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भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस–हिन्दी हास्य कविताएँ/शायरी (bhrashtachar ek adrishya rakshas-hindi hasya kavitaen)


भ्रष्टाचार के खिलाफ
लड़ने को सभी तैयार हैं
पर उसके रहने की जगह तो कोई बताये,
पैसा देखकर
सभी की आंख बंद हो जाती है
चाहे जिस तरह घर में आये।
हर कोई उसे ईमानदारी से प्यार जताये।
———-
सभी को दुनियां में
भ्रष्ट लोग नज़र आते हैं,
अपने अंदर झांकने से
सभी ईमानदार घबड़ाते हैं।
भ्रष्टाचार एक अदृश्य राक्षस है
जिसे सभी गाली दे जाते हैं।

सुसज्जित बैठक कक्षों में
जमाने को चलाने वाले
भ्रष्टाचार पर फब्तियां कसते हुए
ईमानदारी पर खूब बहस करते है,
पर अपने गिरेबों में झांकने से सभी बचते हैं।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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असली झगड़ा, नकली इंसाफ-हिन्दी व्यंग्य और कविता (asli jhagad aur nakli insaf-hindi vyangya aur kavita)


टीवी पर सुनने को को मिला कि इंसाफ नाम का कोई वास्तविक शो चल रहा है जिसमें शामिल हो चुके एक सामान्य आदमी का वहां हुए अपमान के कारण निराशा के कारण निधन हो गया। फिल्मों की एक अंशकालिक नर्तकी और गायिका इस कार्यक्रम का संचालन कर रही है। मूलतः टीवी और वीडियो में काम करने वाली वह कथित नायिका अपने बिंदास व्यवहार के कारण प्रचार माध्यमों की चहेती है और कुछ फिल्मों में आईटम रोल भी कर चुकी है। बोलती कम चिल्लाती ज्यादा है। अपना एक नाटकीय स्वयंवर भी रचा चुकी है। वहां मिले वर से बड़ी मुश्किल से अपना पीछा छुड़ाया। अब यह पता नहीं कि उसे विवाहित माना जाये, तलाकशुदा या अविवाहित! यह उसका निजी मामला है पर जब सामाजिक स्तर का प्रश्न आता है तो यह विचार भी आता है कि उस शादी का क्या हुआ?
बहरहाल इंसाफ नाम के धारावाहिक में वह अदालत के जज की तरह व्यवहार करती है। यह कार्यक्रम एक सेवानिवृत महिला पुलिस अधिकारी के कचहरी धारावाहिक की नकल पर बना लगता है पर बिंदास अभिनेत्री में भला वैसी तमीज़ कहां हो सकती है जो एक जिम्मेदार पद पर बैठी महिला में होती है। उसने पहले तो फिल्म लाईन से ही कथित अभिनय तथा अन्य काम करने वाले लोगों के प्रेम के झगड़े दिखाये। उनमें जूते चले, मारपीट हुई। गालियां तो ऐसी दी गयीं कि यहां लिखते शर्म आती है।
अब उसने आम लोगों में से कुछ लोग बुलवा लिये। एक गरीब महिला और पुरुष अपना झगड़ा लेकर पहुंच गये या बुलाये गये। दोनों का झगड़ा पारिवारिक था पर प्रचार का मोह ही दोनों को वहां ले गया होगा वरना कहां मुंबई और कहां उनका छोटा शहर। दोनों ने बिंदास अभिनेत्री को न्यायाधीश मान लिया क्योंकि करोड़ों लोगों को अपना चेहरा दिखाना था। इधर कार्यक्रम करने वालों को भी कुछ वास्तविक दृश्य चाहिये थे सो बुलवा लिया।
जब झगड़ा था तो नकारात्मक बातें तो होनी थी। आरोप-प्रत्यारोप तो लगने ही थे। ऐसे में बिंदास या बदतमीज अभिनेत्री ने आदमी से बोल दिया‘नामर्द’।
वह बिचारा झैंप गया। प्रचार पाने का सारा नशा काफूर हो गया। कार्यक्रम प्रसारित हुआ तो सभी ने देखा। अड़ौस पड़ौस, मोहल्ले और शहर के लोग उस आदमी को हिकारत की नज़र से देखने लगे। वह सदमे से मरा या आत्महत्या की? यह महत्वपूर्ण नहंी है, मगर वह मरा इसी कारण से यह बात सत्य है। पति पत्नी दोनों साथ गये या अलग अलग! यह पता नहीं मगर दोनों गये। घसीटे नहीं गये। झगड़ा रहा अलग, मगर कहीं न कहीं प्रचार का मोह तो रहा होगा, वरना क्या सोचकर गये थे कि वहां से कोई दहेज लेकर दोबारा अपना घर बसायेंगे?
छोटे आदमी में बड़ा आदमी बनने का मोह होता है। छोटा आदमी जब तक छोटा है उसे समाज में बदनामी की चिंता बहुत अधिक होती है। बड़ा आदमी बेखौफ हो जाता है। उसमें दोष भी हो तो कहने की हिम्मत नहीं होती। कोई कहे भी तो बड़ा आदमी कुछ न कहे उसके चेले चपाटे ही धुलाई कर देते हैं। यही कारण है कि प्रचार के माध्यम से हर कोई बड़ा बनना या दिखना चाहता है। ऐसे में विवादास्पद बनकर भी कोई बड़ा बन जाये तो ठीक मगर न बना तो! ‘समरथ को नहीं दोष, मगर असमर्थ पर रोष’ तो समाज की स्वाभविक प्रवृत्ति है।
एक मामूली दंपत्ति को क्या पड़ी थी कि एक प्रचार के माध्यम से कमाई करने वाले कार्यक्रम में एक ऐसी महिला से न्याय मांगने पहुंचे जो खुद अभी समाज का मतलब भी नहीं जानती। इस घटना से प्रचार के लिये लालायित युवक युवतियों को सबक लेना चाहिए। इतना ही नहीं मस्ती में आनंद लूटने की इच्छा वाले लोग भी यह समझ लें कि यह दुनियां इतनी सहज नहीं है जितना वह समझते हैं।
प्रस्तुत है इस पर एक कविता
—————-
घर की बात दिल ही में रहे
तो अच्छा है,
जमाने ने सुन ली तो
तबाही घर का दरवाज़ा खटखटायेगी,
कोई हवा ढूंढ रही हैं
लोगों की बरबादी का मंजर,
दर्द के इलाज करने के लिये
हमदर्दी का हाथ में है उसके खंजर,
जहां मिला अवसर
चमन उजाड़ कर जश्न मनायेगी।
——

कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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घर की बात दिल में ही रहे-हिन्दी व्यंग्य और शायरी (ghar ki baat dil mein rah-hindi vyangya aur shayri)

आतंक और युद्ध में फर्क होता है-हिन्दी लेख (diffarence between terarrism and war-hindi aticle)


फर्जी मुठभेड़ों की चर्चा कुछ
इस तरह सरेआम हो जाती कि
अपराधियों की छबि भी
समाज सेवकों जैसी बन जाती है।
कई कत्ल करने पर भी
पहरेदारों की गोली से मरे हुए
पाते शहीदों जैसा मान,
बचकर निकल गये
जाकर परदेस में बनाते अपनी शान
उनकी कहानियां चलती हैं नायकों की तरह
जिससे गर्दन उनकी तन जाती है।
——–
टीवी चैनल के बॉस ने
अपने संवाददाता से कहा
‘आजकल फर्जी मुठभेड़ों की चल रही चर्चा,
तुम भी कोई ढूंढ लो, इसमें नहीं होगा खर्चा।
एक बात ध्यान रखना
पहरेदारों की गोली से मरे इंसान ने
चाहे कितने भी अपराध किये हों
उनको मत दिखाना,
शहीद के रूप में उसका नाम लिखाना,
जनता में जज़्बात उठाना है,
हमदर्दी का करना है व्यापार
इसलिये उसकी हर बात को भुलाना है,
मत करना उनके संगीन कारनामों की चर्चा।
———–

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अब अंधेरों से डरने लगे हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता


