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भारत के प्राचीन अध्यात्मिक ज्ञान होने पर ही बहस करना संभव-हिंदी लेख (bharat ka adhyatmik gyan-hindi article)


हम जब हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व पर विचार करते हैं तो हमारा चिंतन केवल अपने देश तक ही सीमित हो जाता है। हम उस पहचान पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं जैसी हम देखना चाहते हैं, विदेशों में हमारे धर्म, भाषा तथा विचारों को कितने व्यापक संदर्भों में देखा जाता है इसकी कल्पना तक नहीं करते। यही हम इस विषय पर अपने अपने पूर्वाग्रहों के साथ विचार करते हैं। निष्कर्ष भी हम अपनी सुविधानुसार निकालते हैं। यहीं से आत्ममुगधता की ऐसी शुरुआत होती है जिसका अंत संकीर्ण विचारों में घिरकर होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हम जैसी पहचान चाहते हैं वैसे ही बनाने के लिये प्रयत्नशील हो जाते हैं जबकि होना यह चाहिये कि हम अपनी भाषा, व्यक्तित्व तथा विचाराधारा के मूल तत्वों को समझने के साथ अपनी स्थापित व्यापक पहचान के साथ अपना अभियान शुरु करें।
हम पहले अपनी कल्पित बाह्य पहचान का विचार कर फिर अपना रचनाकर्म या अभियान प्रारंभ कर अंधेरी गलियों में जा रहे हैं। यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर हमारी जो पहचान पुराने आधारों पर बनी है उसमें नवीनता नहीं आ पाती बल्कि हमारी बदनामी करने वालों को इससे अधिक निंदा करने का अवसर मिल जाता है।
किसी समय भारत के सांपों को खेल दिखाने वाले और अंधविश्वासों से जकड़े हुए लोगों का देश कहा जाता था। उसके बाद भारतीय दर्शन के मूलतत्वों को जानने पर पाश्चात्य विद्वानों ने ही उस छबि को सुधारा। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने के बावजूद अभी भी भारत को अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को माने वाले विदेशी लोगों की संख्या अभी भी कम नहीं है।

