बुद्धि की सिद्धि-हिन्दी व्यंग्य कविता


इतिहास में लिखा

हर शब्द सत्य है

यह कौन कहता है।

अस्त्र शस्त्रों से

लड़े गये युद्ध

विजेता और पराजित

बड़े वीरों का

प्रसिद्ध हुआ नाम

मगर रक्त बहाने वालों

आम इंसानों की चर्चा  पर

हर कोई मौन रहता है।

कहें दीपक बापू बुद्धि की सिद्धि से

आज उगे फल को

कल बोया ही जानो,

आज बो रहे हो

वह कल सामने होगा

यह भी मानो,

घटना और पात्र हर बार

पर्दे पर बदल जाते हैं,

मगयर भूमिका  एक जैसी पाते हैं,

इतिहास के कूड़ेदान में

अमृत ढूंढनें के लिये मत रुको

समय एक नदी की तरह है

वही जल भरो

सामने जो नदी में मौन बहता है।

—————–

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”,Gwalior madhya pradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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योग और तप से पवित्रता आती है-पंतजलि योग साहित्य


            विश्व में पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव से गर्मी का प्रभाव बढ़ रहा है। इससे मनुष्य ही नहीं वरन् पक्षु पक्षियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव देखा जा सकता है।  सामान्य लोग प्रत्यक्ष दैहिक दुप्प्रभाव देख सकते हैं मगर इस प्रदूषण से पैदा होने वाले  अप्रत्यक्ष मानसिक तथा वैचारिक दोषों को केवल मानसिक और सामाजिक विशेषज्ञ ही समझ पाते हैं। पर्यावरण प्रदूषण, आधुनिक साधनों का दिनचर्या में निरंतर उपयोग तथा असंतुलित सामाजिक व्यवहार से लोगों की मनस्थिति अत्यंत क्षीण होंती जा रही है।

            भारतीय योग साधना का नियमित अभ्यास करने के बाद ही हम इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि एक सामान्य और योगाभ्यासी मनुष्य में क्या अंतर है? कुछ वर्ष पूर्व योगाभ्यास प्रारंभ करने वाले एक योग साधक ने इस लेखक को बताया  अनेक बार कुछ व्यक्ति कुछ बरसों के बाद मिले तो उनके व्यवहार में अनेपक्षित परिवर्तन का अनुभव हुआ।  पहले लगा कि यह उम्र या परिवार की वजह से हो सकता है पर धीमे धीमे लगा कि कहीं न कहीं पर्यावरण प्रदूषण तथा अन्य कारण भी कि उनके असंतुलित व्यवहार के लिये जिम्मेदार है।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि

——————————-

कायेन्द्रियसिद्धिशुद्धिखयत्तपसः।

            हिन्दी में भावार्थ-तप के प्रभाव से जब विकार नष्ट होने के बाद प्राप्त शुद्धि से शरीर और इंद्रियों में सिद्धि प्राप्त होती है।

            हम यह नहीं कहते कि सभी लोग मानसिक रूप से मनोरोगी होते जा रहे हैं पर सामाजिक तथा स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात को मान रहे हैं कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग दैहिक रोगों का शिकार हो रहा है जिससे विकृत या बीमार मानसिकता का दायर बढ़ता रहा है।  भारतीय योग विधा का प्रभाव इसलिये बढ़ रहा है क्योंकि पूरे विश्व के स्वास्थ्य विशेषज्ञ मान रहे हैं है कि इसके अलावा कोई अन्य उपाय नहीं है। भारतीय योग साधना में आसन, प्राणायाम, धारण और ध्यान की ऐसी प्रक्रियायें हैं जिनमें तपने से साधक में गुणत्मक परिवर्तन आते हैं।  इसके लिये हमारे देश में अनेक निष्काम योग शिक्षक हैं जिनसे प्रशिक्षण प्राप्त किया सकता है। इस संबंध में भारतीय योग संस्थान के अनेक निशुल्क शिविर चलते हैं जिनमें जाकर सीखा जा सकता है।

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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देह के अंदर और बाहर दोनों की सफाई आवश्यक-2 अक्टूबर महात्मा गांधी जयंती पर भारत स्वच्छता अभियान पर विशेष हिन्दी लेख


            प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान वहां के राष्ट्रपति बराक ओबामा को महात्मा गांधी रचित श्रीगीता प्रदान की।  हम जैसे योग तथा अध्यात्मिक साधकों के लिये श्री नरेंद्र मोदी की अध्यात्म तथा योग के प्रति जो लगाव है वह अत्यंत रुचिकर विषय है।  इसका कारण यह है कि सामान्य जीवन बिताने वाले साधक की अध्यात्मिक क्षमता पर अन्य लोग सहजता से विश्वास नहीं करते क्योंकि बिना बड़ी भौतिक उपलब्धि के किसी को हमारा समाज ज्ञानी नहीं मानता।  यह मानवीय गुण है  वह शक्तिशाली, उच्च पदस्थ और धनिक के आचरण का सभी  लोग अनुसरण करते हैं।  भगवान श्रीकृष्ण ने मद्भागवत गीता में इस बात का उल्लेख भी किया है कि श्रेष्ठ व्यक्ति का पूरा समाज अनुसरण करता है। उन्होंने स्वयं ही महाभारत युद्ध में श्रीअर्जुन का सारथि बनना इसलिये भी स्वीकार किया ताकि उन्हें शस्त्र भी न उठाना पड़े और कर्म से विमुख होने का आरोप भी न लगे।  श्रीमोदी भी योग तथा अध्यात्मिक दर्शन में रुचि रखने के बाद भी भारत का सर्वोच्च राजसी पद धारण किये हुए हैं इससे उनकी साधना से मिली सिद्धि का परिणाम भी माना जा सकता है। यही कारण है कि आजकल पूरे विश्व में भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तथा योग साधना की चर्चा भी खूब हो रही है।

            श्रीमोदी ने सत्ता संभालने के पद निंरतर सक्रियता दिखाई दी है।  उन्होंने 2 अक्टुबर को महात्मा गांधी जयंती पर भारत में स्वच्छता अभियान प्रारंभ करने की घोषणा करने के साथ ही संयुक्त राष्ट्रसंघ में योग दिवस मनाने का प्रस्ताव देकर भारत के अध्यात्मिक प्रेमियों को जहां प्रसन्न किया वहीं शेष विश्व को भी चकित कर दिया है।  जहां बाहरी स्वच्छता से देह की इंद्रियां सुख ग्रहण करती हैं वहीं योग से अंदर भी ऐसी स्वच्छता का भाव पैदा होता है जिससे यही धरती स्वर्ग जैसी लगती है।  भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार उनको ज्ञानी भक्त प्रिय है। ज्ञानी भक्त की पहचान यह दी गयी है कि जो स्थिर, स्वच्छ तथा पवित्र स्थान पर त्रिस्तरीय आसन बिछाकर प्राणायाम तथा ध्यान करे।  इसका सीधा आशय यही है कि पहली स्वच्छता बाहर ही होना चाहिये क्योंकि उसका प्रत्यक्ष संबंध देह से है।  देह हमेशा ही प्रथमतः बाह्य वातावरण से प्रभावित होती है।  अगर वह वातावरण सकारात्मक है तो फिर बुद्धि, मन और विचारों की स्वच्छता के लिये योग साधना सहजता से की जा सकती है। इस तरह आंतरिक तथा बाह्य स्चच्छता जीवन में ऐसा आत्मविश्वास पैदा करती है कि मनुष्य जिन संासरिक विषयों में बड़ी उपलब्धि पाने के लिये लालायित रहता है वह उसे सहजता से प्राप्त कर लेता है। योग साधना के अभाव में  दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक रुगणता होने से जहां  मनुष्य एक साधक की अपेक्षा अधिक सांसरिक विषयों में उपलब्धि करने के लिय उत्सुक रहता है वहीं शक्ति के अभाव में हारता भी जल्द है।