रौशनी के आदी हो गये, अब अंधेरों से डरने लगे हैं।
आराम ने कर दिया बेसुध, लोग बीमारियों से ठगे हैं।।
पहले दिखाया सपना विकास का, भलाई के ठेकेदारों ने
अब हर काम और शय की कीमत मांगने लगे हैं।।
खिलाड़ी बिके इस तरह कि अदा में अभिनेता भी न टिके
सौदागर सर्वशक्तिमान को भी सरेराह बेचने लगे हैं।
अपनी हालातों के लिये, एक दूसरे पर लगा रहे इल्ज़ाम,
अपना दामन सभी साफ दिखाने की कोशिश में लगे हैं।।
टुकुर टुकुर आसमान में देखें दीपक बापू, रौशनी के लिए,
खुली आंखें है सभी की, पता नहीं लोग सो रहे कि जगे हैं।।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चमकती चीजों का वजूद–हिन्दी व्यंग्य कविता


चमकता पत्थर हो या हीरा
देखने में एक जैसा नज़र आता है।
चमकती चीजों का वजूद
वैसे भी आंखों से आगे कहां जाता है।
पेट की भूख बुझाता अन्न,
गले की प्यास को हराता जल,
सर्वशक्तिमान का तोहफा है
मिलता है आसानी से इंसान को
शायद इसलिये अनमोल नहीं कहलाता है।
—————————–
तूफान जैसा क्यों
भागना चाहते हो,
हवा की तरह बहने में भी मजा आता है।
उम्र कम है तेजी से दोड़ने वालों की
बढ़ती गति के साथ
डोर टूट जाती है ख्यालों की
आसमान छूने की चाहत बुरी नहीं है
पर तारे हाथ आयें या चंद्रमा
पत्थर के टुुकड़ों या मिट्टी के
ढेर के अलावा हाथ क्या आता है।
——–

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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बेईमान चढ़े हैं हर शिखर पर-हिन्दी शायरी (beiman shikhar par-hindi shayri)


उनके दिखाये सपनों का पीछा करते कई घर तबाह हो गये,
अंधेरे को भगाने के लिये जलाई आग में अंधे स्वाह हो गये।
जंग भड़काई थी जमाने में, ईमान और इंसाफ लाने के लिये
हार गये तो अपने ही दोस्तों के खिलाफ एक गवाह हो गये।
मुखौटा लगाया पहरेदार का, सब का भरोसा जीतने के लिये,
लुट गया सामान, भरोसा करने वालों के चेहरे स्याह हों गये।
जिंदगी बनाने का दावा करने वालों पर नहीं करना भरोसा,
बेईमान चढ़े हैं हर शिखर पर, ईमानदार अब तबाह हो गये।
———–

हंसना और रोना भी व्यापार है-हिन्दी शायरी (hansha aur rone ka vyapar-hindi shayri)
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दौलत कमाने से अधिक वह
उसे छिपाने के लिये वह जूझ रहे हैं,
उनके अमीर होने पर किसी को शक नहीं
लोग तो बस उनके
काले ठिकानों की पहेली बूझ रहे हैं।
——–
इतनी दौलत कमा ली कि
उसे छिपाने के लिये वह परेशान है,
खौफ के साये में जी रहा खुद
फिर भी जमाने को लूटने से उसको फुरसत नहीं
उसकी अदाओं पर जमाना हैरान हैं।
———-
यूं तो दुनियां को वह
ईमान का रास्ता बताते है,
पर मामला अगर दौलत का हो तो
वह उसे खुद ही भटक जाते हैं।
——-
उनका हंसना और रोना भी व्यापार है,
पैसा देखकर मुस्कराते है,
कहो तो रोकर भी दिखाते हैं,
अकेले में देखो उनका चेहरा
लोग क्या, वह स्वयं ही डर जाते हैं।
———–

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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हवस और तकदीर-हिंदी शायरी


रोटी के भूखे को एक टुकड़ा भी
खुश कर जायेगा,
आधा पेट भरने पर भी
वह खुश हो जायेगा।
मगर अपनी हवस में ढूंढते हैं तकदीर
वह हमेशा रहेगा भूखा
जब तक सामने से आकर कोई
आंख में नश्तर न चुभा जायेगा।
———-
अपनी तबाही खुद करने पर
जब आमादा होता है इंसान,
हवस में ढूंढता है अमृत
चंद लफ्ज हमदर्दी के जताने वाले को
फरिश्ता समझ लेता है।
पेट की भूख तो मिटा देती है रोटी
पर हवस में अंधा इंसान
अपनी तकदीर अपने हाथ से बिगाड़ लेता है।
——–

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मनुष्य कभी बंदर नहीं रहा होगा-हिन्दी लेख (manushya kabhi bandar nahin tha-hindi lekh)