एक तरफ हम हिन्दू, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के पीछे देश को एक देखना चाहते हैं दूसरी तरफ देश की विविधताओं में सामंजस्य बिठाने का प्रयास भी जारी रहता है। यह बुरा नहीं है परंतु विविधताओं में समन्वय लाने के प्रयास से जो अंतद्वंद्व उभरता है उससे बचने का कोई प्रयास नहीं होता उल्टे सामाजिक और वैचारिक वैमनस्य पनपता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहां हर कोई हर समाज या समूह का आदमी अपने अपने ढंग से वैश्विक पहचान की बात सोचता है। अगर हम पहले यह देखें कि विश्व में हमारे देश की पहचान कैसी और उसके आधार क्या हैं, तभी हम सामूहिक रूप से आगे बढ़ पायेंगे। खाली पीली के पूर्वाग्रहों से आगे बढ़ना संभव नहीं है।
यह अंतिम सत्य है कि भारत की पहचान विश्व स्तर पर हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व से ही है। यहां की सांस्कृतिक, सांस्कारिक तथा सभ्यता की विविधता को सारा विश्व जानता है और यहां की सहिष्णुता, सादगी तथा सत्यनिष्ठा की भी सभी जगह कद्र है। एक बात याद रखिये इस पहचान पर हमला करने के जो प्रयास हुए हैं उन्हें भी समझना होगा। अक्सर लोग कहते हैं कि अन्य भाषाओं के लेखकों ने फिर भी वैश्विक स्तर पर नाम कमाया है पर हिन्दी भाषी कोई लेखक इसमें सफल नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि भारत की पहचान को मिटाने के लिये ही प्रयास यही किया गया है कि यहां की संस्कृत तथा हिन्दी भाषा को उपेक्षित किया जाये। जहां तक अन्य भाषियों के सम्मान का सवाल है तो उनकी रचनायें या फिल्में अंग्रेजी अनुवाद के कारण ही विदेशों में समझी गयी न कि मूल भाषा के कारण। अभी तक जिन भारतीयों को नोबल या अन्य पुरस्कार मिलें हैं उनमें कितने लोगों की रचनात्मक पृष्ठभूमि कितनी भारतीय है और कितनी विदेशी इस पर अक्सर बहस होती है। इसका कारण यही है कि मूल भारतीय पृष्ठभूमि की जबरदस्त उपेक्षा की जाती है क्योंकि वह सत्य पर आधारित है न कि झूठे समझौतों के साथ उसने अपना आधार बनाया है। दूसरा सच यह भी है कि जब भारतीय पृष्ठभूमि की बात आती है तो तुलसी, कबीर, रहीम और मीरा की रचनाओं आज भी अंतर्राष्ट्रीय पहचान कायम है। हिन्दी भाषा के महान लेखक प्रेमचंद को अब वैश्विक स्तर पर पहचाना जाता है। पुरस्कारों का कोई मोल नहीं है क्योकि हिन्दी भाषा हमारी पहचान हैं।
इधर हम हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व को लेकर केवल अपने देश तक ही सोचकर सीमित हो जाते हैं। एक बात याद रखिये हिन्दी भाषी भारतीय अपनी संस्कृति के साथ पूरे विश्व में फैलें हैं। अगर हम हिन्दू शब्द को धर्म जैसे संकीर्ण विषय तक सीमित रख कर भी सोचें तो भारत में संख्या अधिक है पर इसका आशय यह नहीं है कि अन्यत्र उनका कोई आधार नहीं है। कहा जाता है कि इंडोनेशियो में भले ही धर्म कोई भी माना जाता हो पर वहां हिन्दू संस्कृति अब भी अपना वजूद बनाये हुए हैं-यह अलग बात है कि कुछ पश्चिमी देश उसे अपने धन बल से समाप्त करने के लिये जुटे हैं। थाईलैण्ड, मलेशिया तथा श्रीलंका में बड़े पैमाने पर हिन्दू हैं। पाकिस्तान में भी बहुत हिन्दू रहते हैं। इसके बावजूद सभी देशों में कभी हिन्दू धर्म या संस्कृति को लेकर सामजंस्य बिठाने का प्रयास कभी नहीं हुआ। यह काम भारत का था पर यहां किसी भी हिन्दू विचारक ने इस पर काम नहीं किया। इसके अलावा मध्य एशिया में हिन्दू बड़े पैमाने पर हैं पर कभी किसी हिन्दू धार्मिक शिखर पुरुष ने यह प्रयास या अभियाना प्रारंभ नहीं किया कि वहां सभी उन्मुक्त भाव से अपने धर्म का पालन कर सकें। हालांकि इस विषय पर अनेक लोग यह दावे करते हैं कि वहां सब ठीक ठाक है। अगर उनकी बात सही है तो उसको लेकर सार्वजनिक रूप से दावे क्यों नहीं किये जाते। क्या इसके पीछे यह खौफ है कि अधिक चर्चा से बात बिगड़ सकती है और उन देशों गैर हिन्दू लोग उत्तेजित हो सकते हैं? अगर यह ठीक भी है तो भी हिन्दू व्यक्तित्व के दृढ होने का प्रमाण नहीं है जोकि एक अनिवार्य शर्त है।
विश्व में भारत की पहचान हिन्दी से ही है। आप चाहें लाख सिर पटक लें पर अंतिम सत्य यही है। पिछला समय कैसा था, इस पर सोचने की बजाय यह देखें कि अब क्या चल रहा है? अब इंटरनेट के सर्च इंजिनों में निर्णय होना है। भारत में इंटरनेट प्रयोक्ता हिन्दी को समर्थन नहीं दे रहे हैं, उस पर अच्छा नहीं लिखा जा रहा है और उसके लिये केाई प्रोत्साहन नहीं है, यह बात निराश कर सकती है पर आशावाद का मुख्य कारण भी यही हिन्दी है। जब विश्व में भारत की वैचारिक, साहित्यक तथा सांस्कारिक विषयों की खोज होगी तो लोग हिन्दी को ही प्राथमिकता देंगे। अंग्रेजी में लिखने वाले कितनी भी डींगें हांकें पर अनुवाद टूलों ने अगर पूर्ण शुद्धता प्राप्त कर ली तो भारत के हिन्दी लेखकों को ही अग्रिम पंक्ति में पायेंगे। हिन्दी लेखकों के पास लिखने के लिये बृहद विषय हैं। जिन भारतीयों ने अंग्रेजी भाषा में लिखना तय किया है उनके पास सामाजिक विषयों पर लिखने के लिये अधिक नहीं है। अगर होगा भी तो वह लिख पायेंगे इसमें संदेह है। क्योंकि भाषा और लिपि का संबंध भाव से होता है इसलिये जो विषय हिन्दी में लिखा जा सकता है उसका वैसा भाव लिखते समय अंग्रेजी में नहीं आ सकता। इसका मतलब सीधा है कि जिन लेखकों की शिक्षा हिन्दी में हुई है और अंग्र्रेजी में लिखने में असमर्थ हैं वह हिन्दी में लिखकर अंतर्जाल पर छाने के लिये प्रयास मौलिक रचनायें करेंगे। ऐसे में हिन्दी का बोलबाला ही रहेगा। अभी यह कहना कठिन होगा कि हिन्दी के पाठकों की संख्या कब बढ़ेगी और देश में लेखकों केा समर्थन कब मिलेगा? अलबत्ता जिस तरह कुछ लोग अंतर्जाल पर बाहरी दुनियां से अलग गजब का लेखन कर रहे हैं उससे हिन्दी के पाठक भी उनकी अनदेखी नहीं कर पायेंगे। विदेशों में तो उनको पढ़ा ही जायेगा।
हिन्दुत्व को लेकर अधिक विवाद की गुंजायश नहीं है। हिन्दुत्व का सीधा मतलब यही है कि अध्यात्मिक ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत किया जाये। हिन्दुत्व में साकार और निरंकार दोनों भावों का मान्यता दी जाती है। कहने का अभिप्राय है कि किसी के अपराध को क्षमा करने की सहिष्णुता और अपने विरुद्ध आक्रमण करने वाले का प्रतिकार करना हिन्दुत्व की पहचान है। इतना ही नहीं हर प्रकार के अध्यात्मिक ज्ञान से परिचित होना जीवन की महत्वपूर्ण उपलब्ण्धि होती है। ऐसे में अपने जैसे सत्संगी-धार्मिक, जातीय, भाषाई तथा अन्य आधार पर समान लोग-जहां भी मिले उनसे व्यवहार बनाये। अतः जिन लोगों को हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व से सकारात्मक सरोकार है उनको अपना दृष्टिकोण व्यापक करते हुए अपनी सक्रियता का दायरा बढ़ाना चाहिये। याद रहे आलोचना करने वाले कितने भी तर्क करें हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के व्यापक प्रभाव को वह जानते हैं। शेष फिर कभी

