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तकदीर और चालाकियां-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (taqdir aur chalaki-hindi comic poems


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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अपने गम और दूसरे की खुशी पर मुस्कराकर

हमने अपनी दरियादिली नहीं दिखाई।

चालाकियां समझ गये जमाने की

कहना नहीं था, इसलिये छिपाई।

——–

अपनी तकदीर से ज्यादा नहीं मिलेगा

यह पहले ही हमें पता था।

बीच में दलाल कमीशन मांगेंगे

या अमीर हक मारेंगे

इसका आभास न था।

———-

रात के समय शराब  में बह जाते हैं

दिन में भी वह प्यासे नहीं रहते

हर पल दूसरों के हक पी जाते हैं।

अपने लिये जुटा लेते हैं समंदर

दूसरों के हिस्से में

एक बूंद पानी भी हो

यह नहीं सह पाते हैं।

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यकीन बेचने वाले फरिश्ते-व्यंग्य कविता


गरीब और भूखे के लिये

रोटी एक सपना होती है,

मगर भरे हैं जिनके पेट

भूख भी भूत बनकर

उनके पीछे होती है।

इंसान की जिंदगी

कुछ सपने देखती

कुछ डरों के साथ बीत रही होती है।

…………………..

चाहे इंसान कितने भी

बड़े हो जायें

फरिश्ते नहीं बन पाते हैं।

यकीन बेचने वाले

अपने अंदाज-ए-बयां से

चाहे दिलासा दिलायें

यकीन नहीं करना

सर्वशक्तिमान बनने के लिये

सभी मुखौटा लगाकर आते हैं।

काला हो या गोरा

जो चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े हैं

वही वफा और यकीन बेचने आते हैं।


कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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हिन्दी के ब्लाग क्रिकेट मैच से पिट जाते हैं-व्यंग्य चिंत्तन


वह हमारा मित्र है बचपन का! कल हम पति पत्नी उसे घर देखने गये। कहीं से पता लगा कि वह बहुत बीमार है और डेढ़ माह से घर पर ही पड़ा हुआ है।
घर के बाहर दरवाजे पर दस्तक दी तो उसकी पत्नी ने दरवाजा खोला और देखते ही उलाहना दी कि ‘आप डेढ़ महीने बाद इनको देखने आये हैं।’
मैने कहा-‘पर उसने मुझे कभी फोन कर बताया भी नहीं। फिर उसका मोबाइल बंद है।’
वह बोली-‘नहीं, हमारा मोबाइल चालू है।’
मैंने कहा-‘अभी आपको बजाकर बताता हूं।’
वह कुछ सोचते हुए बोलीं-‘हां, शायद जो नंबर आपके पास है उसकी सिम काम नहीं कर रही होगी। उनके पास दो नंबर की सिम वाला मोबाइल है।’

दोस्त ने भी उलाहना दी और वही उसे जवाब मिला। उसकी रीढ़ में भारी तकलीफ है और वह बैठ नहीं सकता। पत्थरी की भी शिकायत है।
हमने उससे यह तो कहा कि उसका मोबाइल न लगने के कारण संशय हो रहा था कि कहीं अपनी बीमारी के इलाज के लिये बाहर तो नहीं गया, मगर सच यह है कि यह एक अनुमान ही था। वैसे हमें भी हमें पंद्रह दिन पहले पता लगा था कि वह बीमार है यानि एक माह बाद।