            2 अक्टुबर 2014 महात्मा गांधी की जयंती का दिन पिछले अन्य वर्षों की अपेक्षा अधिक चर्चा का विषय इसलिये ही बना है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी न केवल राजनीतिक विषय बल्कि आर्थिक, सामाजिक तथा अध्यात्मिक विषयों में भी नये प्रकार का स्फूर्तिदायक संदेश दे रहे हैं।  हमारी तो यही कामना है कि वह सफल हों।  हम जैसे सामान्य, स्वतंत्र तथा मौलिक विचार लेखकों की अपनी कोई महत्वांकाक्षा नही होती पर यह कामना तो होती है कि अपने आसपास के लोग भी प्रसन्न रहे।  योग साधना, गीता अध्ययन तथा सात्विक कर्म से ही यह जीवन सहजता से जिया जा सकता है। हमारे ब्लॉग पाठकों की संख्या अधिक नहीं है और न ही ऐसे संपर्क सूत्र है कि किसी प्रधानमंत्री तक अपनी बात पहुंचा सके।  इसलिये अपने पाठकों से ही अपनी बात कहकर दिल खुश करते हैं।  योग तथा श्रीगीता पर किस भी व्यक्ति की सक्रियता हमें प्रसन्न करती है इसलिये ही यह लेख भी लिखा है। हम आशा करते हैं कि प्रधानमंत्री अपने नियमित कर्म में सफल रहकर देश एक नया अध्यात्मिक मार्ग का निर्माण करेंगे।

 

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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हिन्दी दिवस पर सम्मान-हास्य कविता


रास्ते में तेजी से चलता

मिल गया फंदेबाज और बोला

‘‘दीपक बापू तुम्हारे पास ही आ रहा था

सुना है दस सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग लेखक

सम्मान पाने वाले हैं,

ऐसा लगता है हिन्दी के अंतर्जाल पर भी

अच्छे दिन आने वाले हैं,

हो सकता है तुमको भी

कहीं से सम्मान मिल जाये,

हमारा छोटा शहर भी

ऐसी किसी खबर से हिल जाये,

आठ साल अंतर्जाल पर हो गये लिखते,

पहल दिन से आज तक

तुम फ्लाप कवि ही दिखते,

मिल जाये तो मुझे जरूर याद करना

मैंने ही तुम्हारे अंदर हमेशा

उम्मीद जगाई,

सबसे पहले दूंगा आकर बधाई।

सुनकर हंसे दीपक बापू और बोले

‘‘अंतर्जाल पर लिखते हुए अध्यात्म विषय

हम भी हम निष्काम हो गये हैं,

कोई गलतफहमी मत रखना

हमसे बेहतर लिखने वाले

बहुत से नाम हो गये हैं,

हमारी मजबूरी है अंतर्जाल पर

हिन्दी में लिखते रहना,

शब्द हमारी सासें हैं

चलाते हैं जीवन रुक जाये वरना,

मना रहे हैं जिस तरह

टीवी चैनल हिन्दी दिवस

उससे ही हमने प्रसन्नता पाई,

नहीं मिलेगा हमें यह तय है

फिर भी देंगे

सम्मानीय ब्लॉग लेखको को हार्दिक बधाई,

हम तो इसी से ही प्रसन्न हैं

हिन्दी ब्लॉग लेखक शब्द

अब प्रचलन में आयेगा,

अपना परिचय देना

हमारे लिये सरल हो जायेगा,

सम्मान का बोझ

नहीं उठा सकते हम,

उंगलियां चलाते ज्यादा

कंधे उठाते कम,

इसी से संतुष्ट हैं कि

अंतर्जाल पर हिन्दी लिखकर

हमने अपने ब्लॉग लेखक होने की छवि

अपनी ही आंखों में बनाई।

————

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

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सोने के अंडे देने वाली मुर्गी कभी नज़र नहीं आयी-हिंदी व्यंग्य कविता


कई ठगों ने बेच दी

लोगों को  सोने का अंडा देने वाली मुर्गी

मगर धरती पर कभी नज़र नहीं आयी।

बहुत से आशिकों ने

माशुकाओं से किया वादा

आसमान से तारे तोड़ लाने का

मगर जमीन पर

कभी चमक नज़र नहीं आयी।

इंसानों की पीढ़ियां गुजर गयी

हाथ उठाये आकाश की तरफ

दरियादिली बरसने की आस में

मगर किसी फरिश्ते की छवि

इस धरती पर नज़र नहीं आयी।

कहें दीपक बापू कुदरत का कमाल है

हर शय मौजूद है इंसानी शरीर में

फिर भी बेखबर हैं सभी

ढूंढने जाते खुशी बाज़ार में पैसा लेकर

खर्च कर भी तसल्ली

किसी में नज़र नहीं आयी।

————–

नाचते नाचते मोर

थकने के बाद अपनै मैले पांव

देखकर रोता है।

इंसान भी चढ़ जाता

धन पद और प्रतिष्ठा के शिखर पर

फिर अकेले में बोर होता है।

बेजुबानों की मौत भी होती लापता

इंसान को लगता है छोटा घाव

तब बहुत शोर होता है।

कहें दीपक बापू कुदरत का खेल

बहुत अजीब है,

जिनकी जेब भरी

बेदिल होकर भी कहलाते दिलवाले

पसीने में दिल लगाता इंसान

कहलाता गरीब है,

कोई नहीं लगता हिसाब

कोई इंसान जिंदादिल होकर

कितना समय बिताता

कितनी उम्र मुफ्त में खोता है।

——————–

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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विकास और दौलत-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


अपनी हालातों से लाचार लोग दूसरों की ताकते हैं,

दौलत के पहाड़ पर बैठे लोग उसकी केवल ऊंचाई नापते हैं।

कहें दीपक बापू फैशन के नाम पर लोग कर रहे

अपनी जिंदगी से खिलवाड़

रौशनी के लिये लगा लेते अपने ही घर में आग

वह रोते है मगरं  तमाशाबीन उस पर हाथ तापते हैं।

———

कन्या भ्रुण हत्या करते हुए थका नहीं समाज,

वर के लिये वधुओं के आयात की बात हो रही आज,

कहें दीपक बापू  लोग अपनी पुरानी सोच को

आधुनिक विज्ञान के साथ ढो रहे हैं,

बेजुबान पशु पक्षी की तरह जीना मंजूर कर लिया

मनुष्य शरीर है पर अक्ल खो रहे हैं,

अब बारी आ रही है जब नस्ल पर ही गिरेगी गाज।

———–

तख्त पर जो बैठ जाये वही बुद्धिमान कहलाता है,

खामोश भीड़ सामने बैठती वह रास्ता बतलाता है।

कहें दीपक बापू कुदरत का नियम है बड़ो के बोले भी बड़े

छोटा वही ज्ञानी है जो अपने घाव खुद ही सहलाता है।

————

पुराने विकास के दौर में बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी हो गयी,