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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दीपावली(दीवाली) पर जलाओ ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक-संपादकीय


सामने दिये जलता हुआ हो और आंखों से न दिखे तो फिर उसकी रोशनी किस काम की? प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर लोग अपने घरों में दीपक जलाते हैं।  अब तो रौशनी करने के अनेक नये सामान आ गये हैं पर फिर भी लोग तेल के दीपक जलाते हैं।  अगर वह दीपक न भी जलायें तो भी अन्य सामानों से बहुत रौशनी होती है-इतनी के तेल का दीपक जलाने पर उससे हुई रौशनी में वृद्धि की अनुभूति ही नहीं होती। इसके बावजूद लोग परंपरा के निर्वाह के लिये जलाते हैं।  नयेपन और पुरानेपन के बीच फंसा समाज अपने आपको भंवर में फंसा तो पाता है पर उससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूंढता। बाहर रौशनी के फैले बड़े बल्ब हैं और उसकी चकाचैंध ने आदमी के अंदर के ज्ञान के दीपक को प्रज्जवलित होने से रोक लिया है। जिसे देखो वह अपने जीवन को पद, वैभव और शक्ति की ऊर्जा से चमकते हुए देखना चाहता है। 
जब केवल प्राक्रृतिक मिट्टी से बना तेल का दीपक रौशनी करता था तो लोगों की लालसायें और आकांक्षायें इतनी अधिक नहीं थी।  जैसे रौशनी के लिये कृत्रिम सामान बनते गये वैसे वह उसकी आकांक्षायें और लालसायें बढाती गयीं।