हमें मालुम था कि बातचीत में ब्लागिंग का विषय आयेगा। दोनों की गृहस्वामिनियों के बीच हम पर यह ताना कसा जायेगा कि ब्लागिंग की वजह से हमारी सामाजिक गतिविधियां कम हो रही हैं। हालांकि यह जबरन आरोप है। जहां जहां भी सामाजिक कार्यक्रमों में उपस्थिति आवश्यक समझी हमने दी है। शादियों और गमियों पर अनेक बार दूसरे शहरों में गये हैं। वहां भी हमने कहीं साइबर कैफे में जाकर अपने ईमेल चेक करने का प्रयास नहीं किया। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि जिस घर में गये वहां पर इंटरनेट सामने था पर हमने उसे अनदेखा कर दिया। बालक लोग इंटरनेट की चर्चा करते रहे पर हमने खामोशी ओढ़ ली। इसका कारण यह था कि हमने जरा सा प्रयास किया नहीं कि हम पर ब्लाग दीवाना होने की लेबल लगने का खतरा था। बसों में तकलीफ झेली और ट्रेनों में रात काटी। कभी अपने ब्लाग की किसी से चर्चा नहीं की। अलबत्ता घर पर आये तो सबसे पहला काम ईमेल चेक करने का किया क्योंकि यह हमारा अपना समय होता है।
लगभग दो घंटे तक मित्र और उनकी पत्नी से वार्तालाप हुआ। हमने उससे यह नहीं पूछा कि ‘आखिर उसके खुद के ब्लाग का क्या हुआ?’
उसने इंटरनेट कनेक्शन लगाने के बाद अपन ब्लाग बनाया था। उसने उस पर एक कविता लिखी और हमने पढ़ी थी। उससे वादा किया था कि वह आगे भी लिखेगा पर शर्त यह रखी थी कि हम उसे घर आकर ब्लाग की तकनीकी की पूरी जानकारी देंगे। इस बात को छह महीने हो गये। अब बीमारी की हालत में उससे यह पूछना सही नहीं था कि उसके ब्लाग का क्या हुआ।
उसे हमने अपने गूगल का इंडिक का टूल भी भेजा था ताकि हिन्दी लिखने में उसे आसानी हो पर पता नहीं उसका उसने क्या किया?
उसकी बीमारी पर चर्चा होती रही। उसका मनोबल गिरा हुआ था। आखिरी उसकी पत्नी ने कह ही दिया कि ‘यह इंटरनेट पर रात को दो दो बजे तक काम करते थे भला क्यों न होनी थी यह बीमारी?’
हमने पूछ लिया कि ‘क्या तुम ब्लाग लिखते थे।’
इसी बीच श्रीमती जी ने हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा कि ‘यह भी बाहर से आते ही थोड़ी देर में ही इंटरनेट से चिपक जाते हैं, और रात के दस बजे तक उस पर बैठते हैं।’
मित्र पत्नी ने कहा-‘पर यह तो रात को दो दो बजे तक कभी कभी तो तीन बजे तक वहां बैठे रहते हैं।’
श्रीमतीजी ने कहा-‘पर यह दस बजे नहीं तो 11 बजे के बाद बंद कर देते हैं। सुबह अगर बिजली होती है तो बैठते हैं नहीं तो चले जाते हैं।’
इधर हमने मित्र से पूछा-‘तुम इंटरनेट पर करते क्या हो? वह मैंने तुम्हें हिन्दी टूल भेजा था। उसका क्या हुआ? वैसे तुमसे जब भी ब्लाग के बारे में पूछा तो कहते हो कि समय ही नहीं मिलता पर यहां तो पता लगा कि तुम रात को दो बजे तक बैठते हो। क्या करते हो?’
वह बोला-‘मैं बहुत चीजें देखता हूं गूगल से अपना घर देखा। रेल्वे टाईम टेबल देखता हूं। अंग्रेजी-हिन्दी और हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी देखता हूं। अंग्रेजी में लिखना है। बहुत सारी वेबसाईटें देखता हूं। अखबार देखता हूं। स्वाईल फ्लू जब फैला था उसके बारे में पूरा पढ़ा। हां, मैं अंग्रेजी वाली वेबसाईटें पढ़ता हूं। मैं अंग्रेजी में लिखना चाहता हूं। हिन्दी तो ऐसे ही है।’
‘कैसे?’हमने पूछा
‘कौन पढ़ता है?’वह बोला।
‘‘हमने पूछा तुम अखबार कौनसे पढ़ते हो?’
वह बोला-‘हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही पढ़ता हूं। हां, अपना लेखन अंग्रेजी में करना चाहता हूं। जब मैं ठीक हो जाऊं तो आकर ब्लाग की तकनीकी की विस्तार से जानकारी दे जाना। हिन्दी बहुत कम लोग पढ़ते हैं जबकि अंग्रेजी से अच्छा रिस्पांस मिल जायेगा।’
हम वहां से विदा हुए। कुछ लोग तय कर लेते हैं कि वह बहुत कुछ जानते हैं। इसके अलावा अपने समान व्यक्ति से कुछ सीखना उनको छोटापन लगता है। हमारा वह मित्र इसी तरह का है। जब उसने ब्लाग बनाया था तो मैं उसे कुछ जानकारी देना चाहता था पर वह समझना नहीं चाहता था। उसने उस समय मुझसे ब्लाग के संबंध में जानकारी ऐसे मांगी जैसे कि वह कोई महान चिंतक हो ओर मैदान में उतरते ही चमकने लगेगा-‘मेरे दिमाग में बहुत सारे विचार आते हैं उन्हें लिखूंगा’, ‘एक से एक कहानी ध्यान में आती है’ और ऐसी बातें आती हैं कि जब उन पर लिखूंगा तो लोग हैरान रह जायेंगे’।
उसने मेरे से हिन्दी टूल मांगा था। किसलिये! उसके कंप्यूटर में हिन्दी फोंट था पर उसकी श्रीमती जी को अंग्रेजी टाईप आती थी। वह कहीं शिक्षिका हैं। अपने कक्षा के छात्रों के प्रश्नपत्र कंप्यूटर पर हिन्दी में बनाने थे और हिन्दी टाईप उनको आती नहीं थी। उस टूल से उनको हिन्दी लिखनी थी।
उसने उस टूल के लिये धन्यवाद भी दिया। जब भी उसके ब्लाग के बारे में पूछता तो यही कहता कि समय नहीं मिल रहा। अब जब उसकी इंटरनेट पर सक्रियता की पोल खुली तो कहने लगा कि अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ा रहा है। हमने सब खामोशी से सुना। हिन्दी लेखकों की यही स्थिति है कि वह डींगें नहीं हांक सकते क्योंकि उसमें कुछ न तो मिलता है न मिलने की संभावना रहती है। अंतर्जाल पर अंग्रेजी में कमाने वाले बहुत होंगे पर न कमाने वाले उनसे कहीं अधिक हैं। हमारे सामने अंग्रेजी ब्लाग की भी स्थिति आने लगी है। अगर सभी अंग्रेजी ब्लाग हिट हैं तो शिनी वेबसाईट पर हिन्दी ब्लाग उन पर कैसे बढ़त बनाये हुए हैं? अंग्रेजी में अंधेरे में तीर चलाते हुए भी आदमी वीर लगता है तो क्या कहें? एक हिन्दी ब्लाग लेखक के लिये दावे करना मुश्किल है। हो सकता है कि हमारे हिन्दी ब्लाग हिट पाते हों पर कम से कम एक विषय है जिसके सामने उनकी हालत पतली हो जाती है। वह है क्रिकेट मैच! उस दिन हमारे हिन्दी ब्लाग दयनीय स्थिति में होते हैं। ऐसे में लगता है कि ‘हम किसी को क्या हिन्दी में ब्लाग लिखने के लिये उकसायें जब खुद की हालत पतली हो।’ फिर दिमाग में विचार, कहानी या कविताओं का आना अलग बात है और उनको लिखना अलग। जब ख्याल आते हैं तो उस समय किसी से बात भी कर सकते हैं और उसे बुरा नहीं लगा पर जब लिखते हैं तो फिर संसार से अलग होकर लिखना पड़ता है। ऐसे में एकांत पाना मुश्किल काम होता है। मिल भी जाये तो लिखना कठिन होता है। जो लेखक हैं वही जानते हैं कि कैसे लिखा जाये? यही कारण है कि दावे चाहे जो भी करे लेखक हर कोई नहीं बन जाता। उस पर हिन्दी का लेखक! क्या जबरदस्त संघर्ष करता हुआ लिखता है? लिखो तो जानो!
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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मुद्दा कथा चोरी का-व्यंग्य आलेख (mudda katha chori ka-hindi lekh)