हमारे ब्लाग लेखक मित्र उन्मुक्त अपने आप में एक रहस्यमय व्यक्त्तिव के स्वामी हैं। उनके निज व्यक्त्तिव को लेकर कयास लगाते हुए अनेक ब्लाग लेखकों ने कुछ पाठ भी लिखें हैं। कुछ ब्लाग लेखक ऐसे हैं जो अब उनके बारे में कोई कयास नहीं लगाते। इसका कारण यह है कि उनके निज रहस्यों पर अनुमान करने की बजाय उनके लेखन के आधार पर बहुत कुछ समझ गये हैं। कोई आदमी अपना नाम गुप्त रखते हुए निवास अदृश्य स्थान पर बना सकता है पर अगर वह अपने हाथों से लिखकर बाहर शब्द भेजेगा तो वह उसकी पूरी कहानी बयान कर देंगे। इसके लिये यह जरूरी है कि उसका लिखा कोई पढ़े और फिर समझे। यकीनन उन्मुक्त अपने नाम के अनुरूप उन्मुक्त भाव से लिखते हैं और सच्चाई यह है कि उन जैसे पचास या सौ लेखक अगर इस इंटरनेट पर हिन्दी लिखने आ जायें तो भले ही हमारी भाषा के पाठों की संख्या कम हो पर उसका प्रभाव बहुत दूर तक रहेगा।
उनका ‘डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत’ की अवधारणाओं को भारत के प्राचीन हिन्दू धर्मग्रथों में ढूंढने का प्रयास एकदम नया है। सृष्टि के संबंध में इस लेखक द्वारा लिखे गये एक पाठ का उन्मुक्त जी ने उल्लेख करते हुए ‘डार्विन के विकासवाद’ के सिद्धांत को पतंजलि योग दर्शन में देखने का आग्रह करने के साथ ही एक पाठ लिख डाला।
यहां उन्मुक्त जी के उस पाठ की एक बात का उल्लेख करना जरूरी लगता है जिसमें उन्होंने भगवान विष्णु के चौदह अवतारों में मानव विकास के सिद्धांत को स्थापित करने का प्रयास किया है। उनके इस प्रयास ने हैरान कर दिया। पतंजलि योग दर्शन में विकास वाद के सिद्धांत को ढूंढने का उनका आग्रह अभी तक इस लेखक को समझ में नहीं आया पर यह अकारण या अतार्किक नहीं हो सकता जिस पर कभी विचार अवश्य करेंगे।
यह लेखक कभी विज्ञान का विधार्थी नहीं रहा पर भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों के वर्णनों को नये संदर्भों में देखने का प्रयास किया-वह भी इसलिये क्योंकि अंतर्जाल पर उस पर लिखने में मजा आने लगा। उन्मुक्त संभवतः आयु में इस लेखक से छोटे होंगे पर अंतर्जाल पर वरिष्ठ हैं और कहना चाहिए कि उनका विशद अध्ययन पहले ही प्रारंभ हो गया होगा। उन्मुक्त जी के डार्विन के विकासवाद बहुत सारे लेख देखने को मिले। भारत के प्राचीन ग्रंथों को नये संदर्भों में देखने की इच्छा के विषय में इस लेखक और उन्मुक्त जी की दिलचस्पी समान हो सकती है पर जहां पाश्चात्य विज्ञानियों के सिद्धांतों की तुलना की बात आयेगी वहां उन्मुक्त जी की बात का जवाब देना बहुत कठिन है क्योंकि उसके लिये आधुनिक विज्ञान का व्यापक अध्ययन होना आवश्यक है।
इस लेखक ने पश्चिमी वैज्ञानिक के विकासवाद के सिद्धांत के बारे में यह पढ़ा है कि ‘मानव पहले एक बंदर या उस जैसा जीव था। जिसकी पूंछ धीरे धीरे लुप्त होती गयी।’
उनके इसी सिद्धांत के कारण पूरा विश्व मानता है कि मनुष्य के पूर्वज बंदर थे।
यह लेखक उनके सिद्धांतों से असहमत होता है। वैसे इस लेखक ने एक पाश्चात्य विज्ञानी का ही एक लेख पढ़ा था जिसमें सभ्यता के विकास का वर्णन दिलचस्प था। उसमें बताया गया था कि मनुष्य अफ्रीका (शायद दक्षिण अफ्रीका) में प्रकट हुआ पर वहां उसे सभ्यता का ज्ञान नहीं था। वहां से वह भारत गया जहां उसका बौद्धिक परिष्कृतीकरण हुआ। फिर भारत से फिर वह मध्य एशिया गया जहां उसे अधिक ज्ञान मिला-एक तरह से कहें तो इस मायावी संसार की जानकारी। वह फिर भारत लौटा तथा धीमे धीमे बौद्धिक रूप से समृद्ध होकर पूरे विश्व में फैला। हम इन दोनों सिद्धांतों के बीच में खड़े होकर विचार करते हैं। इस लेखक का मानना है कि किसी भी सर्वमान्य सिद्धांत का अगर अवलोकन करना हो तो उसके साथ बहने की बजाय उसे बाहर निकलते हुए दृष्टा की तरह बहते हुए देखना चाहिये। हम किसी वैज्ञानिक के सिद्धांतों के प्रतिपादन के समर्थन में दिये तथ्यों के साथ बहते जायें अच्छी बात है, पर एक बार अपनी जगह पर मस्तिष्क स्थिर कर उसे सामने से आते देखें और फिर निष्कर्ष निकालें। जब डार्विन का सिद्धांत देखते है और आज का मनुष्य पर दृष्टिपात करते हैं तो लगता है कि अगर यह सही है कि मनुष्य कभी बंदर था पर सभी जगह उसका रूप बदल गया यह सही नहीं लगता। आखिर मनुष्य में दैहिक आधार पर अभी भी गोरे, काले, नाटे, लंबे, मोटे और पतले के आधार पर विभाजन दिखाई देता है वह क्यों नहीं समाप्त हुआ। मनुष्य देह तथा पांच तत्वों से बनी है-यह भारतीय अध्यात्म कहता है जबकि पाश्चात्य विज्ञान का यह मानना है कि अनेक प्रकार के छोटे अणु मिलकर इस संसार को बनाते हैं। हम पाश्चात्य ज्ञान को आधुनिक मानते हैं पर कभी पंच तत्वों का अवालोकन किया है! प्रथ्वी, आकाश, अग्नि, वायु तथा जल छोटे अणुओं या बूंदों के समूह से बनते हैं इसके लिये किसी विस्तार की आवश्यकता नहीं है। भारतीय दर्शन में इसका उल्लेख नहीं हुआ तो इसका कारण यह है कि इसकी जरूरत नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय ज्ञान परंपरा सभ्यता प्रारंभ होते ही निर्मित हो गयी थी। भारत में बौद्धिक रूप से समृद्ध होकर मनुष्य पूरे विश्व में फैला क्योंकि यहां ज्ञान की धारा में वह नहा चुका था। इधर जब पाश्चात्य समाज की शक्ति बढ़ी तो उसने अपने ढंग से सोचना प्रारंभ किया। जब वहां रहे मनुष्यों की स्मृति पीढ़ियों के साथ शनैः शनैः विलुप्त होती गयी तब वहां आधुनिक विज्ञान का प्रारंभ हुआ। उन्होंने खोज शुरु की पर यह सभ्यता प्रारंभ होने तथा आधुनिकता के चरम के बीच की थी। जबकि भारत में वेद जैसे महाग्रंथों की रचना तो मनुष्य जीवन के साथ ही प्रारंभ हो गयी थी। इसलिये ही जब भी कोई पाश्चात्य सिद्धांत सर्वमान्य होता है तो उसके तत्व भारतीय धर्मग्रंथों में मिलते हैं। विश्व सभ्यता के विकास का दूसरा सिद्धांत हम देखें तो इससे इस बात की पुष्टि होती है। भारतीय खोज प्राचीन है जबकि पाश्चात्य खोज नवीनतम है पर इससे मूल तत्व नहीं बदलते। हां, भाषा, भाव तथा संप्र्रेषण के तरीके में थोड़ी भिन्नता हो सकती है। खासतौर से तब जब भारतीय ग्रंथों की रचना के समय उसमें साहित्य का पुट देने का प्रयास किया गया तो उसमें व्यंजना विद्या के साथ अनेक प्रकार के शाब्दिक अलंकरण भी सजायें गये जिसमें चमत्कार होने का आभास भी होता है।
अब आते हैं उक्त पश्चिमी वैज्ञानिक के विकासवाद के सिद्धांत के सिद्धांत पर। उसमें दम नज़र नहीं  आता। मनुष्य यानि कोई एक नहीं बल्कि पुरा समुदाय। यह संभव नहीं है कि पूरे विश्व के मनुष्यों की पूंछ लापता हो जाये। अगर हम उनकी यह बात मान लें तो फिर यह सवाल भी आता है कि पूरे विश्व के मनुष्यों का रंग या कद काठी एक जैसी क्यों नहीं है! एक ही परिवार में रहने वाले व्यक्तियों के रंग, कद तथा चाल में अंतर कैसे होता है? अगर बंदर के रूप से मनुष्य का स्वरूप बदला तो फिर देह के अन्य हिस्सों में समानता क्यों नहीं  आयी?
कहने का अभिप्राय यह है कि यह सिद्धांत कल्पित लगता है। उन्मुक्त जी ने अवतारों की बात मानव विकास के सिद्धांतों से जोड़ने का प्रयास किया है। अच्छा और भावपूर्ण लगा। पर यहां भी याद रखने लायक यह बात है कि मत्स्यावतारहो या नरसिंह अवतार, जिस काल में हुए उस समय वर्तमान काल जैसी ही देहवाले ही मनुष्य थे। इसका आशय यह है कि उस समय तक मनुष्य का विकास हो चुका था। ऐसे में चाहे मत्स्यावतार हो या नरसिंह अवतार वह उस समय के समूचे मनुष्य समुदाय की दैहिक स्थिति का प्रतिबिम्ब नहीं कहे जा सकते।
मनुष्य के पूर्वज अगर बंदर होते तो पूरे विश्व में उनकी पूंछ लुप्त नहीं हो सकती थी। रीढ़ के हड्डी एकदम नीचे बने उभरे ठोस तत्व को देखकर वहां पूंछ होने की बात बेमानी है क्योंकि दरअसल पूरी देह का आधार स्तंभ है और हम यह मानते हैं कि सृष्टि ने हर चीज सोच समझकर बनायी है ताकि जीवन की धारा यहां बह सके। दूसरा यह भी कह सकते हैं कि बनी तो ढेर सारी चीजें होंगी पर जिनका वैज्ञानिक आधार मजबूत रहा वही आगे जीवन यात्रा जारी रख पायीं जैसे कि मनुष्य की रीढ़ की हड्डी का वह मूलाधार चक्र जहां पूंछ होने की कल्पना की जाती है।
आखिरी बात अगर मनुष्य बंदर था तो अभी भी इस धरती पर इतने सारे बंदर क्यों है? एक बदंर ने इस लेखक से हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद इस तरह छीन ले गया था कि जैसे कि उसका उस पर अधिकार हो, यह सरासर लूट थी पर बंदर तो कानून के दायरे से बाहर हैं। उस समय यह लेखक सोच रहा था कि क्या पूरी धरती पर जब मनुष्य धीरे धीरे अपनी पूंछ की लंबाई खो रहा था-कहा जाता है कि कुछ बंदर कपड़े पहनने लगे थे और इसके कारण उनकी पीढ़ियों का शनै शनै परिवर्तन हो रहा था-तब क्या बंदरों का एक समुदाय मनुष्य होने से बचने के लिये प्रयास कर रहा था ताकि भविष्य में सभ्य कानून उस पर लागू न हों और वह चाहे जैसी लूट करे कहलायेगा बंदर ही और बच जायेगा। शुरुआती दौर में मनुष्य और बंदरों मे अंतर अधिक नहीं रहा होगा पर धीरे धीरे संवाद की कमी के कारण ऐसा भी हो गया कि दोनों का संपर्क टूट गया। इस सिद्धांत पर यकीन न करने का कारण यह भी है कि इस धरती पर ऐसा कहीं सुनने को नहीं मिलता कि कोई मनुष्य कपड़े सिलवाने के लिये किसी दर्जी के पास गया हो और पूंछ वाली जगह पर छेद रखने का आग्रह करता हो। अगर बंदर से मनुष्य बना है तो एक नहीं ऐसे लाखों उदाहरण होते। जैसे मनुष्य अब काले, गोरे, नाटे, लंबे, मोटे, पतले तथा आदिवासी और आधुनिक वर्ग में बंटा हुआ, वैसे ही यहां पूंछ वाले और बिना पूंछ वाले दोनों प्रकार के मनुष्य होते। इतना ही नहीं विवाहों के अवसर पर यह तो देखा ही जाता कि हर दंपति पुंछ या बिना पूंछ वाला ही होना चाहिये वरना दोनों एक दूसरे की मजाक उड़ायेंगे। पूंछ की लंबाई भी देखी जाती। दूसरी बात यह कि अगर मनुष्य पूंछ वाले होते तो एक दूसरे की पूंछ खींचकर लड़ मर गये होते। उनकी इतनी बड़ी संख्या नहीं होती। चाहे कोई कितना भी कहें मानवीय स्वभाव जैसा आज है वैसा पहले भी था। यह बदल नहीं सकता। कुछ बातें व्यंग्य में लिखी है कुछ गंभीर हैं पर सच यह है कि यह सब इस लेखक के मन में बहुत समय से चलता रहा है। सो लिख दिया। इस विषय पर आगे भी लिखेंगे पर फिलहाल इतना ही।