अब गिरने लगी हैं तो नये विनाश की कड़ी हो गयी।

कहें दीपक बापू नये विकास का कद तो बहुत ऊंचा होगा

विनाश का ख्याल नहीं उम्मीद अब पहले से बड़ी हो गयी।

———-

विकास को दौर पहले भी चलते रहे हैं,

चिराग अपना रंग बदलकर हमेशा जलते रहे हैं।

कहें दीपक बापू आम आदमी महंगाई के बाज़ार में खड़ा रहा

उसका भला चाहने वाले दलाल महलों में पलते रहे हैं।

एक बात तय है कि आज जो बना है कल ढह जायेगा,

पत्थरों से प्रेम करने वाला हमेशा पछतायेगा,

बड़े बड़े बादशाह तख्त बेदखल हो गये,

चमकीले राजमहल देखते देखते खंडहर हो गये,

इतिहास में उगे बहुत लोग उगत सूरज की तरह

मगर समय के साथ सभी ढलते रहे हैं।

————

भारत में आस्तिक और नास्तिक की पहचान कठिन-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन लेख


      अमेरिका में नास्तिकतावादी चर्चों का प्रभाव बढ़ रहा है- समाचार पत्रों प्रकाशित यह खबर दिलचस्प होने के साथ  विचारणीय भी है। पाश्चात्य दृष्टि से  ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने वालो को कहा जाता है। न करने वाले को नास्तिक का तमगा लगाकर निंदित घोषित किया जाता है। वहां के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण है जिनमें धर्मांध समाज के क्रूर शिखर पुरुषों ने नास्तिक होने को आरोप लगाकर अनेक लोगों को निर्दयी दंड दिया।  हमारे यहा आस्तिकता और नास्तिकता के विवाद अधिक  संघर्ष नहीं देखे जाते इसलियें ऐसे उदाहरण नहीं मिलते।  यह अलग बात है कि परमात्मा के अस्तित्व पर हार्दिक आस्था रखने वाले कितने हैं इसका सही आंकलन करना सहज नहीं है। कारण यह कि यहां धर्मभीरुता का भाव अधिक है इसलिये  कुछ चालाक लोग तो केवल इसलिये धर्म के धंधे में आ जाते हैं कि भीड़ का आर्थिक दोहन किया जा सके।  वह पुराने ग्रंथों को रटकर राम का नाम लेकर अपने मायावी संसार का विस्तार करते हैं।  माया के शिखर पर बैठे ऐसे लोग एकांत में वह परमात्मा पर चिंत्तन करने होंगे इस पर यकीन नहीं होता।  सच्ची भक्ति का अभाव यहां अगर न देखा गया होता तो हमारे हिन्दी  साहित्य में भक्तिकाल के कवि कभी ऐसी रचनायें नहीं देते जिनमें समाज को सहज और हार्दिक भाव से परमात्मा का स्मरण करने का संदेश दिया गया।  इतना ही नहीं संत कबीर और रहीम ने तो जमकर भक्ति के नाम पर पाखंड की धज्जियां उड़ाईं है। स्पष्टतः यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में भक्ति के नाम पर न केवल पाखंड रहा है बल्कि अपनी शक्ति अर्जित करने तथा उसके प्रदर्शन करने का भी यह माध्यम रहा है।

      अगर हम पाश्चात्य समाज में नास्तिकतावाद के प्रभाव की खबर को सही माने तो एक बात साफ लगती है कि कहीं न कहीं वहां वर्तमान प्रचलित धर्मों की शक्ति में हृास हो रहा है। हम यह सोचकर प्रसन्न न हों कि भारतीय धर्मों में कोई ज्यादा स्थिति बेहतर है क्योंकि कहीं न कहीं अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा के साथ ही रहन सहन तथा खान पान में हमने जो आदते अपनायी हैं उससे यहां भी समाज मानसिक रूप से लड़खड़ा रहा है।  यहां नास्तिकतवाद जैसा तत्व सामाजिक वातावरण में नहीं है पर अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति  व्याप्त उदासीनता का भाव वैसा ही है जैसा कि पश्चिम में नास्तिकवाद का है।

      हम यहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की बात करें तो उसमें ज्ञान और कर्मकांडों के बीच एक पतली विभाजन रेखा खिंची हुई है जो दिखाई नहीं देती।  श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्टतः स्वर्ग दिलाने वाले कर्मकांडों के प्रति रुचि दिखाने वालों को अज्ञानी बताया गया है।  मूल बात यह है कि भक्ति  आतंरिक भाव से की जाने वाली वह क्रिया मानी गयी है जो मानसिक विकारों से परे ले जाती है शर्त यह कि वह हृदय से की जाये।  इसके विपरीत भारत के बाहर पनपी विचाराधाराओं में अपने समूहों के लिये बकायदा खान पान और रहन सहन वाले बंधन लगाये गये हैं। इसके विपरीत भारतीय अध्यात्मिक दर्शन उन्मुक्त भाव से जीवन जीने की प्रेरणा देता है।  वह किसी वस्तु, विषय और व्यक्ति में दोष देखने की बजाय साधक को आत्ममंथन के लिये प्रेरित करता है।  इतना ही नहीं अध्यात्मिक दर्शन तो किसी कर्म को भी बुरा नहीं मानता पर वह यह तो बताता है कि वह अपनी प्रकृत्ति के अनुसार कर्ता को परिणाम भी देते हैं।  अब यह कर्ता को सोचना है कि किस कर्म को करना और किससे दूर रहना है। भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा के प्रवाह में लोच है।  वह परिवर्तन के लिये तैयार रहने की प्रेरणा देती है। अध्यात्मिक ज्ञान के साथ भौतिक विज्ञान के साथ संयुक्त अभ्यास करने का संदेश देती है।

      हम अक्सर विश्व में अध्यात्मिक गुरु होने के दावे का बखान करते हैं पर स्वयं अपनी मौलिक विचारधारा से दूर हटकर पाश्चात्य सिद्धांतों को अपना रहे हैं।  कहा जाता है कि अध्यात्मिक ज्ञान मनुष्य को मानसिक रूप से दृढ़ता प्रदान करता है जो कि सांसरिक विषयों में युद्धरत रहने के लिये आवश्यक है। भगवान के प्रति आस्था होने या न होने से किसी दूसरे को अंतर नहीं पड़ता वरन् हमारी मनस्थिति का ही इससे सरोकार है।  आस्था हमारे अंदर एक रक्षात्मक भाव पैदा करती है और सांसरिक विषयों संलिप्त रहते हुए सतर्कता बरतने की प्रेरणा के साथ आशावाद के मार्ग पर ले जाती है जबकि अनास्था आक्रामकता और निराशा पैदा करती है। तय हमें करना है कि कौनसे मार्ग पर जाना है।  संभव है कि हम दोनों ही मार्गों पर चलने वालों की भीड़ जमा कर लें पर हमारी दूरी हमारे स्वयं के कदम ही तय करते हैं और हमारा लक्ष्य हमारी तरह ही एकाकी होता है उसे किसी के साथ बांटना संभव नहीं है।

      भारत में नास्तिक विचाराधारा अभी प्रबल रूप से प्रवाहित नहीं है पर कुछ लोग हैं जिन्होंने यह दावा करना शुरू कर दिया है। ऐसे ही हमारे एक मित्र ने हमसे सवाल किया-‘‘आप भगवान पर विश्वास करते हैं?’

      हमने उत्तर दिया कि ‘‘पता नहीं!