यह पेज

पता नहीं उस लेखक के उपन्यास पर फिल्म बनी हैं या नहीं-जैसा कि वह दावा कर रहा है। बहरहाल फिल्म के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निर्माता-कई जगह नायक का अभिनय करने वाले अभिनेता भी फिल्म में पैसा लगाते हैं पर जाहिर नहीं करते-इससे इंकार कर रहे हैं। फिल्म निर्माता ने तो एक पत्रकार को इस विषय पर प्रश्न करने पर कह दिया-‘शटअप’।
इस विवाद में एक बात निश्चित है कि मुंबईया फिल्म बनाने वालों के पास कल्पनाशक्ति का अभाव है और उससे देखकर यह मजाकिया निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर फिल्म की कहानी कुंभ मेले से बिछड़े भाईयो बहिनों के मिलन, किसी मजबूर आदमी के भईया से भाई या बहिन जी बनने या किसी विदेशी फिल्म की देशी नकल न हो तो यकीनन वह किसी देशी लेखक की नकल है।
ऐसा ही एक किस्सा हमारे एक ग्वालियर मित्र लेखक का है जो शायद बीस वर्ष से अधिक पुराना है। उन्होंने एक कहानी संग्रह बड़ी मेहनत से पैसा खर्च कर प्रकाशित कराया था। कहानियां ठीकठाक थी। किताब कोई अधिक प्रसिद्ध नहीं थी पर उनमें से एक कहानी राष्ट्रीय स्तर की साहित्यक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कुछ दिन बाद बनी एक फिल्म की कथा देखकर उन्होंने दावा किया कि वह उनकी कहानी की नकल है। उन्होंने इसके बारे में तथ्य देकर एक लेख स्थानीय समाचार पत्रों में लिखा था। बाद मेें क्या हुआ पता नहीं पर वह मित्र आज भी हमसे अक्सर मिलते रहते हैं। हम इस बारे में कोई प्रश्न नहीं करते कहीं उनको यह न लगे कि यह व्यंग्यकार जरूर कुछ हमारे बारे में अंटसंट लिखेगा-वह उस पत्रिका के संपादक भी रहे हैं जिसमें हमारे व्यंग्य प्रकाशित होते रहे हैं। सच बात कहें तो उस समय उनकी यह बात अतिश्योक्ति से भरी लगी थी कि कोई बड़ा कलात्मक फिल्मों का निर्माता-आम धारा से हटकर बनी फिल्मों को कलात्मक भी माना जाता है-ऐसी हरकत कर सकता है। व्यवसायिक फिल्मों में उस समय कहानी के नाम पर तो कुछ होता ही नहीं था इसलिये यह आरोप तो कोई उन पर लगाता ही नहीं था।
बहरहाल समय के साथ हमें लगने लगा कि चाहे व्यवसायिक फिल्मकार हों या कलात्मक उनके पास कहानियों का नितांत अकाल है। फिल्मी दृश्यों के तकनीकी पक्ष में उनकी कल्पना शक्ति कितनी भी जोरदार हो कहानी और पटकथा में वह अत्यंत कमजोर हैं।
यह सुंदर, चमकते और ठुमकते हुए चेहरे चिंतन से शून्य हैं और जब कहीं साक्षात्कार होते हैं तब इनकी असलियत वहां दिखाई दे जाती है। अंग्रेजी में बोलेंगे ताकि हिन्दी भाषा का दर्शक औकात न भांप लें और सवालों पर ऐसे भड़केंगे कि जैसे वह हर जगह नायक या निर्देशक हों।
इसलिये हमें उस लेखक की बात पर अधिक यकीन है कि उसके उपन्यास से कहानी चुराकर अपनी पटकथा के साथ फिल्म वालों ने अपनी प्रस्तुति की हो। हालांकि वह लेखक अंग्रेजी का है पर है तो भारतीय। भारतीय लेखकों की कल्पनाशीलता लाजवाब है इस बात को शायद अंग्रेजी के साथ अंग्रेजों के भक्त स्वीकार नहीं करेंगे। यही कारण है कि अंतर्जाल के कुछ लेखक वैश्विक काल में हिन्दी के उद्भव की कामना करते हैं क्योंकि इसमें नया लिखे जाने की पूरी संभावना है। बहरहाल उस लेखक ने अपनी बात टीवी पर हिन्दी में रखी और ऐसा लगा कि उसका कहना सच भी हो सकता है। वैसे वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का अंग्रेजी का लेखक है इसलिये उसकी बात सुनी जायेगी पर बात यहीं खत्म नहीं होती। इससे पहले भी देश के कुछ हिन्दी लेखकों ने ऐसी शिकायतें की यह अलग बात है कि वह छोटे शहरों के थे और देश के प्रचार माध्यम केवल बड़े शहरों के लेखकों की बातों को ही अधिक महत्व देते हैं। टीवी वालों से इसे महत्व भी इसलिये दिया क्योंकि लेखक एक तो अंग्रेजी का है फिर वैसे ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर है और वह भारतीय प्रचार माध्यमों का मोहताज नहीं है-हिन्दी वाला होता तो शायद उसे वह महत्व नहीं देते क्योंकि उससे उसके प्रसिद्ध होने का भय पैदा हो जाता। यह काम प्रचार माध्यम कभी नहीं कर सकते कि वह किसी हिन्दी भाषी लेखक को स्वयं लेखक बनायें। बन जाये तो फिर उसका उपयोग वह कर सकते हैं।
मुद्दे की बात यह है कि मुंबईया फिल्म वाले हिन्दी के मूल लेखकों का महत्व नहीं समझते-हमने सुना है कि प्रेमचंद फिल्म क्षेत्र छोड़कर अपनी साहित्य दुनियां में लौट गये। कवि नीरज भी वहां के रवैये से संतुष्ट नहीं थे। सच तो यह है कि आजतक एक भी हिन्दी का स्थापित लेखक फिल्म से नहीं जुड़ा है। यह हिन्दी लेखकों की कमी नहीं बल्कि फिल्म वालों की कमजोरी का प्रमाण है। वह अपनी दुनियां को चमकदार बनाये रखना चाहते हैं पर कहानियों के पक्ष को समझते नहीं। कुंभ मेले में बिछड़े बच्चों के मिलन या मजबूरी से भाई बने कहानी में उनको अच्छे और आकर्षक सैट दिखाने का अवसर मिलता है और वह ऐसी कहानियां अपने लिपिक नुमा लेखकों से लिखा लेते हैं। जिसे कहानी कहा जाता है उसे कभी फाइव स्टार होटल में या किसी इमारत में बैठकर केवल कल्पना से नहीं लिखा जा सकता है। उसके लिये जरूरी है कि सत्यता के पुट के लिये आदमी सड़क पर स्वयं निकले। अंधेरी गलियों में घूमे और ऊबड़ खाबड़ सड़कों में धूल फांके। यह उनके व्यवसायिक लेखकों के बूते का नहीं है। अब देखना यह है कि उस अंग्रेजी के अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध लेखक के साथ फिल्म वालों का विवाद किस जगह पहुंचता है।
कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कामयाबी का खिताब-हिन्दी व्यंग्य कविता