बस आदमी को रौशनी चाहिये। पद,पैसा और प्रतिष्ठा में ही अपने जीवन की रौशनी ढूंढने वाला आदमी उनको पाकर भी संतुष्ट नहीं रह पाता।  उसके मन में अंधेरा ही रहता है क्योंकि वह ज्ञान के दीपक नहीं जलाता।  पहले यह चाहिये! वह मिल गया तो वह चाहिये। बस चाहिये। किसी को कुछ देना नहीं है।  आदमी का सोच बस एक ही है कि ‘मुझे को खुश करे’ पर वह स्वयं किसी को खुश न तो करता और न देख पाता है।  ज्ञान प्राप्त करने वालों ने तेल से जलते हुए दीपक में  अपना काम चलाया और जिनको केवल माया प्राप्त करनी  है उनका मन तेज रौशनी की ट्यूबलाईट में भी बुझा रहता है।  जितना धन उतनी उसकी रक्षा की चिंता, जितना बड़ा पद वहां से नीचे गिरने का भय और जितनी अधिक प्रतिष्ठा उतनी अधिक बदनामी की आशंका आदमी को अंधेरे में डाल देती है।  वह घबड़ाता हुआ रौशनी की तरफ भागता है।  कभी टीवी देखता है कभी शराब पीता है तो कभी अन्य व्यसनों के सहारे अपने लिये खुशी जुटाना चाहता है। वह बढ़ता जाता है अंधेरे की तरफ।
पश्चिम की मायावी संस्कृति में अपनी सत्य संस्कृति मिलाकर जीवन बिताने वाले इस देश के लोगों के लिये दीपावली अब केवल रौशनी करने और मिठाई खाने तक ही सीमित रह गयी है।  अंधेरे में डूबा आदमी रौशनी कर रहा है-वह आंखों से दिखती है पर उसका अहसास नहीं कर पाता।  पर्यावरण प्रदूषण,मिलावटी सामान और चिंताओं से जर्जर होते जा रहे शरीर वाला  आदमी अपनी आंखों से रौशनी लेकर अंदर कहां ले जा पाता है।  अपने हाथों से आदमी ने काटा है अपने स्वस्थ और प्रसन्न जीवन का सामान।
मनुष्य के अपने मन के भटकाव को नहीं समझ पाता।  वह उस आध्यात्म ज्ञान से घबड़ाता है जिसकी वजह से पश्चिम आज भी भारत को अध्यात्मक गुरु मानता है।  इतनी संपन्नता के बाद भी वह अपने मन से नहीं भागता तो इस देश में व्यवसायी साधु,संतों,फकीरों और सिद्धों के दरवाजे पर भीड़ नहीं लगती।  स्वयं ज्ञान से रहित लोग उनके गुरू बनकर उनका दोहन नहीं करते।  अपने पुराने ग्रंथों में लिखी हर बात को पौंगापंथी कहने वाले लोग नहीं जानते कि इस प्रकृति के अपने नियम हैं।  वह यहां हर जीव को पालती है।  हर जीव अपने जीवन में विकास कर फिर दुनियां से विदा हो जाता है। 

यहां के आदमी को  सुना दिये गये हैं कुछ ऐसे श्लोक और दोहे जो अपने समय में प्रासंगिक थे पर अब नहीं। यह योजनापूर्वक किया गया ताकि वह आज भी प्रासंगिक ज्ञान से वंचित रहे।  उसके सामने रख दी गयी हैं विदेशों से आयातित कुछ पंक्तियां जिन पर लिखी जा रही है आधुनिकता और विकास की नयी कहानियां।  जीवन के सत्य नहीं बदलते पर उन्हें समझता कौन है? पूरा का पूरा समाज अव्यवस्था की चपेट में हैं। कहते हैं कि यह समाज पहले बंटा हुआ था इसलिये गुलाम रहा पर आज तो उसे और अधिक बांट दिया गया है। परिवारों में महिला,पुरुष,बालक और वृद्ध के विभाजन करते हुए उनकी रक्षा के लिये नियम बनाये गये।  समाज को नियंत्रित करने के लिये राज्य से अपेक्षा की जा रही है-मान लिया गया है कि इस देश में अब  भले लोग नहीं हैंं। इतना बड़ा विश्वास लोग स्वीकार कर रहे हैं।  डंडे के जोर पर आदमी को अपने परिवार से निर्वाह करने के प्रयास दर्शाते हैं कि देश के आदमी पर भरोसा नहीं रहा। 