      उसने कहा-‘‘पर आप तो अध्यात्म पर लिखते हैं।  यह कैसे हो सकता है कि परमात्मा पर विश्वास न करें।  मैं तो नहीं करता।’’

      हमने कहा-‘‘हम तो अभी शोध के दौर से हैं।  जब काम पूरा हो जायेगा तब आपको बतायेंगे।

      उसने व्यंग्यताम्क रूप से कहा-‘‘अभी तक साधना से आपने कुछ पाया है तो बताईये  भगवान है कि नहीं!’’

      हमने कहा-‘‘वह अनंत है। हमारा दर्शन तो यही कहता है।’’

      फिर उसने व्यंग्य किया-‘‘अरे वाह, सभी कहते हैं कि वह एक है।’’

      हमने कहा-‘‘वह एक है कि अनेक, यह बात कहना कठिन है पर वह अनंत है।’’

      वह झल्ला गया और बोला-‘‘आप तो अपना मत बताईये कि वह है कि नहीं?’’

      हमने कहा-‘‘अगर हम हैं तो वह जरूर होगा।’’

      वह चहक कर बोला-‘मैं हूं इस पर कोई संशय नहीं पर भगवान को नहीं मानता।’

      हमने पूछा-‘‘मगर तुम हो यह बात भी विश्वास से कैसे कह सकते हो।’’

      वह चौंका-‘इसका क्या मतलब?’’

      हमने कहा-‘हमने अध्यात्मिक ग्रंथों में पढ़ा है कि ब्रह्मा जी के स्वप्न की अवधि में ही यह सृष्टि चलती है।  हम सोचते हैं कि जब ब्रह्मा जी के सपने या संकल्प पर ही यह संसार स्थित है तो फिर हम हैं ही कहां? अरे, हमारी निद्रा में भी सपने आते हैं पर खुलती है तो सब गायब हो जाता है।’’

      वह थोड़ी देर खामोश रहा फिर बोला-‘यार, तुम्हारी बात मेंरी समझ में नहीं आयी।’’

      हमने कहा-‘हमने तुम्हारे भगवान के प्रति विश्वास या अविश्वास का उत्तर इसलिये ही नहीं दिया क्योंकि अध्यात्मिक साधना करने वाले ऐसे प्रश्नों से दूर ही रहते हैं।’’

      उस बहस का कोई निष्कर्ष निकलना नहीं था और न निकला। आखिरी बात यह है कि अध्यात्मिक साधना करने वालों के लिये इस तरह की बहसें निरर्थक होती है जिनमें व्यक्ति अपने प्रभाव बढ़ाने के लिये तर्क गढ़ते हैं।  अध्यात्मिक साधना नितांत एकाकी विषय है और परमात्मा के प्रति विश्वास या अविश्वास बताने की आवश्यकता अपरिपकव ज्ञानियों को ही होती है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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धर्म अब व्यवसाय बन गया है-हिन्दी व्यंग्य काव्य रचनायें


हर कोई बैठा है हाथ में लेकर मूर्तियां पुजवाने के लिये,

जिसकी नहीं पुजे लग जाता दूसरे की तुड़वाने के लिये।

किसी ने लगाया ने अपने माथे पर चंदन की टीका

किसी ने अपने चेहरे पर स्थापित दाढ़ी बढ़ा ली,

चाहे जहां सर्वशक्तिमान के नाम पर शब्दों की जंग लड़ा ली,

कहें दीपक बापू भक्ति का मसला दिल से जुड़ा है

धर्म के ठेकेदारों ने बना लिया धंधा कमाने के लिये।

———–

सर्वशक्तिमान की  भक्ति करने पर वह इतराते हैं,

दिल है खाली जुबान पर नाम लेकर इठलाते हैं।

कहें दीपक बापू पाखंड से पहचानी जा रही आस्था,

सत्य के नाम पर सत्ता का बना रहे रास्ता,

ज्ञान की राह कभी सभी समझी नहीं

रट लिये शब्द अब दूसरों को सिखलाते हैं।

———–

धर्म के मसले पर हर रोज नयी चर्चा हो जाती है,

शब्दों की भारी भीड़ अधर्म की पहचान पर खर्चा हो जाती है।

कहें दीपक बापू विद्वानों के बीच बहस की जगह जंग होती है

तस्वीरों से शुरु शून्य पर खत्म चर्चा हो जाती है।

——–

आओ कोई मुद्दा नहीं है धर्म पर बात कर लें,

बैठे बिठाये अधर्म पर घात कर लें।

मौन रहने में शक्ति है पर देखता कौन है,

अपनी छवि दिखाने के लिये सभी आमादा

शोर के बीच अकेला खड़ा है वह शख्स जो मौन है।

कहें दीपक बापू किसी ने जप लिये वेद मंत्र,

कोई बना रहा है सर्वशक्तिमान के नाम पर तंत्र,

रट लेते जिन्होंने शब्द ग्रंथ से

लगा लिया है उन्होंने धर्म का बाज़ार,

भ्रम के धुंऐं के बीच बेच रहे आस्था का अचार,

सच्चे ज्ञानी का इकलौता एक ही साथ मौन है।

—————

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

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गर्मी पर लिखकर बरसात लाने का प्रयास-फुर्सत में लिखा गया लेख


         देश में गर्मी पड़ना कोई नयी बात नहीं है।  सब जानते हैं कि जून का माह सबसे ज्यादा गर्म रहता है।  हिन्दू संवत् के अनुसार यह जेठ का महीना होता है जिसकी पहचान ही आग बरसाती गर्मी से होती है। जिन लोगों ने नियमित रूप से इस गर्मी का सामना किया है वह जानते हैं कि वर्षा ऋतु के आगमन का मार्ग यही जेठ का महीना तय करता है।  गर्मियों की बात करें तो नौतपा यानि नौ दिन तो भीषण गर्मी की वजह से ही पहचाने जाते हैं। हमारा बरसों से  यह अनुभव रहा है इन नौतपा में जमकर गर्म हवा चलती है।  धर की जिस वस्तु पर हाथ रखो वही गर्म मिलती है भले ही छाया में रखी हो।  इतना ही नहीं रात में भी गर्म हवा चलती है।  यह सब झेलते हैं यह सोचकर कि नौ दिन की ही तो बात है यह अलग बात है कि आजकल नौतपा इतने नहीं तपते जितने बाद के दिन तपाते हैं।  नौतपा समाप्त होते ही बरसात का इंतजार प्रारंभ हो जाता है। इस बार बरसात विलंब से आयेगी यह मौसम विशेषज्ञों ने बता दिया है इसलिये हम इसके लिये तैयार हैं कि जब तक पहली बरसात होगी तब तक यह झेलना ही है।

           वैसे देखा जाये तो पूरे विश्व में गर्मी का प्रकोप बढ़ा है।  माना यह जा रहा है कि दुनियां के सभी देश जो गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं उससे ओजोन परत में बड़ा छेद हो गया है। ओजोद परत वह है जो सूरज की किरणों को परावर्तित कर धरती पर आने देती है। जिस तरह हम देश की अनेक कालोनियों में देखतेे हैं कि लोग अपनी छतो पर एक हरी चादर लगा देते हैं जिससे कि सूरज की किरणे उनके आंगन पर सीधे न पड़ें और ठंडक रहे। यही काम धरती के लिये ओजोन परत करती है।  इसके जिस हिस्से मे छेद हो गया है वहां से सूरज की किरणें सीधे धरती पर आती हैं और यही विश्व में पर्यावरण प्रदूषण का कारण है।  विश्व के जिन हिस्सों में हमेशा बर्फ जमी रहती थी वहां इस गर्मी का प्रभाव होने से वह पिघल रही हैं। जिससे बरसात भी अधिक होती है।  यही कारण है कि आज जहां हम आग बरसते देख रहे हैं वहीं कुछ दिन में बाढ़ की स्थिति भी नजर आ सकती है।

