लेने दो
कौन लोग याद रखेंगे
अखबारों में कल कवियों के रूप में
आप के ही नाम छपेंगे
बाद में यह हमारे कार्यक्रम की
खबर अपने ब्लोग पर लिखेगा
इसका नाम तो है छद्म और वह भी
ऐसी जगह पर जहाँ कोई नहीं पढेगा
इसके लेख में हमारा नाम ही दिखेगा
इसलिए इसे बुलवाया”

सुनकर ब्लोगर को गुस्सा आया
और चिल्लाकर बोला-
”इतना सस्ता समझ लिया है
एक कविता सुनाने के लिए यह सब
कैसे कर जाऊंगा
अरे, मैं तो लिखता हूँ वहाँ रोज नया
यह एक कविता लिखते हैं
उसे कई-कई बार अनेक जगह पर
सुनाते दिखते हैं
जब अंतर्जाल पर साहित्य छा जायेगा
तब मेरा नाम भी आएगा
नहीं छपेगी किताब मेरी तो क्या
मेरा लिखा आसमान में तो लहरायेगा
वैसे भी मैं यहाँ सुनाने नहीं सुनने आया
पर लगता है की अभी इनको कोई इल्म नही है
अंतर्जाल ने अपनी रचनाएं छपने के लिए
दूसरों के आगे झुकने से बचाया
दूसरी जगह जाकर भीड़ में
जाकर शब्दों का मेले लगाने से हटाया
कभी-कभी होते हैं साहित्य और कवि सम्मेलन
नारद, ब्लोगवाणी, चिट्ठाजगत और हिन्दी ब्लोग्स ने
हमें रोज साहित्यकारों से मिलने का मौका दिलाया
अब मैं जाता हूँ क्योंकि उससे कीमती वक्त
निकालकर यहाँ किसी तरह आया.”

नोट-यह हास्य कविता काल्पनिक है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है और अगर किसी से मेल खा जाये तो उसके लिए वही जिम्मेदार होगा.