विज्ञान में प्रगति आवश्यक है यह बात तो हमारा अध्यात्म मानता है पर जीवन ज्ञान के बिना मनुष्य प्रसन्न नहीं रह सकता यह बात भी कही गयी है।  जीवन का ज्ञान न तो  बड़ा है न गुढ़ जैसा कि इस देश के कथित महापुरुष और विद्वान कहते हैं।  वह सरल और संक्षिप्त है पर बात है उसे धारण करने की।  अगर उनको धारण कर लो तो ज्ञान का ऐसा अक्षुण्ण और दिव्य दीपक प्रकाशित हो उठेगा जिसका प्रकाश न केवल इस देह के धारण करते हुए बल्कि उससे विदा होती आत्मा के साथ भी जायेगा।  इस दिव्य दीपक की रौशनी से प्रतिदिन दीपावली की अनुभूति होगी फिर देख सकते हो कि किस तरह वर्ष में केवल एक दिन लोग दीपावली मनाते हुए भी उसकी अनुभूति नहीं कर पाते।  फिर जाकर देखो वहां जहां सफेद और गेहुंऐ वस्त्र पहने उन ज्ञान के व्यापरियों को जो स्वयं अंधेरे में हैं और लोग उनसे रौशनी खरीद रहे हैं।  देखो उनके सत्संग के उपक्रम को जो ऐसे स्वर्ग को दिलवाता है जो कहीं बना ही नहीं।

देखो जाकर सन्यासियों को्! इस धरा पर सन्यास लेना संभव है ही नहीं। हां, भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में इसको एक तरह से खारिज कर दिया है क्योंकि यह संभव नहीं है कि इस धरती पर रहते हुए आदमी अपनी इंद्रियों से काम न ले।  सन्यास का अर्थ है कि आदमी अपनी सभी इंद्रियों को शिथिल कर केवल भगवान के नाम का स्मरण कर जीवन गुजार दे। मगर आजकल के सन्यासी कहते हैं कि आजकल यह संभव नहीं हैं कि केवल भगवान का स्मरण करने के लिये पूरा जीवन कंदराओं में गुजार दे क्योंकि समाज को मार्ग दिखाने का भी तो उनका जिम्मा है।  वह झूठ बोलते हैं कंदराओं में केवल बुढ़ापे में जाया जाता है और उसे सन्यास नहीं बल्कि वानप्रस्थ कहा जाता है क्योंकि उसमें वन में आदमी अपनी इंद्रियों से कार्य करता है। 
ज्ञान और ध्यान बेचने वाले व्यापारी  ढोंग करते हैं। उनसे दीक्षा लेने से अच्छा है तो बिना गुरु के रहा जाये या फिर एकलव्य बनकर किसी गुरू की तस्वीर रखकर ज्ञान का अभ्यास किया जाये।  गलत गुरु की दीक्षा अधिक संकटदायक होती है।  यह गुरु मोह और मायाजाल के भंवर में ऐसा फंसे कि वहां से स्वयं नहीं निकल सकते तो किसी अन्य को क्या निकालेंगे। वहां जाकर देखो कि किस तरह शारीरिक और मानसिक विकारों से ग्रस्त लोग किस तरह वहां अपने लिये औषधि ढूंढ रहे हैं।

निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ही वह शक्ति जो आदमी के अंदर प्रज्जवलित ज्ञान के दिव्य दीपक की रौशनी के रूप में बाहर फैलती दिखाई देती है। ज्ञान खरीदा नहीं जा सकता जबकि गुरु उसे बेच रहे हैं। कहते हैं कि हम कुछ देर के लिये आदमी के लिये आदमी का संताप कम कर देते हैं पर देखा जाये तो अगर थोड़ी देर के लिये ध्यान बंट जाये तो कुछ स्फूर्ति अनुभव होती है पर अगर यह ध्यान किसी प्रस्तर की प्रतिमा के सामने बैठकर स्वयं प्रतिदिन लगाया जाये तो वह पूरा दिन ऊर्जा देती है। जब भी कहीं मानसिक संताप हो तो भृकुटि पर दृष्टि कर बंद आखों से ध्यान किया जाये तो एकदम राहत अनुभव होती है।  इसके लिये ज्ञान और ध्यान बेचने वालों के पास जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वहां आप प्रतिदिन नहीं जा सकते। अगर गये तो वह अपनी फीस मांगेंगे या फिर उनके खास चेले आपत्ति करेंगे।