 दिन भर अपने लिए साहब शब्द सुनकर

वह रोज फूल जाते हैं।

मगर उनके ऊपर भी साहब हैं

जिनकी झिड़की पर वह झूल जाते हैं।
——————–

नयी दुनियां में पुजने का रोग

सभी के सिर पर चढ़ा है।

कामयाबी का खिताब

नीचे से ऊपर जाता साहब की तरफ

नाकामी की लानत का आरोप

ऊपर से उतरकर नीचे खड़ा है,

भले ही सभी जगह साहब हैं

बच जाये दंड से, वही बड़ा है

——–

साहबी संस्कृति में डूबे लोग

आम आदमी का दर्द कब समझेंगे।

जब छोटे साहब से बड़े बनने की सीढ़ी

जिंदगी में पूरी तरह चढ़ लेंगे।

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इशारों के बंधन-हिन्दी व्यंग्य शायरी


हांड़मांस के बुत हैं

इंसान भी कहलाते हैं,

चेहरे तो उनके अपने ही है

पर दूसरे का मुखौटा बनकर

सामने आते हैं।

आजादी के नाम पर

उनके हाथ पांव में जंजीर नहीं है

पर अक्ल पर

दूसरे के इशारों के बंधन

दिखाई दे जाते हैं।

नाम के मालिक हैं वह गुलाम

गुलामों पर ही राज चलाये जाते हैं।

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धर्म और कमाई-हास्य साहित्य कविता


 

धर्म बन गयी है शय
बेचा जाता है इसे बाज़ार में,
सबसे बड़े सौदागर
पीर कहलाते हैं.
भूख, गरीबी, बेकारी और बीमारी को
सर्वशक्तिमान के  तोहफे बताकर
ज़माने को  भरमाते हैं.
मांगते हैं गरीब के  खाने के लिए पैसा
जिससे खुद खीर खाते हैं.
————————
धर्म का नाम लेते हुए
बढ़ता जा रहा है ज़माना,
मकसद है बस कमाना.
बेईमानी के राज में
ईमानदारी की सताती हैं याद
अपनी रूह करती है  फ़रियाद 
नहीं कर सकते दिल को साफ़ कभी 
हमाम में नंगे हैं सभी 
ओढ़ते हैं इसलिए धर्म का बाना.
फिर भी मुश्किल है अपने ही  पाप से बचाना..
 
 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आदमी और अहसास-हिन्दी चिंतन और कविता (admi aur ahsas-hindi lekh aur kaivta)


आदमी अपनी जिंदगी को अपने नज़रिये से जीना चाहता है पर जिंदगी का अपना फलासफा है। आदमी अपनी सोच के अनुसार अपनी जिंदगी के कार्यक्रम बनाता है कुछ उसकी योजनानुसार पूर्ण होते हैं कुछ नहीं। वह अनेक लोगों से समय समय पर अपेक्षायें करता है उनमें कुछ उसकी कसौटी पर खरे उतरते हैं कुछ नहीं। कभी कभी तो ऐसा भी होता है कि संकट पर ऐसा आदमी काम आता है जिससे अपेक्षा तक नहीं की जाती। कहने का तात्पर्य यह है कि जिंदगी भी अनिश्तताओं का से भरी पड़ी है पर आदमी इसे निश्चिंतता से जीना चाहता है। बस यहीं से शुरु होता है उसका मानसिक द्वंद्व जो कालांतर में उसके संताप का कारण बनता है। अगर आदमी यह समझ ले कि उसका जीवन एक बहता दरिया की तरह चलेगा तो उसका तनाव कम हो सकता है। जीवन में हर पल संघर्ष करना ही है यही भाव केवल मानसिक शक्ति दे सकता है। इस पर प्रस्तुत हैं कुछ काव्यात्मक पंक्तियां-
खुद तरसे हैं
जो दौलत और इज्जत पाने के लिये
उनसे उम्मीद करना है बेकार।
तय कोई नहीं पैमाना किया
उन्होंने अपनी ख्वाहिशों
और कामयाबी का
भर जाये कितना भी घर
दिल कभी नहीं भरता
इसलिये रहते हैं वह बेकरार।
————-
समंदर की लहरों जैसे
दिल उठता और गिरता है।
पर इंसान तो आकाश में
उड़ती जिंदगी में ही
मस्त दिखता है।
पांव तले जमीन खिसक भी सकती है
सपने सभी पूरे नहीं होते
जिंदगी का फलासफा
अपने अहसास कुछ अलग ही लिखता है।
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कवि लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पिटने का व्यापार-हिन्दी व्यंग्य (pitne ka vyapar-hindi vyangya)