        विशेषज्ञ पर्यावरण असंतुलन की जो बात करते हैं वह इसी ओजोन परत में बढ़ते छेद के कारण है।  हमने लू को झेला है। पहले सड़क पर चलते हुए ऐसा लगता था जैसे कि आग की भट्टी के थोड़ा दूर से निकल रहे हैं पर तो ऐसा लगता है जैसे उसके एकदम पास से चल रहे हैं।  एक समय यह तपिश असहनीय पीड़ा में बदल जाती है। अगर शरीर में पानी या खाना कम हो तो यकीनन आदमी बीमार हो जाये। संकट दूसरा भी है कि पहले की तरह निरंतर गर्मी से लड़ने की आदत भी नहीं रही।  दिन में कूलर या वातानुकूलन यंत्र की शरण लेनी ही पड़ती है या मिल ही जाती है।  हमने अपने पूरे शैक्षणिक जीवन में कूलर नहीं देखा था।  तपते कमरे में हमने पढ़ाई की है।  पूरे महीने भर तक इस गर्मी को झेलने की आदत रही है पर अब उकताहट होने लगती है। कभी कूलर या वातानुकूलन यंत्र की सीमा से बाहर आये तो पता लगा कि गर्मी ने पकड़ लिया या कभी गर्मी से इनकी सीमा में गये तो जुकाम का शिकार हो गये। इस समय बिजली की खपत बढ़ जाती है पर उत्पादन या आपूर्ति उस अनुपात में न बढ़ने से कटौती शुरु हो जाती है। यही कारण है कि बड़े शहर आमतौर से संकट का सामना करते हैं।  गांवों में लोग अपनी पुरानी आदत के चलते कम परेशान होते हैं पर शहर का आदमी तो बिजली के अभाव में कुछ ही घंटों में टूटने लगता है।

         दूसरी बात यह कि छतो पर सोने की आदत लोगों को नहंी रही। देखा जाये तो गर्मी के दिन छत पर सोने के लिये ही हैं।  इस समय मच्छर भीषण गर्मी में काल कलवित हो जाते हैं इसलिये उनके परेशान करने की संभावना नहीं रहती।  जिन लोगों पर छत की सुविधा है वह बिजली न होने पर सो सकते हैं पर जिनको नहीं है उनके लिये तो मुश्किल ही होती है।

      हम अंतर्जाल पर सात वर्षों से लिख रहे हैं।  प्रथम दो वर्षों में हमने गर्मी पर कविता लिखी तो उसी दिन वर्षा हो गयी।  मित्रों ने इस पर बधाई भी दी थी। पांच वर्षों से इस पर कभी सोचा नहीं पर इस बार की गर्मी से त्रस्त ही कर दिया है।  कल हमने गर्मी पर एक कविता लिखी तो आशा थी कि बरसात हो जायेगी-हालांकि विशेषज्ञों ने बता दिया है था कि तीन चार दिन आसार नहीं है। हमने आज यह लेख इस उम्मीद में लिखा है कि शायद बरसात हो जाये। कविता छोटी थी जबकि लेख बड़ा है इसलिये शायद इसका असर हो।  जब दुनियां टोटका कर सकती है तो हम तो स्वांत सुखाय लेखक हैं तो क्यों नहीं अपना स्वाभाविक टोटका आजमा सकते।

 

 

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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हिन्दी में लिख लिया तो समझ लो अच्छा दिन है-राष्ट्रभाषा पर निबंध


          देश में राजनीतिक परिवर्तन के साथ ही इस बात पर भी बहस एक टीवी चैनल पर चली कि क्या हिन्दी के भी अच्छे दिन आने वाले हैं? दरअसल इस बहस का आधार यह था कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के एक बहुत समर्थक  भी हैं।  वह भविष्य में  विदेशी नेताओं से हिन्दी में बात करेंगे।  इसे लेकर हिन्दी के कुछ विद्वान उत्साहित हैं।  उनका मानना है कि जिस तरह देश के आर्थिक विकास की लहर पूरे देश के अच्छे दिन आने के नारे को बहाकर लायी है उसी तरह हिन्दी भी अब अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानजनक स्थान प्राप्त करेगी।  हमारा मानना है कि हिन्दी भाषा अंततः भविष्य में वैश्विक भाषा बनेगी पर इसके लिये भारत के सामान्य जनमानस में यह विश्वास जगाना आवश्यक है कि भविष्य में उसका काम बिना हिन्दी के चलने वाला नहीं है।

         इसमें कोई संदेह नहीं है कि नये प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रभाव से ओतप्रोत हैं पर यह भी सच है कि देश में आर्थिक विकास करने के साथ ही संास्कृतिक उत्थान बिना सामान्य जन के बिना  संभव नहीं है।  हम यहां केवल हिन्दी भाषा की चर्चा कर रहे हैं इसलिये यह कहने में संकोच नहीं है कि इस संबंध में आम भारतीय का रवैया भी वही है जो उसका अपने जीवन को लेकर है।  जिस तरह वह यह आशा करता है कि उसके जीवन का उद्धार कोई अवतारी पुरुष करेगा वही हिन्दी के संबंध में भी उसकी धारणा है।  हर सभ्रांत व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे को अंग्रेजी में महारथ हासिल करना चाहिये और हिन्दी का सम्मान दूसरे लोग करें।  स्थिति यह है कि अनेक कलाकारों, विद्वानों, तथा लेखकों का जीवन हिन्दी भाषा के दम पर चल रहा है पर वह अपनी बात कहने के लिये अंग्रेजी का सहारा लेते हैं।  सबसे बड़ी बात यह है कि सभ्रांत वर्ग जो कि भाषा, संस्कृति, संस्कार तथा ज्ञान की रक्षा में सबसे ज्यादा योगदान देता है उसमें आत्मविश्वास का अभाव है। उसे नहीं लगता कि हिन्दी के सहारे आर्थिक विकास किया जा सकता है। उसका दूसरा संकट यह भी है कि वह पूरी तरह से अंग्रेंजी का आत्मसात भी नहीं कर पाया है। हमने अनेक कलाकारों, विद्वानों, तथा लेखकों को हिन्दी की खाते और अंग्रेजी की बजाते देखा है पर यह पता ही नहीं लग पाता कि वह अंग्रेजी में ही सोचते हैं या हिन्दी में सोचकर अंग्रेजी में बोलते हैं।  हिन्दी विद्वानों में भी भारी अंतर्द्वंद्व है। वह हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के लिये उसमें जमकर अंग्रेजी शब्द ठूंसने की बात करता है। परिणाम यह हो रहा है कि एक हिंग्लििश भाषा का निर्माण हो रहा है जो भविष्य में किसी काम की नहीं है। भाषा की रक्षा साहित्य से होती है और हिंग्लिश वाले किसी साहित्य रचना योग्य नहीं लगते।  जिनकी हिन्दी लेखन में रुचि है वह अपनी भाषा में शब्दों का प्रयोग सावधानी से करते हैं।