यह लेखक कोई सिद्ध नहीं है पर अपने अनुभव सुनाते हुए अच्छा लगता हैं।  दीपावली पर ढेर सारे बधाई संदेश मिले।  उनका यह जवाब है।  यह लेखक देखना चाहता है ज्ञानी के दिव्य दीपक की रौशनी से ओतप्रोत लोगों का एक समूह जिससे पूरा समाज प्रकाशित हो।  दिखावा कर तो एक दिन भी प्रसन्नता नहीं मिल सकती। अपने अंदर जला लो ज्ञान और ध्यान का दिव्य दीपक तो जीवन पर दीपावली की अनुभूति होगी।  किसी एक दिन किसी की शुभकामनाओं की प्रतीक्षा नहीं रहेगी। बल्कि बाकी दिनों में मिलने वाला हर शुभकामना संदेश वैसा ही लगेगा जिससे दिल प्रसन्न हो उठेगा। अपने अंतर्मन में ज्ञान और ध्यान के जलते दीपक की रौशनी में देख सकते हो और खुलकर हंस भी सकते हो और सुख की अनुभूति ऐसी होगी जो अंदर तक स्फूर्ति प्रदान करेगी।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप</strong></blockquote>
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ब्लाग पर त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाने वालों का आभार


कुछ ब्लोगों में शब्द और वर्तनी की गलतिया आ जाती हैं. मैं खुद कई गलतियां कर जाता हूँ, यह स्वीकार करते हुए कोई शर्म नहीं है कि यह गलतिया मेरी लापरवाही से होतीं हैं. जो लोग मेरा इनकी तरफ आकर्षित कराते हैं उनका आभारी हूं. वैसे कई ब्लोगर अनजाने में यह गलतियां कर जाते हैं और जल्दबाजी में उनको ठीक करना भूल जाते हैं.

इन गलतियों के पीछे केवल एक ही कारण है कि हम जब इसे टंकित कर रहे हैं तो अंग्रेजी की बोर्ड का इस्तेमाल करते हैं. दूसरा यह कि कई शब्द ऐसे हैं जो बाद में बेक स्पेस से वापस आने पर सही होते हैं, और कई शब्द तो ऐसे हैं जो दो मिलाकर एक करने पड़ते हैं. ki से की भी आता है और कि भी. kam से काम भी आता है कम भी. एक बार शब्द का चयन करने के बाद दुबारा सही नहीं करना पड़ता है पर गूगल के हिन्दी टूल का अभ्यस्त होने के कारण कई बार इस तरफ ध्यान नहीं जाता और कुछ गलतिया अनजाने में चली जाती हैं. वैसे तो मैं कृतिदेव से करने का आदी हूँ और यह टूल इस्तेमाल करने में मुझे बहुत परेशानी है, पर मेरे पास फिलहाल इसके अलावा कोई चारा नहीं है. वैसे मैं अंतरजाल पर लिखने से पहले अपनी रचनाएं सीधी कंप्यूटर पर कृतिदेव में टायप करता था और हिन्दी टूल से अब भी यही करता हूँ और मुझे कहने में कोई संकोच नहीं है कि अपने मूल स्वरूप के अनुरूप नहीं लिख पाता. ऐसा तभी होगा जब मैं हाथ से लिखकर यहाँ टाइप करूंगा. अभी यहाँ बड़ी रचनाएं लिखने का माहौल नहीं बन पाया है और जब हाथ से लिखूंगा तो बड़ी हो जायेंगी. इसलिए अभी जो तात्कालिक रूप से विचार आता है उसे तत्काल यहाँ लिखने लगता हूँ, उसके बाद पढ़ने पर जो गलती सामने आती है उसको सही करता हूँ फिर भी कुछ छूट जातीं हैं.