एक चीनी ने अपना ऐसा धंधा प्रारंभ किया है जो यकीनन अनोखा है। ऐसा अनोखा धंधा तो कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। वह यह कि उसने दूसरे घरों में परेशान औरतों को गुस्सा अपने पर उतारने के लिये स्वयं को प्रस्तुत करता है। वह पिटने की फीस लेता है। अगर समाचार को सही माने तो उसका व्यवसाय चल भी रहा है।
वाकई समय के साथ दुनियां बदल रही है और बदल रहे हैं रिश्ते। दूसरा सच यह है कि इस दुनियां में दो ही तत्व खेलते हैं सत्य और माया। इंसान की यह गलतफहमी है कि वह खेल रहा है। पंाच तत्वों से बने हर जीवन में मन बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियां भी होती है। वही आदमी से कभी खेलती तो कभी खिलवाड़ करती हैं।
यहां एक बात याद रखने वाली है कि संस्कार और संस्कृति के मामले में चीन हमसे पीछे नहीं है-कम से कम उसे अपने से हल्का तो नहीं माना जा सकता। पूर्व में स्थित यह देश अनेक मामलों में संस्कृति और संस्कारों में हमारे जैसा है। हां, पिछले पचास वर्षों से वहां की राजनीतिक व्यवस्था ने उसे वैसे ही भौतिकवादी के जाल में लपेटा है जैसे कि हमारे यहां की अर्थव्यवस्था ने। अगर हमारा देश अध्यात्मिक रूप से संपन्न नहीं होता तो शायद चीनी समाज हमसे अधिक बौद्धिक समाज कहलाता। वहां बुद्ध धर्म की प्रधानता है जिसके प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध भारत में ही उत्पन्न हुए थे।
माया का अभिव्यक्त रूप भौतिकतावाद ही है। इसमें केवल आदमी की देह उसकी आवश्यकतायें दिखती हैं और कारों, रेलों, तथा सड़क पर कम वस्त्र पहने युवतियां ही विकास का पर्याय मानी जाती है। विकास का और अधिक आकर्षक रूप माने तो वह यह है कि नारियां अपना घर छोड़कर किसी कार्यालय में नौकरी करते हुए किसी बौस का आदेश मानते हुए दिखें। उससे भी अधिक आकर्षक यह कि नारी स्वयं कार्यालय की बौस बनकर अपने पुरुष मातहतों को आदेश देते हुए नजर आयें। घर का काम न करते हुए बाहर से कमाकर फिर अपने ही घर का बोझ उठाती महिलायें ही उस मायावी विकास का रूप हैं जिसको लेकर आजकल के अनेक बुद्धिजीवी जूझ रहे हैं। बोस हो या मातहत हैं तो सभी गुलाम ही। यह अलग बात है कि किसी गुलाम पर दूसरा गुलाम नहीं होता तो वह सुपर बोस होता है। यह कंपनी प्रणाली ऐसी है जिसमें बड़े मैनेजिंग डाइरेक्टर एक सेठ की तरह व्यवहार करते हैं पर इसके लिये उनको राजकीय समर्थन मिला होता है वरना तो कंपनी के असली स्वामी तो उसके शेयर धारक और ऋणदाता होते हैं। कंपनी पश्चिम का ऐक ऐसा तंत्र हैं जिसमें गुलाम को प्रबंधक निदेशक के रूप में स्वामी बना दिया जाता है। पैसा उसका होता नहीं पर वह दिखता ऐसा है जैसे कि स्वामी हो। इसे हम यूं कह सकते हैं कि गुलामों को स्वामी बनाने का तंत्र हैं कंपनी! जिसमें गुलाम अपनी चालाकी से स्वामी बना रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई स्त्री कंपनी की प्रबंध निदेशक है तो वह अपने धन पर नहीं शेयर धारकों और ऋणदाताओं के कारण है। फिर उसके साथ तमाम तरह के विशेषज्ञ रहते हैं जो अपनी शक्ति से उसे बनाते हैं। कंपनी के प्रबंध निदेशक तो कई जगह मुखौटे होते हैं। ऐसे में यह कहना कठिन है कि किसी स्त्री का शिखर पर पहुंचना अपनी बुद्धि और परिश्रम के कारण है या अपने मातहतों के कारण।
बहरहाल स्त्री का जीवन कठिन होता है। यह सभी जानते हैं कि कोई भी स्त्री अपनी ममता के कारण ही अपनी पति और पुत्र की सेवा करने में जरा भी नहीं झिझकती। पिता अपनी संतान के प्रति मोह को दिखाता नहीं है पर स्त्री की ममता को कोई धीरज का बांध रोक नहीं सकता।
ऐसे में जो कामकाजी औरते हैं उनके लिये दोहरा तनाव होता है। यह तनाव अनेक तरह की बीमारियों का जनक भी होता है।
ऐसे में उन चीनी सज्जन ने जो काम शुरु किया है पता नहीं चल कैसे रहा है? कोई औरत कितनी भी दुःखी क्यों न हो दूसरे को घूंसा मारकर खुश नहीं हो सकती। भारी से भारी तकलीफ में भी वह दूसरे के लिये अपना प्यार ही व्यक्त करती है। अब यह कहना कठिन है कि कथित आधुनिक विकास ने-मायावी विकास का चरम रूप इस समय चीन में दिख रहा है-शायद ऐसी महिलाओं का एक वर्ग बना दिया होगा।
आखिरी बात यह है कि उस व्यक्ति ने अपने घर पर यह नहीं बताया कि उसने दूसरी महिलाओं से पिटने काम शुरु किया है। वजह! अरे, घर पर पत्नी ने मारा तो पैसे थोड़े ही देगी! जब गुस्से में होगी तो एक थप्पड़ मारेगी, पर जिस दिन धंधा मंदा हुआ तो पता लगा कि इस दुःख में अधिक थप्पड़ मार रही है कि पति के कम कमाने के कारण वह बड़ गया। फिलहाल भारत में ऐसे व्यवसाय की सफलता की संभावना नहीं है क्योंकि भारतीय स्त्रियां भले ही मायावी विकास की चपेट में हैं पर सत्य यानि अध्यात्मिक ज्ञान अभी उनका लुप्त नहीं हुआ है। वैसे जब पश्चिम का मायावी विकास कभी इसे खत्म कर देगा इसमें संदेह नहीं है।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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वादा और इंतजार-व्यंग्य कविता (vada aur intzar-hindi vyangya kavita)


गिला शिकवा खूब किया
दिन भर पूरे जमाने का
फिर भी दिल साफ हुआ नहीं।
इतने अल्फाज मुफ्त में खर्च किये
फिर भी चैन न मिला
दिल के गुब्बारों का बोझ कम हुआ नहीं।
इंसान समझता है
पर कुदरत का खेल कोई जुआ नहीं।
—————–
उन्होंने चमन सजाने का वादा किया
नये फूलों से सजाने का
पता नहीं कब पूरा करेंगे।
अभी तो उजाड़ कर
बना दिया है कचड़े का ढेर
उसे भी हटाने का वादा
करते जा रहै हैं
पता नहीं कब पूरा करेंगे।
इंतजार तो रहेगा
उनके घर का पेट अभी खाली है
पहले उसे जरूर भरेंगे।
तभी शायद कुछ करेंगे।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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युद्ध और सत्संग-व्यंग्य कविता



धर्म के लिए अब नहीं होता सत्संग
हर कोई लड़ रहा है, उसके नाम पर जंग.
किताबों के शब्द का सच
अब तलवार से बयान किया जाता
तय किये जाते हैं अब धार्मिक रंग.

एक ढूँढता दूसरे के किताब के दोष
ताकि बढ़ा सके वह ज़माने का रोष
दूसरा दिखाता पहले की किताब में
अतार्किक शब्दों का भंडार
जमाने के लिए अपना धर्म व्यापार
बयानों का है अपना अपना ढंग..