     बाज़ार हिन्दी भाषियों को उपभोक्ता से अधिक स्तर प्रदान नहीं करता।  अंतर्जाल पर भी यही हाल है। अंग्रेजी पर टीका टिप्पणी करने वालों को प्रचार माध्यम महत्व देते हैं।  किसी के हिन्दी वाक्य अगर प्रचारित होते हैं तो वह कोई बड़ा धनी, पदवान या कलाकार होता है।  सामान्य लोगों को अपने फेसबुक या ट्विटर पर आने वालों को यह प्रचार माध्यम दिखाते हैं पर किसी खास विषय पर लिखे गये किसी ब्लॉग या फेसबुक के ऐसे पाठ की चर्चा कभी नहीं देखी गयी जो किसी सामान्य लेखक ने लिखा हो।

     हिन्दी के अच्छे दिन आयेंगे या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता पर हिन्दी में लेखन करने वालों को यह कदापि आशा नहीं करना चाहिये कि उन्हें कोई सम्मान या पुरस्कार  चमचागिरी या संगठित ठेकेदारों की चरणवंदना किये बिना मिल जायेगा। हिन्दी लेखन तो स्वांत सुखाय ही हो सकता है।  अगर आप लेखक हैं तो अपनी कोई रचना लिख लें तो समझिये वही अच्छा दिन है। पिछले सात वर्षों से अंतर्जाल पर लिखते हुए हमने यही अनुभव किया है।

 

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
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बड़े लोग को छोटों से प्रेम करना पसंद नहीं होता-रहीम दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेख


      विश्व में राज्य से मुक्त अर्थव्यवस्था ने समाज में अनेक प्रकार के विरोधाभास पैदा किये हैं। कृषि, लघु उद्योग तथा व्यापार में लगे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। अधिकतर लोग नौकरियों के लिये कंपनियों की तरफ दौड़े जा रहे हैं। एक तरह से मध्यम वर्ग का दायरा सिमट रहा है। समाज में अधिक अमीरों की संख्या नगण्य मात्रा  जबकि गरीबों की संख्या गुणात्मक रूप से बढ़ रही है।  इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाला मध्यम वर्ग जहां संख्यात्मक दृष्टि से सिमटा है वहीं उसका आत्मविश्वास भी कम हुआ है।  वह गरीब कहलाना नहीं चाहता और अमीर बन नहीं पाता।  इतना ही नहीं अपने अस्तित्व के लिय संघर्ष कर रहे लोगों से यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वह समाज में सामंजस्य का वातावरण बनाये।

      भौतिकवाद के चक्कर मे फंसा समाज हार्दिक प्रेम, निष्प्रयोजन मित्रता तथा आदर्श व्यवहार के भाव से परे होता जा रहा है।  देखा जाये तो हमारे देश में जिस तरह धनिकों का भंडार बढ़ने के साथ ही  ही समाज में व्यसन, अपराध तथा शोषण की प्रवृत्ति भी तेजी बढ़ती  जा रही है।  कथित आर्थिक विकास ने नैतिकता का जहां विध्वंस करने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान की धारा को अवरुद्ध कर दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह कि विभिन्न समाजों के बीच ही नहीं बल्कि उनक अंदर ही सद्भाव काम कर दिया है। लोग औपचारिक रूप से आपसी संपर्क तो रखते हैं पर हार्दिक प्रेम का नितांत अभाव है।

कविवर रहीम कहते हैं कि

———-

रहिमन कीन्ही प्रीति, साहब को भावै नहीं,

जिनके अनगिनत भीत, हमैं, गरीबन को गनै।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-धनियों के अनेक मित्र बन जाते हैं। उनको गरीब लोगों से मित्रता करना अच्छा नहीं लगता। बड़े लोगों को छोटे लोगों की प्रीति अच्छी नहीं लगती।

      कंपनी नाम की व्यवस्था ने साहब, सचिव और सहायक का अंतर इस तरह स्थापित किया है कि लगता है कि यह कोई आधुनिक विभाजन है। विभिन्न पदों के लिये होने वाले प्रशिक्षण में यह बता दिया जाता है कि अपने से निचले स्तर के व्यक्ति के साथ समान सबंध स्थापित न करें वरना आपको अपने काम में ही परेशानी उठानी पड़ेगी।  धनिका परिवारों में भी निम्न वर्ग के लोगों को अपना अनुचर मानकर व्यवहार करने के संस्कार स्वाभाविक रूप से ही मिलते हैं।  अमीरों के अनुचर बनने वाले मध्यम और निम्न वर्ग के युवक युवतियों को यह आभास नहीं होता कि उन्हें उच्च वर्ग से हार्दिक प्रेम की आशा नहंी करनी चाहिये।  जीवन का यथार्थ यही है कि हर बड़ी मछली छोटी को ही खा जाती है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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जहान के गम से परेशान-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


जब तक तक उनके चेहरे पर नकाब था
उनकी सुंदरता के अहसास से ही
दिल में हलचल मची थी
उतारा तो हमारी आंखें ही उदास हो गयीं
ख्यालों में बसी उनकी तस्वीरें कहीं खो गयीं।
कहें दीपक बापू मिट्टी से बने रंग बिरंगे खिलौने
सजावट में घर की शोभा बढ़ाते हैं,
टूटे तो हम उनके लिये बेकद्री जताते हैं,
इंसान तोड़ते हैं जब भरोसा खिलौने की  तरह
तब टूटते हैं हम खुद
फिर ढूंढते अपनी दूसरी जगह आशायें
जो दिल में कही सो गयीं।
————-

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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झगड़े से बचने के लिये अज्ञानी की छवि बनाये रखें-संत मलूक दास के दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेख


     हमारे देश में दहेज परंपरा अब एक विकृत रूप ले चुकी है| सच बात यह है हमारे यहं लड़की के जन्म पर लोग इतने खुश नहीं होते जितना लड़के के समय होते हैं| इसकी मुख्य वजह यह है कि लड़की का बाप होने पर दूसरे के सामने झुकना पड़ता है जबकि लड़के कि वजह से दूसरे अपने सामने झुकते हैं| हमारे सामाजिक तथा अध्यात्मिक चिन्त्तक समाज का अनेक वर्षों से सचेत कर रहे हैं पर कोई सुधार नहीं हो रहा है| पहले तो कहा जाता था कि समाज अशिक्षित है पर अब तो यह देखा जा रहा है कि अधिक शिक्षित होने पर दहेज कि रकम अधिक मिलती है|

गुरुवाणी में कहा गया है

—————————

होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो

      हिंदी में भावार्थ-श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अनुसार लड़की के विवाह में  ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।

हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।’


हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।

     दहेजहमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है।चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा सेमुक्त नहीं है।अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों कासम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा कोअपने यहां समाहित कर लेते हैं।इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाताहै क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भीबनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीतिका हिस्सा नहीं है।कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यहमानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो हमारी पहचान हैं  मिटने नहीं चाहिए।  कोई भी धर्म या  समाज हो  कथित रूप से इसी पर इतराता है।

      इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने घर पर धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं। सच बात तो यह है कि यह पर्थ हमारे समाज के अस्तित्व पर संकर खड़ा किये हुए है और अगर यह ख़त्म नहीं हुए तो एक दिन यह समाज भी कह्तं हो जाएगा।

————————————-

 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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गरीबी का दर्द-हिंदी व्यंग्य कविता