चूंकि अंग्रेजी की बोर्ड का टाईप सभी कर रहे हैं इसलिए गलती हो जाना स्वाभाविक है पर इसे मुद्दा बनाना ठीक नहीं है और अगर सब कमेन्ट लिखते समय एक दूसरे इस तरफ ध्यान दिलाएं तो अच्छी बात है-क्योंकि जब कोई रचना या पोस्ट चौपाल पर होती है तो उसका ठीक हो जाना अच्छी बात है, अन्य पाठकों के पास तो बाद में पहुँचती है और तब तक यही ठीक हो जाये तो अच्छी बात है. वैसे कुछ लिखने वाले वाकई कोई गलती नहीं करते पर कुछ हैं जिनसे गलतियां हो जातीं हैं. हाँ इस गलती आकर्षित करने पर किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए. अब बुध्दी हो या बुद्धि हम समझ सकते हैं कि कोई जानबूझकर गलती नहीं करता. इस पर किसी का मजाक नहीं बनाना चाहिऐ. मैंने बडे-बडे अख़बारों में ऐसी गलतियां देखीं हैं.

इस मामले में मैं उन लोगों का आभारी हूँ जिन्होंने मेरा ध्यान इस तरफ दिलाया है, और अब तय किया है कि अपने लिखे को कम से कम दो बार पढा करूंगा. इसके बावजूद कोई रह जाती है तो उसका ध्यान आकर्षित करने वालों का आभार व्यक्त करते हुए ठीक कर दूंगा.

चाणक्य नीति:असंयमित जीवन से व्यक्ति अल्पायु


1.बुरे राजा के राज में भला जनता कैसे सुखी रह सकती है। बुरे मित्र से भला क्या सुख मिल सकता है। वह और भी गले की फांसी सिद्ध हो सकता है। बुरी स्त्री से भला घर में सुख शांति और प्रेम का भाव कैसे हो सकता है। बुरे शिष्य को गुरू लाख पढाये पर ऐसे शिष्य पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता है।

2.जो सुख चाहते है वह विद्या छोड़ दें। जो विद्या चाहते हैं वह सुख छोड़ दें। सुखार्थी को ज्ञान और ज्ञानार्थी को सुख कहाँ मिलता है। बिना सोचे-समझे खर्च करने वाला, अनाथ, झगडा करने वाला तथा असंयमित जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति अल्पायु होते हैं।धन-धान्य के लेन-देन में, विद्या संग्रह में और वाद-विवाद में जो निर्लज्ज होता है, वही सुखी होता है।

3.जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहुचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करने में खुश होते हैं। अपने वचनों द्वारा से कभी-कभी अपने ही द्वारा बिछाए जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।समय के अनुसार विचार न करना अपने लिए विपत्तियों को बुलावा देना है, गुणों पर स्वयं को समर्पित करने वाली संपतियां विचारशील पुरुष का वरण करती हैं। इसे समझते हुए समझदार लोग एवं आर्य पुरुष सोच-विचारकर ही किसी कार्य को करते हैं। मनुष्य को कर्मानुसार फल मिलता है और बद्धि भी कर्म फल से ही प्रेरित होती है। इस विचार के अनुसार विद्वान और सज्जन पुरुष विवेक पूर्णता से ही किसी कार्य को पूर्ण करते हैं।

शाश्वत प्रेम के कितने रुप


‘प्रेम’ शब्द मूलरूप से संस्कृत के ‘प्रेमन’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। प्रेम का शाब्दिक अर्थ है-‘प्रिय का भाव’। ऐक अन्य प्रकार की व्युत्पत्ति दिखाई देती है, जहाँ प्रेम को ‘प्रीञ’ धातु से मनिन’ प्रत्यय करके सिद्ध किया गया है (प्रीञ+मनिन=प्रेमन)। इस द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार प्रेम का अर्थ है-प्रेम होना, तृप्त होना, आनन्दित होना या प्रेम, तृप्त और आनंदित करना।

निर्गुण-निराकार ब्रह्म को अद्वैत मतावलंबियों ‘सच्चिदानंद’ कहा है। वह सत है क्योंकि उसका विनाश नही होता, वह चित है क्योंकि स्वयं प्रकाशमान और ज्ञानमय है तथा आनंद रुप है इसलिये कि वह प्रेममय है। यदि वह आनंदात्मक न हो तो उसके अस्तित्त्व और और चैतन्य की क्या सार्थकता रह जायेगी। सत-चित का भी प्रयोजन यह आनंद या प्रेम ही है। इसी प्रेम लक्षण के वशीभूत होकर वह परिपूर्ण, अखंड ब्रह्म सृष्टि के लिए विवश हो गया। वह न अकेले प्रेम कर सका , न तृप्त हो सका और न आनंद मना सका। तब उसके मन में एक से अनेक बन जाने की इच्छा हुई और वह सृष्टि कर्म में प्रवृत्त हुआ।