धर्म का मर्म कौन जानना चाहता है
जो किताबें पढ़कर उसे समझा जाए
पर उसके बिना भी नहीं जमता विद्वता का रंग,
इसलिए सभी ने गढ़ ली अपनी परिभाषाएं,
पहले बढ़ाते लोगों की अव्यक्त अभिलाषाएं,
फिर उपदेश बेचकर लाभ कमाएं,
इंसान चाहे कितने भी पत्थर जुटा ले
लोहे और लकडी के सामान भी
उसका पेट भर सकते हैं
पर मन में अव्यक्त भाव कहीं
व्यक्त होने के लिए तड़पता हैं
जिसका धर्म के साथ बड़ी सहजता से होता संग.
सब चीजों के तरह उसके भी सौदागर हैं
अव्यक्त को व्यक्त करने का आता जिनको ढंग..
कहीं वह कराते सत्संग
कहीं कराते जंग..
———————————-

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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रौशनी करने का सदियों पुराना अभियान-व्यंग्य कविता (raushni ka abhiyan-vyangya kavita)



दीपावली पर घर में
आले में बने मंदिर से लेकर
गली के नुक्कड़ तक
प्रकाश पुंज सभी ने जला दिये।

अंतर्मन में छाया अंधेरा
सभी को डराता है
लोग बाहर ढूंढते हैं, रौशनी इसलिये।

ज्ञान दूर कर सकता है
अंदर छाये उस अंधेरे को
पर उसके लिये जानना जरूरी है
अपने साथ कड़वे सत्य को
जिससे दूर होकर लोग
हमेशा भाग लिये।

कौन कहता है कि
लोग खुशी में रौशनी के चिराग जला रहे है,ं
सच तो यह है कि लोग
बाहर से अंदर रौशनी अंदर लाने का
अभियान सदियों से चला रहे हैं
मगर आंखों से आगे सोच का दरवाजा बंद है
बाहर प्रकाश
और अंदर अंधेरा देख कर
घबड़ा जाते हैं लोग
धरती को रौशन करने वाला आफताब भी
इंसान के मन का
अंधेरा दूर न कर सका
तो क्या रौशन करेंगे यह तेल के दिये।

………………………..
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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तीक्ष्ण बुद्धि-हास्य कविता (sharp mind-hasya kavita)


आज के बच्चे
अपने माता पिता के बाल्यकाल से
अधिक तीक्ष्ण बुद्धि के पाये जाते
यह सच कहा जाता है।
किस नायिका का किससे
चल रहा है प्रेम प्रसंग
अपने जन्मदिन पर नायक की
किस दूसरे नायक से हुई जंग
कौन गायक
किस होटल में मंदिर गया
कौन गीतकार आया नया
कौनसा फिल्मी परिवार
किस मंदिर में करने गया पूजा
कहां जायेगा दूजा
रेडियो और टीवी पर
इतनी बार सुनाया जाता है।
देश का हर बच्चा ज्ञान पा जाता है।

……………………………

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बासी खबर में उबाल-हिंदी व्यंग्य कविता (basi khabar men ubal-hindi vyangya kavita)


अखबार में छपी हर खबर
पुरानी नहीं हो जाती है।
कहीं धर्म तो कहीं भाषा और जाति के
झगड़ों में फंसे
इंसानी जज़्बातों की चाशनी में
उसके मरे हुए शब्दों को भी
डुबोकर फिर सजाया जाता
खबर फिर ताजी हो जाती है।
………………………..
कौन कहता है कि
बासी कड़ी में उबाल नहीं आता।
देख लो
ढेर सारी खबरों को
जो हो जाती हैं बासी
आदमी जिंदा हो या स्वर्गवासी
उसके नाम की खबर
बरसों तक चलती है
जाति, धर्म और भाषा के
विषाद रस पर पलती है
हर रोज रूप बदलकर आती
अखबार फिर भी ताजा नजर आता।

………………………….

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जाम,आदर्श और कविता की शाम -हास्य कविता (jaam aur sham-hindi hasya kavita


एक पुराने कवि ने
अपनी पहली कविता लिखने के दिवस को
साहित्यक पदार्पण दिवस के
रूप में मनाया।
ढेर सारे हिट और फ्लाप कवियों का
जमघट होटल में लगाया।
चला दौर जाम का
कविता के नाम का
सभी ने अपना ग्लास एक दूसरे से टकराया।

अकेले में एक फ्लाप कवि ने
उस कवि से पूछ लिया
‘आप तो पीते हो जाम
बातें करते हो आदर्श की सरेआम
भला या विरोधाभास कैसे दिख रहा है
लोग नहीं देखते यह सब
जबकि अपने नाम खूब कमाया।’

सुनकर वह पुराना कवि हंस पड़ा
और बोला-‘
‘अभी नये आये हो सब पता चल जायेगा
बिना पिये यह जाम
नहीं सज सकती कविता की शाम
जब तक हलक से न उतरे
देश में तरक्की की बात करने का
जज्बा नहीं आ सकता
एकता, अखंडता और जन कल्याण का
नारा कभी नहीं छा सकता
गला जब तर होता है तभी
ख्याल वहां पैदा होते हैं
आम लोग करते हैं वाह वाह
गहराई से चिंतन लिखने वाले
हमेशा ही असफल होकर रोते हैं
अंग्रेज अपनी संस्कृति के साथ
छोड़ गये यह बोतल भी यहां
आजादी की दीवानगी पर लिखने वाले भी
उनके गुलाम होकर विचरते यहां
पढ़ते लिखते नहीं धर्म की किताबें
उन भी हम बरस जाते
सारे धर्म छोड़कर इंसान धर्म मानने की
बात कहकर ऐसे ही नहीं हिट हो जाते
साथ में प्रगति के प्रतीक भी बन जाते
ओढ़े बैठे हैं जो धर्म की किताबों की चादर
उनको अंधविश्वासी बताकर जमाने से दूर हम हटाते
हमने जब भी बिताई अपनी शाम
कविता और साहित्य के नाम छलकाये
बस! इसी तरह जाम
कभी नहीं रखा धर्म से वास्ता
जाम से सराबोर नैतिकता का बनाया अपना ही रास्ता
ऐसे ही नहीं इतिहास में नाम दर्ज कराया।’

………………………….