जिन्होंने देखी नहीं कभी गरीबी

क्या रहेगी उनकी दर्द से करीबी

हमदर्दी के बयान देकर तालियां बटोर लें यह अलग बात है,

प्रचार सुख में गुजरता उनका दिन बहलती रात है।

कहें दीपक बापू पर्दे पर नकली जंग रोज दिखती है,

बंदूक और तोप नहीं कलम पहले उसकी पटकथा लिखती है,

पेशेवर सजाते  चित्र प्रदर्शनी जो समाचार जैसे लगते हैं,

देख कर वाह वाह कर रहे दर्शक खुद को ठगते हैं,

नायकत्व की छवि बन गयी है बहुत सारे इंसानी बुतों की

बाहर बैठे निर्देशकों के इशारे से पर्दे पर चलते फिरते हैं

मजे लेने में लगे लोग क्या जाने यह अंदर की बात है।

————-

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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सिंहासन और बादशाह -हिंदी व्यंग्य कविताएँ


जिनसे उम्मीद होती मौके पर सहारे की

वही ताना देकर हैरान करने लगें,

क्या कहें उनको

ढांढस देना चाहिये जिनको जिंदगी की जंग में

वही हमारी हालातों को देखकर डरने लगें।

कहें दीपक बापू ऊंचे महलों में जो रहते हैं,

महंगे वाहनों में सड़क पर साहबों की तरह बहते हैं,

दौलतमंद है,

मगर देह से मंद है,

मन उनके बंद हैं,

आदर्श के लिये युद्ध वह क्या लड़ेंगे

अपना घर बचाने के लिये

जो अपने से ताकतवर के यहां पानी भरने लगें।

————-

सिंहासन का स्वाद जिसने एक बार चखा

वह विलासिता का आदी हो जाता है,

दिन दरबार में बजाता चैन की बंसी

रात को राजमहल में निद्रा वासी हो जाता है।

कहें दीपक बापू दुनियां चल रही भगवान भरोसे

बादशाह अपने फरिश्ते होने की गलतफहमी मे रहते

आम आदमी अपने कड़वे सच में भी

भगवान दरबार में जाकर भक्ति का आनंद उठाता है।

——–

 

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

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ईमानदारी और मजबूरी-लघु हिंदी व्यंग्य कविताएँ


दौलत चाहे बेईमानी से घर में आये

पहरेदारी के लिये ईमानदार शख्स जरूरी है,

ईमानदारी अभी तक नहीं मिटी इस धरती पर

जिंदगी बचाने के लिये उसे बनाये रखना

सर्वशक्तिमान की मजबूरी है।

कहें दीपक बापू अमीरों के छल कपट से

बन जाते है महल

इसे भाग्य कहें या दुर्भाग्य

ईमानदारी की रिश्तेदार मजदूरी है।

——–

हमने तो वफा निभाई उन्हें अपना समझकर

वह उसकी कीमत पूछने लगे,

क्या मोल लगाते हम अपने जज़्बातों का

जो उन पर हमने लुटाये थे

बिना यह सोचे कि वह पराये हैं या सगे।

कहें दीपक बापू रिश्ता निभाना भी उन्होंने व्यापार समझा

जिसकी तौल वह रुपयों की तराजू में करने लगे।

—————

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

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क्रिकेट मैचों में हार की आशा नहीं आंशका होती है-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन लेख


      जब हमारे देश में हिन्दी के अधिक से अधिक उपयोग की बात आती है तो अनेक लोग यह कहते हैं कि भाषा का संबंध रोटी से है। जब आदमी भूखा होता है तो वह किसी भी भाषा को सीखकर रोटी अर्जित करने का प्रयास करता है। वैसे देखा जाये तो हिन्दी भाषा के आधुनिक काल की विकास यात्रा प्रगतिशील लेखकों के सानिध्य में ही हुई है और वह यही मानते हैं कि सरकारी कामकाज मेें जब तक हिन्दी को सम्मान का दर्जा नहीं मिलेगा तब हिन्दी राष्ट्रभाषा के पद पर वास्तविक रूप से विद्यमान नहीं हो सकती।

      हिन्दी के एक विद्वान थे श्रीसीताकिशोर खरे। उन्होंने बंटवारे के बाद सिंध और पंजाब से देश के अन्य हिस्सों में फैलकर व्यवसाय करने वाले लोगों का दिया था जिन्हेांने  स्थानीय भाषायें सीखकर रोजीरोटी कमाना प्रारंभ किया।  उनका यही कहना था कि जब हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाया जाये तो वह यकीनन प्रतिष्ठित हो सकती है।  इस लेखक ने उनका भाषण सुना था। यकीनन उन्होंने प्रभावपूर्ण ढंग से अपनी बात रखी थी।  बहरहाल हिन्दी के उत्थान पर लिखते हुए इस लेखक ने अनेक ऐसी चीजें देखीं जो मजेदार रही हैं। एक समय इस लेखक ने लिखा था कि कंप्यूटर पर हिन्दी  में लिखने की सुविधा मिलना चाहिये। मिल गयी।  टीवी पर हिन्दी शब्दों का उपयोग अधिक होना चाहिये।  यह भी होने लगा। हिन्दी के लिये निराशाजनक स्थिति अब उतनी नहंी जितनी दिखाई देती है।

      दरअसल अब हिन्दी ने स्वयं ही रोजीरोटी से अपना संबंध बना लिया है। ऐसा कि जिन लोगों को कभी हमने टीवी पर हिन्दी बोलते हुए नहीं देखा था वह बोलने लगते हैं। यह अलग बात है कि यह उनका व्यवसायिक प्रयास है।  अनेक क्रिकेट खिलाड़ी जानबूझकर हिन्दी समाचार चैनलों पर अंग्रेजी बोलते थे।  हिन्दी फिल्मों के अभिनेता भी पुरस्कार समारोह में अंग्रेजी बोलकर अपनी शान दिखाते थे।  अब सब बदल रहा है। यह अलग बात है कि हिन्दी को भारतीय आर्थिक प्रतिष्ठानों की बजाय विदेशी प्रतिष्ठिानों से सहयोग मिला है।

      आजकल क्रिकेट मैचों के  जीवंत प्रसारण का हिन्दी प्रसारण रोमांचित करता है। जिन चैनलों ने इस प्रसारण का हिन्दीकरण किया है वह सभी विदेशी पहचान वाले हैं।  इसमें ऐसे पुराने खिलाड़ी टीवी कमेंट्री करते हैं जिनको कभी हिन्दी शब्द बोलते हुए देखा नहीं था।  इनमें एक तो इतने महान खिलाड़ी रहे हैं जिनके नाम पर युग चलता है पर उन्होंने हिन्दी में कभी संवादा तब शायद ही बोला हो जब खेलते थे पर अब कमेंट्री में पैसा कमाने के लिये बोलने लगे हैं।  मजेदार बात यह है कि इन जीवंत प्रसारणों गैर हिन्दी क्षेत्र के खिलाड़ी अच्छी हिन्दी बोलते का प्रयास करते हुए जहां मिठास प्रदान करते हैं वही उत्तर भारतीय पुराने खिलाड़ी अनेक बार कचड़ा कर हास्य की स्थिति उत्पन्न करते हैं। इतना ही नहीं समाचार चैनलों पर भी कुछ उद्घोषक यही काम कर रहे हैं।