आनंद स्वरूप प्रेम से ही सभी भूतों की उत्पत्ति होती है, उसमें ही लोग जीते हैं और उसमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं। यही तथ्य तैत्तिरीयोपनिषद (३.६) की पंक्तियों में प्रतिपादित किया गया है।

प्रेम शब्द इतना व्यापक है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड और उससे परे जो कुछ है- सब इसकी परिधि में आ जाते हैं। प्रेम संज्ञा भी है और क्रिया वाचक भी है। संज्ञा इसलिये कि सब में अंत:स्थ भाव रुप (मन का स्थायी भाव) है और यह भाव व्यक्त भी होता है अव्यक्त भी। क्रियात्मक इसलिये कि समस्त चराचर के व्यापारों का प्रेरक भी है व्यापारात्मक भी है। किन्तु मूल है अंत:स्थ का अव्यक्त भाव, जो अनादि और अनंत है, जो सर्वत्र और सब में व्याप्त है। यही अव्यक्त भाव रुप प्रेम सात्विक, राजस और तामस इन तीन गुणों के प्रभाव से विविध विकारों के रुप में बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है और व्यवहार में व्यक्त होता है ।

यही प्रेम बडों के प्रति आदर, छोटों के लिए स्नेह, समान उम्र वालों के लिए प्यार, बच्चों के लिए वात्सल्य, भगवान् के प्रति भक्ति , आदरणीय लोगों के लिए श्रद्धा, जरूरतमंदों के प्रति दया एवं उदारता से युक्त होकर सेवा, विषय-सुखों के संबध में राग और उससे उदासीनता के कारण विराग, स्व से (अपने से) जुडे रहने से मोह और प्रदर्शन से युक्त होकर अहंकार, यथार्थ में आग्रह के कारण सत्य, जीव मात्र के अहित से विरत होने में अहिंसा, अप्रिय के प्रति अनुचित प्रतिक्रिया के कारण घृणा और न जाने किन-किन नामों से संबोधित होता है। प्रेम तो वह भाव है जो ईश्वर और सामान्य जीव के अंतर तक को मिटा देता है। जब अपने में और विश्व में ऐक-जैसा ही भाव आ जाय, और बना रहे तो वह तीनों गुणों से परे शुद्ध प्रेम है।

यह प्रेम साध्य भी है प्रेम पाने का साधन भी है। साधारण प्राणी सर्वत्र ऐक साथ प्रेम नहीं कर सकता-इस तथ्य को देखते हुए ही हमारे देश के पूज्य महर्षियों ने भक्ति का मार्ग दिखाया जिससे मनुष्य अदृश्य ईश्वर से प्रेम कर सके। इन्द्रियों के वशीभूत दुर्बल प्राणियों के लिए ईश्वर से प्रेम की साधना निरापद है जबकि लौकिक प्रेम में भटकाव का भय पग-पग पर बना रहता है। ईश्वरीय प्रेम को सर्वोच्च प्रतिपादित करने के पीछे यही रहस्य छिपा है और ईश्वरीय प्रेम का अभ्यास सिद्ध होने के पश्चात प्राणी ‘तादात्म्य भाव’ की स्थिति में आरूढ़ हो जाता है और तब शुद्ध प्रेम की स्थिति उसे स्वयंसिद्ध हो जाती है। प्रेम की इस दशा में पहुंचकर साधक को अपने ही अन्दर सारा विश्व दृष्टिगोचर होने लगता है और संपूर्ण विश्व में उसे अपने ही स्वरूप के दर्शन होने लगते है। समस्त चराचर जगत में जब अपने प्रियतम इष्ट के दर्शन होने लगें तो समझ लेना चाहिऐ कि हमें अनन्य और शाश्वत प्रेम की प्राप्ति हो गयी।

(कल्याण से साभार)

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