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शांति पर कोई शांति से नहीं लिखता-हिंदी व्यंग्य कविता (peace writting-hindi vyangya)


विध्वंस कानों में शोर करते हुए
आंखों को चमत्कार की तरह दिखता है।
इसलिये हर कोई उसी पर लिखता है।

अथक परिश्रम से
पसीने में नहाई रचना
शांति के साथ पड़ी रहती हैं एक कोने में
कोई अंतर नहीं होता उसके होने, न होने में।
आवाज देकर वह नहीं जुटाती भीड़
इसलिये कोई उस पर नहीं लिखता है।
…………………….
किसी के मन में हिलौरें
नहीं उठाओगे।
तो कोई दाम नहीं पाओगे।
हर किसी में सामथर्य नहीं होता
कि जिंदगी की गहराई में उतरकर
शब्दों के मोती ढूंढ सके
तुम सतह पर ही डुबकी लगाकर
अपनी सक्रियता दिखाओ
चारों तरफ वाह वाह पाओगे।

सच्चे मोती लाकर क्या पाओगे।
उसके पारखी बहुत कम है
नकली के ग्राहक बहुत मिल जायेंगे
पर तुम्हारे दिल को सच से
तसल्ली मिल सकती है
पर इससे पहले की गयी
अपनी मेहनत पर पछताओगे।

……………………

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सोचने से सच का सामना-व्यंग्य चिंतन (sachne se sach ka samna-hindi vyangya)


कोई काम सोचने से वह सच नहीं हो जाता। आदमी की सोच पता नहीं कहां कहां घूमती है। बड़े बड़े ऋषि और मुनि भी इस सोच के जाल से नहीं बच पाते। अगर यह देह है तो उसमें बुद्धि, अहंकार और मन उसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभायेंगे। इस सोच पर किसी बुद्धिमान और ज्ञानी का भी नियंत्रण नहीं रहता।
मान लीजिये कोई अत्यंत मनुष्य अहिंसक है। वह सपने में भी किसी के विरुद्ध हिंसा तो कर ही नहीं सकता पर अगर वह रात में सोते समय अपने कान में मच्छर के भिनभिनाने की आवाज से दुःखी हो जाता है उस समय अगर सोचता है कि इस मच्छर को मार डाले पर फिर उसे याद आता है उसे तो अहिंसा धर्म का पालन करना है। उसने मच्छर को नहीं मारा पर उसके दिमाग में मारने का विचार तो आया-भले ही वह उससे जल्दी निवृत हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि सोच हमेशा सच नहीं होता।
मान लीजिये कोई दानी है। वह हमेशा दान कर अपने मन को शांति प्रदान करता है। उसके सामने कुछ दादा लोग किसी ठेले वाले का सामान लूट रहे रहे हैं तब वह उसे क्रोध आता है वह सोचता है कि इन दादाओं से वह सामान छीनना चाहिये फिर उसे अपनी बेबसी का विचार आता है और वह वहां से चला जाता है। यह छीनने का विचार किसी भी दान धर्म का पालन करने वाले के लिये अपराध जैसा ही है। उस दानी आदमी ने दादाओं सामान छीनकर उस ठेले वाले को वापस लौटाने का प्रयास नहीं किया पर यह ख्याल उसके मन में आया। यह छीनने का विचार भी बुरा है भले ही उसका संदर्भ उसकी इजाजत देता है।
पंच तत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृतियों का खेल ऐसा है कि इंसान को वह सब खेलने और देखने को विवश करती हैं जो उसके मूल स्वभाव के अनुकूल नहीं होता। क्रोध, लालच, अभद्र व्यवहार और मारपीट से परे रहना अच्छा है-यह बात सभी जानते हैं पर इसका विचार ही नहीं आये यह संभव नहीं है।
मुख्य बात यह है कि आदमी बाह्य व्यवहार कैसा करता है और वही उसका सच होता है। इधर पता नहीं कोई ‘सच का सामना’ नाम का कोई धारावाहिक प्रारंभ हुआ है और देश के बुद्धिमान लोगों ने हल्ला मचा दिया है।
पति द्वारा पत्नी की हत्या की सोचना या पत्नी द्वारा पति से बेवफाई करने के विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को बुद्धिमान लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। कई लोग तो बहुत शर्मिंदगी व्यक्त कर रहे हैं। इस लेखक ने सच का सामना धारावाहिक कार्यक्रम के कुछ अंश समाचार चैनलों में देखे हैं-इस तरह जबरन दिखाये जाते हैं तो उससे बचा नहीं जा सकता। उसके आधार वह तो यही लगा कि यह केवल सोच की अभिव्यक्ति है कोई सच नहीं है। सवाल यह है कि इसकी आलोचना भी कहीं प्रायोजित तो नहंी है? हम इसलिये इस कार्यक्रम की आलोचना नहीं कर पा रहे क्योंकि इसे देखा नहीं है पर इधर उधर देखकर बुद्धिजीवियों के विचारों से यह पता लग रहा है कि वह इसे देख रहे हैं। देखने के साथ ही अपना सिर पीट रहे हैं। इधर कुछ दिनों पहले सविता भाभी नाम की वेबसाईट पर ही ऐसा बावेला मचा था। तब हमें पता लगा कि कोई यौन सामग्री से संबंधित ऐसी कोई वेबसाईट भी है और अब जानकारी में आया कि सच का सामना भी कुछ ऐसे ही खतरनाक विचारों से भरा पड़ा है।
इस लेखक का उद्देश्य न तो सच का सामना का समर्थन करना है न ही विरोध पर जैसे देश का पूरा बुद्धिजीवी समाज इसके विरोध में खड़ा हुआ है वह सोचने को विवश तो करता है। बुद्धिजीवियों ने इस पर अनेक विचार व्यक्त किये पर किसी ने यह नहीं कहा कि इस कार्यक्रम का नाम सच का सामना होने की बजाय सोच का सामना करना होना चाहिये। दरअसल सच एक छोटा अक्षर है पर उसकी ताकत और प्रभाव अधिक इसलिये ही वह आम आदमी को आकर्षित करता है। लोग झूठ के इतने अभ्यस्त हो गये है कि कहीं सच शब्द ही सुन लें तो उसे ऐसे देखने लगेंगे कि जैसे कि कोई अनूठी चीज देख रहे हों।
पहले ऐसे ही सत्य या सच नामधारी पत्रिकायें निकलती थीं-जैसे ‘सत्य कहानियां, सत्य घटनायें, सच्ची कहानियां या सच्ची घटनायें। उनमें होता क्या था? अपराधिक या यौन कहानियां! उनको देखने पर तो यही सच लगता था कि दुनियां में अपराध और यौन संपर्क को छोड़कर सभी झूठ है। यही हाल अब अनेक कार्यक्रमों का है। फिर सच तो वह है जो वास्तव में कार्य किया गया हो। अगर कथित सच का सामना धारावाहिक की बात की जाये तो लगेगा कि उसमें सोचा गया है। वैसे इस तरह के कार्यक्रम प्रायोजित है। एक कार्यक्रम में पत्नी के सच पर पति की आंखों में पानी आ जाये तो समझ लीजिये कि वह प्रायोजित आंसू है। अगर सच के आंसू है तो वह कार्यक्रम के आयोजक से कह सकते हैं कि-‘भई, अपना यह कार्यक्रम प्रसारित मत करना हमारी बेइज्जती होगी।’
मगर कोई ऐसा कहेगा नहीं क्योंकि इसके लिये उनको पैसे दिये जाते होंगे।
लोग देख रहे हैं। इनके विज्ञापन दाताओं को बस अपने उत्पाद दिखाने हैं और कार्यक्रम निर्माताओं को अपनी रेटिंग बढ़ानी है। सच शब्द तो केवल आदमी के जज्बातों को भुनाने के लिये है। इसका नाम होना चाहिये सोच का सामना। तब देखिये क्या होता है? सोच का नाम सुनते ही लोग इसे देखना बंद कर देंगे। सोचने के नाम से ही लोग घबड़ाते हैं। उनको तो बिना सोच ही सच के सामने जाना है-सोचने में आदमी को दिमागी तकलीफ होती है और न सोचे तो सच और झूठ में अंतर का पता ही नहीं लगता। यहां यह बता दें कि सोचना कानून के विरुद्ध नहीं है पर करना अपराध है। एक पुरुष यह सोच सकता है कि वह किसी दूसरे की स्त्री से संपर्क करे पर कानून की नजर में यह अपराध है। अतः वहां कोई अपने अपराध की स्वीकृति देने से तो रहा। वैसे यह कहना कठिन है कि वहां सभी लोग सच बोल रहे होंगे पर किसी ने अगर अपने अपराध की कहीं स्वीकृति दी तो उस भी बावेला मच सकता है।
निष्कर्ष यह है कि यह बाजार का एक खेल है और इससे सामाजिक नियमों और संस्कारों का कोई लेना देना नहीं है। अलबत्ता मध्यम वर्ग के बद्धिजीवी-सौभाग्य से जिनको प्रचार माध्यमों में जगह मिल जाती है-इन कार्यक्रमों की आलोचना कर उनको प्रचार दे रहे हैं। हालांकि यह भी सच है कि उच्च और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों पर इसका प्रभाव होता है और उसे वही देख पाते हैं जो खामोशी से सामाजिक हलचलों पर पैनी नजर रखते हैं। बहरहाल मुद्दा वहीं रह जाता है कि यह सोच का सामाना है या सच का सामना। सोच का सामना तो कभी भी किया जा सकता है पर उसके बाद का कदम सच का होता है जिसका सामना हर कोई नहीं कर सकता
………………………….