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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इस ब्लाग ने पार की एक लाख पाठक संख्या-विशेष संपादकीय


इस ब्लाग ने आज एक लाख की पाठक संख्या को पार किया।  एक लाख पार करने वाला यह इस लेखक का तीसरा ब्लाग है।  इसकी यह यात्रा बहुत सुस्त इस मायने में रही कि इसके बाद बने दो ब्लाग इस संख्या को पहले ही पार चुके हैं।  दिलचस्प बात यह कि इस लेखक ने अपने जीवन में अंतर्जाल जगत के हिन्दी लेखन के क्षेत्र में पदार्पण इसी ब्लाग से किया था।  इसके पिछडने का मुख्य कारण यह है कि इसका पता बहुत लंबा है और इसे बिना सोचे समझे बनाया गया था।  तब यह तकनीकी ज्ञान नहीं  था कि यह इसका पता है और इसे बदलना अब कठिन होगा।
बहरहाल सुस्त रफ्तार के बावजूद यह ब्लाग इस लेखक की पहचान तो है ही साथ ही गूगल की चार रैंक प्राप्त यह पांचवा ब्लाग है।  अंतर्जाल पर हिन्दी लेखन की यात्रा बिना किसी आर्थिक समर्थन तथा भावनात्मक प्रेरणा के बिना तय करना मुश्किल लगता है पर अगर स्वातं सुखाय लेखन हो तो यह कठिन नहीं रहता।
अक्सर लोग सवाल करते हैं कि आप इतने सारे ब्लाग का प्रबंध कैसे करते हो? दरअसल इसका कारण इस लेखक की स्वप्रेरणा और लापरवाही है। इतने सारे ब्लाग बनाये तब यह सोचा ही नहीं था कि इनका प्रबंध रैंक के बनाये रखने के लिये करना जरूरी होगा-यह लापरवाही थी। चूंकि इस लेखक को हर विद्या में लिखने का शौक है इसलिये इस बात के प्रति आश्वस्त था कि स्वप्रेरणा के स्त्रोत इतनी आसानी से नहीं सूखने वाले।  इतना क्यों लिखते हैं? सीधा सा जवाब है कि मनोरंजन के नाम पर लिखने से अधिक कोई अच्छा साधन नहंी दिखता।  खासतौर से गुरुजनों की कृपा था माता सरस्वती का आशीर्वाद इस स्वप्रेरणा में सहायक है। टीवी देखना, अखबार पढ़ना या रेडियो सुनना कोई बुरा साधन नहीं है बशर्ते कि आपके चिंतन के तत्व सुप्तावस्था में हों।  बाजार और उसका बंधुआ प्रचार माध्यम-जो स्वतंत्र होने का दावा भर करते हैं-अपना धार्मिक, शैक्षिक तथा उपभोग का ऐजेंडा सामने रखकर दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं को बंधुआ बनाये हुए हैं। उसमें वह सफल  भी हुए हैं।  अगर आप लेखक हैं तो अभिव्यक्त होने के लिये आपके पास इन्हीं माध्यमों के पास जाने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं है। दूसरा रास्ता यह है कि आप अपनी लेखन और चिंतन को सुप्तावस्था में रखकर बाजार और प्रचार माध्यमों के ऐजेंडे पर चलते जायें।
ऐसे में आप ब्लाग लिखकर अपनी अभिव्यक्ति को स्वतंत्र दिशा दे सकते हैं। मुश्किल यह है कि आपको तकनीकी ज्ञान होने के साथ हिन्दी या अंग्रेजी का टाईप का ज्ञान होना चाहिये। अगर आप ऐसा नहीं करते तो लिखकर किसी को यह काम सौंपे पर आपको यह अफसोस तो रहेगा कि आप स्वयं ऐसा नहंी कर पार  रहे। बाजार ने मोबाइल और  माउस हाथ में पकड़ाकर एक उंगली  के इशारे पर काम करना सिखाया है इसलिये अब कोई दसों उंगलियां चलाने वाला काम करना ही नहीं चाहता-टाईप सीखना लोगों को बोझिल लगता है। फिर इंटरनेट पर नये टाईप का मनोरंजन ढूंढने के लिये माउस जो है।  ऐसे में वह भाग्यशाली हैं जो स्वयं टाईप कर सकते हैं और यह लेखक उनमें शामिल है।  तब क्यों न परमात्मा को धन्यवाद देते हुए लिखते रहना चाहिये।
यह सच है कि अंतर्जाल पर हिन्दी लिखने से कोई प्रसिद्धि नहीं मिलती पर यह भी तय है कि भविष्य का हिन्दी लेखन यहीं से होकर गुजरेगा।  इसके दो कारण है कि इस पर अव्यवसायिक लोगों का जमावड़ा होगा जो कि बिना किसी दबाव के लिखेंगे। दूसरा यह कि परंपरागत विद्याओं से अलग यहां पर संक्षिप्तीकरण का अधिक महत्व रहेगा। अगर हम यहां देखें तो गद्य और पद्य की दृष्टि से विषय सामग्री महत्वपूर्ण नहीं  जितना कि उसका भाव है।  सामान्य तौर से समाचार पत्र पत्रिकाओं में कवितायें देखकर मुंह बिचकाते हैं पर यहां ऐसा नहीं है। इसका कारण यह है कि कथ्य और तथ्य की रोचकता होने पर उसकी विद्या का महत्व अंतर्जाल पर अधिक नहीं
रहता।  कम से कम वर्डप्रेस के ब्लाग पर कविताओं को मिलने वाले समर्थन को देखकर तो यही लगता है।
जो लोग स्वतंत्र और मौलिक रूप से अंतर्जाल पर लिख रहे हैं वह लिखने के बाद इस बात में रुचि कम लें कि उनका लिखा कितना लोग पढ़े रहे हैं क्योंकि इससे वह कुंठा का शिकार हो जायेंगे।  दूसरी बात यह भी कि उनके पाठ दूसरे लोग नहीं  पढ़ते बल्कि उनके पाठ भी अपने पाठकों  को पढ़ते हैं। यह बात टिप्पणियों से तो पता लगती ही है। जब किसी पाठ को अधिक और निरंतर पढ़ा जा रहा है। दूसरे उसे लिंक दे रहे हैं तो समझ लीजिये कि आपकी लिखी बात आगे बढ़ रही है।  अपने लिखे का पीछा न कर दूसरों को भी पढ़ें।  सबसे बड़ी बात यह है कि लिखकर अपने लेखक होने का गुमान न पालकर एक पाठक हो जायें तब आप देखेंगे कि आपकी रचनायें कैसे स्वाभाविक रूप से बाहर आती है। जहां आपने सफलता की सोचा वहां लड़खड़ाने लगेंगे।  चित्रों को लगाकर परंपरागत प्रचार माध्यमों की बराबरी न करें क्योंकि शब्दों के खेल के सामने कोई भी तस्वीर टिक नहीं सकती।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि टीवी, रेडियो या अखबार से जुड़े रहने पर आप स्वयं अभिव्यक्त नहीं होते। किसी बात पर कुड़ते हैं तो कहें या लिखें कहां? ब्लाग इसके लिये बढ़िया साधन है।  किसी का नाम न लिखकर व्यंजना विधा में लिखें। इससे दो लाभ कि आप अपनी बात भी कह गये और दूसरे को मुफ्त में प्रचार भी नहंी दिया। इस अवसर ब्लाग लेखक मित्रों को उनके सहयोग के लिये धन्यवाद तथा पाठकों का आभार जिन्होंने इसे यहां तक पहुंचने में सहायता की।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर

जल संकट और हमदर्द-हिन्दी हास्य कविता (jal sakat aur hamdard-hindi hasya kavita)


लोगों के जल संकट से
हमदर्दी जताने के लिये उन्होंने
पूरा एक दिन सड़क पर
अनशन कर बिताया।
भले ही तंबू को चारों तरफ से ढंककर
गर्मी से बचने के लिये ऐसी भी लगवाया,
समय अच्छा बीते इसलिये टीवी भी चलवाया,
चेलों ने मजे लेकर नारे लगाये
उनको लोगों का सबसे बड़ा हमदर्द दिखाया।
———-

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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किताब और हादसे-हिन्दी हास्य कवितायें


दिन भर वह दोनों ज्ञानी

अपने शब्दों की प्रेरणा से

लोगों को लड़ाने के लिये

झुंडों में बांट रहे थे,

रात को ईमानदारी से

लूट में मिले सामान में

अपना अपना हिस्सा

ईमानदारी से छांट रहे थे।

——-

शब्द रट लेते हैं किताबों से,

सुनाते हैं उनको हादसों के हिसाबों से,

पर अक्लमंद कभी खुद जंग नहीं लड़ते।

नतीजों पर पहुंचना

उनका मकसद नहीं

पर महफिलों में शोरशराबा करते हुए

अमन की राह में उनके कदम

बहुत  मजबूती से बढ़ते।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बंटवारा-हास्य व्यंग्य कवितायें


<b>पहले जाति में बांटा
भाषा में छांटा
और धर्म में काटा
फिर समाज में एकता की कोशिश
अमन के ठेकेदार करने लगे।
नारी की तरक्की देखकर
हक के नाम पर लड़ाने के लिये
उसे भी अब बांटने, छांटने तथा काटने  के लिये जगे।
……………………………….
क्या पता नारियां आगे बढ़कर
कहीं दुनियां में एकता न स्थापित कर दें
इस खौफ से
जमाने की फूट पर रोटियां सैंकने वाले
कंपने लगे हैं।
इसलिये ही जाति, भाषा और धर्म के
अलग अलग खंडों में नारियों को भी बांटने लगे हैं।
————-
मां है
बहिन है
पत्नी है
और बेटी है
नारी हर रिश्ता ईमानदारी से निभाती है।
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
लड़ने वाले पुरुषों की जननी जरूर है
पर फिर भी अपनी निर्मलता पर नहीं उसे गरुर है
इज्जत के अहंकार में लड़ने वाले  पुरुष
जब उसके  हकों में पुराने जमाने के तर्क देने लगे
समझ लो उन्हें स्त्री सत्ता की आशंकायें सताती हैं।
—————-
जमाना बदल रहा है
महिलाओं के हकों के लिये
पुरुष भी लड़ने लगे हैं।
इसे चालाकी कहें या सादगी कि
जाति, धर्म और भाषा के नाम पर
महिलाओं को आगे लाने की बात कर
अपने समूहों के भले का नारा देने वाले ठेकेदार
अपनी रोटी सैंकने के लिये भी तत्काल जगे हैं। </b>
———
<b>लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com</b&gt;
————————————-
<blockquote>
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चमचागिरी का फन-हिन्दी शायरी


बाजार के खेल में चालाकियों के हुनर में
माहिर खिलाड़ी
आजकल फरिश्ते कहलाते हैं।
अब होनहार घुड़सवार होने का प्रमाण
दौड़ में जीत से नहीं मिलता,
दर्शकों की तालियों से अब
किसी का दिल नहीं खिलता,
दौलतमंदों के इशारे पर
अपनी चालाकी से
हार जीत तय करने के फन में माहिर
कलाकार ही हरफनमौला कहलाते हैं।
———-
काम करने के हुनर से ज्यादा
चमचागिरी के फन में उस्ताद होना अच्छा है,
अपनी पसीने से रोटी जुटाना कठिन लगे तो
दौलतमंदों के दोस्त बनकर
उनको ठगना भी अच्छा है।
अपनी रूह को मारना इतना आसान नहीं है
इसलिये उसकी आवाज को
अनसुना करना भी अच्छा है।
किस किस फन को सीख कर जिंदगी काटोगे
नाम का ‘हरफनमौला’ होना ही अच्छा है।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

————————————-

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अमीर का पीछा नहीं छोड़ता ज़मीर-हिन्दी हास्य व्यंग्य कविताएँ


आदर्श पुरुषों ने अपनी दरबार में
देशभक्ति का नारा बड़े तामझाम के साथ सजाया।
बाजार को बेचनी थी मोमबत्तियों
शहीदों के नाम पर,
इसलिये प्रचारकों से नारे को संगीत देने के लिये
शोक संगीत भी बजवाया।
भेजे आदर्श पुरुषों के नाम से
रुपयों से भरे लिफाफे
जिनकी समाज सेवा से आम इंसान हमेशा कांपे
दिल में न था भाव फिर भी
आदर्श पुरुषों के खौफ से
सभी ने देशभक्ति का गीत गाया।
———
उनकी देशभक्ति की दुहाई,
कभी नहीं सुहाई,
मुखौटे हैं वह बाजार के सौदागरों के
जो जज़्बात बेचने आते हैं,
उनकी जुबां कभी बोलती नहीं
पर पर्दे के पीछे
वही संवाद लिखकर लाते हैं,

खरीदे देशभक्तों ने बस, उनको दोहराया ।
——————–
इंसान की हर अदा पर मिलते हैं

पर सच बोलने पर कोई इनाम नहीं होता।

कितना भी हो जाये कोई अमीर,

पीछा नहीं छोड़ता उसका जमीर,

कैसे दे सकते हैं इनाम, उस शख्स को

बोलता है हमेशा सच जो,

खड़ी है दौलत की इमारत उनकी झूठ पर

चाटुकारों को लेते हैं, अपनी बाहों में भर

क्योंकि सच बोलने वालो से उनका काम नहीं होता।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

————————-
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होली के अवसर पर विशेष लेख (special article on holi festival)