      सबसे मजेदार पुराने क्रिकेट खिलाड़ी  नवजोत सिद्धू हैं जो आजकल हिन्दी बोलने वालों में प्रसिद्ध हो गये हैं।  सच बात तो यह है कि हिन्दी में बोलते हुए  हास्य रस के भाव का सबसे ज्यादा लाभ उन्होंने ही उठाया है।  वह कमेंट्री के साथ ही कॉमेडी धारावाहिकों में भी अपनी मीठी हिन्दी से अपनी व्यवसायिक पारी खेल रहे हैं।  मूल रूप से पंजाब के होने के बावजूद जब वह हिन्दी में बोलते हैं तो अच्छा खासा हिन्दी भाषी साहित्यकार भी यह मानने लगेगा कि वह उनसे बेहतर जानकार हैं। मुहावरे और कहावतें को सुनाने में उनका कोई सानी नहीं है पर फिर भी कभी अतिउत्साह में वह हिन्दी के शब्दों को अजीब से उपयोग करते हैं।  टीवी उद्घोषक भी ऐसी गल्तियां करते हैं।  यह गल्तिया आशा आशंका, संभावना अनुमान, द्वार कगार और खतरा और उम्मीद शब्दों के चयन में ही ज्यादा हैं।

      अब कोई हार के कगार पर हो तो उसे आशा कहना अपने आप में हास्यास्पद है। अगर कहीं दुर्घटना हुई है तो वहां घायलों की संख्या में उम्मीद या संभावना शब्द जोड़ना अजीब ही होता है।  वहां अनुमान या आशंका शब्द उपयोग ही सहज भाव उत्पन्न करता।  उससे भी ज्यादा मजाक तब लगता है जब  कोई जीत के द्वार पर पहुंच रहा हो और आप उसे जीत की कगार की तरफ बढ़ता बतायें। नवजोत सिद्धू एक मस्तमौला आदमी हैं। हमारी उन तक पहुंच नहीं है पर लगता है कि उनके साथ वाले लोग भी ऐसे  ही है जिनको शायद इन शब्दों का उपयोग समझ में नहीं आता।  उनका शब्दों का यह उपयोग थोड़ा हमें परेशान करता है पर एक बात निश्चित है कि उन्होंने यकीनन उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती है और जब बोलते हैं तो कोई उनका सामना आसानी से नहीं कर सकता।

      खेल चैनलों में खिलाड़ियों के नाम हिन्दी में होते हैं।  स्कोरबोर्ड हिन्दी में ही आता है।  इससे एक बात तो तय है कि भारत में हिन्दी का प्रचार बढ़ रहा है पर हिन्दी भाषा की शुद्धता को लेकर बरती जा रही असावधनी तथा उदासीनता स्वीकार्य नहीं है। न ही हिंग्लिश का उपयोग अधिक करना चाहिये।  एक प्रयास यह होना चाहिये कि क्रिकेट खिलाड़ियों से भी यह कहना चाहिये कि वह पुरस्कार लेते समय भी हिन्दी में ही बोलें। शुरु में  पाकिस्तानी खिलाड़ियों से उनकी बोली में बात हुई थी पर यह क्रम अधिक समय तक नहीं चला। यह प्रयास रमीज राजा ने किया था। उन्होंने मैच के बाद पुरस्कार लेने आये भारतीय खिलाड़ियों से भी हिन्दी में बात की थी।  एक बात तय रही कि हिन्दी से रोटी कमाने वाले संख्या की दृष्टि बढ़ते जा रहे हैं पर उनका लक्ष्य हिन्दी से भावनात्मक प्रतिबद्धता दिखाना नहीं है।  हमें उम्मीद है कि हिन्दी से कमाने वाले जब भाषा से अपनी हार्दिक प्रतिबद्धता दिखायेंगे तक उसका शुद्ध रूप भी सामने आयेगा।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

कवि, लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर 

poet, writer and editor-Deepak “BharatDeep”,Gwalior

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मसले और मजबूरी-हिन्दी क्षणिका


हमें ऊंचे लक्ष्य की तरफ उन्होंने मदद का

भरोसा देकर ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर  धकेल दिया

मौका आया तो बताने लगे अपने मसले और मजबूरी,

यूं ही छोड़ जाते तो कोई बात नहीं

उन्होंने बना ली दिल से दूरी।

कहें दीपक बापू तन्हाई इतना नहीं सताती,

बिछड़ने के दर्द दूर करने की कोई दवा नही आती

हमने भी तय किया है

उसी जंग में उतरेंगे जो लड़ सकेंगे खुद ही पूरी।

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh

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दौलत के ढेर और आम इंसान-हिन्दी व्यंग्य कविता


आम इंसान जिंदा रहने के लिये मेहनत से जूझ रहा है,

जिसे मिला आराम का सामान वह मनोरंजक पहेलियां बूझ रहा है।

मुख से शब्दों की वर्षा करते हुए आसान है दिल बहलाना,

रोते अपने गम पर सभी नहीं आता दूसरे का दर्द सहलाना,

अपनी नीयत साफ नहीं पर पूरे ज़माने पर शक जताते,

अपनी गल्तियों पर जिम्मेदार खुद तोहमत गैरों पर लगाते,

बाज़ार से हसीन सपने खरीद लेते हैं सस्ते भाव में अमीर,

जज़्बातों के सौदे में कामयाब होते वही मार ले जो अपना जमीर,

कहें दीपक बापू दुनियां का कोई है उसूल यह बात जाओ भूल

दौलत के ढेर पर पहुंचा वही इंसान जो ज़माने का खून चूस रहा है।

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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

 

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सेवा के स्वांग स्वामी बनने के लिये किये जाते है-हिन्दी व्यंग्य कवितायें


जिनके महल रौशन है वह क्या अंधेरे घरों का दर्द जानेंगे,

रोटियों को ढेर जिनके सामने है वह भूख का क्या दर्द मानेंगे।

कांपते है जिनके हाथ व्यवस्था में बदलाव के नाम से

वह क्रांति का दावा बेबस लोगों के सामने करते हैं,

घूमते हैं कार में रिक्शा चालकों की चिंता का दंभ भरते हैं,

आदर्शवादी बाते कहना आसान है अमल में लाना जरूरी नहीं,

पर्दे पर चमक जाओ बयानों पर चलने की फिर मजबूरी नहंी,

पानी की प्यास पर देते हैं बहुत सारे बयान

घर में पीने के लिये उनके यहां समंदर भरे हैं,

प्यासों के दर्द पर जताते सहानुभूति वही

खुद प्यासे मरने के भय से जो डरे हैं,

कहें दीपक बापू नहीं मांगना रोटी और पानी

कभी भलाई के धंधेबाज दलालों से नहीं मांगना

तुम्हें भीड़ में भेड़ की तरह लगाकर अपना सीना तानेंगे।

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सेवा के स्वांग स्वामी बनने के लिये किये जाते हैं,

दूसरे लोग बदनाम अपनी इज्जत बढ़ाने के लिये किये जाते हैं।

हर इंसान जी रहा स्वार्थ के लिये पर परमार्थ का करता दावा,

पुजने के लिये सभी तैयार आता रहे रोज उनके पास चढ़ावा।

दूसरे को नसीहतें देते हुए ढेर सारे उस्ताद मिल जायेंगे,

दाम खर्च करो तो बड़े बड़े ईमानदार हिलते नज़र आयेंगे,

शिक्षा कहीं नहीं मिलती ज़माने से वफादारी दिखाने की,

गद्दारी करते सभी जल्दी कामयाबी अपने नाम लिखाने की,

कहें दीपक बोते सभी अपने घर में बबूल हमेशा

आम उगने की उम्मीद सर्वशक्तिमान से किये जाते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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