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हादसों का प्रचार -त्रिपदम (hindi tripadam)


बड़े हादसे
प्रचार पा जाते हैं
बिना दाम के।

चमकते हैं
नकलची सितारे
बिना काम के।

कायरता में
ढूंढ रहे सुरक्षा
योद्धा काम के।

असलियत
छिपाते वार करें
छद्म नाम से।

भ्रष्टाचार
सम्मान पाता है
सीना तान के।

झूठी माया से
नकली मुद्रा भारी
खड़ी शान से ।

चाटुकारिता
सजती है गद्य में
तामझाम से।

असमंजित
पूरा ही समाज है
बिना ज्ञान के।

………………………….

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सर्वशक्तिमान नहीं पैसा बनाता है जोड़ी-हास्य कविता


कौन कहता है ऊपर वाला ही
बनाकर भेजता इस दुनियां में जोड़ी
पचास साल के आदमी के साथ कैसे
जम सकती है बाईस साल की छोरी
अय्याशी के बनाते हैं संदेश
जिस पर नाचे पूरा देश
पर्दे पर काल्पनिक दृश्यों में
अभिनेताओं के साथ नाचते हुए
कई अभिनेत्रियां बूढ़ी हो जाती हैं
फिर कोई नयी आती है
पैसे और व्यापार के लिये खुल है पूरा
कहते हैं फिर ‘रब ने बना दी जोड़ी’
उठायें दीपक बापू सवाल
सर्वशक्तिमान ने रची है दुनियां
इंसान को अक्ल भी दी है
उसी पर काबू पाने के लिये
कई रचे गये प्रपंच
बना दिया धरती को बेवकूफियों का मंच
कामयाब हो जाये तो अपनी तारीफ
नाकाम होते ही अपनी गलती की
जिम्मेदारी सर्वशक्तिमान पर छोड़ी

……………………
मुश्किल है इस बात पर
यकीन करना कि
बन कर आती है ऊपर से जोड़ी
फिर कैसे होता कहीं एक अंधा एक कौड़ी
जो बना लेता हैं अपनी जोड़ी
कहीं घरवाली को छोड़
बाहरवाली से आदमी बना लेता अपनी जोड़ी

………………………….

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बिना मेकअप के अभिनय-हास्य व्यंग्य कविता


फिल्म का नाम था
‘नौकरानी ने बनी रानी’
जोरदार थी कहानी।
निर्देशक ने अभिनेत्री से कहा
‘आधी फिल्म में मेकअप बिना
आपको काम करना होगा
फटी हुई साड़ियों को ओढ़ना होगा
फिल्म जोरदार हिट होगी
अभिनय जगत में आपकी ख्याति का
नहीं होगा कोई सानी।’
अभिनेत्री ने कहा-‘
नये नये निर्देशक हो
इसलिये नहीं मुझे जानते हो
बिना मेकअप के चाहे कोई भी पात्र हो
उसका अभिनय नहीं करूंगी
सारी दुनियां में मुझे सुंदरी कहा जाता है
मेकअप के बिना तो मैं
अपना चेहरा आईने में खुद ही नहीं देखती
बिना मेकअप के तो कई बार
मैंने अपनी सूरत भी नहीं पहचानी।
अपने शयनकक्ष से ही बाहर
मैं मेकअप लगाकर आती हूं
अपनी मां को शक्ल ऐसे ही दिखाती हूं
ढेर सारे मेरे चाहने वाले
जब मेरी असल शक्ल देख लेंगे
तो आत्महत्या कर लेंगे
पड़ौस के लड़के जो
पल्के बिछाये मुझे देखते हैं
वह भी मूंह फेर लेंगे
जहां तक साड़ियों की बात है
तो आजकल काम वाली बाईयां भी
बन ठन कर घूमती हैं
ढेर सारी फिल्में ऐसी बनी हैं
जिनमें वह नई साड़ी में अपने
सजेधजे बच्चों को चूमती हैं
इसलिये अगर फिल्म में
मुझसे अभिनय कराना हो तो
महंगी साड़ियां ही मंगवाना
मेकअप का सामान हर हालत में जुटाना
चाहे बनाओ नौकरानी या रानी।’

…………………………

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