होली हमारे देश का एक परंपरागत त्यौहार है जो उल्लास से मनाया जाता रहा है। यह अलग बात है कि इसे मनाने का ढंग अब लोगों का अलग अलग हो गया है। कोई रंग खेलने मित्रों के घर पर जाता है तो कोई घर पर ही बैठकर खापीकर मनोरंजन करते हुए समय बिताता है। इसका मुख्य कारण यह है कि जब तक हमारे देश में संचार और प्रचार क्रांति नहीं हुई थी तब तक इस त्यौहार को मस्ती के भाव से मनाया जरूर जाता था पर अनेक लोगों ने इस अवसर पर दूसरे को अपमानित और बदनाम करने के लिये भी अपना प्रयास कर दिखाया। केवल शब्दिक नहीं बल्कि सचमुच में नाली से कीचड़ उठाकर फैंकने की भी घटनायें हुईं। अनेक लोगों ने तो इस अवसर पर अपने दुश्मन पर तेजाब वगैरह डालकर उनको इतनी हानि पहुंचाई कि उसे देख सुनकर लोगों का मन ही इस त्यौहार से वितृष्णा से भर गया। तब होली उल्लास कम चिंता का विषय बनती जा रही थी।
शराब पीकर हुड़दंग करने वालों ने लंबे समय तक शहरों में आतंक का वातावरण भी निर्मित किया। समय के साथ सरकारें भी चेतीं और जब कानून का डंडा चला तो फिर हुडदंगबाजों की हालत भी खराब हुई। हर बरस सरकारें और प्रशासन होली पर बहुत सतर्कता बरतता है। इस बीच हुआ यह कि शहरी क्षेत्रों में अनेक लोग होली से बाहर निकलने से कतराने लगे। एक तरह से यह उनकी आदत बन गयी। अब तो ऐसे अनेक लोग हैं जो इस त्यौहार को घर पर बैठकर ही बिताते हैं।
जब सरकारों का ध्यान इस तरफ ध्यान नहीं था और पुलिस प्रशासन इसे सामान्य त्यौहारों की तरह ही लेता था तब हुड़दंगी राह चलते हुए किसी भी आदमी को नाली में पटक देते। उस पर कीचड़ उछालते। शहरों में तो यह संभव ही नहीं था कि कोई पुरुष अपने घर की स्त्री को साथ ले जाने की सोचे। जब पूरे देश में होली के अवसर पर सुरक्षा व्यवस्था का प्रचनल शुरु हुआ तब ऐसी घटनायें कम हो गयी हैं। इधर टीवी, वीडियो, कंप्यूटर तथा अन्य भौतिक साधनों की प्रचुरता ने लोगों को दायरे में कैद कर दिया और अब घर से बाहर जाकर होली खेलने वालों की संख्या कम ही हो गयी है। अब तो यह स्थिति है कि कोई भी आदमी शायद ही अनजाने आदमी पर रंग डालता हो। फिर महंगाई और रंगों की मिलावट ने भी इसका मजा बिगाड़ा।
महंगाई की बात पर याद आया। आज सुबह एक मित्र के घर जाना हुआ। उसी समय उसके मोहल्ले में होली जलाने के चंदा मांगने वाले कुछ युवक आये। हमने मित्र से हाथ मिलाया और अंदर चले गये। उधर उनकी पत्नी पचास रुपये लेकर आयी और लड़कों को सौंपते हुए बोली-‘इससे ज्यादा मत मांगना।’
एक युवक ने कहा-‘नहीं, हमें अब सौ रुपये चाहिये। महंगाई बढ़ गयी है।’
मित्र की पत्नी ने कहा-‘अरे वाह! तुम्हारे लिये महंगाई बढ़ी है और हमारे लिये क्या कम हो गयी? इससे ज्यादा नहीं दूंगी।’
लड़के धनिया, चीनी, आलू, और प्याज के भाव बताकर चंदे की राशि बढ़ाकर देने की मांग करने लगे।
मित्र ने अपनी पत्नी से कहा-‘दे दो सौ रुपया, नहीं तो यह बहुत सारी चीजों के दाम बताने लगेंगे। उनको सुनने से अच्छा है इनकी बात मान लो।’
गृहस्वामिनी ने सौ रुपये दे दिये। युवकों ने जाते हुए कहा-‘अंकल और अंाटी, आप रात को जरूर आईये। यह मोहल्ले की होली है, चंदा देने से ही काम नहीं चलेगा। आना भी जरूर है।’
मित्र ने बताया कि किसी समय उन्होंने ही स्वयं इस होली की शुरुआत की थी। उस समय लड़कों के बाप स्वयं चंदा देकर होली का आयोजन करते थे अब यह जिम्मेदारी लड़कों पर है।’
कहने का अभिप्राय यह है कि इस सामूहिक त्यौहार को सामूहिकता से मनाने की एक बेहतर परंपरा जारी है। जबकि पहले जोर जबरदस्ती सामान उठाकर ले जाकर या चंदा ऐंठकर होली मनाने का गंदा प्रचलन अब बिदा हो गया है। जहां नहीं हुआ वह उसे रोकना चाहिये। सच बात तो यह है कि अनेक बेवकूफ लोगों ने अपने कुकृत्यों से इसे बदनाम कर दिया। यह खुशी की बात है कि समय के साथ अब उल्लास और शांति से यह त्यौहार मनाया जाता है।

इस अवसर पर कुछ क्षणिकायें 
————————————–
रंगों में मिलावट
खोऐ में मिलावट
व्यवहार में दिखावट
होली कैसे मनायें।
कच्चे रंग नहीं चढ़ता
अब इस बेरंग मन पर
दिखावटी प्यार कैसे जतायें।
———
रंगों के संग
खेलते हुए उन्होंने होली
कुछ इस तरह मनाई,
नोटों के झूंड में बैठकर
इठलाते रहे
इसलिये उनकी पूरी काया
रंगीन नज़र आयी।
———
अगर रुपयों का रंग चढ़ा गया तो
फिर कौनसे रंग में
बेरंग इंसान नहायेगा,
आंख पर कोई रंग असर नहीं करता
होली हो या दिवाली
उसे बस मुद्रा में ही रंग नज़र आयेगा।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
—————————
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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स्वयंवर का नया रूप-हिंदी हास्य कविता (svyanvar ka naya roop-hasya kavita)


पति ने पत्नी से कहा

‘ बहुत कोशिश पर भी इतने दिनों में

अपने बेटे की

 शादी नहीं करवा पाये,

कमाता कौड़ी भी नहीं है

पर कमाऊ दिखाने के लिये

अपने बैंक खाते भी उसके नाम करवाये।

जानने वाले लोग पोल खाते हैं

इसलिये क्यों न अब उसके लिये स्वयंवर

आयोजित किया जाये।

नयी परंपरा है

लोग दौड़े चले आयेंगे

हो सकता है कि काम बन जाये।’

पत्नी ने कहा

‘हां, अच्छा है

अपना बेटा भी भगवान राम की तरह ही गुणवान है,

भले ही कमाता नहीं पर अपनी शान है,

सीता जैसी बहू मिल जाये

तो जीवन धन्य हो जाये,

पर समधी भी जनक जैसा हो,

दहेज देने में झिझके नहीं, ऐसा हो,

पर किसी पर यकीन नहीं करना

अपने कार्यक्रम में ऐसे ही लोगों को

आमंत्रित करना जिनके पास माल हो,

ऐसा न कि बाद में बुरा हाल हो,

घुसने से पहले सभी को

अपनी मांग बता देना,

उनकी हालत भी पता कर लेना,

सभी खोये रहें इस नयी स्वयंवर परंपरा में

पर तुम कम दहेज पर सहमत न होना

कोई कितना भी समझाये।’
———————
कान में लगाये मोबाइल पर

ऊंची आवाज में बतियाते

पांव उठाता सीना तानकर

आंखों से बहती कुटिल मुस्कराहट

वह अभिमान से चला जा रहा है।

लोगों ने बताया

‘अपनी बेईमानी से कभी लाचार

वह भाग रहा था जमाने से

गिड़गिड़ाता तथा छोटे इंसानों के सामने भी

अब मिल गया है उसे लोगों के भला करने का काम

उसकी कमाई से उसका कद बढ़ता जा रहा है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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तकदीर और चालाकियां-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (taqdir aur chalaki-hindi comic poems


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

————————————
अपने गम और दूसरे की खुशी पर मुस्कराकर

हमने अपनी दरियादिली नहीं दिखाई।

चालाकियां समझ गये जमाने की

कहना नहीं था, इसलिये छिपाई।

——–

अपनी तकदीर से ज्यादा नहीं मिलेगा

यह पहले ही हमें पता था।

बीच में दलाल कमीशन मांगेंगे

या अमीर हक मारेंगे

इसका आभास न था।

———-

रात के समय शराब  में बह जाते हैं

दिन में भी वह प्यासे नहीं रहते

हर पल दूसरों के हक पी जाते हैं।

अपने लिये जुटा लेते हैं समंदर

दूसरों के हिस्से में

एक बूंद पानी भी हो

यह नहीं सह पाते हैं।

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कंप्यूटर विज्ञान का ज्ञाता कैसा हो-हिन्दी व्यंग्य


अमेरिकन लोगों का विश्वास है कि अगला बिल गेट्स भारत या चीन में पैदा होगा। यह एक सर्वे करने वाली एक ऐजेंसी ने बताया है। जहां तक चीन का सवाल है उसकी वर्तमान व्यवस्था में यह संभव नहीं लगता कि कोई एकल प्रयासों से ऐसा कर लेगा। फिर यह भी पता नहीं कि वहां पूंजीवाद का इतना खुला स्वरूप है कि नहीं। अलबत्ता भारत में इसकी संभावनाओं में कुछ संदेह लगता है क्योंकि जो प्रबंध कौशल बिल गैट्स का रहा है वह भारतीयों में बाहर तो दिखाई देता है पर अपने देश में वह लापता हो जाता है। बिल गैट्स इसलिये बिल गेट्स बन पाये क्योंकि हजारों तकनीशियनों और कर्मचारियों का समर्थन उनको मिला जिसका कारण यह है कि अमेरिका में वेतन का भुगतान ठीक ठाक से होता है।
भारत में कोई आदमी पूंजीपति बनने की तरफ पहला कदम बढ़ाता है तो अपने अंतर्गत काम करने वालों का शोषण करना उसका पहला लक्ष्य होता है। दूसरे को प्रोत्साहित करने की बजाय उसे दुत्कार कर काम लेना ही यहां के सेठों की मानसिकता रही है और यही कुशल प्रबंध की पहचान मानी जाती है। यह अलग बात है कि इसी कारण भारतीयों की छवि बाहर बहुत खराब है।
भारत के इंजीनियर भले ही साफ्टवेयर में महारत हासिल कर चुके हैं पर बिल गेट्स के करीब कोई नहीं दिखता। अलबत्ता एक आदमी ने कंप्यूटर जगत में काम कर अपनी कंपनी को उच्च स्तर पर पहुंचाया पर उसने ऐसे घोटाले किये कि अब वह जेल में है। बहुत कम लोगों को याद होगा कि लोग उसकी तुलना बिल गेट्स से करते थे जो शून्य से शिखर पर पहुंचा। कुछ लोग तो उसे भारत का बिल गेट्स तक कहते थे। मुश्किल यह है कि भारत में बिना घोटाले के बिल गेट्स पैदा होना चाहिये जिसकी संभावना नगण्य हील लगती है।
अलबत्ता भारत में बिल गेट्स के पैदा होने या उन जैसी छवि बनाने की संभावनाऐं उसी व्यक्ति के लिये हो सकती हैं जो कंप्यूटर को लालटेन से चलाने में सक्षम बनायेगा।

पूरे देश में बिजली की कमी जिस तरह होती जा रही है उससे तो यह लगता है कि इंटरनेट और कंप्यूटर का प्रयोग भी कठिन होता जायेगा। ऐसे में कोई ऐसा व्यक्ति अविष्यकार करे जो लालटेन से ही कंप्यूटर से ऊर्जा प्रदाय करने का कोई साधन बनाये तो वह लोकप्रिय हो पायेगा। लालटेन से इसलिये कह रहे हैं कि उससे दो काम हो जायेंगे। लालटेन सामने रखने से पास ही रखी किताब या कागज से सामग्री टंकित तो की जा सकेगी और कंप्यूटर भी चलता रहेगा। क्या सुंदर अविष्कार होगा? फिर अपने देश में पैट्रोल की कमी नहीं है। खूब आयात होता है। उसमें कंपनियों को बढ़िया कमीशन मिलता है तो यह संभव नहीं है कि उसका कभी आयात बंद हो।
वैसे तो बैटरी और जनरेटर से भी वैकल्पिक लाईट से घरों में व्यवस्था कर इंटरनेट चलाया जा सकता है मगर सभी के लिये यह संभव नहीं है। छोटी बैटरी से कंप्यूटर चलता नहीं, जबकि बड़ी बैटरी जनरेटर की व्यवथा करना बहुत महंगा है फिर उसमें खर्चा अधिक है। अगर अपने कंप्यूटर और इंटरनेट का शौकिया उपयेाग करना है तो आदमी सस्ती चीज ही चाहेगा। लालटेन में भी कम ऊर्जा से कंप्यूटर चलाने की व्यवस्था होना चाहिये।
देश की आबादी बढ़ रही है और ऊर्जा के सारे परंपरागत स्त्रोत साथ छोड़ रहे हैं। कंप्यूटर तो बिना बिजली के चल ही नहीं सकता। जो बिजली की अपनी व्यवस्था कर सकते हैं वह कंप्यूटर चलाते होंगे पर यह आम आदमी के बूते का नहीं है।
इसलिये जो शख्स बहुआयामी लालटेन से कंप्यूटर चलाने का अविष्कार करेगा उसके लिये देश में सम्मान पाने की बहुत जगह है। कंप्यूटर में नये प्रयोगों की बहुत गुंजायश है पर सबसे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि वह ऊर्जा के नये और सस्ते प्रयोग से वह चले। अब यह लालटेन मिट्टी के तेल और गैस से जले या डीजल से या पैट्रोल ये तो उसे ही तय करना है जिसे अविष्कार करना हो। अलबत्ता हमने यह बात लिख दी। अगर भारत में कोई बिल गेट्स जैसा अवतरित होने को तैयार हो तो पहले यह भी सोच ले। वैसे जब कारें गैस सिलैंडर से चल सकती हैं तो भला ऐसा गैस का लालटेन क्यों नही बन सकता जिससे कंप्यूटर भी चले। चाहे किसी भी तरह का अविष्कार हो उसका स्वरूप लालटेन की तरह सस्ता होना होना चाहिये।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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यकीन बेचने वाले फरिश्ते-व्यंग्य कविता


गरीब और भूखे के लिये

रोटी एक सपना होती है,

मगर भरे हैं जिनके पेट

भूख भी भूत बनकर

उनके पीछे होती है।

इंसान की जिंदगी

कुछ सपने देखती

कुछ डरों के साथ बीत रही होती है।

…………………..

चाहे इंसान कितने भी

बड़े हो जायें

फरिश्ते नहीं बन पाते हैं।

यकीन बेचने वाले

अपने अंदाज-ए-बयां से

चाहे दिलासा दिलायें

यकीन नहीं करना

सर्वशक्तिमान बनने के लिये

सभी मुखौटा लगाकर आते हैं।

काला हो या गोरा

जो चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े हैं

वही वफा और यकीन बेचने आते हैं।


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हिन्दी के ब्लाग क्रिकेट मैच से पिट जाते हैं-व्यंग्य चिंत्तन


वह हमारा मित्र है बचपन का! कल हम पति पत्नी उसे घर देखने गये। कहीं से पता लगा कि वह बहुत बीमार है और डेढ़ माह से घर पर ही पड़ा हुआ है।
घर के बाहर दरवाजे पर दस्तक दी तो उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला और देखते ही उलाहना दी कि ‘आप डेढ़ महीने बाद इनको देखने आये हैं।’
मैने कहा-‘पर उसने मुझे कभी फोन कर बताया भी नहीं। फिर उसका मोबाइल बंद है।’
वह बोली-‘नहीं, हमारा मोबाइल चालू है।’
मैंने कहा-‘अभी आपको बजाकर बताता हूं।’
वह कुछ सोचते हुए बोलीं-‘हां, शायद जो नंबर आपके पास है उसकी सिम काम नहीं कर रही होगी। उनके पास दो नंबर की सिम वाला मोबाइल है।’

दोस्त ने भी उलाहना दी और वही उसे जवाब मिला। उसकी रीढ़ में भारी तकलीफ है और वह बैठ नहीं सकता। पत्थरी की भी शिकायत है।
हमने उससे यह तो कहा कि उसका मोबाइल न लगने के कारण संशय हो रहा था कि कहीं अपनी बीमारी के इलाज के लिये बाहर तो नहीं गया, मगर सच यह है कि यह एक अनुमान ही था। वैसे हमें भी हमें पंद्रह दिन पहले पता लगा था कि वह बीमार है यानि एक माह बाद।

हमें मालुम था कि बातचीत में ब्लागिंग का विषय आयेगा। दोनों की गृहस्वामिनियों के बीच हम पर यह ताना कसा जायेगा कि ब्लागिंग की वजह से हमारी सामाजिक गतिविधियां कम हो रही हैं। हालांकि यह जबरन आरोप है। जहां जहां भी सामाजिक कार्यक्रमों में उपस्थिति आवश्यक समझी हमने दी है। शादियों और गमियों पर अनेक बार दूसरे शहरों में गये हैं। वहां भी हमने कहीं साइबर कैफे में जाकर अपने ईमेल चेक करने का प्रयास नहीं किया। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि जिस घर में गये वहां पर इंटरनेट सामने था पर हमने उसे अनदेखा कर दिया। बालक लोग इंटरनेट की चर्चा करते रहे पर हमने खामोशी ओढ़ ली। इसका कारण यह था कि हमने जरा सा प्रयास किया नहीं कि हम पर ब्लाग दीवाना होने की लेबल लगने का खतरा था। बसों में तकलीफ झेली और ट्रेनों में रात काटी। कभी अपने ब्लाग की किसी से चर्चा नहीं की। अलबत्ता घर पर आये तो सबसे पहला काम ईमेल चेक करने का किया क्योंकि यह हमारा अपना समय होता है।
लगभग दो घंटे तक मित्र और उनकी पत्नी से वार्तालाप हुआ। हमने उससे यह नहीं पूछा कि ‘आखिर उसके खुद के ब्लाग का क्या हुआ?’
उसने इंटरनेट कनेक्शन लगाने के बाद अपन ब्लाग बनाया था। उसने उस पर एक कविता लिखी और हमने पढ़ी थी। उससे वादा किया था कि वह आगे भी लिखेगा पर शर्त यह रखी थी कि हम उसे घर आकर ब्लाग की तकनीकी की पूरी जानकारी देंगे। इस बात को छह महीने हो गये। अब बीमारी की हालत में उससे यह पूछना सही नहीं था कि उसके ब्लाग का क्या हुआ।
उसे हमने अपने गूगल का इंडिक का टूल भी भेजा था ताकि हिन्दी लिखने में उसे आसानी हो पर पता नहीं उसका उसने क्या किया?
उसकी बीमारी पर चर्चा होती रही। उसका मनोबल गिरा हुआ था। आखिरी उसकी पत्नी ने कह ही दिया कि ‘यह इंटरनेट पर रात को दो दो बजे तक काम करते थे भला क्यों न होनी थी यह बीमारी?’
हमने पूछ लिया कि ‘क्या तुम ब्लाग लिखते थे।’
इसी बीच श्रीमती जी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा कि ‘यह भी बाहर से आते ही थोड़ी देर में ही इंटरनेट से चिपक जाते हैं, और रात के दस बजे तक उस पर बैठते हैं।’
मित्र पत्नी ने कहा-‘पर यह तो रात को दो दो बजे तक कभी कभी तो तीन बजे तक वहां बैठे रहते हैं।’
श्रीमतीजी ने कहा-‘पर यह दस बजे नहीं तो 11 बजे के बाद बंद कर देते हैं। सुबह अगर बिजली होती है तो बैठते हैं नहीं तो चले जाते हैं।’
इधर हमने मित्र से पूछा-‘तुम इंटरनेट पर करते क्या हो? वह मैंने तुम्हें हिन्दी टूल भेजा था। उसका क्या हुआ? वैसे तुमसे जब भी ब्लाग के बारे में पूछा तो कहते हो कि समय ही नहीं मिलता पर यहां तो पता लगा कि तुम रात को दो बजे तक बैठते हो। क्या करते हो?’
वह बोला-‘मैं बहुत चीजें देखता हूं गूगल से अपना घर देखा। रेल्वे टाईम टेबल देखता हूं। अंग्रेजी-हिन्दी और हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी देखता हूं। अंग्रेजी में लिखना है। बहुत सारी वेबसाईटें देखता हूं। अखबार देखता हूं। स्वाईल फ्लू जब फैला था उसके बारे में पूरा पढ़ा। हां, मैं अंग्रेजी वाली वेबसाईटें पढ़ता हूं। मैं अंग्रेजी में लिखना चाहता हूं। हिन्दी तो ऐसे ही है।’
‘कैसे?’हमने पूछा
‘कौन पढ़ता है?’वह बोला।
‘‘हमने पूछा तुम अखबार कौनसे पढ़ते हो?’
वह बोला-‘हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही पढ़ता हूं। हां, अपना लेखन अंग्रेजी में करना चाहता हूं। जब मैं ठीक हो जाऊं तो आकर ब्लाग की तकनीकी की विस्तार से जानकारी दे जाना। हिन्दी बहुत कम लोग पढ़ते हैं जबकि अंग्रेजी से अच्छा रिस्पांस मिल जायेगा।’
हम वहां से विदा हुए। कुछ लोग तय कर लेते हैं कि वह बहुत कुछ जानते हैं। इसके अलावा अपने समान व्यक्ति से कुछ सीखना उनको छोटापन लगता है। हमारा वह मित्र इसी तरह का है। जब उसने ब्लाग बनाया था तो मैं उसे कुछ जानकारी देना चाहता था पर वह समझना नहीं चाहता था। उसने उस समय मुझसे ब्लाग के संबंध में जानकारी ऐसे मांगी जैसे कि वह कोई महान चिंतक हो ओर मैदान में उतरते ही चमकने लगेगा-‘मेरे दिमाग में बहुत सारे विचार आते हैं उन्हें लिखूंगा’, ‘एक से एक कहानी ध्यान में आती है’ और ऐसी बातें आती हैं कि जब उन पर लिखूंगा तो लोग हैरान रह जायेंगे’।
उसने मेरे से हिन्दी टूल मांगा था। किसलिये! उसके कंप्यूटर में हिन्दी फोंट था पर उसकी श्रीमती जी को अंग्रेजी टाईप आती थी। वह कहीं शिक्षिका हैं। अपने कक्षा के छात्रों के प्रश्नपत्र कंप्यूटर पर हिन्दी में बनाने थे और हिन्दी टाईप उनको आती नहीं थी। उस टूल से उनको हिन्दी लिखनी थी।
उसने उस टूल के लिये धन्यवाद भी दिया। जब भी उसके ब्लाग के बारे में पूछता तो यही कहता कि समय नहीं मिल रहा। अब जब उसकी इंटरनेट पर सक्रियता की पोल खुली तो कहने लगा कि अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ा रहा है। हमने सब खामोशी से सुना। हिन्दी लेखकों की यही स्थिति है कि वह डींगें नहीं हांक सकते क्योंकि उसमें कुछ न तो मिलता है न मिलने की संभावना रहती है। अंतर्जाल पर अंग्रेजी में कमाने वाले बहुत होंगे पर न कमाने वाले उनसे कहीं अधिक हैं। हमारे सामने अंग्रेजी ब्लाग की भी स्थिति आने लगी है। अगर सभी अंग्रेजी ब्लाग हिट हैं तो शिनी वेबसाईट पर हिन्दी ब्लाग उन पर कैसे बढ़त बनाये हुए हैं? अंग्रेजी में अंधेरे में तीर चलाते हुए भी आदमी वीर लगता है तो क्या कहें? एक हिन्दी ब्लाग लेखक के लिये दावे करना मुश्किल है। हो सकता है कि हमारे हिन्दी ब्लाग हिट पाते हों पर कम से कम एक विषय है जिसके सामने उनकी हालत पतली हो जाती है। वह है क्रिकेट मैच! उस दिन हमारे हिन्दी ब्लाग दयनीय स्थिति में होते हैं। ऐसे में लगता है कि ‘हम किसी को क्या हिन्दी में ब्लाग लिखने के लिये उकसायें जब खुद की हालत पतली हो।’ फिर दिमाग में विचार, कहानी या कविताओं का आना अलग बात है और उनको लिखना अलग। जब ख्याल आते हैं तो उस समय किसी से बात भी कर सकते हैं और उसे बुरा नहीं लगा पर जब लिखते हैं तो फिर संसार से अलग होकर लिखना पड़ता है। ऐसे में एकांत पाना मुश्किल काम होता है। मिल भी जाये तो लिखना कठिन होता है। जो लेखक हैं वही जानते हैं कि कैसे लिखा जाये? यही कारण है कि दावे चाहे जो भी करे लेखक हर कोई नहीं बन जाता। उस पर हिन्दी का लेखक! क्या जबरदस्त संघर्ष करता हुआ लिखता है? लिखो तो जानो!
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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